श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्यम्
(ब्रह्मवैवर्तपुराणाततः)
श्रीकृष्ण उवाच -
(शृणु राधे प्रवक्ष्यामि ज्ञानमाध्यात्मिकं परम् ।
यच्छ्रुत्वा हालिको मूर्खः सद्यो भवति पण्डितः ॥ ८२ ॥
जात्याऽहं जगतां स्वामी किं रुक्मिण्यादियोषिताम् ।
कार्यकारणरूपोऽहं व्यक्तो राधे पृथक् पृथक् ॥ ८३॥
एकात्माऽहं च विश्वेषां जात्या ज्योतिर्मयः स्वयम् ।
सर्वप्राणिषु व्यक्त्या चाप्याब्रह्मादितृणादिषु ॥ ८४॥
एकस्मिंश्च भुक्तवति न तुष्टोऽन्यो जनस्तथा ।
मय्यात्मनि गतेऽप्येको मृतोऽप्यन्यः सुजीवति ॥ ८५ ॥)
जात्याऽहं कृष्णरूपश्च परिपूर्णतमः स्वयम् ।
गोलोके गोकुले रम्ये क्षेत्रे वृन्दावने वने ॥ ८६॥
द्विभुजो गोपवेषश्च स्वयं राधापतिः शिशुः ।
गोपालैर्गोपिकाभिश्च सहितः कामधेनुभिः ॥ ८७॥
चतुर्भुजोऽपि वैकुण्ठे द्विधारूपः सनातनः ।
लक्ष्मीसरस्वतीकान्तः सततं शान्तविग्रहः ॥ ८८॥
यन्मानसीसिन्धुकन्या मर्त्यलक्ष्मीपतिर्भुवि ।
श्वेतद्वीपे च क्षीरोदे तत्रापि च चुतुर्भुजः ॥ ८९॥
अहं नारायणर्षिश्च नरो धर्मः सनातनः ।
धर्मवक्ता च धर्मिष्ठो धर्मवर्त्मप्रवर्तकः ॥ ९०॥
शान्तिर्लक्ष्मीस्वरूपा च धर्मिष्ठा च पतिव्रता ।
अत्र तस्याः पतिरहं पुण्यक्षेत्रे च भारते ॥ ९१॥
सिद्धेशः सिद्धिदः साक्षात् कपिलोऽहं सतीपतिः ।
नानारूपधरोऽहं व्यक्तिभेदेन सुन्दरि ॥ ९२॥
अहं चतुर्भुजः शश्वद् द्वार्वत्यां रुक्मिणीपतिः ।
अहं क्षीरोदशायी च सत्यभामागृहे शुभे ॥ ९३॥
अन्यासां मन्दिरेऽहं च कायव्यूहात् पृथक् पृथक् ।
अहं नारायणर्षिश्च फाल्गुनस्य सारथिः ॥ ९४॥
स नरर्षिर्धर्मपुत्रो मदंशो बलवान् भुवि ।
तपसा राधितस्तेन सारथ्येऽहं च पुष्करे ॥ ९५॥
यथा त्वं राधिका देवी गोलोके गोकुले तथा ।
वैकुण्ठे च महालक्ष्मीर्भवती च सरस्वती ॥ ९६॥
भवती मर्त्यलक्ष्मीश्च शान्तिर्लक्ष्मीस्वरूपिणी ।
कपिलस्य प्रिया कान्ता भारते भारती तथा ॥ ९७॥
त्वं सीता मिथिलायां च त्वच्छाया द्रोपदी सती ।
द्वारवत्यां महालक्ष्मीभवती रुक्मिणी सती ॥ ९८॥
पंचानां पाण्डवानां च भवती कलया प्रिया ।
रावणेन हृता त्वं च त्वं च रामस्य कामनी ॥ ९९॥
नानारूपा यथा त्वं च छायया कलया सती ।
नानारूपस्तथाऽहं च स्वांशेन कलया तथा ॥ १०१॥
परिपूर्णतमोऽहं च परमात्मा परात्परः ।
इति ते कथितं सर्वमाध्यात्मिकमिदं सति ।
राधे सर्वापराधं मे क्षमस्व परमेश्वरि ॥ १०२॥
(श्रीकृष्णवचनं श्रुत्वा परितुष्ट च राधिका ।
परितुष्टश्च गोप्यश्च प्रणेमुः परमेश्वरम् ॥ १०३॥)
इति ब्रह्मवैवर्तपुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डान्तर्गतं
श्रीपुरुषोत्तममाहात्म्यं सम्पूर्णम् । (अध्यायः १२६)
श्रीकृष्णद्वारा अपने और राधातत्त्व का उद्घाटन-
``हे राधे मैं स्वभाव से सब लोकों का स्वामी हूँ, फिर
रुक्मिणी आदि स्त्रियों की तो बात ही क्या है । मैं कार्य-कारण रूप से
पृथक्-पृथक् प्रकट होता हूँ । हे राधे ! मैं स्वभाव से स्वयं
ज्योतिर्मय हूँ, अखिल विश्व-ब्रह्माण्ड का एकमात्र आत्मा (अन्तर्यामी)
हूँ और ब्रह्मादि से लेकर स्तम्ब-पर्यन्त सम्पूर्ण प्राणियों में व्याप्त
हूँ । हे राधे ! मैं स्वभाव से स्वयं परिपूर्णतम कृष्णरूप से
रहता हुआ रमणीय क्षेत्र गोलोक, गोकुल और वृन्दावन के वन-वन
में तुम्हारे साथ नित्य-विहार करता हूँ । हे राधे ! मैं स्वयं
उपर्युक्त इन धामों में तुम्हारा पति द्विभुज होकर गोपवेष में
बालक रूप से क्रीडा करता हूँ और ग्वाल, गोपियाँ गोएँ ही मेरी
लीला में सहायक होती हैं । हे राधे ! मैं वैकुण्ठ में चतुर्भुज
रूप से रहता हूँ, वहाँ मैं ही लक्ष्मी और सरस्वती का पति
हूँ और सदा शान्त रूप से निवास करता हूँ । इस प्रकार मैं
परब्रह्म ही दो रूपों में विभक्त हूँ । हे राधे ! भूतलपर,
श्वेतद्वीप और क्षीरसागर में क्रमशः मानसीकन्या, सिन्धुकन्या
और मर्त्यलक्ष्मी के जो पति हैं वह भी मैं हूँ और वहाँ मैं
चतुर्भुज रूप से रहता हूँ । हे राधे ! मैं नर-नारायण ऋषि
हूँ और सनातन धर्म हूँ । मैं धर्मवक्ता हूँ तथा धर्मिष्ठ
हूँ और धर्ममार्ग का प्रवर्तक हूँ । हे राधे! इस पुण्यक्षेत्र
भारतवर्ष में जो धर्मिष्ठा तथा पतिव्रता शान्तिस्वरूपा लक्ष्मी
है, उसका पति मैं ही हूँ । हे सुन्दरि ! सिद्धेश्वर सिद्धिदाता
साक्षात् कपिल मैं ही हूँ । इस प्रकार व्यक्ति-भेद से मैं (कृष्ण)
हर तरह का रूप धारण करता हूँ ।''
हे सुन्दरि ! मैं चतुर्भुजरूप धारणकर सदा द्वारका(१) में
रुक्मिणी का पति होता हूँ और क्षीरसागर में शयन करने वाला
मैं ही सत्यभामा के सुन्दर भवन में निवास करता हूँ । हे
राधे ! द्वारका में अन्यान्य रानियों के भवनों में भी मैं ही
पृथक्-पृथक् शरीर-धारणकर क्रीडा करता हूँ । मैं
नारायण इस अर्जुन का सारथि हूँ । हे राधे ! अर्जुन नर-ऋषि
है, धर्म का पुत्र है और बलवान् है । मेरे अंश से भूतल पर
प्रकट हुआ है । उसने पुष्करक्षेत्र में सारथि-कार्य के तप द्वारा
मेरी राधना की है । हे राधे ! जैसे तुम गोलोक में राधिका देवी हो,
उसी तरह गोकुल में भी हो । तुम्हीं वैकुण्ठ में महालक्ष्मी और
सरस्वती हो । हे राधे ! क्षीरोदशायी की प्रिया और महालक्ष्मी तुम्ही
हो । भारत में सती तुम हो, भारती तुम्हारा ही नाम है । तुम कपिल
की प्यारी पत्नी हो । तुम्हीं मिथिला में सीता नाम से विख्यात हो और
सती द्रोपदी तुम्हारी छाया है । हे राधे ! द्वारका में महालक्ष्मी के
अंश से प्रकट हुई सती रुक्मिणी के रूप में तुम्हीं निवास करती हो ।
पाँचों पाण्डवों की पत्नी द्रोपदी तुम्हारी कला से प्रकट हुई है ।
हे राधे! तुम्ही दाशरथि रामचन्द्र की भार्या होकर रावण द्वारा
हरण की गयी थीं । जैसे तुम अपनी छाया और कला से नानारूपों में
सम्पूर्ण विश्व में प्रकट होती हो, वैसे ही मैं भी अपने अंश
और कला से अनेक रूपों में व्यक्त होता हूँ । मैं परिपूर्णतम
परात्पर परमात्मा हूँ । हे सती ! हे राधे ! इस प्रकार मैंने
तुमको यह सब आध्यात्मिक युग्मतत्त्व का माहात्म्य बता दिया है ।
अब हे परमेश्वरि ! तुम मेरे सब अपराधों को क्षमा कर दो ।
(१) द्वारका- द्वारे द्वारे कं - ब्रह्म यस्यां पूर्यां सा द्वारका । कं
ब्रह्म खं ब्रह्मेति श्रुतेः । अर्थ - द्वार-द्वार मे ``क'' नाम ब्रह्म
जिस पूरी में वह द्वारका हैं ।
राधाजी की शरण से कृष्ण वश में हो जाते हैं-
सकृदावां प्रपन्नो वा मत्प्रियामेकिका सुत ।
सेवतेऽवन्यभावेन स मामेति न संशयः ॥ ८३॥
यो मामेव प्रपन्नश्च मत्प्रियां न महेश्वर ।
न कदापि स चाप्नोति मामेवं ते मयोदितम् ॥ ८४॥
सकृदेव प्रपन्नो यस्तवास्मीति वदेदपि ।
साधनेन विनाप्येव मामाप्नोति न संशयः ॥ ८५॥
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मत्प्रियां शरणं व्रज ।
आश्रित्य मत्प्रियां रुद्र मां वशीकर्तुमर्हसि ॥ ८६॥
इदं रहस्य परमं मया ते परिकीर्तितम् ।
त्वयाप्येतन्महादेव गोपनीयं प्रयत्नतः ॥ ८७॥
त्वमप्येनां समाश्रित्य राधिकां मम वल्लभाम् ।
जपन्मे युगलं मन्त्रं सदा तिष्ठ मदालये ॥ ८८॥
(पद्मपुराण पातालखण्ड(५) अध्यायः ८२)
विश्वात्मा भगवान् श्रीकृष्ण के प्रसाद से ब्रह्मा और क्रोध से
रुद्र उत्पन्न हुए हैं । (श्रीमद्भागवत १२/५/१) अतः ये दोनों उनके
ही पुत्र हैं । इसलिये भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-हे पुत्र
(शिव) जो प्रपन्न (शरणागत) एक बार हम दोनों की शरण में
आ जाता है और आकर मेरी उपासना करता है, वह निस्सन्देह मुझ को
प्राप्त हो जाता है । हे महेश्वर ! इसके विपरीत (उल्टा) जो केवल मेरी
शरण में आ गया है, पर मेरी प्रिया राधाजी की शरण में नहीं
गया, वह कभी भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता है । यह मैंने
तुमसे गुह्य बात बताई है । जो प्रपन्न एक बार ही हम दोनों की
शरण में आकर ``मैं आप दोनों (युगल प्रिया-प्रियतम) का
हूँ'' यों कह देता है, वह बिना साधन के भी मुझे प्राप्त कर
लेता है । इसमें कोई संशय नहीं है । इसलिये हे रुद्र ! तुम
सब प्रकार से प्रयत्न करके मेरी प्रिया राधाजी की शरण में जाओ,
तुम मेरी प्रिया का सहारा लेकर ही मुझे वश में कर सकते हो ।
हे महादेव! तुम्हें भी इसको प्रयत्न से गोपन रखना चाहिये । अब
तुम मेरी प्रिया राधाजी की शरण लेकर हमारे युगल नाम महामन्त्र
का जप करते हुए सदा हमारे आलय-श्रीधाम वृन्दावन में रहो ।
First four verses and the last one are included as a reference and
are not translated.
Encoded and proofread by Ananth Raman