प्रपत्तिदर्शनसूत्राणि
सूत्रः- अथातो प्रपत्ति व्याख्यास्याम् ॥ १॥
सत्रार्थ- अब प्रभुप्रपत्ति के रहस्यार्थ को कहा जा रहा है ।
सूत्रः- अज्ञ; प्रज्ञयोः मूलेच्छा एकैव भवति ॥ २॥
सूत्रार्थ- अज्ञानी और ज्ञानी के हृदय की मूल कामना एक ही होती है ।
सूत्रः- सा सुखेच्छा ॥ ३॥
सूत्रार्थ- वह है सुख की इच्छा ।
सूत्रः- आनन्दांशेन जातः ॥ ४॥
सूत्रार्थ- आनन्दमय परब्रह्म का अंश होने से अर्थात् आनन्दमय से प्रकट होने के कारण ।
सूत्रः- स किं त्रितापेन तपति ॥ ५॥
सूत्रार्थ- वह (जीव)क्यों त्रिताप से तपता रहता है?
सूत्रः- तस्यान्वेषणं मृग मरीचिकावत् ॥ ६॥
सूत्रार्थ- जीवों के सुख पाने का प्रयास मृग-मरीचिकावत् भ्रम स्वरूप है ।
सूत्रः- वेदार्थं मननीयम् ॥ ७॥
सूत्रार्थ- वेदार्थ का अनुसन्धान करके तदाकार हो जाना चाहिए ।
सूत्रः- वेदार्थं केन विजानीयात् ॥ ८॥
सूत्रार्थ- वेदार्थ किसके द्वारा जाना जाय?
सूत्रः- इतिहास पुराणाभ्याम् ॥ ९॥
सूत्रार्थ- इतिहास और पुराण वेदोपवृंहण हैं अतः वेद का अर्थ इन्हीं से निश्चय करना चाहिये ।
सूत्रः- उभयोर्मध्ये इतिहासः प्रबलः ॥ १०॥
सूत्रार्थ- दोनों में इतिहास श्रेष्ठ ठहरता है ।
सूत्रः- रामायणं महाभारतौ चेतिहासद्वयम् ॥ ११॥
सूत्रार्थ-रामायण और महाभारत दो इतिहास हैं ।
सूत्रः- उभयोरनयोः रामायणैव श्रेष्ठः ॥ १२॥
सूत्रार्थ- इन दोनों में श्रीमद् रामायण श्रेष्ठतर है ।
सूत्रः- रामायणोक्तं सीतायाः पुरुषकार वैभवं प्रसिद्धं अतो पुरुषकार समये के के गुणाः श्रीमपेक्षिताः ॥ १३॥
सूत्रार्थ- श्रीवाल्मीकि रामायण में कहा हुआ श्रीसीताजी का पुरुषकार वैभव प्रसिद्ध है अतः जिज्ञासा होती है कि पुरुषकार करने वाली श्रीसीताजी में कौन-कौन गुण अपेक्षित होकर रहते हैं, जिसके कारण श्रीसीताजी की कही हुई, कल्याण वार्ता को श्रवणकर, श्रीरामजी जीव-कल्याण में तत्पर हो जाते हैं ।
सूत्रः- कृपा पारतन्त्र्य अनन्यार्हत्वचापेक्षित गुणाः ॥ १४॥
सूत्रार्थ- पुरुषकार कार्य के लिये कर्ता में कृपा-पारतन्त्र्य और अनन्यार्हत्व गुण अपेक्षित हैं ।
सूत्रः- अपि च शमदमादयः ॥ १५॥
सूत्रार्थ- पुरुषकार कर्ता में शमदमादि गुणों का भी दर्शन होना आवश्यक है ।
सूत्रः- काय सम्पत्तिरपि समुद्रवत् ॥ १६॥
सूत्रार्थ- श्रीसीता जी में देह-वैभव के सिन्धु का सदा एक रस दर्शन होता रहता है ।
सूत्रः- उपदेशेन उभयोर्वशीकर्तुं समर्था ॥ १७॥
सूत्रार्थ- श्रीजानकी जी उपदेश के द्वारा ईश्वर और जीव इन दोनों को वश में करने के लिये समर्थ हैं ।
सूत्रः- ईश्वरं (रामं)स्वदेह-वैभवेन, जीवं कृपयाच ॥ १८॥
सूत्रार्थ- ईश्वर श्रीराम को स्वसौन्दर्य से और जीव को अहैतुकी कृपा से वश में करती है ।
सूत्रः- उभयोर्स्वातन्त्र्यं नश्यति ॥ १९॥
सूत्रार्थ- वश में करने से ईश-जीव का स्वातन्त्र्य नष्ट हो जाता है ।
सूत्रः- आचार्य मुखेन सीतायाः कार्यमेव ज्ञापितम् ॥ २०॥
सूत्रार्थ- आचार्य मुख से श्रीसीता जी का पुरुषकार कार्य ही जाना जाता है ।
सूत्रः- ईश्वरोपि पुरुषकारापेक्षितः ॥ २१॥
सूत्रार्थ- ईश्वर भी पुरुषकार अपेक्षित है ।
सूत्रः- रामे पुरुषकारत्वं श्रियां रक्षकत्वं न दृष्यते ॥ २२॥
सूत्रार्थ- श्रीराम जी में पुरुषकारत्व और श्रीसीता जी में रक्षकत्व का दर्शन नहीं होता ।
सूत्रः- पारतन्त्र्यं विनश्यति ॥ २३॥
सूत्रार्थ- श्रीसीता जी यदि रक्षक बन जाए तो उनका प्रभु-पारतन्त्र्य नष्ट हो जायगा ।
सूत्रः- अकिञ्चनत्व, आर्तित्व, अगतित्व, त्रयदशामाश्रित्य ईश्वर सन्निधौ तवास्मीति च याचनं अधिकारी कृत्यम् ॥ २४॥
सूत्रार्थ- अकिञ्चनत्व, आर्तित्व और अगतित्व के साथ, मैं आपका हूँ कहना प्रभु से, अधिकारी कृत्य है ।
सूत्रः- प्रभु-प्रवृत्ति-निवृत्ति-स्वप्रवृत्ति-निवृत्तिः प्रपत्तिः ॥ २५॥
सूत्रार्थ- श्रीराम जी की प्रवृत्ति का निरादर करने का अर्थात् न मानने का जो जीव का स्वभाव बन गया है, उसकी निवृत्ति हो जाना ही प्रपत्ति है ।
सूत्रः- प्रकर्षेणपत्तिः प्रपत्तिः ॥ २६॥
सूत्रार्थ- प्रकर्षतया प्रणम्य को प्रणाम करना प्रपत्ति है ।
सूत्रः- प्रति-पत्तिः प्रपत्तिः ॥ २७॥
प्रति सम्बन्धी (शारण्य)को सर्वसमर्पण पूर्वक प्रणाम करना प्रपत्ति कहलाती है ।
सूत्रः- प्रपतति प्रपत्तिः ॥ २८॥
सूत्रार्थ- अश्रु, शरीर और अहममादि का प्रभु-चरणों में गिर जाना प्रपत्ति है ।
सूत्रः- प्रपत्तिं न्यासोऽपि कथ्यते ॥ २९॥
सत्रार्थ- प्रपत्ति विद्या को न्यास विद्या भी कहते हैं ।
सूत्रः- गृह-रक्षकौ शरणमुच्यते ॥ ३०॥
सूत्रार्थ- गृह और रक्षक को शरण कहते हैं ।
सूत्रः- त्रिकरणेन त्रयः ॥ ३१॥
सूत्रार्थ- मनसा-वचसा और कर्मणा भेद से प्रपत्ति तीन प्रकार की होती है ।
सूत्रः- षड़ विधा शरणागतिः ॥ ३२॥
सत्रार्थः- शरणागति छः प्रकार की होती है ।
सूत्रः- अनुकूलस्य सङ्कल्पः ॥ ३३॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति का प्रथम अङ्ग प्रभु के अनुकूल रहने का सङ्कल्प है ।
सूत्रः- प्रतिकूलस्य वर्जनम् ॥ ३४॥
सुन्नार्थ- प्रपत्ति का दूसरा अङ्ग है प्रभु-प्रतिकूलता का त्याग ।
सूत्रः- रक्षिष्यतीति विश्वासः ॥ ३५॥
सूत्रार्थ- प्रभु हमारी रक्षा अवश्य करेङ्गे, ऐसा महाविश्वास प्रपत्ता के हृदय में होना चाहिये ।
सूत्रः- गोप्तृत्व वरणं तथा ॥ ३६॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति करने वाले को शारण्य से, अपनी रक्षा करने के लिये प्रार्थना करनी चाहिये ।
सूत्रः- आत्म-निक्षेपम् ॥ ३७॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन को शारण्य के चरणों में आत्मसमर्पण कर देना ही शरणागति है ।
सूत्रः- कार्पण्यम् ॥ ३८॥
सूत्रार्थ- शरणागति काल में शारण्य के सम्मुख अपनी कार्पण्यता निवेदन करनी चाहिये ।
सूत्रः- देश नियमोनास्ति ॥ ३९॥
सूत्रार्थ- शरणागति के लिये कोई देश-विशेष का नियम नहीं है ।
सूत्रः- प्रपत्तेः कालस्यापि ॥ ४०॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति करने के लिये कोई काल विशेष का भी नियम नहीं है ।
सूत्रः- नैवनियमोऽधिकारिणः ॥ ४१॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति करने वाले अधिकारी के लिये भी कोई नियम नहीं है ।
सूत्रः- अज्ञ-प्रज्ञ भक्ताश्च ॥ ४२॥
सूत्रार्थ- अज्ञानी-विज्ञानी एवं भक्ति प्रिय भक्तादि, सभी भगवत प्रपत्ति कर सकते हैं ।
सूत्रः- न शुद्धिरपेक्षिता ॥ ४३॥
सूत्रार्थ- शुद्धयाशुद्धि का भी कोई नियम नहीं है, प्रपत्ति समय में ।
सूत्रः- फल नियमोऽपि नास्ति ॥ ४४॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति करने के फल का भी कोई नियम नहीं है ।
सूत्रः- प्रपत्ति-धर्मैव प्रपत्तेर्नियमः ॥ ४५॥
सूत्रार्थ- प्रपतति धर्म के अनुसार स्थिति अपनाना ही प्रपत्ति का नियम है ।
सूत्रः- न कोऽपि प्रायश्चितो प्रपत्तेः ॥ ४६॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति भ्रष्ट होने पर उसका कोई प्रायश्चित नहीं है ।
सूत्रः- स्वयमेव प्रपत्तिरस्ति ॥ ४७॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति-पथ के पथिक को पथ-भ्रष्ट हो जाने पर पुनः प्रपत्ति-पथ को अपना लेना उसका प्रायश्चित है ।
सूत्रः- ममेति चाहंञ्चानुरक्तिरशुद्धिः ॥ ४८॥
सूत्रार्थ- अहं और मं तथा इनके कार्यों में अनुरक्ति होना प्रपत्ति की अशुद्धि है ।
सूत्रः- उपायेनापि स्वीकारा प्रपत्तिः अशुद्धाभवति ॥ ४९॥
सूत्रार्थ- उपायतया स्वीकार करने से भी सिद्ध-साधन प्रपत्ति में अशुद्धि आ जाती है ।
सूत्रः- प्रपत्तिः अधिकारं कथयति ॥ ५०॥
सूत्रार्थ- शरणागति यह बतलाती है कि, हे शारण्य ! यह शरणागत रक्षा पाने का अधिकारी है ।
सूत्रः- प्रपत्तिः स्वरूपं प्रकाशयति ॥ ५१॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति चेतन के स्वरूप को प्रकाश में लाती है ।
सूत्रः- अयमात्मा ब्रह्मदासः श्रुतिर्वदति ॥ ५२॥
सूत्रार्थ- यह जीवात्मा परमोत्मा का दास है, ऐसा श्रुति का सिद्धान्त है ।
सूत्रः- रक्षकत्वेननावलम्बनीयानि साधनान्तराणि ॥ ५३॥
सूत्रार्थ- साधननान्तरों को रक्षक मानकर अवलम्बन नहीं लेना चाहिये शरणागत को ।
सूत्रः- सर्वधर्ममयी प्रपत्तिः ॥ ५४॥
सूत्रार्थ- शरणागति सर्व धर्ममय है ।
सूत्रः- द्वयमन्त्रोच्चारण कर्मणा युक्तम् ॥ ५५॥
सूत्रार्थ- द्वयमन्त्र के उच्चारण रूप कर्म योग से युक्त है, प्रपत्ति ।
सूत्रः- अर्थ पञ्चक ज्ञानैनापियुक्तम् ॥ ५६॥
सूत्रार्थ- अर्थ पञ्चक ज्ञान से प्रपत्ति सर्वथा युक्त है ।
सूत्रः- भक्तिरपि दृश्यते ॥ ५७॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति में भक्ति का भी पूर्ण दर्शन होता है ।
सूत्रः- योगः पदे पदे ॥ ५८॥
सूत्रार्थ- अष्टाङ्ग योग तो प्रपत्ति परक मन्त्र में पद-पद में दिखाई देता है ।
सूत्रः- न सहते साधनान्तराणि ॥ ५९॥
सूत्रार्थ- शरणागति अन्य उपायों को नहीं सहती, उपाय रूप में ।
सूत्रः- सर्वलोक शारण्योपि भविष्य कालं न सहते ॥ ६०॥
सूत्रार्थ- सर्वलोक शारण्य, शरणागत को फल देने के समय भविष्य काल को नहीं सहते ।
सूत्रः- प्रपत्तिर्ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ ६१॥
सूत्रार्थ- सिद्ध साधन शरणागति मुमुक्षु के द्वारा ग्राह्य है ।
सूत्रः- सकृदेव, भगवद् वाक्यम् ॥ ६२॥
सूत्रार्थ- भगवद्वाक्य के अनुसार एक बार की हुई शरणागति ही फल प्रदान करने में पर्याप्त है ।
सूत्रः- इष्टप्रीतेर्वशात् पुनर्पुनः ॥ ६३॥
सूत्रार्थ- अपने आराध्य की प्रीति के वश में होकर बार-बार शरणागति की जा सकती है ।
सूत्रः- अन्तराय हानि हेतुत्वादपि ॥ ६४॥
सूत्रार्थ- शारीरिक और मानसिक विध्न उपस्थित न हो इसलिये भी बारबार प्रपत्ति की जा सकती है ।
सूत्रः- कालक्षेपाय ॥ ६५॥
सूत्रार्थ- कालक्षेप के लिये भी शरणागति मन्त्र बार-बार उच्चारण किया जा सकता है ।
सूत्रः- नासमर्थात् सा स्वरूपत्वात् ॥ ६६॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति स्वरूपानुकूल होने से ग्रहणीय है न कि साधनों की असमर्थता से ।
सूत्रः- असमर्पितस्य कुतः प्रेमसुखम् ॥ ६७॥
सूत्रार्थ- प्रेमास्पद को सर्व समर्पण किये बिना प्रेम सुख अति दुर्लभ है ।
सूत्रः- मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्न्ना ॥ ६८॥
सूत्रार्थ- प्रत्येक व्यक्तियों की बुद्धि भिन्न-भिन्न होती है ।
सूत्रः- बहवः प्रकाराः ॥ ६९॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति अन्य साधनों से बहुत प्रकार से श्रेष्ठ है ।
सूत्रः- अतो कर्म ज्ञान भक्ति योगेभ्योऽपि प्रपत्तिरेव सर्व श्रेष्ठा सर्वे वदन्ति ॥ ७०॥
सूत्रार्थ- सभी शास्त्र-पुराण-इतिहास और सन्तजन प्रपत्ति को सर्वश्रेष्ठ बतलाते हैं ।
सूत्रः- नार्धक्षणमपि पृथक भूता भवति ॥ ७१॥
सूत्रार्थ- श्री जी भगवान से एक क्षण के लिये भी एथक नहीं होतीं ।
सूत्रः- सीताविशिष्टोरामःः प्रपत्त्यर्थाय ॥ ७२॥
सूत्रार्थ- सीता शक्ति से सम्प्रोत श्रीराम जी प्रपत्ति-पथ के सिद्धि के लिये ही हैं ।
सूत्रः- अर्चावतारे प्रपत्तिः स्वीकार्या ॥ ७३॥
सूत्रार्थ- सदाचार्यों, श्रुतियों और शास्त्रों से अर्चावतार में प्रपत्ति करना स्वीकार है ।
सूत्रः- तस्मिन् पूर्णात् पूर्णाः कल्याणगुणगणाः ॥ ७४॥
सूत्रार्थ- क्योकि अर्चा भगवान में सम्पूर्ण दिव्य कल्याण गुणगण विद्यमान है ।
सूत्रः- सौलभ्येन श्रेष्ठः ॥ ७५॥
सूत्रार्थ- सर्व सौलभ्य गुण के द्वारा तो पर, व्यूहादि से भी श्रेष्ठ है ।
सूत्रः- भक्त पारतन्त्र्यमपि ॥ ७६॥
सूत्रार्थ- भक्ताधीन सतत रहने के कारण भी सर्वश्रेष्ठ है ।
सूत्रः- क्षमया पृथ्वी समः ॥ ७७॥
सूत्रार्थ- अर्चा भगवान क्षमा में पृथ्वी के सदृश हैं अतः सर्वश्रेष्ठ हैं ।
सूत्रः- (तस्मिन)अक्रोधः ॥ ७८॥
सूत्रार्थ- अर्चावतार में स्थायी अक्रोध का दर्शन होता है ।
सूत्रः- नाशक्तिकः ॥ ७९॥
सूत्रार्थ- अर्चा भगवान अशक्तिक अर्थात् शक्तिहीन नहीं हैं ।
सूत्रः- एवं सर्वेगुणाः आश्रयन्ति ॥ ८०॥
सूत्रार्थ- इस प्रकार सभी दिव्य कल्याण गुण अर्चा विग्रह का आश्रय लिये हैं ।
सूत्रः- स अज्ञ तज्ञाभ्याँ शारण्यः ॥ ८१॥
सूत्रार्थ- अर्चा भगवान ज्ञानी-अज्ञानी दोनों के सर्वभावेन रक्षक हैं ।
सूत्रः- स्वयं व्यक्त-दैव-सैद्ध-मानुषाः प्रकाराः ॥ ८२॥
सूत्रार्थ- अर्चा विग्रह स्वयं व्यक्त-दैव, सैद्ध और मानुष भेद से चार प्रकार के होते हैं ।
सूत्रः- ब्रह्म प्राप्तेर्जिज्ञासा ॥ ८३॥
सूत्रार्थः- प्रथम तो अधिकारी के हृदय में ब्रह्म-प्राप्ति की इच्छा होनी चाहिये ।
सूत्रः- सदाचार्य वरणम् ॥ ८४॥
सूत्रार्थ- ब्रह्म जिज्ञासा के पश्चात् सद्गुरु वरण करना चाहिये ।
सूत्रः- गुरुणा पञ्च संस्कारैः संस्कृतः ॥ ८५॥
सूत्रार्थ- सदाचार्य के द्वारा पञ्च संस्कारों से संस्कृत होने का विधान है ।
सूत्रः- ऊर्ध्वपुण्ड्र धराः सर्वे प्रपत्तिपथानुगामिनः ॥ ८६॥
सूत्रार्थ- शरणागत सभी चेतन ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक धारण कर प्रथम संस्कार से संस्कृत होते हैं ।
सूत्रः- तुलसिका दाम कण्ठः ॥ ८७॥
सूत्रार्थ- शरणागत वैष्णव का कण्ठ में तुलसी की माला धारण करने वाला दूसरा संस्कार होता है ।
सूत्रः- धनुर्बाणाङ्किताश्च बाहुमूले ॥ ८८॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति कर्ता वैष्णव के धनुर्बाणादि रामायुध से बाहुमूल को अङ्कित करना तीसस संस्कार होता है ।
सूत्रः- रहस्य त्रयोपदेशः ॥ ८९॥
सूत्रार्थ- शरणागत वैष्णव को रहस्य त्रय मन्त्रों का उपदेश आचार्य से प्राप्त करना चतुर्थ संस्कार होता है ।
सूत्रः- मन्त्रे हस्तगते तद्देवो हस्तगतः ॥ ९०॥
सूत्रार्थ- रहस्यत्रय मन्त्र के हस्तगत होने पर मन्त्र के देवता हस्तगत हो जाते हैं ।
सूत्र- भगवन्नाम पूर्वक दासान्त नामधेयम् ॥ ९१॥
सूत्रार्थ- सदाचार्य शरणागत वैष्णव को भगवन्नाम पूर्वक दासान्त नाम देते हैं ।
सूत्रः- रहस्य त्रयार्थस्योपदेशः ॥ ९२॥
सूत्रार्थ- पुनः सदाचार्य शिष्य की जिज्ञासा व योग्यता देखकर, अधिकारी शिष्य को रहस्यत्रय के अर्थ का उपदेश करते हैं ।
सूत्रः- ब्रह्म सम्बन्धेन शिष्यान् बन्धयति ॥ ९३॥
सूत्रार्थ- सद्गुरु शिष्य की प्रीति-प्रतीति की परीक्षा कर, रसानुभूति के लिये उसको ब्रह्म-सम्बन्ध से सम्बन्धित करते हैं ।
सूत्रः- प्रभु प्रपत्तिं कृत्वा शिष्यगुणान् वर्धयति ॥ ९४॥
सूत्रार्थ- कृपामूर्ति आचार्य ईश्वर की शरणागति (प्रार्थना)कर करके शिष्य के सद्गुणों का वर्द्धन करते हैं ।
सूत्रः- सर्व समर्थोऽपि आकिञ्चनत्वं धारयति ॥ ९५॥
सूत्रार्थ- सदाचार्य सर्व समर्थ होते हुये भी, अपने को सदा आकिञ्चनत्व के आसन पर आसीन कराये रहते हैं ।
सूत्रः- न हानिः न न्यूनः ॥ ९६॥
सूत्रार्थ- आचार्याभिमान से न कोई हानि है और न अन्योपायो से वह कम ही है ।
सूत्रः- पूर्ण परब्रह्मवत् आचार्य स्वरूपः ॥ ९७॥
सूत्रार्थ- आचार्य का स्वरूप पूर्ण परब्रह्म के स्वरूप से भिन्न नहीं है ।
सूत्रः- ईश्वरः कर्मफलप्रदानायोन्मुखः आचार्यः मोक्षप्रदातुमुन्मुखः ॥ ९८॥
सूत्रार्थ- ईश्वर जीवों के कर्मानुसार फल देने वाले हैं किन्तु आचार्य सभी जीवों को मोक्ष मार्ग में चलाने वाले हैं ।
सूत्रः- ईश्वरादज्ञानस्याप्युत्पत्तिः न तु आचार्यात् ॥ ९९॥
सूत्रार्थ- ईश्वर से अज्ञान की भी उत्पत्ति होती है किन्तु आचार्य से नहीं, वे मात्र ज्ञान-किरणों को ही बिखेरते हैं ।
सूत्रः- आचार्य तृषार्तानां हस्तगतं जलमिव नं तु ईश्वर ॥ १००॥
सूत्रार्थ- प्यासे के लिये आचार्य हस्तगत स्वर्ण कलशी के मधुर जल के समान है किन्तु ईश्वर नहीं ।
सूत्रः- मुमुक्षूणामाचार्यम्परित्य मात्र भगवदाश्रयोऽपि हस्तगतञ्जलं त्यक्त्वा वरण जलेच्छावत् ॥ १०१॥
सूत्रार्थ- आचार्य को छोड़कर मात्र भगवदाश्रय भी मुमुक्षुओं के लिये हस्तगत जल को छोड़कर प्यास बुझाने के लिये प्रकृति पार विरजाजी के जल की इच्छा करना है ।
सूत्रः- दृष्वस्तुराचार्यः तस्माददृष्ट वस्तुरीश्वरः ॥ १०२॥
सूत्रार्थ- इसलिये कि आचार्य दृष्ट पथ की वस्तु है और ईश्वर अदृष्ट है ।
सूत्रः- स्वर्ण च स्वर्णालङ्कार मिव ॥ १०३॥
सूत्रार्थ- स्वर्ण और स्वर्णालङ्कार की भाँति आचार्य और ईश्वर को शरणागत चेतन जानता है ।
सूत्रः- यो आचार्यवान्नास्ति स ईश्वराप्रियः ॥ १०४॥
सूत्रार्थ- जो आचार्यवान नहीं है, वह ईश्वर को प्रिय नहीं लगता ।
सूत्रः- वारि विहीनं कमलं रविर्न पोषयति तेजेन शोषयति ॥ १०५॥
सूत्रार्थ- जल बिहीन कमल को सूर्य पोषण नहीं करते उलटे जला डालते हैं ।
सूत्रः- अतः आचार्य वरणं परमेश्वराभिमतम् ॥ १०६॥
सूत्रार्थ- अतः आचार्य वरण करना, परमेश्वर को अभिमत है ।
सूत्रः- न दोष-स्पर्शः ॥ १०७॥
सूत्रार्थ- आचार्याभिमानी को, भगवान को रक्षक न मानने का दोष-स्पर्श नहीं करता ।
सूत्रः- आचार्याभिमानम्वश्यमेव कार्यम् ॥ १०८॥
सूत्रार्थ- आचार्याभिमान रूप पञ्चमोपाय अवश्यमेव ग्रहणीय है ।
सूत्रः- आचार्याभिमानिनां गुरुरेव गतिः ॥ १०९॥
सूत्रार्थ- आचार्याभिमानी की परमगति सदगुरु ही होते हैं ।
सूत्रः- भगवत् कैङ्कर्यमपि आचार्य मुखोल्लासार्थम् ॥ ११०॥
सूत्रार्थ- आचार्य-परायण वैष्णव का भगवत्-कैङ्कर्य भी आचार्य की प्रसन्नता के लिये होता है ।
सूत्रः- आचार्याभिमानिनं सर्वभावेन भगवद्-प्रसादस्य प्राप्तिर्भवति ॥ १११॥
सूत्रार्थ- आचार्य-परायण प्रपत्ता को सर्वभावेन भगवान की पूर्णकृपा प्रसाद की प्राप्ति होती है ।
सूत्रः- सर्व-प्रियोभवति ॥ ११२॥
सूत्रार्थ- आचार्य को सर्वस्व समझने वाला वैष्णव, सबका प्रिय बन जाता है ।
सूत्रः- एकैव धर्माचारः परस्परं परमा प्रीतिः ॥ ११३॥
सूत्रार्थ- आचार्य को सर्वस्व मानने वाले तथा भगवान को मानने वाले दोनों भक्तों में परस्पर प्रीति और दोनों की धर्मचर्या एक ही होती है ।
सूत्रः- भगवतः सौन्दर्यादिकाय सम्पत्तयः कल्याण गुणगणाश्चावरोधयन्ति ॥ ११४॥
सूत्रार्थ- भगवान के सौन्दर्यादि देह-वैभव और दिव्य गुणगण आचार्याभिमान में अवरोध करते हैं ।
सूत्रः- आचार्य-देह वैभवः मनुष्यवत् गुणाः ईश्वरवत् ॥ ११५॥
सूत्रार्थ- आचार्य देह का वैभव मनुष्य की तरह तथा दिव्य गुण-गण ईश्वर की भाँति होते हैं ।
सूत्रः- सुलभो भगवदनुरक्तिर्नाचार्यस्य ॥ ११६॥
सूत्रार्थ- भगवान की आनुरक्ति सुलभ है किन्तु आचार्य की कठिन है ।
सूत्रः- भगवद्गुण स्मरणेन भव प्रीतिर्विनश्यति ॥ ११७॥
सूत्रार्थ- भगवान के गुणों का स्मरण करने से, संसार की आसक्ति छूट जाती है ।
सूत्रः- ईश्वरं त्यक्त्वा आचार्य प्रीतिर्दुर्लभा ॥ ११८॥
सूत्रार्थ- ईश्वर की प्रीति को छोड़कर, आचार्य की प्रीति होना दुर्लभ है ।
सूत्रः- भगवदनुग्रहेण साध्यमस्ति ॥ ११९॥
सूत्रार्थ- हाँ ! भगवत् कृपा से आचार्य प्रीति ससुलभ हो सकती है ।
सूत्रः- सदगुरु प्राप्तिरपि दुर्लभा ॥ १२०॥
सूत्रार्थ- प्रीति की बात कौन कहे, सद्गुरु की प्राप्ति भी दुर्लभ है ।
सूत्रः- भगवदनुकम्पयाचार्य लाभः ॥ १२१॥
सूत्रार्थ- भगवत-कृपा-प्रसाद से ही आचार्य का लाभ होना कहा गया है ।
सूत्रः- शतपुत्र समः शिष्यः ॥ १२२॥
सूत्रार्थः- सच्छिष्य, सद्गुरु को शत पुत्रों के समान प्रिय होता है ।
सूत्रः- आचार्यस्योपकारं स्मृत्वा शिष्यः प्रत्युपकारं कर्तुमसमर्थः ॥ १२३॥
सूत्रार्थ- आचार्य श्री के किये हुये उपकार को स्मरण करके प्रत्युपकार करने के लिये शिष्य सर्वथा असमर्थ होता है ।
सूत्रः- शिष्योपि सेवया सद्गुरुं तोषयति ॥ १२४॥
सूत्रार्थ- सच्छिष्य भी अपने समर्पण व सेवा से सद्गुरु को प्रसन्न रखता है ।
सूत्रः- अहं शून्यः गुरोरङ्गं स्वकं स्मरति ॥ १२५॥
सूत्रार्थ- अहं रहित शिष्य अपने को आचार्य का अङ्ग जानता है ।
सूत्रः- अहम्ममाभावादेवं गुरुचर्या प्रभावात् गुरु रूपो भवति ॥ १२६॥
सूत्रार्थ- अहं और मम के अभाव एवं गुरु-सेवा के प्रभाव से शिष्य गुरु रूप हो जाता है ।
सूत्रः- तस्मादाचार्यापचारः कदापि न करणीयम् ॥ १२७॥
सूत्रार्थ- महोपकारक आचार्य का परिभव कभी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- शरणागतं प्रपन्नं द्वयोः सर्वप्राप्तिर्भवति ॥ १२८॥
सूत्रार्थ- शरणागत प्रपन्न को गुरुदेव और ईश्वर का सर्वस्व प्राप्त हो जाता है ।
सूत्रः- स निश्चिन्त्यतोभवति ॥ १२९॥
सूत्रार्थः- प्रपन्न वैष्णव प्रपत्ति के प्रभाव से निश्चिन्त हो जाता है ।
सूत्रः- द्वन्दातीतो भवति ॥ १३०॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न द्वन्द्वातीत हो जाता है ।
सूत्रः- आत्मारामो भवति ॥ १३१॥
सूत्रार्थ- शरणागत वैष्णव आत्माराम हो जाता है ।
सूत्रः- भगवति प्रेम लक्षणा भक्तिर्प्रजायते ॥ १३२॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति स्वरूप में स्थित होने से प्रपन्न के हृदय में प्रेम लक्षणा भक्ति उत्पन्न हो जाती है ।
सूत्रः- स श्री स्वरूपो भवेज्जनः ॥ १३३॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति स्वरूप में स्थित होकर, प्रपन्न श्रीस्वरूप हो जाता है ।
सूत्रः- स रामाकारो भवेत् ॥ १३४॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ता, प्रपत्ति स्वरूप में स्थित होकर रामाकार हो जाता है ।
सूत्रः- आयान्ति सर्वे भागवद्धर्माः तस्यहृदयाकाशे ॥ १३५॥
सूत्रार्थ- शरणागत वैष्णव के हृदयाकाश में सम्पूर्ण भागवत-धर्म आकर अपना निवास बना लेते हैं ।
सूत्रः- सर्व वत्वा प्रपन्नाय ईश्वरोऽपि परमः प्रसन्न ॥ १३६॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न को भगवान भी अपना सर्वस्व देकर ही परम प्रसन्न होते हैं ।
सूत्रः- लोकेऽपि सुखं दत्वा सुखी भवति ॥ १३७॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न भक्त को लोक की सुख-सामग्रियाँ देकर सुखी होते हैं ।
सूत्रः- प्रपत्ति कर्तृणां दोषं स्वदोषं गणयति ॥ १३८॥
सूत्रार्थ- शरणागति करने वालों के किये हुये दोष को भगवान अपना समझते हैं ।
सूत्रः- भगवत् प्रसादात् कैङ्कर्य प्राप्तिर्भवति ॥ १३९॥
सूत्रार्थ- भगवान के कृपा प्रसाद से ही भगवत् कैङ्कर्य की प्राप्ति होती है ।
सूत्रः- स्वाङ्कमपि ददातीश्वरः ॥ १४०॥
सूत्रार्थ- शरणागत वत्सल भगवान, शरणागत को अपनी गोद में बैठा कर प्यार करते हैं ।
सूत्रः- सेवया ईश्वरस्य विकसित मुखाम्भोजैव शरणागतस्य परं भोगः ॥ १४१॥
सूत्रार्थ- अपनी सेवा से प्रभु-विकसित मुखाम्भोज ही शरणागत दास का परमभोग्य है ।
सूत्रः- भगवच्चरणार्विनदैवाश्रयः ॥ १४२॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन के परमाश्रय श्री भगवान के युगल चरणार्विन्द ही हैं, अन्य नहीं ।
सूत्रः- हस्तकमलमभयं ददातीश्वरस्य ॥ १४३॥
सूत्रार्थ- ईश्वर का हस्तकमल शरणागत के लिये अभयकारी होता है ।
सूत्रः- देहात्म चिन्ता प्रपत्तिं नाशयति ॥ १४४॥
सूत्रार्थ- समर्पित शरणागत चेतन की, की हुई देह व आत्मा की चिन्ता प्रपत्ति को नष्ट कर देती है ।
सूत्रः- अभिमानोऽपि प्रपत्तिं नाशयति ॥ १४५॥
सूत्रार्थ- शरणागत का किया हुआ किसी प्रकार का अभिमान प्रपत्ति स्वरूप को भ्रष्ट कर देता है ।
सूत्रः- देहाभिमानः ॥ १४६॥
सूत्रार्थ- देह में आत्म-बुद्धि होना देहाभिमान कहलाता है ।
सूत्रः- स्वरूपाभिमानः ॥ १४७॥
सूत्रार्थ- परमात्मा के स्वरूप के भीतर अपना स्वरूप न देखना स्वरूपाभिमान कहलाता है ।
सूत्रः- उपायाभिमानः ॥ १४८॥
सूत्रार्थ- भगवत्-कृपा को उपाय न मानकर, अन्य उपायों का आलम्बन उपायाभिमान कहलाता है ।
सूत्रः- उपेयाभिमानः ॥ १४९॥
सूत्रार्थ- उपेयाभिमान भगवत-कैङ्कर्य-परायण शरणागत चेतन मे नहीं होना चाहिये ।
सूत्रः- कर्तृत्वाभिमानः ॥ १५०॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति परायण चेतन में कर्तापन का अभिमान नहीं होना चाहिये ।
सूत्रः- ज्ञातृत्वाभिमानः ॥ १५१॥
सूत्रार्थ- ज्ञातापन का अभिमान भी प्रपन्न में नहीं रहना चाहिये ।
सूत्रः- भोक्तृत्वाभिमानः ॥ १५२॥
सूत्रार्थ- भोक्तापन के अभिमान को भी त्यागना चाहिये ।
सूत्रः- अकृतकरणं वर्जनीयम् ॥ १५३॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न को अविहित कर्म त्यागने योग्य हैं ।
सूत्रः- भगवदपचारः न करणीयः ॥ १५४॥
सूत्रार्थ- भगवदाश्रय ग्रहण करने वाले को भगवदपचार भूलकर भी नहीं करनी चाहिये ।
सूत्रः- भागवतापचारोऽपि न कर्तव्यः ॥ १५५॥
सूत्रार्थ- भगवदाश्रयी को भगवान के अङ्गभूत भक्तों का अपचार कभी भी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- असह्यापचारोऽतिक्रूरः ॥ १५६॥
सूत्रार्थ- असह्यापचार तो अति क्रूर होता है, अतः इससे बचना चाहिये ।
सूत्रः- अन्याश्रय निषेधः ॥ १५७॥
सूत्रार्थ- भगवदाश्रय के अतिरिक्त अन्य का आश्रय नहीं करना चाहिए ।
सूत्रः- समर्पण-विरोधि-कार्य न करणीयम् ॥ १५८॥
सूत्रार्थ- समर्पण-विरोधी आचरण भूलकर भी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- साधन विरोधी न मपि ॥ १५९॥
सूत्रार्थ- सिद्ध साधन शरणागति के विरोधी कार्य को कदापि न करे ।
सूत्रः- अन्यदेवालम्बनं त्याज्यम् ॥ १६०॥
सूत्रार्थ- अन्य देवालम्बन भी त्याज्य है ।
सूत्रः- प्राप्य विरोधी सर्वथैव त्याज्यः ॥ १६१॥
सूत्रार्थः- प्रपत्ति के द्वारा परम प्राप्य के विरोधी वर्ग को सर्वथा त्याग देना चाहिये ।
सूत्रः- शेष भूतोस्म्यहं तव (भगवतः)॥ १६२॥
सूत्रार्थ- हे पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम यह दास आपका शेष है ।
सूत्रः- अखण्डोच्चारणात् ॥ १६३॥
सूत्रार्थ- अखण्ड शरणागति मन्त्रों के उच्चारण से प्रपत्ति स्वरूप की सिद्धि होती है ।
सूत्रः- भगवद् भोग्योऽस्मि ॥ १६४॥
सूत्रार्थ- यह दास, परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामजी का भोग्य है, अन्य का व अपना नहीं ।
सूत्रः- रक्ष्योऽस्मि भगवतः ॥ १६५॥
सूत्रार्थ- हे प्रभो ! यह दास आपकी रक्ष्य वस्तु है ।
सूत्रः- रहस्य त्रयार्थमनुसन्धेयम् ॥ १६६॥
सूत्रार्थ- रहस्यत्रय के अर्थ का अनुसन्धान करना आवश्यक है ।
सूत्रः- मन्त्रापचारो निषेधः ॥ १६७॥
सूत्रार्थ- आचार्य प्रदत्त मन्त्र का अपचार कभी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- देव परिभवमपि ॥ १६८॥
सूत्रार्थ- मन्त्र के देवता का परिभव भी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- तदर्थाय प्रार्थनीयः सदा हरिः ॥ १६९॥
सूत्रार्थ- रहस्य त्रयार्थ में स्थिति होने एवं मन्त्र और देव में अपचार न होने के लिये प्रभु से सदा प्रार्थना करनी चाहिये ।
सूत्रः- सत्सङ्गोहि सेवनीयः शरणागतेन ॥ १७०॥
सूत्रार्थ- प्रभु-प्रेमी भागवतों का सङ्ग, सतत सेवन करने योग्य है प्रपत्ता को ।
सूत्रः- तदविषयक ग्रन्थोऽपि पठनीयः ॥ १७१॥
सूत्रार्थ- प्रेमाभक्ति एवं प्रपत्ति विवर्धक ग्रन्थों का पठन-पाठन करना चाहिये ।
सूत्रः- आत्मान्वेषणं करणीयं मुहुर्मुहः ॥ १७२॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न को अपनी आत्मा का अन्वेषण बार बार करना चाहिये ।
सूत्रः- स्व-प्रिय-नाम कीर्तन-व्रतः ॥ १७३॥
सूत्रार्थ- आत्मप्रिय श्री रामजी के नाम सङ्कीर्तन का व्रत लेना चाहिये ।
सूत्रः- नाम-रूप-लीलाधामष्वनुरक्तिः ॥ १७४॥
सूत्रार्थ- भगवान के नाम-रूप-लीला और धाम में प्रपन्न की अनुरक्ति होनी चाहिये ।
सूत्रः- श्रीहरि-गुरु-हरि भक्तानां कैङ्कर्यमपि ॥ १७५॥
सूत्रार्थ- श्रीहरि-गुरु और हरि-भक्तों की सेवा सदा करनी चाहिये ।
सूत्रः- हरेर्मङ्गलानुशासनं स्वरूपानुकूलम् ॥ १७६॥
सूत्रार्थ- हरि भगवान का मङ्गलानुशासन करना शरणागत प्रपन्न चेतन के स्वरूपानुकूल है ।
सूत्रः- भव ब्रह्ममयं द्रष्टुमभ्यासः ॥ १७७॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न, संसार को ब्रह्ममय देखने के लिये तदनुसार अभ्यास करे ।
सूत्रः- दैवी सम्पत्तिर्ग्राह्या मुमुक्षुभिः ॥ १७८॥
सूत्रार्थ- मोक्ष कामियों के लिये दैवी सम्पत्ति ग्राह्य है ।
सूत्रः- नैच्यानुसन्धानं कुर्यात् ॥ १७९॥
सूत्रार्थ- शरणागत को नैच्यानुसन्धान करते रहना चाहिये ।
सूत्रः- स्वप्रपत्तिमपराध कोटेर्मत्वा क्षमापनमपि ॥ १८०॥
सूत्रार्थ- अपनी की हुई प्रभु की शरणागति को भी प्रभु का अपराध ही किया है, समझकर क्षमा करने की प्रार्थना करना भी नैच्यानुसन्धान का एक अङ्ग है ।
सूत्रः- स्वापराध कारिषु क्षमा-कृपा-कृतज्ञता उपकाराणि करणीयानि ॥ १८१॥
सूत्रार्थ- अपना अपराध करने वालों के प्रति क्षमा-कृपा-कृतज्ञता और उपकार करना चाहिये ।
सूत्रः- ``सर्वे भवन्तु सुखिनः'' अभिलाषयति ॥ १८२॥
सूत्रार्थ- प्रपन्न सबको सुख स्वरूप देखने की अभिलाषा करता है ।
सूत्रः- स सर्वं प्रणमति ॥ १८३॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति करने वाला चेतन सम्पूर्ण जड़-चेतनात्मक जगत को प्रणाम करता है ।
सूत्रः- अतोनाभ्यसूयेतकमपि ॥ १८४॥
सूत्रार्थ- इसलिये प्रभु-समर्पित चेतन को किसी की असूया नहीं करनी चाहिये ।
सूत्रः- स सर्वहितैक रतः ॥ १८५॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन सर्वहित करने के स्वभाव से संयुक्त होता है ।
सूत्रः- सर्वत्र समदर्शनः ॥ १८६॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन सर्वत्र सम दृष्टि वाले होते हैं ।
सूत्रः- दिनचर्या श्रुति-साधु-सदाचायैर्रनुमोदिता ॥ १८७॥
सूत्रार्थ- शरणागत की दिनचर्या श्रुति-शास्त्र-सन्त और सदाचार्य से अनुमोदित होती है ।
सूत्रः- शिष्यात्म रक्षणस्य सदाचार्यः सदा चिन्तयेत् ॥ १८८॥
सूत्रार्थ- शिष्य की आत्मा के रक्षण का चिन्तन सदाचार्य सदा करता रहे ।
सूत्रः- स्वरूप हानि दत्तापहार दोषश्च ॥ १८९॥
सूत्रार्थ- अपने ही आत्म-रक्षक बनने से स्वरूप की हानि और दत्तापहार दोष प्राप्त होता है ।
सूत्रः- शिष्योऽपि आचार्य देहानुरक्तिं तस्य शरीर रक्षणत्वञ्च चिन्तयेत् ॥ १९०॥
सूत्रार्थ- सद्शिष्य को भी आचार्य-देह में परमा प्रीति एवं उनके देह की रक्षा का चिन्तन करना चाहिये ।
सूत्रः- आचार्य स्वरूपो विनश्यति ॥ १९१॥
सूत्रार्थ- आचार्य का स्वरूप नष्ट हो जाता है ।
सूत्रः- आचार्यः स्ववस्तुमादाय एवं शिष्यः आचार्य वस्तु मादाय देह यात्रां कुर्यात् ॥ १९२॥
सूत्रार्थ- आचार्य का शरीर-निर्वाह आपनी वस्तु से और शिष्य-देह- प्रयोजन आचार्य वस्तु से होना चाहिये ।
सूत्रः- अन्यथा आचार्यः अपूर्णः एवं शिष्यः चौरो भविष्यति ॥ १९३॥
सूत्रार्थ- उपर्युक्त वार्ता के विपरीत आचरण से आचार्य का स्वरूप अपूर्ण और शिष्य का स्वरूप चौर हो जायगा ।
सूत्रः- अतो शिष्य स्वरूपो शरीरवत् धर्मवत् एवं भार्यावत् प्रयुक्तः ॥ १९४॥
सूत्रार्थ- अतः शिष्य का स्वरूप आचार्य के प्रति शरीर के समान, धर्म के समान और भार्या के समान मनीषियों द्वारा कहा गया है ।
सूत्रः- एवं आचार्य स्वरूपोऽपि शरीरीवत्, धर्मीवत्, पतिवत् प्रयुक्तः ॥ १९५॥
सूत्रार्थ- इसी प्रकार अपने प्रति सम्बन्धी शिष्य के प्रति आचार्य का स्वरूप शरीरी, धर्मी और सत्पति के सदृश कहा गया हैं ।
सूत्रः- एकैकं स्वार्थेन न वरणीयम् ॥ १९६॥
सूत्रार्थ- आचार्य और शिष्य एक दूसरे को भौतिक-स्वार्थ के लिये न वरण करें ।
सूत्रः- शिष्यः आचार्य सेवनं अमाया अहं विहीनेन् कुर्यात् ॥ १९७॥
सूत्रार्थ- शिष्य, आचार्य का सेवन अहं-विहीन छल छोड़कर करे ।
आचार्योऽपि वात्सल्येन शिष्यम्पुत्रादधिकं कृपया पालनं कुर्यात् ॥ १९८॥
सूत्रार्थ- आचार्य भी वात्सल्यादि गुणों को पुरस्सर करके अपनी अहैतुकी कृपा द्वारा स्वपुत्र से अधिक मानकर पालन करे ।
सूत्रः- शिष्येन् गुरु गौरवम्प्रकटं भवति ॥ १९९॥
सूत्रार्थ- श्री सद्गुरु देव का गौरव, शिष्यों के द्वारा सुरक्षित एवं प्रकाशित रहता है ।
सूत्रः- आचार्य कृपया शिष्यस्य स्वरूपस्थितिर्भवति ॥ २००॥
सूत्रार्थ- आचार्य-कृपा से शिष्य की स्वरूप स्थिति बन पाती है ।
सूत्रः- एवं परस्परं हित-प्रयं कुर्यात् ॥ २०१॥
सूत्रार्थ- आचार्य और शिष्य परस्पर एक-दूसरे के हित और प्रिय करने की चेष्टा से युक्त होते हैं ।
सूत्रः- लता वृद्ध्यर्थाय शाखामिव ॥ २०२॥
सूत्रार्थ- लता की परिवृद्धि के लिये जैसे कोई शाखा सहायिका सिद्ध होती है, उसी प्रकार आचार्योपदिष्ट वार्ता की वृद्धि के लिये भागवतो की उपयोगिता है ।
सूत्रः- साधन समुञ्चयः न हेतु भूतः प्रभु प्राप्त्यर्थाय न अकृतकरण समुञ्चयः विरोधाय समर्थः ॥ २०३॥
सूत्रार्थ- परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान की प्राप्ति के लिये महान से महान सर्व साधनों का समुज्वय समर्थ नहीं हो सकता और न सम्पूर्ण अविहित कर्मों का समुञ्चय-विरोधक बन सकता ।
सूत्रः- अतो भगवत्प्राप्ति हेतुर्भगवत्कृपैव ॥ २०४॥
सूत्रार्थ- अतः प्रभु-प्राप्ति के लिये भगवत्कृपा ही कारण है ।
सूत्रः- आर्तपूर्णा प्रपत्तिरेव कृपा प्रप्ते; कारणम् ॥ २०५॥
सूत्रार्थ- आर्ति पूर्ण प्रपत्ति ही भगवत्-कृपा-प्राप्ति की हेतु-भूता है किन्तु उपाय स्वरूपा नहीं क्योङ्कि भगवान ही सर्व स्वतन्त्र निरङ्कुश स्वामी हैं ।
सूत्रः- भरतस्य प्रपत्तिर्नासिद्धा ॥ २०६॥
सूत्रार्थ- श्रीभरत जी की शरणागति असिद्ध नहीं हुई अपितु शीघ्र फलप्रदा सिद्ध हुई है ।
सूत्रः- श्रीरामस्य प्रपत्तिरपि ॥ २०७॥
सूत्रार्थ- समुद्र के प्रति की हुई श्रीराम जी की शरणागति भी असिद्ध नहीं हुई ।
सूत्रः- अतो प्रपत्तिरेव गरीयसी, प्रपतिरेव गरीयसी, परपत्तिरेव गरीयसी ॥ २०८॥
सूत्रार्थ- इसलिये त्रिसत्य है कि प्रपत्ति ही श्रेष्ठ है, प्रपत्ति ही श्रेष्ठ है, प्रपत्ति ही श्रेष्ठ है ।
सूत्रः- प्रपत्तिकर्तृषु वर्णाश्रम धर्मानुसारेण कार्याकार्य व्यवस्थितिर्भवति न वा ॥ २०९॥
सूत्रार्थ- परब्रह्म पुरुषोत्तम भगवान की शरणागति करने वाले प्रपन्न मे वर्णाश्रम धर्म के अनुसार कार्याकार्य व्यवस्थिति होती है या नहीं?
सूत्रः- शास्त्र संरक्षणं प्रपत्तेरनुकूल कार्यम् ॥ २१०॥
सूत्रार्थ- शास्त्र संरक्षण करना प्रपत्ति का स्वरूपानुकूल कार्य है ।
सूत्रः- अन्यथा पातित्य भयम् ॥ २११॥
सूत्रार्थ- अन्यथा पतन का भय है ।
सूत्रः- सर्वोच्च स्थितेप्राप्तौ वेदाः स्वयमेव तस्योपरि शासनं न कुर्वन्ति ॥ २१२॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन की सर्वोपरि स्थिति हो जाने पर, वेद स्वयं उसके ऊपर से अपना शासन उठा लेते हैं ।
सूत्रः- सञ्चित क्रियमाणानि कर्म फलानि स्वयमेव विनश्यन्ति ॥ २१३॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतनों के किये हुये सञ्चित और क्रियमाण कर्मा के फलकर्ता को न प्राप्त होकर स्वयं विनष्ट हो जाते हैं ।
सूत्रः- गुरुणा बोधनीयः मुहुर्मुहुः ॥ २१४॥
सूत्रार्थ- प्रपत्ति-पथ-विचलित साधक, सद्गुरु द्वारा बार-बार बोध कराने योग्य है ।
सूत्रः- भागवतापचारोस्यात ॥ २१५॥
सूत्रार्थ- भागवतापचार हो जायगा ।
सूत्रः- तस्यहितार्थाय ईश्वर प्रपत्तिमेवं मङ्गलानुशासनं कुर्यात् ॥ २१६॥
सूत्रार्थ- सद्गुरु को शिष्य-हित-चिन्तन करके प्रभु की शरणागति एवं उसका मङ्गलानुशासन करना चाहिये ।
सूत्रः- भरत सदृशं स्वस्वरूपम् ॥ २१७॥
सूत्रार्थ- श्रीभरत जी के समान आत्म स्वरूप होता है ।
सूत्रः- रामः परस्वरूपस्य साक्षात् मूर्तिः ॥ २१८॥
सूत्रार्थ- श्रीराम जी महाराज परस्वरूप की साक्षात् मूर्ति हैं ।
सूत्रः- उपायस्य स्वरूपो सीतावत् ॥ २१९॥
सूत्रार्थ- उपाय का स्वरूप श्रीजानकी जी की भाँति जानना चाहिये ।
सूत्रः- उपेय-प्रीतिर्लक्ष्मणवत् ॥ २२०॥
सूत्रार्थ- उपेय-प्रीति श्रीलक्ष्मण जी के समान होनी चाहिये ।
सूत्रः- अतो कैङ्कर्य कर्मणि उत्कृष्टापकृष्ट भावना न कुर्यात् कदाचन् ॥ २२१॥
सूत्रार्थ- अतएव भगवत् कैङ्कर्य में ऊँच-नीच का विचार कभी नहीं करना चाहिये ।
सूत्रः- विरोधी स्वरूपो कैकेयीवत् ॥ २२२॥
सूत्रार्थ- विरोधी स्वरूप कैकेयी के सदृश होता है ।
सूत्रः- स्वरूपज्ञ शरणागतस्य सर्व समीचीनं भवति ॥ २२३॥
सूत्रार्थ- स्वरूपज्ञ शरणागत चेतन का सब कुछ समीचीन होता है ।
सूत्रः- शरणागतस्यासमीचीनं समीचीनं भवति ॥ २२४॥
सूत्रार्थ- शरणागत का असमीचीन भी समीचीन हो जाता है ।
सूत्रः- शरणागत विरोधकस्य दुर्दशा बालिवत् ॥ २२५॥
सूत्रार्थ- शरणागत चेतन से विरोध करने वाले की दुर्दशा वालि वानर की भाँति होती है ।
सूत्रः- प्रपत्तिं कृत्वा तत् विरोधी कार्य कर्तारः द्विविद वत् ॥ २२६॥
सूत्रार्थ- शरणागति करके शरणागत विरोधी कार्य करने वाले की दशा द्विविद वत् होती है ।
सूत्रः- शरणागति समर्थकस्य गतिर्हनुमानवत् ॥ २२७॥
सूत्रार्थ- शरणागति सिद्ध साधन का समर्थन करने वाले की गति श्री हनुमान जी जैसी होती है ।
॥ श्रीसीतारामार्पणमस्तु ॥
Encoded and proofread by Mrityunjay Rajkumar Pandey