श्रीसीताकृपाकटाक्षस्तोत्रम्

श्रीसीताकृपाकटाक्षस्तोत्रम्

मुनीन्द्रवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणि प्रसन्नवक्त्रपङ्कजे निकुञ्जभूविलासिनि । विदेहभूपनन्दिनि नृपेन्द्रसूनुसङ्गते कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ १॥ महामुनीश्वरों द्वारा वन्दित, त्रिभुवन के शोक का हरण करने वालीं, प्रसन्न मुखारविन्द वालीं, निकुंज मन्दिर में विलास करने वालीं श्रीचक्रवर्ति कुमार की संगिनी हे श्रीविदेहराज नन्दिनी जू ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र मुझे कब बनावेंगीं ? अशोकवृक्षवल्लरीवितानमण्डपस्थिते प्रवालजालपल्लवप्रभारुणाङ्घ्रिकोमले । वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ २॥ अशोक वृक्ष की लताओं के वितान मण्डप में विराजमान प्रवाल की लालिमा के समान अरुणारे, कोमल चरणकमल वालीं, सदैव अभय वरदान देने को जिनका कर कमल फड़कता रहता है, अनन्त सम्पत्ति की महामन्दिर हे श्री जू ! आप अपनी कृपा का पात्र मुझे कब बनावेंगी ? तडित्सुवर्ण चम्पक प्रदीप्त गौरविग्रहे मुखप्रभापरास्त कोटि शारदेन्दु मण्डले । विचित्र चित्र सञ्चरच्चकोर शाव लोचने कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ३॥ बिजली-सुवर्ण तथा चम्पा पुष्प के समान गौरांगी श्रीमुख की प्रभा से करोड़ों शरच्चन्द्रमाओं की शोभा को लज्जित करने वालीं विचित्र चित्रित वस्त्रालंकृत, चकोर बालिका के समान नेत्रों वालीं, हे श्री जू ! आप अपनी कृपा का पात्र हमको कब बनावेंगी ? अनङ्गरङ्गमङ्गलप्रसङ्गभङ्गुरध्रुवां (भङ्गुरध्रुवां) सुविभ्रमस्तु सम्भ्रमद् दृगन्तबाणपातनैः । निरन्तरं वशीकृतावधेशभूपनन्दने कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ४॥ मंगलमय अनंग रंग के प्रसंग पर चंचल चोखी चितवन से अवधेश नन्दन श्रीराम को निरन्तर अपने वशीभूत करने वालीं हे श्रीजू ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र हमको कब बनावेंगी ? मदोन्मदादियौवने प्रमोदमानमण्डिते प्रियानुरागरञ्जिते कलाविलासपण्डिते । अनन्यधन्यकुञ्जराजि कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ५॥ यौवन मदोन्माद से मण्डित, प्रमोद बढ़ाने वालीं, मान लीला में पण्डित, प्रियतम के अनुराग को बढ़ाने वालीं सरस हास विलास क्रीड़ा में परम चतुर, अनन्य प्रीति पूर्ण कामकेलि में अत्यन्त प्रवीण, हे श्री जू ! आप अपनी कृपा पूर्ण कटाक्ष का पात्र हमको कब बनावेंगी ? विशेषहावभाव धीरहीरहारभूषिते प्रभूतशात कुम्भ-कुम्भ कुम्भि कुम्भ सुस्तनि । प्रशस्तमन्दहास्यचूर्ण-पूर्णसौख्यसागरे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ६॥ विशेष हाव भाव सम्पन्न, परमधीर, हीरा रत्नों के हारों से सुशोभित, कंचन के कलश के समान हाथी के उन्नत मस्तक को लज्जित करने वाले सुन्दर स्तनों वालीं प्रसंशनीय मन्द हास्य करती हुईं, सुख सागर लहराने वाली हे श्री जू ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का भाजन हमको कब बनावेंगी ? मृणालबालवल्लरी तरङ्गरङ्गदोलिते लताग्रलास्यलोलनीललोचनाविलोकने । ललल्लुलन् मिलन्मनोजमुग्धमोहमाश्रये कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ७॥ कमल नाल के तन्तु जैसे सुकोमल, प्रेमरस तरंग के रंग से सुरंजित जिनकी भुजावली ललित लताओं के समान लावण्य सम्पन्न है, श्याम अंजन सी कजरारी सुन्दर नीली जिनकी आँखें हैं, जिनकी भाव भरी मधुर दृष्टि को देखकर प्रियतम विमुग्ध होकर मनोज के मोह में पड़ जाते है, ऐसी है श्री जू ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र हमको कब बनावेंगी ? सुवर्णमालिकाञ्चिते त्रिरेखकम्बुकण्ठके त्रिसूत्रमङ्गलीगुणत्रिरत्नदूरदीप्यते । सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ८॥ सोने की मालिका (कण्ठी) से सुशोभित, तीन रेखा युक्त शंख के समान सुन्दर ग्रीवा (कण्ठ) वालीं, मंगलसूत्र के तीन लड़ियों से अलंकृत जिनके तीनों रत्नों का दिव्य प्रकाश दूर से ही चमकता है, सुन्दर घुंघराली काली रत्न तथा पुष्पों से गूंथी हुई जिनकी वेणी है, ऐसी हे श्री जू ! अपनी कृपा का भाजन हमको कब बनावेंगी ? नितम्बबिम्बलम्बमानपुष्पमेखलागुणे प्रशस्तरत्नकिङ्किणीकलापमध्यमञ्जुले । करीन्द्रशुण्डदण्डिकावरोहशोभगौरके कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ९॥ पृथुल-नितम्बों पर किंकणी जाल से मंजुल बनी हुई रत्न जटित (करधनी) लहराती है तथा हाथी के सुण्ड के समान सुन्दर सुशोभित गौर जंघाओं वालीं, हे श्री जू ! अपनी कृपा का पात्र हमको कब बनावेंगी ? अनेकमन्त्रनादमञ्जुनूपुरारवस्खले सुराजराजहंसवंशनिःक्वणातिगौरवे । विलोलहेमवल्लरीविडम्बिचारुचङ्क्रमे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ १०॥ अनेक मंत्रों की मंजुल ध्वनि करने वाले जिनके चरण नूपुर है तथा राजहँस को भी लज्जित करने वाली जिनकी मधुर चाल है, हेमवल्लरी को भी लज्जित करने वाली जिनकी देह कान्ति है, ऐसी हे श्री जू ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र हमको कब बनावेंगी ? अनन्तकोटिविष्णुलोकनम्रपद्मजार्चिते हिमाद्रिजापुलोमजाविरञ्चिजावरप्रदे । अपारसिद्धिवृद्धिदिग्धसत्पदाङ्गुलीनखे कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ ११॥ अनन्त कोटि विष्णु लोक की लक्ष्मीजी जिनके चरणों की विनीत भाव से वन्दना करती हैं, पार्वतीजी-इन्द्राणीजी तथा सावित्रीजी को भी वरदान देने वाली सिद्धि ऋद्धि की वृद्धि करने वाली जिनके सुचारु चरणों की अंगुलियों की नखावली है, ऐसी है श्रीकिशोरीजी ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का भाजन हमको कब बनावेंगी ? मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी त्रिवेदभारतीश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी । रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी कदा करिष्यसीह मां कृपाकटाक्षभाजनम् ॥ १२॥ हे यज्ञेश्वरी ! हे क्रिया योगेश्वरी ! हे स्वाहा स्वधेश्वरी ! हे सुरेश्वरी ! हे तीनों वेद विद्याओं की ईश्वर ! हे प्रमाणेश्वरी ! हे शासनेश्वरी ! हे रमेश्वरी ! हे क्षमेश्वरी ! हे प्रमोदकाननेश्वरी ! आप अपनी कृपा कटाक्ष का भाजन हमको कब बनावेंगी ? इतीदमद्भुतस्तवं निशम्य भूमिनन्दिनी करोति सन्ततं जनं कृपाकटाक्षभाजनम् । भवत्यनेकसञ्चितं त्रिरूपकर्मनाशनं लभेत्तथा नरेन्द्रसूनु मन्दिरप्रवेशनम् ॥ १३॥ इस अद्भुत स्तोत्र को सुनकर श्रीभूमिनन्दिनी सर्वदा अपने शरणागत जन को अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र बनाती हैं । अनेक जन्मों के संचित पापों का नाश हो जाता है, त्रिगुणात्मक कर्म नष्ट हो जाते हैं तथा श्री राजेन्द्रकुमार श्रीरामजी के श्रीकनकभवन मन्दिर में प्रवेश होता है । तब इस प्रकार का स्तोत्र पाठ करने वाले हमको आप अपनी कृपा कटाक्ष का पात्र बनावेंगी । राकायां च नवम्यां च दशम्यां च विशुद्धधीः । एकादश्यां त्रयोदश्यां यः पठेत्साधकः सुधीः ॥ १४॥ यं यं कामयते कामं तं तं प्राप्नोति साधकः । सीताकृपाकटाक्षेण भक्तिः स्यात्प्रेमलक्षणा ॥ १५॥ पूर्णिमा को, नवमी को, दशमी को शुद्ध बुद्धि पूर्वक एकादशी को तथा त्रयोदशी को, जो कोई पवित्रान्तःकरण से इसका पाठ करता है, वह जो-जो चाहेगा वह प्राप्त हो जायेगा । तथा श्रीसीताजी के कृपा कटाक्ष से प्रभु के चरणों में प्रेम लक्षणा भक्ति उत्पन्न होती है । उरुदघ्ने नाभिदघ्ने हृदघ्ने कण्ठदघ्नके । सीताकुण्डे जले स्थित्वा यः पठेत्साधकः सतम् ॥ १६॥ तस्यसर्वार्थसिद्धिः स्यात् वाक्यसामर्थ्यमेव च । ऐश्वर्यं च लभेत्साक्षात् दृशापश्यतिजानकीम् ॥ १७॥ घुटन पर्यन्त, नाभिपर्यन्त, हृदय पर्यन्त तथा कण्ठपर्यन्त श्रीसीता-कुण्ड के जल में खड़ा होकर जो साधक १०८ बार इसका पाठ करेगा, उसके सभी मंगल मनोरथ पूर्ण होते है तथा वचन सिद्धि का समार्थ्य प्राप्त होता है । लोक में देव दुर्लभ परम ऐश्वर्य पाता है तथा इन्ही आँखों से श्रीकिशोरीजी का दर्शन प्राप्त कर लेता है । तेन सा तत्क्षणादेव तुष्टा दत्ते महावरम् । तेन पश्यति नेत्राभ्यां तत्प्रियं श्यामसुन्दरम् ॥ १८॥ नित्य लीला प्रवेशं च ददाति श्रीरघूत्तमः । अतः परतरं प्रार्थ्यं वैष्णवानां न विद्यते ॥ १९॥ अनन्त करुणामयी श्रीकिशोरीजी प्रसन्न होकर उसको वरदान देती हैं जिसके प्रभाव से प्राणप्रिय श्याम सुन्दर श्रीरामजी को इन आँखों से देखकर जीव कृतार्थ हो जाता है श्रीरघुनाथजी कृपा कर उसको नित्य लीला में प्रवेश करने का अधिकार प्रदान करते हैं, इससे बढ़कर श्रीवैष्णव को अन्य कुछ भी प्रार्थनीय पदार्थ है ही नहीं, ऐसा अति दुर्लभ तत्त्व रहस्य पाकर जीव धन्य हो जाता है । इति श्रीसीताकृपाकटाक्षस्तोत्रं सम्पूर्णम् । Encoded and proofread by Mrityunjay Rajkumar Pandey
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% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Mrityunjay Pandey
% Latest update         : July 4, 2024
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