षड्गर्भ

      टिप्पणी: विभिन्न पुराणों में षड्गर्भ संज्ञक पुत्रों के नाम—

      अग्नि २७५.५०

      भागवत १०.८५.५१

      मत्स्य ४६.१३

      वायु ९६.१७३

      विष्णु ४.१५.२६

      सुसेन

      स्मर

      सुषेण

      सुषेण

      कीर्त्तिमान्

      कीर्त्तिमान्

      उद्गीथ

      कीर्त्तिमान्

      कीर्त्तिमान्

      सुषेण

      भद्रसेन

      परिष्वङ्ग

      उदासी

      तदय?

      उदायु

      जारु

      पतङ्ग

      भद्रसेन

      भद्रसेन

      भद्रसेन

      विष्णुदास

      क्षुद्रभृत्

      ऋषिवास

      यजुदाय

      ऋजदास

      भद्रदेह

      घृणी

      भद्रविदेह

      भद्रविदेक

      भद्रदेव


      षड्गर्भ की प्रकृति का अनुमान संगीत शास्त्र से लगाया जा सकता है। श्री शार्ङ्गदेव-कृत संगीत रत्नाकर १.२.१२९ में कण्ठ के विशुद्धि नामक चक्र के १६ दलों में निम्नलिखित की स्थिति कही गई है –

      तत्र प्रणव उद्गीथो हुंफड्वषडथ स्वधा। स्वाहा नमोऽमृतं सप्त स्वराः षड्जादयो विषम्॥

      हृदय के अनाहत नामक द्वादश-दल चक्र में निम्नलिखित गुणों की स्थिति कही गई है –

      लौल्यं प्रणाशः कपटं वितर्कोऽप्यनुतापिता। आशाप्रकाशश्चिन्ता च समीहा समता ततः। क्रमेण दम्भो वैकल्यं विवेकोऽहंकृतिस्तथा॥

      ऐसा कहा जा सकता है कि हृदय तथा उससे नीचे के चक्रों में जो गुण सोए पडे हैं, वह विशुद्धि चक्र में जाकर सक्रिय हो जाते हैं। ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है कि कण्ठ में जो प्रणव है, वह हृदय का स्मर है, कण्ठ का उद्गीथ हृदय का उद्गीथ है, कण्ठ का हुंफट् हृदय का परिष्वङ्ग है। हृदय की चिन्ता, आशा आदि को परिष्वङ्ग कह सकते हैं जो अंगों के चारों ओर लिपटे रहते हैं। तन्त्र शास्त्र में हुं के उच्चारण से कवच का तथा फट् के उच्चारण से अस्त्र का निर्माण किया जाता है। कवच से तात्पर्य होता है अपने किसी अंग के परितः देवताओं की स्थापना करना जिससे वह अंग देवताओं द्वारा सुरक्षित हो जाए। इसी प्रकार अस्त्र तेज का रूप है। वषट् तथा वौषट् को तन्त्र शास्त्र में क्रमशः शिखा व नेत्रत्रय से सम्बद्ध किया गया है। यह पतङ्ग के समकक्ष हो सकता है। कण्ठ के चक्र की स्वधा क्षुद्रभृद् के तुल्य हो सकती है। जो ऊर्जा क्षुद्र प्राणों के भरण में लग रही थी, उसे स्वधा, पितरों की तृ्प्ति करने वाली बनाना है। कण्ठ के चक्र की स्वाहा षड्गर्भ के घृणि के समकक्ष हो सकती है। स्वाहा का उच्चारण देवों की तृप्ति हेतु किया जाता है।

      अन्य पक्षः

      संगीत शास्त्र में प्रथम स्वर का नाम षड्ज है—छह से उत्पन्न हुआ। ऐसा अनुमान है कि संगीत का षड्ज स्वर सामवेद की हिंकार भक्ति के समकक्ष है। हिंकार वह अवस्था होती है जिसमें शक्तियां अव्यक्त स्थिति में अथवा अनिरुक्त स्थिति में रहती हैं, वैसे ही जैसे सूर्योदय से पूर्व की अवस्था। छान्दोग्य उपनिषद में पंचविध भक्ति के संदर्भ में वाक्, प्राण, मन आदि को हिंकार के अन्तर्गत गिनाया गया है। यह निश्चित रूप से जानने की आवश्यकता है कि संगीत शास्त्र के षड्ज स्वर का जन्म किन छह से होता है। षड्गर्भों के नामों से इसका कुछ संकेत तो मिलता ही है। भागवत पुराण का पतङ्ग मन का प्रतीक हो सकता है क्योंकि मन भी पतङ्ग/पक्षी की भांति होता है। क्षुद्रभृत् प्राण हो सकता है क्योंकि प्राण ही क्षुद्र स्थिति का भरण करता है। परिष्वङ्ग वाक् हो सकती है क्योंकि वाक् ही सारे अंगों से लिपटती है।

      प्रथम लेखन – ४-१-२०१२ई.(पौष शुक्ल ११, विक्रम संवत् २०६८)