श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथस्तोत्रम्

श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथस्तोत्रम्

॥ राजराजेश्वरविश्ननाथो विजयते तराम् ॥ ध्यानम् - अनन्तरूपाणि गुणास्त्वनन्ता अनन्तशीर्षश्रवणाक्षिनासाः । अनन्तबाह्वास्यपदानि यस्य तं राजराजेश्वरमानतोऽस्मि ॥ १॥ जिनके अनन्तरूप, अनन्तगुण, अनन्तमस्तक, अनन्तकर्ण, अनन्तनेत्र, अनन्तनासिका, अनन्तबाहु, अनन्तमुख और अनन्त चरण हैं ऐसे परब्रह्मस्वरूप श्री राजराजेश्वर शिवको हर प्रकार से प्रणाम करते हैं ॥ १॥ ब्रह्माण्डकोट्यन्वितरोमकूपं सहस्रब्रह्माण्डमयस्वरूपम् । अनन्तसंज्ञं परमं महेशं ध्याये सदाहं पुरुषं परेशम् ॥ २॥ जिनके प्रत्येक रोम-रोम में कोटि-कोटि ब्रह्माण्ड हैं तथा जिनके स्वरूप भी अनन्त ब्रह्माण्डमय हैं और जिनके नाम अनन्त हैं उन महेश्वर परब्रह्म परमेश्वर का हम ध्यान करते हैं ॥ २॥ श्रीराजराजेश्वरदिव्यदेवो बभूव काश्यां सहजप्रकाशः । तत्सन्निधौ श्रीप्रियविश्वनाथो मातान्नपूर्णापि च ढुण्डिराज ॥ ३॥ सब देवों के देव श्री राजराजेश्वर नाम से काशी में स्वयं प्रकट हुए जिनके समीप में श्री विश्वनाथ और अन्नपूर्णा के प्रिय पुत्र ढुण्डिराज विद्यमान हैं ॥ ३॥ कुबेरभागे भटदण्डपाणिः प्राग्ज्ञानवापी शुभदा विभाति । रम्ये स्थले शोभितदिव्यकान्तिः श्रीराजराजेश्वर-नामधेयः ॥ ४॥ उत्तर भाग में वीरप्रवर दण्डपाणि और पूर्व दिशा में सर्वजन शुभप्रदा ज्ञानवापी सुशोभित है, ऐसे परम रमणीय स्थान में राजराजेश्वर स्वयं विद्यमान हैं ॥ ४॥ भक्तप्रियो भक्तगुणानुरागी भक्ताभिलाषापरिपूरकोऽयम् । यद्दर्शनार्थञ्च सुरेश्वराद्याः सप्तर्षयो नारदकश्यपाद्याः ॥ ५॥ जो भक्तों के प्रिय तथा भक्तों के गुणों में अनुराग रखने वाले और भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण करने वाले हैं । जिनके दर्शन के लिए इन्द्रादि समस्त देवता, नारद कश्यपादि समस्त महर्षिगण आते हैं ॥ ५॥ अन्येपि सर्वेऽखिललोकपालाः श्रीराजराजेश्वरमर्चयन्ति । धूपैश्च दीपैर्विविधोपचारैः तं देवदेवं परितोषयन्ति ॥ ६॥ तथा अन्य भी यम, कुबेर, वरुणादि लोकपाल श्री राजराजेश्वर का धूप दीप नैवेद्यादि षोडशोपचार विधि से पूजन करके प्रसन्न करते हैं ॥ ६॥ भक्तप्रसन्नो वरदः सुदाता ममाभिलाषापरिपूरकोऽस्तु । श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ क्रूरोपि कामी शरणं प्रपद्दे ॥ ७॥ आप भक्तों पर प्रसन्न रहने वाले तथा अभीष्ट वर देने वाले हैं । हे शिव ! आप हमारी अमिलाषाओं को पूर्ण करें । हे श्री राजराजेश्वर विश्वनाथ (पञ्चभूतात्मक शरीर होने से ) हम क्रूर कामी होते हुए भी आपकी शरण में हैं ॥ ७॥ स्वपादयुग्माम्बुजपूजकेभ्यो विद्यां वटुभ्यः प्रददाति नित्यम् । सच्छात्रवृन्देन सुपूजितोऽसौ छात्रप्रियोऽसौ जयतीह काश्याम् ॥ ८॥ अपने चरणकमल पूजक विद्यार्थियों को अभिमत विद्या प्रदान करते हैं । तथा आप सुशील विद्यार्थियों द्वारा पूजित होकर, सर्वश्रेष्ठ काशीनगरी में विराजमान हैं ॥ ८॥ न तस्य रूपं न विरूपमेव रूपाभिरूपं स च सर्वरूपः । वेदे प्रसिद्धोऽस्ति स शर्वनामा भक्तस्य कष्टं विनिहन्ति सर्वम् ॥ ९॥ न तो आप रूपवान हैं, न रूपहीन हैं, आप रूपों के भी उत्कृष्ट रूप हैं । आप वेदों में शर्वनाम से गीत हैं और भक्तजनों के कष्टों के निवारक हैं ॥ ९॥ श्रीराजराजेश्वर लोकनाथ काश्यां सुवासं मम देहि देव । वसामि काश्यां शिवपादमूले मोक्षाभिलाषी सततं पुरारे ॥ १०॥ हे राजराजेश्वर, हे लोकनाथ, हे पुरारे, हे देव हम मोक्षा- भिलाषी होकर काशी में वास कर रहे हैं । अतः मुझे काशी में अचलवास दीजिये ॥ १०॥ श्री राजराजेश्वर पाहि शम्भो त्वं मां सदा हे त्रिपुरान्तकारिन् । ब्रह्मा च विष्णुश्च तवाश्रितौ स्तः तयोर्विवादस्य निवर्तकस्त्वम् ॥ ११॥ हे राजराजेश्वर शम्भो, हे त्रिपुरध्वंसक आप सर्वदा मेरी रक्षा करें । शरणागत ब्रह्मा, विष्णु के विवाद को आपने निवृत्त किया ॥ ११॥ श्रीराजराजेश्वरदिव्यलिङ्ग- ज्योतिस्वरूपेण समागतस्त्वम् । काशीपुरे वर्तुलरूपधारी सशाप मिथ्यावचसं विधिं तम् ॥ १२॥ उस समय आपने राजराजेश्वर नाम से दिव्य ज्योतिर्लिङ्ग रूप धारण करके आकाश, पाताल का भेदन करके प्रकट हुए और काशीपुरी में पञ्चक्रोश्यात्मक वर्तुलरूप धारण कर मृषावादी ब्रह्मा को आपने शाप दिया ॥ १२॥ त्वं याहि ब्रह्मन्निजपुष्कराख्ये मत्सन्निधौ पूजनभाङ्गहि त्वम् । उवाच विष्णुं प्रति चक्रपाणे! भक्तोऽसि नित्यं मम सन्निधाने ॥ १३॥ तथा कहे कि हे ब्रह्मा तुम पुष्कर नामक अपने स्थान में रहो आज से तुम हमारे साथ पूजा पाने के योग्य नहीं हो । तथा आपने विष्णु से कहा कि हे चक्रपाणि तुम मेरे प्रिय भक्त हो अतः हमारे पास में ही सर्वदा रहो ॥ १३॥ आदौ प्रपूज्यः सततं प्रियो मे सत्यव्रतः सम्प्रति सत्यवादी । श्रुत्वेति शम्भोर्वचनं मुरारिः प्रोवाच भक्त्या परमेश्वरं तम् ॥ १४॥ हे सत्यव्रत-सत्यवादी विष्णु इस समय आपने सत्य बोला है अतः मेरे प्रिय हो और सर्वदा हमसे प्रथम पूजित होगे । इस प्रकार भगवान शङ्कर के वचन सुनकर विष्णु ने भक्तिपूर्वक परमेश्वर शिव से कहा ॥ १४॥ न योगलभ्यो न च दानलभ्यो न यज्ञ लभ्यो न तपःप्रलभ्यः । न ज्ञानविद्यादिगुणैस्तथा वं भक्त्या यथा प्रेमवलेन लभ्यः ॥ १५॥ हे शम्भो राजराजेश्वर आप न योग से न दान से न यज्ञ से न तपस्या से न ज्ञान विद्यादि गुणों से ही उस प्रकार प्राप्त हो सकते हैं । जैसे भक्तिपूर्वक प्रेम से आप सहज ही प्राप्त होते हैं ॥ १५॥ श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ त्वं सर्वदेशेषु विभासि नित्यम् । न बिन्दुमात्रं स्थलमस्ति यत्र त्वं नासि हे विश्वजनाधिवासिन् ॥ १६॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ हे विश्वजनाधिवासिन तुम सर्वदा सर्वत्र प्रकाशित हो । ब्रह्माण्डों में बिन्दुमात्र भी ऐसा स्थान नहीं है जहाँ तुम नहीं हो ॥ १६॥ सर्वेश्वरः सर्वमिदं त्वदीयं त्वं राजराजेश्वर सर्वराजः । त्वं सर्वगः सर्वपतिस्त्वमेव पश्यामि नाहं जगति त्वदन्यम् ॥ १७॥ हे राजराजेश्वर आप सबके ईश्वर हैं, सब राजाओं के राजा हैं विश्व के समस्त पदार्थ आपके ही हैं। आप सम्पूर्ण परमाणुओं में विद्यमान हैं । सबके पालक हैं विश्व में आपसे भिन्न कुछ भी प्रतीत नहीं होता है ॥ १७॥ श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ त्वं सर्ववित् सर्वजनानुरक्तः । पुनः पुनस्त्वां च नमस्करोमि न मे स्ति कश्चिद्भुवने त्वदन्यः ॥ १८॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ आप सम्पूर्ण जीवों की अन्तरात्मा को जाननेवाले, तथा समस्त प्राणियों पर अनुराग रखनेवाले हैं । हम आपको बारम्बार प्रणाम करते हैं । आपको छोड़्कर हमारा अन्य कोई नहीं है ॥ १८॥ श्रीराजराजेश्वर विश्वनाथ विना भवन्तं शरणं न मेऽस्ति । देवो मुनिर्वा मनुजोपि कश्चित् तस्मान्नतोहं तव पादमूले ॥ १९॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ आपको छोड़्कर विश्व में देव ऋषि मनुष्य कोई भी हमारा शरण नहीं है इसलिए हम आपके चरण-शरण में प्रणत हैं (आप हमारी रक्षा करें) ॥ १९॥ अल्पज्ञ-जीवेन मया त्वमीश किं वर्णनीयोऽसि कदापि शम्भो । वदन्ति वेदा अपि नेति नेति ज्ञात्वा न तत्त्वं च सुरा भ्रमन्ति ॥ २०॥ हे ईश हे शम्भो हम अल्पज्ञजीव क्या कभी आपका वर्णन कर सकते हैं । जिन आपके गुणों को वेद भी न जानकर नेति-नेति की घोषणा करते हैं । और आपके तत्त्व को न जानकर देवसमूह भी भ्रम में पड़े रहते हैं ॥ २०॥ श्रीराजराजेश्वर विश्वनाथ हे धूर्जटे निर्गुण चन्द्रमौले । प्रियोऽसि मे हे मृगराजचर्मन मां पाहि नित्यं भुजगेन्द्रमालिन् ॥ २१॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ, हे धूर्जटे, हे चन्द्रमौले, हे मृगराज चर्मन्, हे भुजगेन्द्र मालिन् आप मेरे प्रिय हैं आप हमारी रक्षा करें ॥ २१॥ श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ त्रिनेत्रधारिन् गिरिजेश शम्भो । प्रकाशिता नाथ समस्तवेदाः देवास्त्रयश्चापि कृतास्वयैव ॥ २२॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ, त्रिनेत्रधारी, हे गिरिजेश, हे शम्भो आपने ही समस्त वेदों को पकाशित किया और आपही ने ब्रह्मादि त्रिदेवों को सृष्ट किया ॥ २२॥ श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ त्वं रक्तवर्णः शिव सृष्टिकाले । त्वं पोषणे शङ्कर शुक्लवर्णः सुष्टयत्यये त्वं भवतीह कृष्णः ॥ २३॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ आप सृष्टिकाल में रक्त वर्ण पोषणकाल में शुक्ल वर्ण और संहारकाल में कृष्ण वर्ण धारण करते हुए प्रतीत होते हैं ॥ २३॥ कालत्रये त्वं समतां प्रपन्नः विकारलेशस्त्वयि नो कदाचित् । त्वं शून्यचेष्टो हर शून्यकर्मा महानपि त्वं शिव शून्यरूपः ॥ २४॥ तथापि (हे राजराजेश्वर ) आप भूत, वर्तमान, भविष्य तीन्ं काल में एक रूप रहते हैं । आपमें कभी लेशमात्र भी विकार नहीं होता । हे हर आप शून्य सङ्कल्प, शुन्य कर्मा तथा आप ब्रह्माण्डात्मक होते हुए भी शून्य रूप हैं ॥ २४॥ श्रीराजराजेश्वर विश्वनाथ त्वं ब्रह्म खं सर्वजनान्तरात्मा । मायाविहीनः शिननामधारी सर्वैर्विहीनोपि च सर्वयुक्तः ॥ २५॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ आप वेद प्रतिपादित खं ब्रह्म रूप से प्राणियों की अन्तरात्मा में रमण करते हैं । आप मायातीत कल्याण रूप सबसे पृथक होते हुए भी सबसे युक्त हैं ॥ २५॥ श्मशानवासिन्निजतारकाख्य- मन्त्रेण पापौघजनं पुनासि । देहावसाने भवता तथाहं श्रीराजराजेश्वर तारणीयः ॥ २६॥ हे श्मशानवासी, हे राजराजेश्वर आप जन्म-जन्मान्तर कृत पाप समूह का विध्वंसकर पापीजन्ं को पवित्र कर अपना रूप बना लेते हैं । उसी प्रकार देहावसान के समय मुझे भी अपना रूप बना लें ॥ २६॥ द्रष्टा पुरारे जनकर्मणस्त्वं दृष्ट्वा च तं नाथ विधाय शुद्धम् । तेजःस्वरूपं निजरूपमेव करोषि हे विश्वजनाघिवास ! ॥ २७॥ हे विश्वजनाधिवास आप समस्त जीवों के कर्म द्रष्टा हैं । हे नाथ अखिल जीवों के कर्मों को देखकर कुत्सित कर्मों का नाश कर उन्हें अपने तेजस्वरूप रूप में परिणत कर लेते हैं ॥ २७॥ श्रीराजराजेश्वर देहि बुद्धिं देहस्य शम्भो हि प्रकाशकस्त्वम् । अन्तः शयानो भगवन् जनानां जानासि शम्भो सकलं चरित्रम् ॥ २८॥ हे राजराजेश्वर हे शम्भ्, हमें सद्बुद्धि दें इस शरीर के प्रकाशक आपही हैं । आप अन्तःकरण में निवास करते हुए जीवों के समस्त चरित्रों को जानने वाले हैं ॥ २८॥ श्रीराजराजेश्वर विश्वनाथ पदाब्जयो मध्यगतो वसामि । आराधयन्वामिह लोकनाथ देहि प्रभ् मे द्विजवंशभक्तिन् ॥ २९॥ हे राजराजेश्वर विशनाथ हे लोकनाथ हम आपकी आराधना करते हुए आपके चरणकमल्ं में वास कर रहे हैं । हे प्रभो हमें ब्राह्मण कुलकी सेवाभक्ति प्रदान करते रहें ॥ २९॥ त्वदीयगेहे श्रुतयो द्विजाश्च सर्वे लभन्ते सततं च शान्तिम् । सदानुकूला हि तथैव दृष्टिः देया त्वया मेऽपि च विश्वनाथ ॥ ३०॥ हे विश्वनाथ आपके भवनों में समस्त वेद और ब्राह्मण निरन्तर सुख शान्ति प्राप्त करते हैं और करते रहें तथा हमपर भी दयामय अनुकूल दृष्टि देते रहें ॥ ३०॥ जीवामि हे नाथ तवार्थमेव म्रिये च हे नाथ तवार्थमेव । पुनर्भविष्यामि तवार्थमेव प्रदेहि शम्भो वरमेतमेव ॥ ३१॥ हे शिव हम जीवों तो तुम्हारे लिए, मरें तो तुम्हारे लिए फिर जन्मे तो तुम्हारे लिए हे शम्भो हमें यही वरदान दो ॥ ३१॥ अशेषशेषोपि च शेषशेष ! शेषाधिशायी प्रलये च शेषः । श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ त्वं वर्णनातीतविचित्ररूपः ॥ ३२॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ विश्वके अशेष होनेपर आपही शेष रहते हैं और शेष में भी आपही शेष हैं, आप शेषपर शयन करनेवाले हैं। हे प्रलयकारिन् आपके विचित्र रूप है जिनका वर्णन नहीं हो सकता ॥ ३२॥ देहावसाने मणिकर्णिकायाः तीरं त्वया नेयमिदं शरीरम् । श्रीराजराजेश्वर मे गतिस्त्वं न रक्षकः कोऽपि परस्त्वदन्यः ॥ ३३॥ हे राजराजेश्वर ! सविनय प्रार्थना यही है कि देह के अवसान में इस शरीर को मणिकर्णिका पहुँचायें । हे शम्भो आपही मेरी गति हैं आप से भिन्न इस शरीर का अधिकारी दूसरा कोई नहीं है ॥ ३३॥ श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथ समर्पयेहं भवदङ्घ्रिमूले । शरीरमात्मानमशेषमेतत् सर्वं त्वदीयं शिवतुभ्यमेव ॥ ३४॥ हे राजराजेश्वर विश्वनाथ ! शरीर-आत्मादि सभी पदार्थ आपके दिये हुए हैं । अतः इन्हें आपही के चरण कमलों में समर्पण करते हैं ॥ ३४॥ शिवोगतिर्मेऽस्ति शिवोमतिर्मे शिवोऽस्तिचित्तं शिव एव वित्तम् । शिवोऽस्तिबन्धुः शिव एव मित्रं शिवात्परं किञ्चिदहं न जाने ॥ ३५॥ हे शिव आपही मेरी गति है आपही मेरी मति आपही मेरे मन आपही मेरे धन आपही मेरे बन्धु आपही मेरे मित्र हैं। आपही मेरे सर्वस्व हैं, आपसे भिन्न हम कुछ नहीं जानते ॥ ३५॥ शुभां मतिं मे भगवन्प्रदेहि हे राजराजेश्वर राजहंस । राजाधिराजोपि च राजरूपः त्वमेव शम्भो सुमति प्रदाता ॥ ३६॥ हे राजराजेश्वर राजहंस, हे भगवन् मुझे यथार्थ ब्रह्मबुद्धि प्रदान करें, आप राजाधिराज राजरूप हैं, हे शम्भ् आप जीवों को सद्बुद्धि देनेवाले हैं ॥ ३६॥ कष्टातिकष्टं हर मे पुरारे न गन्तुमिच्छाम्युदरं जनन्याः । ना यातुमिच्छामि पुनर्भवाब्धी त्वदीयरूपं मयि नित्यमस्तु ॥ ३७॥ हे पुरारे मेरे समस्त कष्टों का हरण करो, हम जननी के उदर में जाना तथा भवाब्धि में पुनः आना नहीं चाहते । हम सर्वदा आपही के रूप बने रहें ॥ ३७॥ अहोतिपुण्यं स्तवराजराजं श्रीराजराजेश्वरनामयुक्तम् । श‍ृण्वन्ति गायन्ति च ये मनुष्या स्ते यान्ति पूताः परमेश्वरस्त्वम् ॥ ३८॥ श्री राजराजेश्वर नामयुक्त अति पुण्यद स्तवराज को जो मनुष्य भक्तिपूर्वक गायेगा या सुनेगा वह पवित्र होकर साक्षात् परमेश्वर को प्राप्त होगा ॥ ३८॥ पुण्यप्रदं स्तोत्रमिदं प्रभाते सायं पठेद्वा दिवसस्य मध्ये । यदा कदा वा शिव सन्निधाने स सर्वसिद्धिं लभते मनुष्यः ॥ ३९॥ जो इस पुण्यप्रद स्तोत्र को प्रातः, मध्याह्न, सायन्त्रिकाल अथवा किसी भी समय शिव के समीप पढ़ेगा वह मनुष्य अपने मनोरथों की सिद्धि का प्राप्त करेगा ॥ ३९॥ श्रीराजराजेश्वरविश्ननाथ स्तोत्रं कृतं श्री धरणीधरेण । सिद्धोपसंज्ञेन पुरारिपुर्या तत्प्रेरितेनात्म मनस्सुखार्थम् ॥ ४०॥ शङ्कर के द्वारा प्रेरित होकर श्री धरनीधर सिद्ध ने अपनी आत्मा और मनकी शान्ति के लिए श्री राजराजेश्वर विश्वनाथ स्तोत्र को काशीपुरी में बनाया ॥ ४०॥ वित्तार्थी लभते वित्तं सुतार्थी लभते सुतम् । ज्ञानार्थी लभते ज्ञानं सुखार्थी लभते सुखम् ॥ ४१॥ हर ! हृदय गुहायां सं प्रविश्य त्वयैव वरद मम मुखेन स्तोत्रमेतत्प्रणीतम् । रुचिरमरुचिरं वा राजराजेश शम्भो न मम त-दिह किञ्चित्शर्व ! सर्वं तवैव ॥ ४२॥ सुरनरमुनीसेव्यः सर्वभूतान्तरात्मा प्रसरतिजनदेहे भिन्नभिन्नाकृतिश्च । प्रभवतिभवमध्ये राजराजेश्वरोऽस्मै निजहृदयसुपुष्पं सादरं चार्पयामि ॥ ४३॥ ॥ इति श्रीराजराजेश्वरविश्वनाथस्तोत्रम् ॥ Proofread by Vani V.
% Text title            : Rajarajeshvara Vishvanatha Stotram
% File name             : rAjarAjeshvaravishvanAthastotram.itx
% itxtitle              : rAjarAjeshvaravishvanAthastotram (sArtham)
% engtitle              : rAjarAjeshvaravishvanAthastotram
% Category              : shiva
% Location              : doc_shiva
% Sublocation           : shiva
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Vani V.
% Description/comments  : Hindi meaning
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : January 12, 2022
% Send corrections to   : (sanskrit at cheerful dot c om)
% Site access           : https://sanskritdocuments.org

This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit.

BACK TO TOP
sanskritdocuments.org