श्रीपुष्करदशश्लोकी
पुष्करं परमं दिव्यं वेधसा शोभितं भजे ।
यागरूपं महातीर्थ निर्मलाऽम्बुप्रपूरितम् ॥ १॥
जगत्स्रष्टा श्रीब्रह्मदेव से अतिशय शोभायमान और यज्ञ
रूप परम श्रेष्ठ तीर्थ जो अतीव स्वच्छ जल से परिपूर्ण अति दिव्य प्राचीन युगादितीर्थ समस्त तीर्थों के गुरु रूप श्रीपुष्कर का भजन स्मरण करते हैं ॥ १॥
सर्वतीर्थगुरुं वन्दे सावित्रीपरिराजितम् ।
ऋषि-मुनिसमाराध्यं निर्जरैरभिवन्दितम् ॥ २॥
श्रीब्रह्मा की सह धर्मिणी परम पूज्या श्रीसावित्रीजी से अति सुशोभित, अगस्त्य, वामदेव, विश्वामित्र प्रभृति ऋषि-मुनियों से शोभायुक्त समाराधित तथा देववृन्दों से प्रतिपल वन्दना किये गये एवं समग्र तीर्थों के गुरुरूप श्रीपुष्कर की वन्दना करते हैं ॥ २॥
मीन-कच्छपसंयुक्तं दर्दुरैरभिगुञ्जितम् ।
कलहंस-बकाऽऽदिभी-रम्यं नमामि पुष्करम् ॥ ३॥
जिसमें मछलियाँ, कछुवें, मेढक, बतक-बगुला आदि जलचरों से अति रमणीय श्रीपुष्कर तीर्थ को अभिनमन करते हैं ॥ ३॥
शुक-पिक-मयूरादि-पतगै-र्गुञ्जितं परम् ।
पुष्करं सततं नौमि सद्भि-बुधैश्च सेवितम् ॥ ४॥
सन्त-महात्माओं एवं तीर्थ निवासी विद्वानों से परिपूजित तथा शुक (तोता) पिक (कोयल) मोर आदि पक्षिवृन्दों से परम गुञ्जायमान श्रीपुष्कर को प्रतिपल अभिनमन करते हैं ॥ ४॥
प्राची-सरस्वती-नन्दा-स्रवन्तीरुचिरं भजे ।
पुष्करं सर्वपापघ्नं सर्वलोकहितावहम् ॥ ५॥
प्राची-सरस्वती-नन्दा आदि पुण्य सलिला नदियों से
शोभायुक्त, स्नान-आचमन-मार्जन करने पर सबके पापों का शमन करने वाले और प्राणिमात्र के लिए परम हितकारी ऐसे तीर्थ शिरोमणि श्रीपुष्कर का भजन-ध्यान करते हैं ॥ ५॥
अगस्त्य-वामदेवादिकन्दरा यत्र शोभते ।
नौमि तं पुष्करं तीर्थं पद्मपुराणवर्णितम् ॥ ६॥
अगस्त्य-वामदेव-विश्वामित्र आदि ऋषि-मुनियों की तपःस्थली कन्दरा (गुफायें) जहाँ सुशोभित हैं । ``श्रीपद्मपुराण'' में जिसका विस्तृत वर्णन है, उस पुष्कर तीर्थ को नमन करते हैं ॥ ६॥
यत्र हि पापमोचिन्या मन्दिरं चारु दृश्यते ।
तं पुष्करं हृदा वन्दे नानाघट्टसमन्वितम् ॥ ७॥
जहाँ पर श्रीपापमोचिनी देवी का सुन्दर मन्दिर का दर्शन
होता है और परम कमनीय विविध घाटों से अति शोभायुक्त है, ऐसे समस्त तीर्थों के गुरुरूप श्रीपुष्कर की अपने अन्तःकरण से वन्दना करते हैं ॥ ७॥
हंसावतारकेन्द्रञ्च श्रीनिम्बार्ककराऽर्चितम् ।
परशुरामदेवेन सेवितं पुष्करं भजे ॥ ८॥
श्रीहंस भगवान् ने जहाँ पर अवतार लिया और श्रीहंस भगवान् के अनन्तर महर्षिवर श्रीसनकादिक तथा देवर्षिप्रवर श्रीनारदजी ने उस स्थान पर विचरण किया एवं आपसे दीक्षित होकर श्रीसर्वेश्वर प्रभु सहित यहाँ पधार कर स्वकीय करारविन्दों से जिनका अर्चन किया और आपकी परम्परा में जगद्गुरु निम्बार्काचार्य पीठाधीश्वर श्रीपरशुरामदेवाचार्यजी महाराज ने निवास किया उस पुष्करतीर्थ का मनसा, वाचा, कर्मणा भजन चिन्तन करते हैं ॥ ८॥
ब्रह्मर्षिणा कृता यत्र विश्वामित्रेण पर्वते ।
तपस्या पावना श्रेष्ठा पुष्करं तञ्च भावये ॥ ९॥
ब्रह्मर्षि श्रीविश्वामित्रजी ने नाग पर्वत की उपत्यका अर्थात् तलहटी के अञ्चल में दीर्घकाल पर्यन्त दिव्य तपस्या की है उन सर्वोपरि तीर्थगुरु श्रीपुष्कर को अपने हृदयस्थल में भावना करते हैं ॥ ९॥
पुष्करं कमनीयञ्च नागपर्वतशोभितम् ।
नमामि प्रत्यहं तीर्थं मनसा वचसा धिया ॥ १०॥
नाग पर्वत से परम शोभायमान अत्यन्त सुन्दर स्वरूप तीर्थगुरु श्रीपुष्कर को मन-वाणी तथा भक्तिपूर्वक अभिनमन करते हैं ॥ १०॥
श्रीपुष्करदशश्लोकी सुवाञ्छितफलप्रदा ।
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मिता ॥ ११॥
सुन्दर मनोरथ को प्रदान करने वाली यह ``पुष्कर-दशश्लोकी'' है । श्रीपुष्कर की कृपाजन्य इसकी रचना हुई, यही आन्तरिक भाव है ॥
इति श्रीपुष्करदशश्लोकी समाप्ता ।
Proofread by Mohan Chettoor