श्रीश्रीनिवासाचार्यचतुश्श्लोकी
शङ्खावतारं मुरलीधरस्य
कृष्णस्य वृन्दावनमोहनस्य ।
निम्बार्कशिष्यं बुधवृन्दसेव्यं
श्री श्रीनिवासं मनसा स्मरामि ॥ १॥
सर्वेश्वर वृन्दावनमोहन मुरलीधर भगवान् श्रीकृष्ण के करारविन्द में जो नित्य सुशोभित पाञ्जञ्जन्य शङ्ख उसी के आप अवतार हैं, सुदर्शनचक्रावतार आद्याचार्यप्रवर श्रीभगवन्निम्बार्काचार्य के पट्टशिष्य श्रेष्ठ महामनीषियों द्वारा संसेवित श्री श्रीनिवासाचार्य परमाचार्यवर्य का अपने मानस में नित्य स्मरण करते हैं ॥ १॥
निम्बार्क-वेदान्तसुभाष्यकारं
पुरातनाचार्यमसीमरूपम् ।
विरुद्ध-सिद्धान्तनिरोधदक्षं
श्री श्रीनिवासं मनसा स्मरामि ॥ २॥
निम्बार्क वेदान्त दर्शन पर वेदान्त कौस्तुभ नामक वृहद्-भाष्य के रचयिता जो अत्यन्त प्राचीनतम आचार्यस्वरूप हैं । आपका दिव्य सुभग स्वरूप है । जो अनादि-सनातन वैदिक वैष्णव सिद्धान्त जिसके विपरीत जो भी सिद्धान्त हैं उनके खण्डनात्मक समाधान करने में अतीव प्रवीण हैं उन आचार्यप्रवर श्रीश्रीनिवासाचार्यचरणों का स्वकीय अन्तर्हृदय में अविरल स्मरण करते हैं ॥ २॥
दिव्यप्रभावं श्रुतिशास्त्रविज्ञं
राधाहृषीकेशपदाब्जकामम् ।
वृन्दावनश्रीरसबोधकारं
श्री श्रीनिवास मनसा स्मरामि ॥ ३॥
जिनका सर्वत्र परमदिव्य प्रबल प्रभाव है, श्रुति-स्मृति-सूत्र-तन्त्र पुराणादि समस्त शास्त्रों के परमनिष्णात महामनीषी, भगवान् श्रीराधाकृष्ण के युगलचरणारविन्दों में निरन्तर उत्कण्ठा अभिरत, वृन्दावनाधीश्वरी सर्वेश्वरी श्रीराधाप्रियाजी की रसभक्ति के ही चिन्तन में प्रतिपल निरत श्रीश्रीनिवासाचार्य श्री का अपने निर्मल चित्त से स्मरण ध्यान करते हैं ॥ ३॥
व्रजे सुरम्ये गिरिराजमध्ये
विराजमानं ललितासुकुण्डे ।
कुञ्जे लता-पादपपुष्पपुञ्जे
श्री श्रीनिवासं मनसा स्मरामि ॥ ४॥
नानाविध लताद्रुमावलियों के मनोरम कुञ्जों से अतिकमनीय व्रजधाम के परम रमणीय गिरिराज श्रीगोवर्धनस्थित-ललिता कुण्ड पर परम शोभायमान आचार्यवर्य श्रीश्रीनिवासाचार्य श्रीचरणों का भक्तिपूर्वक हृदय से पुनः पुनः स्मरण-चिन्तन करते हैं ॥ ४॥
श्रीनिवास-चतुश्श्लोकी भक्ताऽऽमोदप्रदायिनी
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मिता ॥ ५॥
रसिक भगवद्भक्तों को परमानन्द प्रदान करने वाली श्रीनिवास चतुश्श्लोकी की रचना इन्हीं आचार्यश्री के अनुग्रह-प्रसाद से सम्भव हुई है ॥ ५॥
इति श्रीश्रीनिवासाचार्यचतुश्श्लोकी समाप्ता ।
Proofread by Mohan Chettoor