मुमुक्षु पञ्चकम्
विहायैनः कृत्वा क्रतुविधुरकर्मादिविहितं
धियं संशोध्याऽऽप्त्वा चिदचिदवलोकादि निकरम् ।
समाराध्याऽऽचार्यं नतिविमतिशुश्रूषणमुखैः
प्रपन्नः सन्पृच्छेद्विविदिषितमात्मीयमखिलम् ॥ १॥
पाप रूप निषिद्ध कर्मों को त्यागकर मुमुक्षु पुरुष यज्ञादि
विहित कर्मों को बडे परिश्रम के साथ किया करे और उसके
द्वारा बुद्धि की शुद्धता को प्राप्त करे । पश्चात् जड चैतन्य का
विवेक वैराग्य आदि के समुद्र रूप आचार्य (गुरु) की शुद्ध
बुद्धि से विनय पूर्वक सेवा करके आत्मा के सम्बन्ध में जो कुछ
जानने की इच्छा हो वह सब उनसे पूछ ले ॥ १॥
विचार्याऽऽत्मानं स्वं श्रुतिगदितसच्चित्सुखमयं
परम्ब्रह्मास्सीति श्रवणमननध्यानकरणैः ।
अहम्ब्रह्मास्मीति दृढमवगतिं गम्य परमान्
विवाध्येदं दृश्यं सकलमलमज्ञानसहितम् ॥ २॥
वेदों के कथन के अनुसार सत् चित् आनन्दमय ऐसे अपने
आत्म स्वरूप का विचार कर। मैं ही परब्रह्म हूँ ऐसा श्रवण।
मनन और निदिध्यासन द्वारा दृढ निश्चय करले । मल और
अज्ञान सहित इस समस्त दृश्य जगत् का बाध करके, मैं ब्रह्म
हूँ ऐसी अत्यन्त दृढ बुद्धि धारण करे ॥ २॥
विदित्वेत्थं तत्त्वं निखिलनिगमान्तैर्निगदितं
निहत्वाऽनर्थं वै सकलमपि जीवातु सहितम् ।
परानन्दो भूत्वा। भवति भुवि भव्यो भुपतिभो
विधेयं कर्त्तव्यं विविधमपि हेयं हृदिगतम् ॥ ३॥
उपनिषदों मे प्रतिपादित तत्त्व का जानकर और जन्मादि
सकल अनर्थ परम्परा का नाश करके जो पुरुष ब्रह्मानन्द को
प्राप्त होता है वह नाना प्रकार के योग्य कर्त्तव्यों को करता है
परन्तु हृदय पर उनका असर पड़ने नहीं देता, वह पुरुष इस
पृथ्वी पर दिव्य नृपति के समान विराजता है ॥ ३॥
मुदो जीवन्मुक्तेर्यदि हृदि मनीषास्वविदुषुः
तदा वृत्तिं वृत्तेरनिशमभिकुर्वन् बहुतिथम् ।
विनाश्यैवं स्थौल्यं मलिनतरसत्वस्य मनसः
सुसत्वाविर्भावात् परमसुखसिन्धौहि विरमेत् ॥ ४॥
आत्म जिज्ञासु को यदि जीवन्मुक्ति के सुख की इच्छा हो
तो बहिर्मुख वृत्ति को आत्माकार वृत्ति से बलपूर्वक निरोध
करने का चिरकाल तक अभ्यास करे । इस अभ्यास से मलिन
अन्तःकरण वाले जिज्ञासु के मन की स्थूलता नष्ट होगी और
बुद्धि शुद्ध हो जाने पर फिर स्वरूपानन्द सागर में वह सुख
पूर्वक निमग्न होगा ॥ ४॥
सुभूमिं प्राप्येमां परमसुखदां पञ्चममुखां
सुखं भुक्त्वा बाह्यं दृढतरनिजारब्धमपि च ।
विलाप्येदं विश्वं जगदगमयं हेतुसहितं
चिदानन्दे शुद्धे भजति च विदेहामृतमयम् ॥ ५॥
मोक्षद्वाररूप परम आनन्द कारक ऐसी अवस्था को प्राप्त
कर और बलवान् प्रारब्ध से प्राप्त बाहर के सुख भोग कर इस
चराचर विश्व का उसके हेतु रूप अविद्यासहित नाश करते हुए
वह पुरुष शुद्धचिदानन्दरूप विदेह कैवल्य को प्राप्त होता है ॥ ५॥
इति मुमुक्षु पञ्चकं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com