श्रीमाधवप्रपन्नाष्टकम्
श्रीसर्वेश्वरो जयति
॥ श्रीभगवन्निम्बार्काचार्याय नमः ॥
श्रीमाधवप्रपन्नाष्टकं
श्रीमत्सर्वेश्वरं नौमि श्रीराधामाधवं प्रभुम् ।
यदनुकम्पया सर्वमसाध्यं सुलभं भवेत् ॥ १॥
परात्परं प्रभुं हंसं महर्षिसनकादिकान् ।
देवर्षिनारदं वन्दे श्रीनिम्बार्कं जगद्गुरुम् ॥ २॥
श्रीहरिव्यासदेवेशं परमाचार्यमिष्टदम् ।
परशुरामदेवञ्चाचार्यं नौमि जगद्गुरुम् ॥ ३॥
अस्मद्गुरुपदाम्भोजं प्रणम्य तन्यते हृदा ।
श्रीमाधवप्रपन्नाष्टकसीशरतिसम्प्रदम् ॥ ४॥
राधामुकुन्द ! यमुनातटकुञ्जरम्य !
वृन्दावनेश ! रसिकेश ! हरे ! वरेण्य ! ।
सर्वेश्वर ! व्रजवने विहरन्निकुञ्जे
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ १॥
व्रजधाम के पावनतम सुरमरणीय वनोपवनों कुञ्ज-निकुञ्जों में दिव्य विहार करते हुए, श्रीयमुनातट पर अवस्थित अतिसुन्दर कुञ्ज में सुशोभितं परमवरेण्य रसिकेश वृन्दावनेश्वर सर्वेश्वर हे विभो! श्रीहरे ! राधामुकुन्द ! माधव ! मुझ शरणागत का सर्वविधरूप से इस भवव्याधि से परित्राण करें ॥ १॥
वृन्दावने व्रजवने रमणीयकुञ्जे
श्रीराधया सह सदैव सुशोभमान ! ।
सौरीप्रतीररसकेलिविलासलीन
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ २॥
श्रीब्रजमण्डलस्थ सुरम्य वन में अतिकमनीय परमदिव्य
श्रीमद्-वृन्दावनधाम की अत्यन्त रमणीय कुञ्ज में अपनी परमाह्लादिनी वृन्दावनाधीश्वरी सर्वेश्वरी श्रीराधा के दक्षिणाङ्ग में सर्वदा सुशोभित और श्रीयमुना के सुरम्य पुलिन पर नित्य ललित दिव्य केलिरसविलास में अभिरत हे सर्वव्यापक ! सर्वेश्वर !माधव प्रभो ! मुझ शरणागत की सर्वतोभावेन रक्षा करें ॥ २॥
गोपाङ्गनानवगृहान्नवनीतचौर
गो-गोपवृन्दपरिशोभित ! पूर्णब्रह्मन् ! ।
सौन्दर्यधाम ! सनकादिमषिसेव्य !
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ ३॥
व्रजगोपीजनों के मङ्गलमय नवगृह से सुन्दर नवनीत अर्थात् सदलोनी माखन का मधुर-हरण (चोरी) करने वाले, कोटि कोटि गोवृन्द व्रजगोपगणों के मध्य अतिशय शोभायमान तथा श्रीसनकादि महर्षियों से सदा परिसेवित, निरतिशय सौन्दर्य-सौकुमार्य-माधुर्य-लावण्य-कारुण्य-मार्दवादिनिखिलगुणगणधाम परात्पर पूर्णब्रह्म हे सर्वान्तर्यामिन् ! श्रीमाधव ! मुझ तवपदप्रपन्न का सर्वरीत्या परिरक्षण करें ॥ ३॥
ब्रह्मादिदेवसुनिवन्दितपादपद्म
देवर्षिनारदविपञ्चिसुनादगीत ! ।
आनन्ददिव्यरससिन्धुसुधाभिषिक्त !
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ ४॥
ब्रह्मा-शिव-इन्द्रादि देववृन्दों एवं ऋषि-मुनीश्वरों से अभिवन्दित जिनके श्रीचरणकमल हैं । देवर्षिवर्य श्रीनारदजी द्वारा उनकी अपनी दिव्य वीणा के अतिकमनीय मधुर निनाद से जिन श्रीहरि का प्रतिपल गान होता है । दिव्यानन्दसमुद्र के रसमय अमृत से जिनके मङ्गलमय श्री का जो अनुपम सौन्दर्यस्वरूप है ऐसे परम विभो! हे माधव ! मेरी पूर्णरूप से इस भवाटवी के दुःख द्वन्द्व से सुरक्षा करें ॥ ४॥
वेदादिशास्त्रप्रतिपादितदिव्यरूप
संसारबीज ! सुरवृन्दसुगीयमान ! ।
गोविन्द ! केशव ! सुरेश-सदाप्रपूज्य !
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ ५॥
श्रुति-स्मृति-सूत्र-तन्त्र-पुराणादि यावन्निखिल-शास्त्र समूह द्वारा जिन श्रीहरि का असमोर्ध्वं स्वरूप प्रतिपादित हुआ है । जो यावच्चराचर समग्र सृष्टि के उत्पत्ति-स्थिति-लय के एकमात्र बीजरूप अर्थात् हेतु हैं । निखिल देवगणों द्वारा जिनके दिव्य स्वरूप एवं अनन्त गुणराशि का सोल्लास गान किया जाता हैं । इन्द्रादि सुरवृन्दों से सर्वदा प्रपूजित हे गोविन्द ! केशव ! सर्वान्तर्यामिन् ! श्रीमाधव ! मुझ अकिञ्चन शरणागत की समग्र रूप से अभिरक्षा करें ॥ ५॥
अध्यात्मचिन्तनरतैः श्रुतिशास्त्रविज्ञैः
सद्भिः सुधी-ऋषिवरैः समुपासनीय ! ।
श्रानन्दकोष ! रसधाम ! व्रजेश ! कृष्ण !
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ ६॥
अध्यात्मचिन्तन में अभिरत वेद-वेदान्तादि शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता ऐसे उत्तमश्लोक सन्त-महात्माओं एवं विद्वज्जनों ऋषि-मुनियों द्वारा सम्यक् प्रकार से सर्वदा उपासनीय, परमानन्द के एकमात्र मूल अधिष्ठान ऐसे व्रजेश कृष्ण ! सर्वद्रष्टा हे माधव ! सम्पूर्णतया आपके शरण आये मुझ प्रपन्न की भवविपत्ति से परिवारण करने की निर्हेतुकी अनुकम्पा करें ॥ ६॥
श्रीधाम-कुञ्जललितादिसखीप्रसेव्य !
राधापदान्जमकरन्दमिलिन्दरूप !
वृन्दावनाऽखिललतातरुकुञ्जहृद्य
मां पाहि माधव ! विभो !नितरां प्रपन्नम् ॥ ७॥
श्रीवृन्दावनधाम की ललित कलित कुञ्जों में श्रीरङ्गदेवी-
ललिता-विशाखा-चित्रा-तुङ्गविद्या-इन्दुलेखा-हितु-हरिप्रियादि नित्य दिव्य सखीवृन्दों से सतत संसेवित एवं श्रीवृन्दावनस्थ समस्त लतावल्लरियों तवरों की मञ्जुल कुञ्जों में परमशोभायमान हे घट-घट-वासी सर्वव्यापक सर्वेश्वर माधव प्रभो ! मुझ शरणापन्न की भवभीति से रक्षा करें ॥ ७॥
गोपाल ! कृष्ण ! नलिनप्रियमञ्जुमाल्य-
शोभायमान ! सततं विपिने सुरम्ये ।
सर्वार्थसिद्धिवरद ! व्रजनन्दसूनो !
मां पाहि माधव! विभो ! नितरां प्रपन्नम् ॥ ८॥
अति रमरणीय सच्चिन्मय नित्य दिव्य श्रीवृन्दावन में कमल सुमनों की प्रतिप्रिय मञ्जुल माला से जो अतीव शोभित हो रहे हैं । प्रपन्नभक्तों के अभीष्ट मनोरथों एवं समग्र सिद्धियों से उन्हें परिपूर्ण करने वाले हे व्रजेन्द्रनन्दन ! गोपाल ! कृष्ण ! सर्वज्ञ ! सर्वेश्वर ! माधव प्रभो ! तवपदपङ्कज शरणपरायण अकिञ्चन की सर्वात्मना संरक्षण करने के लिये निर्हैतुक स्वाभाविक
अनुग्रह करें ॥ ८॥
श्रीमाधवप्रपन्नाष्टकमीशरतिसम्प्रदं ।
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मितम् ॥ ९॥
श्रीराधामाधव प्रभु की पराभक्ति प्रदान करने वाला यह``श्रीमाधवप्रपन्नाष्टक'' मुझ राधासर्वेश्वरशरणदेवाचार्य द्वारा उन्हीं सर्वान्तर्यामी की अन्तःप्रेरणा से इसका प्रणयन हुआ जो सर्वोपादेय नित्य पठनीय स्तव होगा ॥ ९॥
इति श्रीमाधवप्रपन्नाष्टकं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Mohan Chettoor