गुप्तसप्तशती

गुप्तसप्तशती

सात सौ मन्त्रों की ``श्री दुर्गा सप्तशती'', का पाठ करने से साधकों का जैसा कल्याण होता है, वैसा-ही कल्याणकारी गुप्तसप्तशतीका पाठ है । यह ``गुप्त-सप्तशती'' प्रचुर मन्त्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेच्छु साधकों के लिए अमोघ फल-प्रद है । इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है । प्रारम्भ में ``कुञ्जिका-स्तोत्र'', उसके बाद ``गुप्त-सप्तशती'', तदन्तर ``तीव्रचण्डिका स्तोत्र``का पाठ करें । Start with कुञ्जिका-स्तोत्रम् अथ गुप्त-सप्तशती । ॐ ब्रीं-ब्रीं-ब्रीं वेणु-हस्ते, स्तुत-सुर-बटुकैर्हां गणेशस्य माता स्वानन्दे नन्द-रुपे, अनहत-निरते, मुक्तिदे मुक्ति-मार्गे । हंसः सोहं विशाले, वलय-गति-हसे, सिद्ध-देवी समस्ता हीं-हीं-हीं सिद्ध-लोके, कच-रुचि-विपुले, वीर-भद्रे नमस्ते ॥ १॥ ॐ हीङ्कारोच्चारयन्ती, मम हरति भयं, चण्ड-मुण्डौ प्रचण्डे खां-खां-खां खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रकिते, उग्र-रुपे स्वरुपे । हुँ-हुँ हुँकांर-नादे, गगन-भुवि-तले, व्यापिनी व्योम-रुपे हं-हं हङ्कार-नादे, सुर-गण-नमिते, चण्ड-रुपे नमस्ते ॥ २॥ ऐं लोके कीर्तयन्ती, मम हरतु भयं, राक्षसान् हन्यमाने घ्रां-घ्रां-घ्रां घोर-रुपे, घघ-घघ-घटिते, घर्घरे घोर-रावे । निर्मांसे काक-जङ्घे, घसित-नख-नखा, धूम्र-नेत्रे त्रि-नेत्रे हस्ताब्जे शूल-मुण्डे, कुल-कुल ककुले, सिद्ध-हस्ते नमस्ते ॥ ३॥ ॐ क्रीं-क्रीं-क्रीं ऐं कुमारी, कुह-कुह-मखिले, कोकिलेनानुरागे मुद्रा-संज्ञ-त्रि-रेखा, कुरु-कुरु सततं, श्री महा-मारि गुह्ये । तेजाङ्गे सिद्धि-नाथे, मन-पवन-चले, नैव आज्ञा-निधाने ऐङ्कारे रात्रि-मध्ये, स्वपित-पशु-जने, तत्र कान्ते नमस्ते ॥ ४॥ ॐ व्रां-व्रीं-व्रूं व्रैं कवित्वे, दहन-पुर-गते रुक्मि-रुपेण चक्रे त्रिः-शक्तया, युक्त-वर्णादिक, कर-नमिते, दादिवं पूर्व-वर्णे । ह्रीं-स्थाने काम-राजे, ज्वल-ज्वल ज्वलिते, कोशिनि कोश-पत्रे स्वच्छन्दे कष्ट-नाशे, सुर-वर-वपुषे, गुह्य-मुण्डे नमस्ते ॥ ५॥ ॐ घ्रां-घ्रीं-घ्रूं घोर-तुण्डे, घघ-घघ घघघे घर्घरान्याङिघ्र-घोषे ह्रीं क्रीं द्रूं द्रोञ्च-चक्रे, रर-रर-रमिते, सर्व-ज्ञाने प्रधाने । द्रीं तीर्थेषु च ज्येष्ठे, जुग-जुग जजुगे म्लीं पदे काल-मुण्डे सर्वाङ्गे रक्त-धारा-मथन-कर-वरे, वज्र-दण्डे नमस्ते ॥ ६॥ ॐ क्रां क्रीं क्रूं वाम-नमिते, गगन गड-गडे गुह्य-योनि-स्वरुपे वज्राङ्गे, वज्र-हस्ते, सुर-पति-वरदे, मत्त-मातङ्ग-रुढे । स्वस्तेजे, शुद्ध-देहे, लल-लल-ललिते, छेदिते पाश-जाले किण्डल्याकार-रुपे, वृष वृषभ-ध्वजे, ऐन्द्रि मातर्नमस्ते ॥ ७॥ ॐ हुँ हुँ हुङ्कार-नादे, विषमवश-करे, यक्ष-वैताल-नाथे सु-सिद्धयर्थे सु-सिद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, सर्व-भक्षे प्रचण्डे । जूं सः सौं शान्ति-कर्मेऽमृत-मृत-हरे, निःसमेसं समुद्रे देवि, त्वं साधकानां, भव-भव वरदे, भद्र-काली नमस्ते ॥ ८॥ ब्रह्माणी वैष्णवी त्वं, त्वमसि बहुचरा, त्वं वराह-स्वरुपा त्वं ऐन्द्री त्वं कुबेरी, त्वमसि च जननी, त्वं कुमारी महेन्द्री । ऐं ह्रीं क्लीङ्कार-भूते, वितल-तल-तले, भू-तले स्वर्ग-मार्गे पाताले शैल-श्रृङ्गे, हरि-हर-भुवने, सिद्ध-चण्डी नमस्ते ॥ ९॥ हं लं क्षं शौण्डि-रुपे, शमित भव-भये, सर्व-विघ्नान्त-विघ्ने गां गीं गूं गैं षडङ्गे, गगन-गति-गते, सिद्धिदे सिद्ध-साध्ये । वं क्रं मुद्रा हिमांशोर्प्रहसति-वदने, त्र्यक्षरे ह्सैं निनादे हां हूं गां गीं गणेशी, गज-मुख-जननी, त्वां महेशीं नमामि ॥ १०॥ इति गुप्त-सप्तशती सम्पूर्णा । Follow this by तीव्रचण्डिका स्तोत्रम् Both Kunjika and TivrachandikA stotras are available on the sanskritdocuments site.
% Text title            : Guptasaptashati
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% engtitle              : guptasaptashatI
% Category              : devii
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% Sublocation           : devii
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Description/comments  : Suggested sequence is to chant kunjikAstotram, guptasaptashatI, and then tIvrachaNDikAstotram
% Indexextra            : (Text, kunjikAstotram, tIvrachaNDikAstotram)
% Latest update         : May 16, 2025
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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