शृङ्गार
टिप्पणी : श्री ललिताचरण गोस्वामी द्वारा लिखित पुस्तक 'अनन्य रसिकों का भजन मार्ग' (वेणु प्रकाशन, वृन्दावन) के अनुसार वृन्दावन में राधा - कृष्ण भक्ति के कईं सम्प्रदाय हैं जिनमें से कोई तो सख्य भाव से आराधना करते हैं, कोई वात्सल्य भाव से, कोई दास्य भाव से, कोई मधुर भाव से, कोई शान्त भाव से आदि । इनमें से राधा वल्लभ सम्प्रदाय के आचार्यों द्वारा शृङ्गार भाव को प्रधानता दी गई है । साधारण रूप में, भक्त अपने इष्ट देव की आराधना १६ शृङ्गारों द्वारा करता है जैसे नाक, कान, गले आदि में आभूषण धारण कराना, वस्त्र पहनाना आदि । लेकिन सूक्ष्म रूप में वैदिक साहित्य की सहायता से यह समझना होगा कि शृङ्गार का वास्तविक तात्पर्य क्या हो सकता है । श्री रामकृष्ण कवि द्वारा रचित ग्रन्थ भरतकोशः ( मुन्शीराम मनोहरलाल, दिल्ली) में शृङ्गार के संदर्भ में शारदातनयः ग्रन्थ को उद्धृत करते हुए यह श्लोक दिया गया है -
देशकाल वयो द्रव्य गुण प्रकृति कर्मणाम् ।
भावानामुत्तमं यत्तु तच्छृङ्गं श्रेष्ठमुच्यते ।
इयर्ति शृङ्गं यस्मात्तु तस्माच्छृङ्गार उच्यते ।।
इसका अर्थ हुआ कि किसी विशेष समय पर जो भावों में उत्तम स्थिति है, वह शृङ्ग है और जो कर्म शृङ्ग पर पहुंचने में सहायता करता हो, वह शृङ्गार है । शृङ्ग की स्थिति को प्राप्त करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है । शृङ्ग की दिव्य स्थिति यदि प्राप्त नहीं की जा सकती तो शृङ्ग की नीचे की स्थितियां ही सही, उदाहरण के लिए स्वादिष्ट भोजन को प्राप्त करना, मैथुन आदि । और शृङ्ग की इन नीचे की स्थितियों में मृत्यु का भय छिपा होता है । अतः यह कहा जा सकता है कि मृत्यु के भय को न्यूनतम बनाना भी शृङ्गार के अन्तर्गत हो सकता है । राधा वल्लभ सम्प्रदाय में राधा का शृङ्गार प्रातःकाल स्नान के पश्चात् किया जाता है । वैदिक कर्मकाण्ड में इसका निकटतम रूप सोमयाग का प्रातःसवन हो सकता है । शतपथ ब्राह्मण चतुर्थ काण्ड में प्रातःसवन में १६ ग्रहों को ग्रहण करने की विधि का वर्णन किया गया है । इस वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि दिव्य और मर्त्य शृङ्गों की धारणा यहां भी है । हमारी चेतना के जिस अंश को दिव्य शृङ्ग का स्वरूप दिया जा सकता है, सबसे पहले वह कार्य किया जाता है । फिर जो चेतना सोई पडी है, उससे निपटने का उपाय किया जाता है । वैदिक भाषा में इसे निरुक्त और अनिरुक्त कहा गया प्रतीत होता है । निरुक्त चेतना वह है जिसमें इन्द्र नामक प्राणों का प्रवेश हो चुका है । अनिरुक्त चेतना वह है जिसमें इन्द्र प्राणों का समावेश नहीं किया जा सकता ।
सबसे पहले उपांशु - अन्तर्याम ग्रहों का ग्रहण किया जाता है । शतपथ ब्राह्मण के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे जो प्राण बाहर की ओर फैल रहे हैं, वह उपांशु कहलाते हैं (अंशु मुख्य प्राण है ) । प्राणों का यह फैलाव हमारी इन्द्रियों के माध्यम से हो सकता है । इन उपांशु प्राणों का नियन्त्रण आत्मा रूपी उपांशु सवन से करने का निर्देश है । उपांशु सवन का नियन्त्रण अन्तर्याम ग्रह या पात्र द्वारा किया जाता है । सरल भाषा में, इस कथन को इस प्रकार समझा जा सकता है कि हमारे स्थूल शरीर को जो शक्ति मिल रही है, वह सूक्ष्म शरीर से मिल रही है । जब सूक्ष्म शरीर का किसी कारण से लोप हो जाता है तो स्थूल शरीर निश्चेष्ट होकर गिर पडता है, पैर लडखडाने लगते हैं । सूक्ष्म शरीर को भी शक्ति कारण शरीर से मिल रही है, कारण शरीर को उससे ऊपर के शरीर से इत्यादि ।
दूसरा ग्रह ऐन्द्रवायव कहलाता है । इस ग्रह के वर्णन में कहा गया है कि देवों ने वायु से कहा कि तुम ही सबसे तीव्र गति से चलने वाली हो, अतः जाकर देखो कि वृत्र असुर मरा है या नहीं । तुम देखकर शीघ्रता से लौट भी सकती हो । पारिश्रमिक स्वरूप देवों ने वायु को यज्ञ में भाग देना स्वीकार किया । इन्द्र ने वायु से उस भाग में से अपना भाग भी मांगा । वायु ने उतना भाग देना स्वीकार नहीं किया जितने की इन्द्र ने मांग की थी । तब इन्द्र ने शाप दिया कि जितने भाग पर इन्द्र और वायु दोनों का अधिकार है, उस भाग में वाक् निरुक्त होगी । शेष तीन भागों में, जिनमें केवल वायु का ही अधिकार है, वाक् अनिरुक्त होगी । इसी कारण से वाक् के परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी भाग हो गए जिनमें से केवल वैखरी वाक् ही निरुक्त है, शेष अनिरुक्त हैं । इसका तात्पर्य यह होगा कि शृङ्गार रस के एक साधक को यदि इष्ट देव के गले में माला पहनानी है तो उसे ऐन्द्रवायव ग्रह के अनुसार आराधना करनी होगी । उसे अपनी देह में वायु जितनी तीव्र गति से, विद्युत जितनी तीव्र गति से प्रवाहित होने वाले प्राणों का विकास करना होगा । साधारण स्थिति में प्राणों की गति बहुत मन्द है । यदि इष्ट देव के गले में माला पहनानी है तो परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी चारों वाकों का विकास करना होगा ।
तीसरे ग्रह के रूप में मैत्रावरुण ग्रह का वर्णन है । इसके वर्णन में कहा गया है कि क्रतु मित्र है, दक्ष वरुण है । जो यह सोचते हैं कि ऐसा हो जाए, ऐसा हो जाए, वह क्रतु है । इसका तात्पर्य हुआ कि साधक को एक ऐसी स्थिति का विकास करना है जो कल्पवृक्ष जैसी हो - जहां किसी संकल्प का उदय होते ही वह पूरा हो जाता है । क्रिया की आवश्यकता नहीं पडती ।
चौथे ग्रह के रूप में आश्विन् ग्रह का वर्णन है । इस ग्रह के संदर्भ में एक आख्यान दिया गया है कि राजा शर्याति की सेना ने भूमि के अन्दर तपस्यारत च्यवन मुनि का अपमान कर दिया । इस पाप से सैनिकों को मल - मूत्र का विसर्जन बन्द हो गया । मल - मूत्र का नि:सरण तभी प्रारम्भ हो पाया जब राजा शर्याति ने अपनी कन्या सुकन्या का विवाह च्यवन से कर दिया । आख्यान में इसके पश्चात् वर्णन है कि अश्विनौ देवगण ने सुकन्या को लालच दिया कि तुम जीर्ण च्यवन ऋषि को त्याग कर हमारे पास आ जाओ । सुकन्या ने च्यवन से परामर्श करके उनसे कहा कि तुम असर्वा हो, सुसर्वा नहीं हो । पहले सुसर्वा बनो । अश्विनौ ने पूछा कि हम असर्वा कैसे हैं । तब सुकन्या ने कहा कि यह च्यवन ही बता सकते हैं । इस उत्तर के लिए पहले च्यवन को जीर्ण से युवा बनाओ । अश्विनौ ने च्यवन को जीर्ण से युवा बना दिया । च्यवन ने उन्हें शीर्ष - रहित यज्ञ को कैसे शीर्ष युक्त बनाया जा सकता है, इसका उपाय बता दिया । इस आख्यान से ऐसा लगता है कि वैदिक तथा पौराणिक आख्यान में जिसे च्यवन कहा गया है, वह आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की भाषा में peristalsis, आन्त्र का संकुचन - प्रसारण हो सकता है जिसके द्वारा भोजन आंतो में आगे सरकता है । ऐसी कल्पना की जा सकती है कि यदि आंतों को इस कार्य से मुक्ति मिल जाए तो यह संकुचन - प्रसारण की ऊर्जा अन्य उपयोगी कार्यों में लग सकती है । हमारे शरीर के सारे अंगों की एक स्वाभाविक कंपन आवृत्ति है । लेकिन वह अपनी स्वाभाविक आवृत्ति को कभी प्राप्त नहीं कर पाते क्योंकि जो कंपन हो रहा है, वह सारा भोजन हेतु हो रहा है । अतः एक साधक का यह कर्तव्य होगा कि वह अंगों की स्वाभाविक आवृत्तियों को उत्पन्न करे । आख्यान में इससे आगे कहा गया है कि अश्विनौ श्रोत्र/ओष्ठ हैं । इसका अर्थ हुआ कि श्रोत्र को जो आंतरिक कंपन मिल सकता है, वह भी आंतों के कम्पन का ही रूपान्तर होगा । हो सकता है कि शृङ्गार में यह कानों में कुण्डल पहिनाने के तुल्य हो ।
पांचवें ग्रह के रूप में शुक्रामन्थी ग्रह का वर्णन है । शुक्रामन्थी ग्रह - द्वय को चक्षु - द्वय कहा गया है । चक्षु - द्वय की स्थिति मुख पर नासिका के दोनों ओर होती है । नासिका को सोमयाग के यूप का प्रतीक कहा गया है । अतः यूप के दोनों ओर स्थित होकर शुक्र और मन्थी ग्रहों के लिए आहुति दी जाती है । यूप को ज्योति का एक स्तम्भ भी कहा जाता है जिसके आदि व अन्त का पता नहीं लग पाता । सोमयाग में यूप के अग्र भाग में एक चक्र रहता है जिसे चषाल कहते हैं । लगता है कि यह चषाल ही नासिका के नत्थिका आभूषण का मूल है । योग में चषाल सहस्रार चक्र हो सकता है ।
शुक्रामन्थी ग्रह के संदर्भ में यज्ञ से आसुरी शक्तियों शण्ड और मर्क के निष्कासन का निर्देश है । शण्ड/षण्ड नपुंसक को कहते हैं । मर्क धातु आदाने अर्थ में है । मन्थ के संदर्भ में कहा गया है कि वरुण ने सोम राजा की अक्षि का प्रतिपेषण कर दिया । इससे अश्व का जन्म हुआ । अक्षि से जो अश्रु निकला, उससे यव उत्पन्न हुआ । इसीलिए यव द्वारा मन्थ का निर्माण किया जाता है । यहां निहितार्थ यह है कि अक्षि की स्थिति में संकीर्णता है, अश्व की स्थिति में व्यापकता है । शण्ड का विकसित रूप शुक्र/सूर्य और मर्क का विकसित रूप मन्थ/चन्द्रमा बताया गया है । मन्थ क्या होता है, यह अन्वेषणीय है । मन्थ आनन्द की वह स्थिति हो सकती है जो सारी मर्त्य चेतना का मन्थन कर दे ।
इससे आगे आग्रयण और उक्थ ग्रहों का वर्णन है । कहा गया है कि आत्मा का जो भाग निरुक्त है, वह आग्रयण के अन्तर्गत आता है । जो अनिरुक्त है, वह उक्थ ग्रह के अन्तर्गत ।
उक्थ ग्रह के पश्चात् ध्रुव ग्रह का वर्णन है । कहा गया है कि जब तक साधक अपनी साधना में संलग्न है, तब तक उसे किसी प्राकृतिक आवेग - मल, मूत्र आदि से व्यथा प्राप्त नहीं होनी चाहिए । यह ध्रुव स्थिति है ।
प्रथम लेखन : १६.१२.२००८ई.