पूर्वम्: ३।२।१४२
अनन्तरम्: ३।२।१४४
 
सूत्रम्
वौ कषलसकत्थस्रम्भः॥ ३।२।१४३
काशिका-वृत्तिः
वौ कषलसकत्थस्रम्भः ३।२।१४३

कष हिंसार्थः, लस श्लेषणक्रीडनयोः, कत्थ श्लाघायाम्, स्रम्भु विश्वासे, एतेभ्यो धातुभ्यो विशब्दे उपपदे घिनुण् प्रत्ययो भवति। विकाषी। विलासी। विकत्थी। विस्रम्भी।
न्यासः
वौ कषलसकत्थरुआम्भः। , ३।२।१४३

बाल-मनोरमा
वौ कषलसकत्थरुआम्भः ९२५, ३।२।१४३

वौ कषलस। कष, लस, कत्थ, रुआम्भ् एषां द्वन्द्वात्पञ्चमी। एभ्यो घिनुण् स्यात्ताच्छील्यादिष्वित्यर्थः।

तत्त्व-बोधिनी
वौ कषलसकत्थरुआम्भः ७६०, ३।२।१४३

वौ कष। कष हिंसार्थः, लस श्लेषण क्रीडनयोः, कत्थ श्लाघायाम्, रुआम्भु वि()आआसे। अपे च लषः। लष कान्तौ।