श्रीशिवाष्टकम् ५

श्रीशिवाष्टकम् ५

पुरारिः कामारिर्निखिलभयहारी पशुपति- र्महेशो भूतेशो नगपतिसुतेशो नटपतिः । कपाली यज्ञाली विबुधदलपाली सुरपतिः सुराराध्यः शर्वो हरतु भवभीतिं भवपतिः ॥ १॥ हे पुर नामक राक्षसको नष्ट करनेवाले पुरारि तथा कामको भस्म करनेवाले कामारि! आप सभी प्रकारके भयको नष्ट करनेवाले हैं । आप जीवोंके स्वामी, महान ऐशवर्यसम्पन्न, भूतगणोंके अधिपति, पर्वतराज हिमालयको पुत्री पार्वतीके ईश तथा नटेश्वर हैं । आप कपाल धारण करनेवाले, यज्ञस्वरूप, देवसमुदायके पालक तथा देवताओंके स्वामी हैं । देवोंके आराध्य एवं संसारके स्वामी भगवान शर्व! आप संसारके भयका हरण कर लेम् ॥ १॥ शये शूलं भीमं दितिजभयदं शत्रुदलनं गले मौण्डीमालां शिरसि च दधानः शशिकलाम् । जटाजूटे गङ्गामघनिवहभङ्रां सुरनदीं सुराराध्यः शर्वो हरतु भवभीतिं भवपतिः ॥ २॥ आपके हाथोंमें शत्रुओं एवं दैत्योंका संहार करनेवाला भयावह त्रिशूल सुशोभित हो रहा है । आप गलेमें मुण्डोंको माला और सिरपर चन्द्रकलाको धारण किये हुए हैं । आपको जटाओंमें पापोंको नष्ट करनेवाली देवनदी गंगा सुशोभित हो रही हैं । देवोंके आराध्य एवं संसारके स्वामी भगवान शर्व ! आप संसारके भयका हरण कर लेम् ॥ २॥ भवो भर्गो भीमो भवभयहरो भालनयनो वदान्यः सम्मान्यो निखिलजनसौजन्यनिलयः । शरण्यो ब्रह्मण्यो विबुधगणगण्यो गुणनिधिः सुराराध्यः शर्वो हरतु भवभीतिं भवपतिः ॥ ३॥ आप सबको उत्पन्न करनेवाले, पापको भूँज डालनेवाले, दुष्ट जनोंको डरानेवाले तथा संसारके भयको दूर करनेवाले हैं । आपके ललाटपर नेत्र सुशोभित है । आप दान देनेमें बड़े उदार, सम्मान्य और सभी लोगोंके लिये सौजन्यधाम हैं, आप शरण्य (शरणागतको रक्षा करनेवाले) , ब्रह्मण्य (ब्राह्मणोंको रक्षा करनेवाले) , देवगणोंमें अग्रगण्य और गुणोंके निधान हैं । देवताओंके आराध्य एवं संसारके स्वामी भगवान शर्व ! आप संसारके भयका हरण कर लेम् ॥ ३॥ त्वमेवेदं विश्वं सृजसि सकलं ब्रह्मवपुषा तथा लोकान् सर्वानवसि हरिरूपेण नियतम् । लयं लीलाधाम त्रिपुरहररूपेण कुरुषे त्वदन्यो नो कश्चिज्जगति सकलेशो विजयते ॥ ४॥ ब्रह्माके रूपमें आप ही इस सारे विशवकी रचना करते हैं, विष्णुरूपमें इन सभी लोकोंको रक्षा भी निश्चितरूपसे आप ही करते हैं और हे लीलाधाम ! त्रिपुरहरके रूपमें आप ही इस संसारका प्रलय भी करते हैं । संसारमें आपके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है, जो सबसे अधिक उत्कृष्ट (सकलेश) कहा जा सके । आपको जय हो ॥ ४॥ यथा रज्जौ भानं भवति भुजगस्यान्धकरिपो तथा मिथ्याज्ञानं सकलविषयाणामिह भवे । त्वमेकश्चित्सर्गस्थितिलयवितानं वितनुषे भवेन्माया तत्र प्रकृतिपदवाच्या सहचरी ॥ ५॥ हे अन्धकासुरके नाशक ! इस संसारमें सभी विषयोंका ज्ञान वैसे ही झूठा है, जैसे रज्जुमें सर्पका ज्ञान । आप ही सृष्टि, स्थिति और प्रलयके विस्तारमें एकमात्र मूलकारण हैं । प्रकृति कहलानेवाली माया इस कार्यमें केवल आपकी सहायिका ही जान पड़ती है ॥ ५॥ प्रभो साऽनिर्वाच्या चितिविरहिता विभ्रमकरी तवच्छायापत्त्या सकलघटनामञ्चति सदा । रथो यन्तुर्योगाद् व्रजति पदवीं निर्भयतया तथैवासौ कत्री त्वमसि शिव साक्षी त्रिजगताम् ॥ ६॥ हे प्रभो! आपकी वह (माया) अनिर्वचनीय है (इसे न सत् कहा जा सकता है और न असत्) , इसमें चैतन्यका अभाव है । यह भ्रम उत्पन्न करनेवाली है । आपकी सहायता पाकर वह सम्पूर्ण घटनाएँ वैसे ही घटाया करती हैं, जैसे जड़ रथ अपने गन्तव्यतक निर्भय दौड़ता दिखायी देता है, किंतु उसके दौड़्नेमें सारथिकी सहायता रहती है । इसी प्रकारसे यह माया भी कर्त्री दिखायी देती है। हे शिव! आप ही तीनों लोकोंके साक्षी हैं ॥ ६॥ नमामि त्वामीशं सकलसुखदातारमजरं परेशं गौरीशं गणपतिसुतं वेदविदितम् । वरेण्यं सर्वज्ञं भुजगवलयं विष्णुदयितं गणाध्यक्षं दक्षं प्रणतजनतापार्तिहरणम् ॥ ७॥ आप ईश हैं, समस्त सुखोंको देनेवाले हैं, अजर हैं, परात्पर परमेश्वर हैं । आप पार्वतीके पति हैं, गणेशजी आपके पुत्र हैं। आपका परिचय वेदोंके द्वारा ही प्राप्त होता है । आप वरणीय तथा सब कुछ जाननेवाले हैं, आभूषणके रूपमें आप सर्पका कंकण धारण करते हैं । आप भगवान विष्णुको प्रिय (या विष्णुके प्रिय) हैं, आप गणाध्यक्ष, दक्ष तथा शरणागतोंको विपत्तियोंका नाश करनेवाले हैं, आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ७॥ गुणातीतं शम्भुं बुधगणमुखोद्गीतयशसं विरूपाक्षं देवं धनपतिसखं वेदविनुतम् । विभुं नत्वा याचे भवतु भवतः श्रीचरणयो- र्विशुद्धा सद्भक्तिः परमपुरुषस्यादिविदुषः ॥ ८॥ हे विरूपाक्ष (त्रिनयन) भगवान शिव! आप प्रकृतिके गुणोंसे अतीत हैं । आपके यशका गान विद्टज्जन किया करते हैं तथा वेदोंके द्वारा आपकी स्तुति की गयी है । आप कुबेरके मित्र और व्यापक हैं, आपको प्रणाम करके मैं यह प्रार्थना करता हूँ कि परम पुरुष और आदि विद्वान आपके श्रीचरणोंमें मेरी विशुद्ध सद्भक्ति बनी रहे ॥ ८॥ शङ्करे यो मनः कृत्वा पठेच्छ्रीशङ्कराष्टकम् । प्रीतस्तस्मै महादेवो ददाति सकलेप्सितम् ॥ ९॥ भगवान शंकरमें चित्त लगाकर जो इस ऽ श्रीशिवाष्टकऽ का पाठ करेगा, उसपर वे प्रसन्न होंगे और उसको समस्त कामनाओंको पूर्ण कर देंगे ॥ ९॥ ॥ इति श्रीशिवाष्टकं सम्पूर्णम् ॥ ॥ इस प्रकार श्रीशिवाष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥ म्हारे घर रमतो जोगिया तू आव । कानाँ बिच कुंडल, गले बिच सेली, अंग भभूत रमाय ॥ तुम देख्याँ बिण कल न परत है, ग्रिह अंगणो न सुहाय । मीराँ के प्रभु हरि अबिनासी, दरसन दौ ण मोकूँ आय ॥ (मीराँ-पदावली) Proofread by Ganesh Kandu
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% Category              : shiva, aShTaka
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% Language              : Sanskrit
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% Proofread by          : Ganesh Kandu
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% Latest update         : October 1, 2018
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