श्रीदेवर्षिचतुश्श्लोकी
वीणाकराम्भोज-सुशोभमानं
गोविन्दनामानि सदोच्चरन्तम् ।
नित्यं प्रसन्नं हरिचित्तरूपं-
ऋषीश्वरं नारदमाश्रयेऽहम् ॥ १॥
अपने करकमलों में सदा सर्वदा वीणा को धारण करने से जो परम शोभायमान है तथा प्रतिपल श्रीगोविन्द के मनोहर मधुर नामों का अपनी मञ्जुल स्वरलहरी से गायन करते हुए सतत प्रसन्न, श्रीहरि के मन-रूप देवर्षिवर श्रीनारदजी का समाश्रय पूर्वक स्मरण नमन करते हैं ॥ १॥
भवाटवीतापनिरासदक्षं
कारुण्यपूर्णं हरिभक्तिलीनम् ।
आर्ताऽऽर्तिपुञ्जाऽऽहरणे वरेण्य-
ऋषीश्वरं नारदमाश्रयेऽहम् ॥ २॥
इस भवारण्य के आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक इन त्रिविध तापों के निवारण करने में अतीव चतुर करुणास्वरूप सर्वेश्वर श्रीहरि राधामाधव की पराभक्ति में निरन्तर संलग्न और दुःखीजनों के नानाविध दुःखों के परिशमन में परम श्रेष्ठ देवर्षिवर्य श्रीनारदजी का परम अवलम्ब और स्मरण ही एकमात्र आधार हैं ॥ २॥
निम्बार्कदीक्षागुरुमर्चनीयं
श्रीभक्तिसूत्राऽद्भुतसृष्टिकारम् ।
सङ्गीतशास्त्राऽग्य्रमहाप्रसिद्ध-
ऋषीश्वरं नारदमाश्रयेऽहम् ॥ ३॥
सुदर्शनचक्रावतार श्रीभगवन्निम्बार्काचार्यचरणों के दीक्षा गुरु श्रीगोपालमन्त्रोपदेशक जो परम वन्दनीय समर्चनीय हैं । सङ्गीतशास्त्र के महामर्मज्ञता और सर्वाग्रगण्यता में जो अतिशय प्रसिद्ध हैं । नारदभक्तिसूत्र एवं नारद-पाञ्चरात्र के रचयिता एवं उसमें जो दिव्यतम अद्भुत रसवृष्टि कर रससुधासिन्धु को आपूरित किया है, वस्तुतः वह अवर्णनीय है, ऐसे परम देवर्षिवर श्रीनारदजी की प्रपन्नता प्राप्त कर उनका चिन्तन ही जीवन का सार सर्वस्व हैं ॥ ३॥
वृन्दावने नित्यनिकुञ्जधाम्नि
सखीस्वरूपेण विराजमानम् ।
राधानिकुञ्जेशपदाब्जभृङ्ग-
मृषीश्वरं नारदमाश्रयेऽहम् ॥ ४॥
श्रीवृन्दावन के नित्यनिकुञ्जधाम में जो नित्य सहचरी सखीरूप से सुशोभित हैं, श्रीराधानिकुञ्जविहारी के श्रीयुगल-चरणाम्भोजरज के दिव्य भृङ्ग रूप में पुलकायमान देवर्षिवर श्रीनारदजी की प्रपत्ति ही एकमात्र अवलम्ब है ॥ ४॥
श्रीदेवर्षि-चतुश्श्लोकी रसभक्तिप्रदायिका ।
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मिता ॥ ५॥
श्रीयुगलरसभक्तिप्रदायक श्रीदेवर्षि चतुश्श्लोकी जिसका प्रणयन उन्हीं की कृपाजन्य हुई है यथार्थ में यह उन्हीं देवर्षिवर का कृपाप्रसाद है ॥ ५॥
इति श्रीदेवर्षिचतुश्श्लोकी समाप्ता ।
Proofread by Mohan Chettoor