नन्दिस्तवः
कण्ठालङ्कारघण्टाघणघणरणिताध्मातरोदःकटाहः
कण्ठेकालाधिरोहोचितघनसुभगंभावुकस्निग्धपृष्ठः ।
साक्षाद्धर्मो वपुष्मान् धवलककुदनिर्धूतकैलासकूटः
कूटस्थो वः ककुद्यानिविडतरतमःस्तोमतृण्यां वितृण्यात् ॥ १॥
अपने गलेके आभूषणरूप घंटेको घन-घन ध्वनिसे आकाश
और पृथ्वीको क्षुब्ध कर देनेवाले भगवान नीलकण्ठ शिवके
आरोहण करनेयोग्य, परिपुष्ट सुन्दर, भावयुक्त तथा स्निग्ध
पृष्ठदेशवाले, साक्षात् शरीरधारी धर्मके प्रतिरूप,
अपने श्वेतवर्णके ककुद् (डील) - को कान्तिसे कैलासशिखरको
निर्मल बना देनेवाले भगवान नन्दिकेश्वर आपलोगोंके घनीभूत
आज्ञानान्धकारसमूहरूप तृणपुंजको छिन्न- भिन्न कर दें ॥ १॥
॥ इति नन्दिस्तवः सम्पूर्णः ॥
॥ इस प्रकार नन्दिस्तव सम्पूर्ण हुआ ॥
Proofread by Ganesh Kandu kanduganesh at gmail.com