गोविमर्शनम्

गोविमर्शनम्

ॐ श्रीगणेशाय नमः । नमो गोभ्यः । ॥ अथ गोविमर्शनम् ॥ ब्रह्मर्षिवन्दितां ब्राह्मीं राजर्षिपरिसेविताम् । देवाश्रयकृतां दिव्यां वेदानुमोदितां नुमः ॥ १॥ अनुवाद - ब्रह्मर्षि (वसिष्ठ जी) द्वारा पूजित, ब्रह्ममयी, राजर्षि (दिलीप जी) द्वारा सेवित, जिसको देवताओं ने अपना आश्रय बनाया, (अतः) जिसकी दिव्यता तथा ब्रह्मभाव वेदों द्वारा समर्थित है, उस दिव्य गौ माता को हम प्रणाम करते हैं ॥ १॥ पवित्रपांसुलां पूतां परितः पुण्यदर्शनाम् । इहामुत्र श्रियं वन्दे मातरं जगतामहम् ॥ २॥ अनुवाद - पवित्र धूलवाली, सब प्रकार से पुण्य दर्शन वाली, इस लोक तथा परलोक की लक्ष्मी तथा (सकल) जगत् की माता की मैं वन्दना करता हूँ ॥ २॥ अपवादः समानोऽत्र पिबन्त्येव पशोः पयः । गवां तु तत्र वैशिष्ट्यं येनासां मातृता मता ॥ ३॥ अनुवाद - दूध पीने मात्र हेतु से ही (गौ तथा महिषी आदि में मातृत्व प्रसक्त होना) समान रूप से दोषयुक्त है । परन्तु गायों में दूध देने के अतिरिक्त ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके फलस्वरूप मनुष्यों के लिए भी गाय का मातृत्व सुसम्मत है ॥ ३॥ ॐकारमथ हुंकारं व्याहरन्ती सुमङ्गला । गोमाता व्यक्तमाख्याता उमा अम्बा च रम्भणात् ॥ ४॥ अनुवाद - ॐकार तथा हुंकार का उच्चारण करने से गाय कल्याणमयी है। रम्भाने में ``उमा'' तथा ``अम्बा'' (मातृवाचक शब्दों) का स्पष्ट श्रवण होने से उसका मातृत्व स्पष्ट रूप से अभिहित है॥ ४॥ धर्मधात्री धरारूपा यज्ञयोग्यार्थदायिनी । गोमाता व्यक्तमाख्याता वत्सला च पयस्विनी ॥ ५॥ अनुवाद - पृथ्वीस्वरूपा गाय यज्ञोपयोगी पदार्थों को देने वाली है । अतः सनातन धर्म की धात्री (माता) है और वात्सल्य तथा दूध देने वाले भावों से भी गाय का मातृत्व स्पष्ट रूप से कह दिया गया है ॥ ५॥ बालाय चापि वृद्धाय रोगिणे योगिने हिता । गोमाता व्यक्तमाख्याता दुर्बलपक्षपोषणात् ॥ ६॥ अनुवाद - बालक, वृद्ध, रोगी तथा योगी (सब) का गाय हित करने वाली है । दुर्बल पक्ष का पोषण करने के कारण गाय का मातृत्व सुस्पष्ट ॥ ६॥ द्वित्राः शावकाः सन्ति स्तनौ द्वावेव केवलम् । नैव न्याय्यमजादुग्धं भावहिंसा न मातृता ॥ ७॥ अनुवाद - बकरी के केवल दो स्तन होते हैं और उसके शावक दो-तीन, इसलिए मनुष्यों को बकरी का दूध लेना न्याय्य नहीं है क्योंकि उससे भावहिंसा होती है । इसी भावहिंसा के कारण मातापन बकरी में प्रसारित नहीं होता ॥ ७॥ महिषी भावशून्या हि गावोऽन्या(१) न्यूनलक्षणाः । सास्नावती स्वत:पूर्णा पञ्चगव्यविधायिनी ॥ ८॥ अनुवाद - भैंस में मनुष्यों के लिए वात्सल्य भाव नहीं है और अन्य गायों में (नीलगाय या विदेशी गायों में) ब्राह्मी गायों के लक्षण की न्यूनता है । सास्ना (गलकम्बल) से युक्त गाय स्वतःपूर्ण होती है क्योंकि वह दूध, दही, घी और गोबर एवं मूत्ररूप पञ्चगव्य प्रदान करती है । (पञ्चगव्य ब्राह्मी गाय का ही होता है, अन्य कोटि की गायों का नहीं) ॥ ८॥ १.तथाऽन्या (पाठान्तर)। भुक्तं पीतं च यत्किञ्चित् पवित्रमुपजायते । शापवशान्मुखं दुष्टं नैष दोषो वसुन्धराम्(१) ॥ ९॥ अनुवाद - गाय जो कुछ खाती, पीती है वह पवित्र हो जाता है । शिव जी के शाप के कारण मुख अपवित्र होने पर भी पृथिवी रूपी गाय को यह दोष नहीं लगता ॥ ९॥ १. यह लुप्तक्रियाक कर्म है - ``वसुन्धरां दोषो न गच्छति ।'' बन्धनं ग्रन्थवच्चास्या हितायैवोपयुज्यते । विक्रयो ह्युपलब्ध्यर्थं देवसेवाप्रसादवत् ॥ १०॥ अनुवाद - गाय के हित के लिए गाय को बांध कर रखना वैसे ही उपयुक्त है जैसे ग्रन्थ को वस्त्र में बांधकर रखना । अभिलाषी को उपलब्ध कराने के लिए जैसे बदरीनाथ जी में पिण्ड का प्रसाद, जगन्नाथपुरी में कर्मचारियों को सेवा में मिला हुआ प्रसाद स्वत्व निवारण के लिए है वैसे ही अभिलाषी को प्राप्त कराने हेतु गाय की बिक्री कर सकते हैं ॥ १०॥ समं पयस्तु पुत्रेण विक्रेतव्यं न कर्हिचित् । कन्यापण्यं गवां पण्यं प्रथाप्यस्ति पुरातनी(२) ॥ ११॥ अनुवाद - ब्राह्मी गाय का दूध पुत्र के समान है । अतः दूध कदापि बेचना नहीं चाहिए । उपर्युक्त अवस्था के अतिरिक्त गाय का बेचना, कन्या के बेचने के समान निन्दनीय है ॥ ११॥ २. सनातनी (पाठान्तर)। अनुवाद - जहाँ गाय है वहाँ गङ्गा जी (भी) हैं तथा जहाँ गाय है वहाँ लक्ष्मी का भी निवास है, क्योंकि गोमूत्र में गङ्गा जी तथा गोबर में लक्ष्मी जी का निवास है ॥ १२॥ ब्रह्माद्या देवताश्चास्याः प्रतिष्ठाने(१) प्रतिष्ठिताः । पूजिता यत्र गावः स्युः देवतास्तत्र पूजिताः ॥ १३॥ अनुवाद - ब्रह्मादि सब देवता गाय के शरीर में प्रतिष्ठित हैं । अतः जहाँ गायों की पूजा होती है वहाँ देवता भी स्वयमेव पूजित हो जाते हैं ॥ १३॥ १. प्रत्यङ्गेषु (पाठान्तर)। यत्र गावः प्रसन्नाः स्युः प्रसन्नास्तत्र सम्पदः । यत्र गावो विषण्णाः स्युर्विषण्णास्तत्र सम्पदः ॥ १४॥ अनुवाद - जहाँ गाय प्रसन्न रहती है वहाँ सभी सम्पत्तियाँ प्रसन्न रहती हैं । जहाँ गायें दुःख पाती हैं, वहाँ सारी सम्पदायें दु:खी हो जाती हैं अर्थात् वह स्थान सम्पत्ति से शून्य हो जाता ॥ १४॥ ओजस्तेजश्च(२) राष्ट्रस्य भावना च पवित्रता । गौश्चापि भारतं वर्षं देशभक्तैर्विचार्यताम् ॥ १५॥ अनुवाद - गाय राष्ट्र का ओज, तेज, भावना तथा पवित्रता है । और तो क्या गाय (चलता फिरता) भारत ही है । देशभक्त (इस पर) विचार करें ॥ १५॥ २. तेजो हि (पाठान्तर)। श्रद्धया पूज्यतामद्य श्रद्धापूजास्वरूपिणी । गोपालानुचरन्तीयं भवतामस्तु कामधुक् ॥ १६॥ अनुवाद - गाय श्रद्धा तथा पूजा की मूर्ति है । (अतः वर्तमान काल में या विशेषतः गोपाष्टमी के दिन) श्रद्धा भक्ति से गाय की पूजा करनी चाहिए । कृष्ण भगवान् का अनुगमन करने वाली (या कृष्ण भगवान् जिसके पीछे चलते हैं) गाय माता आपके लिए कामधेनु बने (अर्थात् आपकी सकल कामनाओं को पूरा करे । यह गाय को श्रद्धा रूप से सेवा करने वाले भक्तों को श्री पूज्य बाबा जी का आशीर्वाद है) ॥ १६॥ ॥ इति मस्तरामबाबाविरचितं गोविमर्शनं सम्पूर्णम् ॥

गोविमर्शनम्

Govimarshanam ब्रह्मर्षिवन्दितां ब्राह्मीं राजर्षिपरिसेविताम् । देवाश्रयकृतां दिव्यां वेदानुमोदितां नुमः ॥ १॥ पवित्रपांसुलां पूतां परितः पुण्यदर्शनाम् । इहामुत्र श्रियं वन्दे मातरं जगतामहम् ॥ २॥ अपवादः समानोऽत्र पिबन्त्येव पशोः पयः । गवां तु तत्र वैशिष्ट्यं येनासां मातृता मता ॥ ३॥ ॐकारमथ हुंकारं व्याहरन्ती सुमङ्गला । गोमाता व्यक्तमाख्याता उमा अम्बा च रम्भणात् ॥ ४॥ धर्मधात्री धरारूपा यज्ञयोग्यार्थदायिनी । गोमाता व्यक्तमाख्याता वत्सला च पयस्विनी ॥ ५॥ बालाय चापि वृद्धाय रोगिणे योगिने हिता । गोमाता व्यक्तमाख्याता दुर्बलपक्षपोषणात् ॥ ६॥ द्वित्राः शावकाः सन्ति स्तनौ द्वावेव केवलम् । नैव न्याय्यमजादुग्धं भावहिंसा न मातृता ॥ ७॥ महिषी भावशून्या हि गावोऽन्या न्यूनलक्षणाः । सास्नावती स्वत:पूर्णा पञ्चगव्यविधायिनी ॥ ८॥ भुक्तं पीतं च यत्किञ्चित् पवित्रमुपजायते । शापवशान्मुखं दुष्टं नैष दोषो वसुन्धराम् ॥ ९॥ बन्धनं ग्रन्थवच्चास्या हितायैवोपयुज्यते । विक्रयो ह्युपलब्ध्यर्थं देवसेवाप्रसादवत् ॥ १०॥ समं पयस्तु पुत्रेण विक्रेतव्यं न कर्हिचित् । कन्यापण्यं गवां पण्यं प्रथाप्यस्ति पुरातनी ॥ ११॥ यत्र गौस्तत्र गङ्गापि यत्र गौस्तत्र वै रमा । गोमूत्रे संस्थिता गङ्गा गोमये कमलालया ॥ १२॥ ब्रह्माद्या देवताश्चास्याः प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठिताः । पूजिता यत्र गावः स्युः देवतास्तत्र पूजिताः ॥ १३॥ यत्र गावः प्रसन्नाः स्युः प्रसन्नास्तत्र सम्पदः । यत्र गावो विषण्णाः स्युर्विषण्णास्तत्र सम्पदः ॥ १४॥ ओजस्तेजश्च राष्ट्रस्य भावना च पवित्रता । गौश्चापि भारतं वर्षं देशभक्तैर्विचार्यताम् ॥ १५॥ श्रद्धया पूज्यतामद्य श्रद्धापूजास्वरूपिणी । गोपालानुचरन्तीयं भवतामस्तु कामधुक् ॥ १६॥ ॥ इति मस्तरामबाबाविरचितं गोविमर्शनं सम्पूर्णम् ॥
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% Author                : Mastarama Baba
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% Proofread by          : NA
% Indexextra            : (Source)
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