स्वाराज्यानुभवः
चन्द्रच्छायापहरणपटोः सौख्यमाधुर्यधाम्नः
सन्तप्तानां परमसुखदैः श्रीमतो राघवस्य ।
शीतैः स्वच्छैर्मधुरमधुरै र्हास्यरूपप्रवाहै-
रारात्तिष्ठन्निधिगतसुखः कल्मषं क्षालयामि ॥ १॥
चन्द्रमा से भी अधिक सुन्दर, सुख और मधुरता के धाम, श्रीमद्राघव के उस हास्यरूप सरयू के प्रवाह से, समीप में बैठा हुआ मैं अपने पापों को धो रहा हूँ जो कि त्रिविध तापों से सन्तप्त चेतनों के लिए परमसुख प्रदाता है, स्वच्छ है और मधुरतम है ॥ १॥
कश्चिद्गङ्गातटमधिवसन् पापपुञ्जं विमुञ्चन्,
सत्कर्मादीन्विदधदपरो निर्मलत्वं प्रयाति ।
शोभां पश्यन्मधुरवचनस्येन्दुकान्ताननस्य,
क्षीणं कुर्वे दुरितमखिलं स्वस्य सीतासखस्य ॥ २॥
कोई गङ्गा तट पर निवास करता हुआ और कोई उत्तम कर्मों को करता हुआ निर्मल बनता है, परन्तु मैं मधुरभाषी, चन्द्रसमान मुखवाले, सीतानाथ भगवान् श्रीराम की शोभा को देखता हुआ अपना समस्त पाप धो रहा हूं ॥ २॥
कश्चिद्गीतां पठति सततं प्रातरुत्थाय नित्यं,
वेदान् कश्चित्पठति सुतरामात्मनिश्श्रेयसाय ।
शोभासिन्धोः शुभगुणनिधेः श्रीमतो राघवेन्द्रो-
र्निर्व्याजं मे रटति रसना नाम कामं ललामम् ॥ ३॥
कोई तो प्रतिदिन प्रातः उठकर आत्मकल्याण के लिये गीता का पाठ करता है और कोई नित्य वेदाध्ययन करता है और मेरी जीभ शोभाधाम, अखिलहेय प्रत्यनीक गुणगण मंडित श्रीसीतापति राम के सुन्दर नाम को शुद्ध भाव से निरन्तर रट रही है ॥ ३॥
दीनोद्धाराप्रतिहतगतेः सर्वकल्याणधाम्नो,
रम्याभोजोपमितवपुषो राघवाम्भोजमानोः ।
कान्तं शान्तं सरसमनघं सर्वसच्चित्तहारी,
लक्ष्यं यत्तन्मृदुनि वदने मार्दवं शं तनोति ॥ ४॥
दीनोद्धार परायण, सर्वकल्याण निकेतन, सुन्दरकमल कोमलकाय, रघुकुलकमल दिवाकर श्रीराम के मुख पर कान्त, शान्त, सरस, निर्दोष और सत्पुरुषों के चित्त को हरण करने वाली जो मृदुता दीख पड़ती है वह मेरा कल्याण कर रही है ॥ ४॥
संसाराम्भः पटलकुटिलोत्तुङ्गरिङ्गतरङ्गै-
र्निष्कारुण्यं प्रतिपलमलं ताड्यमानं मनो मे ।
चिन्ताचक्रोन्मथितमभितः क्वथ्यमानं विपद्भि-
र्दन्तज्योती रचयतितमां रामभद्रस्य शान्तम् ॥ ५॥
संसारसागर के कुटिल और बड़े-बड़े उठते हुए तरङ्गों से प्रतिक्षण मेरा मन अत्यन्त निर्दयता के साथ मारा जा रहा है, अनेक विपत्तियों से उबाला जा रहा है, चिन्ता चक्ररूप मथानी से मथा गया है । ऐसे मेरे मन को भगवान् श्रीराम के दाँतों का प्रकाश अत्यन्त शान्त कर रहा है ॥ ५॥
शान्ते शून्ये हृदयपटले दुर्बले मे विनम्रे,
पापापारोदकनिधिसरद्विप्रतीसारतापम् ।
फुल्लाम्भोजामलदलदृशः श्रीमतो राघवस्य,
हृद्यः सद्यः शमयतितमां दृष्टिकोणावपातः ॥ ६॥
मेरे शान्त, शून्य, दुर्बल और विनम्र हृदयपटल में मेरे पापों के अपारसमुद्र- में से उत्पन्न हुए पश्चात्ताप रूप अग्नि को, खिले हुए कमल के निर्मलदल प्रमान नेत्रों वाले भगवान् श्रीराम का मनोहर कृपा कटाक्षपात तत्काल ही शान्त कर रहा है ॥ ६॥
॥ इति श्री परमहंस परिव्राजक जगद्गुरु रामानवाचार्य स्वामिश्री भगवदाचार्यमहाराजैः १९७६ तमे विक्रमसम्वत्सरे प्रणीतः ॥
Encoded and proofread by Mrityunjay Pandey