कश्यपकृतं २ शिवस्तोत्रम्
कश्यप उवाच ।
पाहि शङ्कर देवेश पाहि लोकनमस्कृत ।
पाहि पावन वागीश पाहि पन्नगभूषण ॥ ९४॥
पाहि धर्म वृषारूढ पाहि वेदत्रयेक्षण ।
पाहि गोधरलक्ष्मीश पाहि शर्व गजाम्बर ॥ ९५॥
पाहि त्रिपुरहन्नाथ पाहि सोमार्धभूषण ।
पाहि यज्ञेश सोमेश पाह्यभीष्टप्रदायक ॥ ९६॥
पाहि कारुण्यनिलय पाहि मङ्गलदायक ।
पाहि प्रभव सर्वस्य पाहि पालक वासव ॥ ९७॥
पाहि भास्कर वित्तेश पाहि ब्रह्मनमस्कृत ।
पाहि विश्वेश सिद्धेश पाहि पूर्ण नमोऽस्तु ते ॥ ९८॥
घोरसंसारकान्तारसञ्चारोद्विग्नचेतसाम् ।
शरीरिणां कृपासिन्धो त्वमेव शरणं शिव ॥ ९९॥
एवं संस्तुवतस्तस्य पुरतोऽभूद्वृषध्वजः ।
वरेण च्छन्दयामास कश्यपं तं प्रजापतिम् ॥ १००॥
इति ब्रह्मपुराणे चतुर्विंशाधिकशततमाध्यायान्तर्गतं
कश्यपकृतं शिवस्तोत्रं समाप्तम् ।
ब्रह्मपुराण । अध्याय १२४/९४-९९॥
brahmapurANa . adhyAya 124/94-99..
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