भगवान् बुद्धदेवो विजयते
(भगवान् बुद्धदेव की जय हो)
(द्रुतविलम्बितम् छन्दः)
समुदितैर्जगतां सुकृतैः शुभै-
र्भूवमिमां कृपया समुपागतः ।
विजयते भगवान् सुगतः कृती
जनतया नतया परिवारितः ॥ १॥
तमाम संसार के एकत्रित पुण्यों के प्रताप से जिन्होंने कृपया इस
मर्त्यलोक में आकर जन्म लिया था, उन जगद्गुरु भगवान् बुद्धदेव
की जय हो । जनता हर समय उन के आस-पास एकत्रित रहती थी और
बड़ी श्रद्धाभक्ति पूर्वक उन्हें बारम्बार प्रणाम किया करती थी । १
निरवधिः समयो विपुला दिशो
न खलु यस्य यशो हरणे क्षमाः ।
स भगवान् सुगतोऽमरजीवनो
हरतु वो दुरितान्यखिलान्यपि ॥ २॥
सीमारहित समय और अनन्त दिशायें भी जिनके यश को कम न कर
सकीं, वह अपने यशःशरीर के द्वारा हमेशा अजर अमर रहने वाले
भगवान् बुद्ध जी महाराज आप लोगों के सब कष्टों को दूर करें । २
कपिलवस्तु न वस्तु भवादृशं
किमपि पुण्यतमं भुवनत्रये ।
त्रिजगतामुपकारकरं शिवं
प्रभवभूस्त्वमभूः सुगतस्य यत् ॥ ३॥
हे कपिलवस्तु नाम नगरी, तेरे समान कोई भी वस्तु भाग्यशाली
दूसरी नहीं है । तभी तो भगवान् बुद्ध ने तुझे अपनी जन्म भूमि
बनाया सचमुच तूने संसार का बहुत बड़ा उपकार किया है । ३
शमदमैः सहितान् नियमान् यमान्
उपदिशन् करुणां मितभाषणम् ।
अभिभवन् रविमप्यमिताभया
पुनरसौ नरसौम्यतमोऽभवत् ॥ ४॥
यम नियम आदि योग के अङ्गों का उपदेश देते हुए तथा जितेन्द्रियता,
शम, दम, करुणा, मितभाषण आदि सद्गुणों की शिक्षा देते हुए
भगवान् बुद्ध, जो कि अपने तेज के द्वारा सूर्य को भी मात करते थे,
सब मनुष्यों में चन्द्रमा के समान सौम्य और शीतल थे ।
न सरसा विषया न च यौवनं
रतिसमा वनिता न मनोरमाः ।
न नृपता प्रभुता न भयादय-
स्तमपहर्तुमशक्नुवनुद्यमात् ॥ ५॥
परम रमणीय लुभावनी सांसारिक विषय वासनाएं, नई जवानी,
रति के सदृश सुन्दर-सुन्दर स्त्रियां, राजगद्दी, प्रभुता, काम,
क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार, भयं आदि अनेक मनोविकार, कोई भी
बुद्ध भगवान् को उनके निश्चित मार्ग से विचलित न कर सका ।
अयि निरन्तरयुद्धरता नराः
श्रुणुत लोकगुरोर्वचनामृतम् ।
प्रशमयेन्न कदाप्यनलोऽनलं
न कलहाः कलहान् शमयन्ति च ॥ ६॥
हे हमेशा युद्धों में फंसे रहने वाले राष्ट्रो, जरा भगवान्
बुद्धदेव जी के अमृतमय उपदेशों को सुनो। देखो जिस प्रकार आग
कभी भी आग को नहीं बुझा सकती, इसी प्रकार युद्धों के द्वारा कभी
भी युद्धों को समाप्त नहीं किया जा सकता ।
भयकरं प्रखरं ज्वलनं यथा
जयथ वारिभिरेव निरन्तरम् ।
सकलहां चिरयुद्धपरम्परां
जयत तद्वदवश्यमहिंसया ॥ ७॥
जिस प्रकार भयानक तेज आग को हमेशा पानी से ही जीतते हो, इसी
प्रकार इन भयानक लम्बे-लम्बे युद्धों को अहिंसा के द्वारा ही जीतो ।
कुलकृता गुरुता न भवेत् क्वचित्
न लघुताऽभिमता मम जन्मना ।
जगति सन्त्यखिलाः पुरुषाः समाः
न कुरु मानमतस्त्यज दीनताम् ॥ ८॥
किसी विशेष कुल में पैदा होने से कोई बड़ा नहीं होता और दूसरे
कुलों में पैदा होने से कोई छोटा नहीं होता । संसार में सब मनुष्यं
बराबर हैं, ऊंच-नीच का भेद करना बिलकुल गलत है । इसलिए
किसी को घमण्ड नहीं करना चाहिए और न ही कोई अपने को दीन-हीन
समझे ।
गणयतात्मसमं पुरुषान् स्त्रियो
जलचरानखिलान् पशुपक्षिणः ।
बिलशयं बत कीटपिपीलिकं
भवत नैव कदापि च हिंसकाः ॥ १०॥
पुरुषों और स्त्रियों का दर्जा समान है। सब को अपने सदृश ही
समझो। यहां तक कि जलचर, स्थलचर, आकाशचर सब पशु
पक्षियों को और बिलों में रहने वाले कीड़ों और चिऊँटी को भी
अपने समान समझो, कभी किसी की हिंसा मत करो ।
स भगवान् सुगतोऽद्य शुभे दिने
प्रमुदितैरखिलैरपि मानवैः ।
क्षितितलाहितमस्तकमण्डलैः
सबहुभक्ति यथाविधि वन्द्यताम् ॥ ११॥
भगवान् बुद्ध के (२५०० वें) जन्म दिन के इस शुभ अवसर पर, इस
संसार में रहने वाले हम सब नरनारियों को चाहिए कि प्रसन्न मन
होकर तथा भूमि तक अपने सिरों को झुकाकर, बड़ी श्रद्धाभक्ति
पूर्वक, जगद्गुरु भगवान् बुद्धदेव को बारम्बार प्रणाम करें ।
इति जनमेजयः विद्यालंकारः विरचित भगवान् बुद्धदेवो विजयते रचना समाप्ता ॥
Composed and translated by Janamejaya Vidyalankar
Encoded and proofread by Nikhil Kancharlawar