रामषडक्षरमन्त्रोपदेशः
(अगस्त्य संहिता अध्याय ४)
श्रीविष्णुप्रति ब्रह्मोवाच ।
को वोपायो मनुष्याणां भक्तानां भक्तवत्सल ।
एतच्छरीरपातान्ते नः परं मुक्तिसिद्धये ॥ २७॥
हे भक्तवत्सल भगवान्! मनुष्यों और भक्तों के लिए ऐसा कौन सा उपाय है, जिससे हमें इस शरीर का अन्त होने पर मुक्ति मिले ।
इहाप्यस्माकमैश्वर्य्यं वै दुष्टेष्टार्थसिद्धये ।
एवमुक्तः स देवोऽस्मै भुक्तिमुक्तिप्रसिद्धये ॥ २८॥
स्वर्ग में भी हम देवों का ऐश्वर्य दोषपूर्ण इच्छित वस्तुओं की सिद्धि के लिए हैम् ।
किञ्चिद् विचार्य भगवान् षडक्षरमुपादिशत् ।
एकैकं वर्णविन्यासं क्रमाच्चाङ्गानि षट् पुनः ॥ २९॥
तद्विधिं विधये प्रादात् पञ्चमन्त्राक्षराणि च ।
रहस्यं देवदेवोऽपि तं मिथः समबोधयत् ॥ ३०॥
ऐसा कहने पर भगवान् ने कुछ सोचकर भोग और मोक्ष की सिद्धि के लिए छह अक्षरों वाले मन्त्र का उपदेश किया । हे मुनि! भगवान् ने भी उस षडक्षर मन्त्र एक एक कर वर्णविन्यास, क्रमशः न्यास आदि छह अङ्ग उसकी विधि तथा रहस्य बतला दिया तथा पञ्चाक्षर मन्त्र का भी उपदेश किया ।
तस्य तत्प्राप्तिमात्रेण तदानीमेव तत्फलम् ।
सर्वाधिपत्यं सर्वज्ञं भावोऽप्यस्याभवन् तदा ॥ ३१॥
ब्रह्मा ने भी ज्यों ही उसे प्राप्त किया, उस मन्त्र का फल तत्काल ही मिल गया । ब्रह्मा उसी क्षण सबके स्वामी बन गये तथा सारा ज्ञान उन्हें मिल गया ।
किं चास्य भगवत्त्वं च यदिष्टं तदभूदपि ।
सर्वेश्वरप्रसादेन तपसा किं न लभ्यते ॥ ३२॥
इतना ही नहीं, ब्रह्मा जो चाह रहे थे, वह उन्हें मिल गया; वे भगवान् भी हो गये । भला सबके स्वामी भगवान् श्रीराम की कृपा तथा तपस्या से क्या कुछ नहीं मिल जाता!
मुनीनामपि सर्वेषां तदा ब्रह्मा तदाज्ञया ।
उपादिदेश तत्सर्वं ततस्तु विष्णुरब्रवीत् ॥ ३३॥
तब भगवान् श्रीराम की आज्ञा से ब्रह्मा ने सभी मुनियों को इस मन्त्र का उपदेश किया । तब वे विष्णु बोले-
ऋषिर्भवास्य मन्त्रस्य त्वं ब्रह्मन् सर्वमन्त्रवित् ।
रामोऽहं देवता छन्दो गायत्री छन्दसां परा ॥ ३४॥
हे ब्रह्मा! आप मन्त्रों के ज्ञाता हैं, अतः इस मन्त्र के ऋषि आप भी हों । मैं ``राम'' इस मन्त्र का देवता हूँ तथा छन्दों में श्रेष्ठ गायत्री इस मन्त्र का छन्द होगा ।
मान्तो यान्तो भवेद्वीजं सर्वमाद्यफलप्रदम् ।
नमः शक्तितयोद्दिष्टो नमोऽन्तो मन्त्रनायकः ॥ ३५॥
मकार (राम्) एवं यकार (रामाय) से अन्त होनेवाले इसके बीज-मन्त्र हों तथा ``नमः'' इस मन्त्र की शक्ति हो । इस प्रकार ``नमः'' से अन्त होनेवाला यह मन्त्रों में नायक बने ।
रामाय मध्यमो ब्रह्मन् तस्मै सर्वं निवेदयेत् ।
इह भुक्तिश्च मुक्तिश्च देहान्ते सम्भविष्यति ॥ ३६॥
हे ब्रह्मा! इस मन्त्र के बीच में ``रामाय'' यह पद रहेगा और उसी राम को यह मन्त्र निवेदित करें । इससे संसार में भोग तथा देहान्त होने पर मोक्ष मिलेगा ।
यदन्यदप्यभीष्टं स्यात् तत्प्रसादात् प्रजायते ।
अनुतिष्ठादरेणैव निरन्तरमनन्यधीः ॥ ३७॥
इसके अतिरिक्त भी यदि कोई इच्छा हो, तो मुझ श्रीराम की कृपा से पूरी होगी । एकाग्रचित्त होकर लगातार इस मन्त्र का अनुष्ठान करें ।
चिरं मद्गतचित्तस्तु मामेवाराधयेच्चिरम् ।
मामेव मनसा ध्यायन् मामेवैष्यसि नान्यथा ॥ ३८॥
बहुत दिनों तक मुझमें मन लगाकर, मेरा ही ध्यान करते हुए जो मेरी उपासना करेङ्गे, वे मुझे ही पा लेङ्गे, इसमें सन्देह नहीं ।
तत्र तदेतद् विस्तार्य्य शिष्येभ्यो ब्रूहि गौरवम् ।
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवस्तत्रैव कमलेक्षणः ॥ ३९॥
हे ब्रह्मा! ``संसार में इसी का विस्तार कर अपने शिष्यों से इस मन्त्र की गरिमा का बखान करें।'' ऐसा कहकर कमलनयन भगवान् श्रीराम वहीं अन्तर्धान हो गये ।
प्रजापतिश्च भगवान् मुनिभिः सार्द्धमन्वहम् ।
अन्वतिष्ठद् विधानेन निक्षिप्याज्ञां सिरस्यथ ॥ ४०॥
तब भगवान् प्रजापति ब्रह्मा ने श्रीराम की आज्ञा सिर पर चढ़ाकर मुनियों के साथ विधानपूर्वक इस मन्त्र का अनुष्ठान किया ।
इति रामषडक्षरमन्त्रोपदेशः सम्पूर्णः ।
इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये ब्रह्मणा षडक्षरमन्त्रग्रहणं नाम चतुर्थोऽध्यायः ॥ ४॥
रं रामाय नमः ।
ॐ रामाय नमः ।
Encoded and proofread by P. Sudarshana
Hindi translation by Pandit Bhavanath Jha