कुम्भस्तुतिः
दम्भादिदोषदमनाय जगत्रिताप-
शान्त्यै सरित्त्रयपयोऽमृतपूरिताय ।
लोकैकपुण्यकलिताय सुखास्पदाय
कुम्भाय पर्वजनिताय सते नमस्ते ॥ १।
दम्भ आदि दोष का दमन करने वाले, जगत् के त्रिताप की शान्ति लिये तीनों नदियों के जलामृत से परिपूर्ण, लोक के अद्वितीय पुण्य से युक्त, सुखास्पद पर्वजनित श्रेष्ठ कुम्भ को नमस्कार है ॥ १॥
अंहोमहोग्रविषभञ्जन भेषजाय
शम्भोः पदाब्जशरणाश्रयणप्रदाय ।
अम्भोमयाय सुकृताय नमांसि सन्तु
कुम्भोत्तमाय सरितां त्रितयान्विताय ॥ २॥
पापरूपी महाविष को विनष्ट करने में औषधि स्वरूप, शङ्कर के चरणकमलों के शरण प्रदान करने वाले, जलमय पुण्यवान् तीनों नदियों से युक्त उत्तम कुम्भ के लिये अनेकशः नमस्कार है ॥ २॥
कुम्भेश ! संसरणशीलमनुष्यमात्र-
त्रासापनोदननिदाननिदर्शनाय ।
पुण्याय पुण्यसलिलोल्लसितत्रिवेणी-
वेणीधराय च हराय शतं नमोऽस्तु ॥ ३॥
हे कुम्भराज! संसरणशील मनुष्यमात्र के त्रास दूर करने के निदान के निदर्शन, पुण्यमय, पुण्यजल से सुशोभित त्रिवेणीरूप वेणी को धारण करने वाले शङ्कर स्वरूप आपको सैकडों नमस्कार हैं ॥ ३॥
पर्वस्वरूपशुभसर्वसुरार्चिताय
सर्वस्वभूतभुवनामृतसम्भृताय ।
रम्यत्रिवेणितटसङ्गमसङ्गताय
कुम्भेश्वराय सततं विनयानतोऽस्मि ॥ ४॥
पर्वस्वरूप शुभान्वित सम्पूर्ण सुरों से पूजित, सर्वस्वभूत भुवनामृत से सम्भृत, सुन्दर त्रिवेणीतट के सङ्गम से युक्त, कुम्भेश्वर के लिए मैं निरन्तर विनयावनत हूँ ॥ ४॥
यागानुयागशतसुप्रथितप्रयाग-
तीर्थेशकुम्भमहिताय हितान्विताय ।
श्रद्धामयाय शुचिधामफलाश्रयाय
विश्वासवासभवनाय नमो भवाय ॥ ५॥
सैकडों यज्ञों से प्रसिद्ध तीर्थराज प्रयाग के कुम्भ से पूजित, हितों से युक्त, श्रद्धामय, पवित्र तेजःफल के आधार तथा विश्वास के निवासभूत- भवन भव (भवनशील कुम्भ) के लिए नमस्कार है ॥ ५॥
स्नानानुपानसकलेष्टविधेर्विधान-
पात्रोत्तमाय जनमङ्गलमोदकाय ।
दीपप्रभापरिगताय च शाश्वताय
सद्रूपचिद्गगनकुम्भ ! नमोऽस्तु तुभ्यम् ॥ ६॥
स्नान, अनुपान, सम्पूर्ण इष्टविधि के विधान के लिये पात्रोत्तम, लोगों के मङ्गल मोदक रूप, दीपों की प्रभा से घिरे शाश्वत हे सद्रूपचिद्गगनकुम्भ ! तुम्हारे लिए नमस्कार है ॥ ६॥
स्तन्येन मान्यजननीस्तनभाविताय
धान्येन धन्यगृहिणीगृहसंश्रिताय ।
काम्येन रम्यरमणीहृदयोद्गताय
कुम्भाय ते ननु कृताञ्जलिरानतोऽस्मि ॥ ७॥
दुग्ध से मान्य जननी के स्तनों से विभावित, धान्य से धन्य गृहिणियों के गृहों में विद्यमान, काम्य से सुन्दर रमणियों के वक्षःस्थल पर उद्गत तुझ कुम्भ के लिये कृताञ्जलि होता हुआ मैं सर्वथा नम्रीभूत हूँ ॥ ७॥
नाम्ना घटाय कलशाय सुभाजनाय
धाम्ना नभोऽर्कशशिदीपसमीकृताय ।
दाम्ना च सद्द्रविणकोषविशेषिताय
कुम्भाय मेऽस्तु विनतिः प्रणतिः स्तुतिश्च ॥ ८॥
नाम से घट कलश सुन्दर पात्र के रूप वाले, तेज से आकाशवर्ती सूर्य चन्द्र तथा दीपक के समान, दाम से सुन्दर द्रव्य के कोष से विशिष्ट तुझ कुम्भ के लिये मेरी विशेष प्रणति, विनति एवं स्तुति है ॥ ८॥
इति श्रीशिवजी उपाध्यायविरचिता कुम्भस्तुतिः समाप्ता ॥
Verses 111-118 from Kumbhashatakam.
Encoded and proofread by Saritha Sangameswaran