श्रीविश्वनाथस्तोत्रम्
उपहरणं विभवानां संहरणं सकलदुरितजालस्य ।
उद्धरणं संसाराच्चरणं वः श्रेयसेऽस्तु विश्वपतेः ॥ १॥
समस्त ऐश्वर्याको प्रदान करनेवाले तथा समस्त पापसमूहोंका
नाश करनेवाले एवं संसारसे उद्धार करनेवाले भगवान शंकरके
चरण आपलोगोंके लिये मंगलदायक होम् ॥ १॥
भिक्षकोऽपि सकलेप्सितदाता प्रेतभूमिनिलयोऽपि पवित्रः ।
भूतमित्रमपि योऽभयसत्री तं विचित्रचरितं शिवमीडे ॥ २॥
स्वयं भिक्षुक होते हुए भी समस्त प्राणियोंको अभिलाषाओंको
पूर्ण करनेवाले तथा प्रेतोंको अपवित्र भूमि-श्मशानमें रहनेपर भी
स्वयं पवित्र और भूतोंके मित्र (साथ) रहनेपर भी अभयका सत्र
चलानेवाले (अभय प्रदान करनेवाले) ऐसे विचित्र चरित्रवाले
शिवकी मैं स्तुति करता हूँ ॥ २॥
॥ इति श्रीविशवनाथस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीविशवनाथस्वोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥
देव बड़े, दाता बड़े संकर बड़े भोरे ।
किये दूर दुख सबनिके, जिन्ह-जिन्ह कर जोरे ॥
सेवा, सुमिरन, पूजिबौ, पात आखत थोरे ।
दिये जगत जहँ लगि सबै, सुख, गज, रथ, घोरे ॥
गाँव बसत बामदेव, में कबनहूँ न निहोरे ।
अधिभौतिक बाधा भई, ते किंकर तोरे ॥
बेगि बोलि बलि बरजिये, करतूति कठोरे ।
तुलसी दलि, सूँध्यो चहैं सठ साखि सिहोरे ॥
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