ब्रह्मणाकृता विष्णुस्तुतिः

ब्रह्मणाकृता विष्णुस्तुतिः

(अगस्त्यसंहिता अध्याय ४) पूर्वं ब्रह्मा तपस्तेपे कल्पकोटिशतत्रयम् । मुनीन्द्रैर्बहुभिः सार्द्धं दुर्द्धर्षानशनव्रतम् ॥ ४॥ प्राचीन समय में ब्रह्माजी ने तीन सौ करोड़ वर्ष तक निराहार रहकर बहुत सारे मुनिश्रेष्ठ के साथ तपस्या की । पुरस्कृत्याग्निमध्यस्थस्तदाराधनतत्परः । आदरातिशयेनास्य नैरन्तर्य्यर्चनादिना ॥ ५॥ अग्नि के मध्य में रहकर और श्रीराम को समक्ष में रखकर आदरपूर्वक लगातार पूजा-अर्चना करते हुए वे आराधना करते रहे । चिराय देवदेवोऽपि प्रत्यक्षमभवत्तदा । किञ्च पुण्यातिरेकेण सर्वेषां तस्य च प्रिये ॥ ६॥ बहुत दिनों के बाद पुण्य की वृद्धि के कारण ब्रह्मा तथा अन्य सभी मुनियों के सामने देवों के स्वामी भगवान् श्रीराम प्रकट हुए । नवनीलाम्बुदश्यामः सर्वाभरणभूषितः । शङ्खचक्रगदापद्मजटामुकुटशोभितः ॥ ७॥ भगवान् श्रीराम नवीन एवं नीले मेघ के समान शयामल वर्ण के थे, उनके शरीर पर सभी गहने शोभित हो रहे थे तथा शङ्ख, चक्र गदा, कमल, जटा और मुकुट से वे सुशोभित थे । कल्प भेद से स्वयं भगवान श्रीराम श्रीब्रह्मा जी को चतुर्भुज रूप में अपने षडक्षर मन्त्र से दीक्षित करते हैं ``कल्पान्तरे तु रामो वै ब्रह्मणे दत्तवानिमम्'' । किरीटहारकेयूररत्नकुण्डलमण्डितः । सन्तप्तकाञ्चनप्रख्यपीतवासोयुगावृतः ॥ ८॥ मुकुट, हार, बाजूबन्द, रत्न के कुण्डल से वे विभूषित थे ओर तपे हए सोने के समान पीले रङ्ग के जोड़े वस्त्र उनके शरीर पर थे । तेजोमयः सोमसूर्य्यविद्युदुल्काग्निकोटयः । मिलित्वाविर्भवन्तीव प्रादुरासीत्पुरः प्रभुः ॥ ९॥ भगवान् इस प्रकार सामने प्रकट हुए, जैसे करोडों चन्द्रमा, सूर्य, बिजली, उल्का और अग्नि एक साथ मिलकर प्रकट हुए हों । स्तम्भीभूय तदा ब्रह्मा क्षणं तस्थौ विमोहितः । तुष्टाव मुनिभिः सार्द्धं प्रणम्य च पुनः पुनः ॥ १०॥ कुछ देर तक तो ब्रह्मा घबराकर खम्भे की तरह ठिठक गये । पुनः मुनियों के साथ बार-बार श्रीराम के प्रणाम कर स्तुति करने लगे । ब्रह्मोवाच । धन्योऽस्मि कृतकृत्योस्मि कृतार्थोस्मीह बन्धुभिः । प्रसन्नोऽसीह भगवन् जीवितं सफलं मम ॥ ११॥ हे भगवन्! आज मैं अपने बन्धुओं के साथ धन्य हो गया; आज मेरे सभी कार्य सम्पन्न हो गये । हे भगवन्! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं, इससे मेरा जीवन सफल हो गया । कथं स्तोष्यामि देवेश भगवन्निति चिन्तयन् । ऋग्यजुःसामवेदैश्च शास्त्रैर्बहुभिरादरात् ॥ १२॥ साङ्गैर्मन्वादिभिर्धर्मप्रतिपादनतत्परैः । तुष्टावेश्वरमभ्यर्च्य सन्तुष्टो मुनिभिः सह ॥ १३॥ हे देवेष! मैं कैसे आपकी स्तुति करूङ्गा, यह सोचते हुए मुनियों के साथ सन्तुष्ट होकर ब्रह्मा ने वेदाङ्ग सहित ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अन्य अनेक शास्त्र, मनुस्मृति आदि धर्म को बखानने वाले शास्त्रों से भगवान् श्रीराम की अर्चना कर उनकी स्तुति की । त्वमेव विश्वतश्चक्षुर्विश्वतोमुख उच्यसे । विश्वतोबाहुरेकः सन् विश्वतः स्यात्तथा परः ॥ १४॥ जनयन् भूर्भुवर्लोकौ स्वर्लोकं सर्वशासकः । अक्षिभ्यामपि बाहुभ्यां कर्णाभ्यां भुवनत्रयम् ॥ १५॥ पद्भ्यां च नासिकाभ्यां च सर्वं सर्वत्र पश्यसि । समाधत्से श‍ृणोष्येतत् सर्वं गच्छसि सर्वकृत् ॥ १६॥ जिघ्रस्येवं न ते किञ्चिदविज्ञातं प्रभोस्त्विह । ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च त्वमेव ननु केशवः ॥ १७॥ सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । पृथिव्यप्तेजसां रूपं मरुदाकाशयोरपि ॥ १८॥ कार्यं कर्ता कृतिर्देव कारणं केवलं परम् । अणोरणीयान् महतो महीयान् मध्यतः स्वयम् ॥ १९॥ मध्योऽसि निर्विकल्पोऽसि कस्त्वां देवावगच्छति । हे श्रीराम! आपके नेत्र सभी दिशाओं में हैं; आपके मुख भी सभी दिशाओं में हैं तथा आपकी बाहें भी सभी ओर फैली हुई हैं, फिर भी आप संसार से परे हैं । आप दोनों आँखों, बाहुओं और कानों, पैरों और नासिकाओं से भूलोक, भुवर्लोक, और स्वर्गलोक इन तीनों को उत्पन्न कर सब पर शासन करते हैं, सभी जगहों पर सब कुछ देखते-सूँघते हैं; सब कुछ सुनकर उनका समाधान करते हैं और सारे कार्य करते हैं । हे रघुनन्दन! ऐसा कुछ भी नहीं, जिसे आप जानते न हों । आप ही से ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र प्रकट होते हैं तथा केशव रूप में भी आप ही हैं । वेदपुरुष रूप में आपके हजारों शिर हैं, हजारों नेत्र हैं तथा हजारों पैर हैं । हे देव!, पृथ्वी, जल, अग्नि के तथा मरुत् और आकाश स्वरूप आप हैं । आप ही करने योग्य, करनेवाले, किये गये पदार्थ तथा क्रिया के परम साधन भी आप ही हैं । हे देव! आप अणु से भी सूक्ष्म और महत् (महाविष्णु) से भी महान् हैं, जैसा की सुदर्शन संहिता में कहा गया है, ``राघवस्य गुणो दिव्यो महाविष्णुः स्वरुपवान'' और उनके बीच में भी आप ही हैं; आपका विकल्प कोई नहीं है; आपको भला कौन जान सकता है? एवमेवादिबहुस्तोत्रैस्तुतः स परमेश्वरः ॥ २०॥ वैदिकैः कृपया विष्णुर्ब्रह्माणमिदमब्रवीत् । स्तुतस्तुष्टोऽस्मि ते ब्रह्मन् उग्रेण तपसाधुना ॥ २१॥ इस प्रकार के वेदोक्त स्तोत्रों से जब ब्रह्मा ने भगवान् की स्तुति की, तब उन व्यापक श्रीराम ने ब्रह्माजी से कहा- हे ब्रह्मा! मैं आपकी स्तुति और उग्र तपस्या से अब सन्तुष्ट हूँ । इत्यगस्त्यसंहितायां परमरहस्ये ब्रह्मणाकृता विष्णुस्तुतिः समाप्ता । As an observation, there is no mention of rAma in the text, although addressed such in the translation. This text is followed by Shri Vishnu giving rAmAya namaH mantra to brahmA (see rAmaShaDakSharamantropadeshaH) for the benefits of the mankind . While delivering, he mentioned himself as Rama, which is the reason the translation includes reference to Shriram. Encoded and proofread by P. Sudarshana Hindi translation by Pandit Bhavanath Jha
% Text title            : Brahmakrita Vishnustutih
% File name             : brahmAkRRitAviShNustutiH.itx
% itxtitle              : viShNustutiH brahmAkRitA sArthA (agastyasaMhitAntargatA)
% engtitle              : brahmAkRitA viShNustutiH
% Category              : vishhnu, stuti, vishnu
% Location              : doc_vishhnu
% Sublocation           : vishhnu
% Author                : agastya, Hindi - Pandit Bhavanath Jha
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : P. Sudarshana
% Proofread by          : P. Sudarshana
% Indexextra            : (Scan)
% Acknowledge-Permission: Bhavnath Jha
% Latest update         : December 22, 2023
% Send corrections to   : sanskrit at cheerful dot c om
% Site access           : https://sanskritdocuments.org

This text is prepared by volunteers and is to be used for personal study and research. The file is not to be copied or reposted for promotion of any website or individuals or for commercial purpose without permission. Please help to maintain respect for volunteer spirit.

BACK TO TOP
sanskritdocuments.org