मूर्त्यष्टकस्तोत्रम्
भार्गव उवाच -
त्वं भाभिराभिरभिभूय तमस्समस्त-
मस्तं नयस्यभिमतानि निशाचराणाम् ।
देदीप्यसे दिवमणे गगने हिताय
लोकत्रयस्य जगदीश्वर तन्नमस्ते ॥ १॥
भार्गवने कहा--सूर्यस्वरूप भगवन्! आप त्रिलोकीका हित करनेके लिये
आकाशमें प्रकाशित होते हैं और अपनी इन किरणोंसे समस्त अन्धकारको
अभिभूत करके रातमें विचरनेवाले असुरोंका मनोरथ नष्ट कर देते
हैं । जगदीश्वर! आपको नमस्कार है ॥ १॥
लोकेऽतिवेलमतिवेलमहामहोभि-
निर्भासि कौ च गगनेऽखिललोकनेत्रः ।
विद्राविताखिलतमास्सुतमो हिमांशो
पीयूषपूरपरिपूरित तन्नमस्ते ॥ २॥
घोर अन्धकारके लिये चन्द्रस्वरूप शंकर! आप अमृतके प्रवाहसे
परिपूर्ण तथा जगत्के सभी प्राणियोंके नेत्र हैं । आप अपनी अमर्याद
तेजोमय किरणोंसे आकाशमें और भूतलपर अपार प्रकाश फैलाते हैं
जिससे सारा अन्धकार दूर हो जाता है; आपको प्रणाम है ॥ २॥
त्वं पावने पथि सदा गतिरस्युपास्यः
कस्त्वां विना भुवनजीवन जीवतीह ।
स्तब्धप्रभञ्जनविवर्धितसर्वजन्तो
संतोषिताहिकुल सर्वग वै नमस्ते ॥ ३॥
सर्वव्यापिन्! आप पावन पथ-योगमार्गका आश्रय लेनेवालोंकी सदा गति
तथा उपास्यदेव हैं । भुवन-जीवन! आपके बिना भला इस लोकमें कौन
जीवित रह सकता है । सर्पकुलके संतोषदाता! आप निश्चल वायुरूपसे
सम्पूर्ण प्राणियोंकी वृद्धि करनेवाले हैं, आपको अभिवादन है ॥ ३॥
विश्वैकपावक नतावक पावकैक-
शक्ते ऋते मृतवतामृतदिव्यकार्यम् ।
प्राणिष्यदो जगदहो जगदन्तरात्मं-
स्त्वं पावकः प्रतिपदं शमदो नमस्ते ॥ ४॥
विश्वके एकमात्र पावनकर्ता! आप शरणागतरक्षक और अग्निकी एकमात्र
शक्ति हैं । पावक आपका ही स्वरूप है। आपके बिना मृतकोंका
वास्तविक दिव्य कार्य-दाह आदि नहीं हो सकता । जगत्के अन्तरात्मन् !
आप प्राणशक्तिके दाता, जगत्स्वरूप और पद-पदपर शान्ति प्रदान
करनेवाले हैं; आपके चरणोंमें मैं सिर झुकाता हूँ ॥ ४॥
पानीयरूप परमेश जगत्पवित्र
चित्रातिचित्रसुचरित्रकरोऽसि नूनम् ।
विश्वं पवित्रममलं किल विश्वनाथ
पानीयगाहनत एतदतो नतोऽस्मि ॥ ५॥
जलस्वरूप परमेश्वर! आप निश्चय ही जगतूके पवित्रकर्ता और
चित्र-विचित्र सुन्दर चरित्र करनेवाले हैं । विश्वनाथ ! जलमें
अवगाहन करनेसे आप विश्वको निर्मल एवं पवित्र बना देते हैं; आपको
नमस्कार है ॥ ५॥
आकाशरूप बहिरन्तरुतावकाश-
दानाद् विकस्वरमिहेश्वर विश्श्वमेतत् ।
त्वत्तस्सदा सदय संशवसिति स्वभावात्
संकोचमेति भवतोऽस्मि नतस्ततस्त्वाम् ॥ ६॥
आकाशरूप ईश्वर! आपसे अवकाश प्राप्त करनेके कारण यह विशव बाहर
और भीतर विकसित होकर सदा स्वभाववश श्वास लेता है अर्थात्
इसकी परम्परा चलती रहती है तथा आपके द्वारा यह संकुचित भी
होता है अर्थात् नष्ट हो जाता है; इसलिये दयालु भगवन्! मैं आपके
आगे नतमस्तक होता हूँ ॥ ६॥
विश्वम्भरात्मक बिभर्षि विभोऽत्र विश्वं
को विश्वनाथ भवतोऽन्यतमस्तमोऽरिः ।
स त्वं विनाशय तमो मम चाहिभूष
स्तव्यात् परः परपरं प्रणतस्ततस्त्वाम् ॥ ७॥
विश्वम्भरात्मक ! आप ही इस विश्वका भरण-पोषण करते हैं ।
सर्वव्यापिन्! आपके अतिरिक्त दूसरा कौन आज्ञानान्धकारको दूर करनेमें
समर्थ हो सकता है । अतः विश्वनाथ! आप मेरे अज्ञानरूपी तमका विनाश
कर दीजिये । नागभूषण ! आप स्तवनीय पुरुषोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं;
आप परात्पर प्रभुको मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ ॥ ७॥
आत्मस्वरूप तव रूपपरम्पराभि-
राभिस्ततं हर चराचररूपमेतत् ।
सर्वान्तरात्मनिलय प्रतिरूपरूप
नित्यं नतोऽस्मि परमात्मजनोऽष्टमूर्ते ॥ ८॥
आत्मस्वरूप शंकर! आप समस्त प्राणियोंकी अन्तरात्मामें निवास
करनेवाले, प्रत्येक रूपमें व्याप्त हैं और मैं आप परमात्माका जन हूँ
। अष्टमूर्ते! आपको इन रूपपरम्पराओंसे यह चराचर विश्व विस्तारको
प्राप्त हुआ है, अतः मैं सदासे आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ८॥
इत्यष्टमूर्तिभिरिमाभिरबन्धवन्धो
युक्तः करोषि खलु विश्वजनीनमूर्ते ।
एतत्ततं सुविततं प्रणतप्रणीत
सर्वार्थसार्थपरमार्थ ततो नतोऽस्मि ॥ ९॥
हे मुक्तपुरुषोंके वन्धो! आप विश्वके समस्त प्राणियोंके स्वरूप,
प्रणतजनोंके सम्पूर्ण योगक्षेमका निर्वाह करनेवाले और परमार्थस्वरूप
हैं । आप अपनी इन अष्टमूर्तियोंसे युक्त होकर इस फैले हुए विश्वको
भलीभाँति विस्तृत करते हैं, अतः आपको मेरा अभिवादन है ॥ ९॥
॥ इति श्रीशिवमहापुराणे रुद्रसंहितायां मूर्त्यष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराणके रुद्रसंहितामें मूर्त्यष्टकस्तोत्र
सम्पूर्ण हुआ ॥
हर! जनि बिसरब मो ममता, हम नर अधम परम पतिता ।
तुअ-सन अधम-उधार न दोसर हम-सन नहिं पतिता ॥
जम के द्वार जबाब कौन देब, जखन बुझब निज गुन कर बतिया ।
जब जम किंकर कोऽपि पठाएत, तखन के होत धरहरिया ॥
भन विद्यापति सुकवि पुनीत मति, संकर बिपरीत बानी ।
असरन-सरन-चरन सिर नाओत, दया करु दिअ सुलपानी ॥
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