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बदरीशस्तवनम्
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बदरीशस्तवनम्

ॐ श्रीगणेशाय नमः । ॥ अथ बदरीशस्तवनम् ॥ कृत्वा पुराऽखिलजगत् खलु मूर्तिमद् वै मूर्तेर्मुहुः स्वयमभूदपि मूर्तिमान्यः । अद्यावधि कृतयुगाद् बदरीवनेऽस्मिन् श्रेयो दधाति भगवान् स तु मद्विधानाम् ॥ १॥ अनुवाद - पहले अमूर्त असत् (नामरूप से अव्याकृत) जगत् को मूर्तिमान् करके अर्थात् नामरूप से व्याकृत करके पुनः स्वयं भी धर्म की पत्नी मूर्ति से मूर्तिमान् हुए अर्थात् प्रकट हुए, अवतार धारण किया। सत्ययुग से लेकर आज तक आप इस बदरीवन में विराजमान होकर हम जैसे मुमुक्षुओं का कल्याण कर रहे हो ॥ १॥ वेदा हि प्राणप्रभवा भवतो भवन्ति धर्मात्पुनः स्वयमभूद् यतिधर्मधारी । सोऽयं तपस्तपति वा उपरामवृत्तिर् विष्णुर्विहाय कमलां कमलासनस्थः ॥ २॥ अनुवाद - चारों वेद आपके निःश्वास हैं । आपके प्राणों से प्रकट हुए हैं। आपने धर्म से उत्पन्न होकर यतिधर्म धारण किया । वे भगवान् विष्णु उपरति-वृत्ति से युक्त होकर लक्ष्मी को छोड़कर पद्मासन में स्थित होकर यहाँ तपस्या करते हैं ॥ २॥ हास्याय ते स्तव इतो मनसोऽतिगोऽसि कामादयस्तु हसितात् स्वमदं त्यजन्ति । युक्ता हि कीर्तिरिति वै किल देवदेव दीनं विहीनदयितं कुरु मां सनाथम् ॥ ३॥ अनुवाद - आपकी स्तुति आपके लिए हँसी का कारण बन सकती है क्योंकि आप मन से परे हैं । परन्तु आपके हँसने से तो काम क्रोधादि अपना घमण्ड छोड़ देते हैं कि वे अजेय हैं अर्थात् वे सरलता से वश में आ जाते हैं। हे देवाधिदेव ! आपका यह यश युक्तिसंगत है कि आपकी हँसी से कामादि वश में आ जाते हैं । हे प्रभो ! प्रिय जनों से हीन इस दीन को सनाथ कीजिए ॥ ३॥ आत्मा त्वमेव जगतः प्रणयाऽऽस्पदो(१)ऽतः तृप्ताऽखिला स्वतनुषु त्वनुरागयुक्ता । जानन्ति ते न मृगवन् निजनाभिगन्धं मायाचमत्कृतिरियं भवतो विचित्रा ॥ ४॥ अनुवाद - आप जगत् की आत्मा हैं । इसलिए आप सबके प्रेम का आश्रय हैं । यही कारण है कि अपने शरीरों के प्रति अनुरागात्मक होकर सब अपने में तृप्त हैं। जैसे हिरण अपनी नाभि में स्थित कस्तूरी की गन्ध को नहीं पहचान पाता उसी प्रकार सबके हृदय रूपी गुफा में स्थित आपको लोग नहीं जान पाते । आपकी माया का यह चमत्कार आश्चर्यजनक है ॥ ४॥ १. प्रणयास्पदं च (पाठान्तर)। दैत्यास्तु भीतिविकला भवतः स्वरूपं दृष्ट्वा द्रवन्ति विमुखास्तमसः स्वभावात् । सिद्धास्तु शुद्धमतयो मुनयो नमन्ति सर्वेऽपि कौशिकसमाः सवितुः प्रकाशम् ॥ ५॥ अनुवाद - तामसिक स्वभाव वाले होने के कारण दैत्य आपके स्वरूप को देखकर भयभीत हो जाते हैं और आपसे विमुख होकर ऐसे भाग जाते हैं जैसे सूर्य का प्रकाश देखकर उल्लू भाग जाते हैं । शुद्ध बुद्धि वाले विश्वामित्र के समान मुनिगण तो आपको नमस्कार करते हैं अर्थात् आपके सम्मुख बने रहते हैं ॥ ५॥ (१)भोक्ताऽसि भावितगतिः पतिरिन्द्रियाणां चैतन्यमिष्टघनवत् स्वयमेव भोगः । सर्वत्र वा मधुरता भवतां भवद्वत् कर्मादिविकृतिवतां न तु सा विभाति ॥ ६॥ अनुवाद - हे परमेश्वर ! आप में गति कल्पित है। आप भोक्ता हैं तथा इन्द्रियों के स्वामी हैं । चैतन्यरूप माधुर्यघन की तरह आप स्वयं ही भोग हैं। आपके समान आपका माधुर्य सर्वत्र है परन्तु कर्मादि के विकार से विकृत व्यक्तियों के अनुभव का विषय नहीं बनता । दूसरे शब्दों में, कल्पित गति के कारण भोक्ता, भोग तथा भोग्य - तीनों आप ही हैं ॥ ६॥ १. भोक्ताऽस्ति (पाठान्तर)। नामाऽपि ते च मधुरं मधुरं स्वरूपं कर्माऽपि ते च मधुरं मधुरा स्मृतिश्च । बुद्धिं प्रबोधय प्रभो मधुबोधशक्ति भक्तिं प्रयच्छ परमां परिभावयामि ॥ ७॥ अनुवाद - आपका नाम भी मधुर है । आपका स्वरूप भी मधुर है । आपका कर्म भी मधुर है । आपका स्मरण मधुर है । मधु अर्थात् माधुर्य आनन्द का बोध करने की शक्ति से युक्त बुद्धि को आप जागृत कर दीजिए । एकाग्र मन से यह भावना करता हूँ कि हे परमात्मन् ! मुझे उत्कृष्ट भक्ति दीजिए ॥ ७॥ कर्मादिदोषदहनो दुरिताय चाग्निः अन्तःप्रमादप्रभवे तमसेऽस्ति सूर्यः । ज्ञानोष्णताप्रशमनः परमो हिमांशुः सोऽसौ प्रकाशयतु वै हृदयेऽस्मदीये ॥ ८॥ अनुवाद - भक्तों के पाप को जलाने के लिए आप अग्नि हैं । आन्तरिक प्रमाद से उत्पन्न अन्धकार के लिए आप सूर्य हैं । ज्ञान की उष्णता को शान्त करने के लिए आप उत्कृष्ट चन्द्रमा हैं । ऐसे प्रभु आप हमारे अन्त:करण में प्रकाशित हों ॥ ८॥ नाशादिशून्यवदनं(१) किल कीर्तिमन्तं कृष्णं परन्तु परमं सुभगं शरीरम् । लक्ष्यादिसेवितपदं प्रथितं निरीह वन्दे विनीतशिरसा बदरीविशालम् ॥ ९॥ अनुवाद - नासिकादि से रहित मुख वाले अथवा नाशादि छः विकारों से रहित आप निश्चित रूप से कीर्तिमान् हैं । कृष्ण रूप वाले होने पर भी अत्यन्त सुन्दर स्वरूप वाले हैं । लक्ष्मी आदि से सेवित चरण वाले प्रसिद्ध निष्क्रिय बदरीविशाल को नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूँ ॥ ९॥ १. पाठान्तर - नासादिशून्यवदनं । दुष्टः सहस्रकवचो भवता विनष्टो हृष्टाः सुराः सुचरितैः ऋषयश्च तुष्टाः । पुष्टा जनास्तव कथामृतपानपूताः भूताऽत्र कीर्तिरिति वै परमप्रकृष्टा ॥ १०॥ अनुवाद - दुष्ट सहस्रकवच नामक दैत्य आपके द्वारा मारा गया । देवता आपके रमणीय आचरण से प्रसन्न हो गये और ऋषि सन्तुष्ट हो गये । आपकी कथा रूप अमृतपान से पवित्र भक्तजन और पुष्ट हो गए तथा इहलोक में आपकी उत्तम कीर्ति व्याप्त हो गयी ॥ १०॥ जित्वा रिपुं सह बलैरतिथिं चकार चात्मस्वरूपममलं परिभाव्य भूयः । अन्यत्प्रभावमतुलं सहसा विलोक्य स्वर्गं गतः स्मर इतीव सदा स्मरामि ॥ ११॥ अनुवाद - सेनासहित शत्रु को जीत कर अतिथि बना लिया अर्थात् शत्रु के भागने पर उसे बुला कर अतिथि की तरह सत्कार दिया । आप निर्मल आत्मस्वरूप में स्थित हो गये । आपके अनुपम तथा अतुल प्रभाव को देख कर कामदेव स्वर्ग को चला गया । इस घटना का सदैव स्मरण करता हूँ ॥ ११॥ संन्यासमूलमथ वैष्णवभक्तितत्त्वं संव्यज्यतेऽत्र युगपत् त्वयि वेदवेद्ये । त्वं निर्गुणश्च सगुणः सदयः सदैव नारायणो नरसखः शरणं ममास्तु ॥ १२॥ अनुवाद - वेदों से जानने योग्य आप में संन्यास का मूल और वैष्णव भक्तितत्त्व व्यक्त होते हैं । आप निर्गुण हैं लेकिन सगुणरूप धारण करके भक्तों पर सदा दया करते हैं । हे नर के सखा नारायण, आप मुझे अपनी शरण में ले लीजिए ॥ १२॥ ॥ इति मस्तरामबाबाविरचितं बदरीशस्तवनं सम्पूर्णम् ॥
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% Author                : Mastarama Baba
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% Acknowledge-Permission: Prabhuji Mision, http://prabhuji.net/h-h-avadhuta-mastarama-babaji-maharaja-life-and-teachings/
% Latest update         : December 12, 2020
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