स्वधा
टिप्पणी : अनुमानमस्ति यत् स्वधाशब्दस्य पूर्वरूपं श्वधा अस्ति – यः श्वः, भविष्यस्य धारकमस्ति। स्वाहाशब्दस्य पूर्वरूपं श्वहा अस्ति – यः भविष्यस्य हननं करोति। देवाः यत् कार्यं कुर्वन्ति, ते अद्यतनं कुर्वन्ति, न श्वस्तनम्। पितरः यं यं करिष्यन्ति, ते श्वस्तनं करिष्यन्ति।
तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.९.५, गोपथ ब्राह्मण २.१.२४, शतपथ ब्राह्मण २.६.१.२४ आदि में आश्रावण - प्रत्याश्रावण के संदर्भ में ॐ३ स्वधा, अस्तु स्वधा और स्वधा नम:( इस उच्चारण से वषट् किया जाता है ) का उल्लेख मिलता है—
आ स्वधेत्याश्रावयति । अस्तु स्वधेति प्रत्याश्रावयति । स्वधा नम इति वषट्करोति । स्वधाकारो हि पितृणाम् । - तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.९.५
अयं कथनं राजसूययागे पितृयज्ञविषये अस्ति। शतपथ ब्राह्मणे आ स्वधा स्थाने ओं स्वधा इति कथनमस्ति। ज्ञानप्राप्त्यै द्वावपि कथनौ ज्ञानप्रदातारौ स्तः। ओंकारे त्रयाः अक्षराः सन्ति – अ, उ, म। अ अक्षरेण ऊर्जायाः आह्वानं भवति। हे ऊर्जा मां आगमय। इयं अभीप्सा अस्ति। यावत् शिशुः रोदनं न करोति, तावत् पयः उपलब्धं न भवति। ओंकारस्य उ अक्षरः कर्षितायाः ऊर्जायाः सम्यक् संरक्षणं, क्षतात् रक्षणतः सम्बद्धः अस्ति। अस्य प्रतीकं अस्तु स्वधा अस्ति। अत्र अस्तु शब्दः वर्तमानकालतः सम्बद्धमस्ति। ब्राह्मणग्रन्थेषु सौत्रामणीयाग विषये कथनमस्ति यत् त्वष्टुर्यज्ञे इन्द्रः अनुपहूतः सन् यत् सोमपानमकार्षीत्, तस्य क्षरणं अस्थिभ्यः स्वधारूपेण अभवत्। अत्र अस्थ्यः अपि अस्तिशब्दस्य वाचकाः सन्ति, इति प्रतीयते। अयमपि संभवमस्ति यत् अस्थिषु स्वधायाः धारणं सर्वाधिकं दुष्करमस्ति। तेनैव कारणेन शवस्य अस्थीनां प्रवाहः गंगादीनां नदीनां सोमे करणीयं भवति, येन अस्थिषु स्वधायाः प्रवेशं भवेत्। जैमिनीयब्राह्मणे कथनमस्ति यत् सूर्यः अस्तंयन् वनस्पतिषु स्वधारूपेण प्रविशति। अतएव, प्रातःकाले अग्निहोत्रादि कार्यार्थं वनस्पतेः काष्ठं समिधार्थं गृह्यन्ते। यदा स्वधा वनस्पतिषु प्रवेशं करिष्यति, तदा किं भविष्यति। वनस्पत्यां गुरुत्वाकर्षणकारणेन, ग्रीष्म - शीतऋतु आदि कारणेन ये विकृतयः/अपकर्षणाः विद्यमानाः सन्ति, तेषां अपनयनं भविष्यति। तदानुसारेण अस्मिन् नवीनकाष्ठस्य निर्माणं भविष्यति यत् समित्, सममितिसहिता भविष्यति। एवमेव यदा स्वधा प्राणिवर्गे प्रवेक्ष्यति, तदा कामक्रोधादि ये अपकर्षककारणाः सन्ति, तेषां अपनयनं भविष्यति। कथनं अस्ति – अस्तु स्वधा। कामक्रोधादीनां अपकर्षकाणां अपनयने स्वधायाः अपक्षयं न भवेत्। सा स्वधा अक्षुण्णा भवेत्।
स्वधारक्षणार्थं सर्वेभ्यः प्रयत्नेभ्यः अनन्तरमपि स्वधायाः यः भागः क्षयं प्राप्स्यसि, तस्य बन्धनाय स्वधा नमः शब्दौ स्तः, अयं प्रतीयते। ओंकारे विकृतिप्राप्तायाः ऊर्जायाः प्रबन्धने म अक्षरः भवति। शिवः अस्य स्वामी भवति। सूक्ष्मरूपेण विकृतायाः ऊर्जायाः प्रबन्धनं केन प्रकारेण संभवमस्ति, अयं अविज्ञातमेव अस्ति।
यागस्य प्रकृत्यानुसारेण पितृयज्ञस्य विधानमपि परिवर्त्यते। सोमयागे पितृयज्ञः प्रयाजे निहितमस्ति, अयं प्रतीयते। तत्र पंच व्याहृतयः भवन्ति – आ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, ये यजामहे, यज, वौषट्। आ श्रावय शब्दयोः उच्चारणं अध्वर्युऋत्विक् करोति। अस्तु श्रौषट् शब्दयोः उच्चारणं आग्नीध्रसंज्ञकः ऋत्विक् स्वधिष्ण्ये करोति। उच्चारणकाले सः स्वहस्ते काष्ठनिर्मिता स्फ्यसंज्ञका असिः धारणं करोति। लोके शत्रुहननार्थं लौहनिर्मिता असिः भवति। यागे शत्रुहननार्थं ध्यानकाष्ठा असिः भवति। इत्यादि। वौषट् उच्चारणोपरि अग्नौ घृतस्य आहुतिः प्रदीयन्ते। कथनमस्ति यत् वौषट् उच्चारणेन सूर्यः ऋतुषु प्रवेशं करोति। अथवा अखण्डकालस्य विभाजनं ऋतुरूपेण भवति। आश्रावयादि १७ अक्षराः भवन्ति।
स्वधा को समझने के लिए वैदिक साहित्य में जो कुंजियां उपलब्ध हैं, उनमें से एक निम्नलिखित है जिसे अग्निहोत्र के संदर्भ में कहा गया है - असौ वा आदित्यो अस्तं यन् षोढा विम्रोचति। - - - -ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्।- - - अथ यत् समिधम् अभ्यादधाति यया स्वधया वनस्पतीन् प्रविष्टो भवति ताम् एवास्मिंस् तत् संभरति - जै.ब्रा. १.७
कहा जा रहा है कि जिस सूर्य ने सायंकाल स्वधा के रूप में वनस्पतियों में प्रवेश किया था, प्रातःकाल के अग्निहोत्र में उसे समित् के रूप में पुनः प्राप्त करते हैं। लेकिन वर्तमान संदर्भ में स्वधा के वनस्पति में प्रवेश का परिणाम समित् कहा जा रहा है। वनस्पति की एक विशेषता यह होती है कि वह पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध उगने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करती है। अतः समित् उस काष्ठ को कहा जा सकता है जिसमें प्रतिक्रिया काष्ठ जैसे कोश या सैल विद्यमान नहीं हैं।वनस्पति की एक विशेषता यह होती है कि काट दिए जाने पर वह फिर से अंकुरित हो जाती है। इसका कारण वनस्पति में विद्यमान स्टेम सैल हैं। स्टेम सैलों का विद्यमान होना समित् निर्माण में क्या योगदान करता है, यह अन्वेषणीय है। वनस्पति जगत के इन्हीं तथ्यों को मनुष्य जीवन में भी उतारा जा सकता है। मनुष्य अपने परिवेश को देखता रहता है और अपने अनुभव की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उसके शरीर के कोशों की संरचना में परिवर्तन होते होंगे। आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का कहना तो इतना ही है कि जब हम क्रोध में, भय की स्थिति में होते हैं तो शरीर की नाडियों से स्रवित होने वाले हारमानों की मात्रा में अथवा गुणों में परिवर्तन हो जाता है। लेकिन वैदिक साहित्य इंगित कर रहा है कि मूलभूत संरचना में ही अन्तर आ जाता है, हमारे शरीर के तन्तुओं में तनाव उत्पन्न हो जाता है। वैदिक साहित्य का कथन है कि एक उपाय है जिससे प्रतिक्रिया कोषों का बनना रोका जा सकता है। पहले तो हम वनस्पति बनें, किसी आवेग का, भय आदि का प्रतिकार अपने ही अन्दर कैसे करना है, प्रतिक्रिया काष्ठ कैसे बनाना है, यह सीखें। फिर कोई ज्ञान का सूर्य उदित होकर हमारे अन्दर समाए। तब हम प्रतिक्रिया को रोक सकते हैं और मूलभूत संरचना – स्वधा को धारण कर सकते हैं। कहा जा रहा है कि पितर केवल स्वधा पाकर ही तृप्त होते हैं, प्रतिक्रिया काष्ठ पाकर नहीं।
स्वधा शब्द का क्या तात्पर्य हो सकता है, इसके लिए पहले स्व को समझना होगा । वर्णमाला में अ, आ आदि १६ अक्षरों को स्वर तथा क, ख आदि को व्यञ्जन कहा जाता है । स्वरों में पंचभूतों में प्रकट होने वाली जडता नहीं होती, वह इन भूतों से रहित होते हैं, जबकि व्यञ्जनों में यह पांच महाभूत विभिन्न अनुपातों में प्रकट होते हैं । स्वरों की स्थिति विशुद्धि चक्र, ग्रीवा के चक्र के १६ दलों में होती है । इस चक्र से नीचे के चक्रों के दलों में व्यञ्जनों की स्थिति होती है । स्वर से स्व: की कल्पना की जा सकती है । यह शुद्ध समाधि की कोई स्थिति हो सकती है । इस स्व: की स्थिति में सभी चेतनाएं मिलकर एक हो सकती हैं, कोई भेद नहीं रहता ( विस्तार के लिए द्रष्टव्य : ७ चक्रों पर रजनीश की व्याख्यानमाला कुण्डलिनी और सात शरीर ) । समाधि से व्युत्थान पर इस स्व: द्वारा प्रदत्त विभूति को, आनन्द को धारण करने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की, पांच महाभूतों की आवश्यकता पडती है । इसे ही स्वधा कह सकते हैं, वैसे ही जैसे पृथिवी को वसुधा कहा जाता है । जैमिनीय ब्राह्मण के उपरोक्त कथन में जिस सूर्य का उल्लेख है, वह स्वः हो सकता है।
उपरोक्त धारणा की पुष्टि सौत्रामणी याग के संदर्भ में शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.९ के इस कथन से होती है कि जब इन्द्र ने अनुपहूत होते हुए भी यज्ञ में बलपूर्वक सोमपान कर लिया तो वह सोम उसके विभिन्न अंगों से विभिन्न रूपों में क्षरित हुआ । अस्थियों से वह स्वधा रूप में क्षरित हुआ( यहां स्वधा शब्द में व उदात्त और ध स्वरित है ) । अस्थि को अस्ति, समाधि का रूप ले सकते हैं ।
जैमिनीय ब्राह्मण के अग्निहोत्र के सम्बन्ध में कथन में सूर्य के वनस्पतियों में स्वधा रूप में प्रवेश करने का उल्लेख है लेकिन पुराणों के सार्वत्रिक कथन के अनुसार चन्द्रमा अमावास्या को ओषधि-वनस्पतियों में प्रवेश करता है जिससे उनका पोषण होता है। अमावास्या को ही पितर भी चन्द्रमा की अन्तिम कला द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। अध्यात्म में सूर्य से तात्पर्य ज्ञान से लिया जाता है। क्या चन्द्रमा से तात्पर्य प्रेम से हो सकता है, यह अन्वेषणीय है।
समित् और स्वधा का उल्लेख द्यूत के संदर्भ में अथर्ववेद ७.५२.६/७.५०.६, २०.८९.९, ऋग्वेद १०.४२.९ में भी आता है । ऋग्वेद के अनुसार जो देवकामी धन द्वारा रोधन नहीं करता है?, उसके लिए स्वधावान् रायः द्वारा समित् का सृजन करता है ।
पुराणों में स्वधा को दक्ष - कन्या और पितरों की पत्नी के रूप में प्रदर्शित किया गया है । अग्निष्वात्त पितरों व स्वधा के संयोग से हिमाचल - पत्नी मेना का जन्म होता है, बर्हिषद् पितरों व स्वधा के संयोग से मेरु - पत्नी धारिणी ( शिव पुराण के अनुसार जनक - पत्नी धन्या) का जन्म होता है तथा ? पितरों व स्वधा के संयोग से वृषभानु/सुचन्द्र - पत्नी कलावती का जन्म होता है । आगे वर्णन में मेना से गौरी का जन्म होता है, धन्या सीता का पालन करती है तथा कलावती राधा का। इस कथन के वैदिक मूल को खोजने के संदर्भ में, यह कहा जा सकता है कि पुराणों के तीनों प्रकार के पितरों के लिए स्वधा का वैदिक स्वरूप अलग - अलग है । स्वधा के यह तीन स्वरूप कौन से हो सकते हैं, यह अन्वेषणीय है । अथर्ववेद १८.४.७१-८० में पृथिविसद्, अन्तरिक्षसद् और दिविषद्, इन तीन प्रकार के पितरों के लिए स्वधा का उल्लेख मिलता है । साथ ही यहां स्वधा के तीन रूप प्रततामह, ततामह और तत उपलब्ध होते हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण १.६.९.५, गोपथ ब्राह्मण २.१.२४, शतपथ ब्राह्मण २.६.१.२४ आदि में आश्रावण - प्रत्याश्रावण के संदर्भ में ॐ३ स्वधा, अस्तु स्वधा और स्वधा नम:( इस उच्चारण से वषट् किया जाता है ) का उल्लेख मिलता है(कर्मकाण्ड में “तस्मै स्वधा तस्मै स्वधा तस्मै स्वधा” वाक्यांश का प्रयोग होता है)। ब्राह्मण ग्रन्थों के अनुसार वृष्टि कराने के लिए, चाहे वह भौतिक बादलों से वृष्टि हो या वत्स हेतु गौ के स्तनों से दुग्ध की, वषट्कार चरम परिणति होती है। इससे पहले के आवाहन वृष्टि-पूर्व की स्थितियों का सृजन करने हेतु होते हैं जैसे वत्स को लाना आदि। वषट् के लिए कहा गया है कि यह सूर्य का पृथिवी में अवतरण है(असौ वाव वौ, ऋतवः षट् – ऐतरेय ब्राह्मण)। स्वधा नमः वाक्यांश में स्वधा पितरों के लिए तथा नमः देवताओं के लिए कहा जाता है। हो सकता है कि यह तीन रूप पुराणों की उपरोक्त तीन स्वधाओं के रूप हों। उमा ओंकार का रूप हो सकती है, अस्तु स्वधा सीता का तथा स्वधा नमः राधा का?। दूसरी संभावना जैमिनीय ब्राह्मण २.१५९ के इस कथन से है कि प्रजापति ने रथन्तर द्वारा इस लोक में नष्ट स्वधा का अनुविन्दन किया /खोजा, वामदेव्यम् के द्वारा अन्तरिक्ष में नष्ट स्वधा का और बृहत् द्वारा उस लोक में नष्ट स्वधा का । रथन्तर, वामदेव्यम् व बृहत् के स्वरूप क्या होते हैं, इसकी एक झलक अथर्ववेद ८.११.४/८.१०.४ से मिल सकती है जहां उल्लेख है कि रथन्तर स्तन से देवों ने ओषधि रूप पयः को दुहा, वामदेव्य से आपः को और बृहत् से व्यच को । तीन प्रकार की स्वधाओं को समझने के संदर्भ में तीन प्रकार के पितरों की प्रकृतियों का उल्लेख करना भी उचित होगा । शतपथ ब्राह्मण २.६.१.५ का कथन है कि सोम प्रकार के पितरों के लिए षट्कपाल पुरोडाश अर्पित करे क्योंकि ऋतुएं ६ हो सकती हैं और ऋतुएं पितर हैं । बर्हिषद् पितरों के लिए अन्वाहार्यपचन अग्नि/दक्षिणाग्नि पर धानों का संस्कार करते हैं । आधे धान पिसे हुए होते हैं, आधे बिना पिसे हुए ( इस रहस्य का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि सोमयाग में आग्नीध्र नामक ऋत्विज की वेदी आधी बाहर होती है, आधी अन्दर । वह अन्तर्मुखी भी हो सकता है, बहिर्मुखी भी )। अग्निष्वात् पितरों के लिए निवान्या/नष्टवत्सा गौ का एकशलाका द्वारा मथित दुग्ध अर्पित किया जाता है । जिनकी सोम द्वारा इज्या की जाती है, वह सोमप पितर हैं। जो पक्व दत्त द्वारा लोक की जय करते हैं, वह बर्हिषद् पितर हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.६.४ से प्रतीत होता है कि बर्हिषद् पितरों के लिए ही स्वधा ऊर्क् में रूपान्तरित हो सकती है । और जो अन्य हैं, जिनका केवल अग्नि ही दाह करके स्वाद लेती है, वे अग्निष्वात्त पितर हैं । विभिन्न प्रकार की स्वधाओं को समझने के लिए शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.४ तथा तैत्तिरीय आरण्यक २.१०.१ का पंच महायज्ञ के संदर्भ में कथन भी उपयोगी हो सकता है । इसके अनुसार ऋचाएं/ऋग्वेद के मन्त्र देवों के लिए पयः की आहुतियों के समान हैं जो पितरों के लिए घृतकुल्या, मधुकुल्या रूपी स्वधा का वहन करती हैं । यजु/यजुर्वेद के मन्त्र देवों के लिए आज्य के समान हैं जो पितरों के लिए ००० । साम देवों के लिए सोम आहुतियों के समान हैं जो पितरों के लिए ००० । अथर्वाङ्गिरस/अथर्ववेद के मन्त्र देवों के लिए मेदाहुतियों के समान हैं जो पितरों के लिए ००० । अनुशासन, वाकोवाक्य, इतिहास, पुराण, गाथा, नाराशंसी मधु आहुतियों के समान हैं जो पितरों के लिए ००० । अतः एक संभावना यह हो सकती है कि तीन प्रकार के पितरों का निरूपण तीन वेदों के द्वारा किया जाता हो ।
सायणाचार्य द्वारा तैत्तिरीय आरण्यक १०.१०.३ में स्वधा की निरुक्ति इस प्रकार की गई है : स्वस्मिन्नेव धीयतेऽवस्थाप्यत इत्याश्रयान्तर रहिता ब्रह्मरूपा चित्स्वधा शब्देनोच्यते । वास्तुसूत्रोपनिषद की टीका में स्वधा को पचनात्मिका शक्ति कहा गया है, जबकि स्वाहा को दहनात्मिका शक्ति (दहन से अर्थ पापों के नाश से हो सकता है)। यह कथन बर्हिषद पितरों के संदर्भ में सत्य हो सकता है। बर्हिषद पितरों की स्थिति अन्वाहार्यपचन अग्नि खर पर होती है और अन्वाहार्यपचन अग्नि का उपयोग देवों को अर्पित की जाने वाली हवि को पकाने के लिए किया जाता है। जैसा कि पितर शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया गया है, पितरगण, हमारा अचेतन मन केवल पालन करते हैं, उनको कार्य करने के लिए अथवा पापों का नाश करने के लिए क्रिया में प्रयुक्त नहीं किया जाना चाहिए। हम जैसे भी हैं, उस स्थिति में अधिकतम दक्षता कैसे प्राप्त की जा सकती है, यह पितरों का कार्य होना चाहिए।
अथर्ववेद १३.६.२/१३.३.२२ में स्वधा का विलोम स्वर्ग प्राप्त होता है, वैसे ही जैसे भूत का भव्य । स्वर्ग शब्द की निरुक्ति भी स्व: गच्छति इति के रूप में कर सकते हैं ।
ऐसा प्रतीत होता है कि अग्निहोत्र से आरम्भ करके जैसे-जैसे यज्ञ का विकास होता है, स्वधा का स्तर पुष्ट होता जाता है। सोमयाग के स्तर पर, शतपथ ब्राह्मण १२.१.२.१ का कथन है कि देवों ने श्रद्धा से दीक्षा का निर्माण किया - - - - आदित्य से प्रवर्ग्य का, स्वधा से उपसद का । सोमयाग में प्रवर्ग्य इष्टि के पश्चात् उपसद इष्टि होती है जिसमें समझा जाता है कि प्रवर्ग्य से प्राप्त विभूतियों को मर्त्य स्तर पर प्रकट किया जाता है । प्रवर्ग्य की तुलना शिर से और उपसद की तुलना ग्रीवा से की जाती है । एक अच्छी ग्रीवा पर ही अच्छे शिर की स्थापना होती है । गोपथ ब्राह्मण १.४.७ में भी स्वधा को उपसद कहा गया है । तैत्तिरीय संहिता १.५.१०.४ के कथन (त्रयस्त्रिम्̇शत् तन्तवो ये वितत्निरे य इमं यज्ञम्̇ स्वधया ददन्ते तेषां छिन्नम् प्रत्य् एतद् दधामि स्वाहा घर्मो देवाम्̇ अप्य् एतु ) से ऐसा प्रतीत होता है कि देह में मेरुदण्ड के ३३ तन्तु स्वधा का वितरण करते हैं जिनके छिन्न होने पर घर्म/प्रवर्ग्य स्वाहा का रूप हो जाता है जो देवों को प्राप्त होता है । पुराणों में उल्लेख है कि पुरूरवा अमावास्या – अमावास्या को पितरों को तृप्त करने जाता है। अमा का अर्थ है – मा से मुक्त, निःसीम। सुषुम्ना नाडी की यह निःसीम स्थिति, जहां यह देह से ब्रह्माण्ड में संक्रमण करने में समर्थ हो जाती है, अमा कही जा सकती है। यही पुरूरवा की उर्वशी हो सकती है। तैत्तिरीय संहिता १.५.१०.४ में कहा जा रहा है कि सुषुम्ना का यह निःसीम अवस्था में संक्रमण तभी संभव है जब देह के ३३ तन्तुओं में उसका विस्तार छिन्न हो जाए।
शतपथ ब्राह्मण ६.६.२.६, तैत्तिरीय संहिता ४.१.९.२ आदि में पृथिवी रूपी उखा पात्र के संदर्भ में प्रयुक्त मन्त्र इस प्रकार है :
दृंहस्व देवि पृथिवि स्वस्तये । आसुरी माया स्वधया कृताऽसि इति ।
मन्त्र का अर्थ है कि पृथिवी रूपी उखा स्वस्ति प्रदान हेतु दृढ बने । यह आसुरी माया है जिसकी रचना स्वधा द्वारा की गई है । इसकी व्याख्या में कहा गया है कि प्राण असु है । उसकी यह माया है जो स्वधा द्वारा कृत है । इस संदर्भ में यह उल्लेखनीय है कि आकाश में जो भूमिका उषा की है - प्रातः काल प्राणियों में जीवन का संचार करना आदि, पृथिवी पर वही भूमिका उखा की हो सकती है । मन्त्र के अनुसार स्वधा द्वारा आसुरी माया का निर्माण होता है ।
अथर्ववेद ९.१५.१६/९.१०.१६ के मन्त्र अपाङ् प्राङेति स्वधया गृभीत अमर्त्यो मर्त्येना सयोनि: इत्यादि की व्याख्या में ऐतरेय आरण्यक २.१.८ का कथन है कि अपान द्वारा ही यह प्राण बंधा हुआ है और दूर नहीं जाता । यह कथन स्वधा को समझने के लिए एक कुंजी प्रस्तुत करता है और यहां अपान को स्वधा कहा गया है ।
यद्यपि ऋग्वेद की ऋचाओं में स्वधा शब्द बहुत से देवों के संदर्भ में प्रकट हुआ है, लेकिन ब्राह्मणों तथा पुराणों में स्वधा शब्द मुख्यतः पितरों के संदर्भ में प्रकट होता है । स्वधा को पितरों का अन्न कहा गया है ( शतपथ ब्राह्मण २.४.२.२, १३.८.१.४ आदि) । पितर क्या होते हैं, इस सम्बन्ध में अनुमान है कि हमारा अचेतन मन, हमारे संस्कार आदि सब पितर होते हैं । वैदिक तथा पौराणिक साहित्य में अचेतन मन की तो कोई कल्पना प्रत्यक्ष रूप से नहीं मिलती है । हो सकता है कि पितरों के रूप में अचेतन मन की कल्पना की गई हो । इन पितरों की कल्पना ६ ऋतुओं के रूप में की गई है ( शतपथ ब्राह्मण २.६.१.५) । शतपथ ब्राह्मण २.६.१.२ का कथन है कि देवासुर संग्राम में वसन्त, ग्रीष्म व वर्षा जीते । शरद्, हेमन्त और शिशिर मृत्यु को प्राप्त हुए और उनको देवों ने पुनर्जीवित किया । शतपथ ब्राह्मण १३.८.१.४ में स्वधा को ही शरत् कहा गया है । जैसा कि ऊष्मा शब्द की टिप्पणी में कहा जा चुका है, हमारे शरीर की सारी क्रियाएं इस प्रकार घटित होती हैं कि उनसे ऊष्मा का जनन होता है । हमारे शरीर में शीत का जनन करने वाली रासायनिक अभिक्रियाएं केवल योगियों में प्रकट होती हैं । शरद् ऋतु का अर्थ कार्तिक मास के द्वारा समझा जा सकता है । कार्तिक मास का दूसरा नाम ऊर्ज भी है । अतः स्वधा का एक रूप वह भी है जो ऊर्ज रूप है । ओषधियां, वनस्पतियां पृथिवी के गुरुत्वाकर्षण से विरुद्ध दिशा में आरोहण ऊर्ज द्वारा करती हैं । तैत्तिरीय ब्राह्मण ३.३.६.४ का कथन है कि स्वधा पितरों के लिए । बर्हिषदों के लिए ऊर्क् हो । एक अन्य स्थान पर पितृमेध के संदर्भ में कहा गया है कि मृतक का जीव ऊर्क् रूपी स्वधा के साथ ही ऊपर के लोकों की यात्रा करता है । जहां - जहां भी ऊर्क् जाएगा, वहीं - वहीं जीव भी जाएगा । यही मृतक का अन्न है । हो सकता है कि वैदिक निघण्टु में जब स्वधा का वर्गीकरण अन्न नामों में किया जाता है तो उससे यही तात्पर्य हो । स्वधा और ऊर्ज के सम्बन्ध की पुष्टि के लिए तैत्तिरीय ब्राह्मण १.४.९.३ भी द्रष्टव्य है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७३ में स्वधा को वृष्टि व अन्न को अमृत कहा गया है ।
शतपथ ब्राह्मण १.२.५.१९ में उदादाय पृथिवीँ जीवदानुम् इत्यादि मन्त्र का उल्लेख आता है । कहा गया है कि इस पृथिवी में जो देवयजन योग्य जीव भाग था, उसे देवों ने चन्द्रमा में स्थापित कर दिया और स्वधाओं द्वारा उसका ईरयन किया ।
देवीभागवत पुराण ९.४४.२५ में स्वाहा, स्वधा आदि देवियों के स्वरूप दिए गए हैं । इसके अनुसार स्वाहा के लिए बीज मन्त्र ॐ ह्रीं श्रीं है, स्वधा के लिए ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं है तथा दक्षिणा के लिए ( ब्रह्मवैवर्त्त पुराण २.४१) श्रीं क्लीं ह्रीं है । महाभारत अनुशासन पर्व २३.३५ के अनुसार पितर श्राद्ध आदि में स्वधा का उच्चारण करने का अधिकार केवल ब्राह्मण को ही है , अन्य वर्णों के लिए अन्य वाक्य हैं(क्षत्रिय के लिए पितरः प्रीयन्ताम्, वैश्य के लिए अक्षय्यमस्तु, शूद्र के लिए स्वस्ति) । वैदिक रूप से स्वधा का देवी रूप कौन सा है, यह अन्वेषणीय है । गोपथ ब्राह्मण १.४.८ का कथन है कि जब उपसद में आते हैं तो स्वधा देवी देवता हो जाती है । वैदिक मन्त्रों में स्वधा शब्द बहुवचन और एकवचन में प्रकट होता है । डा. फतहसिंह का कथन है कि एकवचन वाला रूप दैवी होता है । तैत्तिरीय आरण्यक ६.९.१ में धान के बिखरने से स्वधा को अमृत बनाने का उल्लेख है । स्वधा, स्वाहा और दक्षिणा के परस्पर सम्बन्ध के संदर्भ में, शतपथ ब्राह्मण ११.५.६.२ में उदक पात्र से प्रतिदिन स्वधा करने, काष्ठा से प्रतिदिन स्वाहा करने और उदक पात्र से प्रतिदिन देने का निर्देश है ।
जैमिनीय ब्राह्मण ३.३८ में द्वादशाह नामक सोमयाग के संदर्भ में उल्लेख आता है कि सोमयाग के तृतीय दिन स्वधा के अनुदिश पुनः गर्भ का आधान करते हैं जिससे चतुर्थ अह का जन्म हो सके । अथर्ववेद २०.४०.३, २०.६९.१२ में मरुतों द्वारा स्वधा के अनुदिश गर्भ की स्थापना? का उल्लेख आता है ।
प्रवर्ग्य के संदर्भ में स्वधा उपसद बनती है जो निम्न भाग है, मर्त्य स्तर का प्रतीक है । लेकिन अग्निहोत्र के संदर्भ में स्वधा ऊपर का भाग बन रही है । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३७३ में भी स्वधा की ऊर्ध्व स्थिति का उल्लेख है जबकि क्षत्र, राष्ट्र, ऋत, सत्य नीचे रहते हैं : क्षत्रं राष्ट्रं ऋतं सत्यं ब्रह्मणो निहिता वरा: । तपस् तेज स्वधामृतं त ऊर्ध्वास आसते मध्ये ब्रह्म विराजति ।। ऋग्वेद १०.१२९.५ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.९.५ के मन्त्र में स्वधा को अवस्तात्/नीचे और प्रयति/प्रयत्न/परमात्मा रूप कारण को परस्तात्/ऊपर कहा गया है ।
जैमिनीय ब्राह्मण १.२९ में अग्निहोत्र के संदर्भ में ही स्वधा को एक हिरण्मयी नौका कहा गया है जिस पर आरूढ होकर प्रजापति के साथ सलोकता प्राप्त की जाती है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.८.३.४ में स्वधा के अनुदिश आपः के क्षरण का उल्लेख है जो नावों के मध्य में वर्धित होते हैं?
ऐतरेय ब्राह्मण २.२३ व २.२४ में आज्य, धान, करम्भ, परिवाप, पुरोळाश, पयस्या नामक हवियों द्वारा यजमान पर स्वधाओं के क्षरण का कथन है । इन हवियों के संदर्भ में स्वधाओं का स्वरूप क्या है, यह अन्वेषणीय है । ऐतरेय ब्राह्मण में केवल इतना संकेत है कि हरिवान् या हरियों से युक्त इन्द्र के लिए धान की हवि है, पूषण्वान् इन्द्र के लिए करम्भ की । पशु पूषा हैं, अन्न करम्भ है । सरस्वतीवान् भारतीवान् इन्द्र के लिए परिवाप की । वाक् सरस्वती है, प्राण भरत है, अन्न परिवाप है । इन्द्रिय अपूप है ।
वैदिक मन्त्रों में एक शब्द स्वधिति आता है और यह अन्वेषणीय है कि क्या स्वधिति का भी स्वधा से कोई सम्बन्ध है? । ऋग्वेद ५.३२.१० की ऋचा न्यस्मै देवी स्वधितिर्जिहीत इत्यादि की व्याख्या सायणाचार्य द्वारा द्यौ रूपी स्वधिति के नीचत्व/जिहीत को जाने के रूप में की गई है ।
स्वधा के अन्य महत्त्वपूर्ण उल्लेखों में गौ में तीन प्रकार के घृतों की स्थिति और उनमें से एक प्रकार के घृत का वेन से स्वधा के अनुदिश तक्षण है ( ऋग्वेद ४.५८.४) ।
ऋग्वेद ४.२६.४ में सुपर्ण द्वारा अचक्र प्रकार की स्वधा द्वारा मनु के लिए हव्य भरण का उल्लेख है जबकि ऋग्वेद १०.२७.१९ में उस ग्राम का वहन करने का उल्लेख है जो अचक्र स्वधा द्वारा वर्तमान है। अचक्र और सचक्र स्वधा कौन सी हो सकती है, यह अन्वेषणीय है। वैदिक साहित्य में चक्र से अभिप्राय प्रायः संवत्सर से होता है। ऋग्वेद ७.७८.४, ८.१०.६, १०.१७.८ में स्वधा द्वारा रथ को जोडने के उल्लेख हैं ( जीव रूपी रथ स्वधा द्वारा ही जुडता है, ऐसा कहा जा सकता है ) । शतपथ ब्राह्मण ५.४.३.७ तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१६.१ में रथारोहण के लिए मन्त्र अव्यथायै त्वा स्वधायै त्वा इति का निर्देश है ।
तैत्तिरीय संहिता ४.२.९.६ तथा तैत्तिरीय आरण्यक परिशिष्ट ४० में एक मधु के घोंसले में बसने वाले सुपर्ण का उल्लेख है जो देवताओं के लिए मधु प्रदान करता है । उसके किनारे पर ७ हरि रहते हैं जो अमृत धारा रूपी स्वधा का दोहन करते हैं । यह मन्त्र स्वयमातृण्णा रूपी इष्टका के रूप में पुरुष शीर्ष की स्थापना के संदर्भ में है । तैत्तिरीय ब्राह्मण २.७.१२.२ में शुक्र ग्रह की पुरोनुवाक्या के संदर्भ में हरि के स्वधावान् होने का उल्लेख है जबकि शुक्र सुवर्चा है ।
डा. जी.एन. भट्ट द्वारा अपनी पुस्तक वैदिक निघण्टु में दी गई सूचना के अनुसार ऋग्वेद में स्वधा शब्द अपने अन्य रूपों सहित १०८ स्थानों पर प्रकट हुआ है । वैदिक निघण्टु में इस शब्द का वर्गीकरण उदक नामों व अन्न नामों के अन्तर्गत किया गया है । डा. भट्ट के अनुसार सायणाचार्य द्वारा १२ स्थानों पर इस शब्द को उदक अर्थ में, ७५ स्थानों पर अन्न अर्थ में, १६ स्थानों पर बल अर्थ में तथा ८ स्थानों पर वैकल्पिक अर्थों में ग्रहण किया गया है । एक स्थान पर इसको द्यावापृथिवी अर्थ में भी लिया गया है क्योंकि स्वधे शब्द का वर्गीकरण वैदिक निघण्टु में द्यावापृथिवी नामों के अन्तर्गत किया गया है । ऋग्वेद में सभी स्थानों पर स्व॒धा शब्द ध उदात्त रूप में प्रकट हुआ है जबकि शतपथ ब्राह्मण व अथर्ववेद में कुछ स्थानों पर व उदात्त और ध स्वरित रूप भी हैं । अथर्ववेद ८.१३.७ में पितर विराज गौ का स्वयं के लिए आह्वान स्वध॑ एहि कह कर करते हैं । यहां व उदात्त है । फिर जब उस विराज गौ से स्वधा रूपी दुग्ध का दोहन किया जाता है तो उस स्व॒धा दुग्ध के लिए ध उदात्त है । इसी प्रकार जब अथर्ववेद ८.११.४/८.१०.४ में देव - मनुष्य आह्वान करते हैं तो वहां भी व उदात्त है । शतपथ ब्राह्मण १३.८.१.४ में पितरों के अन्न के रूप में स्वधा का उल्लेख है जिसमें व उदात्त है । शतपथ ब्राह्मण १२.७.१.९ में अस्थियों से स्रवित होने वाली स्वधा॑ में व उदात्त है । इन दोनों रूपों में क्या अन्तर है, यह अन्वेषणीय है ।
प्रथम लेखन : ४-११-२०१० ई.( कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी, विक्रम संवत् २०६७), अन्तिम संशोधन २१-२-२०१४ई.(माघ कृष्ण , विक्रम संवत् २०७०), ८-३-२०१९ई.(फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, विक्रमसंवत् २०७५)
जैमिनीय ब्राह्मण १.७ में उल्लेख आता है कि अस्त होते हुए आदित्य ने भूतों में ६ रूपों में प्रवेश किया – ब्राह्मण में श्रद्धा रूप में, पशुओं में पयः रूप में, अग्नि में तेज रूप में, ओषधियों में ऊर्क् रूप में, आपः में रस रूप में, वनस्पतियों में स्वधा रूप में । ब्रह्माण्ड पुराण १.५.६१ में उल्लेख आता है कि ब्रह्मा ने इस जगत में ४ रूपों में प्रवेश किया – स्थावरों में विपर्यास रूप में, तिर्यकों में शक्ति रूप में, मनुष्यों में सिद्धि रूप में और देवों में पुष्टि रूप में । यह कथन संकेत करता है कि जैमिनीय ब्राह्मण में जिसे स्वधा कहा जा रहा है, उसे ब्रह्माण्ड पुराण में स्थावरों में विपर्यास कहा जा रहा है । यह उल्लेखनीय है कि वनस्पतियों की एक विशेषता उनके छिन्न होने पर पुनः अंकुरित होना है जिसका कारण यह है कि उनमें स्टेम कोशिकाएं विद्यमान होती हैं। अतः स्वधा का एक रूप स्टेम कोशिकाओं के रूप में हो सकता है । जैमिनीय ब्राह्मण १.९८ में उल्लेख आता है कि पाप ने पुरुष में ६ रूपों में प्रवेश किया – स्वप्न, तन्द्री, मन्यु, अशना, अक्षकाम्या व स्त्रीकाम्या ।
Word Swadha is composed of two parts – Swah and Dhaa, meaning the pure self and to bear it. The state of pure self is attained in Vishuddhi chakra. This may be a state where there is no hindrance in mingling of one consciousness with the other. This is a state of pure trance. Then the benefits of this states have to be carried down to mortal self. This may have been called 'dhaa'. This hypothesis is supported by several indirect vedic references. One reference quotes the origin of swadhaa as the nector flowed out of bones/asthi. Asthi in Sanskrit may mean a state of pure trance(asti, state of only being).
The value of Swadhaa depends on the height of Swah. Swah has been depicted as sun – like. In sky, Ushaa/dawn and heaven are supposed to bear sunrays. It is famous that on dawn, all beings get awakened. In the same way, on earth, there is an earthly Ushaa, which is called Ukhaa. This Ukhaa creates illusion in which Swadhaa plays a part.
One text quotes in the explanation of Swadhaa that the Praana is bound with Apaana. That is why Praana is not able to leave the body. Here Apaana is synonym of Swadhaa. Thus this statement provides a key to understand Swadhaa.
There are universal instructions to impart Swadhaa to pitris, the manes, the ancestors. For explanation sake, we suppose that pitris represent our unconscious mind, which is formed of impressions of different births. Swadhaa has also been called winter season. One meaning of winter may be that all the chemical reactions in our body are exothermic. It is rare that an endothermic reaction can be produced. So to impart Swadhaa to pitris will mean to switch over to endothermic reactions. The other meaning may be taken from the name of winter in Sanskrit. It is Uurk. Uurk can be understood on the basis of the fact that all herbs grow upwards against the force of gravity due to presence of this Uurk. It is this Uurk which forms the food of manes. It has been said that the life force after death travels wherever this Uurk goes.
Puraanic texts narrate the birth of three girls from Swadhaa and ३ types of manes. The first becomes the wife of Himaachala and gives birth to Gauri, the wife of lord Shiva. The second becomes wife of Meru(at another place king Janaka) and brings up Seetaa. The third becomes wife of Vrishabhaanu and gives birth to Raadhaa. There are several possibilities regarding the vedic origin of this anecdote. One possibility is that manes are divided into three classes – on earth, sky and heaven. Accordingly, Swadhaa should be of at least ३ types. The other possibility is that ३ types of Swadhaa may be related with ३ vedas.
One text states that the setting sun establishes itself inside plants and then in the morning, this gets regenerated in the form of Samit. Samit in esoteric sense means where all intellect is aligned. The importance of this statement can be judged from the hypothesis of J.A.Gowan according to whom the charge in gross matter is remnant of the original symmetry before big bang. Symmetry can not be destroyed. It is to be noted that Swadhaa was derived when sun was up. On the other hand, when Swadhaa is on upper side, it gives birth to a nation etc.,where there is harmony. Both types of statements exist in vedic literature – where Swadhaa is on lower side and where Swadhaa is on upper side.
According to the book Vedic Nighantu by Dr. G.N.Bhat, word Swadhaa with it's other forms appears in Rigveda १०८ times. Out of these, it has been interpreted by Saayana as water at १२ places, as cereal/food at ७५ places, as force at १६ places and optional meanings at ८ places. At one place it has also been interpreted in the sense of heaven and earth.
First written March ११, २००७(Chaitra Krishna Vikrami २०६३)
संदर्भ
*आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥(दे. मरुतः) – ऋ. १.६.४
*अनु॑ स्व॒धाम॑क्षर॒न्नापो॑ अ॒स्याऽव॑र्धत॒ मध्य॒ आ ना॒व्या॑नाम्। स॒ध्री॒चीने॑न॒ मन॑सा॒ तमिन्द्र॒ ओजि॑ष्ठेन॒ हन्म॑नाहन्न॒भि द्यून्॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. १.३३.११
*त्वं मा॒याभि॒रप॑ मा॒यिनो॑ऽधमः स्व॒धाभि॒र्ये अधि॒ शुप्ता॒वजु॑ह्वत।(दे. इन्द्रः) - ऋ. १.५१.५
*अंसे॑ष्वेषां॒ नि मि॑मृक्षुर्ऋ॒ष्टयः॑ सा॒कं ज॑ज्ञिरे स्व॒धया॑ दि॒वो नरः॑॥(दे. मरुतः) - ऋ. १.६४.४
*क्रत्वा॑ म॒हाँ अ॑नुष्व॒धं भी॒म आ वा॑वृधे॒ शवः॑। श्रि॒य ऋ॒ष्व उ॑पा॒कयो॒र्नि शि॒प्री हरि॑वान् दधे॒ हस्त॑यो॒र्वज्र॑माय॒सम्॥(दे. इन्द्रः) – ऋ. १.८१.४
*ए॒षा स्या वो॑ मरुतोऽनुभ॒र्त्री प्रति॑ ष्टोभति वा॒घतो॒ न वाणी॑। अस्तो॑भय॒द् वृथा॑सा॒मनु॑ स्व॒धां गभ॑स्त्योः॥ - ऋ. १.८८.६
*द्वे विरू॑पे चरतः॒ स्वर्थे॑ अ॒न्यान्या॑ व॒त्समुप॑ धापयेते। हरि॑र॒न्यस्यां॒ भव॑ति स्व॒धावा॑ञ् छु॒क्रो अ॒न्यस्यां॑ ददृशे सु॒वर्चाः॑॥(दे. अग्निः, औषसोऽग्निर्वा) - ऋ. १.९५.१
*क इ॒मं वो॑ नि॒ण्यमा चि॑केत व॒त्सो मा॒तॄर्ज॑नयत स्व॒धाभिः॑। ब॒ह्वी॒नां गर्भो॑ अ॒पसा॑मु॒पस्था॑न्म॒हान् क॒विर्निश्च॑रति॒ स्व॒धावा॑न्॥ (दे. अग्निः, औषसोऽग्निर्वा) – ऋ. १.९५.४
*यदि॑न्द्राग्नी॒ उदि॑ता॒ सूर्य॑स्य॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दये॑थे। अतः॒ परि॑ वृषणा॒वा हि या॒तमथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑॥ - ऋ. १.१०८.१२
*शश्व॑त् पु॒रोषा व्यु॑वास दे॒व्यथो॑ अ॒द्येदं व्या॑वो म॒घोनी॑। अथो॒ व्यु॑च्छा॒दुत्त॑राँ॒ अनु॒ द्यून॒जरा॒मृता॑ चरति स्व॒धाभिः॑॥ - ऋ. १.११३.१३
*बोधा॑ मे अ॒स्य वच॑सो यविष्ठ॒ मंहि॑ष्ठस्य॒ प्रभृ॑तस्य स्वधावः। पीय॑ति त्वो॒ अनु॑ त्वो गृणाति व॒न्दारु॑स्ते त॒न्वं॑ वन्दे अग्ने॥ - ऋ. १.१४७.२
*यस्य॒ त्री पू॒र्णा मधु॑ना प॒दान्यक्षी॑यमाणा स्व॒धया॒ मद॑न्ति। य उ॑ त्रि॒धातु॑ पृथि॒वीमु॒त द्यामेको॑ दा॒धार भुव॑नानि॒ विश्वा॑॥(दे. विष्णुः) - ऋ. १.१५४.४
*जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः॥ - ऋ. १.१६४.३०
*अपा॒ङ् प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तो ऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। - ऋ. १.१६४.३८
*अतो॑ व॒यम॑न्त॒मेभि॑र्युजा॒नाः स्वक्ष॑त्रेभिस्त॒न्व१॒॑ः शुम्भ॑मानाः। महो॑भि॒रेताँ॒ उप॑ युज्महे॒ न्विन्द्र॑ स्व॒धामनु॒ हि नो॑ ब॒भूथ॑॥ - ऋ. १.१६५.५
*क्व१॒॑ स्या वो॑ मरुतः स्व॒धासी॒द् यन्मामेकं॑ स॒मध॑त्ताहि॒हत्ये॑। - ऋ. १.१६५.६
*सं वि॑व्य॒ इन्द्रो॑ वृ॒जनं॒ न भूमा॒ भर्ति॑ स्व॒धावो॑ ओप॒शमि॑व॒ द्याम्॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. १.१७३.६
*अनु॑ स्व॒धा यमु॒प्यते॒ यवं॒ न चर्कृ॑ष॒द् वृषा॑॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. १.१७६.२
*नि यद् यु॒वेथे॑ नि॒युतः॑ सुदानू॒ उप॑ स्व॒धाभिः॑ सृजथः॒ पुरं॑धिम्।(दे. अश्विनौ) – ऋ. १.१८०.६
*सरस्वती साधयन्ती धियं न इळा देवी भारती विश्वतूर्तिः। तिस्रो देवीः स्वधया बर्हिरेदमच्छिद्रं पान्तु शरणं निषद्य॥ - ऋ. २.३.८
*घृ॒तं मि॑मिक्षे घृ॒तम॑स्य॒ योनि॑र्घृ॒ते श्रितो घृ॒तम्व॑स्य॒ धाम॑। अ॒नु॒ष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्व॒ स्वाहा॑कृतं वृषभ वक्षि ह॒व्यम्॥(दे. अग्नि/ एकादश प्रयाजाः) - ऋ. २.३.११
उपरोक्त ऋचा उन गिने-चुने संदर्भों में से है जिनमें स्वधा और स्वाहा का उल्लेख साथ-साथ आया है। जैसा कि वास्तुसूत्रोपनिषद ६.२ की टीका में कहा गया है, यज्ञ की पचनात्मिका शक्ति स्वधा है, दाहिका शक्ति स्वाहा। स्वाहा के द्वारा पापों का नाश होता है, जबकि स्वधा द्वारा जीव का पालन मात्र होता है, पाप नाश नहीं। इस ऋचा में कहा जा रहा है कि अग्नि को घृत बहुत ही प्रिय है, घृत अग्नि का ऊँ धाम है। जैसा कि घृत शब्द की टिप्पणी में उल्लेख किया जा चुका है, ब्रह्मबिन्दु उपनिषद २० के अनुसार घृत से तात्पर्य विज्ञान से, प्रकृति में घटित होने वाली आकस्मिकता की, जुए की स्थिति से परे की स्थिति से है। अग्नि रूपी चेतना से यह प्रार्थना की जा रही है कि उसका अवतरण स्वधा के स्तर पर भी हो। ऋ. ४.५८.४ में गौ में तीन प्रकार के घृतों का उल्लेख है जिनमें एक को इन्द्र ने जाना, एक को सूर्य ने और तीसरे का वेन से स्वधा के द्वारा तक्षण किया गया।
*अव॑ प्रि॒यम॑र्शसा॒नस्य॑ सा॒ह्वाञ्शिरो॑ भरद्दा॒सस्य॑ स्व॒धावा॑न्॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. २.२०.६
*स्व आ दमे॑ सु॒दुघा॒ यस्य॑ धे॒नुः स्व॒धां पी॑पाय सु॒भ्वन्न॑मत्ति। सो अ॒पां नपा॑दू॒र्जय॑न्न॒प्स्व१॒॑न्तर्व॑सु॒देया॑य विध॒ते वि भा॑ति॥ - ऋ. २.३५.७
*दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा न्यृ॑ञ्जे स॒प्त पृ॒क्षासः॑ स्व॒धया॑ मदन्ति। - ऋ. ३.४.७, ३.७.८
*ऐभि॑रग्ने स॒रथं॑ याह्य॒र्वाङ् ना॑नार॒थं वा॑ वि॒भवो॒ ह्यश्वाः॑। पत्नी॑वतस्त्रिं॒शतं॒ त्रींश्च॑ दे॒वान॑नुष्व॒धमा व॑ह मा॒दय॑स्य॥ - ऋ. ३.६.९
*यस्त्वद्धोता॒ पूर्वो॑ अग्ने॒ यजी॑यान्द्वि॒ता च॒ सत्ता॑ स्व॒धया॑ च शं॒भुः। - ऋ. ३.१७.५
*अग्ने॒ भूरी॑णि॒ तव॑ जातवेदो॒ देव॑ स्वधावो॒ऽमृत॑स्य॒ नाम॑। याश्च॑ मा॒या मा॒यिनां॑ विश्वमिन्व॒ त्वे पू॒र्वीः सं॑द॒धुः पृ॑ष्टबन्धो॥ - ऋ. ३.२०.३
*त्रि॒भिः प॒वित्रै॒रपु॑पो॒द्ध्य१॒॑र्कं हृ॒दा म॒तिं ज्योति॒रनु॑ प्रजा॒नन्। वर्षि॑ठं॒ रत्न॑मकृत स्व॒धाभि॒रादिद्यावा॑पृथि॒वी पर्य॑पश्यत्॥(दे. आत्मा, अग्निर्वा) - ऋ. ३.२६.८
स्वेन लोकान् दधातीति स्वधा। तैरग्निवायुसूर्यैः रत्नं रमणीयम् अकृत अकार्षीत् – सायण भाष्य
अन्य ऋचाओं जैसे ऋ. ४.१२.३ में भी अग्नि द्वारा अपने भक्त के लिए रत्न धारण करने का उल्लेख है। स्वधाओं से वर्षिष्ठ रत्न कैसे बन सकता है, इसके बारे में यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यदि स्वाहा – अपने पाप का प्रक्षालन और स्वधा दोनों कार्य साथ-साथ चलें तो स्वधाएं रत्न बन सकती हैं।
*उपो॑ नयस्व॒ वृष॑णा तपु॒ष्पोतेम॑व॒ त्वं वृ॑षभ स्वधावः।(दे. इन्द्रः) – ऋ. ३.३५.३
*इन्द्र॒ पिब॑ स्व॒धया॑ चित्सु॒तस्या॒ग्नेर्वा॑ पाहि जि॒ह्वया॑ यजत्र। - ऋ. ३.३५.१०
स्वात्मानं दधाति पोषयतीति स्वधा बलम्। - सायण भाष्य
*मारे अ॒स्मद्वि मु॑मुचो॒ हरि॑प्रिया॒र्वाङ् या॑हि। इन्द्र॑ स्वधावो॒ मत्स्वे॒ह॥ - ऋ. ३.४१.८
*म॒रुत्वाँ॑ इन्द्र वृष॒भो रणा॑य॒ पिबा॒ सोम॑मनुष्व॒धं मदा॑य। आ सि॑ञ्चस्व ज॒ठरे॒ मध्व॑ ऊ॒र्मिं त्वं राजा॑सि प्र॒दिवः॑ सु॒ताना॑म्॥ - ऋ. ३.४७.१
*यस्ते॒ अनु॑ स्व॒धामस॑त्सु॒ते नि य॑च्छ त॒न्व॑म्। स त्वा॑ ममत्तु सो॒म्यम्॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. ३.५१.११
*मा नि॑न्दत॒ य इ॒मां मह्यं॑ रा॒तिं दे॒वो द॒दौ मर्त्या॑य स्व॒धावा॑न्।(दे. वैश्वानरो अग्निः) – ऋ. ४.५.२
*घृ॒तं न पू॒तं त॒नूर॑रे॒पाः शुचि॒ हिर॑ण्यम्। तत्ते॑ रु॒क्मो न रो॑चत स्वधावः॥(दे. अग्निः) - ऋ. ४.१०.६
*दधा॑ति॒ रत्नं॑ विध॒ते यवि॑ष्ठो॒ व्या॑नु॒षङ्मर्त्या॑य स्व॒धावा॑न्॥ - ऋ. ४.१२.३
उखासंभरणीयेष्टौ अग्नेः क्षत्रभृतोऽनुवाक्या – सायण भाष्य
*अना॑यतो॒ अनि॑बद्धः क॒थायं न्य॑ङ्ङुत्ता॒नोऽव॑ पद्यते॒ न। कया॑ याति स्व॒धया॒ को द॑दर्श दि॒वः स्क॒म्भः समृ॑तः पाति॒ नाक॑म्॥(दे. अग्निः/सूर्यः) - ऋ. ४.१३.५ , ४.१४.५
*उ॒शन्नु॒ षु णः॑ सु॒मना॑ उपा॒के सोम॑स्य॒ नु सुषु॑तस्य स्वधावः। पा इ॑न्द्र॒ प्रति॑भृतस्य॒ मध्वः॒ समन्ध॑सा ममदः पृ॒ष्ठ्ये॑न॥ - ऋ. ४.२०.४
अग्निष्टोमे माध्यन्दिनसवने मैत्रावरुणस्य “उशन्नु षु णः” इति शस्त्रयाज्या – सायण भाष्य
*अ॒च॒क्रया॒ यत्स्व॒धया॑ सुप॒र्णो ह॒व्यं भर॒न्मन॑वे दे॒वजु॑ष्टम्॥ - ऋ. ४.२६.४
*स॒त्यमू॑चु॒र्नर॑ ए॒वा हि च॒क्रुरनु॑ स्व॒धामृ॒भवो॑ जग्मुरे॒ताम्। वि॒भ्राज॑मानांश्चम॒साँ अहे॒वावे॑न॒त्त्वष्टा॑ च॒तुरो॑ ददृ॒श्वान्॥ - ऋ. ४.३३.६
*सूर॑श्चि॒दश्वा॑न्युयुजा॒न ई॑यते॒ विश्वाँ॒ अनु॑ स्व॒धया॑ चेतथस्प॒थः॥(दे. अश्विनौ) – ऋ. ४.४५.६
*आ॒प॒प्रुषी॑ विभावरि॒ व्या॑व॒र्ज्योति॑षा॒ तमः॑। उषो॒ अनु॑ स्व॒धाम॑व॥ - ऋ. ४.५२.६
*त्रिधा॑ हि॒तं प॒णिभि॑र्गु॒ह्यमा॑नं॒ गवि॑ दे॒वासो॑ घृ॒तमन्व॑विन्दन्। इन्द्र॒ एकं॒ सूर्य॒ एकं॑ जजान वे॒नादेकं॑ स्व॒धया॒ निष्ट॑तक्षुः॥ - ऋ. ४.५८.४
घृत शब्द की टिप्पणी में ब्रह्मबिन्दु उपनिषद के आधार पर यह उल्लेख किया गया है कि घृत विज्ञानमय कोश की स्थिति है जहां जगत की आकस्मिकता, चांस समाप्त हो जाता है। उपरोक्त ऋचा का कहना है कि घृत की स्थिति को पूर्णतः प्राप्त करने के लिए तीन ओर से प्रयत्न करने की आवश्यकता है – इन्द्र बन कर मोक्ष प्राप्त करने के द्वारा, सूर्य बनकर अपना विस्तार करने के द्वारा और वेन नामक मर्त्य स्तर, क्षरणशील स्तर पर स्वधा के द्वारा। इस ऋचा के सायण भाष्य में इन्द्र, सूर्य व अग्नि द्वारा गौ में दधि, पयः/सोम व घृत को खोज निकालने का कथन है।
*त्वम॑र्य॒मा भ॑वसि॒ यत्क॒नीनां॒ नाम॑ स्वधाव॒न्गुह्यं॑ बिभर्षि।(दे. अग्निः) - ऋ. ५.३.२
*न त्वद्धोता॒ पूर्वो॑ अग्ने॒ यजी॑या॒न्न काव्यैः॑ प॒रो अ॑स्ति स्वधावः।(दे. अग्निः) – ऋ. ५.३.५
*त्यं चि॑देषां स्व॒धया॒ मद॑न्तं मि॒हो नपा॑तं सु॒वृधं॑ तमो॒गाम्। वृष॑प्रभर्मा दान॒वस्य॒ भामं॒ वज्रे॑ण व॒ज्री नि ज॑घान॒ शुष्ण॑म्॥(दे. इन्द्रः) – ऋ. ५.३२.४
*अजा॑तशत्रुम॒जरा॒ स्व॑र्व॒त्यनु स्व॒धामि॑ता द॒स्ममी॑यते। सु॒नोत॑न॒ पच॑त॒ ब्रह्म॑वाहसे पुरुष्टु॒ताय॑ प्रत॒रं द॑धातन॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. ५.३४.१
*प्र श्या॑वाश्व धृष्णु॒यार्चा॑ म॒रुद्भि॒र्ऋक्व॑भिः। ये अ॑द्रो॒घम॑नुष्व॒धं श्रवो॒ मद॑न्ति य॒ज्ञियाः॑॥(दे. मरुतः) - ऋ. ५.५२.१
*व॒राइ॒वेद्रै॑व॒तासो॒ हिर॑ण्यैर॒भि स्व॒धाभि॑स्त॒न्वः॑ पिपिश्रे। (दे. मरुतः) – ऋ. ५.६०.४
*क्रत्वा॒ हि द्रोणे॑ अ॒ज्यसेऽग्ने॑ वा॒जी न कृत्व्यः॑। परि॑ज्मेव स्व॒धा गयोऽत्यो॒ न ह्वा॒र्यः शिशुः॑॥(दे. अग्निः) – ऋ. ६.२.८
*ते त्वा॒ मदा बृ॒हदिन्द्र स्वधाव इ॒मे पी॒ता उक्षयन्त द्यु॒मन्तम्। - ऋ. ६.१७.४
*स इत्तमो॑ऽवयु॒नं त॑त॒न्वत्सूर्ये॑ण व॒युन॑वच्चकार। क॒दा ते॒ मर्ता॑ अ॒मृत॑स्य॒ धामेय॑क्षन्तो॒ न मि॑नन्ति स्वधावः॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. ६.२१.३
*शु॒क्रं ते॑ अ॒न्यद्य॑ज॒तं ते॑ अ॒न्यद्विषु॑रूपे॒ अह॑नी॒ द्यौरि॑वासि। विश्वा॒ हि मा॒या अव॑सि स्वधावो भ॒द्रा ते॑ पूषन्नि॒ह रा॒तिर॑स्तु॥ - ऋ. ६.५८.१
*कया॑ नो अग्ने॒ वि व॑सः सुवृ॒क्तिं कामु॑ स्व॒धामृ॑णवः श॒स्यमा॑नः। - ऋ. ७.८.३
*उ॒ग्रो ज॑ज्ञे वी॒र्या॑य स्व॒धावा॒ञ्चक्रि॒रपो॒ नर्यो॒ यत्क॑रि॒ष्यन्।(दे. इन्द्रः) – ऋ. ७.२०.१
*म॒हाँ उ॒तासि॒ यस्य॒ तेऽनु॑ स्व॒धाव॑री॒ सहः॑। म॒म्नाते॑ इन्द्र॒ रोद॑सी॥ - ऋ. ७.३१.७
*शं नो॑ धा॒ता शमु॑ ध॒र्ता नो॑ अस्तु॒ शं न॑ उरू॒ची भ॑वतु स्व॒धाभिः॑। शं रोद॑सी बृह॒ती शं नो॒ अद्रिः॒ शं नो॑ दे॒वानां॑ सु॒हवा॑नि सन्तु॥ - ऋ. ७.३५.३
*यू॒यं ह॒ रत्नं॑ म॒घव॑त्सु धत्थ स्व॒र्दृश॑ ऋभुक्षणो॒ अमृ॑क्तम्। सं य॒ज्ञेषु॑ स्वधावन्तः पिबध्वं॒ वि नो॒ राधां॑सि म॒तिभि॑र्दयध्वम्॥(दे. ऋभवः) - ऋ. ७.३७.२
*इ॒मा रु॒द्राय॑ स्थि॒रध॑न्वने॒ गिरः॑ क्षि॒प्रेष॑वे दे॒वाय॑ स्व॒धाव्ने॑। - ऋ. ७.४६.१
*श॒तप॑वित्राः स्व॒धया॒ मद॑न्तीर्दे॒वीर्देवाना॒मपि॑ यन्ति॒ पाथः॑। ता इन्द्र॑स्य॒ न मि॑नन्ति व्र॒तानि॒ सिन्धु॑भ्यो ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत॥(दे. आपः) - ऋ. ७.४७.३
*अंसे॒ष्वा म॑रुतः खा॒दयो॑ वो॒ वक्षः॑सु रु॒क्मा उ॑पशिश्रिया॒णाः। वि वि॒द्युतो॒ न वृ॒ष्टिभी॑ रुचा॒ना अनु॑ स्व॒धामायु॑धै॒र्यच्छ॑मानाः॥ - ऋ. ७.५६.१३
*अचे॑ति दि॒वो दु॑हि॒ता म॒घोनी॒ विश्वे॑ पश्यन्त्यु॒षसं॑ विभा॒तीम्। आस्था॒द्रथं॑ स्व॒धया॑ यु॒ज्यमा॑न॒मा यमश्वा॑सः सु॒युजो॒ वह॑न्ति॥ - ऋ. ७.७८.४
*किमाग॑ आस वरुण॒ ज्येष्ठं॒ यत्स्तो॒तारं॒ जिघां॑ससि॒ सखा॑यम्। प्र तन्मे॑ वोचो दूळभ स्वधा॒वोऽव॑ त्वाने॒ना नम॑सा तु॒र इ॑याम्॥ - ऋ. ७.८६.४
*अ॒यं सु तुभ्यं॑ वरुण स्वधावो हृ॒दि स्तोम॒ उप॑श्रितश्चिदस्तु। - ऋ. ७.८६.८
*क्व१॒॑ त्यानि॑ नौ स॒ख्या ब॑भूवुः॒ सचा॑वहे॒ यद॑वृ॒कं पु॒रा चि॑त्। बृ॒हन्तं॒ मानं॑ वरुण स्वधावः स॒हस्र॑द्वारं जगमा गृ॒हं ते॑॥ - ऋ. ७.८८.५
*ये पा॑कशं॒सं वि॒हर॑न्त॒ एवै॒र्ये वा॑ भ॒द्रं दू॒षय॑न्ति स्व॒धाभिः॑। अह॑ये वा॒ तान्प्र॒ददा॑तु॒ सोम॒ आ वा॑ दधातु॒ निर्ऋ॑तेरु॒पस्थे॑॥ - ऋ. ७.१०४.९
*ययो॒रधि॒ प्र य॒ज्ञा अ॑सू॒रे सन्ति॑ सू॒रयः॑। ता य॒ज्ञस्या॑ध्व॒रस्य॒ प्रचे॑तसा स्व॒धाभि॒र्या पिब॑तः सो॒म्यं मधु॑॥(दे. अश्विनौ) - ऋ. ८.१०.४
*यद॒न्तरि॑क्षे॒ पत॑थः पुरुभुजा॒ यद्वे॒मे रोद॑सी॒ अनु॑। यद्वा॑ स्व॒धाभि॑रधि॒तिष्ठ॑थो॒ रथ॒मत॒ आ या॑तमश्विना॥ - ऋ. ८.१०.६
*स्व॒धामनु॒ श्रियं॒ नरो॒ महि॑ त्वे॒षा अम॑वन्तो॒ वृष॑प्सवः। वह॑न्ते अह्रु॑तप्सवः॥(दे. मरुतः) - ऋ. ८.२०.७
*यदि॑ मे रा॒रणः॑ सु॒त उ॒क्थे वा॒ दध॑से॒ चनः॑। आ॒रादुप॑ स्व॒धा ग॑हि॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. ८.३२.६
*वि षू च॑र स्व॒धा अनु॑ कृष्टी॒नामन्वा॒हुवः॑। इन्द्र॒ पिब॑ सु॒ताना॑म्॥ पिब॒ स्वधै॑नवानामु॒त यस्तुग्र्ये॒ सचा॑। उ॒तायमि॑न्द्र॒ यस्तव॑॥ - ऋ. ८.३२.१९-२०
*अद॑ब्धस्य स्व॒धाव॑तो दू॒तस्य॒ रेभ॑तः॒ सदा॑। अ॒ग्नेः स॒ख्यं वृ॑णीमहे॥ - ऋ. ८.४४.२०
*आ नः॒ स्तोम॒मुप॑ द्र॒वद्धि॑या॒नो अश्वो॒ न सोतृ॑भिः। यं ते॑ स्वधावन्त्स्व॒दय॑न्ति धे॒नव॒ इन्द्र॒ कण्वे॑षु रा॒तयः॑॥ - ऋ. ८.४९.५
*प्र हि रि॑रि॒क्ष ओज॑सा दि॒वो अन्ते॑भ्य॒स्परि॑। न त्वा॑ विव्याच॒ रज॑ इन्द्र॒ पार्थि॑व॒मनु॑ स्व॒धां व॑वक्षिथ॥ - ऋ. ८.८८.५
*स मा॒तरा॑ वि॒चर॑न्वा॒जय॑न्न॒पः प्र मेधि॑रः स्व॒धया॑ पिन्वते प॒दम्। अं॒शुर्यवे॑न पिपिशे य॒तो नृभिः॒ सं जा॒मिभि॒र्नस॑ते॒ रक्ष॑ते॒ शिरः॑॥ - ऋ. ९.६८.४
*त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुते॒ वर्णो॑ अस्य॒ स यत्राश॑य॒त्समृ॑ता॒ सेध॑ति स्रि॒धः। अ॒प्सा या॑ति स्व॒धया॒ दैव्यं॒ जनं॒ सं सु॑ष्टु॒ती नस॑ते॒ सं गोअ॑ग्रया॥ - ऋ. ९.७१.८
*नृबा॒हुभ्यां॑ चोदि॒तो धार॑या सु॒तो॑ऽनुष्व॒धं प॑वते॒ सोम॑ इन्द्र ते। आप्राः॒ क्रतू॒न्त्सम॑जैरध्व॒रे म॒तीर्वेर्न द्रु॒षच्च॒म्वो॒३॒॑रास॑द॒द्धरिः॑॥ - ऋ. ९.७२.५
*तव॒ त्ये सो॑म पवमान नि॒ण्ये विश्वे॑ दे॒वास्त्रय॑ एकाद॒शासः॑। दश॑ स्व॒धाभि॒रधि॒ सानो॒ अव्ये॑ मृ॒जन्ति॑ त्वा न॒द्यः॑ स॒प्त य॒ह्वीः॥ - ऋ. ९.९२.४
*कनि॑क्रन्ति॒ हरि॒रा सृ॒ज्यमा॑नः॒ सीद॒न्वन॑स्य ज॒ठरे॑ पुना॒नः। नृभि॑र्य॒तः कृ॑णुते नि॒र्णिजं॒ गा अतो॑ म॒तीर्ज॑नयत स्व॒धाभिः॑॥ - ऋ. ९.९५.१
*परि॒ दैवी॒रनु॑ स्व॒धा इन्द्रे॑ण याहि स॒रथ॑म्। पुना॒नो वा॒घद्वा॒घद्भि॒रम॑र्त्यः॥ - ऋ. ९.१०३.५
*यत्र॒ कामा॑ निका॒माश्च॒ यत्र॑ ब्र॒ध्नस्य॑ वि॒ष्टप॑म्। स्व॒धा च॒ यत्र॒ तृप्ति॑श्च॒ तत्र॒ माम॒मृतं॑ कृ॒धीन्द्रा॑येन्दो॒ परि॑ स्रव॥ - ऋ. ९.११३.१०
*यद॑ग्न ए॒षा समि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र। रत्ना॑ च॒ यद्वि॒भजा॑सि स्वधावो भा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात्॥ - ऋ. १०.११.८
*मात॑ली क॒व्यैर्य॒मो अङ्गि॑रोभि॒र्बृह॒स्पति॒र्ऋक्व॑भिर्वावृधा॒नः। यांश्च॑ दे॒वा वा॑वृ॒धुर्ये च॑ दे॒वान्त्स्वाहा॒न्ये स्व॒धया॒न्ये म॑दन्ति॥ - ऋ. १०.१४.३
*प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभिः॑ पू॒र्व्येभि॒र्यत्रा॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॑ परे॒युः। उ॒भा राजा॑ना स्व॒धया॒ मद॑न्ता य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम्॥ - ऋ. १०.१४.७
*आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्त इ॒हाग॑मिष्ठाः॥ - ऋ. १०.१५.३
*त्वम॑ग्न ईळि॒तो जा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वी। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥ - ऋ. १०.१५.१२
*ये चे॒ह पि॒तरो॒ ये च॒ नेह यांश्च॑ वि॒द्म याँ उ॑ च॒ न प्र॑वि॒द्म। त्वं वे॑त्थ॒ यति॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धाभि॑र्य॒ज्ञं सुकृ॑तं जुषस्व॥ - ऋ. १०.१५.१३
*ये अ॑ग्निद॒ग्धा ये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते। तेभिः॑ स्व॒राळसु॑नीतिमे॒तां य॑थाव॒शं त॒न्वं॑ कल्पयस्व॥ - ऋ. १०.१५.१४
*अव॑ सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धाभिः॑। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ वेतु॒ शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा॑ जातवेदः॥ - ऋ. १०.१६.५
*सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथ॑ स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्हिषि॑ मादयस्वानमी॒वा इष॒ आ धे॑ह्य॒स्मे॥ - ऋ. १०.१७.८
*अप॑श्यं॒ ग्रामं॒ वह॑मानमा॒राद॑च॒क्रया॑ स्व॒धया॒ वर्त॑मानम्। सिष॑क्त्य॒र्यः प्र यु॒गा जना॑नां स॒द्यः शि॒श्ना प्र॑मिना॒नो नवी॑यान्॥ - ऋ. १०.२७.१९
ऋचा के भाष्य में श्री सायणाचार्य द्वारा आरात् का अर्थ दूरात् किया गया है, दूर से ग्राम को वहन करते हुए देखा जो अचक्र स्वधा के द्वारा वर्तमान था। चूंकि यहां चक्र का भी उल्लेख हो रहा है, अतः संभव है कि आरात् से तात्पर्य चक्र के अरों से हो।
*नैताव॑दे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्यु॒क्षा स द्यावा॑पृथि॒वी बि॑भर्ति। त्वचं॑ प॒वित्रं॑ कृणुत स्व॒धावा॒न्यदीं॒ सूर्यं॒ न ह॒रितो॒ वह॑न्ति॥ - ऋ. १०.३१.८
*विश्व॑स्य॒ हि प्रेषि॑तो॒ रक्ष॑सि व्र॒तमहे॑ळयन्नु॒च्चर॑सि स्व॒धा अनु॑। यद॒द्य त्वा॑ सूर्योप॒ब्रवा॑महै॒ तं नो॑ दे॒वा अनु॑ मंसीरत॒ क्रतु॑म्॥(दे. सूर्यः) - ऋ. १०.३७.५
*उ॒त प्र॒हाम॑ति॒दीव्या॑ जयाति कृ॒तं यच्छ्व॒घ्नी वि॑चि॒नोति॑ का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धना॑ रुणद्धि॒ समित्तं रा॒या सृ॑जति स्व॒धावा॑न्॥(दे. इन्द्रः) - ऋ. १०.४२.९, तु. शौ.अ. ७.५२.६
*या ते॒ धामा॑नि पर॒माणि॒ याव॒मा या म॑ध्य॒मा वि॑श्वकर्मन्नु॒तेमा। शिक्षा॒ सखि॑भ्यो ह॒विषि॑ स्वधावः स्व॒यं य॑जस्व त॒न्वं॑ वृधा॒नः॥ - ऋ. १०.८१.५
*ह॒विष्पान्त॑म॒जरं॑ स्व॒र्विदि॑ दि॒वि॒स्पृश्याहु॑तं॒ जुष्ट॑म॒ग्नौ। तस्य॒ भर्म॑णे॒ भुव॑नाय दे॒वा धर्म॑णे॒ कं स्व॒धया॑ पप्रथन्त॥ - ऋ. १०.८८.१
*ता अ॑स्य॒ ज्येष्ठ॑मिन्द्रि॒यं स॑चन्ते॒ ता ई॒मा क्षे॑ति स्व॒धया॒ मद॑न्तीः। ता ईं॒ विशो॒ न राजा॑नं वृणा॒ना बी॑भ॒त्सुवो॒ अप॑ वृ॒त्राद॑तिष्ठन्॥(दे. वरुणः) - ऋ. १०.१२४.८
ताः – आपः
*न मृ॒त्युरा॑सीद॒मृतं॒ न तर्हि॒ न रात्र्या॒ अह्न॑ आसीत्प्रके॒तः। आनी॑दवा॒तं स्व॒धया॒ तदेकं॒ तस्मा॑द्धा॒न्यन्न प॒रः किं च॒नास॑॥ - ऋ. १०.१२९.२
स्वधया – स्वस्मिन् धीयते ध्रियत आश्रित्य वर्तत इति स्वधा माया – सायण भाष्य
*ति॒र॒श्चीनो॒ वित॑तो र॒श्मिरे॑षाम॒धः स्वि॑दा॒सी३दु॒परि॑ स्विदासी३त्। रे॒तो॒धा आ॑सन्महि॒मान॑ आसन्त्स्व॒धा अ॒वस्ता॒त्प्रय॑तिः प॒रस्ता॑त्॥ - ऋ. १०.१२९.५
*उ॒त वा उ॒ परि॑ वृणक्षि॒ बप्स॑द्ब॒होर॑ग्न॒ उल॑पस्य स्वधावः। - ऋ. १०.१४२.३
*प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नय॒ञ्छची॑भि॒रादित्स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्॥ - ऋ. १०.१५७.५
*इन्द्र॑ ए॒तां स॑सृजे वि॒द्धो अग्र॑ ऊ॒र्जां स्व॒धाम॒जरां॒ सा त॑ ए॒षा। तया॒ त्वं जी॑व श॒रदः॑ सु॒वर्चा॒ मा त॒ आ सु॑स्रोद् भि॒षज॑स्ते अक्रन्॥ - शौ.अ. २.२९.७
*यद् राजा॑नो वि॒भज॑न्त इष्टापू॒र्तस्य॑ षोड॒शं य॒मस्या॒मी स॑भा॒सदः॑। अवि॒स्तस्मा॒त् प्र मु॑ञ्चति द॒त्तः शि॑ति॒पात् स्व॒धा॥ - शौ.अ. ३.२९.१
*ब्रह्म॒ ब्रह्म॑ण॒ उज्ज॑भार॒ मध्या॑न्नी॒चैरु॒च्चैः स्व॒धा अ॒भि प्र त॑स्थौ॥ - शौ.अ. ४.१.३
*योऽथ॑र्वाणं पि॒तरं दे॒वब॑न्धुं॒ बृह॒स्पतिं॒ नम॒साव॑ च॒ गच्छा॑त्। त्वं विश्वे॑षां जनि॒ता यथासः॑ क॒विर्दे॒वो न दभा॑यत् स्व॒धावा॑न्॥ - शौ.अ. ४.१.७
*इममो॑द॒नं नि द॑धे ब्राह्म॒णेषु॑ विष्टा॒रिणं॑ लोक॒जितं॑ स्व॒र्गम्। स मे॒ मा क्षे॑ष्ट स्व॒धया॒ पिन्व॑मानो वि॒श्वरू॑पा धे॒नुः का॑म॒दुघा॑ मे अस्तु॥ - शौ.अ. ४.३४.८
*आयु॑ष्कृ॒दायु॑ष्पत्नी॒ स्वधा॑वन्ती गो॒पा मे॑ स्तं गोपा॒यतं॑ मा। आ॒त्म॒सदौ॑ मे स्तं॒ मा॑ हिंसिष्टम्॥(दे. आत्मा, वास्तोष्पतिः) - शौ.अ. ५.९.८
*न त्वद॒न्यः क॒वित॑रो॒ न मे॒धया॒ धीर॑तरो वरुण स्वधावन्। त्वं ता विश्वा॒ भुव॑नानि वेत्थ॒ स चि॒न्नु त्वज्जनो॑ मा॒यी बि॑भाय॥ - शौ.अ. ५.११.४
*त्वं ह्य॑१॒ङ्ग व॑रुण स्वधाव॒न् विश्वा॒ वेत्थ॒ जनि॑मा सुप्रणीते। किं रज॑स ए॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्ये॒ना किं परे॒णाव॑रममुर॥ - शौ.अ. ५.११.५
*अजी॑जनो॒ हि व॑रुण स्वधाव॒न्नथ॑र्वाणं पि॒तरं दे॒वब॑न्धुम्। तस्मा॑ उ॒ राधः॑ कृणुहि सुप्रश॒स्तं सखा॑ नो असि पर॒मं च॒ बन्धुः॑॥ - शौ.अ. ५.११.११
*द्यौश्च॑ म इ॒दं पृ॑थि॒वी च॒ प्रचे॑तसौ शु॒क्रो बृ॒हन् दक्षि॑णया पिपर्तु। अनु॑ स्व॒धा चि॑कितां॒ सोमो॑ अ॒ग्निर्वा॒युर्नः॑ पातु सवि॒ता भग॑श्च॥ - शौ.अ. ६.५३.१
*यच्चक्षु॑षा॒ मन॑सा॒ यच्च॑ वा॒चोपा॑रि॒म जाग्र॑तो॒ यत् स्व॒पन्तः॑। सोम॒स्तानि॑ स्व॒धया॑ नः पुनातु॥ - शौ.अ. ६.९६.३
*स्व॒धास्तु॑ मित्रावरुणा विपश्चिता प्र॒जाव॑त् क्ष॒त्रं मधु॑ने॒ह पि॑न्वतम्। बाधे॑थां दू॒रं निर्ऋ॑तिं परा॒चैः कृ॒तं चि॒देनः॒ प्र मु॑मुक्तम॒स्मत्॥ - शौ.अ. ६.९७.२
*उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित् तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. ७.५२.६, तु. ऋ. १०.४२.९
जो अतिदीवा, जुआ खेलने वालों में अत्यधिक कुशल होता है, वह प्रहा? को जीत लेता है। जो श्वघ्नी, भविष्य का नाश करने वाला, अश्व प्रकार का होता है, वह काल में कृत की भांति चयन कर लेता है(कृत जीते हुए धन को, पांसों को कहते हैं)। जो देवकाम धन का रोधन नहीं करता है, उसके लिए रायः नामक धन स्वधाओं के द्वारा समित् का सृजन करता है। इस कथन की तुलना जैमिनीय ब्राह्मण के इस कथन से की जा सकती है कि अस्त होता हुआ सूर्य वनस्पतियों में स्वधा के रूप में प्रवेश करता है और प्रातःकाल समित् के रूप में पुनः प्राप्त किया जाता है।
*श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ दि॒व्यः सु॑प॒र्णः स॒हस्र॑पाच्छ॒तयो॑निर्वयो॒धाः। स नो॒ नि य॑च्छा॒द् वसु॒ यत् परा॑भृतम॒स्माक॑मस्तु पि॒तृषु॑ स्व॒धाव॑त्॥ - शौ.अ. ७.४२.२
*ये पा॑कशं॒सं वि॒हर॑न्त॒ एवै॒र्ये वा॑ भ॒द्रं दू॒षय॑न्ति स्व॒धाभिः॑। अह॑ये वा॒ तान् प्र॒ददा॑तु॒ सोम॒ आ वा॑ दधातु॒ निर्ऋ॑तेरु॒पस्थे॑॥ - शौ.अ. ८.४.९
*तामुपा॑ह्वयन्त। ऊर्ज॒ एहि॒ स्वध॒ एहि॒ सूनृ॑त॒ एहीरा॑व॒त्येहीति॑। - शौ.अ. ८.११.४
*सोद॑क्राम॒त् सा पि॒तॄनाग॑च्छ॒त् तां पि॒तर॒ उपा॑ह्वयन्त॒ स्वध॒ एहीति॑। तस्या॑ य॒मो राजा॑ व॒त्स आसी॑द् रजतपा॒त्रं पात्र॑म्। तामन्त॑को मार्त्य॒वोऽधो॒क् तां स्व॒धामे॒वाधो॑क्। तां स्व॒धां पि॒तर॒ उप॑ जीवन्त्युपजीव॒नीयो॑ भवति॒ य ए॒वं वेद॑॥ - शौ.अ. ८.१३.८
*अ॒नच्छ॑ये तु॒रगा॑तु जी॒वमेज॑द् ध्रु॒वं मध्य॒ आ पस्त्यानाम्। जी॒वो मृ॒तस्य॑ चरति स्व॒धाभि॒रम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः॥ - शौ.अ. ९.१५.८
- - - -मृत का जीव स्वधाओं द्वारा विचरण करता है और अमर्त्य मर्त्य के साथ सयोनि हो जाता है। ऋ. १०.३७.५ के अनुसार सूर्य स्वधा के अनुदिश चरण करता है(अहेळयन् उच्चरसि स्वधामनु)।
*अपा॒ङ् प्राङे॑ति स्व॒धया॑ गृभी॒तोऽम॑र्त्यो॒ मर्त्ये॑ना॒ सयो॑निः। ता शश्व॑न्ता विषू॒चीना॑ वि॒यन्ता॒ न्य॑१॒न्यं चि॒क्युर्न नि चि॑क्युर॒न्यम्॥ - शौ.अ. ९.१५.१६
एक भाष्यकार ने इस मन्त्र का अर्थ आत्मा व मन के द्वारा किया है कि जीव की अमर्त्य आत्मा स्वधा द्वारा ग्रहण किए जाने पर मरणधर्मा मन के साथ एकयोनि हो जाती है। यद्यपि ये दोनों शाश्वत् हैं, लेकिन विविध दिशाओं में गति करने के कारण इन दोनों में से कोई भी एक-दूसरे का विशिष्ट दर्शन नहीं करता। ऐतरेय आरण्यक २.१.८ का कथन है कि अपान द्वारा ही यह प्राण बंधा हुआ है और दूर नहीं जाता ।
*य॒ज्ञ॒प॒दीरा॑क्षीरा स्व॒धाप्रा॑णा म॒हीलु॑का। व॒शा प॒र्जन्य॑पत्नी दे॒वाँ अप्येति॒ ब्रह्म॑णा॥ - शौ.अ. १०.१०.६
कहा जा रहा है कि वशा गौ यज्ञपदी है, इरा उसका क्षीर है, स्वधा उसका प्राण है। इरा से तात्पर्य गुरुत्वाकर्षण से विपरीत दिशा में वर्धन करने का ओषधियों का गुण है। स्वधा के साथ इरा प्रायः प्रकट हो रहा है। जैसा कि ऊपर टिप्पणी में कहा जा चुका है, स्वधा जितनी अधिक होगी, इरा गुण उतना ही अधिक होगा।
*तद् भ॒द्राः सम॑गच्छन्त व॒शा देष्ट्र्यथो॑ स्व॒धा। अथ॑र्वा॒ यत्र॑ दीक्षि॒तो ब॒र्हिष्यास्त॑ हिर॒ण्यये॑॥ - शौ.अ. १०.१०.१७
जहां दीक्षित अथर्वा हिरण्ययी बर्हियों पर विराजमान होता है, वहां देष्ट्री, देने वाली वशा व स्वधा भद्र होकर आते हैं। यज्ञ की भाषा में वशा बांझ गौ को कहते हैं। डा. फतहसिंह वशा की परिभाषा संकोच-वर्धन से रहित, अंग्रेजी के waxing-waning of moon से रहित स्थिति द्वारा करते हैं।
*व॒शा मा॒ता रा॑ज॒न्यस्य व॒शा मा॒ता स्व॑धे॒ तव॑। व॒शाया॑ य॒ज्ञ आयु॑धं॒ तत॑श्चि॒त्तम॑जायत॥ - शौ.अ. १०.१०.१८
*सूनृता॒ संन॑तिः॒ क्षेमः॑ स्व॒धोर्जामृतं॒ सहः॑। उच्छि॑ष्टे॒ सर्वे॑ प्र॒त्यञ्चः॒ कामाः॒ कामे॑न तातृपुः॥ - शौ.अ. ११.९.१३
इस मन्त्र में स्वधा के साथ ऊर्जा शब्द प्रकट हुआ है। इरा की भांति ऊर्जा की प्रकृति भी ऊर्ध्वगामी है। आश्विन् – कार्तिक मासों का नाम इष – ऊर्ज है। इष-ऊर्ज में इष, वर्षा की प्रकृति अधोगामी है। कईं स्थानों पर कहा गया है कि मृत का जीव वहीं जाता है जहां ऊर्ज उसे ले जाती है।
*भूम्यां॑ दे॒वेभ्यो॑ ददति य॒ज्ञं ह॒व्यमरं॑कृतम्। भूम्यां॑ मनु॒ष्या जीवन्ति स्व॒धयान्ने॑न॒ मर्त्याः॑। सा नो॒ भूमिः॑ प्रा॒णमायु॑र्दधातु ज॒रद॑ष्टिं मा पृथि॒वी कृ॑णोतु॥ - शौ.अ. १२.१.२२
*व्याक॑रोमि ह॒विषा॒हमे॒तौ तौ ब्रह्म॑णा॒ व्य॑१॒हं क॑ल्पयामि। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒जरां॑ कृ॒णोमि॑ दी॒र्घेणायु॑षा॒ समि॒मान्त्सृ॑जामि॥(दे. मृत्युः) - शौ.अ. १२.२.३२
*स्व॒धा॒का॒रेण॑ पि॒तृभ्यो॑ य॒ज्ञेन॑ दे॒वता॑भ्यः। दाने॑न राज॒न्यो व॒शाया॑ मा॒तुर्हेडं॒ न ग॑च्छति॥ - शौ.अ. १२.४.३२
कहा जा रहा है कि राजन्य द्वारा स्वधाकार करने से पितरों का, यज्ञ करने से देवताओं से, दान से वशा गौ से हेड, क्रोध प्राप्त नहीं होता। स्वधाकार व पितरों में क्या सम्बन्ध है, इसकी व्याख्या यह मानकर की जा सकती है कि पितर हमारा अचेतन मन, चित्त आदि हैं और स्वधा से तात्पर्य अपने अन्दर के तनावों से मुक्ति पाना है। यदि अचेतन मन तनावों पर पलेगा तो अनिष्ट होगा ही।
*स॒त्येनावृ॑ता श्रि॒या प्रावृ॑ता॒ यश॑सा॒ परी॑वृता॥ स्व॒धया॒ परि॑हिता श्र॒द्धया॒ पर्यू॑ढा दी॒क्षया॑ गु॒प्ता य॒ज्ञे प्रति॑ष्ठिता लो॒को नि॒धन॑म्॥(दे. ब्रह्मगवी) - शौ.अ. १२.५.३
*यत् प्राङ् प्र॒त्यङ् स्व॒धया॒ यासि॒ शीभं॒ नाना॑रूपे॒ अह॑नी॒ कर्षि॑ मा॒यया॑। तदा॑दित्य॒ महि॒ तत् ते॒ महि॒ श्रवो॒ यदेको॒ विश्वं॒ परि॒ भूम॒ जाय॑से॥ - शौ.अ. १३.२.३
*भू॒तं च भव्यं॑ च श्र॒द्धा च॒ रुचि॑श्च स्व॒र्गश्च॑ स्व॒धा च॑। य ए॒तं दे॒वमे॑क॒वृतं॒ वेद॑॥ - शौ.अ. १३.६.२
इस कथन में स्वर्ग व स्वधा को दो छोर कहा जा रहा है, वैसे ही जैसे भूत और भव्य हैं। व्याख्या अपेक्षित है। हो सकता है कि स्वर्ग जाने के लिए पापों का नाश आवश्यक हो जबकि स्वधा के लिए नहीं। स्वर्ग स्वाहा का पर्यायवाची भी हो सकता है।
*स यत् पि॒तॄननु॒ व्यच॑लद् य॒मो राजा॑ भू॒त्वानु॒व्यचलत् स्वधाका॒रम॑न्ना॒दं कृ॒त्वा॥ स्व॒धा॒का॒रेणा॑न्ना॒देनान्न॑मत्ति॒ य ए॒वं वेद॑॥ - शौ.अ. १५.१४.१३
*यद॑ग्न ए॒षा समि॑ति॒र्भवा॑ति दे॒वी दे॒वेषु॑ यज॒ता य॑जत्र। रत्ना॑ च॒ यद् वि॒भजा॑सि स्वधावो भा॒गं नो॒ अत्र॒ वसु॑मन्तं वीतात्॥ - शौ.अ. १८.१.२६
*सर॑स्वति॒ या स॒रथं॑ य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॒ह॒स्रा॒र्घमि॒डो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाय धेहि॥ - शौ.अ. १८.१.४३
*आहं पि॒तॄन्त्सु॑वि॒दत्राँ॑ अवित्सि॒ नपा॑तं च वि॒क्रम॑णं च॒ विष्णोः॑। ब॒र्हि॒षदो॒ ये स्व॒धया॑ सु॒तस्य॒ भज॑न्त पि॒त्वस्य इ॒हाग॑मिष्ठाः॥ - शौ.अ. १८.१.४५
*प्रेहि॒ प्रेहि॑ प॒थिभिः॑ पू॒र्याणै॒र्येना॑ ते॒ पूर्वे॑ पि॒तरः॒ परे॑ताः। उ॒भा राजा॑नौ स्व॒धया॒ मद॑न्तौ य॒मं प॑श्यासि॒ वरु॑णं च दे॒वम्॥ - शौ.अ. १८.१.५४
*अव॑ सृज॒ पुन॑रग्ने पि॒तृभ्यो॒ यस्त॒ आहु॑त॒श्चर॑ति स्व॒धावा॑न्। आयु॒र्वसा॑न॒ उप॑ यातु॒ शेषः॒ सं ग॑च्छतां त॒न्वा सु॒वर्चाः॑॥ - शौ.अ. १८.२.१०
*अ॒सं॒बा॒धे पृ॑थि॒व्या उ॒रौ लो॒के नि धी॑यस्व। स्व॒धा याश्च॑कृ॒षे जीव॒न् तास्ते॑ सन्तु मधु॒श्चुतः॑॥ - शौ.अ. १८.२.२०
हे मरने वाले पुरुष, तू पृथिवी के उरु लोक में स्थित हो जो बाधाओं से रहित है। तूने जीते जी जो स्वधाएं अर्जित की हैं, वह तेरे लिए मधु का च्यवन करने वाली हों।
*ये अग्निद॒ग्धा ये अन॑ग्निदग्धा॒ मध्ये॑ दि॒वः स्व॒धया॑ मा॒दय॑न्ते। त्वं तान् वे॑त्थ॒ यदि॒ ते जा॑तवेदः स्व॒धया॑ य॒ज्ञं स्वधि॑तिं जुषन्ताम्॥ - शौ.अ. १८.२.३५
इसका एक अर्थ तो यह लिया जाता है कि जिन मृतकों का अग्नि में दहन किया गया है, जिनका नहीं किया गया है, जो द्युलोक में स्वधा के द्वारा मद प्राप्त करते हैं। दूसरा अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है कि अग्निष्वात्त पितरों को अग्नि ही दग्ध करती है, पवित्र करती है। वास्तुसूत्रोपनिषद की टीका में कहा गया है कि दहन का कार्य स्वाहा का है, जबकि पचन का स्वधा का। बर्हिषद नामक पितरों का सम्बन्ध दक्षिणाग्नि या कव्यवाहन अग्नि से है। इस अग्नि पर अन्न का पाचन किया जाता है। - - - - - मन्त्र के दूसरे भाग में स्वधा से स्वधिति, यज्ञ की छुरी प्राप्त करने का निर्देश है।
*अ॒भि त्वो॑र्णोमि पृथि॒व्या मा॒तुर्वस्त्रे॑ण भ॒द्रया॑। जी॒वेषु॑ भ॒द्रं तन्मयि॑ स्व॒धा पि॒तृषु॒ सा त्वयि॑॥ - शौ.अ. १८.२.५२
*उत् ति॑ष्ठ॒ प्रेहि॒ प्र द्र॒वौकः॑ कृणुष्व सलि॒ले स॒धस्थे॑। तत्र॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒नः सं सोमे॑न॒ मद॑स्व॒ सं स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. १८.३.८
*प्राच्यां॑ त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३०॥ दक्षि॑णायां त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३१॥ प्र॒तीच्यां॑ त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३२॥ उदी॑च्यां त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३३॥ ध्रु॒वायां॑ त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३४॥ ऊ॒र्ध्वायां॑ त्वा दि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॒क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ॥३५॥ - शौ.अ. १८.३.३०-३५
हे प्रेत, प्राची दिशा में पहले से संवृत स्वधा में मैं तुझे रखता हूं। संवृत का एक अर्थ ढंका हुआ होता है। अध्यात्म में संवृत का अर्थ अपनी इन्द्रियों का, अपने मन का नियन्त्रण करने से, उन्हें अन्तर्मुखी करने से लिया जा सकता है। पुराणों में संवर्त ऋषि की कथा आती है। यह मन्त्र संकेत देता है कि स्वधा का नियन्त्रण विभिन्न दिशाओं में करना है।
*त्वम॑ग्न ईडि॒तो जा॑तवे॒दोऽवा॑ड्ढ॒व्यानि॑ सुर॒भीणि॑ कृ॒त्वा। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥ - शौ.अ. १८.३.४२
इस मन्त्र में पितरों के स्वधा द्वारा अक्षन् का उल्लेख है। अक्षन् का सामान्य अर्थ भक्षण होता है। इसका दूसरा अर्थ यह लिया जा सकता है कि पितरों में अक्ष, द्यूत की क्रिया तो होती है, द्यूत से रहित स्थिति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। द्यूत भी स्वधा द्वारा रूपान्तरित होनी चाहिए।
*(हे प्रेत) अ॒पूपापि॑हितान् कुम्भान् यांस्ते॑ दे॒वा अधा॑रयन्। ते ते॑ सन्तु स्व॒धाव॑न्तो॒ मधु॑मन्तो घृत॒श्चुतः॑॥ - शौ.अ. १८.३.६८, १८.४.२५
*(हे प्रेत) यास्ते॑ धा॒ना अ॑नुकि॒रामि॑ ति॒लमि॑श्राः स्व॒धाव॑तीः। तास्ते॑ सन्तु वि॒भ्वीः प्र॒भ्वीस्तास्ते॑ य॒मो राजानु॑ मन्यताम्॥ - शौ.अ. १८.३.६९
*(हे प्रेत) यास्ते॑ धा॒ना अ॑नुकि॒रामि॑ ति॒लमि॑श्राः स्व॒धाव॑तीः। तास्ते॑ सन्तू॒द्भ्वीः प्र॒भ्वीस्तास्ते॑ य॒मो राजानु॑ मन्यताम्॥ - शौ.अ. १८.४.२६, १८.४.४३
*स॒हस्र॑धारं श॒तधा॑र॒मुत्स॒मक्षि॑तं व्य॒च्यमा॑नं सलि॒लस्य॑ पृ॒ष्ठे। ऊर्जं॒ दुहा॑नमनप॒स्फुर॑न्त॒मुपा॑सते पि॒तरः॑ स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. १८.४.३६
*पु॒त्रं पौत्र॑मभित॒र्पय॑न्ती॒रापो॒ मधु॑मतीरि॒माः। स्व॒धां पि॒तृभ्यो॑ अ॒मृतं॒ दुहा॑ना॒ आपो॑ दे॒वीरु॒भयां॑स्तर्पयन्तु॥ - शौ.अ. १८.४.३९
*ये ते॑ म॒न्थं यमो॑द॒नं यन्मां॒सं नि॑पृ॒णामि॑ ते। ते ते॑ सन्तु स्व॒धाव॑न्तो॒ मधु॑मन्तो घृत॒श्चुतः॑॥ - शौ.अ. १८.४.४२
*सर॑स्वति॒ या स॒रथं य॒याथो॒क्थैः स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद॑न्ती। स॒हस्रा॒र्घमि॒डो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानाया धेहि॥ - शौ.अ. १८.४.४७
*अभू॑द् दू॒तः प्रहि॑तो जा॒तवे॑दाः सा॒यं न्यह्न॑ उप॒वन्द्यो॒ नृभिः॑। प्रादाः॑ पि॒तृभ्यः॑ स्व॒धया॒ ते अ॑क्षन्न॒द्धि त्वं दे॑व॒ प्रय॑ता ह॒वींषि॑॥ - शौ.अ. १८.४.६५
*अ॒ग्नये॑ कव्य॒वाह॑नाय स्व॒धा नमः॑॥७१॥ सोमा॑य पि॒तृम॑ते स्व॒धा नमः॑॥७२॥ पि॒तृभ्यः॒ सोम॑वद्भ्यः स्व॒धा नमः॑॥७३॥ य॒माय॑ पि॒तृम॑ते स्व॒धा नमः॑॥७४॥ ए॒तत् ते॑ प्रततामह स्व॒धा ये च॒ त्वामनु॑॥७५॥ ए॒तत् ते॑ ततामह स्व॒धा ये च॒ त्वामनु॑॥७६॥ ए॒तत् ते॑ तत स्व॒धा॥७७॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यः॑ पृथिवि॒षद्भ्यः॑॥७८॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यो॑ अन्तरिक्ष॒सद्भ्यः॑॥७९॥ स्व॒धा पि॒तृभ्यो॑ दिवि॒षद्भ्यः॑॥८०॥ - शौ.अ. १८.४.७१-८०
पुराण का कथन है कि स्वधा नमः यम के लिए किया जाता है। नमः में देव अंश विद्यमान है।
*नमो॑ वः पितरः स्व॒धा वः॑ पितरः॥ - शौ.अ. १८.४.८५
*शं नो॑ धा॒ता शमु॑ ध॒र्ता नो॑ अस्तु॒ शं न॑ उरू॒ची भ॑वतु स्व॒धाभिः॑। शं रोद॑सी बृह॒ती शं नो॒ अद्रिः॒ शं नो॑ दे॒वानां॑ सु॒हवा॑नि सन्तु॥ - शौ.अ. १९.१०.३
*क॒री॒षिणीं॒ फल॑वतीं स्व॒धामिरां॑ च नो गृ॒हे। औदु॑म्बरस्य॒ तेज॑सा धा॒ता पु॒ष्टिं द॑धातु मे॥ - शौ.अ. १९.३१.३
*उ॒श॒ती रात्र्यनु॒ सा भ॒द्राभि ति॑ष्ठते मि॒त्र इ॑व स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. १९.४९.२
*मारे अ॒स्मद् वि मु॑मुचो॒ हरि॑प्रिया॒र्वाङ् या॑हि। इन्द्र॑ स्वधावो॒ मत्स्वे॒ह॥ - शौ.अ. २०.२३.८
*आदह॑ स्व॒धामनु॒ पुन॑र्गर्भ॒त्वमे॑रि॒रे। दधा॑ना॒ नाम॑ य॒ज्ञिय॑म्॥(दे. मरुतः) - शौ.अ. २०.४०.३, २०.६९.१२
*प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नयं॒ छची॑भि॒रादित् स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्। अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑॥ - शौ.अ. २०.६३.३, २०.१२४.६
*उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले। यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित् तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑॥ - शौ.अ. २०.८९.९
*देवासुर संग्राम से पूर्व देवों द्वारा पृथिवी के भाग को चन्द्रमा में स्थापित करना : स यदस्यै पृथिव्या अनामृतं देवयजनमासीत्तच्चन्द्रमसि न्यदधत। तदेतच्चन्द्रमसि कृष्णम्। तस्मादाहुः – चन्द्रमस्यस्यै पृथिव्यै देवयजनमिति। - -स प्रतिमार्ष्टि – पुरा क्रूरस्य विसृपो विरप्शिन् इति। संग्रामो वै क्रूरम्। - - उदादाय पृथिवीं जीवदानुम् इति। उदादाय हि यदस्यै पृथिव्यै जीवमासीत्, तच्चन्द्रमसि न्यदधत। - -- यामैरयँँश्चन्द्रमसि स्वधाभिः इति। यां चन्द्रमसि ब्रह्मणादधुरित्येवैतदाह। तामु धीरासोऽअनुदिश्य यजन्ते इति। - मा.श. १.२.५.१९
कहा जा रहा है कि पृथिवी के श्रेष्ठतम भाग जीव को जो चन्द्रमा में स्थापित किया जाता है, उसका ईरयन्, गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध उसको गतिमान करना स्वधाओं द्वारा किया जाता है।
*उत्तराघारः – स स्रुचोत्तरमाघारमाघारयिष्यन् पूर्वेण स्रुचावञ्जलिं निदधाति – नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यः इति। तद्देवेभ्यश्चैवैतत् पितृभ्यश्चार्त्विज्यं करिष्यन् निह्नुते(शमयति)। - मा.श. १.४.५.१
*पिण्डपितृयज्ञः – अथैनं (प्रजापतिं) पितरः प्राचीनावीतिनः सव्यं जान्वाच्योपासीदन्। तानब्रवीत् – मासि-मासि वोऽशनम्, स्वधा वः, मनोजवो वः, चन्द्रमा वो ज्योतिः इति। - मा.श. २.४.२.२
*पिण्डपितृयज्ञः – अथ परस्तादुल्मुकं निदधाति। स यदनिधायोल्मुकमथैतत् पितृभ्यो दद्यात् – असुररक्षसानि हैषामेतद्विमथ्नीरन्। तथो हैतत् पितॄणामसुररक्षसानि न विमथ्नते। - - -। स निदधाति – ये रूपाणि प्रतिमुञ्चमाना असुराः सन्तः स्वधया चरन्ति। परापुरो निपुरो ये भरन्त्यग्निष्टान् लोकात्प्रणुदात्यस्मात् इति। - मा.श. २.४.२.१५
*चातुर्मास्ययागे साकमेधे पितृयज्ञः – ते सर्व एव प्राचीनावीतिनो भूत्वा, एतैर्वै हविर्भिः प्रचरिष्यन्तः - - - -। तदुताश्रावयन्ति। ॐ स्वधा इति(अध्वर्यु आश्रावयेत्)। अस्तु स्वधा इति (आग्नीध्रः) प्रत्याश्रावणम्। स्वधा नमः इति वषट्कारः(होतुः)। - मा.श. २.६.१.२४
(ॐ श्रावय, अस्तु श्रौषट्, वौषट् के स्थान पर)
*राजसूये अभिषेकोत्तरकर्माणि। रथारोहणम् – तमातिष्ठति। अव्यथायै त्वा स्वधायै त्वा इति। - -- - स्वधायै त्वेति रसाय त्वेत्येवैतदाह – मा.श. ५.४.३.७
*पंचमहायज्ञब्राह्मणम् -- अहरहर्भूतेभ्यो बलिं हरेत्। तथैतं भूतयज्ञं समाप्नोति। अहरहर्दद्यादोदपात्रात्। तथैतं मनुष्य यज्ञं समाप्नोति। अहरहः स्वधाकुर्यादोदपात्रात्तथैतं पितृयज्ञं समाप्नोति। अहरहः स्वाहा कुर्यादा काष्ठात्। तथैतं देवयज्ञं समाप्नोति। अथ ब्रह्मयज्ञः। - -- – मा.श. ११.५.६.२
*पयआहुतयो ह वा एता देवानाम् यदृचः स य एवं विद्वानृचोऽहरहः स्वाध्यायमधीते पयआहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄ!न्त्स्वधा अभिवहन्ति – मा.श. ११.५.६.४
*आज्याहुतयो ह वा एता देवानाम् यद्यजूंषि स य एवं विद्वान्यजूंष्यहरहः स्वाध्यायमधीत आज्याहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄ!न्त्स्वधा अभिवहन्ति – मा.श. ११.५.६.५
*सोमाहुतयो ह वा एता देवानाम् यत्सामानि स य एवं विद्वान्त्सामान्यहरहः स्वाध्यायमधीते सोमाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄ!न्त्स्वधा अभिवहन्ति – मा.श. ११.५.६.६
*मेदाअहुतयो ह वा एता देवानाम् यदथर्वाङ्गिरसः स य एवं विद्वानथर्वाङ्गिरसोऽहरहः स्वाध्यायमधीते मेदाअहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रे तसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या मधुकुल्याः पितॄ!न्त्स्वधा अभिवहन्ति – मा.श. ११.५.६.७
*मध्वाहुतयो ह वा एता देवानाम् यदनुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंस्यः स य एवं विद्वाननुशासनानि विद्या वाकोवाक्यमितिहासपुराणं गाथा नाराशंसीरित्यहरहः स्वाध्यायमधीते मध्वाहुतिभिरेव तद्देवांस्तर्पयति त एनं तृप्तास्तर्पयन्ति योगक्षेमेण प्राणेन रेतसा सर्वात्मना सर्वाभिः पुण्याभिः सम्पद्भिर्घृतकुल्या
मधुकुल्याः पितॄ!न्त्स्वधा अभिवहन्ति – मा.श. ११.५.६.८
*गवामयनम् – श्रद्धाया वै देवा दीक्षां निरमिमत। - - - -आदित्यात्प्रवर्ग्यम्। स्वधाया उपसदः। – मा.श. १२.१.२.१
*सौत्रामणी यागः -- अस्थिभ्य एवास्य स्वधा अस्रवत्, स न्यग्रोधो अभवत्। - मा.श. १२.७.१.९
*नैयग्रोधं (पात्रं) भवति। स्वधामेवावरुंधे। - मा.श. १२.७.२.१४
*पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः (वा.सं. १९.३६) इति। पितॄनेव पितृलोके स्वधायां दधाति। पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः इति। पितामहानेव पितामहलोके स्वधायां दधाति। प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः इति। प्रपितामहानेव प्रपितामहलोके स्वधायां दधाति। - मा.श. १२.८.१.७
*स जुहोति। ये समाना समनसः पितरो यमराज्ये। तेषां लोकः स्वधा नमो यज्ञो देवेषु कल्पताम् इति(वा.सं. १९.४५)। पितॄनेव यमे परिदधाति। - मा.श. १२.८.१.१९
*स्वधा वै शरद् – मा.श. १३.८.१.४
*स्वधो वै पितॄणामन्नम् – मा.श. १३.८.१.४(तु. काठ.सं. ३६.१३)
*वाचं धेनुमुपासीत। तस्याश्चत्वारः स्तनाः – स्वाहाकारो वषट्कारो हन्तकारः स्वधाकारः। तस्यै द्वौ स्तनौ देवा उपजीवन्ति। स्वाहाकारं च वषट्कारं च। हन्तकारं मनुष्याः। स्वधाकारं पितरः। - मा.श. १४.८.९.१
*वाजपेयः -- सोमाय पितृपीताय स्वधा नम इत्याह। पितुरेवाधि सोमपीथमवरुन्धे। - -- - -अग्नये कव्यवाहनाय स्वधा नम नम इत्याह। य एव पितॄणामग्निः। तं प्रीणाति। - तै.ब्रा. १.३.१०.३
*राजसूये चातुर्मास्यानि – प्रजा वै सत्रमासत तपस्तप्यमाना अजुह्वतीः। देवा अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेनार्धमास ऊर्जमवारुन्धत। - - -- पितरो अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन मास्यूर्जमवारुन्धत। तस्मान्मासि पितृभ्यः क्रियते। मनुष्या अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन द्वीमूर्जमवारुन्धत। तस्माद्द्विरह्नो मनुष्येभ्य उपह्रियते। प्रातश्च सायं च। पशवो अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन त्रयीमूर्जमवारुन्धत। तस्मात्त्रिरह्नः पशवः प्रेरते। प्रातः सङ्गवे सायम्। असुरा अपश्यं चमसं घृतस्य पूर्णं स्वधाम्। तमुपोदतिष्ठन्तमजुहवुः। तेन संवत्सर ऊर्जमवारुन्धत। - तै.ब्रा. १.४.९.१
*आ स्वधेति आश्रावयति। अस्तु स्वधेति प्रत्याश्रावयति। स्वधा नम इति वषट्करोति – तै.ब्रा. १.६.९.५
ब्रह्माण्ड पुराण १.२.१३.१० में यम के लिए स्वधा नम कहने का निर्देश है।
*सौत्रामणेः कौकिल्या। दक्षिणेन आहवनीयं पयःशेषं पितृपितामहप्रपितामहेभ्यो ददाति – पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। पितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। प्रपितामहेभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः। अक्षन्पितरः।--- --तै.ब्रा. २.६.३.२
*ये समाना समनसः। पितरो यमराज्ये। तेषां लोकः स्वधा नमः। यज्ञो देवेषु कल्पताम्( इति अध्वर्युः आहुतीर्जुहोति) – तै.ब्रा. २.६.३.४
सौत्रामणेः कौकिल्या -- प्लाशीर्व्यक्तः शतधार उत्सः। दुहे न कुम्भीं स्वधां पितृभ्यः। - तै.ब्रा. २.६.४.४
प्लाशी – नासिकाछिद्रस्थानीयः। व्यक्तः – सुरावनयनार्थं शतच्छिद्र युक्तो कुम्भः। उत्सः – सुरास्रवणयुक्तत्वात्। – सायण भाष्य
*सौत्रामणेः कौकिल्यां अनुयाजानां मैत्रावरुणप्रैषाः – देवो अग्निः स्विष्टकृत्। - - -- -होता होत्रे स्विष्टकृत्। यशो न दधदिन्द्रियम्। ऊर्जमपचितिं स्वधाम्। वसुवने वसुधेयस्य वियन्तु यज। - तै.ब्रा. २.६.१४.६
*सवे रथारोहण मन्त्राः – द्यौश्च त्वा पृथिवी च प्रचेतसा। शुक्रो बृहद्दक्षिणा त्वा पिपर्तु। अनु स्वधा चिकितां सोमो अग्निः। आयं पृणक्तु रजसि उपस्थम्। - तै.ब्रा. २.७.८.२, २.७.१६.२
*पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या – क्व स्या वो मरुतः स्वधाऽऽसीत्। यन्मामेकं समधत्ताहिहत्ये। अहं ह्युग्रस्तविषस्तुविष्मान्। विश्वस्य शत्रोरनमं वधस्नैः – तै.ब्रा. २.८.३.५
*पुरोडाशस्य पुरोनुवाक्या – अंसेष्वा मरुतः खादयो वः। वक्षःसु रुक्मा उपशिश्रियाणाः। वि विद्युता न व्यृष्टिभी रुचानाः। अनु स्वधामायुधैर्यच्छमानाः। - तै.ब्रा. २.८.५.६
*नासदीय सूक्तम् – न मृत्युरमृतं तर्हि न। रात्रिया अह्न आसीत्प्रकेतः। आनीदवातं स्वधया तदेकम्। तस्माद्धान्यं न परः किंच नाआस – तै.ब्रा. २.८.९.४
*नासदीय सूक्तम् -- तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषाम्। अधस्विदासी३दुपरि स्विदासी३त्। रेतोधा आसन्महिमान आसन्। स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात्। - तै.ब्रा. २.८.९.५
अवस्तात् – पारमेश्वरी शक्ति, अधमं कारणम्। प्रयतिः परस्तात् – परमात्म शक्तिः परममुत्तमं कारणम्। प्रकृतिपुरुषौ। - सायण भाष्य
*नक्षत्रेष्टिः -- उपहूता पितरो ये मघासु। मनोजवसः सुकृतः सुकृत्याः। ते नो नक्षत्रे हवमागमिष्ठाः। स्वधाभिर्यज्ञं प्रयतं जुषन्तां। - तै.ब्रा. ३.१.१.६
*दर्शपूर्णमासेष्टिः – प्रेयमगाद्धिषणा बर्हिरच्छेत्याह। विद्या वै धिषणा। - -- मनुना कृता स्वधया वितष्टेत्याह। मानवी हि पर्शुः स्वधा कृता। - तै.ब्रा. ३.२.२.२
*दर्शपूर्णमासेष्टिः। वेदिकरणम् – धा असि स्वधा असीति योयुप्यते शान्त्यै। - तै.ब्रा. ३.२.९.१३
*दर्शपूर्णमासेष्टिः – स्वधा पितृभ्य इत्याह। स्वधाकारो हि पितृणाम्। ऊर्ग्भव बर्हिषद्भ्य इति।- - - मासा वै पितरो बर्हिषदः। मासानेव प्रीणाति। मासा वा ओषधीर्वर्धयन्ति। - - - - - तै.ब्रा. ३.३.६.४
*स्वधा पितॄणाम् – काठ.सं. २६.२, कपि.क.सं. ४०.५
*पितरो (गाम्) अदुह्र रजतेन पात्रेणोर्जं च स्वधां च। - मै.सं. ४.२.१
* तां देवा अदुह्र हरितेन पात्रेणामृतं , दुहेऽमृतं य एवं वेद , अथ पितरोऽदुह्र रजतेन पात्रेण स्वधां , दुहे स्वधां य एवं वेद , अथ मनुष्या अदुह्र दारुपात्रेणान्नं ववृ , दुहेऽन्नं ववृ य एवं वेद , अथासुरा अदुह्रायस्पात्रेण स्रवता सुरां - मै.सं. ४.२.१
*पितर आयुष्मन्तस्ते स्वधयायुष्मन्तः – तै.सं. २.३.१०.४
*राजतेन (पात्रेण) पितरोऽदुहुः स्वधाम् – काठ.संक. १४०:९
*अग्निहोत्रम् – असौ वा आदित्यो अस्तं यन् षोढा विम्रोचति। - - - -ब्राह्मणम् एव श्रद्धया प्रविशति पयसा पशूंस् तेजसाग्निम् ऊर्जौषधी रसेनापस् स्वधया वनस्पतीन्।- - - अथ यत् समिधम् अभ्यादधाति यया स्वधया वनस्पतीन् प्रविष्टो भवति ताम् एवास्मिंस् तत् संभरति - जै.ब्रा. १.७
वनस्पति की एक विशेषता यह होती है कि काट दिए जाने पर वह फिर से अंकुरित हो जाती है। इसका कारण वनस्पति में विद्यमान स्टेम सैल हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि स्वधा स्टेम सैलों की उत्पत्ति के लिए भी उत्तरदायी है। लेकिन वर्तमान संदर्भ में स्वधा के वनस्पति में प्रवेश का परिणाम समित् कहा जा रहा है। वनस्पति की एक विशेषता यह होती है कि वह पृथिवी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विरुद्ध उगने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करती है। अतः समित् उस काष्ठ को कहा जा सकता है जिसमें प्रतिक्रिया काष्ठ जैसे कोश या सैल विद्यमान नहीं हैं। इसी तथ्य को मनुष्य जीवन में भी उतारा जा सकता है। वास्तुसूत्रोपनिषद की टीका में स्वधा को पचनात्मिका शक्ति कहा गया है।
*अग्निहोत्रम् -- स ततस् स्वधाम् एव हिरण्मयीं नावं समारुह्य प्रजापतेस् सलोकताम् अभिप्रयाति। - जै.ब्रा. १.२९
*अशरीरा वा आपो अशरीरं घृतम् अशरीरा स्वधा। अशरीरेणाशरीरां स्वधाम् अवरुणधामहा इति। एतावच्छो व्रतयति। - जै.ब्रा. २.१५९
*स एवैष प्रजापतिस् संवत्सरो अभवत्। स इदं सर्वं स्तब्ध्वा व्याप्यातिष्ठत्। स ऐक्षत – कया स्वधया केनान्नाद्येन कयोर्जेदम् अयं व्यापद् इति। तस्मिन्न् एतां स्वधाम् ऊर्जम् अन्नाद्यम् अक्षितिं पर्यपश्यद्- - - - - -। स यो हैवं विद्वान् द्वादशाहेन यजत एताम् एव स्वधाम् ऊर्जम् अन्नाद्यम् अक्षितिम् अवरुन्द्धे। - जै.ब्रा. ३.२
*द्वादशाहे तृतीयम् अहः – आद् अह स्वधाम् अनु पुनर् गर्भत्वम् एरिर इति पुनर् एवैतत् तृतीये अहनि गर्भत्वम् एरयन्ते चतुर्थस्याह्नः प्रजात्यै। - जै.ब्रा. ३.३८
*तपश् च तेजश्च स्वधा चामृतं च तान्य् उ परस्तात्। तपो विद्युत्। तेजो यो विद्युतो अशनिः पतति तत् तत्। स्वधा वृष्टिः।- -- श्लोकः - क्षत्रं राष्ट्रम् ऋतं सत्यं ब्रह्मणो निहितावराः। तपस् तेज स्वधामृतं त ऊर्ध्वास आसते मध्ये ब्रह्म विराजति॥ – जै.ब्रा. ३.३७३
*चातुर्मास्यानि : स्वधा नम इति वषट्करोति स्वधा हि पितॄणां नमस्कारो देवानां – काठ.सं. ३६.१३, तु. मै.सं. १.८.१८
स प्रजापतिर्हरसा हिंकारमुदजयत्। अग्निस्तेजसा प्रस्तावम्। रूपेण बृहस्पतिरुद्गीथम्। स्वधया पितरः प्रतिहारम्। वीर्येणेन्द्रो निधनम्। - जै.उ.ब्रा. १.६.२.२
*सैषा(स्वाहा) देवेषु वषट्कारभूता प्रयुज्यते। पितृयज्ञेषु स्वधाभूता। - षड्विंश ब्रा.५.७.२
*यदृचोऽधीते पयसः कूल्या अस्य पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति यद्यजूंषि घृतस्य कूल्या यत्सामानि सोम एभ्यः पवते यदथर्वाङ्गिरसो मधोः कूल्या यद्ब्राह्मणानीतिहासान्पुराणानि कल्पान्गाथा नाराशंसीर्मेदसः कूल्या अस्य पितॄन्त्स्वधा अभिवहन्ति। - तै.आ. २.१०.१
*पितृमेधे राजगवि हननम् – पुरुषस्य सयावरि वि ते प्राणमसिस्रसम्। शरीरेण महीमिहि स्वधयेहि पितॄनुप प्रजयाऽस्मानिहाऽऽवह (इति अस्याः प्राणान्विस्रंसमानाननुमन्त्रयन्ते) – तै.आ. ६.१.२
*(हे प्रेत) एषा ते यमसादने स्वधा निधीयते गृहे। अक्षितिर्नाम ते असौ (इति अभिवान्यायै दुग्धस्यार्धशरावे मन्थस्त्रिः प्रसव्योपमथित आमपात्रस्थस्तं दक्षिणत उपदधाति) – तै.आ. ६.७.२
*अपूपवान्घृतवांश्चरुरेह सीदतूत्तभ्नुवन्पृथिवीं द्यामुतोपरि। योनिकृतः पथिकृतः सपर्यत ये देवानां घृतभागा इह स्थ। एषा ते यमसादने स्वधा निधीयते गृहेऽसौ। दशाक्षरा तां रक्षस्व तां गोपायस्व तां ते परिददामि तस्यां त्वा मा दभन्पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया। अपूपवाञ्शृतवान्क्षीरवान्दधिवान्मधुमांश्चरुरेह सीदतूत्तभ्नुवन्पृथिवीं द्यामुतोपरि। योनिकृतः पथिकृतः सपर्यत ये देवानां शृतभागाः क्षीरभागा दधिभागा मधुभागा इह स्थ। एषा ते यमसादने स्वधा निधीयते गृहेऽसौ। शताक्षरा सहस्राक्षराऽयुताक्षराऽच्युताक्षरा तां रक्षस्व तां गोपायस्व तां ते परिददामि तस्यां त्वा मादभन्पितरो देवता। प्रजापतिस्त्वा सादयतु तया देवतया। - तै.आ. ६.८.१
*(हे प्रेत) एतास्ते स्वधा अमृताः करोमि यास्ते धानाः परिकिराम्यत्र। तास्ते यमः पितृभिः संविदानोऽत्र धेनूः कामदुघाः करोतु (इति तिलमिश्राभिर्धानाभिस्त्रिः प्रसव्यं परिकिरति) – तै.आ. ६.९.१
*भूरग्नये पृथिव्यै स्वाहा भुवो वायवेऽन्तरिक्षाय स्वाहा सुवरादित्याय दिवे स्वाहा भूर्भुवः सुवश्चन्द्रमसे दिग्भ्यः स्वाहा नमो देवेभ्यः स्वधा पितृभ्यो भूर्भुवः सुवरोम्। - तै.आ. १०.२.१
*घृतं मिमिक्षिरे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतमुवस्य धाम। अनुष्वधमावह मादयस्व स्वाहाकृतं वृषभ वक्षि हव्यम्। - तै.आ. १०.१०.३
२५८अथ तत ऊर्ध्व उदेत्य नैवोदेता नास्तमेतैकल एव मध्ये स्थाता तदेष श्लोकः। - - - - - न ह वा अस्मा उदेति न निम्लोचति सकृद्दिव हैवास्मै भवति य एतामेवं ब्रह्मोपनिषदं वेद। - छां.उ.३.११.१