उल्लापनगीतम् सार्थं हिन्दी
मदालसोपाख्यान - बालोल्लापनगीतम् सार्थम् हिन्दी
Queen Madalasa's lullaby to her 1st born, Vikranta;
Markandeya Purana, Ch. 25
मन्दालसा का पुत्र को उपदेश ।
उपजाति वृत्तम् ॥
शुद्धोऽसि बुद्धोऽसि निरञ्जनोऽसि
संसारमायापरिवर्जितोऽसि ।
संसारस्वप्नं त्यज मोहनिद्रां
मन्दालसोल्लापमुवाच पुत्रम् ॥ १॥
मन्दालसा ने पुत्र को उपदेश दिया- ``हे पुत्र ! तू शुद्ध है,
चैतन्य स्वरूप है, निरञ्जन है, संसार रूपी माया से रहित है,
इसलिये संसार स्वप्नरूपी मोह निद्रा को त्याग ॥ १॥
शुद्धोऽसि रे तात न तेस्ति नाम-
कृतं हि तत्कल्पनयाधुनैव ।
पञ्चात्मकं देहमिदं न तेस्ति
नैवास्य त्वं रोदिषि कस्य हेतोः ॥ २॥
हे तात! तू शुद्ध स्वरूप है और तेरा नाम भी नहीं है । वह
नाम अभी कल्पना से रखा गया है । पञ्च भौतिक यह शरीर
तेरा नहीं है, और न तू उसका है, फिर तू क्यों रोता है ॥ २॥
न वै भवान् रोदिति विश्वजन्मा
शब्दोयमासाद्य महीशसूनुम् ।
विकल्प्यमानो विविधैर्गुणैस्ते
गुणाश्च भौताः सकलेन्द्रियेषु ॥ ३॥
तुम जो समस्त विश्व के जीवन रूप हो रोते नहीं हो ।
शब्द ही राजपुत्र को प्राप्त होकर नाना गुणों से विकल्प को
प्राप्त होता है और वे भौतिक गुण ही सब इन्द्रियों में विकल्प को
प्राप्त होते हैं ॥ ३॥
भूतानि-भूतैः परिदुर्बलानि
वृद्धिं समायान्ति यथेह पुंसः ।
अन्नाम्बुपानादिभिरेव तस्मात्
न तेस्ति वृद्धिर्नच तेस्ति हानिः ॥ ४॥
भूत भूतों करके वृद्धि तथा क्षीणता को प्राप्त होते हैं । ये
पुरुष जो अन्न जलादिक भोजन से वृद्धि तथा क्षीणता को प्राप्त
होते हैं, वह ऐसा ही है, इसलिये इससे न तेरी वृद्धि है, न
हानि है ॥ ४॥
त्वं कञ्चुके शीर्यमाणो निजेस्मिन्
तस्मिन्देहे मूढतां मा व्रजेथाः ।
शुभाशुभैः कर्मभिर्देहमेत-
न्मृदादिभिः कञ्चुकस्ते पिनद्धः ॥ ५॥
हाड मांस रूप यह देह पुण्य पाप रूप कर्मों से उत्पन्न
हुआ पृथ्वी आदि से व्याप्त है । इस नाश वाली कञ्चुक रूप देह
में आत्म बुद्धि करके मूढता को मत प्राप्त हो ॥ ५॥
तातेति किञ्चित्तनयेति किञ्चि-
दंवेति किञ्चिद्दयितेति किञ्चित् ।
ममेति किञ्चिन्न ममेति किञ्चि-
त्त्वं भूतसङ्घं बहु मा नयेथाः ॥ ६॥
किसी को पिता, किसी को पुत्र, किसी को माता, किसीको
स्त्री, किसी को मेरा, किसी को मेरा नहीं, इस प्रकार भूतों के
समुदाय को तू अपने पास अधिक मत अपना ॥ ६॥
सुखानि दुःखोपशमाय भोगान्
सुखाय जानाति विमूढचेताः ।
तान्येव दुःखानि पुनः सुखानि
जानाति विद्वानविमूढ चेताः ॥ ७॥
मूढ मनुष्य विषयजन्य सुखों को दुःख की निवृत्ति के अर्थ
जान कर भोगों को सुख रूप मानता है और विद्वान् पुरुष
विषयों से होने वाले उन्हीं दुःखो को सुख रूप जानता है यानी
मोक्ष प्राप्ति के अर्थ जानता है ॥ ७॥
हासोस्थिसन्दर्शनमक्षियुग्म-
मत्युज्ज्वलं तत्कलुषं वसायाः ।
कुचादि पीनं पिशितः धनं तत्
स्थानं रतेः किं नरको न योषित् ॥ ८॥
हँसने में हड्डियों का दर्शन होता है, अति सुन्दर दोनों नेत्र
चर्बी से मलिन हैं, पीनस्तन बहुत सा मांस है, क्या स्त्री का रति
का स्थान नरक नहीं है ? अर्थात् अवश्य है ॥ ८॥
यानं क्षितौतत्र गतश्च देहो
देहेपि चान्यः पुरुषो निविष्ठः ।
ममत्वमुर्व्यां न यथा तथास्मिन्
देहेतिमात्रं बत मूढतैषा ॥ ९॥
वाहन पृथिवी में स्थित है, उसमें शरीर स्थित है, उस देह
में अन्य पुरुष स्थित है, जैसे कोई पृथिवी और वाहन में ममता
नहीं करता और यदि इस देह में आत्म बुद्धि करता है तो वह
एक मूर्खता की पराकाष्ठा है ॥ ९॥
इति मन्दालसाकथितं उपदेशं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Aruna Narayanan narayanan.aruna at gmail.com