श्री राम चरित मानस

श्री राम चरित मानस

श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस ---------- तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) श्लोक मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ १ ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥ प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा ॥ पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥ श्री गणेशाय नमः श्री जानकीवल्लभो विजयते श्री रामचरितमानस ---------- तृतीय सोपान (अरण्यकाण्ड) श्लोक मूलं धर्मतरोर्विवेकजलधेः पूर्णेन्दुमानन्ददं वैराग्याम्बुजभास्करं ह्यघघनध्वान्तापहं तापहम्। मोहाम्भोधरपूगपाटनविधौ स्वःसम्भवं शङ्करं वन्दे ब्रह्मकुलं कलंकशमनं श्रीरामभूपप्रियम् ॥ १ ॥ सान्द्रानन्दपयोदसौभगतनुं पीताम्बरं सुन्दरं पाणौ बाणशरासनं कटिलसत्तूणीरभारं वरम् राजीवायतलोचनं धृतजटाजूटेन संशोभितं सीतालक्ष्मणसंयुतं पथिगतं रामाभिरामं भजे ॥ २ ॥ सो. उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति। पावहिं मोह बिमूढ़ जे हरि बिमुख न धर्म रति ॥ पुर नर भरत प्रीति मैं गाई। मति अनुरूप अनूप सुहाई ॥ अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन। करत जे बन सुर नर मुनि भावन ॥ एक बार चुनि कुसुम सुहाए। निज कर भूषन राम बनाए ॥ सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर ॥ सुरपति सुत धरि बायस बेषा। सठ चाहत रघुपति बल देखा ॥ जिमि पिपीलिका सागर थाहा। महा मंदमति पावन चाहा ॥ सीता चरन चौंच हति भागा। मूढ़ मंदमति कारन कागा ॥ चला रुधिर रघुनायक जाना। सींक धनुष सायक संधाना ॥ दो. अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह। ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥ प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा। चला भाजि बायस भय पावा ॥ धरि निज रुप गयउ पितु पाहीं। राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥ भा निरास उपजी मन त्रासा। जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥ ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका। फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ काहूँ बैठन कहा न ओही। राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥ मातु मृत्यु पितु समन समाना। सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ मित्र करइ सत रिपु कै करनी। ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥ सब जगु ताहि अनलहु ते ताता। जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ नारद देखा बिकल जयंता। लागि दया कोमल चित संता ॥ पठवा तुरत राम पहिं ताही। कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ आतुर सभय गहेसि पद जाई। त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥ अतुलित बल अतुलित प्रभुताई। मैं मतिमंद जानि नहिं पाई ॥ निज कृत कर्म जनित फल पायउँ। अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥ सुनि कृपाल अति आरत बानी। एकनयन करि तजा भवानी ॥ सो. कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित। प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥ रघुपति चित्रकूट बसि नाना। चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥ बहुरि राम अस मन अनुमाना। होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई। सीता सहित चले द्वौ भाई ॥ अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ। सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥ पुलकित गात अत्रि उठि धाए। देखि रामु आतुर चलि आए ॥ करत दंडवत मुनि उर लाए। प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ देखि राम छबि नयन जुड़ाने। सादर निज आश्रम तब आने ॥ करि पूजा कहि बचन सुहाए। दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ सो. प्रभु आसन आसीन भरि लोचन सोभा निरखि। मुनिबर परम प्रबीन जोरि पानि अस्तुति करत ॥ ३ ॥ छं. नमामि भक्त वत्सलं। कृपालु शील कोमलं ॥ भजामि ते पदांबुजं। अकामिनां स्वधामदं ॥ निकाम श्याम सुंदरं। भवाम्बुनाथ मंदरं ॥ प्रफुल्ल कंज लोचनं। मदादि दोष मोचनं ॥ प्रलंब बाहु विक्रमं। प्रभोऽप्रमेय वैभवं ॥ निषंग चाप सायकं। धरं त्रिलोक नायकं ॥ दिनेश वंश मंडनं। महेश चाप खंडनं ॥ मुनींद्र संत रंजनं। सुरारि वृंद भंजनं ॥ मनोज वैरि वंदितं। अजादि देव सेवितं ॥ विशुद्ध बोध विग्रहं। समस्त दूषणापहं ॥ नमामि इंदिरा पतिं। सुखाकरं सतां गतिं ॥ भजे सशक्ति सानुजं। शची पतिं प्रियानुजं ॥ त्वदंघ्रि मूल ये नराः। भजंति हीन मत्सरा ॥ पतंति नो भवार्णवे। वितर्क वीचि संकुले ॥ विविक्त वासिनः सदा। भजंति मुक्तये मुदा ॥ निरस्य इंद्रियादिकं। प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥ तमेकमभ्दुतं प्रभुं। निरीहमीश्वरं विभुं ॥ जगद्गुरुं च शाश्वतं। तुरीयमेव केवलं ॥ भजामि भाव वल्लभं। कुयोगिनां सुदुर्लभं ॥ स्वभक्त कल्प पादपं। समं सुसेव्यमन्वहं ॥ अनूप रूप भूपतिं। नतोऽहमुर्विजा पतिं ॥ प्रसीद मे नमामि ते। पदाब्ज भक्ति देहि मे ॥ पठंति ये स्तवं इदं। नरादरेण ते पदं ॥ व्रजंति नात्र संशयं। त्वदीय भक्ति संयुता ॥ दो. बिनती करि मुनि नाइ सिरु कह कर जोरि बहोरि। चरन सरोरुह नाथ जनि कबहुँ तजै मति मोरि ॥ ४ ॥ अनुसुइया के पद गहि सीता। मिली बहोरि सुसील बिनीता ॥ रिषिपतिनी मन सुख अधिकाई। आसिष देइ निकट बैठाई ॥ दिब्य बसन भूषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए ॥ कह रिषिबधू सरस मृदु बानी। नारिधर्म कछु ब्याज बखानी ॥ मातु पिता भ्राता हितकारी। मितप्रद सब सुनु राजकुमारी ॥ अमित दानि भर्ता बयदेही। अधम सो नारि जो सेव न तेही ॥ धीरज धर्म मित्र अरु नारी। आपद काल परिखिअहिं चारी ॥ बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना। अधं बधिर क्रोधी अति दीना ॥ ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना। नारि पाव जमपुर दुख नाना ॥ एकइ धर्म एक ब्रत नेमा। कायँ बचन मन पति पद प्रेमा ॥ जग पति ब्रता चारि बिधि अहहिं। बेद पुरान संत सब कहहिं ॥ उत्तम के अस बस मन माहीं। सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं ॥ मध्यम परपति देखइ कैसें। भ्राता पिता पुत्र निज जैंसें ॥ धर्म बिचारि समुझि कुल रहई। सो निकिष्ट त्रिय श्रुति अस कहई ॥ बिनु अवसर भय तें रह जोई। जानेहु अधम नारि जग सोई ॥ पति बंचक परपति रति करई। रौरव नरक कल्प सत परई ॥ छन सुख लागि जनम सत कोटि। दुख न समुझ तेहि सम को खोटी ॥ बिनु श्रम नारि परम गति लहई। पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई ॥ पति प्रतिकुल जनम जहँ जाई। बिधवा होई पाई तरुनाई ॥ सो. सहज अपावनि नारि पति सेवत सुभ गति लहइ। जसु गावत श्रुति चारि अजहु तुलसिका हरिहि प्रिय ॥ ५क ॥ सनु सीता तव नाम सुमिर नारि पतिब्रत करहि। तोहि प्रानप्रिय राम कहिउँ कथा संसार हित ॥ ५ख ॥ सुनि जानकीं परम सुखु पावा। सादर तासु चरन सिरु नावा ॥ तब मुनि सन कह कृपानिधाना। आयसु होइ जाउँ बन आना ॥ संतत मो पर कृपा करेहू। सेवक जानि तजेहु जनि नेहू ॥ धर्म धुरंधर प्रभु कै बानी। सुनि सप्रेम बोले मुनि ग्यानी ॥ जासु कृपा अज सिव सनकादी। चहत सकल परमारथ बादी ॥ ते तुम्ह राम अकाम पिआरे। दीन बंधु मृदु बचन उचारे ॥ अब जानी मैं श्री चतुराई। भजी तुम्हहि सब देव बिहाई ॥ जेहि समान अतिसय नहिं कोई। ता कर सील कस न अस होई ॥ केहि बिधि कहौं जाहु अब स्वामी। कहहु नाथ तुम्ह अंतरजामी ॥ अस कहि प्रभु बिलोकि मुनि धीरा। लोचन जल बह पुलक सरीरा ॥ छं. तन पुलक निर्भर प्रेम पुरन नयन मुख पंकज दिए। मन ग्यान गुन गोतीत प्रभु मैं दीख जप तप का किए ॥ जप जोग धर्म समूह तें नर भगति अनुपम पावई। रधुबीर चरित पुनीत निसि दिन दास तुलसी गावई ॥ दो. कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल। सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल ॥ ६(क) ॥ सो. कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप। परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर ॥ ६(ख) ॥ मुनि पद कमल नाइ करि सीसा। चले बनहि सुर नर मुनि ईसा ॥ आगे राम अनुज पुनि पाछें। मुनि बर बेष बने अति काछें ॥ उमय बीच श्री सोहइ कैसी। ब्रह्म जीव बिच माया जैसी ॥ सरिता बन गिरि अवघट घाटा। पति पहिचानी देहिं बर बाटा ॥ जहँ जहँ जाहि देव रघुराया। करहिं मेध तहँ तहँ नभ छाया ॥ मिला असुर बिराध मग जाता। आवतहीं रघुवीर निपाता ॥ तुरतहिं रुचिर रूप तेहिं पावा। देखि दुखी निज धाम पठावा ॥ पुनि आए जहँ मुनि सरभंगा। सुंदर अनुज जानकी संगा ॥ दो. देखी राम मुख पंकज मुनिबर लोचन भृंग। सादर पान करत अति धन्य जन्म सरभंग ॥ ७ ॥ कह मुनि सुनु रघुबीर कृपाला। संकर मानस राजमराला ॥ जात रहेउँ बिरंचि के धामा। सुनेउँ श्रवन बन ऐहहिं रामा ॥ चितवत पंथ रहेउँ दिन राती। अब प्रभु देखि जुड़ानी छाती ॥ नाथ सकल साधन मैं हीना। कीन्ही कृपा जानि जन दीना ॥ सो कछु देव न मोहि निहोरा। निज पन राखेउ जन मन चोरा ॥ तब लगि रहहु दीन हित लागी। जब लगि मिलौं तुम्हहि तनु त्यागी ॥ जोग जग्य जप तप ब्रत कीन्हा। प्रभु कहँ देइ भगति बर लीन्हा ॥ एहि बिधि सर रचि मुनि सरभंगा। बैठे हृदयँ छाड़ि सब संगा ॥ दो. सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम। मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम ॥ ८ ॥ अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। राम कृपाँ बैकुंठ सिधारा ॥ ताते मुनि हरि लीन न भयऊ। प्रथमहिं भेद भगति बर लयऊ ॥ रिषि निकाय मुनिबर गति देखि। सुखी भए निज हृदयँ बिसेषी ॥ अस्तुति करहिं सकल मुनि बृंदा। जयति प्रनत हित करुना कंदा ॥ पुनि रघुनाथ चले बन आगे। मुनिबर बृंद बिपुल सँग लागे ॥ अस्थि समूह देखि रघुराया। पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया ॥ जानतहुँ पूछिअ कस स्वामी। सबदरसी तुम्ह अंतरजामी ॥ निसिचर निकर सकल मुनि खाए। सुनि रघुबीर नयन जल छाए ॥ दो. निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह। सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह ॥ ९ ॥ मुनि अगस्ति कर सिष्य सुजाना। नाम सुतीछन रति भगवाना ॥ मन क्रम बचन राम पद सेवक। सपनेहुँ आन भरोस न देवक ॥ प्रभु आगवनु श्रवन सुनि पावा। करत मनोरथ आतुर धावा ॥ हे बिधि दीनबंधु रघुराया। मो से सठ पर करिहहिं दाया ॥ सहित अनुज मोहि राम गोसाई। मिलिहहिं निज सेवक की नाई ॥ मोरे जियँ भरोस दृढ़ नाहीं। भगति बिरति न ग्यान मन माहीं ॥ नहिं सतसंग जोग जप जागा। नहिं दृढ़ चरन कमल अनुरागा ॥ एक बानि करुनानिधान की। सो प्रिय जाकें गति न आन की ॥ होइहैं सुफल आजु मम लोचन। देखि बदन पंकज भव मोचन ॥ निर्भर प्रेम मगन मुनि ग्यानी। कहि न जाइ सो दसा भवानी ॥ दिसि अरु बिदिसि पंथ नहिं सूझा। को मैं चलेउँ कहाँ नहिं बूझा ॥ कबहुँक फिरि पाछें पुनि जाई। कबहुँक नृत्य करइ गुन गाई ॥ अबिरल प्रेम भगति मुनि पाई। प्रभु देखैं तरु ओट लुकाई ॥ अतिसय प्रीति देखि रघुबीरा। प्रगटे हृदयँ हरन भव भीरा ॥ मुनि मग माझ अचल होइ बैसा। पुलक सरीर पनस फल जैसा ॥ तब रघुनाथ निकट चलि आए। देखि दसा निज जन मन भाए ॥ मुनिहि राम बहु भाँति जगावा। जाग न ध्यानजनित सुख पावा ॥ भूप रूप तब राम दुरावा। हृदयँ चतुर्भुज रूप देखावा ॥ मुनि अकुलाइ उठा तब कैसें। बिकल हीन मनि फनि बर जैसें ॥ आगें देखि राम तन स्यामा। सीता अनुज सहित सुख धामा ॥ परेउ लकुट इव चरनन्हि लागी। प्रेम मगन मुनिबर बड़भागी ॥ भुज बिसाल गहि लिए उठाई। परम प्रीति राखे उर लाई ॥ मुनिहि मिलत अस सोह कृपाला। कनक तरुहि जनु भेंट तमाला ॥ राम बदनु बिलोक मुनि ठाढ़ा। मानहुँ चित्र माझ लिखि काढ़ा ॥ दो. तब मुनि हृदयँ धीर धीर गहि पद बारहिं बार। निज आश्रम प्रभु आनि करि पूजा बिबिध प्रकार ॥ १० ॥ कह मुनि प्रभु सुनु बिनती मोरी। अस्तुति करौं कवन बिधि तोरी ॥ महिमा अमित मोरि मति थोरी। रबि सन्मुख खद्योत अँजोरी ॥ श्याम तामरस दाम शरीरं। जटा मुकुट परिधन मुनिचीरं ॥ पाणि चाप शर कटि तूणीरं। नौमि निरंतर श्रीरघुवीरं ॥ मोह विपिन घन दहन कृशानुः। संत सरोरुह कानन भानुः ॥ निशिचर करि वरूथ मृगराजः। त्रातु सदा नो भव खग बाजः ॥ अरुण नयन राजीव सुवेशं। सीता नयन चकोर निशेशं ॥ हर ह्रदि मानस बाल मरालं। नौमि राम उर बाहु विशालं ॥ संशय सर्प ग्रसन उरगादः। शमन सुकर्कश तर्क विषादः ॥ भव भंजन रंजन सुर यूथः। त्रातु सदा नो कृपा वरूथः ॥ निर्गुण सगुण विषम सम रूपं। ज्ञान गिरा गोतीतमनूपं ॥ अमलमखिलमनवद्यमपारं। नौमि राम भंजन महि भारं ॥ भक्त कल्पपादप आरामः। तर्जन क्रोध लोभ मद कामः ॥ अति नागर भव सागर सेतुः। त्रातु सदा दिनकर कुल केतुः ॥ अतुलित भुज प्रताप बल धामः। कलि मल विपुल विभंजन नामः ॥ धर्म वर्म नर्मद गुण ग्रामः। संतत शं तनोतु मम रामः ॥ जदपि बिरज ब्यापक अबिनासी। सब के हृदयँ निरंतर बासी ॥ तदपि अनुज श्री सहित खरारी। बसतु मनसि मम काननचारी ॥ जे जानहिं ते जानहुँ स्वामी। सगुन अगुन उर अंतरजामी ॥ जो कोसल पति राजिव नयना। करउ सो राम हृदय मम अयना। अस अभिमान जाइ जनि भोरे। मैं सेवक रघुपति पति मोरे ॥ सुनि मुनि बचन राम मन भाए। बहुरि हरषि मुनिबर उर लाए ॥ परम प्रसन्न जानु मुनि मोही। जो बर मागहु देउ सो तोही ॥ मुनि कह मै बर कबहुँ न जाचा। समुझि न परइ झूठ का साचा ॥ तुम्हहि नीक लागै रघुराई। सो मोहि देहु दास सुखदाई ॥ अबिरल भगति बिरति बिग्याना। होहु सकल गुन ग्यान निधाना ॥ प्रभु जो दीन्ह सो बरु मैं पावा। अब सो देहु मोहि जो भावा ॥ दो. अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बान धर राम। मम हिय गगन इंदु इव बसहु सदा निहकाम ॥ ११ ॥ एवमस्तु करि रमानिवासा। हरषि चले कुभंज रिषि पासा ॥ बहुत दिवस गुर दरसन पाएँ। भए मोहि एहिं आश्रम आएँ ॥ अब प्रभु संग जाउँ गुर पाहीं। तुम्ह कहँ नाथ निहोरा नाहीं ॥ देखि कृपानिधि मुनि चतुराई। लिए संग बिहसै द्वौ भाई ॥ पंथ कहत निज भगति अनूपा। मुनि आश्रम पहुँचे सुरभूपा ॥ तुरत सुतीछन गुर पहिं गयऊ। करि दंडवत कहत अस भयऊ ॥ नाथ कौसलाधीस कुमारा। आए मिलन जगत आधारा ॥ राम अनुज समेत बैदेही। निसि दिनु देव जपत हहु जेही ॥ सुनत अगस्ति तुरत उठि धाए। हरि बिलोकि लोचन जल छाए ॥ मुनि पद कमल परे द्वौ भाई। रिषि अति प्रीति लिए उर लाई ॥ सादर कुसल पूछि मुनि ग्यानी। आसन बर बैठारे आनी ॥ पुनि करि बहु प्रकार प्रभु पूजा। मोहि सम भाग्यवंत नहिं दूजा ॥ जहँ लगि रहे अपर मुनि बृंदा। हरषे सब बिलोकि सुखकंदा ॥ दो. मुनि समूह महँ बैठे सन्मुख सब की ओर। सरद इंदु तन चितवत मानहुँ निकर चकोर ॥ १२ ॥ तब रघुबीर कहा मुनि पाहीं। तुम्ह सन प्रभु दुराव कछु नाही ॥ तुम्ह जानहु जेहि कारन आयउँ। ताते तात न कहि समुझायउँ ॥ अब सो मंत्र देहु प्रभु मोही। जेहि प्रकार मारौं मुनिद्रोही ॥ मुनि मुसकाने सुनि प्रभु बानी। पूछेहु नाथ मोहि का जानी ॥ तुम्हरेइँ भजन प्रभाव अघारी। जानउँ महिमा कछुक तुम्हारी ॥ ऊमरि तरु बिसाल तव माया। फल ब्रह्मांड अनेक निकाया ॥ जीव चराचर जंतु समाना। भीतर बसहि न जानहिं आना ॥ ते फल भच्छक कठिन कराला। तव भयँ डरत सदा सोउ काला ॥ ते तुम्ह सकल लोकपति साईं। पूँछेहु मोहि मनुज की नाईं ॥ यह बर मागउँ कृपानिकेता। बसहु हृदयँ श्री अनुज समेता ॥ अबिरल भगति बिरति सतसंगा। चरन सरोरुह प्रीति अभंगा ॥ जद्यपि ब्रह्म अखंड अनंता। अनुभव गम्य भजहिं जेहि संता ॥ अस तव रूप बखानउँ जानउँ। फिरि फिरि सगुन ब्रह्म रति मानउँ ॥ संतत दासन्ह देहु बड़ाई। तातें मोहि पूँछेहु रघुराई ॥ है प्रभु परम मनोहर ठाऊँ। पावन पंचबटी तेहि नाऊँ ॥ दंडक बन पुनीत प्रभु करहू। उग्र साप मुनिबर कर हरहू ॥ बास करहु तहँ रघुकुल राया। कीजे सकल मुनिन्ह पर दाया ॥ चले राम मुनि आयसु पाई। तुरतहिं पंचबटी निअराई ॥ दो. गीधराज सैं भैंट भइ बहु बिधि प्रीति बढ़ाइ ॥ गोदावरी निकट प्रभु रहे परन गृह छाइ ॥ १३ ॥ जब ते राम कीन्ह तहँ बासा। सुखी भए मुनि बीती त्रासा ॥ गिरि बन नदीं ताल छबि छाए। दिन दिन प्रति अति हौहिं सुहाए ॥ खग मृग बृंद अनंदित रहहीं। मधुप मधुर गंजत छबि लहहीं ॥ सो बन बरनि न सक अहिराजा। जहाँ प्रगट रघुबीर बिराजा ॥ एक बार प्रभु सुख आसीना। लछिमन बचन कहे छलहीना ॥ सुर नर मुनि सचराचर साईं। मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई ॥ मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा। सब तजि करौं चरन रज सेवा ॥ कहहु ग्यान बिराग अरु माया। कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया ॥ दो. ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ ॥ जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ ॥ १४ ॥ थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई ॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया ॥ गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई ॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ॥ एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस जीव परा भवकूपा ॥ एक रचइ जग गुन बस जाकें। प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें ॥ ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं। देख ब्रह्म समान सब माही ॥ कहिअ तात सो परम बिरागी। तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी ॥ दो. माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव ॥ १५ ॥ धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना। ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना ॥ जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई। सो मम भगति भगत सुखदाई ॥ सो सुतंत्र अवलंब न आना। तेहि आधीन ग्यान बिग्याना ॥ भगति तात अनुपम सुखमूला। मिलइ जो संत होइँ अनुकूला ॥ भगति कि साधन कहउँ बखानी। सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥ प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती। निज निज कर्म निरत श्रुति रीती ॥ एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा। तब मम धर्म उपज अनुरागा ॥ श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं। मम लीला रति अति मन माहीं ॥ संत चरन पंकज अति प्रेमा। मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा ॥ गुरु पितु मातु बंधु पति देवा। सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा ॥ मम गुन गावत पुलक सरीरा। गदगद गिरा नयन बह नीरा ॥ काम आदि मद दंभ न जाकें। तात निरंतर बस मैं ताकें ॥ दो. बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम ॥ तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम ॥ १६ ॥ भगति जोग सुनि अति सुख पावा। लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरु नावा ॥ एहि बिधि गए कछुक दिन बीती। कहत बिराग ग्यान गुन नीती ॥ सूपनखा रावन कै बहिनी। दुष्ट हृदय दारुन जस अहिनी ॥ पंचबटी सो गइ एक बारा। देखि बिकल भइ जुगल कुमारा ॥ भ्राता पिता पुत्र उरगारी। पुरुष मनोहर निरखत नारी ॥ होइ बिकल सक मनहि न रोकी। जिमि रबिमनि द्रव रबिहि बिलोकी ॥ रुचिर रुप धरि प्रभु पहिं जाई। बोली बचन बहुत मुसुकाई ॥ तुम्ह सम पुरुष न मो सम नारी। यह सँजोग बिधि रचा बिचारी ॥ मम अनुरूप पुरुष जग माहीं। देखेउँ खोजि लोक तिहु नाहीं ॥ ताते अब लगि रहिउँ कुमारी। मनु माना कछु तुम्हहि निहारी ॥ सीतहि चितइ कही प्रभु बाता। अहइ कुआर मोर लघु भ्राता ॥ गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी। प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी ॥ सुंदरि सुनु मैं उन्ह कर दासा। पराधीन नहिं तोर सुपासा ॥ प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा। जो कछु करहिं उनहि सब छाजा ॥ सेवक सुख चह मान भिखारी। ब्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी ॥ लोभी जसु चह चार गुमानी। नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी ॥ पुनि फिरि राम निकट सो आई। प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई ॥ लछिमन कहा तोहि सो बरई। जो तृन तोरि लाज परिहरई ॥ तब खिसिआनि राम पहिं गई। रूप भयंकर प्रगटत भई ॥ सीतहि सभय देखि रघुराई। कहा अनुज सन सयन बुझाई ॥ दो. लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि। ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥ नाक कान बिनु भइ बिकरारा। जनु स्त्रव सैल गैरु कै धारा ॥ खर दूषन पहिं गइ बिलपाता। धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥ तेहि पूछा सब कहेसि बुझाई। जातुधान सुनि सेन बनाई ॥ धाए निसिचर निकर बरूथा। जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥ नाना बाहन नानाकारा। नानायुध धर घोर अपारा ॥ सुपनखा आगें करि लीनी। असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥ असगुन अमित होहिं भयकारी। गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥ गर्जहि तर्जहिं गगन उड़ाहीं। देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥ कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई। धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥ धूरि पूरि नभ मंडल रहा। राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥ लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर। आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥ रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी। चले सहित श्री सर धनु पानी ॥ देखि राम रिपुदल चलि आवा। बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥ छं. कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों। मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥ कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ॥ चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥ सो. आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट। जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥ प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी। थकित भई रजनीचर धारी ॥ सचिव बोलि बोले खर दूषन। यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥ नाग असुर सुर नर मुनि जेते। देखे जिते हते हम केते ॥ हम भरि जन्म सुनहु सब भाई। देखी नहिं असि सुंदरताई ॥ जद्यपि भगिनी कीन्ह कुरूपा। बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥ देहु तुरत निज नारि दुराई। जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥ मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु। तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥ दूतन्ह कहा राम सन जाई। सुनत राम बोले मुसकाई ॥ हम छत्री मृगया बन करहीं। तुम्ह से खल मृग खौजत फिरहीं ॥ रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं। एक बार कालहु सन लरहीं ॥ जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक। मुनि पालक खल सालक बालक ॥ जौं न होइ बल घर फिरि जाहू। समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥ रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई। रिपु पर कृपा परम कदराई ॥ दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ। सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥ छं. उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा। सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥ प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा। भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥ दो. सावधान होइ धाए जानि सबल आराति। लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहु भाँति ॥ १९(क) ॥ तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर। तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९(ख) ॥ छं. तब चले जान बबान कराल। फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥ कोपेउ समर श्रीराम। चले बिसिख निसित निकाम ॥ अवलोकि खरतर तीर। मुरि चले निसिचर बीर ॥ भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ। जो भागि रन ते जाइ ॥ तेहि बधब हम निज पानि। फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥ आयुध अनेक प्रकार। सनमुख ते करहिं प्रहार ॥ रिपु परम कोपे जानि। प्रभु धनुष सर संधानि ॥ छाँड़े बिपुल नाराच। लगे कटन बिकट पिसाच ॥ उर सीस भुज कर चरन। जहँ तहँ लगे महि परन ॥ चिक्करत लागत बान। धर परत कुधर समान ॥ भट कटत तन सत खंड। पुनि उठत करि पाषंड ॥ नभ उड़त बहु भुज मुंड। बिनु मौलि धावत रुंड ॥ खग कंक काक सृगाल। कटकटहिं कठिन कराल ॥ छं. कटकटहिं ज़ंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं। बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥ रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा। जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयकर गिरा ॥ अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ॥ संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥ मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे। अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥ सर सक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं। करि कोप श्रीरघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥ प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका। दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥ महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी। सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥ सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर् यो। देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपुदल लरि मर् यो ॥ दो. राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान। करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २०(क) ॥ हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान। अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २०(ख) ॥ जब रघुनाथ समर रिपु जीते। सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥ तब लछिमन सीतहि लै आए। प्रभु पद परत हरषि उर लाए। सीता चितव स्याम मृदु गाता। परम प्रेम लोचन न अघाता ॥ पंचवटीं बसि श्रीरघुनायक। करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥ धुआँ देखि खरदूषन केरा। जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥ बोलि बचन क्रोध करि भारी। देस कोस कै सुरति बिसारी ॥ करसि पान सोवसि दिनु राती। सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥ राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा। हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥ बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ। श्रम फल पढ़े किएँ अरु पाएँ ॥ संग ते जती कुमंत्र ते राजा। मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥ प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी। नासहि बेगि नीति अस सुनी ॥ सो. रिपु रुज पावक पाप प्रभु अहि गनिअ न छोट करि। अस कहि बिबिध बिलाप करि लागी रोदन करन ॥ २१(क) ॥ दो. सभा माझ परि ब्याकुल बहु प्रकार कह रोइ। तोहि जिअत दसकंधर मोरि कि असि गति होइ ॥ २१(ख) ॥ सुनत सभासद उठे अकुलाई। समुझाई गहि बाहँ उठाई ॥ कह लंकेस कहसि निज बाता। केँइँ तव नासा कान निपाता ॥ अवध नृपति दसरथ के जाए। पुरुष सिंघ बन खेलन आए ॥ समुझि परी मोहि उन्ह कै करनी। रहित निसाचर करिहहिं धरनी ॥ जिन्ह कर भुजबल पाइ दसानन। अभय भए बिचरत मुनि कानन ॥ देखत बालक काल समाना। परम धीर धन्वी गुन नाना ॥ अतुलित बल प्रताप द्वौ भ्राता। खल बध रत सुर मुनि सुखदाता ॥ सोभाधाम राम अस नामा। तिन्ह के संग नारि एक स्यामा ॥ रुप रासि बिधि नारि सँवारी। रति सत कोटि तासु बलिहारी ॥ तासु अनुज काटे श्रुति नासा। सुनि तव भगिनि करहिं परिहासा ॥ खर दूषन सुनि लगे पुकारा। छन महुँ सकल कटक उन्ह मारा ॥ खर दूषन तिसिरा कर घाता। सुनि दससीस जरे सब गाता ॥ दो. सुपनखहि समुझाइ करि बल बोलेसि बहु भाँति। गयउ भवन अति सोचबस नीद परइ नहिं राति ॥ २२ ॥ सुर नर असुर नाग खग माहीं। मोरे अनुचर कहँ कोउ नाहीं ॥ खर दूषन मोहि सम बलवंता। तिन्हहि को मारइ बिनु भगवंता ॥ सुर रंजन भंजन महि भारा। जौं भगवंत लीन्ह अवतारा ॥ तौ मै जाइ बैरु हठि करऊँ। प्रभु सर प्रान तजें भव तरऊँ ॥ होइहि भजनु न तामस देहा। मन क्रम बचन मंत्र दृढ़ एहा ॥ जौं नररुप भूपसुत कोऊ। हरिहउँ नारि जीति रन दोऊ ॥ चला अकेल जान चढि तहवाँ। बस मारीच सिंधु तट जहवाँ ॥ इहाँ राम जसि जुगुति बनाई। सुनहु उमा सो कथा सुहाई ॥ दो. लछिमन गए बनहिं जब लेन मूल फल कंद। जनकसुता सन बोले बिहसि कृपा सुख बृंद ॥ २३ ॥ सुनहु प्रिया ब्रत रुचिर सुसीला। मैं कछु करबि ललित नरलीला ॥ तुम्ह पावक महुँ करहु निवासा। जौ लगि करौं निसाचर नासा ॥ जबहिं राम सब कहा बखानी। प्रभु पद धरि हियँ अनल समानी ॥ निज प्रतिबिंब राखि तहँ सीता। तैसइ सील रुप सुबिनीता ॥ लछिमनहूँ यह मरमु न जाना। जो कछु चरित रचा भगवाना ॥ दसमुख गयउ जहाँ मारीचा। नाइ माथ स्वारथ रत नीचा ॥ नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुस धनु उरग बिलाई ॥ भयदायक खल कै प्रिय बानी। जिमि अकाल के कुसुम भवानी ॥ दो. करि पूजा मारीच तब सादर पूछी बात। कवन हेतु मन ब्यग्र अति अकसर आयहु तात ॥ २४ ॥ दसमुख सकल कथा तेहि आगें। कही सहित अभिमान अभागें ॥ होहु कपट मृग तुम्ह छलकारी। जेहि बिधि हरि आनौ नृपनारी ॥ तेहिं पुनि कहा सुनहु दससीसा। ते नररुप चराचर ईसा ॥ तासों तात बयरु नहिं कीजे। मारें मरिअ जिआएँ जीजै ॥ मुनि मख राखन गयउ कुमारा। बिनु फर सर रघुपति मोहि मारा ॥ सत जोजन आयउँ छन माहीं। तिन्ह सन बयरु किएँ भल नाहीं ॥ भइ मम कीट भृंग की नाई। जहँ तहँ मैं देखउँ दोउ भाई ॥ जौं नर तात तदपि अति सूरा। तिन्हहि बिरोधि न आइहि पूरा ॥ दो. जेहिं ताड़का सुबाहु हति खंडेउ हर कोदंड ॥ खर दूषन तिसिरा बधेउ मनुज कि अस बरिबंड ॥ २५ ॥ जाहु भवन कुल कुसल बिचारी। सुनत जरा दीन्हिसि बहु गारी ॥ गुरु जिमि मूढ़ करसि मम बोधा। कहु जग मोहि समान को जोधा ॥ तब मारीच हृदयँ अनुमाना। नवहि बिरोधें नहिं कल्याना ॥ सस्त्री मर्मी प्रभु सठ धनी। बैद बंदि कबि भानस गुनी ॥ उभय भाँति देखा निज मरना। तब ताकिसि रघुनायक सरना ॥ उतरु देत मोहि बधब अभागें। कस न मरौं रघुपति सर लागें ॥ अस जियँ जानि दसानन संगा। चला राम पद प्रेम अभंगा ॥ मन अति हरष जनाव न तेही। आजु देखिहउँ परम सनेही ॥ छं. निज परम प्रीतम देखि लोचन सुफल करि सुख पाइहौं। श्री सहित अनुज समेत कृपानिकेत पद मन लाइहौं ॥ निर्बान दायक क्रोध जा कर भगति अबसहि बसकरी। निज पानि सर संधानि सो मोहि बधिहि सुखसागर हरी ॥ दो. मम पाछें धर धावत धरें सरासन बान। फिरि फिरि प्रभुहि बिलोकिहउँ धन्य न मो सम आन ॥ २६ ॥ तेहि बन निकट दसानन गयऊ। तब मारीच कपटमृग भयऊ ॥ अति बिचित्र कछु बरनि न जाई। कनक देह मनि रचित बनाई ॥ सीता परम रुचिर मृग देखा। अंग अंग सुमनोहर बेषा ॥ सुनहु देव रघुबीर कृपाला। एहि मृग कर अति सुंदर छाला ॥ सत्यसंध प्रभु बधि करि एही। आनहु चर्म कहति बैदेही ॥ तब रघुपति जानत सब कारन। उठे हरषि सुर काजु सँवारन ॥ मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतल चाप रुचिर सर साँधा ॥ प्रभु लछिमनिहि कहा समुझाई। फिरत बिपिन निसिचर बहु भाई ॥ सीता केरि करेहु रखवारी। बुधि बिबेक बल समय बिचारी ॥ प्रभुहि बिलोकि चला मृग भाजी। धाए रामु सरासन साजी ॥ निगम नेति सिव ध्यान न पावा। मायामृग पाछें सो धावा ॥ कबहुँ निकट पुनि दूरि पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ छपाई ॥ प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी ॥ तब तकि राम कठिन सर मारा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा ॥ लछिमन कर प्रथमहिं लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा ॥ प्रान तजत प्रगटेसि निज देहा। सुमिरेसि रामु समेत सनेहा ॥ अंतर प्रेम तासु पहिचाना। मुनि दुर्लभ गति दीन्हि सुजाना ॥ दो. बिपुल सुमन सुर बरषहिं गावहिं प्रभु गुन गाथ। निज पद दीन्ह असुर कहुँ दीनबंधु रघुनाथ ॥ २७ ॥ खल बधि तुरत फिरे रघुबीरा। सोह चाप कर कटि तूनीरा ॥ आरत गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता ॥ जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता ॥ भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई ॥ मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला ॥ बन दिसि देव सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू ॥ सून बीच दसकंधर देखा। आवा निकट जती कें बेषा ॥ जाकें डर सुर असुर डेराहीं। निसि न नीद दिन अन्न न खाहीं ॥ सो दससीस स्वान की नाई। इत उत चितइ चला भड़िहाई ॥ इमि कुपंथ पग देत खगेसा। रह न तेज बुधि बल लेसा ॥ नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई ॥ कह सीता सुनु जती गोसाईं। बोलेहु बचन दुष्ट की नाईं ॥ तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा ॥ कह सीता धरि धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा ॥ जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि कालबस निसिचर नाहा ॥ सुनत बचन दससीस रिसाना। मन महुँ चरन बंदि सुख माना ॥ दो. क्रोधवंत तब रावन लीन्हिसि रथ बैठाइ। चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ ॥ २८ ॥ हा जग एक बीर रघुराया। केहिं अपराध बिसारेहु दाया ॥ आरति हरन सरन सुखदायक। हा रघुकुल सरोज दिननायक ॥ हा लछिमन तुम्हार नहिं दोसा। सो फलु पायउँ कीन्हेउँ रोसा ॥ बिबिध बिलाप करति बैदेही। भूरि कृपा प्रभु दूरि सनेही ॥ बिपति मोरि को प्रभुहि सुनावा। पुरोडास चह रासभ खावा ॥ सीता कै बिलाप सुनि भारी। भए चराचर जीव दुखारी ॥ गीधराज सुनि आरत बानी। रघुकुलतिलक नारि पहिचानी ॥ अधम निसाचर लीन्हे जाई। जिमि मलेछ बस कपिला गाई ॥ सीते पुत्रि करसि जनि त्रासा। करिहउँ जातुधान कर नासा ॥ धावा क्रोधवंत खग कैसें। छूटइ पबि परबत कहुँ जैसे ॥ रे रे दुष्ट ठाढ़ किन होही। निर्भय चलेसि न जानेहि मोही ॥ आवत देखि कृतांत समाना। फिरि दसकंधर कर अनुमाना ॥ की मैनाक कि खगपति होई। मम बल जान सहित पति सोई ॥ जाना जरठ जटायू एहा। मम कर तीरथ छाँड़िहि देहा ॥ सुनत गीध क्रोधातुर धावा। कह सुनु रावन मोर सिखावा ॥ तजि जानकिहि कुसल गृह जाहू। नाहिं त अस होइहि बहुबाहू ॥ राम रोष पावक अति घोरा। होइहि सकल सलभ कुल तोरा ॥ उतरु न देत दसानन जोधा। तबहिं गीध धावा करि क्रोधा ॥ धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा। सीतहि राखि गीध पुनि फिरा ॥ चौचन्ह मारि बिदारेसि देही। दंड एक भइ मुरुछा तेही ॥ तब सक्रोध निसिचर खिसिआना। काढ़ेसि परम कराल कृपाना ॥ काटेसि पंख परा खग धरनी। सुमिरि राम करि अदभुत करनी ॥ सीतहि जानि चढ़ाइ बहोरी। चला उताइल त्रास न थोरी ॥ करति बिलाप जाति नभ सीता। ब्याध बिबस जनु मृगी सभीता ॥ गिरि पर बैठे कपिन्ह निहारी। कहि हरि नाम दीन्ह पट डारी ॥ एहि बिधि सीतहि सो लै गयऊ। बन असोक महँ राखत भयऊ ॥ दो. हारि परा खल बहु बिधि भय अरु प्रीति देखाइ। तब असोक पादप तर राखिसि जतन कराइ ॥ २९(क) ॥ नवान्हपारायण, छठा विश्राम जेहि बिधि कपट कुरंग सँग धाइ चले श्रीराम। सो छबि सीता राखि उर रटति रहति हरिनाम ॥ २९(ख) ॥ रघुपति अनुजहि आवत देखी। बाहिज चिंता कीन्हि बिसेषी ॥ जनकसुता परिहरिहु अकेली। आयहु तात बचन मम पेली ॥ निसिचर निकर फिरहिं बन माहीं। मम मन सीता आश्रम नाहीं ॥ गहि पद कमल अनुज कर जोरी। कहेउ नाथ कछु मोहि न खोरी ॥ अनुज समेत गए प्रभु तहवाँ। गोदावरि तट आश्रम जहवाँ ॥ आश्रम देखि जानकी हीना। भए बिकल जस प्राकृत दीना ॥ हा गुन खानि जानकी सीता। रूप सील ब्रत नेम पुनीता ॥ लछिमन समुझाए बहु भाँती। पूछत चले लता तरु पाँती ॥ हे खग मृग हे मधुकर श्रेनी। तुम्ह देखी सीता मृगनैनी ॥ खंजन सुक कपोत मृग मीना। मधुप निकर कोकिला प्रबीना ॥ कुंद कली दाड़िम दामिनी। कमल सरद ससि अहिभामिनी ॥ बरुन पास मनोज धनु हंसा। गज केहरि निज सुनत प्रसंसा ॥ श्रीफल कनक कदलि हरषाहीं। नेकु न संक सकुच मन माहीं ॥ सुनु जानकी तोहि बिनु आजू। हरषे सकल पाइ जनु राजू ॥ किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रगटसि कस नाहीं ॥ एहि बिधि खौजत बिलपत स्वामी। मनहुँ महा बिरही अति कामी ॥ पूरनकाम राम सुख रासी। मनुज चरित कर अज अबिनासी ॥ आगे परा गीधपति देखा। सुमिरत राम चरन जिन्ह रेखा ॥ दो. कर सरोज सिर परसेउ कृपासिंधु रधुबीर ॥ निरखि राम छबि धाम मुख बिगत भई सब पीर ॥ ३० ॥ तब कह गीध बचन धरि धीरा । सुनहु राम भंजन भव भीरा ॥ नाथ दसानन यह गति कीन्ही। तेहि खल जनकसुता हरि लीन्ही ॥ लै दच्छिन दिसि गयउ गोसाई। बिलपति अति कुररी की नाई ॥ दरस लागी प्रभु राखेंउँ प्राना। चलन चहत अब कृपानिधाना ॥ राम कहा तनु राखहु ताता। मुख मुसकाइ कही तेहिं बाता ॥ जा कर नाम मरत मुख आवा। अधमउ मुकुत होई श्रुति गावा ॥ सो मम लोचन गोचर आगें। राखौं देह नाथ केहि खाँगेँ ॥ जल भरि नयन कहहिँ रघुराई। तात कर्म निज ते गतिं पाई ॥ परहित बस जिन्ह के मन माहीँ। तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ ॥ तनु तजि तात जाहु मम धामा। देउँ काह तुम्ह पूरनकामा ॥ दो. सीता हरन तात जनि कहहु पिता सन जाइ ॥ जौँ मैँ राम त कुल सहित कहिहि दसानन आइ ॥ ३१ ॥ गीध देह तजि धरि हरि रुपा। भूषन बहु पट पीत अनूपा ॥ स्याम गात बिसाल भुज चारी। अस्तुति करत नयन भरि बारी ॥ छं. जय राम रूप अनूप निर्गुन सगुन गुन प्रेरक सही। दससीस बाहु प्रचंड खंडन चंड सर मंडन मही ॥ पाथोद गात सरोज मुख राजीव आयत लोचनं। नित नौमि रामु कृपाल बाहु बिसाल भव भय मोचनं ॥ १ ॥ बलमप्रमेयमनादिमजमब्यक्तमेकमगोचरं। गोबिंद गोपर द्वंद्वहर बिग्यानघन धरनीधरं ॥ जे राम मंत्र जपंत संत अनंत जन मन रंजनं। नित नौमि राम अकाम प्रिय कामादि खल दल गंजनं ॥ २। जेहि श्रुति निरंजन ब्रह्म ब्यापक बिरज अज कहि गावहीं ॥ करि ध्यान ग्यान बिराग जोग अनेक मुनि जेहि पावहीं ॥ सो प्रगट करुना कंद सोभा बृंद अग जग मोहई। मम हृदय पंकज भृंग अंग अनंग बहु छबि सोहई ॥ ३ ॥ जो अगम सुगम सुभाव निर्मल असम सम सीतल सदा। पस्यंति जं जोगी जतन करि करत मन गो बस सदा ॥ सो राम रमा निवास संतत दास बस त्रिभुवन धनी। मम उर बसउ सो समन संसृति जासु कीरति पावनी ॥ ४ ॥ दो. अबिरल भगति मागि बर गीध गयउ हरिधाम। तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम ॥ ३२ ॥ कोमल चित अति दीनदयाला। कारन बिनु रघुनाथ कृपाला ॥ गीध अधम खग आमिष भोगी। गति दीन्हि जो जाचत जोगी ॥ सुनहु उमा ते लोग अभागी। हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी ॥ पुनि सीतहि खोजत द्वौ भाई। चले बिलोकत बन बहुताई ॥ संकुल लता बिटप घन कानन। बहु खग मृग तहँ गज पंचानन ॥ आवत पंथ कबंध निपाता। तेहिं सब कही साप कै बाता ॥ दुरबासा मोहि दीन्ही सापा। प्रभु पद पेखि मिटा सो पापा ॥ सुनु गंधर्ब कहउँ मै तोही। मोहि न सोहाइ ब्रह्मकुल द्रोही ॥ दो. मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव। मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव ॥ ३३ ॥ सापत ताड़त परुष कहंता। बिप्र पूज्य अस गावहिं संता ॥ पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना ॥ कहि निज धर्म ताहि समुझावा। निज पद प्रीति देखि मन भावा ॥ रघुपति चरन कमल सिरु नाई। गयउ गगन आपनि गति पाई ॥ ताहि देइ गति राम उदारा। सबरी कें आश्रम पगु धारा ॥ सबरी देखि राम गृहँ आए। मुनि के बचन समुझि जियँ भाए ॥ सरसिज लोचन बाहु बिसाला। जटा मुकुट सिर उर बनमाला ॥ स्याम गौर सुंदर दोउ भाई। सबरी परी चरन लपटाई ॥ प्रेम मगन मुख बचन न आवा। पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा ॥ सादर जल लै चरन पखारे। पुनि सुंदर आसन बैठारे ॥ दो. कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि। प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि ॥ ३४ ॥ पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी ॥ केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी ॥ अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥ कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता ॥ जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई ॥ भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा ॥ नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥ प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा ॥ दो. गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान। चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान ॥ ३५ ॥ मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा ॥ छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा ॥ सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा ॥ आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा ॥ नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना ॥ नव महुँ एकउ जिन्ह के होई। नारि पुरुष सचराचर कोई ॥ सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥ जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई ॥ मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा ॥ जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी ॥ पंपा सरहि जाहु रघुराई। तहँ होइहि सुग्रीव मिताई ॥ सो सब कहिहि देव रघुबीरा। जानतहूँ पूछहु मतिधीरा ॥ बार बार प्रभु पद सिरु नाई। प्रेम सहित सब कथा सुनाई ॥ छं. कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे। तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भइ जहँ नहिं फिरे ॥ नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू। बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागहू ॥ दो. जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि। महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि ॥ ३६ ॥ चले राम त्यागा बन सोऊ। अतुलित बल नर केहरि दोऊ ॥ बिरही इव प्रभु करत बिषादा। कहत कथा अनेक संबादा ॥ लछिमन देखु बिपिन कइ सोभा। देखत केहि कर मन नहिं छोभा ॥ नारि सहित सब खग मृग बृंदा। मानहुँ मोरि करत हहिं निंदा ॥ हमहि देखि मृग निकर पराहीं। मृगीं कहहिं तुम्ह कहँ भय नाहीं ॥ तुम्ह आनंद करहु मृग जाए। कंचन मृग खोजन ए आए ॥ संग लाइ करिनीं करि लेहीं। मानहुँ मोहि सिखावनु देहीं ॥ सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ। भूप सुसेवित बस नहिं लेखिअ ॥ राखिअ नारि जदपि उर माहीं। जुबती सास्त्र नृपति बस नाहीं ॥ देखहु तात बसंत सुहावा। प्रिया हीन मोहि भय उपजावा ॥ दो. बिरह बिकल बलहीन मोहि जानेसि निपट अकेल। सहित बिपिन मधुकर खग मदन कीन्ह बगमेल ॥ ३७(क) ॥ देखि गयउ भ्राता सहित तासु दूत सुनि बात। डेरा कीन्हेउ मनहुँ तब कटकु हटकि मनजात ॥ ३७(ख) ॥ बिटप बिसाल लता अरुझानी। बिबिध बितान दिए जनु तानी ॥ कदलि ताल बर धुजा पताका। दैखि न मोह धीर मन जाका ॥ बिबिध भाँति फूले तरु नाना। जनु बानैत बने बहु बाना ॥ कहुँ कहुँ सुन्दर बिटप सुहाए। जनु भट बिलग बिलग होइ छाए ॥ कूजत पिक मानहुँ गज माते। ढेक महोख ऊँट बिसराते ॥ मोर चकोर कीर बर बाजी। पारावत मराल सब ताजी ॥ तीतिर लावक पदचर जूथा। बरनि न जाइ मनोज बरुथा ॥ रथ गिरि सिला दुंदुभी झरना। चातक बंदी गुन गन बरना ॥ मधुकर मुखर भेरि सहनाई। त्रिबिध बयारि बसीठीं आई ॥ चतुरंगिनी सेन सँग लीन्हें। बिचरत सबहि चुनौती दीन्हें ॥ लछिमन देखत काम अनीका। रहहिं धीर तिन्ह कै जग लीका ॥ एहि कें एक परम बल नारी। तेहि तें उबर सुभट सोइ भारी ॥ दो. तात तीनि अति प्रबल खल काम क्रोध अरु लोभ। मुनि बिग्यान धाम मन करहिं निमिष महुँ छोभ ॥ ३८(क) ॥ लोभ कें इच्छा दंभ बल काम कें केवल नारि। क्रोध के परुष बचन बल मुनिबर कहहिं बिचारि ॥ ३८(ख) ॥ गुनातीत सचराचर स्वामी। राम उमा सब अंतरजामी ॥ कामिन्ह कै दीनता देखाई। धीरन्ह कें मन बिरति दृढ़ाई ॥ क्रोध मनोज लोभ मद माया। छूटहिं सकल राम कीं दाया ॥ सो नर इंद्रजाल नहिं भूला। जा पर होइ सो नट अनुकूला ॥ उमा कहउँ मैं अनुभव अपना। सत हरि भजनु जगत सब सपना ॥ पुनि प्रभु गए सरोबर तीरा। पंपा नाम सुभग गंभीरा ॥ संत हृदय जस निर्मल बारी। बाँधे घाट मनोहर चारी ॥ जहँ तहँ पिअहिं बिबिध मृग नीरा। जनु उदार गृह जाचक भीरा ॥ दो. पुरइनि सबन ओट जल बेगि न पाइअ मर्म। मायाछन्न न देखिऐ जैसे निर्गुन ब्रह्म ॥ ३९(क) ॥ सुखि मीन सब एकरस अति अगाध जल माहिं। जथा धर्मसीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं ॥ ३९(ख) ॥ बिकसे सरसिज नाना रंगा। मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा ॥ बोलत जलकुक्कुट कलहंसा। प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा ॥ चक्रवाक बक खग समुदाई। देखत बनइ बरनि नहिं जाई ॥ सुन्दर खग गन गिरा सुहाई। जात पथिक जनु लेत बोलाई ॥ ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए। चहु दिसि कानन बिटप सुहाए ॥ चंपक बकुल कदंब तमाला। पाटल पनस परास रसाला ॥ नव पल्लव कुसुमित तरु नाना। चंचरीक पटली कर गाना ॥ सीतल मंद सुगंध सुभाऊ। संतत बहइ मनोहर बाऊ ॥ कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं। सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं ॥ दो. फल भारन नमि बिटप सब रहे भूमि निअराइ। पर उपकारी पुरुष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ ॥ ४० ॥ देखि राम अति रुचिर तलावा। मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा ॥ देखी सुंदर तरुबर छाया। बैठे अनुज सहित रघुराया ॥ तहँ पुनि सकल देव मुनि आए। अस्तुति करि निज धाम सिधाए ॥ बैठे परम प्रसन्न कृपाला। कहत अनुज सन कथा रसाला ॥ बिरहवंत भगवंतहि देखी। नारद मन भा सोच बिसेषी ॥ मोर साप करि अंगीकारा। सहत राम नाना दुख भारा ॥ ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। पुनि न बनिहि अस अवसरु आई ॥ यह बिचारि नारद कर बीना। गए जहाँ प्रभु सुख आसीना ॥ गावत राम चरित मृदु बानी। प्रेम सहित बहु भाँति बखानी ॥ करत दंडवत लिए उठाई। राखे बहुत बार उर लाई ॥ स्वागत पूँछि निकट बैठारे। लछिमन सादर चरन पखारे ॥ दो. नाना बिधि बिनती करि प्रभु प्रसन्न जियँ जानि। नारद बोले बचन तब जोरि सरोरुह पानि ॥ ४१ ॥ सुनहु उदार सहज रघुनायक। सुंदर अगम सुगम बर दायक ॥ देहु एक बर मागउँ स्वामी। जद्यपि जानत अंतरजामी ॥ जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। जन सन कबहुँ कि करउँ दुराऊ ॥ कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। जो मुनिबर न सकहु तुम्ह मागी ॥ जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। अस बिस्वास तजहु जनि भोरें ॥ तब नारद बोले हरषाई । अस बर मागउँ करउँ ढिठाई ॥ जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। श्रुति कह अधिक एक तें एका ॥ राम सकल नामन्ह ते अधिका। होउ नाथ अघ खग गन बधिका ॥ दो. राका रजनी भगति तव राम नाम सोइ सोम। अपर नाम उडगन बिमल बसुहुँ भगत उर ब्योम ॥ ४२(क) ॥ एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ। तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ ॥ ४२(ख) ॥ अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। पुनि नारद बोले मृदु बानी ॥ राम जबहिं प्रेरेउ निज माया। मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया ॥ तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा ॥ सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा ॥ करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी ॥ गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। तहँ राखइ जननी अरगाई ॥ प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता ॥ मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी ॥ जनहि मोर बल निज बल ताही। दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही ॥ यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं ॥ दो. काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि। तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि ॥ ४३ ॥ सुनि मुनि कह पुरान श्रुति संता। मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता ॥ जप तप नेम जलाश्रय झारी। होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी ॥ काम क्रोध मद मत्सर भेका। इन्हहि हरषप्रद बरषा एका ॥ दुर्बासना कुमुद समुदाई। तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई ॥ धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा ॥ पुनि ममता जवास बहुताई। पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई ॥ पाप उलूक निकर सुखकारी। नारि निबिड़ रजनी अँधिआरी ॥ बुधि बल सील सत्य सब मीना। बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना ॥ दो. अवगुन मूल सूलप्रद प्रमदा सब दुख खानि। ताते कीन्ह निवारन मुनि मैं यह जियँ जानि ॥ ४४ ॥ सुनि रघुपति के बचन सुहाए। मुनि तन पुलक नयन भरि आए ॥ कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। सेवक पर ममता अरु प्रीती ॥ जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। ग्यान रंक नर मंद अभागी ॥ पुनि सादर बोले मुनि नारद। सुनहु राम बिग्यान बिसारद ॥ संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। कहहु नाथ भव भंजन भीरा ॥ सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ ॥ षट बिकार जित अनघ अकामा। अचल अकिंचन सुचि सुखधामा ॥ अमितबोध अनीह मितभोगी। सत्यसार कबि कोबिद जोगी ॥ सावधान मानद मदहीना। धीर धर्म गति परम प्रबीना ॥ दो. गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह ॥ तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह ॥ ४५ ॥ निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं ॥ सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती ॥ जप तप ब्रत दम संजम नेमा। गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा ॥ श्रद्धा छमा मयत्री दाया। मुदिता मम पद प्रीति अमाया ॥ बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। बोध जथारथ बेद पुराना ॥ दंभ मान मद करहिं न काऊ। भूलि न देहिं कुमारग पाऊ ॥ गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। हेतु रहित परहित रत सीला ॥ मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते ॥ छं. कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे। अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे ॥ सिरु नाह बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए ॥ ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए ॥ दो. रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग। राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग ॥ ४६(क) ॥ दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग। भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग ॥ ४६(ख) ॥ मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम ऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः। (अरण्यकाण्ड समाप्त) ऽऽऽऽऽऽऽ
% Text title            : Shri Ram Charit Manas - Aranyakand
% File name             : manas3_i.itx
% itxtitle              : shrIrAmacharitamAnasa 3 araNyakANDa
% engtitle              : shrIrAmacharitamAnasa araNyakANDa
% Category              : raama, tulasIdAsa, hindi
% Location              : doc_z_otherlang_hindi
% Sublocation           : raama
% Author                : Goswami Tulasidas
% Language              : Hindi
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Transliterated by     : Mr. Balram J. Rathore, Ratlam, M.P., a retired railway driver
% Description-comments  : Awadhi, Converted from ISCII to ITRANS
% Indexextra            : (Hindi, English, multiple)
% Acknowledge-Permission: Dr. Vineet Chaitanya, vc@iiit.net
% Latest update         : March 12, 2015
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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