श्रीशङ्कराष्टकम् २
हे वामदेव शिवशङ्कर दीनबन्धो
काशीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् ।
हे विश्वनाथ भवबीज जनातिंहारिन्
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥
हे वामदेव, शिवशंकर, दीनबन्धु, काशीपति, हे पशुपति,
प्राणियोंके भव-बन्धनको नष्ट करनेवाले, हे विश्वनाथ संसारके
कारण और भक्तोंकी पीडाका हरण करनेवाले, हे जगदीश्वर!
इस संसारके गहन दुःखोंसे मेरी रक्षा कोजिये ॥ १॥
हे भक्तवत्सल सदाशिव हे महेश
हे विशवतात जगदाश्रय हे पुरारे ।
गौरीपते मम पते मम प्राणनाथ
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ २॥
हे भक्तवत्सल सदाशिव, हे महेश, जगत्के पिता, संसारके आधार,
हे पुर नामक दैत्यके विध्वंसक, गौरीपति, मेरे रक्षक एवं मेरे
प्राणनाथ, हे जगदीश्वर, आप इस संसारके गहन दुः खोंसेमेरी रक्षा
कोजिये ॥ २॥
हे दुःखभञ्जक विभो गिरिजेश शूलिन्
हे वेदशास्त्रविनिवेदी जनैकबन्धो ।
हे व्योमकेश भुवनेश जगद्विशिष्ट
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ३॥
हे समस्त दुःखोंके विध्वंसक, विभु, हे गिरिजेश, हे शूली, आपका
स्वरूप वेद एवं शास्त्रसे ही गम्य है, समस्त चराचरके एकमात्र
बन्धुरूप, हे व्योमकेश, हे त्रिभुवनके स्वामी, जगत्से विलक्षण,
हे जगदीश्वर! इस संसारके गहन दुःखोंसे आप मेरी रक्षा कोजिये ॥ ३॥
हे धूर्जटे गिरिश हे गिरिजार्धदेह
हे सर्वभूतजनक प्रमथेश देव ।
हे सर्वदेवपरिपूजितपादपद्य
संसारटुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ४॥
हे धूर्जटि, कैलाश पर्वतपर शयन करनेवाले, हे अर्धनारीश्वर
(पार्वतीरूप अर्धशरीरवाले) तथा हे समस्त चराचरके उत्पादक, हे
प्रमथगणोंके स्वामी, देव, समस्त देवताओंसे वन्दित चरणकमलवाले
हे जगदीश्वर! आप इस संसारके गहन दुःखोंसे मेरी रक्षा कोजिये ॥ ४॥
हे देवदेव वृषभध्वज नन्दिकेश
कालीपते गणपते गजचर्मवास ।
हे पार्वतीश परमेश्वर रक्ष शम्भो
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ५॥
हे देवाधिदेव वृषभध्वज, नन्दीके स्वामी, कालीपति, समस्त
वीरभद्रादि गणोंके एकमात्र अधिपति, गजचर्म धारण करनेवाले, हे
पार्वतीवल्लभ! हे परमेश्वर शम्भु! आप इस संसारके गहन दुःखोंसे
मेरी रक्षा कोजिये ॥ ५॥
हे वीरभद्र भववैद्य पिनाकपाणे
हे नीलकण्ठ मदनान्त शिवाकलत्र ।
वाराणसीपुरपते भवभीतिहारिन्
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ६॥
हे वीरभद्रस्वरूप, संसाररूपी रोगके चिकित्सक, अपने करकमलोंमें
पिनाक नामक धनुष धारण करनेवाले, हे नीलकण्ठ, कामदेवका अन्त
करनेवाले, पार्वतीके स्वामी एवं वाराणसी नगरीके अधिपति, संसाररूपी
भयके विनाशक, हे जगदीश्वर! इस संसारके गहन दुःखोंसे आप
मेरी रक्षा कीजिये ॥ ६॥
हे कालकाल मृड शर्व सदासहाय
हे भूतनाथ भवबाधक हे त्रिनेत्र ।
हे यज्ञशासक यमान्तक योगिवन्द्य
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ७॥
हे कालके भी महाकालस्वरूप, हे सुखस्वरूप, हे शिव, हे सदा सहायक,
हे भूतनाथ, भवको बाधित करनेवाले, त्रिनेत्रधारी, यज्ञके नियन्ता,
यमके भी विनाशक, परम योगियोंके द्वारा वन्दनीय, हे जगदीश्वर! इस
संसारके गहन दुःखोंसे आप मेरी रक्षा कीजिये ॥ ७॥
हे वेदवेद्य शशिशेखर हे दयालो
हे सर्वभूतप्रतिपालक शूलपाणे ।
हे चन्द्रसूर्यशिखिनेत्र चिदेकरूप
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ८॥
हे वेद-प्रतिपाद्य, हे शशिशेखर, हे दयालु, प्राणिमात्रकी रक्षा
करनेमें निरन्तर तत्पर, हे अपने करकमलोंमें त्रिशूल धारण
करनेवाले, सूर्य, चन्द्र एवं अग्निरूप त्रिनेत्रधारी चिन्मात्रस्वरूप,
हे जगदीश्वर! इस संसारके गहन दुःखोंसे आप मेरी रक्षा कोजिये ॥ ८॥
श्रीशङ्कराष्टकमिदं योगानन्देन निर्मितम् ।
सायं प्रातः पठेन्नित्यं सर्वपापविनाशकम् ॥ ९॥
श्रीस्वामी योगानन्दतीर्थद्वारा विरचित इस ऽ श्रीशंकराष्टकऽ का
जो भक्तगण श्रद्धा-भक्तिपूर्वक सायं तथा प्रातः नित्य पाठ करते
हैं, उनके समस्त पाप निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं ॥ ९॥
॥ इति श्रीयोगानन्दतीर्थविरचितं श्रीशङ्कराष्टकं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार योगानन्दतीर्थविरचित श्रीशंकराष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥
श्रीशङ्कराष्टकम्
हे वामदेव शिवशङ्कर दीनबन्धो
काशीपते पशुपते पशुपाशनाशिन् ।
हे विश्वनाथ भवबीज जनातिंहारिन्
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ १॥
हे भक्तवत्सल सदाशिव हे महेश
हे विशवतात जगदाश्रय हे पुरारे ।
गौरीपते मम पते मम प्राणनाथ
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ २॥
हे दुःखभञ्जक विभो गिरिजेश शूलिन्
हे वेदशास्त्रविनिवेदी जनैकबन्धो ।
हे व्योमकेश भुवनेश जगद्विशिष्ट
संसारदुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ३॥
हे धूर्जटे गिरिश हे गिरिजार्धदेह
हे सर्वभूतजनक प्रमथेश देव ।
हे सर्वदेवपरिपूजितपादपद्य
संसारटुःखगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ४॥
हे देवदेव वृषभध्वज नन्दिकेश
कालीपते गणपते गजचर्मवास ।
हे पार्वतीश परमेश्वर रक्ष शम्भो
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ५॥
हे वीरभद्र भववैद्य पिनाकपाणे
हे नीलकण्ठ मदनान्त शिवाकलत्र ।
वाराणसीपुरपते भवभीतिहारिन्
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ६॥
हे कालकाल मृड शर्व सदासहाय
हे भूतनाथ भवबाधक हे त्रिनेत्र ।
हे यज्ञशासक यमान्तक योगिवन्द्य
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ७॥
हे वेदवेद्य शशिशेखर हे दयालो
हे सर्वभूतप्रतिपालक शूलपाणे ।
हे चन्द्रसूर्यशिखिनेत्र चिदेकरूप
संसारदुः खगहनाज्जगदीश रक्ष ॥ ८॥
श्रीशङ्कराष्टकमिदं योगानन्देन निर्मितम् ।
सायं प्रातः पठेन्नित्यं सर्वपापविनाशकम् ॥ ९॥
॥ इति श्रीयोगानन्दतीर्थविरचितं श्रीशङ्कराष्टकं सम्पूर्णम् ॥
Proofread by Ganesh Kandu kanduganesh at gmail.com