हनुमज्जागरणस्तुतिः
श्रीमत्पाटलिपुत्रनामनगरे गङ्गाम्भसाक्षालिते
श्रीकालीपटनेश्वरीविलसिते गौरीशिवाभ्यां युते ।
श्रीगोविन्दगुरोः समुद्भवपुरेऽशोकादिभूपैर्भूते
ब्राह्मः काल उपागतोऽस्ति हनुमन् जागृष्व नाथ प्रभो ॥ १॥
शोभा से भरे पाटलिपुत्र नामक नगर, जो गंगा की धारा से धुला हुआ है, जहाँ काली, पटनेश्वरी और गौरीशंकर विराजमान हैं, जो नगर गुरु श्री गोविन्द सिंह का जन्मस्थान है और अशोक आदि राजाओं से पालित है, उस नगर में ब्राह्म मुहूर्त आ गया है । हे हनुमान्, हे नाथ, हे प्रभो, आप जागें ।
हर्म्ये हाटककुम्भसंहतियुते शैलाग्रसङ्गञ्जने
तुङ्गेऽभ्रेँल्लिहमन्दिराग्रलसिते विद्युत्प्रभाशोभिते ।
सिन्दूरारुणिते सुरम्यखचिते रक्तोत्पलाभोपलै-
र्बाह्यः काल उपागतः कपिपते जागृष्व नाथ प्रभो ॥ २॥
आपका यह मन्दिर सोने के अनेक कलशों से युक्त है । इसका शिखर पर्वत की चोटी को भी धिक्कार रहा है । यह बहुत ऊँचा है । यह गगनचुम्बी शिवरों से युक्त है और बिजली की छटा से शोभित है । यह सिन्दूर के समान लाल है और लाल कमल के समान आभा लिए हुए पत्थरों से, सुन्दरता के साथ जड़ा हुआ है । हे कपिपति, हे नाथ, ब्राह्म मुहूर्त आ गया है आप जागें ।
पूर्वस्यां तपनागमं कलयितुं संसूच्यमाना वयः
वृक्षाग्रेषु गृणन्ति गाननिरता रात्रौ गतायां मुदा ।
घण्टादुन्दुभिझल्लकैर्मुखरिते श्रीशोभने मण्डपे
निद्रां मुञ्च रघूत्तमप्रियसखे वज्राङ्ग नाथ प्रभो ॥ ३॥
रात्रि के बीत जाने पर पूर्व दिशा में सूर्य के आगमन की सूचना देते हुए पक्षिगण वृक्षों की टहनियों पर गाते हुए स्तुतियाँ कर रहे हैं । घण्टा, नगाड़ा, झाल आदि की ध्वनि से गुजित चकमक करते हुए मन्दिर में हे रघुवर के प्रियसखा, हे बजरंगबली, आप निद्रा का त्याग करें ।
दैन्यं याति तमी तमोगुणवती नाथ प्रबुद्धे त्वयि
लङ्कादाहक मारुते कपिपते भीमेव रात्रिञ्चरी ।
रक्षोभूतगणाः प्रयान्ति विदिशः श्रुत्वा तवागर्जितं
निद्रां मुञ्च समुद्रलङ्घनपटो माङ्गल्यमूर्ते प्रभो ॥ ४॥
भयंकर राक्षसी के समान तमोगुण से भरी हुई रात्रि आपके जागने पर दीन-हीन हो जाती है । हे लंका को जलानेवाले, मरुत् के पुत्र, कपिपति, आपका गर्जन सुनकर राक्षस एवं भूत प्रेत आदि दूर देश भाग जाते हैं । हे समुद्र को लाँघने में कुशल, मंगलमूर्ति, हे प्रभो, आप निद्रा का त्याग करें ।
आनीतं सलिलं घटेषु सुभगं गङ्गादितीर्थाहृतं
कर्पूरागुरुचन्दनैः सुललितं स्निग्धं प्रभो शीतलम् ।
पाद्यार्थं तव वीर राक्षसकुलोच्छेदप्रवीण प्रभो
ब्राह्मे काल उपागते सुसमये भीतेञ्जगत्तारय ॥ ५॥
मैं सुन्दर कलशों में, गंगा आदि तीर्थों से लाया हुआ, कर्पूर, अगुरु, चन्दन से सुवासित, सुन्दर, स्निग्ध एवं शीतल जल आपके पैर धोने के लिए (पाद्य) लाया हूँ । हे वीर, राक्षसों के कुल का नाश करने में कुशल, हे प्रभो, इस ब्राह्म मूहूर्त के आने पर संसार को भयमुक्त करें ।
अष्टाङ्ग तिलकुङ्कमादिललितं चार्घ्य समायोजितं
पात्रे ताम्रमये कुशाग्रसहितं हस्तौ कुरु क्षालनम् ।
सन्नद्धे त्वयि सर्वशोकदलने रुद्रावतारे प्रभो
भीतिर्याति परां गतिं कपिपते जागृष्व नाथ प्रभो ॥ ६॥
ताम्र के पात्र में तिल, कुंकुम आदि आठ पदार्थों से ललित, कुशाग्र के साथ अर्घ्य (हाथ धोने के लिए जल) का भी मैंने आयोजन किया है । आप हाथ धोवें । हे रुद्रावतार, हे प्रभो, आप सभी प्रकार के शोक का अन्त करनेवाले हैं और जब तैयार हो जाते हैं तो भय का नाश हो जाता है । हे कपिपति, आप जागें ।
स्नानार्थं तुलसीदलेन सहितं सर्वौषधीभिर्युतं
कर्पूरेण सुवासितं च सलिलं श्रीखण्डपङ्कार्चितम् ।
सीताशोकविनाशकारण महावीर प्रभो स्वीकुरु
नित्यं कर्म समाप्य साधकमणे शीघ्रं जगत्पालय ॥ ७॥
हे महावीर, माता सीता का शोक दूर करनेवाले, हे प्रभो, स्नान के लिए सर्वोषधी एवं तुलसीदल से युक्त, कर्पूर से सुगन्धित, श्रीखण्ड चन्दन से महिमा मण्डित जल स्वीकार करें और हे साधकशिरोमणि, अपना नित्य कर्म सम्पन्न कर शीघ्र जगत् का पालन करें ।
श्रीमद्राघवपादपङ्कजयुगभृङ्ग स्वकीयं तनुः
बालार्कद्युतिशोभनं विलसितं सिन्दूरलिप्तं कुरु ।
लालित्येन च तेन विद्रुममणिप्रख्येन कालाज्जगत्
त्रायस्व प्रभुरामनामरटनासक्त प्रभो पाहि माम् ॥ ८॥
इति पण्डित भवनाथझा विरचिता हनुमज्जागरणस्तुतिः समाप्ता ।
श्रीमान् राघव के दोनों चरणकमलों पर लुब्ध भ्रमर, प्रातःकालीन सूर्य के समान शोभित और विलासपूर्ण अपने शरीर पर सिन्दूर का लेपन करें । मूँगा के समान ललित अपने शरीर की लालिमा से जगत् को कालिमा से रक्षित करें । प्रभु श्री राम के नाम को रटने में आसक्त, हे प्रभो, मेरी रक्षा करें ।
रचना एवं भाषान्तरकर्ता पण्डित भवनाथ झा ।
Composed and translated by Pandit Bhavnath Jha.
Encoded and proofread by Mrityunjay Pandey