श्रीसनकादिचतुश्श्लोकी

श्रीसनकादिचतुश्श्लोकी

श्रीब्रह्मपुत्राँश्च महर्षि भागा- न्सर्वेश्वराऽर्चा-श्रुतिशास्त्रशीलान् । गोपालमन्त्रार्थविधानदक्षा- न्स्वान्ते भजे श्रीसनकादिवर्यान् ॥ १॥ वेदादि शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित भगवदीय-सत्सङ्ग चर्चा में एवं शालग्राम स्वरूप श्रीसर्वेश्वर प्रभु की नित्यार्चना में सर्वदा अभिरत, जगत् रचयिता श्रीब्रह्मा के मानस पुत्र महर्षिवर्य सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार जो श्रीगोपालमन्त्रराज का अर्थाभिव्यक्ति पूर्वक उसका सम्यक् विधान का सम्पादन करने में जो परम कुशल हैं, ऐसे उन चतुः श्रीसनकादि महर्षियों का हम अपने अन्तर्मन में भजन आराधन करते हैं ॥ १॥ सदा त्रिलोक्यां नितरामटन्तो- राधामुकुन्दाऽङ्घ्रिकथाप्रवृत्तान् । चतुर्वयस्कान्सुपुरातनाँश्च- स्वान्ते भजे श्रीसनकादिवर्यान् ॥ २॥ जो अपनी अव्याहत गति से समस्त लोक-लोकान्तरों में विचरण परायण हैं । वृन्दावन-गोलोकविहारी युगलकिशोर भगवान् श्रीराधाकृष्ण के चरणकमलों की अमित महिमा परक कथा-सत्सङ्ग सुधा का ही जो अनवरत पान करते हैं और जो सकल सृष्टि के आदि अति प्राचीनतम महर्षि रूप चतुर्वर्षीय आयु से परम सुशोभित नवनवायमान दिव्य स्वरूप श्रीसनकादिकों का हम अपने हृदय स्थल में सतत अनुसन्धान पूर्वक भजन स्मरण करते हैं ॥ २॥ नित्यं ऋषेर्नारदपूज्यवर्य- स्याऽऽचार्यपादान्भुवने प्रसिद्धान् । श्रीमत्कुमारान्ब्रजकुञ्जरम्या- न्स्वान्ते भजे श्रीसनकादिवर्यान् ॥ ३॥ जो श्रीहरि चित्त स्वरूप देवर्षिवर्य श्रीनारद के मन्त्रोपदेशक आचार्य रूप में समस्त ब्रह्माण्ड में परम प्रख्यात हैं । इस भूतल पर व्रज वृन्दावनधाम कीमञ्जुल-कुञ्जों में श्रीयुगलकिशोर भगवान् श्रीराधाविहारी की दिव्य उपासना में सदा अभिरत रहते हैं, ऐसे महर्षिवर्य श्रीसनकादि महाभागों का अपने अन्तःकरण में समग्रविधा उनका ध्यान, भजन, चिन्तन करते हैं ॥ ३॥ परात्परब्रह्मविचारमग्ना- न्भवाम्बुधि-क्लेशनिवारकान्नः । कारुण्यकोषानिह भूतले च स्वान्ते भजे श्रीसनकादिवर्यान् ॥ ४॥ जगन्नियन्ता सर्वान्तरात्मा परात्परतत्त्व रस परब्रह्म श्रीसर्वेश्वर के ही चिन्तन अनुस्मरण में ही सर्वदा तल्लीन रहने वाले और भूतल पर भीषण भवार्णव के नानाविध तापों के निवारण करने में प्रतिपल तत्पर करुणावरुणालय श्री सनकादि महर्षिवर्य का अपने चित्त में अनुसन्धान पूर्वक भजन करते हैं ॥ ४॥ सनकादि-चतुश्श्लोकी भक्ताऽभीष्टप्रदायिनी । राधासर्वेश्वरा शरणान्तेन निर्मिता ॥ ५॥ रसिक भक्तों को अभिलषित मनोरथों को प्रदान करने वाली इस श्रीसनकादि-चतुश्श्लोकी की उन्हीं महर्षिवृन्दों की कृपाजन्य रचना हुई जो नित्य पठनीय है ॥ ५॥ इति श्रीसनकादिचतुश्श्लोकी समाप्ता । Proofread by Mohan Chettoor
% Text title            : Shri Sanakadi Chatushshloki
% File name             : sanakAdichatushshlokI.itx
% itxtitle              : sanakAdichatushshlokI (shrIjI virachitam)
% engtitle              : sanakAdichatushshlokI
% Category              : deities_misc, gurudev, nimbArkAchArya, chatuHshlokI
% Location              : doc_deities_misc
% Sublocation           : deities_misc
% SubDeity              : gurudev
% Author                : shrIjI
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Mohan Chettoor
% Indexextra            : (1, 2)
% Latest update         : January 28, 2023
% Send corrections to   : (sanskrit at cheerful dot c om)
% Site access           : https://sanskritdocuments.org

This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit.

BACK TO TOP
sanskritdocuments.org