व्रजविहारः

व्रजविहारः

कस्त्वं न्वत्र बलानुजस्त्वमिह किं मन्मन्दिराशङ्कया बुद्धं तन्नवनीतकुम्भविवरे हस्तं कथं न्यस्यसि । कर्तुं तत्र पिपीलिकापनयनं सुप्ताः किमुद्बोधिताः बाला वत्सगतिं विवेक्तुमिति सञ्जल्पन्हरिः पातु वः ॥ १॥ जीर्णा तरिः सरिदतीव गभीरनीरा बाला वयं सकलमित्थमनर्थहेतुः । निस्तारबीजमिदमेव कृशोदरीणां यन्माधव त्वमसि सम्प्रति कर्णधारः ॥ २॥ श्रीश्रीकृष्णोजयति जगतां जन्मदाता च पाता हर्ता चान्ते हरति भजतां यश्च संसारभीतिम् । राधानाथः सजलजलदश्यामलः पीतवासा वृन्दारण्ये विहरति सदा सच्चिदानन्दरूपः ॥ ३॥ ज्योतीरूपं परमपुरुषं निर्गुणं नित्यमेकं नित्यानन्दं निखिलजगतामीश्वरं विश्वबीजम् । गोलोकेशं द्विभुजमुरलीधारिणं राधिकेशं वन्दे वृन्दारकविधिहरव्रातवन्द्याङ्घ्रिपद्मम् ॥ ४॥ येषां श्रीमद्यशोदासुतपदकमले नास्ति भक्तिर्नराणां येषामाभीरकन्याप्रियगुणकथने नानुरक्ता रसज्ञा । येषां श्रीकृष्णलीलाललितगुणकथासादरौ नैव कर्णौ धिक्तान्धिक्तान्धिगेतान्कथयति नितरां कीर्तनस्थो मृदङ्गः ॥ ५॥ वृन्दावने वृक्षलताप्रतानैर्वृन्दावनेशस्य विहारहेतोः । पुरा विधात्रा रचितान्सुकुञ्जाञ्जगाम कृष्णः सह राधया सः ॥ ६॥ नवीनमेघोपमनीलदेहः सुपीतपट्टाम्बरयुग्मधारी । स्मिताननः कुण्डलवान्किरीटी वंशीधरो मालतिमाल्यधारी ॥ ७॥ गोपीजनानन्दकरो मुरारिर्वृन्दावनेन्द्रो वनमाल्यशोभी । वंशीनिनादेन व्रजाङ्गनानां मनांसि सम्मोहितवान् स कामी ॥ ८॥ गोपीजना यमिह कामदृशा भजन्ते यं भक्तिभाज इह केवलभक्तिभावैः । यं योगिनो हृदि धिया परिचिन्तयन्ति तं केवलं कमललोचनमाश्रयेऽहम् ॥ ९॥ वनेवने कुञ्जवने मुरारिः परिभ्रमन्भ्राजति राधिका च । सहैव कुञ्जे रमते च राधया पायादपायादिह कृष्ण एकः ॥ १०॥ वृन्दारण्ये विहरति सदा वासुदेवो दयालु- र्गोपस्त्रीभिः स्मरशतशरैर्भिन्नहृत्कामुकाभिः । गोपैर्बालैरपि सहचरैः सार्द्धमानन्दयुक्तैर्योसौ कृष्णः परमकरुणस्तं सदा चिन्तयेऽहम् ॥ ११॥ इति मुरादाबादनिवासि कात्यायनगोत्रोद्भवपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृत- भाषाटीकासहितः व्रजविहारः सम्पूर्णः ॥ हिन्दी भावार्थ - एक दिन व्रजविहार के समय श्रीकृष्ण किसी गोपी के गृह में प्रवेश करके मक्खन की चोरी कर रहे थे । गोपरमणी ने देखकर पूछा ``तू कौन है रे ?'' श्रीकृष्णने उत्तर दिया ``मैं बलराम का छोटा भाई हूं'' । गोपिका ने पूछा ``इस स्थान पर किसलिये आया है'' । श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया ``मैं अपना घर जान धोखे से यहां आ गया'' । गोपिका ने कहा ``भला यदि ऐसा ही था तो मक्खन के घडे में हाथ क्यों डालते हो?'' श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि ``इसमें पिपीलिका अर्थात् चीटियें पड़ गई हैं सो उनको दूर किये देता हूं'' । गोपिका ने फिर पूछा ``अच्छा ! बालक नींद में सो रहे थे, उनको क्यों जगायो ?'' श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया `यह विचारने के लिये कि सब बछडे कहाँ चले गये हैं ।``इस प्रकार जिन्होंने ब्रजविहार के समय गोपिकाओं से आनन्द किया है। वही कृष्ण तुम्हारी रक्षा करें ॥ १॥ किसी दिन श्रीकृष्ण कर्णधार (खेवैये) होकर गोपियों को नदीपार करते थे, उस समय गोपिकायें नदी को गम्भीर देखकर कहने लगीं कि ``यह नौका अत्यन्त जीर्ण (पुरानी) है, नदी गहरे जल से परिपूर्ण है, और हम सब बालिका हैं, इस कारण जो कुछ देखती हैं सब ही अनर्थ का हेतु है, किन्तु हे कृष्ण! हम क्षीणाङ्गियों का एक यही निस्तार होने का कारण दीखता है, कि जो तुम इस समय कर्णधार होकर हमें पार करो'' ॥ २॥ तीनों जगत्की सृष्टि, स्थिति और संहारके कारण, भक्तजनों के संसारी भय को नाश करनेवाले, काले बादल के समान साँवरे, पीतवस्त्रधारे श्रीकृष्ण सर्वदा वृन्दावन के वनों में विहार करते हैं, वास्तव में वह सच्चिदानन्दस्वरूप हैं ॥ ३॥ जो ज्योति स्वरूप हैं, गुणों से परे तथा नित्यानन्द स्वरूप हैं, जो केवल परमपुरुष, निर्गुण अविनाशी और भुवनों के अधीश्वर हैं, क्या ब्रह्मा, क्या शिव सब ही जिसके चरणों की वन्दना करते हैं, वही नारायण द्विभुज मुरलीधारण करनेवाले राधिकानाथ रूप से वृन्दावन में वास करते हैं, मैं उन्हीं गोलोकपति के चरण कमलों मे प्रणाम करता हूँ ॥ ४॥ हरि सङ्कीर्तन के समय मृदङ्ग जो ``धिक्तान् धिक्तान्, धिक्तान्'' प्रभृति ध्वनि करता है, उसका तात्पर्य यह है; वह मृदङ्ग यह कहकर खेद प्रकाश करता है कि ``श्रीकृष्ण के चरणकमल में जिनकी भक्ति नहीं है, जिनकी जिह्वा गोपरमणीगणों के प्रियपात्र हरि के गुण कीर्तन करने में अनुरागी नहीं है, श्रीकृष्ण की लीला सुनने को जिनके दोनों श्रवण (कान) उत्साह प्रकाश नहीं करते हैं, उनको धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है ``॥ ५॥ वृन्दावनपति श्रीकृष्ण के विहार करने को स्वयं विधाता ने अनेक प्रकार के वृक्षलता से मनोरम कुञ्ज बनाये हैं, उन्हीं सब कुञ्जवनों में श्रीकृष्ण राधा सहित भ्रमण करते हैं ॥ ६॥ श्रीकृष्ण की देह नये बादल के समान श्याम है, शोभायमान पीले वर्ण के रेशमीन वस्त्र पहने हुए हैं, उनका वदन मन्द मुस्कान से विराजमान है, उनके कानों में सुन्दर कुण्डल शोभायमान हैं, मस्तकपर किरीट हाथ में बांसुरी और गले में मालतीकी माला पडी है, ऐसे भगवान् शोभायमान होते हैं ॥ ७॥ गोपीजनों को आनन्द देनेवाले, वनमाला धारण करनेवाले, वृन्दावनपति, कृष्ण विहार की वासना से बंसी की ध्वनि कर ब्रजरमणीगणों का मन मोह लिया करते हैं ॥ ८॥ गोपिकागण कामदृष्टि से जिसका भजन करती हैं, भक्त मनुष्यगण भक्तिभाव से जिसकी आराधना करते हैं, योगीजन योगबल से जिसको चित्त में दर्शन करते हैं मैंने उन्हीं कमललोचन कृष्ण को आश्रय किया ॥ ९॥ जो वनवनके कुञ्जकुञ्ज में श्रीराधा के सङ्ग भ्रमण और विहार करते हैं, केवल वही कृष्ण सम्पूर्ण अपायों से हमारी रक्षा करें ॥ १०॥ जो काम से आतुर हुई गोपरमणियों के सङ्ग वृन्दावन में विहार करते हैं, कामबाण से जिनका हृदय फटता है, जो गोपबालकों के सङ्ग क्रीडा करते हैं, मैं उन्हीं करुणामय कृष्ण का सदा ध्यान करता हूँ ॥ ११॥ मुरादाबादनिवासि कात्यायनगोत्रोद्भवपण्डितकन्हैयालालमिश्रकृत- भाषाटीकासहितः व्रजविहारः ॥ Proofread by Aruna Narayanan
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% Proofread by          : Aruna Narayanan
% Translated by         : Kanahaiyalal Mishra
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% Latest update         : September 25, 2021
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