Two Upanishads prove a treasure for interpretation of the story of Hiranyakashipu - Nrisimha – prahlaada. These Upanishads nowhere talk of Hiranyakashipu or Prahlaada, but only about Nrisimha. According to this description, there are four parts of Omkara – a, u, m and half vowel. The first three can be explained in the form of three states of consciousness – awakened, dream and deep sleep. The fourth is beyond these three – the state of bliss. The other way of explanation is through the three fires of sacrifice. There is a fourth fire which remains unexplained. And that is the half vowel. That is called Nrisimha. This statement of Upanishads offers valuable information in understanding the rituals of a somayaaga and Ashvamedha yaaga. The half vowel can be properly understood on the basis of rituals performed in the upper section of the somayaaga.
There is a striking similarity between a soma yaaga and Ashwamedha. In Somayaaga, an year is formed through rituals among the three fires. A high glow is generated 12 or 24 times which represents 12 months of an year or 24 fortnights of an year. The extra month called leap year is formed only by the upper section of the ritual. The lower section can be controlled only by the upper section. The lower section is Hiranyakashipu of puraanic stories. And Prahlaada are the achievements due to penances in the lower section. It is desirable that these achievements owe their devotion to the upper section, not to the lower section.
In general, it is well known that cause precedes effect. Effect can not precede cause. But the story of Hiranyakashipu indicates a stage where both cause and effect precede each other. None of them is less important. The first stage, which is prevalent in nature, has been called a shvaana – a dog. Indirect meaning is – dependent on future. The second stage is called a shunah, a dog with no future, which has become standstill. The third stage is ashwa, a horse. Ashwa is also a state without future. There are sacrifices connected with these states. So, in the story of Hiranyakashipu, he thinks that whatever had to be achieved, has been achieved. There is no other cause now, except himself. But the story tells that what had been made standstill in his court- a pillar – the cause generated from it in the form of a half – man, half lion.
It is a guess that the younger brother of Hiranyakashipu – Hiranyaaksha, may also be symbolic of the energy of lower stages.
The word meaning of Hiranyakashipu is a golden mat. This golden mat is generally used by a particular priest in Raajasuuya sacrifice where he narrates the story of Shunahshepa to yajamaana. The highest stage of human consciousness is said to be golden. Therefore, Hiranyakashipu may indicate the personality who acts according to instructions from his golden state. But the story indicates that there are some deficiencies in this personality. He forgets that his lower levels of consciousness can also send instructions. The story tells that there is a balance between lower stages and highest state. One can not ignore lower stages. The lower stages appear in the form of a mixture of egoistic self and pure self and this kills the golden mat state.
In general, it is well known that cause precedes effect. Effect can not precede cause. But the story of Hiranyakashipu indicates a stage where both cause and effect precede each other. None of them is less important. The first stage, which is prevalent in nature, has been called a shvaana – a dog. Indirect meaning is – dependent on future. The second stage is called a shunah, a dog with no future, which has become standstill. The third stage is ashwa, a horse. Ashwa is also a state without future. There are sacrifices connected with these states. So, in the story of Hiranyakashipu, he thinks that whatever had to be achieved, has been achieved. There is no other cause now, except himself. But the story tells that what had been made standstill in his court- a pillar – the cause generated from it in the form of a half – man, half lion.
It is a guess that the younger brother of Hiranyakashipu – Hiranyaaksha, may also be symbolic of the energy of lower stages.
हिरण्यकशिपु की कथा का वैदिक स्वरूप
- विपिन कुमार
हिरण्यकशिपु की कथा को समझने के लिए नृसिंहपूर्वतापनीयोपनिषद और नृसिंहोत्तरतापनीयोपनिषद महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं । इन दो उपनिषदों में मुख्य रूप से ओंकार का प्रतिपादन किया गया है । कहा गया है कि ॐ तीन अक्षरों अ, उ तथा म से बनता है । अन्यत्र कहा गया है कि अकार द्वारा आदान करते हैं, उकार द्वारा धारण और मकार द्वारा विसर्जन । लेकिन इन दो उपनिषदों में यह उल्लेख नहीं है । यहां कहा गया है कि अकार गार्हपत्य अग्नि है, उकार दक्षिणाग्नि है और मकार आहवनीय अग्नि है । अकार ऋग्वेद का रूप है, उकार यजुर्वेद का और मकार सामवेद का । अकार जाग्रत अवस्था है, उकार स्वप्न और मकार सुषुप्ति । अ, उ तथा म से परे ॐ का एक अंग और कहा जाता है - अर्धमात्रा । यह अर्धमात्रा क्या होती है, यह वर्णन संभवतः अन्यत्र सुलभ नहीं है । इन दो उपनिषदों का कहना है कि यह अर्धमात्रा नृसिंह है । यह जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे तुरीयावस्था है । यह तीन वेदों ऋक्, यजु और साम से परे अथर्ववेद की अवस्था है । नृसिंह शब्द में सिंह को क्यों स्थान दिया गया है, इसकी व्याख्या भी इन उपनिषदों में की गई है जो प्रत्यक्ष रूप से बहुत स्पष्ट नहीं है । व्याख्या कुछ इस प्रकार की गई है कि पहली अवस्था नृ - शृङ्ग की होती है । शृङ्ग ऋषभ के होते हैं । अतः पहली अवस्था नृ - ऋषभ की हुई । फिर संभवतः सिंह ऋषभ का भक्षण कर लेता है । अतः शृङ्ग अदृश्य हो जाते हैं । गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित कल्याण - उपनिषद अंक में संभावना व्यक्त की गई है कि यह शृङ्ग अ, उ तथा म हो सकते हैं जो तुरीयावस्था में अदृश्य हो जाते हैं ।
उपरोक्त दो उपनिषदों में तीन अग्नियों - गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि तथा आहवनीय के उल्लेख से हिरण्यकशिपु की कथा का एक नया अध्याय खुलता है तथा साथ ही सोमयाग को एक नए दृष्टिकोण से समझने का अवसर भी मिलता है । सोमयाग के मुख्य कृत्य से पूर्व प्रवर्ग्य - उपसद इष्टियां की जाती हैं जिनकी संख्या १२? अथवा २४ होती है क्योंकि संवत्सर में २४ अर्धमास होते हैं । इस प्रकार मुख्य सोमयाग के कृत्य से पूर्व प्रवर्ग्य द्वारा पूरे संवत्सर का निर्माण कर दिया जाता है । कहा गया है कि प्रवर्ग्य द्वारा यज्ञ के शीर्ष भाग का निर्माण किया जाता है तथा उपसद द्वारा शेष देह का । संवत्सर में १२ मास होते हैं, अतः उसके प्रतीक रूप में १२ प्रवर्ग्य इष्टियों का अनुष्ठान कर लिया जाता है । प्रवर्ग्य इष्टि का सबसे रोचक कृत्य महावीर नामक मृत्तिका पात्र में रखे उबलते हुए घृत में गोपयः और अज पयः का प्रक्षेपण होता है जिससे बहुत ऊंची ज्वाला का निर्माण होता है । प्रवर्ग्य इष्टियों के आरम्भ होने से पूर्व शूद्र से सोम लता का क्रय करके उसका गट्ठर बांध कर उसको आसन्दी नामक आसन पर विराजमान कर दिया जाता है । प्रवर्ग्य पूरे होने तक इस सोम की संज्ञा अतिथि होती है, अतिथिवत् इसका सत्कार किया जाता है । प्रवर्ग्य पूरे हो जाने के पश्चात् प्रवर्ग्य की वेदी को त्याग कर नई वेदी में स्थांतरण किया जाता है जिसे उत्तरवेदी कहते हैं । इस अतिथि सोम का भी वहीं स्थांतरण कर दिया जाता है और उत्तरवेदी में इस सोम को कूट - छान कर इसके द्वारा देवों को आहुतियां दी जाती हैं । उपरोक्त दो उपनिषदों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सोमयाग में उत्तरवेदी में जो कृत्य होते हैं, वह सभी ओंकार की अर्धमात्रा के अन्तर्गत आते हैं ।
हिरण्यकशिपु - नृसिंह की कथा के अश्वमेध याग से सम्बद्ध होने के भी पर्याप्त संकेत मिलते हैं । वायु पुराण में उल्लेख आता है कि कश्यप के अश्वमेध याग में सुत्या अह के प्रथम दिन अतिरात्र में दिति का गर्भ प्रकट होकर होता के लिए नियत हिरण्यकशिपु नामक आसन पर विराजमान हो गया जिसके कारण उसका नाम हिरण्यकशिपु पडा । योगवासिष्ठ ५.३०.१९ में उल्लेख है कि नृसिंह ने हिरण्यकशिपु का वध इस प्रकार किया जैसे द्विप अश्व का करता है । इस प्रकार हिरण्यकशिपु की कथा अश्वमेध याग को समझने का भी अवसर प्रदान करती है । अश्वमेध याग को सोमयागों में अन्तिम कहा जाता है । अश्वमेध और सोमयाग में क्या समानता है, यह अधिक स्पष्ट नहीं है । दोनों में अन्तिम कृत्य सुत्या अह हैं । अश्वमेध याग में मुख्य पशु जिसका वध किया जाना है, वह अश्व है । लेकिन वध किस प्रकार किया जाना है, यह पूर्ण रूप से गुप्त प्रतीत होता है । इसकी झलक केवल हिरण्यकशिपु की कथा से ही मिल सकती है । सोमयाग में सुत्या अह से पूर्व प्रवर्ग्य नामक कृत्य होते हैं जबकि अश्वमेध में संवत्सर पर्यन्त अश्व ब्रह्माण्ड में भ्रमण करता है और यह प्रयत्न करना होता है कि किसी स्थान पर अश्व का बन्धन न होने पाए । सोमयाग में संवत्सर का निर्माण घृत में पयः की १२ या २४ आहुतियों द्वारा किया गया था । जब अश्व विश्व में भ्रमण कर रहा होता है, उस समय प्रतिदिन होता नामक ऋत्विज यजमान को पारिप्लव नामक आख्यान का ख्यापन करता है । यह कहा जा सकता है कि प्रवर्ग्य और अश्व का भ्रमण दोनों तुल्य हैं । अश्व के लौटने पर सुत्या अह के दूसरे दिन हिरण्यकशिपु आसन पर अश्व का वध किया जाता है । उसके पश्चात् ब्रह्मोद्य नामक कृत्य होता है जिसमें होता और ब्रह्मा नामक ऋत्विज यूप के अभितः बैठ जाते हैं और ब्रह्मा ऋत्विज होता के प्रश्नों के उत्तर देता है । कहा गया है कि ब्रह्मा बृहस्पति का रूप है और यूप यजमान का । जैसा कि वायु पुराण में उल्लेख है, कश्यप के अश्वमेध में स्वयं दिति - पुत्र ही होता बन गया था । अतः यह एक पहेली है कि योगवासिष्ठ के कथन के अनुसार अश्व को हिरण्यकशिपु दैत्य माना जाए या होता को । यहां यह संकेत तो मिलता ही है कि यूप रूपी यजमान नृसिंह का रूप है जिससे पुराणों की कथा में नृसिंह का प्राकट्य हुआ । और यह नृसिंह और कुछ नहीं, ओंकार की अर्धमात्रा है ।
अर्धमात्रा क्या हो सकती है, इसका विश्लेषण हिरण्यकशिपु की कथा में इस उल्लेख से किया जा सकता है कि हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे न रात में मारा जा सकेगा, न दिन में । अतः नृसिंह ने उसका वध संध्या समय में किया । संध्या का अर्थ है संधिकाल । कालगणना में पहली सन्धि दिन और रात के बीच होती है । दूसरी सन्धि अमावास्या को कही जाती है । कहा जाता है कि अमावास्या के दिन चन्द्रमा की १५ कलाओं का तो सूर्य भक्षण कर लेता है लेकिन १६वी कला शेष रह जाती है और यह पृथिवी पर आकर ओषधि - वनस्पतियों में लीन हो जाती है । यह १६वी कला अक्षर है और इसी से चन्द्रमा का पुनः जन्म होता है । पूर्णिमा के दिन ऐसा नहीं होता । यह १६वी कला दूसरी सन्धि है । संवत्सर के १२ मासों के पश्चात् १३वां मास आता है जिसे मल मास या पुरुषोत्तम मास कहते हैं । यह तीसरी सन्धि है । इन सन्धियों में हिरण्यकशिपु का वध किया जा सकता है । यह संभव है कि प्रवर्ग्यों के पश्चात् सुत्या अहों द्वारा इन्हीं सन्धियों का निर्माण किया जाता हो ।
सोमयाग में ब्राह्मणत्व की प्रधानता रहती है जबकि अश्वमेध याग में क्षत्र और ब्राह्म बल का सामञ्जस्य स्थापित किया जाता है ।
अश्वमेध याग में कहीं भी प्रह्लाद या ह्लाद जैसा शब्द प्रकट नहीं हुआ है । यह पुराणों की अपनी कल्पना है । ऐसा अनुमान है कि पूरे ओंकार की साधना से जो भोग, सिद्धियां प्राप्त होती हैं, उन्हें प्रह्लाद आदि का नाम दिया गया है । पद्म पुराण ६.१७४.१९ में नृसिंह भगवान् ने इन भोगों के विषय में कहा है कि 'भुक्त्वा मयि विलीनास्तु' अर्थात् यह भोग भी भोग चुकने पर मेरे अन्दर विलीन हो जाते हैं ।
हिरण्यकशिपु शब्द को समझने के लिए सबसे पहले कशिपु को समझना होगा । पाणिनि उणादि भोजवृत्ति २.१.८४ में कशिपु की निरुक्ति इस प्रकार की गई है कि कशि धातु में पु प्रत्यय जुड जाता है - अर्तिकशिभ्यां चिपुक् । इस सूत्र की दण्डनाथ नारायण वृत्ति में कशिपु का अर्थ भोजन और आच्छादन किया गया है । एक स्थान पर कशिपु की निरुक्ति 'कशिर् दीप्तौ । कशेर्यप इपुश्च' रूप में की गई है । सामान्य अर्थों में कशिपु को चटाई या शय्या लिया जाता है - सत्यां क्षितौ किं कशिपो: प्रयासै: । - भागवत २.२.४ अर्थात् जब भूमि ही शय्या बन गई हो तो कशिपु से क्या प्रयोजन? शब्दकल्पद्रुम में कशिपु की निरुक्ति 'कशति दु:खं कश्यते वा कश गतिशासनयो:' रूप में की गई है । हिरण्य या सुवर्ण को मनुष्य की सर्वोच्च स्थिति कहा जा सकता है । अतः हिरण्यकशिपु का अर्थ हुआ वह व्यक्ति जिसके जीवन का आधार समाधि की अवस्था बन गया है, जो अपने सब निर्देश समाधि की अवस्था से ग्रहण करता है । उसे प्रह्लाद, अनुह्राद, संह्राद और ह्राद नामक चार पुत्रों की प्राप्ति होती है( कूर्म पुराण का कथन है कि प्रह्लाद का अस्त्र ब्राह्म है, अनुह्राद का वैष्णव, संह्राद का कौमार और ह्राद का आग्नेय) । ऐसा व्यक्ति समझता है कि जो कुछ प्राप्त होना था, वह प्राप्त हो चुका है । अब कोई वस्तु शेष नहीं रह गई है । संसार में वह ही सब कुछ है । लेकिन पुराणों की कथा संकेत करती है कि नृसिंह रूप में जो मनुष्य का अभिमान शेष है, वह हिरण्यकशिपु से ऊपर है ।
अथर्ववेद ६.१३८.५ के वध्रिसूक्त का कथन है - 'यथा नडं कशिपुने स्त्रियो भिन्दन्त्यश्मना । एवा भिनद्मि ते शेपोऽमुष्या अधि मुष्कयो: ।।' चूंकि यह सूक्त वध्रि या नपुंसक बनने के संदर्भ में है, अतः इसका अर्थ इस प्रकार लिया जाता है कि जिस प्रकार स्त्रियां कशिपु बनाने के लिए नड को पत्थर से भेदती हैं, इसी प्रकार मैं तेरे शेप/शिश्न का मुष्कों से ऊपर भेदन करता हूं । यह मन्त्र संकेत देता है कि कशिपु बनाने में नड/नर, नृ अवस्था को भेदकर अप्रभावी बना दिया जाता है । शेप क्या होता है, यह आगे के वर्णन से स्पष्ट होगा । यह उल्लेखनीय है कि यह सारा प्रसंग राजसूय याग का है जिसका उद्देश्य यह होता है कि विश्व की सभी वस्तुओं से हमें निर्देश प्राप्त हो, वैसे ही जैसे सविता देवता से निर्देश की कामना की जाती है । लेकिन नर अवस्था को वध्रि बना देने से यह निर्देश नहीं आ सकेंगे । इस याग में सबसे पहले अग्नि अनीकवती इष्टि, फिर वैश्वदेव, फिर वरुणप्रघास, फिर साकमेध, फिर शुनासीर यज्ञ किया जाता है । उसके पश्चात् राजा या यजमान का अभिषेक किया जाता है । होता नामक ऋत्विज हिरण्यकशिपु पर आसीन होकर यजमान के लिए शौनःशेप आख्यान का ख्यापन करता है (जबकि अध्वर्यु नामक ऋत्विज हिरण्यकशिपु/हिरण्यकूर्च पर आसीन होकर उसका प्रतिहार करता है, आश्वलायन श्रौत सूत्र ९.३.९, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र १८.१९.१०, बौधायन श्रौत सूत्र १२.१५.२५ ) । यहां शुनःशेप शब्द का निवेश संकेत करता है कि शेप/शिश्न कोई साधारण शब्द नहीं है । और तो और, कशिपु शब्द की निरुक्ति भी शेप के आधार पर की जा सकती है - क: शेप है जिसका । तैत्तिरीय संहिता ७.५.२५.२ में अश्व के मेध्य रूप के संदर्भ में कहा गया है - ग्रावा शेपः, अर्थात् पवित्र बनाए गए अश्व का जो शेप है, वह सोमलता को कूटने वाला, उसे पवित्र करने वाला ग्रावा नामक पत्थर है । डा. फतहसिंह ग्रावा का अर्थ विज्ञानमय कोश की शक्ति लेते हैं - ग्री विज्ञाने । एक ओर क: का, देह के स्तर का शोधन करने वाला हिरण्यकशिपु है तो दूसरी ओर शुनःशेप होना चाहिए । शुनः के बारे में शतपथ ब्राह्मण २.६.३.२ में कहा गया है - 'या वै देवानां श्रीरासीत् - साकमेधैरीजानानां विजिग्यानानाम् - तच्छुनम् ।' इस कथन में साकमेध याग मरुतों के लिए किया जाता है । वृत्र को मारने के लिए यह आवश्यक है कि मरुद्गण इन्द्र के मित्र बन जाएं । मरुतों की उत्पत्ति दिति से हुई है जबकि इन्द्र की अदिति से । साक का अर्थ होता है साथ । ऐसा अनुमान है कि शुनम् की, श्री की यह अवस्था देह के स्तर पर शोधन करने से प्राप्त हुई है । यह ऊर्जा देवों की श्री बनेगी, ओंकार की अर्धमात्रा बनेगी । पुराणों का हिरण्यकशिपु इस शुनः ऊर्जा का तिरस्कार कर रहा है । यह ऊर्जा नृसिंह रूप में प्रकट होती है । शिव पुराण की हिरण्यकशिपु की कथा में कहा गया है कि नृसिंह का पहला रूप सिंह का था जिसका शरभ द्वारा निग्रह करने पर वह नर रूप में रूपान्तरित हो गया । यह एक सार्थक कथन है । सिंह अहंकार का वाचक हो सकता है । इस अहंकार का ही शोधन करके उसे इस योग्य बनाना है कि वह देवों की हवि बन सके, श्री बन सके ।
ऐसा अनुमान है कि पुराणों में हिरण्यकशिपु के जिस अनुज हिरण्याक्ष का उल्लेख है, वह भी उसी ऊर्जा का रूप है जिसे वैदिक साहित्य में श्री, पृथिवी से उत्पन्न ऊर्जा कहा गया है । लक्ष्मीनारायण संहिता की हिरण्यकशिपु की कथा में कहा गया है कि हिरण्याक्ष ने तप करके धीरे - धीरे वह स्थिति प्राप्त कर ली थी कि वह देह का अतिक्रमण करके अन्तरिक्ष में विचरण कर सके । लेकिन इस भय से कि कहीं उसके घर पर कोई दूसरा अधिकार न जमा ले, वह बार - बार अपने घर में लौट आता था । फिर यज्ञवराह ने उसका हनन किया ।
वर्तमान में इण्टरनेट ऐसी जिज्ञासाओं से भरा पडा है कि कारण तो कार्य को प्रभावित करता है, लेकिन क्या ऐसा भी हो सकता है कि कार्य कारण को प्रभावित करे । इसका उत्तर सदैव नकारात्मक ही दिया जाता है, क्योंकि समय का तीर सदैव आगे की ओर ही चलता है, पीछे की ओर नहीं । लेकिन हिरण्यकशिपु की कथा से ऐसे संकेत मिलते हैं कि जिस ऊर्जा को पृथिवी से उत्पन्न ऊर्जा - श्री कहा जा रहा है, वह द्युलोक में जाकर कारण बनती है । जब द्युलोक की ऊर्जा पृथिवी पर अवतरित होती है, तब वह पृथिवी के कार्य का कारण रूप बनती है । जब पृथिवी की ऊर्जा द्युलोक में पहुंचती है, तो वह वहां के कार्य का कारण बनती है । भागवत पुराण ७.९.४७ में प्रह्लाद का कथन है कि भगवान् का निरूपण बीज - अंकुर के रूप में किया जाता है, यद्यपि वे इससे परे हैं । यह कहा जा सकता है कि नृसिंह का प्रकट होना पृथिवी पर कार्य के कारण बनने के तुल्य है । हिरण्यकशिपु ने तो प्रह्लाद को स्तम्भ से बांध दिया था कि बता अब तेरा भगवान् कहां है । स्तम्भ से बांधने का अर्थ यह हो सकता है कि जिस कारण रूप में पृथिवी पर कार्य सम्पन्न होते हैं, उस कारण को हिरण्यकशिपु ने स्तम्भित कर दिया था ।
लक्ष्मीनारायण संहिता १.५७३.३२ में आख्यान आता है कि विप्रगण शिव की भक्ति तो करते थे, पार्वती की नहीं । पार्वती ने उन्हें श्वान बनने का शाप दिया । इस आख्यान से संकेत मिलता है कि प्रकृति में, जहां द्यूत की, घटनाओं के आकस्मिक रूप में घटित होने की प्रधानता है, वहां श्व:/श्वान की स्थिति है । इसके पश्चात् शुनः की स्थिति है जहां सब कुछ शान्त, शून्य हो जाता है । शुनः भक्ति की एकान्तिक अवस्था का प्रतीक है जिसमें भक्त प्रकृति की चिन्ता नहीं करता । चूंकि राजसूय याग में द्यूत क्रीडा को स्थान दिया गया है, अतः यही कारण है कि राजसूय याग में शुनःशेप आख्यान का निर्देश है । इससे अगली स्थिति अश्वमेध के अश्व की आती है जहां अ - श्व की स्थिति है, श्व: अ - श्व: बन गया है । हिरण्यकशिपु की कथा का आरम्भ जय - विजय की कथा से होता है जिन्होंने द्वारपालों के रूप में सनकादि ऋषियों को विष्णु से मिलने से रोक दिया । ऐसा संभव है कि सनकादि भी शुनः के रूप हों ।
पुराणों में हिरण्यकशिपु द्वारा और्व ऋषि से और्वी माया ग्रहण करने के उल्लेख भी आते हैं । और्व ऋषि की उत्पत्ति इस प्रकार हुई थी कि एक ब्राह्मणी ने शत्रुओं के भय से अपने शिशु को अपनी ऊरुओं में छिपा लिया था । जब शत्रु बिल्कुल निकट आ गए तो शिशु अपनी माता की ऊरुओं का भेदन करके प्रकट हो गया और शत्रुओं का नाश कर दिया । इस कारण उसका नाम और्व - ऊरु से प्रकट होने वाला - हुआ । और्व का पुत्र ऋचीक हुआ जिसके शुनःलांगूल/जमदग्नि, शुनःशेप और शुनःपुच्छ नामक तीन पुत्र हुए । ऋचीक अश्व उत्पन्न कर सकता था, लेकिन गौ उत्पन्न करना संभवतः उसे नहीं आता था । यही कारण हो सकता है कि उसने गायों के बदले अपने मंझले पुत्र शुनःशेप को बेचना स्वीकार कर लिया । इस आख्यान की व्याख्या में यह कहा जा सकता है कि ऊरु स्थिति समाधि की स्थिति है और इससे विपरीत स्थिति देह के अङ्गों की है । अतः और्व ऋषि की स्थिति देह की स्थिति है ।
अश्वमेध याग में भी हिरण्यकशिपु के संदर्भ आते हैं ( शतपथ ब्राह्मण १३.४.३.१)। जिस समय अश्वमेध का अश्व विचरण कर रहा होता है, उस समय १० - १० दिन के ३६ अनुष्ठान किए जाते हैं जिन्हें पारिप्लव अह कहा जाता है । पारिप्लव का अर्थ है अथाह समुद्र को पार करने के लिए प्लव/नौका का निर्माण । इन दस दिनों में होता हिरण्यकशिपु पर आसीन होता है और अध्वर्यु हिरण्यकूर्च पर । होता (हिरण्यकूर्च पर आसीन यजमान के लिए ) पारिप्लव आख्यान कहता है और अध्वर्यु उसका प्रतिहार करता है । यह आख्यान मनु वैवस्वत राजा इत्यादि से आरम्भ होता है । इसके अतिरिक्त, अश्व आदि का हनन भी हिरण्यकशिपु पर करने के उल्लेख हैं (आपस्तम्ब श्रौत सूत्र २०.१७.८) । वायु पुराण आदि में कहा गया है कि अश्वमेध के पांच सुत्या अहों के आरम्भ में अतिरात्र में दिति से हिरण्यकशिपु का जन्म हुआ और वह उत्पन्न होते ही होता के आसन पर विराजमान हो गया और सुत्या अहों के सारे कार्य उसके द्वारा ही सम्पन्न किए गए । चूंकि होता हिरण्यकशिपु संज्ञक आसन पर विराजमान होता है, अतः उसका नाम भी हिरण्यकशिपु हो गया । हिरण्यकशिपु की पौराणिक कथा में जिन तथ्यों का समावेश है, उनकी व्याख्या के लिए यह आवश्यक है कि सुत्या अहों तथा उसके पूर्व - पश्चात् के कृत्यों की सम्यक् जानकारी हो । सुत्या अहों से पूर्व होता द्वारा पारिप्लव आख्यान किया जाता है । प्रथम सुत्या अह में सावित्रेष्टि होती है । दूसरे दिन अश्व का संज्ञपन तथा होम किया जाता है । तीसरे सुत्य अह में होता द्वारा संभवतः ब्रह्मोद्यम किया जाता है जिसमें होता आदि प्रश्न करते हैं और ब्रह्मा(बृहस्पति का रूप) आदि उनके उत्तर देते हैं । ब्रह्मोद्यम के पश्चात् यजमान की चार रानियां - महिषी, वावाता, परिवृक्ता और पालागली - अश्व के साथ मैथुन का अभिनय करती हैं । महिषी होता के साथ मैथुन का अभिनय करती है । निहितार्थ अन्वेषणीय हैं ।
पुराणों में हिरण्यकशिपु दैत्य की पत्नी के रूप में प्रायः कयाधु का नाम आता है तथा एकाध स्थान पर उत्तानपाद - पुत्री कल्याणी का नाम भी पत्नी के रूप में आया है(पद्म पुराण ६.२३८) । पुत्रों के रूप में प्रायः प्रह्लाद आदि ४ पुत्रों के नाम आते हैं । लेकिन वैदिक साहित्य में प्रत्यक्ष रूप में ऐसा कोई उल्लेख नहीं आता । केवल तैत्तिरीय ब्राह्मण १.५.९.१ तथा १.५.१०.७ में 'प्रह्लादो ह वै कायाधवो विरोचनं स्वं पुत्रं - - - ' इत्यादि का उल्लेख आया है । हो सकता है कि अश्वमेध याग में क: रूपी प्रजापति की प्रधानता को प्रदर्शित करने के लिए काय - धू या कयाधू शब्द का प्रक्षेपण पुराणों में किया गया हो । जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, कूर्म पुराण का कथन है कि प्रह्लाद का अस्त्र ब्राह्म है, अनुह्राद का वैष्णव, संह्राद का कौमार और ह्राद का आग्नेय । यह अन्वेषणीय है कि क्या हिरण्यकशिपु के इन चार पुत्रों का सम्बन्ध अश्वमेध याग में यजमान की महिषी, वावाता, परिवृक्ता और पालागली रानियों से हो सकता है ? शतपथ ब्राह्मण १३.२.६.४ में महिषी आदि की विशिष्टताओं को इंगित किया गया है । यह प्रसंग अश्व पर आज्य द्वारा तिलक/चिह्न लगाने का है । महिषी 'वसवस्त्वाऽञ्जन्तु गायत्रेण छन्दसा' द्वारा तिलक करती है, वावाता 'रुद्रास्त्वाऽञ्जन्तु त्रैष्टुभेन च्छन्दसा' द्वारा तथा परिवृक्ता 'आदित्यास्त्वाऽञ्जन्तु जागतेन च्छन्दसा' द्वारा । भाष्यकार श्री हरिस्वामी का कथन है कि महिषी प्रथम ऊढा रानी होती है, वावाता प्रिया रानी और परिवृक्ता परिवित्ता या दुर्भगा या अपुत्रा । यह तीन रानियां अश्व की क्रमशः पूर्वकाय, मध्य काय और अपर काय पर चिह्न लगाती हैं । जैसा कि छन्द शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, गायत्री छन्द ब्रह्म से सम्बन्धित होता है, ज्ञान से सम्बन्धित होता है, त्रिष्टुप् इन्द्र से/दक्षिणा से, दक्षता प्राप्त करने से और जगती पापों को जलाने से सम्बन्धित होता है । चौथी रानी के रूप में पालागली का उल्लेख आता है । पालागली को दूत की पुत्री कहा गया है । पांचवी रानी? के रूप में कुमारी का उल्लेख आता है ।
पुराणों में नृसिंह द्वारा नखों से हिरण्यकशिपु का वक्ष:स्थल विदीर्ण कर देने के उल्लेख आते हैं । कहा गया है कि नख न तो अस्त्र है, न शस्त्र । महाभारत सभा पर्व ३८ दाक्षिणात्य पाठ पृष्ठ ७८४ में यज्ञवराह के नखों को यज्ञ का प्रायश्चित्त कर्म कहा गया है । यज्ञ में जो त्रुटियां रह जाती हैं, उनकी पूर्ति यज्ञ के अन्त में प्रायश्चित्त नामक कृत्यों द्वारा की जाती है । यदि नख का यही अर्थ लिया जाए तो इसका अर्थ होगा कि पूरा यज्ञ दिति का, हिरण्यकशिपु का यज्ञ चल रहा है जिसमें त्रुटियां होती हैं ।
HIRANYAKASHIPU AND PRAHLAD
- Radha Gupta
In the seventh canto of Shrimad Bhaagwatam, there is a famous story of Hiranyakashipu and Prahlada. Story indicates the transformation process of our perception from body to soul.
Every human being is a beautiful combination of soul and body. Soul, the energy – our real being, manifests through the body. When a person possessed with knowledge lives and behaves in this manner, it is called soul consciousness. But over a period, in the long journey of birth and death, a person forgets his real being – the soul and thinks himself a body. It is called bdoy consciousness. This body consciousness gives birth to body perception and this body perception produces a strong thought of me and mine. As a result, a long chain of negative feeling, selfish attitude and actions is generated. This body perception is called Hiranyakashipu. This perception covers all our divine powers. Therefore, it is necessary to come out of this perception.
The story describes that the person’s inner soul itself(Prahlaada) knocks slowly slowly the doors of his mind and intellect to come out of this state but a person living in body perception always ignores this knocking and he never wishes to come out of it, because the soul perception determines the end of body perception. That person also tries to kill his inner soul’s voice but the inner soul is so compassionate and kind that it continuously knocks till a person attains the knowledge. This compassionate and kind soul is called Prahlaada.
The story also tells that when a person attains the knowledge, he himself cuts his strong belief of being a body. This is symbolized as the breaking of pillar by the sword. Now this broken belief does him a good favour. A special kind of divine power descends in him to destroy the body perception. This is symbolized as the manifestation of God Narsimha to kill Hiranyakashipu.
Attainment of knowledge, destruction of strong belief of being a body and manifestation of a special divine power – all three together destroy a person’s body perception which is symbolized as the destruction of Hiranyakashipu.
This destruction of body perception frees all the imprisoned powers of our gross and subtle body. Now they work smoothly and at last the soul perception (Prahlaada) rules over the body.
हिरण्यकशिपु एवं प्रह्लाद की कथा द्वारा मन - बुद्धि में विद्यमान देहभाव के आत्मभाव में रूपान्तरण का चित्रण
- राधा गुप्ता
श्रीमद्भागवत महापुराण के सप्तम स्कन्ध में प्रथम अध्याय से लेकर दशम अध्याय तक हिरण्यकशिपु एवं प्रह्लाद की कथा का विस्तार से वर्णन है । कथा पूर्णरूप से प्रतीकात्मक है और मनुष्य के मन - बुद्धि में बसे देहभाव( देहाभिमान) के आत्मभाव(आत्माभिमान) में रूपान्तरित होने से सम्बन्धित है । कथा के अभिप्राय को समझने के लिए सर्वप्रथम उसके पौराणिक स्वरूप को जान लेना आवश्यक है ।
कथा का संक्षिप्त स्वरूप
कश्यप ऋषि की अनेक पत्नियों में से एक थी दिति । दिति के दो पुत्र थे - हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष । पृथ्वी का उद्धार करने के लिए भगवान् ने वराह अवतार ग्रहण करके हिरण्याक्ष का वध कर दिया । इससे हिरण्यकशिपु कुपित होकर भगवान् का विद्वेषी हो गया । वह भगवान् को प्रिय लगने वाली सभी शक्तियों - देवता, ऋषि, पितर, ब्राह्मण, गौ, वेद तथा धर्म से भी द्वेष करता और उन्हें उत्पीडित करता । उसने अजर, अमर और संसार का एकछत्र सम्राट् होने के लिए कठोर तप किया, जिससे ब्रह्मा जी प्रसन्न हो गए । ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त करके वह समस्त प्रकृति को अपने आधीन करके संसार का एकछत्र सम्राट् होकर समस्त प्राकृतिक शक्तियों से अवध्य हो गया । सारी प्रकृति हिरण्यकशिपु के अधिकार में आ गई थी, इसलिए वह जो चाहता, जैसा चाहता, प्रकृति उसे समर्पित करती । इस प्रकार वह समस्त विषयों का स्वच्छन्द उपभोग करता । हिरण्यकशिपु के अमर्यादित आचरण से देवता अत्यन्त पीडित हुए और भगवान् की शरण में पहुंचे । भगवान् ने हिरण्यकशिपु के वध का आश्वासन देकर देवताओं को उद्वेगरहित कर दिया ।
हिरण्यकशिपु के चार पुत्रों में से सबसे छोटे पुत्र का नाम था प्रह्लाद । प्रह्लाद भगवान् के परमप्रेमी भक्त, संतसेवी, आत्मज्ञानी तथा महात्मा थे । पिता की इच्छा के अनुसार वे पिता को जगत् का स्वामी न मानकर परमात्मा को ही जगत् का एकमात्र आधार एवं स्वामी स्वीकार करते थे । हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को भगवद्भक्ति से विमुख करने का पर्याप्त प्रयत्न किया परन्तु सफल न होने पर उन्हें मार डालने का भी अनेक प्रकार से प्रयत्न किया । कभी हाथी के पैरों तले कुचलवाया, कभी सर्पों से डसवाया, कभी आग में जलवाया, कभी आंधी में रखा, कभी समुद्र में जलवाया, कभी पर्वत से फिंकवाया, कभी अंधेरी कोठरी में बन्द कराया तथा कभी मायाओं का प्रयोग आदि कराया परन्तु प्रह्लाद मरे नहीं ।
एक दिन पिता के बहुत समझाने पर भी जब प्रह्लाद ने राजमहल के स्तम्भ में भी परमात्मा की उपस्थिति का समर्थन करते हुए परमात्मा को ही जगत का स्वामी बतलाया, तब हिरण्यकशिपु क्रोध में आगबबूला हो गया । उसने सिंहासन से कूदकर उस स्तम्भ पर तलवार से प्रहार किया । स्तम्भ से नृसिंह भगवान् प्रकट हुए और उन्होंने हिरण्यकशिपु को अपनी जंघाओं पर लिटाकर मार डाला । हिण्यकशिपु के वध से देवताओं सहित समस्त प्रकृति प्रसन्न हो गई और उन्होंने पृथक् - पृथक् नृसिंह भगवान् की स्तुति की । भक्त प्रह्लाद की स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें इच्छित वर मांगने के लिए कहा । प्रह्लाद ने भगवद्भक्ति के साथ - साथ अपने पिता की दुस्तर दोष से शुद्धि हेतु प्रार्थना की । उसी समय ब्रह्मा जी का आगमन हुआ और उनकी पूजा को स्वीकार करके नृसिंह भगवान् अन्तर्धान हो गए । अन्त में शुक्राचार्य आदि मुनियों के साथ मिलकर ब्रह्मा जी ने प्रह्लाद को दैत्यों और दानवों के अधिपति पद पर विभूषित कर दिया ।
प्रस्तुत कथा में अनेक वर्णन ऐसे भी हैं जो कथा को विस्तार प्रदान करते हैं । परन्तु वे सब वर्णन हिरण्यकशिपु एवं प्रह्लाद की प्रकृति(स्वभाव) को इंगित करने के लिए ही समाविष्ट हुए हैं । उनका मूलकथा में कोई पृथक् योगदान प्रतीत नहीं होता ।
कथा की प्रतीकात्मकता
कथा को समझने के लिए कथा के प्रमुख प्रतीकों को समझना अनिवार्य एवं उपयोगी होगा ।
१. दिति - प्रत्येक मनुष्य आत्मा और देह का एक योग है । आत्मा मनुष्य का अपना स्वरूप है । वह एक चेतन शक्ति है जो देह(स्थूल, सूक्ष्म , कारण) नामक यन्त्र के माध्यम से अभिव्यक्त होती है । आत्मा और देह के इस योग को जानकर तदनुसार व्यवहार करने से चेतना की एक अखण्डित स्थिति का निर्माण होता है जिसे पौराणिक साहित्य में अदिति कहा गया है । इसके विपरीत, जब मनुष्य आत्मा अथवा आत्मस्वरूप को भूलकर देह नामक यन्त्र को ही सब कुछ समझ बैठता है, तब चेतना की अखण्डित स्थिति खण्डित हो जाती है और इस खण्डित चेतना को ही पौराणिक साहित्य में दिति नाम दिया गया है । आधुनिक शब्दावली में हम अदिति को आत्म - चेतना तथा दिति को देह चेतना कह सकते हैं ।
२. हिरण्यकशिपु - इस दिति अर्थात् देह - चेतना से देह भाव जिसे देहाभिमान अथवा देहदृष्टि भी कहते हैं - का जन्म होता है । देहभाव अथवा देहाभिमान को ही कथा में हिरण्यकशिपु नाम दिया गया है । दिति चेतना से उत्पन्न होने के कारण ही उसे दिति का पुत्र कहा गया है । हिरण्यकशिपु शब्द भी इस देहभाव को ही सूचित करता है । हिरण्यकशिपु शब्द में हिरण्य का अर्थ है - स्वर्णिम तथा कशिपु का अर्थ है - चटाई अथवा बिस्तर । भौतिक आकर्षण स्वर्णिम होते हैं, इसीलिए आकर्षित करते हैं । अतः जो मनश्चेतना भौतिक आकर्षणों की चटाई अर्थात् देहभाव में स्थित है, वह हिरण्यकशिपु है ।
कथा में हिरण्यकशिपु का चरित्र विस्तार से वर्णित है । इस वर्णन द्वारा देहभाव अथवा देहाभिमान के स्वरूप को ही समझाने का प्रयास किया गया है । देहभाव अथवा देहाभिमान में मन - वचन - कर्म की एकरूपता नहीं होती । मनुष्य सोचता कुछ और है, कहता कुछ और है तथा करता कुछ और है । भ्राता हिरण्याक्ष की मृत्यु होने पर हिरण्यकशिपु सभी दु:खी स्वजनों को आत्मज्ञानी की भांति उपदेश देता है, जिसमें देह की क्षणभङ्गुरता को व्यक्त किया जाता है । परन्तु दूसरी ओर वह स्वयं संसार का एकछत्र सम्राट् होने के लिए तप करता है तथा तप से समस्त प्रकृति को अपने आधीन करके विषयोन्मुख होकर इन्द्रियों के वशीभूत बना रहता है । एक ओर वह आत्मा की अमरता का वर्णन करता है तो दूसरी ओर आत्मस्वरूप की विस्मृति के कारण शरीर से ही अजर - अमर होने की इच्छा करता है ।
देहचेतना रूपी दिति से देहभाव(हिरण्यकशिपु) और भोगभाव(हिरण्याक्ष) दोनों उत्पन्न होते हैं, इसलिए कथा में हिरण्याक्ष को हिरण्यकशिपु का भाई कहकर इंगित किया गया है । देहभाव का सुदृढ बल और आधार भोगभाव ही है क्योंकि भोग भाव का नाश होने पर निस्सन्देह रूप से देहभाव भी खतरे में पड जाता है । इसीलिए कथा में हिरण्याक्ष का वध हो जाने पर हिरण्यकशिपु को क्रोधयुक्त तथा हिरण्याक्ष का वध करने वाले भगवान् का विद्वेषी कहा गया है ।
देहभाव(देहाभिमान ) आत्मा अथवा आत्मा की आवाज को सहन नहीं कर पाता क्योंकि आत्मा की आवाज को सुनने का अर्थ है - देहभाव की समाप्ति । अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए देहभाव आत्मा अथवा आत्मा की आवाज को सतत् नष्ट करना चाहता है, जिसे कथा में हिण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद वध की चेष्टाओं के रूप में इंगित किया गया है ।
३. प्रह्लाद(प्र+ह्लाद) का अर्थ है - प्रकृष्ट (विशिष्ट) प्रसन्नता या उल्लास । प्रकृष्ट प्रसन्नता आनन्द का वाचक है तथा आत्मा का स्वरूप है, इसलिए प्रह्लाद नामक पात्र आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है । कथा में प्रह्लाद के माध्यम से परमात्मस्वरूप का जो विस्तृत विवेचन किया गया है, उसका उद्देश्य भी प्रह्लाद की आत्मस्वरूपता को ही इंगित करना है ।
कथा में प्रह्लाद को हिरण्यकशिपु का पुत्र एवं भगवद्भक्त कहा गया है । हिरण्यकशिपु प्रबल देहभाव का तथा प्रह्लाद आत्मा का प्रतीक है, इसलिए एक प्रश्न स्वभावतः उपस्थित होता है कि प्रबल देहभाव(हिरण्यकशिपु) से आत्मा ( प्रह्लाद) की उत्पत्ति कैसे सम्भव है?
वास्तव में प्रह्लाद को हिरण्यकशिपु का पुत्र कहकर हमारा ध्यान इस विशिष्ट तथ्य की ओर आकर्षित किया गया है कि प्रबल देहभाव (हिरण्यकशिपु) की स्थिति में भी मनुष्य का आत्मा पूर्णतः प्रसुप्त नहीं होता । आत्मा अति अनुग्रहशील है, इसलिए वह अत्यन्त धीमे - धीमे ही सही, परन्तु लगातार मनुष्य के मन - बुद्धि के द्वार को परमात्मस्वरूप के जागरण रूप सद्ज्ञान के प्रति खटखटाता रहता है । पहले देहाभिमान की विद्यमानता तथा बाद में अनुग्रहशील आत्मा द्वारा उसके द्वार का खटखटाना ही प्रह्लाद का हिरण्यकशिपु का पुत्र होना है ।
प्रबल देहभाव की स्थिति में आत्मा के अनुग्रहशील होने को ही कथा में प्रह्लाद का 'भगवद्भक्त' होना कहा गया है । आत्मा प्रत्येक मनुष्य को उसके वास्तविक आत्म - स्वरूप में स्थित कराना चाहता है - यही उसकी अनुग्रहशीलता है ।
प्रबल देहाभिमान की स्थिति में चूंकि अनुग्रहशील आत्मा बहुत धीमी आवाज में ही मनुष्य के मन - बुद्धि के द्वार को खटखटाता है, इसीलिए प्रह्लाद को ५ वर्ष का बालक कहकर इंगित किया गया है ।
कथा में प्रह्लाद को असुर भक्त कहकर निरूपित किया गया है । चूंकि देहभाव एक आसुरी भाव है, इसलिए इस आसुरी भाव से मनुष्य के मन को मुक्त करने के लिए उपस्थित हुई अनुग्रहशील आत्मा(प्रह्लाद ) को असुर भक्त कहना सर्वथा युक्तिसंगत ही है ।
४. नृसिंह - नृसिंह अथवा नरसिंह शब्द नर और सिंह नामक दो शब्दों के योग से बना है । नर शब्द प्राण अथवा चेतना का वाचक है । उच्च कोषस्थ दिव्य चेतना जब मनुष्य के अन्नमय कोष में अवतरित होती है, तब अन्नमय कोष की चेतना नर चेतना कहलाती है । अथवा ऐसा भी कह सकते हैं कि उच्च कोशों में स्थित दिव्य प्राण जब अन्नमय कोश में अवतरित होते हैं, तब अन्नमय कोश के प्राण नर प्राण कहलाते हैं । सिंह शब्द शक्ति का प्रतीक है । इस प्रकार नर और सिंह शब्दों के योग से अर्थ हुआ - स्थूल शरीर के स्तर पर अवतरित दिव्य चेतना शक्ति । स्थूल शरीर में क्रियाशील सामान्य चेतना के द्वारा जहां मनुष्य जीवन के सामान्य कार्यों को ही सम्पन्न कर पाता है, वहीं दिव्य चेतना शक्ति का विनियोग वह देहभाव की समाप्ति रूप विशिष्ट कार्य को सम्पन्न करने में ही करता है । इसलिए स्थूल शरीर के स्तर पर यह दिव्य चेतना शक्ति अवतरित भी तभी होती है जब मनुष्य पूरी तरह से देहभाव का विनाश करने और आत्मभाव में स्थित होने के लिए तत्पर हो ।
इस दिव्य चेतना शक्ति अर्थात् नृसिंह को सम्यक् एवं सरल रूप में समझने के लिए भौतिक विज्ञान के तापगतिकी के दूसरे सिद्धान्त(second law of thermodynamics) को समझना उपयोगी होगा । इस नियम के अनुसार कोई भी पदार्थ पहले व्यवस्था(ordered state) से अव्यवस्था (chaotic state) में जाता है तथा फिर किसी प्रबल शक्ति के हस्तक्षेप अथवा पदार्पण (intervention) से अव्यवस्था (chaotic state) से पुनः व्यवस्था(ordered state) में आता है । यही नियम अध्यात्म के क्षेत्र में भी क्रियाशील है । अध्यात्म के क्षेत्र में आत्मभाव में स्थिति को व्यवस्था(ordered state) तथा देहभाव में स्थिति को अव्यवस्था(chaotic state) कहा जाता है । प्रस्तुत कथा में हिरण्यकशिपु प्रबल देहभाव का प्रतीक होने से अव्यवस्था की स्थिति है । इस अव्यवस्था से व्यवस्था में प्रवेश करने के लिए जिस प्रबल दिव्य चेतना शक्ति का पदार्पण अनिवार्य है, उसे ही कथा में नृसिंह कहा गया है । इस नृसिंह रूप दिव्य चेतना शक्ति के विनियोग से ही हिरण्यकशिपु रूपी अव्यवस्था का विनाश और प्रह्लाद रूपी व्यवस्था की स्थापना होती है ।
५. स्तम्भ और हिरण्यकशिपु द्वारा उसका ध्वंस - स्तम्भ शब्द मन की मान्यता का प्रतीक है । जैसे एक भवन स्तम्भों पर खडा होता है, वैसे ही मनुष्य का जीवन भी मन की मान्यताओं पर खडा होता है । मन की मान्यताएं अनेक हैं, परन्तु मूलभूत मान्यता है - मनुष्य के मन का यह मान लेना कि मैं देहमात्र हूं । यह सत्य है कि प्रत्येक मनुष्य जब इस सृष्टि रूपी रंगमंच पर आता है, तब अपने वास्तविक शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित होता है, परन्तु जन्मों - जन्मों की एक लम्बी यात्रा में देह के ही दिखाई पडने तथा आत्मा के अदृश्य रहने से वह शनैः - शनैः आत्मस्वरूप को भूलता जाता है और दृश्य देह को ही सत्य एवं सब कुछ मानने लगता है । धीरे - धीरे ज्ञान का लोप होने से यह मान्यता इतनी दृढमूल होती जाती है कि फिर देहभाव(देहाभिमान) के आधार पर ही जीवन चलने से जीवन में दु:खों का प्रादुर्भाव हो जाता है । देह के सम्बन्धों के आधार पर सबसे पहले मनुष्य के भीतर अपने -पराए का विचार उत्पन्न होता है और फिर अपने - पराए के विचार से राग - द्वेष, कामना, तृष्णा, ईर्ष्या जैसे नकारात्मक भाव उत्पन्न हो जाते हैं । इससे मनुष्य का दृष्टिकोण स्वार्थपरक हो जाता है और स्वार्थपरक दृष्टिकोण से वह कर्म भी उसी आधार पर स्वार्थपूर्ण होकर करने लगता है । स्वार्थपूर्ण कर्मों की बार - बार आवृत्ति आदत में बदल जाती है और यह आदत ही मनुष्य के जीवन में दु:खों को उत्पन्न कर देती है । अतः दु:खों से बचने का प्राथमिक स्तर पर एक ही उपाय है - दुःख की जड को ही काट देना और जड है - मन की यह दृढ मान्यता कि मैं देह हूं । प्रस्तुत कथा का 'स्तम्भ ' यही है ।
कथा संकेत करती है कि देहभाव में रहते हुए प्रत्येक मनुष्य को स्वयं ही अपनी इस प्रबल मान्यता को काटना है । मान्यता को काटने का एकमात्र उपाय ज्ञान है । जिस दिन देहाभिमानी मनुष्य (हिरण्यकशिपु) इस ज्ञान को धारण कर लेता है कि श्रीहरि ही समस्त जगत के आधार हैं, समस्त रूपों में वही विद्यमान हैं, ज्ञान, आनन्द, सुख तथा प्रेम के मूल स्रोत वही हैं, सर्वदा, सर्वत्र सब वस्तुओं, व्यक्तियों तथा स्वयं में उन्हीं भगवान् का दर्शन करना चाहिए - उसी दिन मन की इस मान्यता का ध्वंस हो जाता है कि मैं सबसे पृथक् मात्र देहस्वरूप हूं ।
इस मान्यता(स्तम्भ) के ध्वंस के पश्चात् ही मनुष्य में अद्भुत, दिव्य चेतना शक्ति का प्रादुर्भाव होता है, जिसे नृसिंह भगवान् कहा गया है । यह दिव्य चेतना शक्ति देहाभिमान रूप हिरण्यकशिपु का वध करके मनुष्य - मन के सिंहासन पर आत्मसत्ता को स्थापित कर देती है जिसे कथा में प्रह्लाद नाम दिया गया है ।
६. हिरण्यकशिपु द्वारा प्रह्लाद को मारने के अनेक प्रयत्न - कथा में कहा गया है कि हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को कभी हाथी के पैरों तले कुचलवाया, कभी सर्पों से डसवाया, कभी आग में जलवाया, कभी आंधी में डाला, कभी समुद्र में डलवाया, कभी पर्वत से फिंकवाया, कभी अंधेरी कोठरी में बन्द कराया तथा कभी मायाओं का प्रयोग आदि कराया परन्तु प्रह्लाद मरा नहीं ।
देहाभिमानी मनुष्य अपनी तर्कपूर्ण बुद्धि को ही सर्वोपरि समझता हुआ अन्तरात्मा की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं करता । यही बुद्धि रूपी हाथी के पैरों तले आत्मा रूपी प्रह्लाद का कुचलना है ।
देहाभिमानी मनुष्य की राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि विषैली वृत्तियां ही वे विषैले सर्प हैं जो उसके शान्तस्वरूप आत्मा(प्रह्लाद) को डंसती हैं ।
देहाभिमानी मनुष्य का क्रोध ही वह अग्नि है जिसमें वह प्रेमस्वरूप आत्मा(प्रह्लाद) को जलाकर भस्म कर देना चाहता है ।
देहाभिमानी की वासनाएं ही वह आंधी है जिसमें शक्तिस्वरूप आत्मा(प्रह्लाद) उड जाता है ।
उसकी तृष्णाएं, कामनाएं ही वह समुद्र है जिसमें शुद्ध - स्वरूप आत्मा(प्रह्लाद) डूब जाता है ।
उसका अहंकार ही वह पर्वत है जिससे आनन्दस्वरूप आत्मा (प्रह्लाद ) लुढका दिया जाता है ।
उसका मोह, ममता तथा आसक्ति ही वह माया है जिसमें सुखस्वरूप आत्मा नष्ट होता है । तथा अज्ञान ही वह अन्धकारपूर्ण कोठरी है जिसमें ज्ञानस्वरूप आत्मा बन्द कर दिया जाता है ।
७. हिरण्यकशिपु के वध से प्रकृति शक्तियों की प्रसन्नता - कथा में कहा गया है कि हिरण्यकशिपु ने प्रकृति की समस्त शक्तियों - देव, ऋषि, पितर, गन्धर्व, सिद्ध, विद्याधर, चारण, मनु, प्रजापति, यक्ष प्रभृति सभी को अपने आधीन कर लिया था और उनके स्थान छीन लिए थे । इसलिए हिरण्यकशिपु का वध हो जाने पर सभी अत्यन्त प्रसन्न हुए और अपने - अपने स्थानों पर अधिष्ठित हुए ।
हिरण्यकशिपु मनुष्य मन के देहभाव अथवा देहाभिमान का प्रतीक है और देव, ऋषि, पितर, यक्ष, सिद्ध, विद्याधर, अप्सरा आदि शक्तियां मनुष्य की स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीरगत चेतना के विविध क्रियाकलाप हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि उपर्युक्त कथन के द्वारा देहाभिमानी मन के स्थूल - सूक्ष्म तथा कारण शरीर पर पडने वाले प्रभावों की ओर इंगित किया गया है । यह तो स्पष्ट ही है कि देहाभिमानी मन के कारण सर्वप्रथम मनुष्य के विचारों में नकारात्मकता आती है और फिर नकारात्मक विचार स्थूल शरीर की क्रियाओं को प्रभावित करते हैं । नकारात्मक विचारों के कारण स्थूल शरीर की शक्तियां, प्रणालियां सम्यक् प्रकार से अपने - अपने कार्य को सम्पन्न करने में असमर्थ हो जाती हैं, फलस्वरूप शरीर अस्वस्थ हो जाता है । इसके विपरीत, आत्मस्वरूप में स्थिति में मन के द्वन्द्व समाप्त हो जाते हैं तथा सकारात्मकता में स्थित होने से समस्त शक्तियां अपने - अपने कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करती हैं और शरीर स्वस्थ रहता है । आधुनिक चिकित्सा विज्ञान भी सकारात्मक - नकारात्मक विचारों के स्वास्थ्य पर पडने वाले प्रभावों को स्वीकार करके इस दिशा में अधिक क्रियाशील हो गया है ।
कथा का अभिप्राय
प्रस्तुत कथा के माध्यम से प्रबल देहभाव में स्थित मन के आत्मभाव में स्थापित होने की प्रक्रिया का अद्भुत ढंग से विवेचन किया गया है । कथा संकेत करती है कि आत्मस्वरूप के प्रति सोए हुए, प्रबल देहभाव में स्थित मनुष्य को उसका अपना ही आत्मा धीरे - धीरे जगाने का प्रयत्न करता रहता है । देहाभिमानी मन जागना नहीं चाहता और जगाने वाले आत्मा को ही मार डालना चाहता है परन्तु आत्मा अनुग्रहशील होकर शनैः - शनैः चोट करता ही जाता है । आत्मा द्वारा जगाने की यह चोट जब लगातार देहाभिमानी मन पर पडती ही रहती है, तब एक दिन ऐसा आता है जब मनुष्य उस चोट के कारण ही अर्जित किए हुए ज्ञान द्वारा अपने ही मन की इस दृढीभूत मान्यता को काट देता है कि मैं देहमात्र हूं ।
कथा पुनः संकेत करती है कि इस मान्यता के काट देने मात्र से देह भाव समाप्त नहीं हो जाता । देहभाव की पूर्णतया समाप्ति तभी सम्भव होती है जब मनुष्य दृढीभूत मान्यता को काटने से अवतरित हुई अपनी दिव्य चेतना(पुरुषार्थ) शक्ति का भी उस कार्य में विनियोग करता है । सबसे पहले देहाभिमानी मन के ऊपर अपने ही अन्तरात्मा द्वारा लगातार सद्ज्ञान की चोट, फिर भ्रमपूर्ण मान्यता का विनाश , अनन्तर दिव्य पुरुषार्थ शक्ति का अवतरण एवं उसका विनियोग - इस प्रकार इन तीनों के समन्वित योग से ही देह भाव का विनाश होकर मन के सिंहासन पर आत्मभाव की स्थापना संभव होती है ।