श्रीगुरुषोडशीस्तोत्रम्
पीठेशं बालकृष्णश्रीदेवाचार्यं जगद्गुरुम् ।
निम्बार्काचार्य रूपञ्च भावये निजमानसे ॥ १॥
अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य-पीठाधीश्वर श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य श्री ``श्रीजी'' महाराज की अपने अन्तर्मानस में भावना करते हैं ॥ १॥
धीरं गभीरहार्दं हि लोककल्याणकारकम् ।
दीनाऽऽर्तसहयोगाय कृतयत्नं समाश्रये ॥ २॥
जिनका परमधीर गभीर हृदय है और समस्त जन समुदाय का कल्याण करने में सर्वदा तत्पर एवं दीन दुःखियों के लिए सदा प्रयत्न करने वाले आचार्यश्री का आश्रय लेते हैं ॥ २॥
स्वद्वैताद्वैतसिद्धान्त-सुप्रचाराय संस्थितम् ।
निम्बार्कसम्प्रदायार्थं कृतकार्यं गुरुं भजे ॥ ३॥
श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य का स्वाभाविक द्वैताद्वैत सिद्धान्त का प्रचुर प्रचार करने के लिए सब समय अवस्थित एवं निम्बार्क सम्प्रदाय के लिए विविध प्रकार से कार्य करने वाले आचार्यश्री गुरुदेव का भजन करते हैं ॥ ३॥
श्रुति-पुराण-तन्त्रादिसच्छास्त्रपारगं परम् ।
विद्या-विनयसम्पन्नं स्वाराध्याराधकं भजे ॥ ४॥
श्रुति-पुराण-तन्त्रादि समस्त शास्त्रों के महामनीषी एवं परम विनय सम्पन्न अपने परमाराध्य सर्वेश्वर श्रीराधामाधव भगवान् की आराधना में संलग्न आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ ४॥
श्री-``श्रीजी'' श्रीमहाराजं जगद्वन्द्यं तपोधनम् ।
निम्बार्काचार्यपीठस्याऽऽचार्यं सद्गुरुमाश्रये ॥ ५॥
परम तपोवन विश्ववन्द्य जगद्गुरु निम्बार्काचार्यपीठाधीश्वर आचार्यवर श्री ``श्रीजी महाराज का समाश्रय लेते हैं ॥ ५॥
सर्वेश्वरार्चनाचर्यातत्परं नितरां मुदा ।
श्रीमद्भागवताख्यानवर्णने निपुणं भजे ॥ ६॥
महर्षिवर्य श्रीसनकादि संसेव्य श्रीसर्वेश्र्वर प्रभु की सेवा परिचर्या करने में सर्वदा तत्पर और श्रीमद्भागवत में परिवर्णित विविध आख्यानों के निरूपण करने में अति कुशल ऐसे आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ ६॥
तुलसीमालयाजापे स्थितञ्च तिलकाङ्कितम् ।
पद्मासनसमासीनं भावये दिव्यदर्शनम् ॥ ७॥
तुलसी माला जिनके कर कमलों में सदा स्थित रहती है और उसके द्वारा सर्वदा महामन्त्र का जप करने वाले एवं गोपीचन्दन के तिलक से परम सुशोभित और पद्मासन से विराजित जिनके दिव्य दर्शन हो रहे हैं । उन परमाचार्यश्री का अपने हृदय से भावना करते हैं ॥ ७॥
वृन्दावननिकुञ्जस्थं रासलीलारसावहम् ।
गीताशास्त्रविशेषज्ञं नमामि सिद्धिसागरम् ॥ ८॥
श्रीवृन्दावनधामस्थ श्री श्रीजी बड़ई कुञ्ज में बहु समय तक जिन्होन्ने निवास किया एवं रासविहारी की रासलीला में सदा अवगाहन करने वाले और श्रीमद्भगवद्गीता का प्रतिदिन पाठ करने में तत्पर और जो अपनी वचनसिद्धि से परिपूर्ण हैं ऐसे परमाचार्यवर्य का हम अभिनमन करते हैं ॥ ८॥
राधाकृष्णपदाम्भोजे सदानुरक्त भावनम् ।
पराभक्तिसुधासिक्तं भजामि भक्तिदायम् ॥ ९॥
नित्यनिकुञ्जविहारी श्रीराधाकृष्ण भगवान् के युगलचरणारविन्दों में सदा अनुरक्त रहने वाले और पराभक्ति सुधा से अभिसिञ्चित तथा भगवद्भक्ति प्रदान करने वाले आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ ९॥
रसब्रह्ममुकुन्दाङ्घ्रिशरणं शास्त्रसत्तमम् ।
वार्द्धक्येऽपि नित्यचर्या पालकं सततं भजे ॥ १०॥
रस परब्रह्म श्रीमुकुन्दविहारी के युगलचरणारविन्दों में सदा शरण परायण एवं शास्त्रों के ज्ञाता और अपनी वृद्धावस्था में भी अपनी नित्य दैनिकचर्या के परिपालन करने में सतत तत्पर ऐसे आचार्यवर्य का भजन करते हैं ॥ १०॥
सारल्य-दैन्य-कारुण्य-सौशील्यादिगुणाकरम् ।
गो-विप्र-साधुसेवायामर्थदं याजिनं भजे ॥ ११॥
सरलता, दीनता, करुणता एवं सौशील्यादि गुणों से परिपूर्ण एवं गो-विप्र-साधु सेवा में अर्थ का विनियोग करने वाले और यथावसर पर यज्ञ करने में भी संलग्न ऐसे आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ ११॥
मन्दिरोत्सवसत्कार्ये प्रवीणं दीनवत्सलम् ।
शुभ्रपीताम्बराच्छन्नं देदीप्यमानमाश्रये ॥ १२॥
श्रीराधामाधव मन्दिर के विभिन्न उत्सवों के कार्यों में परम प्रवीण दीनवत्सल तथा श्वेत वस्त्र एवं पीताम्बर को धारण करने वाले परम शोभायमान आचार्यश्री का आश्रय लेते हैं ॥ १२॥
तुलसीकण्ठिकारम्यं गोपीचन्दनचर्चितम् ।
शङ्ख-चक्राङ्कितं चारु शरण्यं सम्भजे सदा ॥ १३॥
जिनके कमनीय कण्ठ में तुलसी की कण्ठी विराजित है । एवं गोपीचन्दन से आपश्री का कमनीय भाल अतिशय सुशोभित है । युगलभुजदण्डों पर सुन्दर शङ्ख-चक्र के चिह्न धारण किये हुए शरणागतजनों को सदा आश्रय देने वाले परमाचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ १३॥
ललाटे नित्यं तिलकं तुलसीमाल्यभूषितम् ।
कमलमालया जापे शोभितं दैनिकं भजे ॥ १४॥
जिनके सुभग ललाट पर तिलक सुशोभित है तुलसी माला से विभूषित और तुलसी एवं कमलगट्टा की माला से दैनिक जप परायण परम शोभायमान आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ १४॥
नित्यं व्यायामशीलञ्च नित्यं भ्रमणोत्सुकम् ।
पद्मासनसमासीनं प्राणायामपरं भजे ॥ १५॥
प्रतिदिन व्यायाम करने में अतिकुशल एवं नित्यप्रति परिभ्रमण करने वाले और अपने भजनकाल में पद्मासन से विराजित प्राणायाम परायण आचार्यश्री का भजन करते हैं ॥ १५॥
अनन्तश्रीयुतं पूज्यं युग्मलीलासुचिन्तकं
श्रेष्ठवाञ्छितदातारं नमामि करुणामयम् ॥ १६॥
अनन्त श्रीविभूषित जगद्गुरु निम्बार्काचार्य-पीठाधीश्वर श्रीबालकृष्णशरणदेवाचार्य श्री ``श्रीजी'' महाराज जो युगल प्रियाप्रियतम की दिव्य लीला का चिन्तन करने में संलग्न परमकरुणावरुणालय और समागत अपनी भावना प्रकट करने वाले भगवद्जनों को अभिलषित वस्तु को प्रदान करने में तत्पर आपश्री का अभिनमन करते हैं ॥ १६॥
श्रीगुरुषोडशी-स्तोत्रं सकलेत्सितसम्प्रदं
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मितम् ॥ १७॥
अपने वाञ्छित मनोरथ को प्रदान करने वाला
श्रीगुरुषोडशी-स्तोत्र जिसकी रचना आरपश्री के ही कृपा प्रसाद से ही सम्पन्न हुई हैं ॥ १७॥
इति श्रीगुरुषोडशीस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Mohan Chettoor