ईश्वरस्तुतिः सार्था
(शार्दूलविक्रीडितम् छन्दः)
वेदा यं पुरुषं निरन्तरमजं ध्यायन्ति गायन्ति च
प्राणायामपरायणैश्च सततं यो गीयते योगिभिः ।
सोऽयं ब्रह्मशिवेश्वरप्रणवसत्कर्त्रादि शब्दैः स्मृतो
नित्यं वः प्रददातु वाञ्छितफलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ॥ १॥
चारों वेद जिस अनादि अनन्त महाशक्ति का चिन्तन करते हैं और गुणगान करते हैं, योगी लोग प्राणायाम आदि साधनों से जिसका गान करते हैं, जिसे लोग अपनी अपनी रुचि के अनुसार ब्रह्मा शिव ईश्वर ओ३म् सत् कर्ता आदि शब्दों से स्मरण करते हैं, वह तीनों लोकों का स्वामी भगवान् परमेश्वर आप लोगों की सब इच्छाएं सफल करें ॥ १
सूर्याचन्द्रमसौ निरन्तरमिमौ यस्याज्ञया धावतः
आकाशक्षितिवह्निवारिमरुतः स्वीयाः क्रियाः कुर्वते ।
यस्यादेशवशाद् गिरिः स्वशिरसा धत्ते हिमं शाश्वतम्
देवानामपि देवदेवमखिलं वन्दामहे तं प्रभुम् ॥ २॥
यह सूर्य और चन्द्र जिसकी आज्ञा से सदा दौड़ते रहते हैं, यह पञ्चमहाभूत अर्थात् आकाश पृथ्वी अग्नि जल हवा जिसकी आज्ञा से सदा अपने अपने कार्य किया करते हैं, जिसकी आज्ञा से हिमालय पर्वत अपनी चोटियों पर अनादि काल से बरफ को धारण किए हुए है, देवों के भी देव उस परमेश्वर प्रभु को हम प्रणाम करते हैं ॥ २
लब्ध्वा यस्य कृपाकटाक्षमणुमप्यन्धोऽखिलं पश्यति
मूको वक्ति सुखं शृणोति बधिरः पङ्गुर्गिरिं लङ्घते ।
रोगी स्वास्थ्यमुपैति किञ्च लभते वित्तं दरिद्रोजनः
नौमीशं तमहं नतेन शिरसा सर्वात्मना सादरम् ॥ ३॥
जिसकी थोडी सी कृपा हो जाने पर अन्धा भी सब कुछ देखने लगता है, गूंगा बोलने लगता है, बहिरा सुनने लगता है, लंगडा पहाडको लांघने लगता है, रोगी स्वस्थ हो जाता निर्धन अपने अभीष्ट धन को पा लेता है, उस परमेश्वर को मैं श्रद्धा से सिर झुकाकर प्रणाम करता हूँ ॥ ३
प्राग्दन्तप्रभवाद् ददाति नियतं दुग्धं शिशूनां कृते
भूमौ व्योमि जले प्रयच्छति सदा यो भोजनं प्राणिने ।
न्यायं यः कुरुते दयाञ्च युगपत् सर्वेषु लोकेष्वपि
ईशं तं शरणं प्रयात सुहृदो, नान्या गतिर्विद्यते ॥ ४॥
दांत निकलने से पूर्व बच्चों के लिए जो दूध प्रदान कर देता है, आकाश में तथा जल में और स्थल में जो सब प्राणियों को भोजन देता है, जो सब प्राणियों पर दया भी करता है और साथ ही साथ न्याय भी करता है, उसी परमेश्वर की शरण में ऐ लोगो तुम सब जाओ, कोई अन्य व्यक्ति शरण देने वाला नहीं है ॥ ४
बुद्ध्या यो न विचार्यते न मनसा विज्ञायते नेन्द्रियैः
ईदृक्तामतियाति यस्तु भगवान् सर्वामियत्तामपि ।
दिक्कालावपि न प्रभू यमखिलं निर्देष्टुमीशं क्वचित्
तं सर्वेशमनन्तशक्तिममरं याचेऽनुकम्पामहम् ॥ ५॥
बुद्धि जिसका विचार नहीं कर सकती, मन जिसे सोच नहीं सकता, इन्द्रियां जिसका प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं, जिसे हम ``वह इतना है'' अथवा ``वह ऐसा है'' इस प्रकार नहीं समझ सकते, जिसका स्वरूप दिशाओं के द्वारा अथवा काल के द्वारा निर्देश नहीं किया जा सकता, उस सर्वज्ञ सर्व शक्तिमान् सबके मालिक अजर अमर परमेश्वर से हम दया की भिक्षा मांगते हैं ॥ ५
नाथ प्रेममय प्रसीद भगवन् बुद्धिं शुभां यच्छ नः
विद्यां धैर्यमुपासनां त्वयि रतिं सिद्धिं प्रयच्छ प्रभो ।
साफल्यं परमं लभेमहि वयं सर्वेषु कार्येष्वपि
सश्रद्धा च निरन्तरा स्थिरतमा भक्तिस्त्वयि स्यात्सदा ॥ ६॥
हे प्रेममय प्रभो, स्वामिन्, हम पर कृपा करो। हमें सद्बुद्धि प्रदान करो । विद्या धैर्य उपासना भक्ति और सिद्धि हमें दीजिए। हम अपने सब कार्यों में सदा सफल हों। आप में हमारी सच्ची श्रद्धा और स्थिर भक्ति सदा बनी रहे ॥ ६
इति जनमेजयः विद्यालंकारः विरचिता ईश्वरस्तुतिः समाप्ता ॥
Composed and translated by Janamejaya Vidyalankar
Encoded and proofread by Nikhil Kancharlawar