धन्याष्टकम्
धन्या वयं निरुपमानतपोनिधेस्ते
श्रीचन्द्रशेखरगुरो धृतकाञ्चिपीठ!
वेदोक्तधर्मनिचयादिपुनःप्रतिष्ठा-
सत्रे सुदीक्षितवतो नु समानकालाः ॥ १॥
हे उपमानरहित तपोनिधिस्वरूप काञ्चीपीठ को धारण करनेवाले तथा
वेदप्रतिपादित धर्मसमूह के पुन: प्रतिष्ठा-सत्र में शोभन रूप
में दीक्षित होनेवाले श्री चन्द्रशेखर गुरुपाद आपके अवस्थिति-काल
में इस धराधाम पर रहनेवाले हम सब लोग धन्य हैं; क्योंकि
हमने ब्रह्मज्ञान-निधि के रूप में आपको प्राप्त किया है ॥ १॥
O! Guru! Shri Candrasekharendrasarasvati! The pontiff of
Shri kAnchi kAmakoTI pITha! Blessed, indeed, are we to
have been your contemporaries; you who is the incomparable
embodiment of penance; you who have initiated yourself in the
life-long sacrifice of upholding and re-establishing various
dharmas prescribed by the Vedas. (1)
धन्यां वयं ननु गुरो! करुणारसार्द्रे
गाम्भीर्य-निर्जित-महोदधिके सुशान्ते!
तेजस्विनी प्रतिफलत्परमात्मबोधे
द्रष्टुं त्वदीयनयने हि समानकालाः ॥ २॥
हे गुरो! करुणारस से आर्द्र तथा गाम्भीर्य से महोदधि को भी
जीतनेवाले, प्रशान्त तेजोयुक्त तथा परमार्थबोध का प्रतिफलन
करनेवाले (जिनके दर्शन से ही यह बोध हो जाता है कि गुरुवर्य
को परमात्म-साक्षात्कार हुआ है) आपके नेत्रयुगल का दर्शन प्राप्त
करने के लिए आपके मानव शरीर में अवस्थित रहने के समानकाल
में रहनेवाले हम लोग धन्य हैं ॥ २॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to see your eyes, which are moistened with
compassion, which defeat the ocean in their depth (gAmbhirya)
which are peaceful and resplendent; which reflect your
experience of the ultimate reality, i.e. paramAtman. (2)
धन्या वयं ननु गुरो! मृदुमन्द्रधीर-
गाम्भीर्यवन्ति विशदानि लघूनि चैव ।
धर्मादि-तत्त्वगण-सूक्ष्म-सुबोधकानि
श्रोतुं त्वदीयवचनानि समानकालाः ॥ ३॥
हे गुरो! आपके मृदु धीर-गम्भीर विशद (विस्तृत) तथा लघु
वचन, जो धर्म आदि पुरुषार्थों के तत्त्वसमूह का सूक्ष्मातिसूक्ष्म
रूप से बोधन करने में समर्थ हैं, ऐसे आपके वचनों के श्रवण
के लिए आपके धराधाम पर अवस्थित होने के समानकाल में रहनेवाले
हम लोग धन्य हैं; क्योंकि हमारे लिए ब्रह्म का श्रवण दुर्लभ
नहीं है, हम तो आचारसम्पन्न गुरु से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
रूप चतुर्विध पुरुषार्थ के तत्त्व को सुनने का अवसर प्राप्त कर
ही रहे हैं ॥ ३॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to listen to your words; which are soft, low
in voice, full of conviction (dhIra) and profound in their
meaning; which are clear, brief in form, and which interpret
scores of subtle concepts such as dharma. (3)
धन्या वयं ननु गुरो! भवतोऽन्तिके हि
राष्ट्रस्य लौकिकविचारगणस्य चैव ।
वैयक्तिकस्य सुखदुःखचयस्य वार्ता
वक्तुं प्रसादमनुभोक्तुमनन्यकालाः ॥ ४॥
हे गुरो! आपके समीप में स्थान पाकर राष्ट्रीय विचार सम्बन्धी
वार्ता, लौकिक विचार सम्बन्धी वार्ता, वैयक्तिक सुख-दुःख की वार्ता
को कहने तथा कथन के उत्तरकाल में आपके कृपाप्रसाद का भोग
प्राप्त करने में आपकी अवस्थिति के अनन्य काल में धराधाम पर
रहने का अवसर प्राप्त करनेवाले हम सभी लोग धन्य हैं ॥ ४॥
O ! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to talk to you about worldly matters related
to the nation, about various mundane issues, about matters
of personal joys and sorrows; and to receive your favours and
blessings. (4)
धन्या वयं ननु गुरो! भवतः पदाब्ज-
मुद्राङ्कितं तदनु पूततमं शिवं च ।
श्रीभारतस्य महितं रजसां चयं नः
स्प्रष्टुं शिरोभिरवसाम समानकालाः ॥ ५॥
हे गुरो! आपके चरणकमल से चिह्नित मुद्रा से अङ्कित तथा सर्वाधिक
पवित्र एवं कल्याणकारी इस भारतवर्ष की महिमामण्डित धूलि को सिर
से स्पर्श करने के लिए हम आपके समानकाल में इस भूमि पर रहे
और वास एवं दर्शन का लाभ प्राप्त करते रहे, अत: हम धन्य
हैं ॥ ५॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to touch the dust of the land of great India
with our heads; which is great in itself and made most pious
and auspicious by the imprints of your lotus feet. (5)
धन्या वयं ननु गुरो! भवतः पवित्रे
सञ्चारपूतभुवने चरणे विशाले ।
संसारभीतजनताश्रयदेऽनुसृत्य
गन्तुं कियन्ति च पदानि समानकालाः ॥ ६॥
हे गुरो! संचरण से पृथ्वीतल को पवित्र करनेवाले तथा
संसार-भय से भयभीत जनसमूह को आश्रय देनेवाले एवं पवित्र
आपके विशाल चरणयुगल का अनुगमन कर कुछ पद तक आपके पीछे
चलनेवाले, आपके समकालिक जीवनवाले हम लोग धन्य हैं ॥ ६॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to walk a few steps following your feet; which
are pious; which made this country sacred by their treading
on it, which are large, and tend to give refuge to the entire
mankind, frightened of the cycle of births and deaths. (6)
धन्या वयं ननु गुरो! भवतोऽतिलोकं
भास्वत्प्रभावलयितं तपसा कृशाङ्गम् ।
शान्तं चलं मह इवाप्रतिमं च साक्षात्
कर्तुं च रूपमनघं हि समानकालाः ॥ ७॥
हे गुरो! आपके लोकातिक्रम करनेवाले, सुदीप्त प्रभा से घिरे हुए,
तप से अत्यन्त कृशता को प्राप्त होनेवाले, गतिशील तेज के समान
प्रतीत होनेवाले, प्रतिमारहित अनघ आकृति का साक्षात्कार करने
का अवसर प्राप्त करनेवाले हम लोग आपके समानकाल में जीवन का
लाभ प्राप्त करने के कारण धन्य हैं ॥ ७॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we to have been your
contemporaries; to behold your holy form; which is non-earthly,
which is encircled with resplendent light, which is thin because
of penance, which is quiet and peaceful, which is like moving
light and which is indeed unique. (7)
धन्या वयं तव नु सन्निधिमात्रकेण
धन्या वयं तव हि दर्शनसेवनेन ।
धन्या वयं सदुपदेशविधेस्तवैव
त्वद्विप्रयोगवशतो नु वयं त्वधन्याः ॥ ८॥
हे गुरो! हम आपके सन्निधानमात्र से धन्य हैं, हम अपने अदृष्ट
के अनुसार दर्शन और सेवा दोनों अथवा कोई एक प्राप्त करके धन्य
हैं, हम आपकी उपदेश-विधि से धन्य हैं; क्योंकि आप जैसा
श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ उपदेशकर्ता गुरु उपदेशकर्ता के रूप में
प्राप्त है । हम किसी भी प्रकार से आपका वियोग होने पर ही अपनी
अधन्यता समझते हैं; क्योंकि उस समय हम गुरु के दर्शन,
पादस्पर्श, संलाप एवं सहवास आदि से सर्वदा के लिए वंचित हो
जायेंगे ॥ ८॥
O! Guru! Blessed, indeed, are we by your mere presence before
us; Blessed, indeed, are we by beholding you and serving you;
Blessed, indeed are we by your righteous discourses; But,
unfortunate, indeed, are we because of your seperation from us. (8)
इति धन्याष्टकं सम्पूर्णम् ।
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