स्वामीअग्रदेवाचार्यविरचितः रहस्यत्रयः

स्वामीअग्रदेवाचार्यविरचितः रहस्यत्रयः

मङ्गलाचरणम्

श्रीरामः सर्वलोकानां नायकः करुणार्णवः । ददातु स्वपदाम्भोजं सर्वदुःखनिवर्तकम् ॥ अर्थ - करुणासागर परब्रह्म श्रीरामचन्द्र जी सर्वलोकोङ्के नायक हैम् । वे हमारे हृदयमें सर्वदुःखोङ्के नाशक अपने पादारविन्दो को स्थापित करेम् । श्रीनारदपाञ्चरात्र्याद्युक्तरीत्या मुमुक्षुभिः प्रपन्नैः सदाचार्य कृपाकटाक्षेण रहस्यानि त्रीणि ज्ञातव्यानि - श्रीमन्मन्त्रराजः, श्रीमदष्टाक्षरः, सकृदेव प्रपन्नायेत्यादीनि ॥ १॥ अर्थ - श्रीनारदपाञ्चरात्रादि में कथित रीति के अनुसार शरणागत मुमुक्षुओं को कृपादृष्टि वाले (सेवा के द्वारा प्रसन्न हुए)महान् आचार्य से तीन रहस्य जानने चाहिए १। श्रीमन्मन्त्रराज रहस्य । २ । श्रीमदष्टाक्षर रहस्य । ३ । सकृदेव प्रपन्नाय इत्यादि रहस्य ।

प्रथमरहस्यम्

रामो ङेऽन्तो वह्निपूर्वो नमोन्तः स्यात् षडक्षरः । तारको मन्त्रराजोऽयं संसारविनिवर्तकः ॥ २॥ अर्थ - वह्नि बीज (रां)पूर्व वाला, नमः अन्त वाला, तथा चतुर्थीका एकवचन ङे प्रत्ययान्त राम शब्द (रामाय)से युक्त षडक्षर वाला (रां रामाय नमः)यह तारक मन्त्रराज संसार बन्धनसे पूर्णतः मुक्त करने वाला है । तत्र श्रीमत्षडक्षरमन्त्रराजः षट्पदात्मकः पञ्चपदात्मकश्चेति ॥ ३॥ अर्थ - रहस्यत्रय में श्रीमत् षडक्षर मन्त्रराज छः पदों वाला है । मतान्तरसे पाँच पद वाला है । तत्र प्रथमं पदं रकारः अव्यक्त चतुर्थ्यन्तः, द्वितीयं पदं अकारः प्रथमान्तः, तृतीयं पदं मकारः प्रथमान्तः, चतुर्थं पदं रामायेति चतुर्थ्यन्तः पञ्चमं पदं नेत्यव्ययम्, षष्ठं पदं मः इति षष्ठ्यन्तम् ॥ ४॥ अर्थ - उन पदोंमें प्रथम पद रकार अव्यक्त चतुर्थी विभक्ति वाला है । द्वितीय पद प्रथमाविभक्त्यन्त अकार है । तृतीय पद प्रथमान्त मकार है । चतुर्थ पद चतुर्थी विभक्त्यन्त रामाय है । न यह अव्यय पञ्चम पद है । म यह षष्ठीविभक्त्यन्त षष्ठ पद है । तत्र प्रथमपदेन रकारेण निखिलहेयप्रत्यनीककल्याणगुणगणैकतानः सर्वजगत्कारणभूतः सर्वरक्षकः सर्वशेषी भगवान् सीतापतिः श्रीरामः प्रतिपाद्यते ॥ ५॥ अर्थ - उन छः पदोङ्के अन्तर्गत प्रथम पद रकारके द्वारा सम्पूर्ण दोषोंसे रहित, कल्याण कारक गुण समूहोङ्के एकमात्र आश्रय, सभी जगत्के कारण, सर्वरक्षक, सर्वशेषी, सीतापति भगवान् श्रीरामका प्रतिपादन किया जाता है । एतेन रक्षित्रन्तरप्रतिपत्तिर्व्यावर्त्यते ॥ ६॥ अर्थ - प्रथम पदके उक्त अर्थके द्वारा श्रीभगवान्से अतिरिक्त अन्यके रक्षक होनेके निश्चयका निषेध किया जाता है । द्वितीयपदेनाकारेण अन्यशेषत्वनिवृत्तिः भगवदनन्यार्हशेषत्वं, देवतान्तरादिशेषत्वव्यावृत्तिश्च प्रतिपाद्यते ॥ ७॥ अर्थ - द्वितीय पद अकारके द्वारा जीवके भगवदनन्यार्हशेषत्व, अन्यशेषत्वकी निवृत्ति तथा अन्य देवताओङ्के प्रति शेषत्वके निराकरणका प्रतिपादन किया जाता है । तृतीयपदेन मकारेण ज्ञानानन्दस्वरूपो ज्ञानानन्दगुणकोऽणु परिमाणो देहादिविलक्षणः स्वयम्प्रकाशो नित्यरूपो जीवः प्रतिपाद्यते ॥ ८॥ अर्थ - तृतीय पद मकारके द्वारा ज्ञानानन्दस्वरूप, ज्ञानानन्द गुणवाले, अणुपरिमाणवाले, देहादिसे विलक्षण, स्वयम्प्रकाश, नित्य जीवका प्रतिपादन किया जाता है । मकारवाच्यो जीवो रकारवाच्याय रामायैव शेषभूत इति वाक्यार्थः ॥ ९॥ अर्थ - मकारका वाच्य जीव रकारके वाच्य श्रीरामका ही (अकारका वाच्य)शेष है । मकारका अर्थ जीव, रकारका अर्थ ब्रह्म तथा अकारका अर्थ शेष होनेके कारण यह अर्थ निष्पन्न होता है । जीव देवतान्तरका शेष नहीं है । यह रकार, अकार और मकार इन तीनों पदोंसे युक्त रां इस वाक्यका अर्थ है । चतुर्थपदेन ``रामाय'' इत्यनेन सर्वचेतनाचेतनरमयितृत्वं, श्रीरमयितृत्वं उभयलिङ्गत्वं सर्वप्राप्यत्वं, सर्वव्यापकत्वं, सर्वविधबन्धुत्वं, उभयविभूतिनायकत्वं सत्यानन्दचिद्रूपत्वं च प्रतिपाद्यते ॥ १०॥ अर्थ - चतुर्थ पद रामायके द्वारा सर्वचेतनाऽचेतनरमयितृत्व, श्रीरमयितृत्व, उभयलिङ्गत्व, सर्वप्राप्यत्व, सर्वव्यापकत्व, सर्वविधबन्धुत्व, उभयविभूतिनायकत्व और सत्यानन्दचिरूपत्वका प्रतिपादन किया जाता है । अनेन रागद्वेषकरणं अबन्धुभूतेषु बन्धुत्वप्रतिपत्तिश्च व्यावर्त्यते ॥ ११॥ अर्थ - चतुर्थ पदके द्वारा रागद्वेष करने और अबन्धुओंमें बन्धुत्वनिश्चय की व्यावृत्ति होती है । चतुर्थ्या स्वरूपानुरूपकैङ्कर्यप्रार्थना उच्यते ॥ १२॥ अर्थ - ``रामाय'' यहाँ राम प्रातिपादिकसे आयी चतुर्थी विभक्तिके द्वारा जीवके स्वरूपके अनुरूप श्रीभगवान्का कैङ्कर्य प्राप्त करनेके लिए प्रार्थनाकी जाती है । अनेन प्राप्तविषयान्तरसेवा व्यावर्त्यते ॥ १३॥ अर्थ - चतुर्थी विभक्तिके उक्त अर्थके द्वारा रागतः प्राप्त विषयान्तरके सेवनका निराकरण किया जाता है । हम भगवान्के ही स्वाभाविक दास हैम् । उनका कैङ्कर्य ही हमारा कर्तव्य है । ऐसा समझने पर उनकी उपासना सुगम हो जाती है । भगवान्से अतिरिक्त कोई मेरा नहीं है । ऐसा समझकर उनका कैङ्कर्य करनेसे सांसारिक विषयोङ्का सेवन नहीं होता है । पञ्चमपदेन नेत्यनेन भगवदन्यशेषत्वं तदन्यप्रयोजनत्वं स्वस्वातन्त्र्यं च व्यावर्त्यते ॥ १४॥ अर्थ - अर्थ ``न'' इस पञ्चम पदके द्वारा भगवदन्यशेषत्व, भगवद्कैङ्कर्यान्यप्रयोजनत्व एवं जीवकी स्वतन्त्रताका निराकरण किया जाता है । षष्ठपदेन म इत्यनेन जीववाचकेन जीवस्य भगवदनन्यार्हशेषत्वं तत्कैङ्कर्यप्रयोजनत्वं तत्पारतन्त्र्यस्वरूपत्वं च प्रतिपाद्यते ॥ १५॥ अर्थ - जीववाचक मः इस षष्ठ पदके द्वारा जीवका भगवदनन्यार्हशेषत्व, भगवत्कैङ्कर्यप्रयोजनत्व और तत्पारतन्त्र्य स्वरूपका प्रतिपादन किया जाता है । तत्र वाक्यार्थः मकारवाच्यो जीवो रकारवाच्याय रामायैव न स्वस्मै न अन्यस्मै तद्भोग्यभूतः ॥ १६॥ अर्थ - (पञ्चम और षष्ठ पदोङ्का उपर्युक्त अर्थ होने पर)इन दो पदसमूहरूप वाक्यका अर्थ यह है कि मकारका अर्थ जीव, रकारके अर्थ अपने प्रिय स्वामी श्रीमद्रामचन्द्रजीके लिए ही है । यह न तो अपने प्रयोजनके लिए है और न ही अन्य किसीके प्रयोजन के लिए है, यह श्रीभगवान्का भोग्य है । अखण्डनमः शब्दः उपाय वाचकः । तत्र मकार वाच्यस्य मम रकारवाच्यः श्रीराम एवोपायः उपेयभूतश्च ॥ १७॥ अर्थ - अखण्ड नमः शब्द उपायका वाचक है, ऐसा अर्थ करने पर ``मकारका वाच्य मेरे (जीवात्माके)रकारके वाच्य श्रीराम ही उपाय और उपेय हैं।'' यह वाक्यार्थ सम्पन्न होता है । देहासक्तात्मबुद्धिर्यदि भवति पदं साधु विद्यात्तृतीयं स्वातन्त्र्यान्धो यदि स्यात् प्रथममितरशेषत्वधीश्चेद् द्वितीयं आत्मत्राणोन्मुखश्चेन्नम इति च पदं बान्धवाभासलोलः शब्दं रामाभिधेयं विषयचपलधीश्चेच्चतुर्थी प्रपन्नः ॥ १८॥ अर्थ - यदि इस देहमें आसक्त होनेके कारण उसमें आत्मबुद्धि होती है । तो इस देहात्मबुद्धिरूप भ्रान्तिके निवारणके लिए मन्त्रराजके तृतीय पद मकारके अर्थका अनुसन्धान करना उचित होता है । यदि यह जीव अपनी स्वतन्त्रतामें अन्धा होता हो तो प्रथम पद रकारके अर्थका अनुसन्धान करना चाहिए । जब यह अपनेको श्रीभगवान्से अन्यका शेष समझे, तब द्वितीय पदके अर्थका अनुसन्धान करे । अपनी रक्षाके लिए उपायान्तरमें प्रवृत्त होने पर नमः इस पदके अर्थका अनुसन्धान करे । श्रीभगवान् ही हमारे बान्धव (बन्धु)हैम् । तद्भिन्न सभी बान्धवाभास हैम् । पुत्रमित्रकलत्रादि बान्धवाभासोंमें प्रीति होने पर राम शब्दका अर्थानुसन्धान करेम् । विषयोन्मुख, चपल, बुद्धि होने पर चतुर्थी विभक्तिका अर्थानुसन्धान करे ।

द्वितीयरहस्यम्

द्वितीयं रहस्यं श्रीरामः शरणं ममेत्यष्टाक्षरात्मकं पदत्रयं तत्र प्रथमं पदं श्रीरामः इति द्वितीयं पदं शरणमिति ममेति तृतीयं पदम् ॥ १॥ अर्थ - ``श्रीरामः शरणं मम'' यह द्वितीय रहस्य है । इस रहस्यात्मक मन्त्रमें तीन पद हैम् । उस मन्त्रमें प्रथम पद ``श्रीरामः'' है । द्वितीय पद ``शरणम्'' तथा तृतीय पद ``मम'' है । श्रीरामः इस प्रथम पदमें तीन अक्षर ``शरणम्'' इस द्वितीय पदमें तीन अक्षर तथा ``मम'' इस तृतीय पदमें दो अक्षर हैं, इस प्रकार कुल मिलाकर इस मन्त्रमें आठ अक्षर हैम् । तत्र श्रीशब्देन समस्तसमाश्रयणीया परमात्माश्रितनिखिलजीवदोषनिहन्त्री श्रीरामं भगवन्तं चेतनाचेतनविज्ञापनं श्रावयन्ती स्वगुणैरखिलं विश्वं पूरयन्ती भगवती श्रीसीतोच्यते ॥ २॥ अर्थ - ``श्रीरामः'' पदके अन्तर्गत श्रीशब्दके द्वारा अपने गुणोंसे अखिल विश्वको व्याप्त करने वाली, परमात्मा श्रीरामके आश्रित रहने वाले जीवोङ्के दोषोङ्को नष्ट करने वाली, चेतनाऽचेतनोङ्के उद्धारके लिए उनकी प्रार्थना भगवान् श्रीरामको सुनाने वाली, समस्त जगत्के द्वारा सम्यक् आश्रय लेने योग्य भगवती श्रीसीता जी कही जाती हैम् । जैसे श्रीराम अपने गुणोंसे समग्र विश्वको व्याप्त करते हैम् । भगवती सीताजी भी वैसी ही हैम् । ममतामयी जगदम्बा भगवती सीता जीका वात्सल्य हृदय भक्तकी करुण पुकारसे शीघ्र द्रवित हो जाता है । कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति । वे शीघ्र ही अपने भक्तकी प्रार्थना श्रीराम जीको सुना देती है । तथा रामपदेन वात्सल्यस्वामित्वसौशील्यसौलभ्यसर्वज्ञत्वसर्वशक्तित्वावाप्तसमस्तकामत्वसर्व जगत्कारणत्वसकलफलप्रदत्वनिरवधिकदयासौन्दर्यमाधुर्याद्यनन्तगुणगणविशिष्टो रामः प्रतिपाद्यते ॥ ३॥ अर्थ - श्रीरामः पदके द्वितीय घटक राम शब्दसे वात्सल्य, स्वामित्व, सौशील्य, सौलभ्य, सर्वज्ञत्व, सर्वशक्तित्व, अवाप्तसमस्तकामत्व, सर्वजगत्कारणत्व, सकलफलप्रदत्व, असीमित दया, असीमित सौन्दर्य, असीमित माधुर्य आदि अनन्त गुणसमूहोंसे विशिष्ट श्रीरामका प्रतिपादन किया जाता है । उपायः शरणशब्देन उच्यते ॥ ४॥ अर्थ - ``शरणम्'' इस द्वितीय पदके द्वारा उपाय कहा जाता है । ममेति पदेन भगवच्छेषत्वज्ञानानन्दत्वाद्युक्तलक्षणो जीवः उच्यते ॥ ५॥ अर्थ - ``मम'' इस तृतीय पदके द्वारा भगवत्शेषत्व, ज्ञानत्व, आनन्दत्व, आदि गुणोंसे विशिष्ट जीव कहा जाता है । अबमन्त्रमें आये हुए पदोङ्के अर्थोङ्को कहकर अब मन्त्रार्थको कहते हैम् । भगवच्छेशत्वादिलक्षणस्य मम जीवस्य उक्त गुणविशिष्टया सीतया सहितो वात्सल्यादिगुणविशिष्टः श्रीराम एव स्वप्राप्तेः उपायः उपेयश्च इति वाक्यार्थः ॥ ६॥ अर्थ - भगवत्शेषत्व, ज्ञानत्वानन्दत्वादि उक्त लक्षणोंसे युक्त मुझ दासके वात्सल्य आदि गुण विशिष्ट भगवती सीता सहित वात्सल्यादिगुण विशिष्ट श्रीराम ही अपनी प्राप्तिमें उपाय और उपेय दोनों हैम् । ``उपायः शरणशब्देन उच्यते'' इस वाक्यमें उपाय पदको उपेयका उपलक्षण समझना चाहिए क्योङ्कि ऊपर मन्त्रार्थ करते समय श्रीरामको उपाय और उपेय दोनों कहा गया है । ``स्वबोधकत्वे सति स्वेतरबोधकत्वं उपलक्षणत्वम्'' उपलक्षण अपना बोधक होते हुए अपनेसे इतरका भी बोधक होता है । ``उपायः'' पद अपना बोधक होते हुए अपनेसे इतर उपेयका भी बोधक है । उपायको साधन या प्रापक कहा जाता है । उपेयको प्राप्य कहा जाता है, इस प्रकार ``श्रीरामः शरणं मम'' इस वाक्यका अर्थ कहा गया ।

तृतीयरहस्यम्

सकृदेव एकवारं एव अनावृत्तिलक्षणां तवास्मीति च याचते इति प्रपन्नाय मानसीं, वाचिकीं च प्रपत्तिं कृतवते अधिकारिणे अनालोचितविशेषाशेषलोकशरण्यो रघुकुलोद्भवो रामोऽहं सर्वभूतेभ्यो अभयं ददामि दद्यामित्यर्थः ॥ १॥ अर्थ - सकृदेवका अर्थ है एक बार ही अथवा अनावृत्ति । जाति, कुल, योग्यता आदि किसी विशेषताका विचार न करने वाला सम्पूर्ण लोकोङ्को शरण देने वाला रघुकुलमें उत्पन्न मैं राम ``मैं आपका ही हूँ'' इस प्रकार एक बार ही मानसी प्रपत्ति करने वाले और वाचिकी प्रपत्ति करने वाले अधिकारीको सभी भूतोंसे अभय प्रदान करता हूँ । ``सर्वभूतेभ्यः'' इति पञ्चमी चतुर्थी च पञ्चमी पक्षे अभयमिति सङ्कोचे मानाभावात भयहेतुभ्यः सर्वेभ्यो भूतेभ्यः स्वस्मादपि अभयं ददामि ॥ २॥ अर्थ - सर्वभूतेभ्यः यहाँ चतुर्थी अथवा पञ्चमी विभक्ति है । पञ्चमी पक्षमें ``अभयम्'' इस कथनके कारण भयके अपादानके सङ्कोचमें प्रमाणका अभाव होनेसे भयका हेतु केवल रावण ही नहीं बल्कि भयके सभी हेतुओं लक्ष्मण आदि और अपनेसे भी अभय प्रदान करता हूँ । अनेन सर्वस्येशान इत्यादि गुणजातं सूचितम् ॥ ३॥ अर्थ - श्रीभगवान्के इस कथनसे उनके सर्वशासकत्व, सर्ववशित्व आदि गुणसमूह सूचित होते हैम् । चतुर्थीपक्षे च सर्वेभ्यो अभयं न केवलं विभीषणाय ॥ ४॥ अर्थ - ``सर्वभूतेभ्यः'' यहाँ चतुर्थी विभक्ति पक्षमें यह अर्थ होता है कि केवल विभीषणको ही नहीं बल्कि ``तवास्मि'' इस प्रकार एक बार प्रपत्ति करने वाले सभी प्राणियोङ्को अभय प्रदान करता हूँ । अनेन प्रपत्तिविद्यायां सर्वेषां देवमनुष्यादीनां जीवानामधिकारः सूचितः ॥ ५॥ अर्थ - चतुर्थी पक्षमें उक्त अर्थके द्वारा प्रपत्ति विद्या (शरणागति)में देव, मनुष्यादि सभी जीवोङ्का अधिकार सूचित होता है । अभयं ददाम्येतद् व्रतं ममेत्यनेन कस्यञ्चिदपि दशायां परित्यागायोग्यमित्यर्थः ॥ ६॥ अर्थ - मैं शरणागतको अभय प्रदान करता हूँ । यह मेरी प्रतिज्ञा है । इस कथनसे यह सिद्ध होता है कि श्रीभगवान्के द्वारा शरणागत किसी भी अवस्थामें परित्यागके योग्य नहीं है । अभयमेव मोक्षो नाम, अथ सोऽभयं गतो भवति । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन इति ब्रह्मविद्या फलत्वेन श्रवणात् ॥ ७॥ अर्थ - मोक्षका ही नाम अभय है । ``अथ सोऽभयं गतो भवति'' (तैत्तिरीयोपनिषत् २/३१)जब मनुष्य अभय (मोक्ष)के साधनको स्वीकार करता है । तब वह अभयं - मोक्षको गतः प्राप्त करने वाला होता है । आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न विभेति कुतश्चन । (तैत्तिरीयोपनिषत् २/३३)आनन्द गुण वाले ब्रह्मकी उपासना करने वाला किसीसे भय नहीं करता । अर्थात् उसे सर्वदुःखोङ्का आत्यन्तिक अभावरूप मोक्ष प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार ब्रह्मविद्याके फलरूपसे अभयका श्रवण होता है । ब्रह्मविद्याका फल मोक्ष होता है । अतः यहाँ अभय पदका अर्थ मोक्ष है । शरणागति भी ब्रह्मविद्या है । अतः शरणागतिरूप ब्रह्मविद्याका फल मोक्ष है । संसार बन्धनसे मुक्त होकर परब्रह्म श्रीसीतारामजीका सर्वदा दर्शन ही मोक्ष है । - इति श्रीमदग्रस्वामिविरचितरहस्यत्रयार्थः समाप्तः । Encoded and proofread by Mrityunjay Rajkumar Pandey
% Text title            : Svami Agradevacharyavirachitah Rahasyatrayah
% File name             : rahasyatrayaagradevAchArya.itx
% itxtitle              : rahasyatrayaH sArthaH (svamI agradevAchAryavirachitaH)
% engtitle              : rahasyatraya agradevAchArya
% Category              : raama, rAmAnanda
% Location              : doc_raama
% Sublocation           : raama
% Author                : agradevAchArya
% Language              : Sanskrit/Hindi
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Mrityunjay Rajkumar Pandey
% Description/comments  : Rahasya Traya means the three main mantra of any lineage which is given by Acharyas
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : June 20, 2024
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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