Elephant as seat of bij mantra of Vishuddhi chakra
Both puraanic and vedic texts mention that Aditi, the mother of 8 suns, gave birth first to seven suns and then to an egg. When the egg was broken, no life was found in it, only luster was there. Puraanic text mentions that life was not visible due to excess luster. This was called a dead egg. The luster was reconfigured, from which a personality free from bondage was born. The remainder of the luster gave birth to an elephant. This remaining luster clears the mystery of elephant. Our whole personality is this remaining luster. Hence this is a form of elephant. Yoga Vaasishtha states that desire is the female elephant, body is the forest where this elephant roams, senses are the child of this elephant, action are it's two tusks, rut/intoxication is the group of impressions on unconsciousness and our outer world view is the battle ground. It seems that what has been called the rut of elephants, vedic texts name it as heat. This heat can be of sexual desires, anger etc. This heat has to be converted into light, the dawn. The sun which rises and sets is the developed form of elephant. The personality which is free from impressions can not have rise or set. Just as the outer sun draws water through it's rays, in the same way, the elephant draws water with it's trunk. Then after purification, this is returned in the form of rain. There is another use of trunk also. An elephant can catch somebody with it's trunk and place him on it's back. One is supposed to sit on the back of sun/elephant.
There is a practical aspect of elephant. When we feel hungry, our whole body is drawn upwards. Then the light of third eye becomes strong. The traction is supposed to come from the whole body, specially from feet.
First published : 30-7-2008 AD( Shraavana krishna chaturdashee, Vikrama samvat 2065)
See also :
Elephant on Indus seals
हस्ती
टिप्पणी : पुराणों और ब्राह्मण ग्रन्थों ( शतपथ ब्राह्मण ३.१.३.४) दोनों में समान रूप से यह आख्यान मिलता है कि अदिति व कश्यप से पहले ७ आदित्य उत्पन्न हुए । फिर एक अण्ड उत्पन्न हुआ जिसके भेदन से बहुत सारा तेज निकला, लेकिन तेज की अधिकता के कारण जीव कहीं दिखाई नहीं दिया । अतः उसे मार्ताण्ड कहा गया । मार्ताण्ड के तेज का कर्तन किया गया जिससे विवस्वान् सूर्य का प्रादुर्भाव हुआ । जो कर्तन के कारण शेष तेज बचा था, उससे हस्ती का प्रादुर्भाव हुआ । हस्ती का सारा रहस्य शेष तेज में ही निहित है । हमारा यह सारा व्यक्तित्व शेष तेज है, अतः हस्ती का रूप है । योगवासिष्ठ ६.१.१२६.७८ का कथन है कि इच्छा करिणी है, शरीर कानन है जिसमें यह करिणी विचरती है । मत्तेन्द्रियां इस करिणी का शावक है, कर्म(शुभाशुभ?) इसके दो दांत हैं, मद वासना व्यूह है, संसार दृष्टियां समरभूमियां हैं । योगवासिष्ठ में ही अन्यत्र कहा गया है कि विवेक व वैराग्य इसके दन्त - द्वय हैं । हस्ती के प्रत्येक अंग को उच्चतर स्तर पर स्थापित करने की संभावना बनती है । वाल्मीकि रामायण ३.३१.४६ में राम के लिए कहा गया है कि हस्ती रूपी राम के लिए तेज मद रूप है, विशुद्ध वंशाभिजन उसका अग्रहस्त है । पौराणिक साहित्य में जिसे हाथी का मद कहा गया है, वैदिक साहित्य में लगता है कि उसे त्वेष कहा गया है । त्वेष को एक गर्मी के रूप में, ताव, तवा के रूप में समझ सकते हैं । सामान्य जीवन में इस त्वेष को काम - क्रोध आदि आवेगों के रूप में लिया जा सकता है । हाथी के इस त्वेष को सूर्य के प्रकाश में, अरुण वर्ण में बदलने की संभावना है । ऋग्वेद १.६४.७ का कथन है कि हाथियों ने मृगों की भांति वनों को खाया जब तविष को आरुणियों से जोड दिया गया । इसी प्रकार ऋग्वेद ४.१६.१४ के अनुसार जब तविष का उषा में रूपान्तर कर दिया जाता है तो हस्ती मृग के तुल्य हो जाता है । सिन्धु घाटी की
मुद्राओं में एक मुद्रा FEM ५९० पर एक ऐसे हाथी का चित्र है। इस मुद्रा पर चि ह न ष अक्षर अंकित प्रतीत होते हैं । चि ह को चिद् के रूप में समझ सकते हैं अथवा निश्चय ही, निश्चित रूप से के अर्थ में ले सकते हैं । न ष को नख/नक्ष के रूप में समझा जा सकता है । पुराणों में नखों को नक्षत्र कहा गया है । नक्षत्र से पूर्व स्थिति क्षत्र की होती है । जब क्षत्र बल ब्राह्मणत्व में रूपान्तरित हो जाए, उसे नक्षत्र कह सकते हैं । नक्ष का दूसरा निर्वचन न - क्षर के रूप में किया जा सकता है । पद्म पुराण ६.१९० में एक मदग्रस्त हाथी अरिमर्दन की कथा आती है जो गीता के १६वें अध्याय के श्लोकों को सुनने पर शान्त चित्त हो गया था । गीता के १६वें अध्याय में काम - क्रोध आदि के रूपान्तरण का ही वर्णन है । तैत्तिरीय संहिता ५.५.११.१ व तैत्तिरीय आरण्यक ३.१०.३ में हिमवान् के लिए हस्ती दान का निर्देश है । हिमवान् का अर्थ सभी प्रकार के तापों से परे की स्थिति हो सकती है । जब पुराणों में हेमहस्ती रथ दान के निर्देश आते हैं तो उन्हें भी इसी संदर्भ में समझने की आवश्यकता है । वाल्मीकि रामायण ४.२४.१७ में विभीषण द्वारा भ्रातृ द्रोह के संदर्भ में पाप हस्ती के रूपक का चित्रण है ।
पुराणों में ऐसा भी कहा गया है कि जो अण्डकपाल - द्वय थे, उनको लेकर रथन्तर सामगान करने पर एक हस्ती का प्राकट्य हुआ जिसे इरा को दे दिया गया । उस इरा से ८ या ४ हस्तियों सुप्रतीक, वामन, अंजन आदि का जन्म हुआ । यहां अण्डकपाल द्यौ और पृथिवी रूप हो सकते हैं । रथन्तर साम द्वारा पृथिवी के तेज की द्युलोक में स्थापना की जाती है, जैसे भौतिक रूप में चन्द्रमा में दिखाई देने वाला कृष्ण भाग पृथिवी का रूप है । रथन्तर साम द्वारा तो ऊर्ध्व - अधो दिशा का रूपान्तरण होता है । लेकिन इस प्रकार उत्पन्न हस्ती से जिन ८ हस्तियों का जन्म होता है, उनका विस्तार ८ दिशाओं में, तिर्यक रूप में होता है ।
पुराणों में इरा से हस्तियों के जन्म के संदर्भ में इस कथन का कोई वैदिक मूल प्राप्त नहीं हो पाया है । ऋग्वेद ४.४.१ की ऋचा 'कृणुष्व पाज: प्रसितिं न पृथ्वीं याहि राजेवामवां इभेन' के संदर्भ में यास्क निरुक्त ६.१२ का कथन है कि यहां इभेन का अर्थ इराभृता गणेन या हस्ती से है । डा. मधुसूदन मिश्र के अनुसार बहुत से शब्दों का अर्थ एकाक्षर कोश के आधार पर ही समझा जा सकता है । इस प्रकार अग्नि पुराण ३४८ में एकाक्षर कोश में इ एकाक्षर का अर्थ काम, रति व लक्ष्मी दिया गया है । भौतिक पृथिवी में गुरुत्वाकर्षण शक्ति के रूप में रति विद्यमान है । हमारे व्यक्तित्व में मन की रति बहुत से सांसारिक पदार्थों में है । वनस्पति जगत की उत्पत्ति इरा प्राण से कही जाती है । वनस्पतियों का वर्धन गुरुत्वाकर्षण शक्ति के विपरीत दिशा में होता है । अतः यह विचारणीय है कि क्या हस्ती में भी कहीं इरा के गुण विद्यमान हैं ? योगवासिष्ठ में विवेक व वैराग्य को हस्ती के दन्त - द्वय कहा गया है । वैराग्य राग का अन्त होना है । इस राग को ही रति कहा जा सकता है ।
यह विचारणीय है कि महाभारत में हस्तिनापुर में कौरवों और पाण्डवों के युद्ध की व्याख्या हस्ती के गुणों के आधार पर किस प्रकार की जा सकती है । डा. शेषाद्रि के अनुसार धतृराष्ट्र मन का प्रतीक है जबकि पाण्डव बुद्धि के । एक आधार हस्ती के दन्त - द्वय हो सकते हैं जिन्हें विवेक और वैराग्य कहा गया है । महाभारत अनुशासन पर्व में इन्द्र द्वारा धृतराष्ट्र का रूप धारण करके गौतम के हस्ती को चुराने का आख्यान है । डा. फतहसिंह के अनुसार राष्ट्र शब्द राष्ट्री, मेरुदण्ड का संकेतक है । धृत का अर्थ होगा जिसका मेरुदण्ड पाशों से युक्त है ।
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सिन्धु घाटी से उपलब्ध मुद्राओं में कईं हाथियों के मेरु दण्ड को रश्मि युक्त चित्रित किया गया है । हस्ती के महावत को अज्ञान कहा गया है ।
हस्ती के रहस्य को गणेश पुराण १.५५ के आधार पर भी समझ सकते हैं जहां कहा गया है कि एक गणेश - भक्त भ्रूशुण्ड को गणेश का रूप प्राप्त हो गया । इस कथन में भ्रूशुण्ड शब्द महत्त्वपूर्ण है । यह संकेत करता है कि हाथी की शुण्ड रहस्यात्मक रूप में भ्रूमध्य की ज्योति का पृथिवी पर, पार्थिव स्तर पर विस्तार है । और यह भी ध्यान देने योग्य है कि भ्रूमध्य की ज्योति का मूल यह पार्थिव स्तर का शरीर ही है । जब पार्थिव स्तर शुद्ध होता है, तभी भ्रूमध्य की ज्योति तीव्र होती है । अतः इसे एक प्रकार से रथन्तर साम का रूप कह सकते हैं ।
जैमिनीय ब्राह्मण १.११ में प्रातःकाल उदित होने वाले और सायंकाल अस्त होने वाले सूर्य को हस्ती का रूप दिया गया है । कहा गया है कि जब सायंकाल अग्नि में अस्त होते हुए सूर्य को आहुति दी जाती है तो पुरुष उस हस्ती रूपी सूर्य पर आरूढ हो जाता है । जब प्रातःकाल उदित होते हुए सूर्य को आहुति दी जाती है तो पुरुष उस हस्ती रूपी सूर्य पर आरूढ होकर उदित होता है । इसका तात्पर्य यह लिया जा सकता है कि एक तो विवस्वान् सूर्य है जो उदय - अस्त में भाग नहीं लेता । जिस सूर्य का उदय - अस्त होता है, उसे हस्ती का स्वरूप दिया गया है । यह हस्ती रूपी सूर्य अपने शुण्ड रूपी कर से पृथिवी से जल आदि का आदान करता है और फिर उसका वर्षण पृथिवी पर करता है । भौतिक सूर्य के संदर्भ में हस्ती की इस शुण्ड को सूर्य की रश्मियां कह सकते हैं । वही सूर्य के कर हैं । जैमिनीय ब्राह्मण ३.३५९ का कथन है कि हस्ती पुरुष को हस्त से उठाकर अपने पृष्ठ पर आरूढ कर लेता है, उसी प्रकार यह देवता विद्वान् को अपनी उरु रश्मियों द्वारा उठाकर - - - पर आरूढ कर लेता है । इन उल्लेखों से यह स्पष्ट होता है कि हस्ती पर आरूढ पुरुष की स्थिति महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वह हस्ती का नियन्त्रण करने वाला होता है ।
व्यावहारिक रूप में हस्ती रूपी सूर्य को इस प्रकार समझा जा सकता है कि क्षुधा की अधिकता होने पर सारे शरीर के प्राण ऊर्ध्वमुखी हो जाते हैं और शीर्ष भाग की ओर गमन करने लगते हैं । यही कारण है कि व्रत - उपवास में शिर में दर्द आदि व्यथा होने लगती है । यह आरम्भिक अवस्था है । उन्नत स्थिति में यह व्यथा आनन्द में भी बदल सकती है । उन्नत स्थिति में हस्ती रूपी सूर्य द्वारा पादतलों से भी कर्षण की अनुभूति होनी चाहिए ।
ऐतरेय ब्राह्मण ६.२७ में हस्ती को शिल्पों में से एक कहा गया है । उपरोक्त कथन से यह स्पष्ट है ।
भागवत पुराण के आठवें स्कन्ध के प्रारम्भ में गज - ग्राह की कथा आती है जो सर्वविदित है । कहा गया है कि राजा इन्द्रद्युम्न जब अपना राजापाट छोडकर एकान्त में तपस्या करने लगा तो अगस्त्य के शाप से हस्ती बन गया । दूसरी ओर हू हू गन्धर्व देवल मुनि के शाप से ग्राह बन गया था । ग्राह द्वारा पीडित होने पर गज द्वारा आर्त अवस्था में विष्णु को पुकारने पर विष्णु ने सुदर्शन चक्र से ग्राह का गला काट दिया और गज की रक्षा की (यह ध्यान देने योग्य है कि पद्म पुराण में ग्राह को अम्बु हस्ती कहा गया है ) । इस कथा में इन्द्रद्युम्न किसी ज्योति का प्रतीक है जिसे अगस्त्य ने शाप देकर हस्ती बनाया है, उस ज्योति का विस्तार चेतना के निम्न स्तरों पर किया है । अन्यत्र गज को हा हा गन्धर्व का शापित रूप कहा गया है । हा हा को जह - त्यागे धातु के द्वारा समझा जा सकता है - जिसका उद्देश्य त्याग करना है । कामनाओं का त्याग सरल नहीं है । केवल ईश्वर की कृपा से ही कामनाओं का त्याग करना, अन्तर्मुखी होना संभव है । दूसरी ओर, जो सभी कामनाओं का प्रत्यक्ष उपभोग करना चाहता है, उनका आह्वान करता है, उसे हू हू गन्धर्व कह सकते हैं, आहूत करने वाला । हू हू को निचले प्रकार के आनन्द की स्थिति भी कह सकते हैं । गज बने हा हा की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक वह स्तुति से युक्त न हो जाए । दूसरी ओर, जो सभी कामनाओं का उपभोग करना चाहता है, उसको सुदर्शन चक्र रूपी सम्यक् दर्शन की आवश्यकता है । सुदर्शन चक्र दु:स्वप्नों का नाश करता है । दु:स्वप्न का अर्थ है मन की कामना कि संसार में जो कुछ हो रहा है, वह मेरे मन के अनुकूल होना चाहिए, प्रतिकूल नहीं । सम्यक् दर्शन वाला व्यक्ति इस कामना से मुक्त हो जाता है ।
वैदिक मन्त्रों में हस्ती शब्द में त अक्षर उदात्त है, जबकि हस्त शब्द में ह अक्षर उदात्त है । ह अक्षर विशुद्धि चक्र का बीज मन्त्र है । विशुद्धि चक्र में व्यञ्जन रूपी जडत्व का लोप होकर केवल शुद्ध स्वर रह जाते हैं ।
शतपथ ब्राह्मण सप्तम काण्ड का नाम हस्तिषट्/हस्तिघट है । इस नामकरण का क्या कारण है, यह अज्ञात ही है । इस काण्ड के पूर्व काण्ड का नाम उखा संभरण है और इसके पश्चात् के २ काण्डों का नाम चिति और संचिति है । हस्तिषट् नाम वाले इस काण्ड में पहले सोमयाग की भांति प्रवर्ग्य आदि कर्मों का वर्णन है और फिर अग्नि चिति का, जिसके अन्तर्गत उखा में पांच पशुओं के शीर्षों की स्थापना की जाती है । उखा का संदर्भ यह संकेत करता है कि हस्ती में जो त्वेष, ऊष्मा विद्यमान है, उसका रूपान्तरण उषा के स्तर तक करना है ।
हस्ती के गज नाम का कोई मूल प्रत्यक्ष रूप से वैदिक साहित्य में प्राप्त नहीं होता ।
सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्राओं में हस्ती के चित्रों पर अंकित लेखों के लिए सिन्धु घाटी मुद्रा निर्वचन वाली वेबसाईट द्रष्टव्य है ।
हस्त्यारोहण मन्त्र : इन्द्रस्य त्वा वज्रेणाभितिष्ठामि स्वस्ति मा संपारय - - - (पारस्कर गृह्य सूत्र ३.१५.१)
*पुरोहित द्वारा ह्स्ती अभिमन्त्रण मन्त्र :
ह॒स्ति॒व॒र्च॒सं प्र॑थतां बृ॒हद् यशो॒ अदि॑त्या॒ यत् त॒न्वः संब॒भूव॑। तत् सर्वे॒ सम॑दु॒र्मह्य॑मे॒तद् विश्वे॑ दे॒वा अदि॑तिः स॒जोषाः॑॥
मि॒त्रश्च॒ वरु॑ण॒श्चेन्द्रो॑ रु॒द्रश्च॑ चेततु। दे॒वासो॑ वि॒श्वधा॑यस॒स्ते मा॑ञ्जन्तु॒ वर्च॑सा॥
येन॑ ह॒स्ती वर्च॑सा संब॒भूव॒ येन॒ राजा॑ मनु॒ष्येष्व॒प्स्व॑१॒न्तः। येन॑ दे॒वा दे॒वता॒मग्र आय॒न् तेन॒ माम॒द्य वर्च॒साग्ने॑ वर्च॒स्विनं॑ कृणु॥
यत् ते॒ वर्चो॑ जातवेदो बृ॒हद् भ॑व॒त्याहु॑तेः। याव॒त् सूर्य॑स्य॒ वर्च॑ आसु॒रस्य॑ च ह॒स्तिनः॑। ताव॑न्मे अ॒श्विना॒ वर्च॒ आ ध॑त्तां॒ पुष्क॑रस्रजा॥
याव॒च्चत॑स्रः प्र॒दिश॒श्चक्षु॒र्याव॑त् समश्नु॒ते। ताव॑त् स॒मैत्वि॑न्द्रि॒यं मयि॒ तद्ध॑स्तिवर्च॒सम्॥
ह॒स्ती मृ॒गाणां॑ सु॒पदा॑मति॒ष्ठावा॑न् ब॒भूव॒ हि। तस्य॒ भगे॑न॒ वर्चसा॒भि षि॑ञ्चामि॒ माम॒हम्॥ - अथर्ववेद ३.२२
हस्ती
टिप्पणी: सैन्धव लेखों के बारे में मेरा मत है कि हर पंक्ति एक वाक्य है । जहां पंक्ति में केवल एक ही अक्षर पाया जाता है, तो वह आज्ञार्थक है । जहां पंक्ति में दो अक्षर मिलते हैं, वहां पहला कर्त्ता है, दूसरा क्रिया । जहां तीन अक्षर मिलते हैं, वहां पहला कर्त्ता, दूसरा कर्म और तीसरा क्रिया हो सकता है । यदि पहला अक्षर अन्यकारक है तो दूसरा व तीसरा कर्त्ता + क्रिया । अनेक अक्षर वाले लेखों में कईं वाक्य होने की संभावना है । कुछ अक्षर पद - समूह भी हैं जिनके आगे क्रिया है । एक ही अक्षर कहीं क्रिया है, कहीं संज्ञा । अनेक अक्षर वाली संज्ञा का विकास तब तक नहीं हुआ था । - मधुसूदन मिश्र
सिन्धु घाटी की मुद्राओं में हाथी के चित्र वाली मुद्राएं भी प्राप्त होती हैं । इन मुद्राओं पर कुछ अक्षर अंकित हैं । एक हाथी की मुद्रा संख्या FEM १२७ पर 'घ ण' अंकित है । इसका अर्थ इस प्रकार लगाया जा सकता है कि घ सूर्य के लिए है और ण उस सूर्य के प्रकाश के प्राणों तक विस्तार के लिए । इस प्रकार घण का साधारण अर्थ होगा - सूर्य चमकता है(The sun shines) । आधुनिक काल की भाषा में इसे घन, बादल समझा जा सकता है । लोहार के भारी हथौडे को भी घन कहा जाता है । घन का एक अर्थ होगा किसी वस्तु को घनीभूत करना । लेकिन जब मेघों के अर्थ में घन को लिया जाता है तो हो सकता है कि इसका अर्थ घ - न, जो घनीभूत नहीं है, इस प्रकार किया गया हो । जो घनीभूत नहीं है, वह अघ, पाप कहलाता है । ऋग्वेद की कईं ऋचाओं में घनः वृत्राणां( ऋ. ८.९६.१८), घनं वृत्राणां( ऋ. ३.४९.१) आदि कथनों के माध्यम से घन शब्द का प्रयोग वृत्रों के हनन के लिए किया गया है । वास्तव में यह कहा जा सकता है कि वृत्रों का हनन उनको घनीभूत करना ही है । आधुनिक विज्ञान की भाषा में यह कहा जा सकता है कि जब कोई द्रव्य विरल अवस्था में रहता है तो उसमें अव्यवस्था, एण्ट्रांपी अधिक होती है । एण्ट्रांपी को कम करने का उपाय है उस द्रव्य को घनीभूत करना ।
संस्कृत साहित्य में हाथी का घन पर्याय विरल ही मिल सकता है । आप्टे - गोडे के संस्कृत - अंग्रेजी कोश में घनाघनः शब्द का एक अर्थ इन्द्र आदि के अतिरिक्त मदमस्त, उपद्रवग्रस्त हाथी भी दिया गया है । प्रश्न यह उठता है कि सिन्धु मुद्रा में हाथी के चित्र पर घन लिखने की आवश्यकता क्यों पडी ? इसका उत्तर गणेश पुराण १.५६.३१ से मिल सकता है जहां भ्रूशुण्डि नामक एक साधक को गणेश सदृश मुख प्राप्त हो गया । इसका तात्पर्य यह हुआ कि सांकेतिक चित्रों में जो हाथी की सूंड दिखाई जा रही है, वह भ्रू - शुण्डि है । भ्रूमध्य ज्योति का स्थान है जहां साधक ज्योति के दर्शन करते हैं । इस ज्योति का अनुभव करना बहुत कठिन नहीं है । लेकिन कुछ साधक ऐसे भी हैं जो इस ज्योति को भ्रूमध्य से चला कर सारे शरीर में घुमाते हैं और उन्हें अलग - अलग अनुभव होते हैं । तन्त्र की भाषा में कहें तो यह कहा जा सकता है कि भ्रूमध्य की ज्योति विज्ञानमय कोश का प्रतिनिधित्व करती है जिसे अन्नमय, प्राणमय और मनोमय कोशों में अवतरित कराना है । भ्रूमध्य की यह ज्योति ही वृत्रों का हनन करने वाली बन सकती है । घन धातु दीप्ति अर्थ में है । बृहदारण्यक उपनिषद २.४.१२ व ४.३.१३ में इस ब्रह्माण्ड को प्रज्ञानघन, विज्ञानघन, रसघन कहा गया है और इसकी उपमा सैन्धव घन से की गई है । जैसे लवण जल में विलीन हो जाता है, उसका कोई अस्तित्व शेष नहीं रहता, बाहर - अन्दर सब रसमय हो जाता है, ऐसे ही प्रज्ञान, विज्ञान आदि हैं ।
स्कन्द पुराण में घनवाहन गन्धर्व की कन्या के शापवश कुष्ठग्रस्त हो जाने की कथा है । अन्यत्र इन्द्र, शिव आदि को घनवाहन कहा जाता है । इसको दो अर्थों में लिया जा सकता है । एक तो मेघ जिसके वाहन हैं, दूसरे हाथी जिसका वाहन है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि घण का एक रूप वैदिक साहित्य में गण शब्द के रूप में प्रकट हुआ है जिसके लिए पुराण विषय अनुक्रमणिका के अन्तर्गत गण शब्द पर टिप्पणी द्रष्टव्य है । गण का अर्थ होगा ऐसा समूह जिससे किसी ऊर्जा का क्षय न हो, अथवा ऐसा कहा जा सकता है कि जिसकी एण्ट्रांपी में वृद्धि न हो ।
हस्ती के चित्र वाली एक अन्य मुद्रा १३७० पर मशमयोष अंकित है । इस लेख की व्याख्या शौनकीय अथर्ववेद ४.३६.९ के निम्नलिखित मन्त्र के आधार पर की जा सकती है :
ये मा क्रोधयन्ति लपिता हस्तिनं मशका इव । तानहं मन्ये दुर्हितान् जने अल्पशयूनिव ।।
मशक मच्छर या क्षुद्र प्राणों को कहते हैं । यह क्षुद्र प्राण ही हाथी रूपी व्यक्तित्व में क्रोध उत्पन्न करते हैं । इनसे मयः, शान्ति, आनन्द की प्राप्ति करनी है ।
हाथी के चित्र वाली मुद्रा संख्या ७२३४ पर चिहढोष लिखा है । चिह अक्षर एकशृङ्गी मृगों वाली मुद्राओं पर भी प्रायः मिलता है । हो सकता है कि इसका साम्य चिद् से हो । चिह का एक सामान्य अर्थ 'निश्चय ही, निश्चित रूप से' आदि लगाया जा सकता है । ढो का अर्थ कथासरित् सागर ९.२.३५३ में 'हस्त्यारोहेण ढौकिता' के आधार पर हाथी को प्रेरित करना लिया जा सकता है ।
सिन्धु घाटी के चित्र FEM ०५८ पर केवल त्र अक्षर अंकित है । भागवत पुराण के आठवें स्कन्ध में गज - ग्राह के आख्यान में गज का निवास त्रिकूट पर्वत बताया गया है । इसके तीन कूट/शिखर रजतमय, लौहमय और हिरण्मय हैं । इसका संकेत सिन्धु घाटी की मुद्रा पर त्र द्वारा दिया गया हो सकता है ।
१३६५ ष न त १३६६ ष छ ग १३६७ हू श ह ह चि १३६८ यू ष न
१३६९ ष र छ नि ह चि १३७३ - - - १३७४ ष क्ल? नि
१५३४ - ष नु ह ह यो १५३५ हे? षि म? ल २०५७ ष त्र ल ह चि
२१६९ - ष घ जि र उ ग २१७१ नु? न ह ढ र २२७८ ष ण च र णु -
२३०४ ष्ठ घ्र र चि २५०४ ष म ल ह चि २५१२(वामावर्त) - - ह चि
२५१७ ष श गु २५९० ष न ह चि २८६८ घ ग इ ३०६० ष न त ह गि षु
४२२९ ष्ठ धी - न ल ह व ४२३० ष घ ज्ञ न्द यु ४२३१ उ ग
६१२० ष - न्द यु ७२३४ ष ढो ह चि ८०७२ क ल र चि च च भ ह
मुद्रा संख्या २८६८ पर घ ग इ अंकित है जबकि मुद्रा संख्या ४२३१ पर उ ग अंकित है ( पठन दाएं से बांए ) । इ का अर्थ है रति, अथवा रति के विरुद्ध दिशा अरति, यास्क के शब्दों में इरा । सिन्धु घाटी की मुद्रा यह संकेत देती है कि इस रति को इरा में बदलना है, ऊर्ध्वमुखी बनाना है । ऊर्ध्वमुखी बनने पर यह क्रमशः गं(ज्ञान वाचक) और घं (घन वाचक) में रूपान्तरित होगी । यह उल्लेखनीय है कि एकशृङ्गी मृग की मुद्राओं पर ग इ अंकन प्राप्त होता है । हस्ती की मुद्रा में घ और जोड दिया गया है । दूसरी ओर, उ ग अंकन के संदर्भ में ऐसी संभावना है कि हस्ती के माध्यम से गं, ज्ञान को उ में रूपान्तरित करना है । डा. फतहसिंह के शब्दों में, इ ऊर्ध्वमुखी है, अग्नि की शक्ति है, जबकि उ अधोमुखी है, वर्षण करने वाला है ।
मुद्राओं की क्रम संख्या श्री ऐरावतम् महादेवन् की पुस्तक The Indus Script – Text, Concordance and Tables (Archaeological Survey of India, New Delhi, 1977) के अनुसार दी गई है ।