श्रीमन्महारामायणे पञ्चसर्गाः

श्रीमन्महारामायणे पञ्चसर्गाः

(गिरिजामहेश्वर संवाद ।) महारामायणे सर्गाः । श्रीसीतारामाङ्घ्रि लक्षणानुवर्णनम् ॥ ४८ रामोपासक संस्कार कथनम् ॥ ४९ क्षराक्षरनिरक्षरातीतभेदो द्वैताद्वैत निर्णयः ॥ ५० सीताशक्त्याः ॥ ५१ श्रीरामनाम्नोमहत्त्व कथनम् ॥ ५२

४८

रामध्यानमिदं श्रुत्वा परमानन्दसम्भवम् । येषु भक्तारता नित्यं वद रामाङ्घ्रि चिह्नकान् ॥ १॥ मातापार्वती ने कैलाशनाथ श्रीशिव जी से कहा - हे नाथ! परम आनन्द को देने वाले श्रीरामजी के ध्यान को सुनकर मैं अतिशय तृप्त हो गई हूं अब आप श्री राम जी के उन कमलचरणों के चिन्हों के स्वरूप को बताइए जिनके ध्यान में श्रीरामजी के अनन्य निष्काम भक्त सदा रत हैं । श्रूयतां मे वचो मुग्धे रामचन्द्राङ्घ्रि चिह्नकान् । स्मृत्वायान् मुनयः सर्वे यान्ति लोकं परात्परम् ॥ २॥ भगवान शिव अपनी प्राणप्रियतमा माता गौरी से बोले - हे मुग्धे ! मेरे वचनों को सावधान होकर सुनो - मैं तुमसे श्रीरामचन्द्रजी के उन चरण चिन्हों को कहता हूएँ, जिन चरण चिन्हों का स्मरण करके मुनिवृन्द त्रिपादविभूति से भी परे परात्पर साकेत धाम को प्रस्थान करते हैं । रेखोर्ध्वा वर्तते मध्ये दक्षिणे चाङ्घ्रि पङ्कजे । पादादौ स्वस्तिकं ज्ञेयमष्टकोणं तथैव च ॥ ३॥ श्रीरघुनाथजी के दक्षिण चरणकमल के मध्य भाग में ऊर्ध्व रेखा विराजमान है (अर्थात चरण के तलवों के मध्य में एड़ी से लेकर अग्र भाग तक दण्ड का आकार सुशोभित है)और ऊर्ध्व रेखा के बाईं ओर चरण के आदि में स्वास्तिक का चिन्ह है। इसी प्रकार स्वस्तिक के बाद अष्टकोण रेखा है । श्रीयं हलं च मुसलं च सर्प बाणाम्बरं तथा । पद्ममष्टदलं चैव स्यन्दनं वज्रमुच्यते ॥ ४॥ इसके बाद ऊर्ध्व रेखा के बाईं ओर ही श्री, हल, मूसल, सर्प, बाण, अम्बर (वस्त्र), अष्टदलपद्म, स्यन्दन (रथ), वज्र आदि चिन्ह कहे जाते हैं । यवोंऽगुष्ठे तथाप्येते रेखोर्ध्वावामतः स्थिताः । रेखोर्ध्वादक्षिणेभागे स्वस्तिकाधोद्युपादपः ॥ ५॥ इसी प्रकार दक्षिण पद के अङ्गुष्ठ (अङ्गूठे)में यव चिन्ह सुशोभित है। स्वास्तिक से लेकर यवपर्यन्त जो चिन्ह हैं ये सब ऊर्ध्व रेखा के बाईं ओर स्थित हैं और ऊर्ध्व रेखा के दक्षिण भाग में स्वास्तिक के समकक्ष कल्पवृक्ष सुशोभित है । अङ्कुशं च ध्वजं चैव मुकुटं चक्रमेव च । सिंहासनं यमदण्डं चामरं छत्रमुद्यतम् ॥ ६॥ नृचिह्नं जयमाल्यञ्च चतुर्विंशति लक्षणाः । क्रमेणैव प्रवर्तन्ते श्रीरामस्याङ्घ्रिदक्षिणे ॥ ७॥ अङ्कुश, ध्वजा और मुकुट तथा चक्र, सिंहासन, यमदण्ड, चामर, छत्र, नरचिन्ह और जयमाला इतने चिन्ह मध्यवर्ती ऊर्ध्व रेखा से दाईं ओर जानना चाहिए। यह चौबीस रेखाएं श्रीरघुनाथजी के दक्षिण पद में क्रम से सुशोभित हैं । ऊर्ध्वरेखा यथा सव्ये मध्ये च सरयूस्तथा । गोपादं पादमूले च तदधः सागराम्बरा ॥ ८॥ बाएँ चरण के मध्य में दक्षिण पद में स्थित ऊर्ध्व रेखा के समान ही एक सरयू रेखा है और चरण के मूल में (अर्थात एड़ी के मध्य में)गोपाद है और इस गोपाद के अधोभाग में सरयू रेखा की बाईं ओर सागराम्बरा भूमि स्थित है । कुम्भमेव पताकाञ्च जम्बूफलमथोच्यते । अर्धचन्द्रोदरश्चैव षडस्त्रं च त्रिकोणकम् ॥ ९॥ गदा तथा च जीवात्मा विन्दुरङ्गुष्ठ मध्यगः । सरय्वादक्षिणे कोणे लक्षणं ज्ञेयमुत्तमम् ॥ १०॥ पुनः सरयू रेखा के बाईं ओर ही कुम्भ रेखा अर्थात घट चिन्ह है इसके पश्चात् पताका चिन्ह है फिर जम्बू फल और अर्धचन्द्र तथा शङ्ख और षटकोण है। इसके साथ ही त्रिकोण, गदा और जीवात्मा के सहित अङ्गुष्ठ के मध्य में बिन्दु रेखा है। आगे सरयू रेखा के दक्षिण भाग में स्थित उत्तम चिन्हों को जानना चाहिए । गोपादाधस्तथा शक्तिः सुधाकुण्डमथोच्यते । त्रिवलीकामपत्रञ्च पूर्णसिन्धुसुतस्तथा ॥ ११॥ वीणा वंशी धनुस्तूणौ मरालश्चन्द्रिकेति च । चतुर्विंशति रामस्य चरणे वामके स्थिताः ॥ १२॥ गोपाद से अधः प्रदेश में शक्ति चिन्ह है। इसके बाद अमृत कुण्ड है। इसके बाद त्रिवली, कामपत्र और पूर्णचन्द्र का चिन्ह है। इसके बाद वीणा (सितार), वंशी (बाएँसुरी), धनुष, तूणीर (जिसमें बाणों को रखा जाता है), मराल (हंस)और चन्द्रिका चिन्ह को जानना चाहिए। यह चौबीस रेखाएं श्रीरघुनाथजी के बाएँ चरण में अवस्थित हैं । यानि चिह्नानि रामस्य चरणे दक्षिणे प्रिये । तानिसर्वाणि जानक्याः पादे तिष्ठन्ति वामके ॥ १३॥ भगवान शिव कहते हैं - हे प्रिये! जितने चिन्ह श्रीरामजी के दक्षिण चरण में स्थित हैं वे ही समस्त चिन्ह श्रीजानकी जी के वाम चरण में अवस्थित हैं । यानि चिह्नानि जानक्या दक्षिणे चरणे शिवे । तानिसर्वाणि रामस्यपादे तिष्ठन्ति वामके ॥ १४॥ और हे शिवे ! जितने भी चिन्ह श्रीजानकी जी के दक्षिण चरण में स्थित हैं वही सब चिन्ह श्रीराम जी के वाम चरण में अवस्थित हैं । श्रीरामपदचिह्नानि कुभृतामिन्द्र कन्यके । श‍ृणु तेषां गुणान्सर्वान् वक्ष्येगुह्यतमान्नहम् ॥ १५॥ हे गिरिराजकुमारी ! श्रीरघुनाथ जी के ये जितने चरण चिन्ह हैं उनके अत्यन्त गुप्त गुण समूह को मैं तुमसे कहता हूएँ - तुम उसे श्रवण करो । अवतारा विभोर्मुग्धे जायन्ते विश्वहेतवे । तेपि रामाङ्घ्रि चिन्हेभ्यः सम्भवन्ति पुनः पुनः ॥ १६॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे मुग्धे ! विश्व निमित्त अर्थात विश्व में धर्म संस्थापन हेतु जितने अवतार होते हैं वे सब प्रति कल्प में श्रीरघुनाथजी के चरण चिन्हों से ही पुनः पुनः प्रकट होते हैं । महाभद्रो महाविष्णुर्जायते स्वस्तिकादपि । तदंशेन समुद्भूतो विष्णुर्लोकैक मङ्गलः ॥ १७॥ श्रीरघुनाथ जी के दक्षिण पद कमल में स्थित स्वास्तिक चिन्ह से महामङ्गलस्वरूप महाविष्णु (जो कारण वैकुंठ में विराजते हैं इन्हीं को पर-विष्णु भी कहते हैं)अवतार लेते हैं। उन्हीं के अंश से सर्वलोक मङ्गल करता क्षीराब्धिशायी विष्णु अवतार लेते हैं । रेखोर्ध्वायां महाशम्भुर्महायोगेश्वरोऽभवत् । तेन चाहं समुत्पन्नो भक्ति योग शिरोमणिः ॥ १८॥ भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं - हे देवि ! श्रीरघुनाथ जी के ऊर्ध्व रेखा से महायोगेश्वर महाशम्भु उत्पन्न होते हैं। पुनः उन महाशम्भु के अंश से भक्तियोगियों में शिरोमणि मैं (शिव)उत्पन्न होता हूएँ । अष्टकोणसमुद्भतो वासुदेवः स्वयं हि यः । परमेष्ठीततो जातो जगत् कर्त्ता पितामहः ॥ १९॥ श्रीराम जी के दक्षिण पद में स्थित अष्टकोण रेखा से स्वयं वासुदेवाख्य नारायण प्रकट होते हैं। उन्हीं के अंश से जगत्कर्ता (एकपादविभूतस्थ)परमेष्ठी पितामह ब्रह्माजी उत्पन्न होते हैं । श्रीचिह्नेन महालक्ष्मीस्तस्या लक्ष्मी समुद्भवा । इदं यया जगत्सर्वं स्वांशेन परिपूरितम् ॥ २०॥ श्री चिन्ह से महालक्ष्मीजी प्रकट होती हैं। उन्हीं के अंश से लक्ष्मी उत्पन्न होती हैं। वही लक्ष्मी अपने अंश से सर्वजगत का निर्माण करती हैं । शक्तिचिह्नान्महामाया तस्यांशाच्छारदादयः । तस्या एव समुद्भूतो विश्वो मायाप्रतिष्ठितः ॥ २१॥ शक्ति चिन्ह से महामाया नाम वाली आदिशक्ति उत्पन्न होती हैं। उन्हीं के अंश से माया उत्पन्न होती हैं जो विश्व की प्रतिष्ठा करती हैं । मत्स्यचिह्नेन मीनस्य चावतारः प्रवर्तते । क्षितेः कूर्मसमुत्पत्तिर्वराहश्चाम्बरादपि ॥ २२॥ श्रीरघुनाथ जी के चरण स्थित मत्स्य चरण चिन्ह से मत्स्यावतार होता है और भू चरण चिन्ह से कूर्मावतार होता है। अम्बर चरण चिन्ह अर्थात वस्त्र रेख से वाराहावतार होता है । वज्राङ्कुशाभ्यां समुत्पन्नो नृसिंहो भक्तवत्सलः । त्रिविक्रमस्य समुत्पत्तिस्त्रिवल्या अभिजायते ॥ २३॥ श्रीराम जी के चरणों में स्थित वज्र और अङ्कुश रेखा से भक्तवत्सल नृसिंह भगवान का अवतार होता है। त्रिवली रेखा से त्रिविक्रम वामन भगवान का अवतार होता है । धनुस्त्रिकोणतूणेभ्यः सञ्जातो भार्गवोऽपि च । शेषश्च शरसर्पाभ्यां लक्ष्मणो लक्षणान्वितः ॥ २४॥ श्रीरघुनाथ जी के चरणों में स्थित धनुष, त्रिकोण और तूणीर इन तीन रेखाओं से भार्गव (भृगुवंश में उत्पन्न)परशुराम जी का अवतार होता है। शेष रेखा से अनन्तशेषनाग का और बाण की रेखा से लक्ष्मणजी (जो रामभक्ति लक्षणों से युक्त हैं)का अवतार होता है । ईषदंशेन सर्पस्य मुशल लाङ्गलेनच । बलभद्रः समुद्भूतः शेषद्विविदमर्दनः ॥ २५॥ श्रीरघुनाथ जी के चरण में स्थित शेष रेखा के अंश से और हल तथा मूसल के पूर्णांश से द्विविद का मर्दन करने वाले शेषरूप बलभद्र अवतीर्ण हुए । सिंहासनार्ध चन्द्राभ्यां बुद्ध इत्यभिधीयते । कल्कीश्चैव समुद्भतस्तथा चक्रातछत्रयोः ॥ २६॥ सिंहासन तथा अर्धचन्द्र इन दोनों श्रीरामचरण चिन्हों से बुद्ध भगवान अवतार लेते हैं। इसी प्रकार से चक्र चिन्ह और छत्र चिन्ह से कल्कि अवतार होता है । पुरुषाङ्कसुधाकुण्डं पूर्णश्चकलानिधिः । यवस्रजादिश‍ृङ्गाराः श्रीकृष्णोत्पत्तिकारकाः ॥ २७॥ पुरुष चिन्ह, सुधाकुण्ड, पूर्णचन्द्र तथा मालादिक श्रृङ्गार सूचक जितने भूषण के चिन्ह हैं ये सभी श्रीकृष्णभगवान की उत्पत्ति का कारण हैं । देवाः सरोरुहेणैव व्यासो जम्बूफलेन च । मुकुटेन पृथुर्जातो हंसाद्धंस इतिस्मृतः ॥ २८॥ कमल चिन्ह से देवता समूह उत्पन्न होते हैं और जम्बूफल रेख से श्रीवेदव्यासजी प्रकट होते हैं। मुकुट चिन्ह से पृथुराज तथा हंस चिन्ह से हंसावतार प्रकट होते हैं । स्यन्दनान्मनवोजाता ये च स्वयम्भुवादयः । ऋषभोऽमृतकुण्डाद्वै यवाद्यज्ञावतारकः ॥ २९॥ स्वायम्भुव मनु से लेकर सभी चौदह मनु श्रीराम चरणस्थ स्यन्दन चिन्ह से उत्पन्न होते हैं। अमृत कुण्ड चिन्ह से ऋषभ देव उत्पन्न होते हैं। यव रेखा से यज्ञ अवतार भगवान प्रकट होते हैं । चामरेण हयग्रीवो देवर्षिस्तुम्बुरेण च । भैषज्याधिपतिः सम्यक् जातो धेनुपदादपि ॥ ३०॥ भगवान श्रीराम चरण में स्थित चामर चिन्ह से ही हयग्रीव भगवान तथा तुम्बुरु शिष्य सहित भगवान नारद का अवतार होता है। इसके बाद धेनुपाद चिन्ह से भगवान धन्वन्तरि का अवतार होता है । नृचिह्नांशेन शङ्खेन दत्तात्रयोऽभिजायते । ध्वजपताकयोर्जातो नरनारायणावुभौ ॥ ३१॥ नर चिन्ह तथा शङ्ख चिन्ह से दत्तात्रेय जी प्रकट होते हैं। ध्वज और पताका चिन्हों से नर-नारायण भगवान का अवतार होता है । अष्टाङ्गयोगसंयुक्तः कपिलोऽप्यष्टकोणतः । जीवात्मनोर्ध्वरेखायाः सञ्जाता सनकादयः ॥ ३२॥ यम नियम आसन से लेकर ध्यान धारणा समाधि पर्यन्त अष्टाङ्ग योग से संयुक्त कपिलदेवजी का अवतार श्रीराम चरण स्थित अष्टकोण से होता है। जीव और ऊर्ध्व रेखा से ही सनक सनन्दन सनत् सनत्कुमार आदि महर्षि उत्पन्न होते हैं । वंश्या वंशी समुज्जाता कृष्णाधरसुधाप्रिया । वृन्दावनेऽद्भुतैर्नादैः सर्वलोकविमोहिनी ॥ ३३॥ वृन्दावन में स्थित भगवान कृष्ण के अधरामृत का पान करने वाली तथा अपने अदभुत नाद द्वारा सभी लोकों को विमोहित करने वाली वंशी का अवतार श्रीराम जी के चरणों में स्थित वंशी रेखा से होता है । शक्तिरह्लादिनी राधा चन्द्रिकायाः समुद्भवा । राससम्भूषणा श्यामा सर्वाभरणभूषिता ॥ ३४॥ बत्तीस आभरणों से भूषित सोलह वर्ष की अवस्था से युक्त रासमण्डल में भूषणरूपा आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा जी का अवतार श्रीरघुनाथ जी के चरणों में स्थित चन्द्रिका से होता है । गदयाश्च महाकालो यमदण्डाद्यमस्तथा । बिन्दोर्भानुः सरय्वावै गङ्गाद्याः तीर्थ सम्भवाः ॥ ३५॥ श्रीरघुनाथ जी के चरण स्थित गदा चिन्ह से महाकाल उत्पन्न होता है और यमदण्ड चिन्ह से यमराज उत्पन्न होते हैं। बिन्दु चिन्ह से सूर्य भगवान का प्राकट्य होता है और सरयू रेखा से गङ्गादिक सभी पवित्र तीर्थों का उद्भव होता है । ऐश्वर्य्येण च धर्मेण यशसा च श्रियैवच । वैराग्यमोक्षषट्कोणैः सञ्जातो भगवान्हरिः ॥ ३६॥ ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, वैराग्य और मोक्ष इन छः ऐश्वर्यों से युक्त भगवान हरि श्रीराम जी के चरण स्थित षट्कोण चिन्ह से उत्पन्न होते हैं । एतेचांशकलाभूताः शक्तिवीर्यबलान्विताः । रामचन्द्राङ्घ्रिसञ्जाता रामस्तुभगवान्स्वयम् ॥ ३७॥ शक्ति, वीर्य और बल से समन्वित ये सभी उक्त अवतार श्रीरामचन्द्र के अंश तथा कला आदि से उत्पन्न होते हैं। पर श्रीरघुनाथ जी तो स्वयं पूर्ण पुरुषोत्तम परम भगवान हैं । त्वत्त एते मया प्रोक्ता येच सर्वे सुलोचने । उपासयन्ति ते नित्यं रामचन्द्राङ्घ्रिपङ्कजम् ॥ ३८॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे सुलोचने ! अभी अभी ऊपर जिन जिन अवतारों की चर्चा मैंने तुमसे की है ये सभी नित्य रूप से श्रीरघुनाथ जी के चरण कमल की उपासना करते हैं । अन्यच्छृणु भूयस्त्वं या महत्यो विभूतयः । अंशांशेनैव सम्भूता रामाङ्घ्रेर्लोकपूजिताः ॥ ३९॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे प्रिये ! श्रीरामचरण चिन्हों के अंशों तथा अंशों के अंशों से प्रकट होकर समस्त लोक में पूजित उन अन्य महती विभूतियों का भी श्रवण करो । स्वस्तिकादेव सञ्जातं कल्याणं सर्वतः प्रिये । महायोगोर्ध्वरेखायां अष्टकोणाष्ट सिद्धयः ॥ ४०॥ हे प्रिये ! जगत के समग्र कल्याण इसी स्वास्तिक चिन्ह से प्रकट होते हैं और ऊर्ध्व रेखा से ही महायोग की उत्पत्ति होती है। इसके बाद अणिमालघिमादिक अष्ट सिद्धियां भी अष्टकोण चिन्ह से उत्पन्न होती हैं । श्रियः सर्वाः श्रियोद्भूता हालाद्बलमिहोच्यते । मुसलान्मुसलं जातं बलदेवायुधम्प्रिये ॥ ४१॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे प्रिये ! संसार में जितनी भी श्री अर्थात शोभा सुख सम्पत्ति वैभव आदि है वह सब श्रीराम चरणस्थ श्री चिन्ह से उत्पन्न हुआ है। हल चिन्ह से बल अर्थात वीर्य की उत्पत्ति होती है। और मूसल चिन्ह से वसुदेव पुत्र बलदेव जी का प्रिय आयुध मूसल उत्पन्न होता है । फणिनोऽनन्त उत्पन्नो ध्यानशान्तिफलप्रदः । रामबाणाः शरात्सर्वे जाताः शत्रुक्षयङ्कराः ॥ ४२॥ ध्यान करने पर जो शान्ति रूप फल को प्रदान करने वाले हैं ऐसे फणिराज अनन्तशेष भगवान श्रीरामचरण स्थित शेष रेखा से उत्पन्न होते हैं और शत्रु का विनाश करने वाले परमप्रलयङ्कारी प्रचण्ड रामबाण श्रीराम जी के चरण स्थित शर रेखा से उत्पन्न होते हैं । अम्बरादम्बरो जातो निर्लेपो ध्यानतोऽभवत् । पङ्कजात्पङ्कजं जातं विष्णुहस्तेमुदान्वितम् ॥ ४३॥ अम्बर अर्थात वस्त्र चिन्ह से अम्बर अर्थात वह आकाश उत्पन्न होता है जिस आकाश में धारणा करने से योगी निर्लेप सिद्धि को प्राप्त करता है। पङ्कज चिन्ह से पङ्कज अर्थात वह पद्म प्रकट होता है जो भगवान विष्णु के कर कमलों में सदा विराजमान होकर उत्कर्ष को प्राप्त होता है । नलीयते कदाचिद्वै तस्यध्यानी भवार्णवे । कृतेऽपि कुत्रचिद्वासे पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ४४॥ उसी कमल का ध्यान करके ध्यानी जन संसार समुद्र में कभी नहीं डूबते। चाहे प्रारब्ध वश उचित अनुचित स्थल कहीं भी वास करें लेकिन जैसे कमल पुष्प सदा ही कीचड़ में रहकर भी कीचड़ से सर्वथा मुक्त रहता है उसी प्रकार ये ध्यानी जन भी संसारी विषयों से निर्लेप रहते हैं । स्यन्दनात्पुष्पकोत्पत्तिश्चतुर्वर्ग फलप्रदः । वज्राद्वज्रमुत्पन्नं पापपर्वतहानिदम् ॥ २५॥ धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों फल को प्रदान करने वाला पुष्पक विमान श्रीराम जी के चरण स्थित रथ चिन्ह से उत्पन्न होता है। पाप रूपी पर्वत को फाड़ने वाला वज्र श्रीरामचरणस्थ वज्र चिन्ह से उत्पन्न होता है । यवेन धनदो जातः सर्वे यज्ञादयोपि च । पारिजातात्समुत्पन्नः कल्पवृक्षश्च कामदः ॥ ४६॥ यव रेखा से धनद अर्थात कुबेर उत्पन्न होते हैं और सम्पूर्ण वैदिक यज्ञ भी इसी यव चिन्ह से उत्पन्न होते हैं। श्रीराम जी के चरण स्थित पारिजात चिन्ह से मनोवाञ्छित फलों को प्रदान करने वाले कल्प वृक्ष का प्राकट्य होता है । अङ्कुशाद्ज्ञानं सञ्जातं सर्वलोक मलापहम् । प्रापयत्येव सन्मार्गे मत्तमात्तङ्गजं मनः ॥ ४७॥ सभी लोकों के पाप का नाश करने वाला ब्रह्मज्ञान उस अङ्कुश रेखा से उत्पन्न होता है जो अपने ध्यापक जनों के मनोरूपी मतवाले हाथी को शीघ्र ही विषयरूपी कुमार्ग से हटा कर भक्तिरूपी सन्मार्ग में अग्रसर कर देता है । ध्वजया विजयोजातो मुकुटाद्दिव्यभूषणः । यः करोति महाराजं दोनमेवस्वतेजसः ॥ ४८॥ समस्त लोकों पर प्राप्त होने वाली विजय ही श्रीराम चरण स्थित ध्वजा चिन्ह से प्रकट होती है। सम्पूर्ण दिव्य आभूषण उस मुकुट चिन्ह से उत्पन्न होते हैं जो मुकुट अपने तेज से दीन को भी महाराज बना देता है । चक्रात्सुदर्शनञ्चक्रं महादुष्टविनाशनम् । सिंहासनेन सम्भूतं रामसिंहासनं परम् ॥ ४९॥ महादुष्टों का विनाश करने वाला सुदर्शन चक्र श्रीराम जी के चरणों में स्थित चक्र चिन्ह से प्रकट होता है और सिंहासन चिन्ह से श्रीराम जी का जो परम दिव्य सिंहासन है वह उत्पन्न होता है । चामरेण समुद्भूता चन्द्रिकाचन्द्रसूर्य्ययोः । हृदिप्रकाशिका सम्यक् सर्वमात्सर्य्य नाशनी ॥ ५०॥ सम्यक प्रकार से मात्सर्यादि षडविकारों का नाश करने वाली तथा हृदय को प्रकाशित करने वाली चन्द्र सूर्य सम्बन्धिनी जो चन्द्रिका अर्थात प्रभा है वह श्रीराम जी के चरणों में स्थित चामर चिन्ह से प्रकट होती है । आतपत्रोद्भवोमेघो ध्यानीछत्रपतिर्भवेत् । तथा पुरुषचिह्नेन तत्सद्ब्रह्म प्रकाशकः ॥ ५१॥ आत पत्र अर्थात छत्र चिन्ह से मेघ माला उत्पन्न होती है और उस छत्र चिन्ह का ध्यानी छत्रपति होता है। इसी प्रकार पुरुष चिन्ह से तत्सद्ब्रह्म प्रकाशक परमात्मा उत्पन्न होते हैं परमात्मा परब्रह्म सर्वसाक्षीजगद्गुरुः । यस्यध्यान समायुक्ता योगिनोनित्यमेवच ॥ ५२॥ वे परमात्मा परब्रह्म, सर्वसाक्षी तथा जगद्गुरु हैं जिनका समाहित रूप से योगिजन सदा सर्वदा ध्यान करते हैं । यवास्रजोऽपि श‍ृङ्गाराः रस श‍ृङ्गारदायकाः । गोपादात्कामधेनुश्च सर्वकामफलप्रदा ॥ ५३॥ यव माला और श‍ृङ्गार सूचक जितने भी चिन्ह हैं उन सब से श्रृङ्गार रस की उत्पत्ति होती है। श्रीराम चरण में स्थित गोपाद चिन्ह से सर्वकामना रूपी फल को प्रदान करने वाली कामधेनु प्रकट होती है । प्रेमसिन्धोरगाधस्य सरयूत्पत्तिरुच्यते । क्षोणिचिह्वात्क्षमा चैव भगवद्धर्म विवर्धनी ॥ ५४॥ श्रीराम चरणस्थ सरयू रेखा से अगाध रामप्रेम रूपी समुद्र का प्राकट्य होता है। क्षोणी चिन्ह अर्थात भूमि रेखा से भगवद्धर्म को बढ़ाने वाली क्षमा उत्पन्न होती है । कुम्भादमृतकुम्भश्च निःसृतः सिन्धुमन्थने । कीर्तिस्तुतिः पताकायां विमलासत्प्रकाशिका ॥ ५५॥ समुद्र मन्थन में जो अमृत घट निकला था वह श्रीराम चरणों में स्थित कुम्भ चिन्हों से ही प्रकट होता है और विमल सत्प्रकाशिका स्तुति तथा कीर्ति का प्राकट्य श्रीराम चरणस्थ पताका चिन्ह से होता है । जम्बूफलेन चिह्नेन वैनतेयः समुद्भवः । रागादि पन्नगध्वंसी श्रीरामध्यान सूचकः ॥ ५६॥ रागादिक रूप सर्प को ध्वंस करने वाले तथा श्रीराम जी के ध्यान को सूचित करने वाले वैनतेय श्रीगरुड़ जी महाराज का प्राकट्य श्री राम चरण में स्थित जम्बूफल से होता है । अर्धचन्द्रात्कलाइन्दोः पाञ्चजन्यं च शङ्खतः । वेदास्ततोऽभिजायन्ते श्रीरामगुणगायकाः ॥ ५७॥ इन्दु अर्थात चन्द्रमा की सभी सोलह कलाएं श्रीराम जी के चरण में स्थित अर्धचन्द्र चिन्ह से उत्पन्न होती हैं। शङ्ख रेख से ही पाञ्चजन्य शङ्ख (जो भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में रहता है)उत्पन्न होता है । इसी शङ्ख चिन्ह से श्रीराम जी के परम दिव्य अगणित गुणगणों का गान करने वाले वेदसमूह प्रकट होते हैं । षट्कोणात् षण्मुखोजातः षड्विकारविनासनः । त्रयः कालस्त्रिकोणाच्च त्रिकुटी नादमुत्तमम् ॥ ५८॥ कामादिक षडविकारों के नाशक षण्मुख कार्तिकेय स्वामी ही षट्कोण चिन्ह से उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार उत्तम त्रिकुटी नाद तथा भूत,भविष्य और वर्तमान काल त्रिकोण रेखा से उत्पन्न होते हैं । गदया च गदोत्पत्तिर्जीवात्मा जीवसम्भवः । बिन्दुना मन्मथोजातो विजयो सर्वदेहिनाम् ॥ ५९॥ गदा की उत्पत्ति गदा चिन्ह से और जीवात्मा की उत्पत्ति जीव चिन्ह से होती है। इसी प्रकार प्राणी मात्र पर विजय प्राप्त करने वाले कामदेव बिन्दु रेखा से प्रकट होते हैं । मूलप्रकृतिरुत्पन्ना शक्त्याविश्वमोहिनी । अमृतश्च सुधाकुण्डाद्रामभक्तिप्रदः परः ॥ ६०॥ समस्त विश्व को मोहित करने वाली मूल प्रकृति श्रीराम चरणस्थ शक्ति रेख से उत्पन्न होती है और श्रीरामभक्ति रूपी अमृत को ही प्रदान करने वाली अमृतधारा श्रीराम चरण में स्थित अमृत कुण्ड चिन्ह से प्रकट होती है । त्रिवल्यामद्भुता शोभा त्रिवेणीरूपमद्भुतम् । रत्यादिचखचाप्यल्यं मीनेन शकुनस्तथा ॥ ६१॥ संसार में वह अद्भुत शोभा जिससे अद्भुत सुखदायक त्रिवेणी उत्पन्न होती है वह श्रीराम चरणस्थ त्रिवली चिन्ह से उत्पन्न होती है। कामदेव की पत्नी रति के नेत्र की चपलता और संसार के सभी शकुन समूह श्रीराम चरणस्थ मीन चिन्ह से प्रकट होते हैं । पूर्णेन्दुः पूर्णचन्द्रेण तापघ्नस्तोषदायकः । वीणया रागरागिन्यो वाद्यमद्भुत गानदम् ॥ ६२॥ त्रिताप का शमन करने वाली और परम सन्तोष प्रदान करने वाला जो पूर्णचन्द्र है वह श्रीराम चरणस्थ पूर्णचन्द्र चिन्ह से उत्पन्न होता है। इसी प्रकार वीणा चिन्ह से भैरवादि छहों राग तथा रामकली आदि रागिनियां और गान में अद्भुत सुख देने वाले मृदङ्गादि वाद्य उत्पन्न होते हैं । महानाद रसो वंश्याः स्वरासप्ततथैव चः । धनूंषिशारङ्गमुख्यानि धनुषैवोद्भवानि च ॥ ६३॥ सभी रसिक जनों को परमानन्दित करने वाला महानादरस तथा षडजादि सप्तस्वर श्रीराम चरणों में स्थित वंशी रेख से उत्पन्न होते हैं। भगवान के शार्ङ्गादिक जितने दिव्य धनुष हैं वे सब श्रीराम चरणस्थ धनुष चिन्ह से उत्पन्न होते हैं । सप्तभूमिकाज्ञानं च तूणेनैवोपजायते । नीडः सर्वं गुणानां च सीतारामस्य सर्वदा ॥ ६२॥ सप्तभूमिका ज्ञान अर्थात साधनसप्तक का ज्ञान जो श्रीवैष्णव धर्म के साधकों में होता है वह ज्ञान श्रीराम चरणों में स्थित तूण रेख से उत्पन्न होता है। श्रीसीताराम जी के समस्त दिव्यस्वेतरसमस्तविलक्षण निखिलहेयप्रत्यनीक कल्याणगुणगणों का जो समूह है उसकी उत्पत्ति भी इसी तूण रेखा से होती है । सद्विवेकोभवेद्धं सान्माया ब्रह्मोभयोरपि । क्षीरोदकं यथाभिन्नं तथैव प्रकरोति सः ॥ ६५॥ माया तथा ब्रह्म में भेद का जो सद्विवेक है, जिस विवेक के होने पर हंस जैसे दूध में मिले हुए पानी को अलग कर लेता है उसी प्रकार यह सद्विवेक गुण माया और ब्रह्म के भेद को समझ लेता है यही सद्विवेक गुण श्रीराम चरणस्थ हंस रेख से उत्पन्न होता है । चन्द्रिकायाद्युतिर्जाता चन्द्ररत्नतडित्सुच । प्रकाश्यमपि सर्वेषां यथायोग्यं च जायते ॥ ६६॥ सूर्य को प्रकाशित करने वाली प्रभा, चन्द्र को प्रकाशित करने वाली द्युति, मणिरत्न की आभा तथा बिजली का तेज ये सभी श्रीराम चरणों में स्थित चन्द्रिका चिन्ह से उत्पन्न होते हैं । त्वत्तएतानि चिह्नानि मयाख्यातानि पार्वति । एकैक चिह्न मध्येतु सद्गुणा कोटि कोटयः ॥ ६७॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे पार्वती ! मैंने तुमसे इतने चिन्ह के व्याख्यान कर दिए हैं परन्तु एक एक चिन्ह के मध्य कोटि कोटि सद्गुण वर्तमान हैं । एषाम्मध्ये समायाति हृद्येकं चापि लक्षणम् । रामधाम गमनाय क्षणेनाकल्मषोभवेत् ॥ ६८॥ इन अड़तालिस चिन्हों के मध्य में एक भी चिन्ह को यदि कोई जीव अपने हृदय में धारण करता है तो वह तत्क्षण अकल्मष अर्थात पाप से रहित होकर श्री राम जी के परम धाम साकेत के लिए गमन कर जाता है । सकलाः सद्गुणास्त्वत्तो वर्णिता भूधरापात्मजे । श‍ृणुष्व चिह्नरङ्गानि कथयामि समासतः ॥ ६९॥ भगवान शिव आगे बोले - हे भूधरात्मजे ! श्रीराम चरण चिन्हों के सकल सद्गुणों का मैंने तुमसे वर्णन किया अब उन चिन्हों के रङ्गों को तुम सुनो । ऊर्ध्वरेखारुणाज्ञेया स्वस्तिकम्पीतमुच्यते । सितारुणं चाष्टकोणं श्रीश्चबालार्कसन्निभा ॥ ७०॥ भगवान शङ्कर बोले - हे प्रिये ! श्रीराम जी के दक्षिण पद में जो ऊर्ध्व रेखा है उसे अरुण अर्थात लाल रङ्ग का जानो। स्वास्तिक चिन्ह पीत अर्थात पीले रङ्ग का है फिर अष्टकोण सीत अरुण है अर्थात श्वेत वर्ण और लाल वर्ण है। श्री चिन्ह की छवि बालसूर्य के समान है । हलञ्च मुसलञ्चैव श्वेतधूम्रमितिस्मृतम् । सर्पोशितस्तथाबाणः श्वेतपीतारुणोहरित् ॥ ७१॥ हल चिन्ह और मूसल चिन्ह श्वेत और धूम्र रङ्ग हैं अर्थात हल उज्ज्वल तथा मूसल धूम्र वर्ण है और सर्प चिन्ह अशित अर्थात श्याम वर्ण है। बाण रेखा चार रङ्ग - श्वेत पीत अरुण और हरित से सुशोभित हो रही है । नभोवदम्बरं ज्ञेयमरुणं पङ्कजं स्मृतम् । रथविचित्र वर्णञ्च युक्तः वेद हयैः सितैः ॥ ७२॥ अम्बर अर्थात वस्त्र चिन्ह नभवत अर्थात आसमानी रङ्ग है। पङ्कज जो कमल चिन्ह है वह लाल रङ्ग का है और उज्ज्वल चार घोड़ों से युक्त रथ विचित्र रङ्ग के हैं अर्थात अनेक रङ्ग मिले हैं । वज्रं तडित वज्ज्ञेयं श्वेतरक्तं तथा यवम् । कल्पवृक्षं हरिद्वर्णं अङ्कुशंश्याममुच्यते ॥ ७३॥ वज्र चिन्ह तड़ित अर्थात बिजली के रङ्ग का है और यव चिन्ह श्वेत रक्त है। कल्प वृक्ष चिन्ह हरित वर्ण का है। अङ्कुश चिन्ह श्याम रङ्ग का है । लोहिता च ध्वजा तस्यां चित्रवर्णाभिधीयते । सुवर्णं मुकुटं चक्रं तप्तकाञ्चन सन्निभम् ॥ ७४॥ ध्वजा चिन्ह लाल रङ्ग का है और ध्वजा के मध्य में चित्र वर्ण वाली पताका है। सुवर्ण मुकुट और चक्र चिन्ह तपाए हुए सोने के रङ्ग के हैं । काश्यवद्यमदण्डः स्याच्चामरं धवलं महत् । छत्रचिह्नं शिवे शुक्लं नृचिह्नंसित लोहितम् ॥ ७५॥ भगवान शिव माता पार्वती से कहते हैं - हे शिवे ! यमदण्ड चिन्ह काश्य रङ्ग का है और चामर चिन्ह अति उज्ज्वल है तथा क्षत्र चिन्ह शुक्ल रङ्ग का है और नर चिन्ह सित लोहित रङ्ग का है । बाणवज्जयमाला च वामे च सरयुः सिता । गोपदश्च सितोरक्तः पीतरक्त सितामही ॥ ७६॥ बाण के मध्य में जो चार रङ्ग के वर्णन हैं वही रङ्ग जयमाल में भी हैं। गोपद चिन्ह श्वेत रक्त है। पृथ्वी चिन्ह पीत रक्त वर्ण के सहित उज्ज्वल है । स्वर्णवर्णोऽसितं किञ्चित्कुम्भमेवं प्रवर्तते । चित्रवर्णा पताका च श्यामं जम्बूफलन्तथा ॥ ७७॥ कुम्भ अर्थात घट चिन्ह कुछ श्वेत स्वर्ण वर्ण (कुछ सफेद और कुछ सोने के रङ्ग का)का है। पताका चित्रवर्ण की है। जम्बूफल श्याम वर्ण का है । धवलश्चार्धचन्द्रोऽति रक्तमिषच्छितोदरः । षट्कोणं च महास्वच्छं त्रिकोणमरुणं तथा ॥ ७८॥ अर्ध चन्द्र उज्ज्वल वर्ण का है और शङ्ख चिन्ह थोड़ा अरुण और श्वेत वर्ण का है। षट्कोण महास्वच्छ और त्रिकोण चिन्ह लाल रङ्ग का है । श्यामलातु गदाज्ञेया जीवात्मा दीप्ति रूपकः । बिन्दुः पीतः तथा शक्तिः रक्तश्यामासितापिच ॥ ७९॥ गदा चिन्ह श्याम रङ्ग का है और जीवात्मा चिन्ह दीप्त अर्थात प्रकाशमय है। बिन्दु चिन्ह पीला और शक्ति चिन्ह रक्त श्याम सित वर्ण का है । सितरक्तं सुधाकुण्डं त्रिवली च त्रिवेणिवत् । वर्तते रौप्यवन्मीनो धवलः पूर्णसिन्धुजः ॥ ८०॥ सुधा कुण्ड सित रक्त अर्थात उज्ज्वल लाल रङ्ग का है और त्रिवली चिन्ह का रङ्ग त्रिवेणी रङ्ग के समान है । मीन चिन्ह रौप्य वर्ण है और सिन्धुसुत पूर्णचन्द्र धवल अर्थात उज्ज्वल वर्ण का है । पीतरक्तसितावीणा वेणुश्चित्रविचित्रकः । हरित्पीतोऽरुणश्चैव त्रिविधं धनुरुच्यते ॥ ८१॥ वीणा अर्थात सितार चिन्ह पीत रक्त तथा उज्ज्वल वर्ण का है। वेणु अर्थात वंशी चिन्ह विचित्र रङ्ग का है अर्थात उसमें एक साथ कई रङ्ग हैं। धनुष चिन्ह तीन रङ्ग का है - हरित (हरा), पीत (पीला)और अरुण (लाल)। वेणुवद्वर्ततेतूणो हंसइषत्सितारुणः । सित पीतारुणा ज्योत्स्ना सर्वन्तोरङ्गमद्भुतम् ॥ ८२॥ तूण रेख वेणु रेख के समान ही चित्र विचित्र वर्ण की है और हंस चिन्ह स्वल्प श्वेत और लाल है । ज्योत्सना अर्थात चन्द्रिका चिन्ह श्वेत पीत लाल होने से उसकी सर्वतोदृष्टि शोभा हो रही है । रङ्गेनैकेन यः क्षिप्ता रामरङ्गैः सरङ्गितः । वर्जितास्तेऽपि सद्धर्मे रामरङ्गैर्नरङ्गिताः ॥ ८३॥ भगवान शिव कहते हैं कि जो पुरुष रेख के एक रङ्ग में भी चित्त को सराबोर करता है वह श्रीराम जी के रङ्ग में रङ्ग जाता है। जो अभी तक श्रीराम जी के रङ्ग में नहीं रङ्गे हैं वह निश्चित रूप से सकल सद्धर्म से वञ्चित हैं । ममैव च महर्षिणां देवर्षेश्चोर्ध्व रेतसाम् । ब्रह्मादिनां च देवानां वेदसारमथोच्यते ॥ ८४॥ भगवान शिव बोले - हे गिरिजे ! मेरा, सभी महर्षियों का, देवर्षियों का और सभी ऊर्ध्वरेता अर्थात अखण्ड ब्रह्मचारी सनकादि प्रभृतियों का और ब्रह्मादि सहित सकल देव वृन्दों का जो सार सिद्धान्त है उस वेद सार सिद्धान्त को मैं कहता हूं । सर्वान्नेतान्महाविद्या सीतारामाङ्घ्रि चिह्नकान् । ध्यायन्त्यर्हनिशम्भक्त्या निधायहृदयेऽमलान् ॥ ८५॥ श्रीरामचरणं त्यक्त्वा किञ्चिदन्यत्करोति यः । तुषाभिघातनं मूढः प्रकरोति पुनः पुनः ॥ ८६॥ ये उपरोक्त महर्षि वृन्द, मैं तथा सभी देवर्षि जन, देवगण आदि सभी जिनका हृदय अमल अर्थात मल रहित है वे अपने अमल हृदय में श्रीसीताराम चरणचिन्हों को स्थापित कर उन्हीं ब्रह्मविद्या रूप चरण चिन्हों का अहर्निश अर्थात रात-दिन प्रेमभक्तिपूर्वक ध्यान करते हैं अर्थात उपासना करते हैं। जो पुरुष श्रीराम जी के चरण को त्यागकर लोकेष्णा के लिए और कुछ करता है वह मूर्ख बार बार भूसा कूटने जैसा मूर्ख कार्य करता है । अङ्घ्रिचिह्नानि सर्वाणि मयाप्रोक्तानि यानि च । श्रीरामस्यैव चाङ्गानि सर्वाण्येव न संशयः ॥ ८७॥ भगवान शिव बोले - हे शिवे ! सभी श्रीरामचरण चिन्हों का मैंने जो तुमसे वर्णन किया वे सभी के सभी श्री राम जी के शाश्वत पूर्ण अङ्ग हैं । इदं रहस्यं परमं श्रीरामोपासकं विना । न दातव्यं न दातव्यं न दातव्यं कदाचन ॥ ८८॥ यह उत्तम परम रहस्य श्रीराम भक्तों को छोड़कर अन्य किसी को नहीं देना चाहिए, नहीं देना चाहिए और नहीं देना चाहिए क्योङ्कि अनाधिकारियों के मध्य मणि भी अपनी योग्यता को प्राप्त नहीं होता है । अप्रकाश्यमिदं सर्वं तथापि मम जीवनम् । गुह्याद् गुह्यतमं ज्ञेयं गुह्यानां गुह्यमुत्तमम् ॥ ८९॥ इस परम दिव्य रहस्य को गोप्य से भी अति गोप्य और गोप्य में भी अति गोप्य जानकर प्रकाशित मत करना क्योङ्कि यह मेरा जीवन अर्थात प्राण ही है । - इति श्रीमन्महारामायणे गिरिजामहेश्वर संवादे श्रीसीतारामाङ्घ्रि लक्षणानुवर्णने अष्टचत्वारिंशत्सर्गः ॥ ४८॥

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मय्येतद्दयाङ्कृत्वा स्वामिन्कथय विस्तरात् । रामभक्तिः कथं जायेच्छ्रीरामोपसकश्चकः ॥ १॥ माता पार्वती भगवान शिव से बोलीं - हे स्वामी ! मुझ पर कृपा करके विस्तार से मुझे यह बताइए कि श्रीराम भक्ति कैसे उत्पन्न होती है? श्रीराम जी का उपासक कौन है? त्वैयेतदुत्तमं प्रष्टं धन्यधन्यासि पार्वति । श्रीरामोपासकोऽनन्योवक्ष्ये तस्यविधिं श‍ृणु ॥ २॥ भगवान शिव माता पार्वती से बोले - हे पार्वती ! तुमने मुझसे अतिश्रेष्ठ प्रश्न किया है इसलिए आप धन्यों में भी परम धन्या हैं। मैं आपसे अनन्य रामोपासकों की उपासना विधि कहता हूएँ, आप सावधान होकर श्रवण करें । मुग्धे श‍ृणुष्व मनुजोऽपि सहस्त्रमध्ये धर्मव्रती भवति सर्वसमानशीलः तेष्वेवकोटिषु भवेद्विषयेविरक्तः । सद्ज्ञानकोभवति कोटिविरक्तमध्ये विज्ञानरूपविमलोप्यथब्रह्मलीनः तेष्वेवकोटिषु सकृत्खलु रामभक्तः ॥ ३॥ भगवान शिवजी बोले - हे मुग्धे पार्वती ! सुनो ! सहस्त्रों मनुष्यों में सर्वसमान शील धर्मव्रती कोई एक ही मनुष्य होता है पुनः ऐसे कोटि धर्मशीलों में सांसारिक विषयों से विरक्त कोई एक ही होता है ऐसे कोटि-कोटि विरक्तों के मध्य कोई एक ही सद्ज्ञान से सम्पन्न और विमल तथा विज्ञानस्वरूप ब्रह्मलीन होता है। ऐसे कोटि-कोटि ब्रह्मलीनों में कोई एक ही निश्चय करके राम भक्त होता है । ये कल्पकोटिसततं जपहोमयोगैर्ध्यानैः समाधिभिरहो रतब्रह्मज्ञानात् । ते देवि धन्यमनुजा हृदि बाह्यशुद्धाः भक्तिस्तदाभवति तेषु च रामपादौ ॥ ४॥ भगवान शिव बोले - हे देवि ! जिन्होंने कोटि-कोटि कल्पों तक जप-होम-योग-ध्यान-समाधि करके तथा रात दिन ब्रह्मज्ञान में रत होकर हृदय तथा बाह्य दोनों को शुद्ध कर लिया है वे मनुष्य धन्य हैं। ऐसे ही जनों में श्रीराम जी के चरणों में अनन्य भक्ति उत्पन्न होती है । सम्यग्वदन्ति निगमा बहुसोऽवतारान् सद्ब्रह्मणोभुवितले निजभक्तहेतोः । यस्तान्नमेदनुदिनं च सहस्रजन्म रामस्य चैव हितदासमुपासकस्सः ॥ ५॥ निगमों अर्थात चारों वेदों ने परमात्मा के निज भक्त हेतु बहुत से अवतार जो वर्णित किए हैं उन सम्पूर्ण अवतारों को सहस्त्र (अर्थात अनन्त)जन्मों तक जब कोई अनुदिन नमन करता है तब जाकर वह श्रीरघुनाथ जी का सम्यक अर्थात सच्चा उपासक होता है । बाह्यान्तरं श‍ृणु तथा गिरिराजकन्ये त्वत्तो वदामि रघुनाथजनस्यशुद्धम् । अन्यदविहायसकलं सदसच्चकार्यं श्रीरामपङ्कज पदं सततंस्मरन्ति ॥ ६॥ भगवान शिव बोले - हे गिरिराजकन्ये ! मैं तुमसे सत्य कहता हूएँ, श्रीरघुनाथ जी के निज जन बाह्य और हृदय दोनों रूप से शुद्ध होते हैं और वे श्रीरामभक्त अन्य सम्पूर्ण सत-असत कार्य को छोड़कर श्रीराम जी के चरण कमलों का सतत स्मरण करते हैं । श्रीरामनाम रसनाः प्रपठन्ति भक्त्या प्रेम्णा च गद्गदगिरोप्यथ हृष्ठलोमाः । सीतायुतं रघुपतिं च किशोरमूर्तिं पश्यन्त्यहर्निशिमुदाप रमाभिरम्याम् ॥ ७॥ भगवान शिव श्रीराम जी के अनन्य भक्तों के लक्षण बताते हुए माता पार्वती से कहते हैं - जिन श्रीराम जी के जनों की जिह्वा निरन्तर श्रीराम नाम का पठन करती है और भक्ति तथा प्रेम से जिनकी वाणी गद्गद हो गई है और रोमकूप रोमान्चित होकर खड़े हो गए हैं और जो श्रीसीता जी से संयुक्त श्रीरघुपति तथा उनकी परम उदार और रमाने वाली किशोर मूर्ति का दिन रात अवलोकन करते हैं उन्हें ही सर्वलक्षण सम्पन्न श्रीरामानन्य कहा जाता है । भूमौ जलेनभशि देवनरासुरेषु भूतेषु देवि सकलेषु चराचरेषु । पश्यन्ति शुद्धमनसा खलु रामरूपं रामस्य सा भुवितले समुपासकाश्च ॥ ८॥ भगवान शिव बोले - हे देवि ! भूमि जल आकाश देवता असुर मनुष्य और सकल जड़ चैतन्य प्राणी मात्र में जो श्रीराम रूप को देखते हैं वे ही श्रीराम जी के सम्यक उपासक हैं । शान्तस्समानमनसा च सुशीलयुक्तः तोषक्षमागुणदयाऋजुबुद्धियुक्तः । विज्ञानज्ञाननिरतः परमार्थवेत्तानिर्धामकोऽभयमनाः सचराम भक्तः ॥ ९॥ आगे श्रीराम भक्त का लक्षण बताते हुए भगवान शिव कहते हैं कि सम दृष्टि से जिनका मन अत्यन्त शान्तवृत्ति को प्राप्त हो चुका है, जो सुन्दर शील से युक्त तथा तोष, क्षमा, दयादि गुणों से युक्त हैं और जो श्रीवैष्णवी दीक्षा के अनन्तर अर्थपञ्चकादि ज्ञान अर्थात आत्म स्वरूप, परमात्म स्वरूप, उपाय स्वरूप, फल स्वरूप, विरोधी स्वरूप के ज्ञान में निरत हैं ऐसे परमार्थ वेत्ता जो निर्धाम अर्थात गृहशून्य और अभय मन वाले हैं वे ही सम्यक अर्थात सच्चे राम भक्त हैं । भाले चरम्यतिलकं विवरे चदीप्तं रामाङ्घि चिह्नसहितं श्रीचूर्णमध्ये ॥ कण्ठे तथा तुलसिदामलसद्भुजे वै तप्तेनबाणधनुषाङ्कित राम भक्तः ॥ १०॥ जिसके भाल में उज्ज्वल अर्थात श्वेत वर्ण के श्री रामपादाकृति युक्त तथा मध्य में श्री चूर्ण अवस्थित है, जिसके कण्ठ में तुलसीमाला सुशोभित है और दोनों में भुजाओं में धनुष और बाण के चिन्ह अङ्कित हैं वे ही सत्य राम भक्त हैं । रामस्य चैव हृदये शुचि राजमन्त्रः श्रीराम नामसहितो निजनामयुक्तः । सत्सङ्ग नित्यनिरतः श्रुतितत्त्ववेत्ता ज्ञातामहान् रघुपतेः समुपासकः सः ॥ ११॥ जिसके हृदय में श्रीराम जी के ही पवित्र रामतारक षडक्षर मन्त्रराज हो और जिसका दीक्षोपरान्त नाम श्रीराम जी से सम्बन्धित हो (जैसे रामदास, रघुनाथदास, रघुनन्दनदास), जो सत्सङ्ग में नित्य रूप से निरत हो और जो श्रुति के तत्त्व को जानने वाला ज्ञानी हो वह ही श्रीरघुपति का महान उपासक कहलाता है । ये जापका भागवताश्चतपस्विनो ये पूजारताःसुचरिताश्च विरागयुक्ताः । ज्ञानार्णवास्तिलकदामधरा यशस्विनस्तीर्थाटिनः शुभगुणाश्शुभ कर्मयुक्ताः ॥ १२॥ सर्वैर्गुणैरपि च संयमनेमयुक्तोनिःकल्मषः सकलसिद्धिकरश्चनित्यं । योनाङ्कितोधनुशरैर्नचराजमन्त्रैर्नोपासको न स जनोरघुन्दनस्य ॥ १३॥ भगवान शङ्कर आगे कहते हैं कि जो आपका अर्थात राममन्त्र छोड़कर अन्य मन्त्रों का जाप करते हुए भागवत अर्थात वैष्णव धर्म को धारण कर पूजा में रत है, जिसका सुन्दर चरित्र है और वैराग्य से युक्त है, ज्ञान का समुद्र है, तिलक माला धारण करने वाला तथा यशस्वी और तीर्थाटन करने वाला है और सभी शुभ गुणों और कर्मों से युक्त है तथा संयम नियम आदि व्रतों से युक्त है और निष्कलमष अर्थात सभी पापों से रहित है तथा सभी सिद्धियों से नित्य भूषित भी है परन्तु यदि श्रीरघुनन्दन रामभद्र के दिव्यायुध धनुष और बाण से उसकी भुजाएं अङ्कित नहीं है और रामतारक षडक्षर मन्त्रराज से वह युक्त नहीं तो वह व्यक्ति न ही श्रीरघुनन्दन का उपासक और न ही उनका जन कहलाता है । सर्वसंस्कारमध्येतु धनुर्बाणोमहावरः । स्वामिन्नादौत्वयाप्रोक्तः कथमित्यभिधीयते ॥ १४॥ धनुर्बाण के अति उत्कृष्ट महत्त्व को सुनकर पार्वतीजी शिव जी से पुनः प्रश्न करती हैं कि हे स्वामिन् ! आपने सभी संस्कारों में धनुषबाण को ही सबसे श्रेष्ठ बताया इसका कारण क्या है? नित्यं प्रियः प्रियतरोरघुनन्दनस्य बाणोधनुर्विमलमन्त्रषडक्षरश्च बाले तदेव सकलेषु च चिह्न मध्ये श्रेष्ठं महाधनुशरं समुपासकेषु ॥ १५॥ भगवान शिव जी बोले - हे बाले! धनुषबाण तथा विमल षडक्षर मन्त्रराज श्रीरघुनन्दन को नित्य प्रिय से भी अति प्रिय हैं इसी कारण रामोपासकों के लिए सभी चिन्हों में धनुषबाण का संस्कार श्रेष्ठ है । ध्याने जपे विविधिपाठरताश्चनित्यं पूजारताः षडधिकैर्दशभिः प्रकारैः ॥ एतद्धनुःशरविवर्जित कास्तुकूर्यू रामः प्रसीदति कदापि न चैव तेषाम् ॥ १६॥ ध्यान में तथा जप में और विविध प्रकार के स्तोत्रादि पाठ करने में तत्पर और सोलह प्रकार की पूजा (षोडशोपचार)के अधिकारी होने पर भी यदि धनुष और बाण के संस्कार से रहित कोई है तो उसके इन कृत्यों से श्रीरघुनाथ जी कदापि (कभी भी)प्रसन्न नहीं होते । यज्ञं च तीर्थगमनं पितृदेवसर्वं कुर्वन्ति कर्मशुभकं श्रुतयोवदन्ति । येनाङ्किता धनुशरैर्विफलं च सर्वं येचाङ्किताधनुः शरैश्च फलं सहस्त्रम् ॥ १७॥ वेद (श्रुति)द्वारा प्रतिपादित यज्ञ, तीर्थाटन, पितृतर्पण आदि जितने शुभ कर्म हैं वे सभी धनुर्बाण के अङ्कन के बिना निष्फल अर्थात व्यर्थ हो जाते हैं और धनुष-बाण से अङ्कित करने पर यही कर्म सहस्त्र गुना फलित हो जाते हैं । चक्रात्फलं शतगुणं धनुषः शरस्य यश्चाङ्कितोऽपि स च रामजनाग्रगण्यः । सारूप्यमेवलभते किलतत्क्षणेवै रामः प्रियः प्रियतरोऽनुदिनं च मह्यम् ॥ १८॥ भगवान शङ्कर माता पार्वती से कहते हैं कि हे शिवे! शङ्ख और चक्र से शतगुण अर्थात सौगुना अधिक महत्त्व धनुषबाण के अङ्कन का है। जो जन श्रीराम जी के दिव्यायुध धनुष और बाण से अङ्कित होते हैं वे श्रीराम जी के जनों में अग्रगण्य (श्रेष्ठ)होते हैं। जिस समय कोई धनुष बाण से अङ्कित होता है उसी क्षण वह श्रीराम जी के सारूप्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है और प्रतिदिन श्रीराम जी उसके लिए प्रियतर से भी महत्प्रियतर हो जाते हैं । श्रुत्वा महाद्भुतमिदं धनुषः शरस्य माहात्यमेव विमलंसज्जनप्रियं च । धन्यावयं जगति धन्यतराश्चनित्यं कस्मात्करोतिग्रहणं विधिना च केन ॥ १९॥ माता पार्वती भगवान शिव से बोलीं - महाद्भुत विमल सज्जनों को अति प्रिय यह धनुषबाण के माहात्म्य को सुनकर जगत में अपने जन्म को धन्यातिधन्य मैं मानती हूएँ परन्तु धनुष-बाण संस्कार किससे ग्रहण करना चाहिए और किस विधि से ग्रहण करना चाहिए? यः सद्गुरुर्जगति यस्य गुरुप्रभावो रामस्य चैव सततं समुपासकोयः । सम्पूजयेत्सुविधिना रघुनाथबाणं बध्वाकराञ्जलिमथो प्रणति प्रकुर्यात् ॥ २०॥ भगवान शिव जी बोले - जगत में जिसका अत्यन्त प्रभाव हो ऐसे सद्गुरु और श्रीरामजी की सतत उपासना करने वाला जो पुरुष हो वह श्रीराम जी के आयुध धनुष बाण को सुन्दर विधि से पूजन करे और फिर दोनों हाथ जोड़कर धनुष और बाण को प्रणाम करे । तेन प्रसन्नमनसा समुदारबुद्ध्या तप्तन्धनुःशरमिदं भुजयोः प्रकुर्य्यात् । पूजां पुनः प्रकुरुतेविविधैश्चरत्नैस्तस्मिन्क्षणेभवति जीवन एव मुक्तः ॥ २१॥ तब गुरु प्रसन्न मन होकर उदार बुद्धि से शिष्य के भुजा के मूल में यह धनुष और बाण को तपा कर अङ्कित करे। इसके पश्चात शिष्य विविध प्रकार से श्रीगुरुदेव की पूजा करे इस प्रकार धनुष-बाण संस्कार होने पर पुरुष उसी क्षण जीवन मुक्त हो जाता है । वामे करे च धनुषा च शरेण सव्ये यश्चाङ्कितोहि मनुजोनरलोकधन्यः । तस्मैनमन्ति शिरसा द्रुहिणादिदेवास्तद्दर्शनेन मनुजाकिल कल्मषघ्नाः ॥ २२॥ जिस पुरुष के बाएँ भुजा में धनुष और दाहिने में बाण अङ्कित होता है वह मनुष्य नर लोक में धन्य है और ब्रह्मादि देव उस पुरुष को नमस्कार करते हैं और उस पुरुष के दर्शन से मनुष्य के पाप का नाश होता है । त्वत्तोविधिं श‍ृणु शिवे कथयामि सर्वं बाणन्धनुश्च वसुधातुमयम्प्रकुर्य्यात् । कृत्वा यथोक्त विधिना सकलां प्रतिष्ठां संस्थापयेद्ध हनुमान च गणेश गौर्य्यौ ॥ २३॥ भगवान शिव बोले - हे शिवे ! धनुष और बाण संस्कार की सम्पूर्ण विधि को मैं तुमसे कहता हूं। प्रथम वसुधातुमय अर्थात अष्टधातु से धनुषबाण निर्माण करें फिर यथोक्त विधि से धनुष बाण की प्रतिष्ठा करके श्रीगणेश जी और गौरी तथा हनुमान जी का संस्थापन करें अर्थात आवाहन सुपूजन करें । अग्नौविशुद्ध हविषा विविधैः सुगन्धैर्होमं सुवेदविधिना शरशार्ङ्ग मन्त्रैः । अष्टोतरंशतमथो जुहुयात्सुभक्तो रामंस्मरेद्हृदितदाजनकात्मजाढ्यम् ॥ २४॥ सुन्दर प्रज्ज्वलित अग्नि में विविध प्रकार के शुभ सुगन्धि सम्पन्न हविषों द्वारा सुन्दर वैदिक विधि से शरशार्ङ्ग (धनुषबाण)के मन्त्रों से १०८ बार आहुतियां दें। इसके साथ ही भक्ति पूर्वक हृदय में जगच्छरण्य प्रभु श्रीराम सहित वात्सल्यरससम्पन्ना श्रीजनकात्मजा जानकीजी के दिव्य स्वरूप का ध्यान करें । तप्तं धनुश्शरमथोखलुतत्र होमे प्रेम्णाङ्कितं सुमनसा च गुरुः प्रकुर्य्यात् । देशेषुचैव सकलेष्वपि सर्व काले वर्णाश्रमाश्च सकलाङ्कित पुण्य पुञ्जाः ॥ २५॥ हवन के पश्चात उसी हवन की अग्नि में धनुष बाण को तपित कर श्रीगुरु प्रेम सहित पवित्र मन से शिष्य को अङ्कित करें अर्थात धनुष बाण की छाप दें और इस धनुष बाण के अङ्कन का सर्वदेश तथा सर्वकाल में लेने का विधान है और ब्राह्मणादि चारों वर्ण तथा ब्रह्मचर्य्यादि चारों आश्रम इस धनुष और बाण से अङ्कित होने पर पुण्यों के पुञ्ज (पुण्य समूह)कहाते हैं । श्रीरामसंस्कारविवर्जिता ये निष्पुच्छश‍ृङ्गाः पशवो नरास्तो । शक्ता न वेदा अभिवर्णितुंयत्त्वत्तोमयाख्यातमविस्तरेण ॥ २६॥ भगवान शिव कहते हैं कि श्रीराम जी के संस्कार से जो वर्जित है वे पुरुष बिना पूएँछ और सीङ्ग वाले पशु के समान हैं। हे पार्वती! धनुष बाण की महिमा का जो वर्णन जो मैंने तुमसे सङ्क्षिप्त रूप में किया है इस धनुष बाण के महत्त्व को विस्तार पूर्वक वर्णन करने में वेद भी समर्थ नहीं हैं अर्थात इस धनुष बाण के अङ्कन की अनन्त महिमा है । अहं विधाता गरुड़ध्वजश्च रामस्यबालेसमुपासकानाम् । गुणाननन्तान् कथितुं न शक्ताः सर्वेषुभूतेष्वपि पावनास्ते ॥ २७॥ मैं (शिव), विधाता (ब्रह्मा)और गरुड़ध्वज (भगवान विष्णु)भी श्रीरामोपासकों के अनन्त गुणों का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। वे श्रीरामोपासक सभी भूतों (जीवों)के मध्य निश्चित रूप से अतिपवित्र हैं अर्थात समस्त ब्रह्माण्डों को पावन करने वाले हैं । - इति श्रीमन्महारामायणे उमामहेश्वर संवादे रामोपासक संस्कार कथन नामैकोनपञ्चाशत्सर्गः ॥ ४९॥

५०

रामस्यानन्यदासानां श्रुतंसंस्कारमुत्तमम् । सुखम्मे परमं जातमन्यत्पृच्छामि ते पुनः ॥ १॥ माता पार्वती जी बोलीं कि हे नाथ! श्रीरामजी के अनन्य दास सम्बन्धी उत्तम संस्कार को सुनकर मुझे परम सुख उत्पन्न हुआ अब मैं आपसे अन्य कुछ सुनना चाहती हूएँ । क्षराक्षरौनिर्वर्णो निर्वर्णातीतमद्भुतम् । भेदमेषां वदस्वामिन् ज्ञात्वामामनुगामिनीम् ॥ २॥ माता पार्वतीजी आगे प्रश्न करती हैं - हे स्वामिन्! मुझको अनुगामिनी अर्थात अपनी सेविका जानकर क्षर, अक्षर, निर्वर्ण तथा निर्वर्णातीत शब्द वाच्य इन चारों का भेद आप मुझसे कहिए । किङ्क्षरं चाक्षरं किं च किं निरक्षरमेव च । किं वै निरक्षरातीतं सर्वं कथय विस्तरात् ॥ ३॥ माता पार्वती आगे कहतीं हैं - हे नाथ! क्षर अक्षर निरक्षर और निरक्षरातीत तत्त्व क्या है इसे आप विस्तार से कहिए । मायामयादिकंसर्वं पञ्चतत्त्वोद्भवं तनुम् । दृष्टं श्रुतादिकञ्चैव क्षरमित्याभिधीयते ॥ ४॥ भगवान शिव बोले कि पृथ्वी जल वायु अग्नि आकाश इन पाञ्चों तत्त्व से उत्पन्न कीट भृङ्गादि से लेकर ब्रह्मा तक के शरीर और दृष्टश्रुत (देखा और सुना गया)मायामय पदार्थ अर्थात समस्त ब्रह्माण्ड क्षरपद वाच्य है । नोटः- यह क्षर पदार्थ परिवर्तन शील है । व्यापकः सर्वभूतेषु यस्यनाशः कदापि न । जीवात्मा सर्वगोभेद्यः सोऽक्षरो भूधरात्मजे ॥ ५॥ भगवान शिव बोले - हे भूधरात्मजे! सम्पूर्ण भूतों में जो व्याप्त जो अणुचेतन अर्थात् जो अविनाशी है और कर्म द्वारा स्वर्गास्वर्ग में गमन करने वाला और जो हृदय देशादि से अविछिन्न है वह जीवात्मा ही अक्षर पद वाच्य है । सर्व साक्षी चिदानन्दो निर्द्वन्दोऽखण्डएव यः । परमात्मा परब्रह्म कथ्यते स निरक्षरः ॥ ६॥ जो सभी जीवात्माओं द्वारा किए गए शुभाशुभ कर्मों के साक्षी हैं तथा चिदानन्द से सम्पन्न हैं और निर्द्वन्द (द्वन्दों से परे)तथा अखण्ड (जिनके खण्ड नहीं हो सकते)परमात्मा हैं उन्हीं परब्रह्म को निरक्षरपद वाच्य कहा जाता है । असङ्ख्यमित्रवत्तेजो वेदाअपि न यं विदुः । स वै निरक्षरातीतो रामः परतरात्परः ॥ ७॥ जिनमें असङ्ख्य सूर्यों का तेज (प्रकाश)विद्यमान है और वेद भी जिनको जान नहीं सकते हैं ऐसे निखिल परतर परब्रह्म से भी पर जो श्रीरामजी हैं उन्हीं को निरक्षरातीत पद वाच्य कहा जाता है । यो वै वसति गोलोके द्विभुजश्च धनुर्धरः । ब्रह्मानन्दमयोरामो येन सर्वं प्रतिष्ठितम् ॥ ८॥ जो नित्य द्विभुज धनुर्धर स्वरूप में गोलोक के मध्य साकेत महामणि मण्डप में निवास करते हैं वे श्रीराम ब्रह्मानन्दमय हैं जिन में समस्त जगत प्रतिष्ठित है । भूतः क्षरोऽक्षरश्चांशः कलाश्चैव निरक्षरः । स्वयं निरक्षरातीतः स एव जानकीपतिः ॥ ९॥ भगवान शिव कहते हैं कि क्षर पद वाच्य प्रकृति है जो अचित तत्त्व है और अक्षर पद वाच्य जीवात्मा है जो चित तत्त्व है ये दोनों ही श्रीराम जी के अंश हैं। निरक्षर पद बोध्य जो ब्रह्म है वह श्रीरघुनाथ जी के कला स्वरूप हैं पर श्रीजानकीपति तो स्वयं निरक्षरातीत हैं अर्थात समस्त कलाओं के स्वामी हैं । ईक्षाभूतः क्षरस्तस्य चाक्षरस्तेज उच्यते । निरक्षरो घनस्तेजो वर्तते जानकीपतेः ॥ १०॥ उन्हीं श्रीजानकीपति के अंश जो क्षर पद वाच्य है वह अचित तत्त्व उनका सङ्कल्प रूप है और अक्षर पद वाच्य जीवात्मा जो श्रीराम जी का चेतन अंश है वह श्रीराम जी के अणु तेज का स्वरूप है और निरक्षर शब्द बोध्य जो ब्रह्म है वह श्रीरघुनाथ जी के तेजघन अर्थात तेज समूह का स्वरूप है । स्वयं निरक्षरातीतो रामएवइतिश्रुतिः । ब्रह्मज्ञाननिमग्ना ये भजन्ति सनकादयः ॥ ११॥ श्रीराम पद वाच्य अशेष कारण परब्रह्म ही स्वयं निरक्षरातीत हैं यह श्रुति कहती है और उन्ही निरक्षरातीत श्रीराम जी के ज्ञान (उन्हें जानने)में निमग्न सनकादिक ऋषिगण उनका निरन्तर भजन करते हैं । य एतदभिजानाति गुद्याद्गुह्यतमं मतम् । तस्य चैवाचलाभक्तिः स रामोपासको महान् ॥ १२॥ जो पुरुष इस गुप्त से भी परम गुप्त सिद्धान्त को अच्छी प्रकार जानता है वही पुरुष श्रीराम जी की अचला भक्ति को प्राप्त करके महान रामोपासक कहलाता है । ये च राममयं विश्वं पश्यन्ति ज्ञान चक्षुषा । ये च रामाङ्घ्रि संरक्ता श्रीरामोपासकाश्चते ॥ १३॥ जो समस्त विश्व को अपने ज्ञानचक्षु (रामभक्ति द्वारा जो महान दिव्य दृष्टि प्राप्त हुई है उस नेत्र से)राममय देखता है और जो श्रीराम जी के चरणों में संरक्त (निरन्तर निमग्न)है वही सच्चा श्रीरामोपासक है । ज्ञान विज्ञान योगैः किं तपोध्यान समाधिभिः । तत्त्वमेतं नजानाति श्रम एवहि केवलम् ॥ १४॥ ज्ञान, विज्ञान, योग से क्या लाभ? और तप, ध्यान तथा समाधि से क्या प्रयोजन? यदि श्रीराम जी के महादिव्य परम रहस्यमय तत्त्व को किसी ने नहीं जाना तो उसने केवल श्रम ही किया उसे कोई फल नहीं प्राप्त हुआ । परमेश्वरनामानि सन्त्यनेकानि पार्वति । परन्तु रामनामेदं सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ॥ १५॥ भगवान शङ्कर कहते हैं - हे पार्वती! परमेश्वर के अनेकों दिव्य नाम हैं परन्तु यह जो राम नाम है वह सभी नामों में उत्तमोत्तम (उत्तम में भी परम उत्तम)है । रामस्यैव रमुक्रीडा नाम्नोनान्यस्य जायते । जीवोऽतएव रामस्य स्मरणात्तु गतिंलभेत् ॥ १६॥ सभी नामों में यह राम नाम ही क्रीड़ार्थक रं धातु से निष्पादित है इसलिए जीव राम नाम ही के स्मरण से परम गति को प्राप्त कर सकता है । केचिद्ब्रह्मसखायं च केचिद्दासं वदन्ति च । किंसरूपस्तु जीवोयं स्वामिन् कथयविस्तरात् ॥ १७॥ माता पार्वती शङ्कर जी से कहती हैं - हे स्वामी कोई आचार्य जीव को ब्रह्म का सखा बताते हैं कोई कोई दास बताते हैं। आप ही मुझे विस्तार से बताइए कि जीव का स्वरूप क्या है? दासवद्योऽभिजानाति दासस्तेषामितिस्मृतः । येजानन्ति सखातुल्यं सखिवत्तानथोदितः ॥ १९॥ जो आचार्य (ब्रह्म दासा)इस श्रुति के सिद्धान्त से अपने को दास और ब्रह्म को स्वामी भाव से जानते हैं उनके मत में दास्य रस ही ठीक है और कुछ आचार्य (द्वा सुपर्णा सयुजा सखायाः)इस श्रुति के सिद्धान्त से अपने को ब्रह्म का सखा जानते हैं उनके लिए सख्य भाव का वर्णन किया गया है । ये पश्यन्ति सखीभावं सखीत्वम्प्राप्नुवन्ति ते । ब्रह्मात्मकं च ये जीवं तेषाम्ब्रह्म इतिस्मृतः ॥ २०॥ जो परब्रह्म श्रीरघुनाथ जी को सखीभाव की दृष्टि से निहारते हैं वे सखी भाव को प्राप्त होते हैं और जो जीव को ब्रह्मात्मक अर्थात जीव को ब्रह्म विशेषणी भूत शरीर भाव से और ब्रह्म को विशेष्य भूतशरीरी (अर्थात जीव को ब्रह्म का अंश)जानता है वह इसी शरीर-शरीरी भाव को प्राप्त होता है । श्रीरामं ये च हित्वा खलमतनिरता ब्रह्मजीवं वदन्ति । तेमूढानास्तिकास्ते शुभगुणरहिताः सर्व बुद्ध्यातिरिक्ताः ॥ पापिष्ठाधर्महीना गुरुजन विमुखा वेदशास्त्रे विरुद्धास्ते । हित्वागाङ्गं रविकिरिण जलं पान्तुमिच्छन्त्यतृप्ताः ॥ २१॥ अब भगवान शङ्कर शुष्क अद्वैतियों का तिरस्कार करते हैं और कहते हैं कि जो दुष्ट सिद्धान्त में आसक्त होकर श्रीराम जी की उपासना को त्यागकर जीव को (श्रीराम जी का अंश)न बताकर जीव को ही ब्रह्म (श्रीराम)बताते हैं वे मूर्ख नास्तिक हैं और सभी शुभ गुणों से रहित तथा भगवान श्रीराम के प्रति व्यवसायात्मिका बुद्धि से रिक्त हैं। ऐसे पापिष्ठ, धर्महीन और गुरुजनविमुख वेद शास्त्रों के विरुद्ध होकर उसी प्रकार सम्भाषण करते हैं जैसे अत्यन्त प्यासे होने पर कोई मूर्ख गङ्गा जल को छोड़कर भूम जल (निकृष्ट जल)को पान करना चाहते हैं । ये मर्त्या रामपादौ सुखप्रदविमलौ सं विहायार्त्त बन्धोः । ते मूढ़ा बोध हेतुं घृतपरिघटने वारिमन्थान युक्ताः ॥ यो ब्रह्मास्मीति नित्यंवदति हृदि विना रामचन्द्राङ्घ्रिपद्मम् । ते बुद्धया त्यक्तपोतास्तृण परिनिचये सिन्धुमुग्रं तरन्ति ॥ २२॥ भगवान शिव जी कहते हैं कि जो पुरुष दीनबन्धु रघुनाथ जी के सुखप्रद चरण कमल को त्यागकर अपने और ब्रह्म में अभेद बोध हेतु साधन में लगा है उसका साधन उसी प्रकार का है जैसे कोई घी निकालने के लिए पानी को मथने का व्यर्थ साधन करे। श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमल का ध्यान किए बिना जो अपने को ``अहं ब्रह्मास्मि'' (मैं ही ब्रह्म हूं)ऐसा कहता है वह उसी प्रकार व्यर्थ साधन करता है जैसे कोई सिन्धु तारक जहाज को छोड़कर मन में कल्पित घास की नौका बनाकर दुस्तर सिन्धु को तरने का निष्फल प्रयास करता है । ये केवलाद्वैतमतानुरक्ताः श्रीराममूर्तिं विमलां विहाय । तेषामदृश्यां हरिदश्वमूर्तिं पश्यन्तिमूढाः प्रतिबिम्ब कुम्भे ॥ २३॥ भगवान शिव कहते हैं कि जो पुरुष विमल अर्थात प्राकृत गुण शून्य, शुद्ध, दिव्य श्रीरघुनाथ जी की मूर्ति को छोड़कर केवलाद्वैतवाद मत में अनुरक्त हैं वे ऐसे ही हैं जैसे कोई आकाश के प्रत्यक्ष सूर्य को न देखकर घड़े में जो सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ रहा है उसको देखे । ये रामभक्तिं सु विहाय रम्यां ज्ञानेरताप्रतिदिनं परिक्लिष्टमार्गे । आरान्महेन्द्र सुरभीं प्रहृत्यमूर्खा अर्कं भजन्ति सुभगे सुख दुग्धहेतोः ॥ २४॥ भगवान शङ्कर माता पार्वती से कहते हैं कि हे सुभगे! जो पुरुष रमणीय विमल श्रीरामभक्ति को छोड़कर अत्यन्तक्लेश दायक अद्वैत ज्ञान मार्ग में प्रति दिन अनुराग करते हैं वे मूर्ख समीप में कामधेनु को छोड़कर सुखरूप दुग्ध निमित्त आक (मदार)का सेवन करते हैं । त्यक्त्वा श्रीरघुनन्दनं परतरं सद्ज्ञानरूपं तथा ब्रह्मण्येव वदन्ति ये सदसतोः पूर्णंसदाकाशवत् ॥ ते वै तन्दुल हेतवे तुषमहोनिघ्नन्ति दुर्बुद्धयः छित्वा मूलमुपाश्रयन्ति च दलं तैः सद्गुरुर्नोकृतः ॥ २५॥ भगवान शिव जी कहते हैं कि परात्पर ज्ञान स्वरूप श्रीरघुनाथ जी को छोड़कर सदसत् में पूर्ण आकाशवत् ब्रह्म को बताते हैं अर्थात अगुण ब्रह्म की उपासना करते हैं ये सब आश्चर्यमय दुर्बुद्धियों के कर्तव्य हैं अर्थात उसी प्रकार है जैसे कोई चावल पाने के लिए भूसा को कूटता रहे और मूल को काट कर पत्ते का आश्रय ले ले जैसे कि उस मूर्ख ने कभी सद्गुरु का आश्रय लिया ही नहीं । किं वर्णयामि विमले बहुभिः प्रकारैः सीतापतेर्विगत ज्ञान विशेष सर्वम् । ज्ञानं तदेवकुसुमं च यथा न भोजं सत्यंवदामि च तदा न सुखं च स्वप्ने ॥ २६॥ भगवान शिव कहते हैं कि हे विमले! बहुत प्रकार से मैं क्या वर्णन करूएँ (ज्यादा क्या कहूएँ बस इतना ही समझो)कि श्रीसीतापति जी के सम्बन्ध बिना निखिल ज्ञान आकाशपुष्प के समान निरर्थक है और सत्य कहता हूएँ कि वहाएँ पर सुख स्वप्न में भी नहीं है जहाएँ श्रीरामजी प्रतिष्ठित नहीं है । - इति श्रीमन्महारामायणे उमामहेश्वर संवादे क्षराक्षरनिरक्षरातीतभेदो द्वैताद्वैत निर्णयो नाम पञ्चाशततमः सर्गः ॥ ५०॥

५१

सम्प्रवक्ष्यामि जानक्याः त्रयः त्रिंशत्शक्तयः । निकटे संस्थिता नित्यं सर्वाभरणभूषिताः ॥ १॥ श्रीर्भूलीला तथोत्कृष्टा कृपायोगोन्नती तथा । ज्ञानापर्वी तथा सत्या कथिता चाप्यनुग्रहा ॥ २॥ ईशाना चैव कीर्तिश्च विद्येला कान्तिलम्बिनी । चन्द्रिकापि तथाक्रूरा कान्ता वै भीषणी तथा ॥ ३॥ क्षान्ता च नन्दिनी शोका शान्ता च विमला तथा । शुभदा शोभना पुण्या कला चाप्यथ मालिनी ॥ ४॥ महोदयाह्लादिनीः च शक्तिरेकादशत्रिका । पश्यन्ति भृकुटीं तस्या जानक्या नित्यमेव च ॥ ५॥ शिवजी माता पार्वती से बोले कि श्रीजानकी जी की अंश जो ३३ शक्तियां हैं, उन्हें कहता हूँ सुनो, जानकीजी के समक्ष ये नित्य रहती हैं । श्री १, भू देवी २, लीला देवी ३, तथा उत्कृष्ट ४, कृपा ५, योगा ६, उन्नती ७, ज्ञाना ८, पर्वी ९, तथा सत्या १०, अनुग्रहा ११, ईशाना १२, कीर्ति १३, विद्या १४, इला १५ क्रान्ति १६, लम्बिनी १७, चन्द्रिका १८, तथा क्रूरा १९, कान्ता २०, भीषणी २१, क्षान्ता २२, नन्दिनी २३, शोका २४, शान्ता २५ और विमला २६, शुभदा २७, शोभना २८, पुण्या २९, कला ३०, और मालिनी ३१, महोदया ३२, आह्लादिनी ३३, यह तैन्तीस शक्तियाएँ श्रीजानकी जी की भुकुटी देखती रहती हैं और भृकुटि के दिखाने से सब कोई अपने अपने कार्य को करती हैं । श्रीश्च श्रीः प्रेरिका ज्ञेया भूरण्डाधार उच्यते । लीला बहुविधा लीला उत्कृष्टोत्कर्षप्रेरिका ॥ ६॥ कृपया शुभ कृपा सम्यग्योगायोगान्विता गतिः । उन्नती महती वृद्धिं ज्ञाना विज्ञानप्रेरिका ॥ ७॥ करोति प्रेरणं सम्यक् पर्वी जयपराजयौ । सत्यस्य प्रेरिका सत्यानुग्रहार्था दयागुणाः ॥ ८॥ ये च सर्वे जगन्मध्ये भेदा अपि सुदुस्तराः । ईशाना प्रेरिका तेषां वर्तते नात्र संशयः ॥ ९॥ यशोऽधिकारिणी कीर्तिर्विद्याविद्याधिकारिणी । सद्वाणी प्रेरिकेलास्यात्क्रान्ता क्रान्तिविवर्द्धिनी ॥ १०॥ यानि धामानि सर्वाणि श्रीरामस्याद्भुतानि च । गुणाश्चानन्तरूपाणि प्रेरिकेषां विलम्बिनी ॥ ११॥ शीतं प्रकाशयोस्सम्यक् प्रेरिका चन्द्रिकापि च । क्रूरत्वं प्रेरिका क्रूरा मनोवाक्कायकर्मभिः ॥ १२॥ प्रेरका चोभयोः कान्ता रागमोहौ शुभाशुभौ । प्रेरिका भीषणी तेषां ये च सर्वे भयादयः ॥ १३॥ वर्तन्ते प्रेरिका क्षान्ता क्षमा गुणविशेषतः । नन्दिनी च तथा शक्तिः सर्वानन्दप्रदायिनी ॥ १४॥ सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में श्री की प्रेरणा करनेवाली श्रीदेवी शक्ति हैं १। ब्रह्माण्ड की आधार भूदेवी शक्ति हैं २। सम्पूर्ण लीला की प्रेरक लीला देवी हैं ३। सब उत्कर्ष की प्रेरक उत्कृष्टा शक्ति हैं ४। सम्पूर्ण कृपा की प्रेरक कृपा शक्ति हैं ५। अष्टाङ्ग योगादि की प्रेरक योगाशक्ति हैं ६। सकल वृद्धि की प्रेरक उन्नति शक्ति हैं ७। ज्ञान विज्ञान वैराग्यादि की प्रेरक ज्ञाना शक्ति हैं ८। जय पराजय की प्रेरक पर्वी शक्ति हैं ९। सत्य की प्रेरक सत्या शक्ति हैं १०। दयादिक गुण की प्रेरक अनुग्रहा शक्ति हैं ११। सम्पूर्ण दुस्तर भेदों की प्रेरक ईशाना शक्ति हैं १२। सुयश की प्रेरक कीर्ति शक्ति हैं १३। सम्पूर्ण विद्या की प्रेरक विद्या शक्ति हैं १४। सद्वाणी की प्रेरक इला शक्ति हैं १५। सर्व क्रान्ति की प्रेरक कान्ता शक्ति है १६। और तीन लोक चौदहों भुवन और १०८ वैकुण्ठ हैं सो सब श्रीरामजी के धाम हैं और भगवान के असङ्ख्यगुण जो हैं और वे जितने रूप धारण करते हैं, अंश कला विभूति आवेशादि ये सभी विलम्बिनी शक्ति द्वारा प्रतिपादित किया जाता है १७। शीत प्रकाश की प्रेरक चन्द्रिका शक्ति हैं १८। क्रूरा हैं अक्रूर परन्तु सम्पूर्ण क्रूरता की प्रेरक हैं सो क्रूरा शक्ति हैं १९। सब राग मोह शुभाशुभ की प्रेरक कान्ता शक्ति हैं २०। सकल भय की प्रेरक भीषण शक्ति हैं २१। क्षमागुण की प्रेरक क्षमा शक्ति हैं २२। आनन्द की प्रेरक नन्दिनी शक्ति हैं २३। शोका स्वयं विशोका च लोकानां शोक प्रेरिका । शान्तिप्रदायिनी शान्ता विमला विमलान् गुणान् ॥ १५॥ शुभदा सद्गुणान् शोभां प्रेरयन्ति च शोभना । पुण्यापुण्यगुणोपेता कला बहुकलावती ॥ १६॥ मालिनी व्यापकान्सर्वान्प्रेरयेच्च महोदयान् । विभवं प्रकृतिर्भक्तिं विस्तारयति सर्वतः ॥ १७॥ आह्लादिनी महाऽऽह्लादं संवर्द्धयति सर्वदा । स्वे स्वे कार्य्ये रतास्सर्वाः त्रयः त्रिंशच्च शक्तयः ॥ १८॥ यस्मिन्काले भवेद्यासां सीतारामानुशासनम् । तस्मिन्काले प्रकुर्वन्ति सर्वं कार्य्यमशेषतः ॥ १९॥ एकैकानां सहस्राणि वर्त्तते चोपशक्तयः । व्यापकास्सर्वलोकेषु गगनमिव सर्वतः ॥ २०॥ शोका शक्ति हैं अशोक परन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भर में शोक की प्रेरणा करती हैं २४। शान्ति की प्रेरक शान्ता शक्ति हैं २५। विमलगुण की प्रेरक विमला शक्ति हैं २६। सद्गुण की प्रेरक शुभदा शक्ति हैं २७। सुन्दरता की प्रेरक शोभना शक्ति हैं २८। पुण्य की प्रेरक पुण्या शक्ति हैं २९। सकलगुण और ६४ कला की प्रेरक कलावती शक्ति हैं ३०ल् सर्वत्र व्यापकता की प्रेरक मालिनी शक्ति हैं ३१। और सम्पूर्ण विभव प्रकृति गुण के और भक्ति की प्रेरक भक्ति शक्ति हैं ३२। परम आह्लाद जो ब्रह्मानन्द है उसकी प्रेरक अह्लादिनी शक्ति हैं ३३ । ये सब शक्ति अपने-अपने कार्य में रत रहती हैं जिस काल में श्रीसीतारामजी की आज्ञा होती है उसी काल में सर्व शक्ति सर्व कार्य को विशेष पूर्वक करती हैं। इन सब शक्तियों की हजारों हज़ारों उपशक्ति अर्थात आज्ञा पालन करने वाली दासी हैं सो सर्वलोक में आकाश के समान व्याप्त हो रही हैं । - इति श्रीमन्महारामायणे उमा महेश्वर संवादे एक पञ्चाशत्तमः सर्गः ॥ ५१॥

५२

मुहुर्मुहुः त्वयाप्रोक्तं रामनाम परात्परम् । तदर्थम्ब्रूहि भोस्वामिन् कृत्वामपिदयांहृदि ॥ १॥ माता पार्वती शङ्करजी से बोलीं - हे स्वामी! आपने श्रीराम नाम को परात्पर अर्थात सकल ब्रह्म वाचक नामों से अति उत्कृष्ट बार-बार बताया इसलिए अपने हृदय में आप मुझ पर दया करके उस राम नाम के अर्थ को कहिए । त्वमेव जगताम्मध्ये धन्या धन्यतराप्रिये । पृष्टन्त्वया महत्तत्त्वं रामनामार्थमुत्तम् ॥ २॥ भगवान शङ्कर बोले - इस जगत के मध्य तुम धन्यातिधन्य हो पार्वती! क्योङ्कि तुमने महत तत्त्व (परम तत्त्व)श्रीराम नाम के अर्थ को मुझसे पूछा है । वेदाः सर्वे तथा शास्त्रामुनयश्च सुरर्षभाः । नाम्नः प्रभावमत्युग्रं तेऽभिजानन्ति सुव्रते ॥ ३॥ भगवान शिव बोले - हे सुव्रते पार्वती! श्रीराम नाम के अति उग्र प्रभा को ऋगादिक चारों वेद तथा छह दर्शनों के वेत्ता मननशील मुनि वृन्द सुर श्रेष्ठ बृहस्पति प्रभृति जानते हैं । राम एवाभि जानाति कृत्स्नं नामार्थमद्भुतम् । इषद्वदामिनामार्थं देवि तस्यानुकम्पया ॥ ४॥ भगवान शिव कहते हैं यद्यपि वेदादि शास्त्र राम नाम के ज्ञाता हैं लेकिन वे कार्य रूप होने से पूर्णरीत्या राम नाम के ज्ञाता नहीं हो सकते हैं क्योङ्कि राम नाम सबका कारण है अतएव हे देवि! इस राम नाम के अद्भुत महत्त्व को सम्यक रूप से श्रीराम ही जानते हैं और उनकी अनुकम्पा से अर्थात कृपा से कुछ मैं जानता हूएँ वही तुमसे कहता हूएँ उसे सुनो । कोटि कन्दर्प शोभाढ्ये सर्वाभरणभूषिते । रम्यरूपार्णवेरामे रमन्ति सनकादयः ॥ ५॥ भगवान शिव राम नाम की पहली निरुक्ति अर्थात अर्थ बताते हैं - करोड़ों कामदेवों की शोभा से युक्त सर्वाभरणभूषित रमणीय शोभा के सिन्धु श्रीराम में सनकादि महर्षि वृन्द रमण करते हैं । अतएव रमुक्रीड़ा रामनाम्नः प्रवर्तते । रमन्ति मुनयस्सर्वे नित्यं यस्याङ्घ्रि पङ्कजे ॥ ६॥ श्रीराम जी के चरण कमलों में सभी मुनि गण नित्य रमते रहते हैं इसलिए ही रमुक्रीड़ा धातु से राम नाम प्रवर्तित होता है । अनेक सखिभिः साकं रमते रासमण्डले । अतएव रमुक्रीड़ारामनाम्नः प्रवर्तते ॥ ७॥ अनेक सखियों के सहित रासमण्डल के मध्य श्रीरामजी रमण करते हैं इसलिए रमुक्रीड़ा धातु का आचार्यों ने राम नाम के व्युत्पत्ति हेतु निर्माण किया है । ब्रह्मज्ञाननिमग्नोपि जनको योगिनां वरः । हित्वा रमन्ति ते रामे रमुक्क्रीड़ातएव वै ॥ ८॥ निखिल योगी वृन्द में श्रेष्ठ श्रीमिथिलेश जनक जी ब्रह्म ध्यान में निमग्न होने पर भी उस ब्रह्मानन्द को छोड़कर श्रीरघुनाथ जी के परमानन्द में रम जाते हैं इसलिए ही रमुक्रीड़ा धातु की सार्थकता राम नाम से होती है । आबालतो विरक्तोऽयं यामदग्निर्हरिःस्मृतः ॥ स एव रमते रामे रमुक्रीड़ा ततोऽनघे ॥ ९॥ भगवान शिव कहते हैं कि हे अनघे! यामदग्नि पुत्र परशुरामजी वह बाल विरक्त होने पर भी राम रूप में निमग्न हो गए इस श्रीराम नाम के अर्थ से रमु क्रीड़ा धातु सार्थक होती है । सप्तदीपेषु ये सर्वे साधवोऽसाधवोऽपिवा ॥ विदेहकुल सम्भूता ये च सर्वे नृपोत्तमाः ॥ १०॥ रामरूपार्णवे भूत्वा रमितास्तैनिजानिजा । दत्तात्मजो रमुक्रीड़ा रामस्यैव इति श्रुतिः ॥ ११॥ शिव जी कहते हैं कि हे पार्वती! सातों द्वीप में जितने साधु तथा असाधु राजा थे और विदेह कुल में उत्पन्न जितने नृपोत्तम वीर थे वो सब श्रीराम जी की शोभा सिन्धु में निमग्न होकर आनन्दित होकर अपनी अपनी कन्या श्रीराम जी को अर्पण कर दिए इसलिए ही रमुक्रीड़ा धातु से श्रीराम की निष्पत्ति होती है ऐसी सनातनी श्रुति है । राक्षसी घोररूपा च दुष्टत्वां कर्त्तुमागता । साप्यासीद्रमिता रामे पतिवत्काममोहिता ॥ १२॥ घोर रूपा शूर्पणखा राक्षसी दुष्ट भाव की इच्छा से पञ्चवटी में आई और जब उसने श्रीराम रूप को देखा तो वह मोहित हो गई और श्रीराम जी के साथ पति भाव से रमण करना चाहा । चतुर्दश सहस्त्राश्च राक्षसा खरदूषणाः । मोहिता रामसद्रूपे रमुक्रीड़ातउच्यते ॥ १३॥ चौदह हज़ार राक्षसों के सहित खरदूषण भी श्रीरघुनाथ जी के सद्रूप को देखकर मोहित हो गए इसलिए ही राम नाम से उत्पन्न रमु क्रीड़ा धातु कही जाती है । नाना मुनि गणास्सर्वे दण्डकारण्यवासिनः । ज्ञानयोग तपोनिष्ठा जापका ध्यान तत्पराः ॥ १४॥ मुनि वेष धरं रामं नीलजी भूत सन्निभम् । रमन्तेयोषितो भूता रूपं दृष्ट्वा महर्षयः ॥ १५॥ दण्डकारण्य वासी नाना वेश विशिष्ट मुनि गण योग तप निष्ठ तथा जप ध्यान परायण होने पर भी जब सजल नील मेघ के समान मुनि भेष धारण किए हुए श्रीराम रूप को देखकर एकाएक मोहित होकर स्त्री भाव से श्रीराम जी में रमण करना चाहे । ईषद्धास कृतो रामोदृष्ट्वा तेषामिमागतिम् । युयन्धन्य तराज्ञाने संस्पर्शनहि साम्प्रति ॥ १६॥ उन मुनियों की ऐसी स्थिति देखकर रघुनाथजी कुछ हेँसकर बोले कि हे ऋषि गण! आप सब ज्ञानियों में श्रेष्ठ गिने जाते हैं और मैं भी अवतारों में मर्यादा पुरुषोत्तम गिना जाता हूएँ इसलिए इस काल में मेरा स्पर्श नहीं हो सकता है । मन्निदेशात्तपोयूयं चरध्वं भो महर्षयः । इप्सितास्ते भविष्यन्ति द्वापरे वर्त्तते युगे ॥ १७॥ श्रीराम जी बोले - हे महर्षियों! हमारी इच्छा से आप सब अभी तप करें द्वापर युग में इस अभिलाषा की पूर्ति होगी । रमिताराम मूर्त्तौ ते स्त्रियोरूपास्तपश्चरन् । अतो देवि रमुक्रीड़ा राम नाम्नैववर्त्तते ॥ १८॥ शिव जी बोले - हे देवी ! जिस राममूर्ति में तप करते हुए भी ऋषि लोग स्त्री रूप भाव से रमण करना चाहें इसी निमित्त से क्रीड़ार्थक रमु धातु राम नाम से निरूपित होता है । अजरा नरतनुं त्यक्त्वारामाल्लुब्धां विलोक्य सः । रामएव रमद्बाली रमुक्रीड़ात उच्यते ॥ १९॥ वीर बालि राम जी से अजर अमर शरीर होने का वरदान पाने पर भी शरीर की आशा छोड़कर रघुनाथजी के चरण कमल में ही रमण किया इस कारण से भी रमु क्रीड़ा धातु राम नाम से निष्पन्न होती है । रमिता राम सद्रूपे राक्षसा रावणादयः । राम इत्याहवे उक्त्वा राममेवाभि सङ्गता ॥ २०॥ रावण आदि राक्षस समूह रघुनाथजी के सद्रूप में रमण कर तथा समर में हे राम ! ऐसा सम्बोधन कर शरीर त्याग कर श्रीरामजी को प्राप्त हो गए । परे धाम्नि गते रामेऽयोध्यायां ये चराचराः । रामेऽपिरमिता भूत्वा तच्छाकमुपजग्मतुः ॥ २१॥ जब रघुनाथजी अपने परधाम को जाने की इच्छा किए उस समय श्रीअवधवासी तथा चराचर श्रीराम रूप में मग्न होकर उनके साथ गमन कर गए । रामनाम्नो विशेषेण रमुक्रीड़ां भवत्यतः । हेतुरन्यद्रमुक्रीड़ां श‍ृणुध्वं सावधानतः ॥ २२॥ इसी कारण विशेष रूप से राम नाम से रमु क्रीड़ा उत्पन्न होती है किन्तु मैं रमु क्रीड़ा के अपर हेतु को भी सुनाता हूएँ ध्यान से सुनो । वाच्य वाचक रामस्य कथितौ नाम रूपिणौ । राम नाम परं ब्रह्म रमितं यच्चराचरे ॥ २३॥ भगवान शिव कहते हैं कि श्रीराम पद में नाम और रूप की दृष्टि से वाचक वाच्य सम्बन्ध है अर्थात श्रीराम नाम लेने पर रघुनाथजी का रूप ही ध्यान में आता है। यह राम नाम ही वह परब्रह्म है जो चराचर में रमण कर रहा है । रमन्ते मुनयोयस्मिन् योगिनश्चोर्ध्वरेतसः । अतोदेवि रमुक्रीड़ा रामनाम्नैववर्त्तते ॥ २४॥ जिन श्रीराम में मुनि समूह तथा ऊर्ध्वरेता नैष्टिक ब्रह्मचारी रमण कर रहे हैं इसलिए ही श्रीराम नाम से रमु क्रीड़ा धातु निष्पन्न होती है । पोषणं भरणाधारं रामनाम्नाजगत्सु च । अतएव रमुक्रीड़ा परब्रह्माभिधीयते ॥ २५॥ समस्त जगत का आधार तथा भरण पोषण करने वाला यह श्रीराम नाम ही है इसलिए इस रमुक्रीड़ा धातु से परब्रह्म का अभिधान होता है । अंशांशैरामनाम्नश्च त्रयः सिद्धाभवन्तिहि । बीजमोङ्कार सोहं च सूत्रैरुक्तमितिश्रुतिः ॥ २६॥ श्रीराम नाम के अंश अर्थात रेफादि कला से ही बीज, ओङ्कार तथा सोहं यह तीन सिद्ध होते हैं। यह बात श्रुति (वेद)और सूत्र (पाणिनीय)में उक्त अर्थात प्रसिद्ध है । कथमेतद्विजानामि संसिद्धा रामनामतः । बीजमोङ्कारसोहं च स्वामिन् कथयतत्त्वतः ॥ २७॥ माता पार्वती शिव जी से बोलीं - यह मैं कैसे जानूएँ कि श्रीराम नाम से प्रणव और बीज तथा सोहं ये तीन सिद्ध होते हैं इसलिए हे स्वामिन्! मुझे तत्त्व रूप से बताइए । निश्चलं मानसं कृत्वा सावधानाच्छृणु प्रिये । गुह्याद्गुह्यतरं तत्त्वं वक्ष्येऽमृतमयं मुदा ॥ २८॥ भगवान शिव माता पार्वती जी से बोले - हे प्रिये! तुम अपने मन को स्थिर करके मेरी बात को सावधानपूर्वक सुनो। मैं बड़े हर्ष से तुमसे इस अमृत रूप गूढ़तम तत्त्व को कहता हूएँ । राम नाम महाविद्याषड्भिर्वस्तुभिरावृता । ब्रह्मजीव महानादैस्त्रिभिरन्यद्वदामिते ॥ २९॥ भगवान शिव बोले कि यह श्रीराम नाम रूपी महाविद्या छः वस्तुओं से आवृत है - ब्रह्म, जीव, महानाद और इसके अतिरिक्त अन्य वस्तु का भी मैं वर्णन करता हूएँ । स्वरेण विन्दुना चैव दिव्यया माययापि च । पृथक्त्वेन विभक्तेन साम्प्रतं श‍ृणुपार्वति ॥ ३०॥ पुनः तीन वस्तु स्वर, बिन्दु तथा दिव्य माया यह छह वस्तु श्रीराम नाम में है । हे पार्वती ! अब इन छः वस्तुओं के पृथक भेद मैं तुमसे कहता हूएँ तुम ध्यान से सुनो । परब्रह्म मयोरेफो जीवोऽकारश्च मस्य यः । रस्याकार मयोनादः रायादीर्घस्वरस्मृतः ॥ ३१॥ राम नाम में जो रेफ है वह परब्रह्ममय है (वाच्य-वाचक सम्बन्ध से)और मकार का जो अकार है वह जीव स्वरूप है और रकार के ह्रस्व अकार नाद स्वरूप है फिर दीर्घ अकार स्वर स्वरूप है । मकारं व्यञ्जनं बिन्दुर्हेतु प्रणवमाययोः । अर्द्धं भागादुकारस्यादकारान्नादभागिनः ॥ ३२॥ रकारं गुरुराकारस्तथा वर्णविपर्य्यः । मकारं व्यञ्जनं चैव प्रणवं चाभिधीयते ॥ ३३॥ मकार जो व्यञ्जन है वह बिन्दु स्वरूप है। प्रणव का हेतु माया अर्थात प्रणव दिव्य माया स्वरूप है। वर्ण विपर्यय सूत्र से रकार जो है वह अकार हो जाता है और जो राम का अकार है वह उकार हो जाता है और जो मकार है वह मकार ही रहकर प्रणव का अभिधान कर देता है । रामनाम्नः समुत्पन्नः प्रणवो मोक्षदायकः । रूपन्तत्त्वमसेश्चासौ वेदतत्त्वाधिकारिणः ॥ ३४॥ राम नाम से ही मोक्षदायक प्रणव समुत्पन्न हुआ है और वेद तत्त्व के अधिकारी लोग इसी राम नाम को तत्त्वमसि का रूप अर्थात कारण कहते हैं । अकारः प्रणवेसत्त्वमुकारश्च रजोगुणः । तमोहल मकारः स्यात्त्रयोऽहङ्कार उद्भवाः ॥ ३५॥ अब श्रीराम नामकार्थ प्रणव के तीनों वर्णों को त्रिगुणमय दिखाते हैं। प्रकृति का कार्य महत्तत्त्व त्रिविध अहङ्कार मय है वही प्रणव का प्रथम वर्ण अकार सत्त्वगुणमय है और द्वितीय वर्ण उकार रजोगुणमय है तथा तीसरा हल मकार जो है वह तमोगुणमय है। जैसे महत्तत्त्व से ही त्रिगुण उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार श्रीराम नाम से उद्भूत प्रणव के तीनों वर्ण त्रिगुणमय हैं । प्रिये भगवतो रूपे त्रिविधो जायतेऽपि च । विष्णुर्विधिर्हरश्चैव त्रयो गुण विधारिणः ॥ ३६॥ भगवान शिव बोले कि हे प्रिये! षडैश्वर्य सम्पन्न भगवान श्रीरामजी से त्रिविध रूप जायमान (प्रकट)होते हैं - ब्रह्मा जो रजोगुणमय हैं, विष्णु जो सत्त्वगुणमय हैं तथा शिवजी जो तमोगुणमय हैं । चराचर समुत्पन्नो गुणत्रय विभागतः । अतः प्रिये रमुक्रीड़ा रामनाम्नैव वर्तते ॥ ३७॥ चराचर जगत इन्हीं गुणत्रय (सत-रज-तम)इन्हीं के विभाग से सम्यक रूप से उत्पन्न होता है इसलिए रमु क्रीड़ा धातु राम नाम से ही निष्पन्न होती है । यथा च प्रणवोज्ञेयो बीजं तद्वर्ण सम्भवम् । सशब्देन हकारेण सोहमुक्तं तथैव च ॥ ३८॥ जैसे प्रणव राम नाम से सिद्ध होता है और राम वर्ण जन्य बीज सिद्ध होता है उसी प्रकार सकार और हकार सहित सोहं मन्त्र भी राम नाम से ही सिद्ध होता है । इत्यादयो महामन्त्रा वर्तन्ते सप्तकोटयः । आत्मा तेषां च सर्वेषां राम नाम प्रकाशकः ॥ ३९॥ प्रणवादि सात करोड़ महामन्त्र जो कहे गए हैं उन सबका आत्मा स्वरूप अर्थात प्रकाशक श्रीराम नाम ही है । नारायणादि नामानि कीर्तितानि बहून्यपि । सम्यग्भगवतस्तेषु रामनाम प्रकाशकः ॥ ४०॥ नारायणादि जितने भगवन्नाम हैं वे बहुत से शास्त्रों में गाए गए हैं किन्तु उन सम्पूर्ण नामों के सत्य प्रकाशक (परम स्त्रोत)श्रीराम नाम ही हैं । अतः प्रिये रमुक्रीड़ा तेषामर्थेप्रवर्तते । सनकादि फणीशादि रामनाम भजन्त्यतः ॥ ४१॥ भगवान शिव कहते हैं कि हे प्रिये! उन नारायणादि शब्दार्थ में रमु क्रीड़ा धातु का प्रवर्तन होता है इसलिए ही सनकादिक ऋषिगण और शेष प्रभृति महानुभाव इस राम नाम को भजते हैं । रामनाम्नोगुणैश्वर्यं सङ्क्षेपेन प्रभाषितम् । रूपमेतत् प्रतापं च रामनाम्नोवदामिते ॥ ४२॥ भगवान शङ्कर बोले कि श्रीराम नाम के गुण और ऐश्वर्य को मैने सङ्क्षेप में तुमसे कहा, अब मैं तुमसे श्रीराम नाम के रूप और प्रताप के विषय में कहता हूएँ । श‍ृणुष्व परमं गुह्यं यं न जानन्ति केपि च । केपि केपि विजानन्ति रामानुक्रोशतः प्रिये ॥ १३॥ भगवान शिव कहते हैं कि इस परम गोप्य तत्त्व को कोई नहीं जानता। केवल कोई-कोई ही इस परम गुह्य तत्त्व को श्रीराम जी के अनुग्रह से जानते हैं । तेजोरूपमयोरेफः श्रीरामाम्बक कञ्जयोः । कोटि सूर्य प्रकाशश्च परब्रह्म स उच्यते ॥ ४३॥ श्री रघुनाथ जी के नेत्र कमल का तेज रूप रेफ ही करोड़ों करोड़ों सूर्यों को प्रकाशित करता है इसलिए वह रेफ ही परब्रह्म कहाता है । सोऽपि सर्वेषु भूतेषु सहस्त्रारे प्रतिष्ठितः । सर्वसाक्षी जगद्व्यापी नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ॥ ४४॥ वह तेज सभी प्राणी मात्र के सहस्त्रार (सिर मध्य के अग्र भाग में सहस्त्रदल कमल)में प्रतिष्ठित है और सर्वसाक्षी तथा जगत में व्याप्त है उसी तेज का योगिजन नित्य ध्यान करते हैं । रामस्य मण्डलस्यैव तेजोरूपं वरानने । कोटिकन्दर्पशोभाढ्यो रेफाकारोहिविद्धि च ॥ ४५॥ भगवान शिव बोले कि हे वरानने! रघुनाथजी के मुखमण्डल का जो तेज रूप प्रकाश है वह करोड़ों कामदेवों की शोभा से युक्त है उसे तुम रेफ का ह्रस्व अकार जानो । अकारस्यतद्रूपं च वासुदेवः स कथ्यते । मध्याकारो महातेजः श्रीरामस्यैव वक्षसः ॥ ४६॥ और ह्रस्व अकार का वह रूप वासुदेव पद से कहा जाता है फिर श्रीरामजी के वक्षस्थल का जो महातेज है वह राम शब्द के मध्यवर्ती दीर्घ अकार को द्योतित करता है । सोऽप्याकारो महाविष्णोर्बलवीर्य्य स्वरूपकम् । सर्वेषामेवविश्वानामाधारत्वं च विद्धितम् ॥ ४७॥ वह अकार बल और वीर्य के स्वरूप महाविष्णु का वाचक है। यही अकार सम्पूर्ण जगत का आधार है । मस्याकारो भवेद्रूपं श्रीराम कटिजानुनी । सोप्याकारो महाशम्भुरुच्यते यो जगद्गुरुः ॥ ४८॥ और मकार में जो अकार है वह श्रीरामजी के कमर और घुटने का तेज है और यही अकार महाशम्भु कहलाते हैं जो जगद्गुरु हैं । इच्छाभूतं च रामस्य मकारव्यञ्जनञ्चयत् । तन्मूल प्रकृतिर्ज्ञेया महमायास्वरूपिणी ॥ ४९॥ श्रीराम नाम में जो व्यञ्जन मकार है वह रघुनाथजी की इच्छा का स्वरूप है और उसी को महमायास्वरूपिणी मूल प्रकृति जानना चाहिए । भाषितेयं रमुक्रीड़ा गुह्याद्गुह्यतरापरा । अन्यं प्रकारं वक्ष्ये च त्वत्तोऽहं चारुलोचने ॥ ५०॥ भगवान शङ्कर बोले - हे चारुलोचने ! यह गोप्य से गोप्यतर रमुक्रीड़ा धातु की व्याख्या मैने तुमसे की अब तुमसे राम नाम के अन्य प्रकार के अर्थों का वर्णन करता हूएँ । नारायणो रकारःस्यादकारोनिर्गुणात्मकः । मकारोभक्तिरूपः स्यान्महाह्लादाभिधायिनि ॥ ५१॥ राम शब्द में जो रकार है वह नारायण रूप का अभिधान करती है और मध्यवर्ती आकार निर्गुण ब्रह्मेक स्वरूप का द्योतन करता है और मकार महाह्लाददायिनी भक्ति का अभिधान करता है । विज्ञानस्थोरकारःस्यादकारोज्ञानरूपकः । मकारः परमाभक्ती रमुक्रीडोच्यते ततः ॥ ५२॥ राम नाम का जो रकार है वह राम जी के विशुद्ध विज्ञान स्वरूप है। अकार श्रीरामजी के ज्ञान का स्वरूप है। मकार राम जी परम भक्ति का स्वरूप है। इसलिए ही राम नाम से क्रीड़ार्थक रं धातु निष्पन्न होती है । चिद्वाचकोरकारः स्यात्सद्वाच्योऽकारउच्यते । मकारानन्दकंवाच्यं सच्चिदानन्दमव्ययम् ॥ ५३॥ श्रीराम नाम का रकार चिद्वाचक है और अकार जो है वह सद्वाचक है और मकार आनन्द वाचक है इसलिए श्रीराम नाम तीनों कालों में अबाधित रूप से सच्चिदानन्द ब्रह्म रूप है । रकारस्तत्पदोज्ञयस्त्वं पदोऽकारउच्यते । मकारोऽसि पदंज्ञेयं तत्त्वमसि सुलोचने ॥ ५४॥ भगवान शिव बोले कि हे सुलोचने! वेद में जो महावाक्य ``तत्त्वमसि'' है वह भी श्रीराम नाम के वर्णों से गतार्थ है। रकार से तत्पद का ज्ञान होता है। अकार से त्वं पद का ज्ञान होता है और मकार से असि पद का ज्ञान होता है । ब्रह्मेति तत्पदंविद्धि त्वम्पदोजीवनिर्मलः । ईश्वरोऽसिपदप्रोक्तस्ततोमाया प्रवर्तते ॥ ५५॥ तत्त्वमसि महावाक्य में जो तत्पद है वह ब्रह्म श्रीरामजी का वाचक है और त्वम्पद निर्मल जीव का बोधक है और फिर असि पद द्वारा ईश्वर का बोध होता है उसी ईश्वर से माया अर्थात प्रकृति का प्रवर्तन होता है । वेदसारं महावाक्यं तत्त्वमसितत्कथ्यते । रामनाम्नश्च तत्सर्वं रमुक्रीडाप्रवर्त्तते ॥ ५६॥ महावाक्य जो तत्त्वमसि है वह वेद का सार भाग कहलाता है और वह महावाक्य राम नाम में ही गतार्थ है इसलिए राम नाम से ही रमु क्रीड़ा धातु का प्रवर्तन होता है । अन्यम्प्रकारं त्वत्तोभक्त्या श‍ृणु वदाम्यहम् । सङ्क्षेपेनैव यद्भेदं क्षराक्षरनिरक्षरैः ॥ ५७॥ भगवान शिव बोले कि क्षर अक्षर निरक्षर द्वारा अन्य प्रकार के जो भेद हैं वह सङ्क्षेप में तुमसे मैं कहता हूएँ भक्ति पूर्वक तुम उसे सुनों । व्यञ्जनाच्चक्षरोत्पत्ती रकाराद्ब्रह्मचाक्षरः । रेफोनिरक्षरो ब्रह्म सर्वव्यापी निरञ्जनः ॥ ५८॥ व्यञ्जन वर्ण से अर्थात हल मकार से क्षर की उत्पत्ति होती है और अकार से अक्षर ब्रह्म प्रकाश करते हैं और रेफ से निरक्षर ब्रह्म जो सर्वव्यापी हैं और निरञ्जन हैं वे उत्पन्न होते हैं । क्षरोऽभिधीयते माया ब्रह्मात्मनातु चाक्षरः । परमात्मा परब्रह्म निरक्षर इतिस्मृतः ॥ ५९॥ क्षर पद से माया का अभिधान होता है और अक्षर पद से आत्मा ब्रह्म अर्थात अणुचेतन समूह का ज्ञान होता है और निरक्षर पद से परब्रह्म परमात्मा की निष्पत्ति होती है श । सकला व्यापिनोनित्यं क्षराक्षरनिरक्षराः । रामनाम्नो रमुक्रीडा प्रवीणेऽतः समुच्यते ॥ ६०॥ क्षर अक्षर निरक्षर अर्थात चित अचित और ईश्वर यही तीनों पद ब्रह्माण्ड में नित्य व्याप्त रहते हैं। भगवान शिव कहते हैं कि हे प्रवीणे! इसलिए ही राम नाम से रमु क्रीड़ा धातु कही जाती है । रामनामगुणास्त्वत्तो भाषितादेविसूक्ष्मतः । रामनाम प्रतापञ्च साम्प्रतं सूक्ष्मतः श‍ृणु ॥ ६१॥ भगवान शिव बोल कि हे देवी! तुमसे राम नाम के सूक्ष्म गुणों को मैंने कहा अब इस काल में श्रीराम नाम के प्रताप को सूक्ष्मता से मैं वर्णन करता हूएँ । रकारोऽनलवीजंस्याद्येसर्वे वडवादयः । कृत्वामनोमलंसर्वं भस्मकर्मं शुभाशुभम् ॥ ६२॥ वड़वाग्नि जठराग्नि आदि जितनी अग्नि जगत में हैं सबका कारण रेफ ही फिर अग्नि बीज जो रेफ है उसका जप मनोमल को जला कर शुभाशुभ कर्म को भी भस्मीभूत कर देता है । अकारोभानुबीजंस्याद्वेदशास्त्र प्रकाशकम् । नाशयत्येव सद्दीप्त्या याविद्या हृदये तमः ॥ ६३॥ वेद शास्त्र प्रकाशक भानु अर्थात सूर्य के बीज अकार हैं और वह अकार अपनी सत् दीप्ति के प्रकाश द्वारा जन मन के अविद्या रूप तमस का नाश करता है । मकारं चन्द्रबीजं च सदम्बुपरिपूरणम् । त्रितापं हरते नित्यं शीतलत्वं करोति च ॥ ६४॥ सदम्बु परिपूरित चन्द्र बीज मकार त्रिविध ताप अर्थात आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक ताप को दूर कर शीतल करता है अर्थात जीव के स्वरूप गत जो गुणाष्टक है उसको प्रकट करता है । रकारो हेतु वैराग्यं परमं यच्च कथ्यते । अकारो ज्ञानहेतुश्च मकारो भक्ति हेतुकः ॥ ६५॥ त्रिगुण सिद्धि पर्यन्त जो त्याग दे उसे पर वैराग्य कहते हैं उसका कारण श्रीराम शब्द गतार्थ जो रेफ है वह है और समस्त ज्ञान का हेतु अकार है और भक्ति का कारण मकार को जानना चाहिए । अतो देवि रमुक्रीडा रामनाम्नः समुच्यते । सम्यक् श‍ृणु प्रवीणेत्वं हेतुमन्यद्वदामिते ॥ ६६॥ इसलिए हे देवि! राम नाम से ही सम्यक रूप से रमु क्रीड़ा धातु कही गई है। हे प्रवीणे! अब सम्यक रूप से जो मैं अन्य हेतु कहता हूएँ वह सुनो । वेदे व्याकरणे चैव ये वर्णस्वरास्मृताः । रामनाम्नैव ते जाताः सर्वे वै नात्र शंसयः ॥ ६७॥ भगवान शिव अपर हेतु बताते हैं कि समस्त वेद तथा व्याकरण में हकारादिक व्यञ्जन वर्ण और अकारादिक स्वर समुदाय जो कहा है वे सभी श्रीराम नाम से ही जायमान (प्रकट)हैं इसमें कोई संशय नहीं है । रकारो मूर्ध्नि सञ्चारस्त्रिकूट्याकार उच्यते । मकारोऽधरयोर्मध्ये लोमे लोमे प्रतिष्ठितः ॥ ६८॥ रकार जो है वह मूर्धा में सञ्चार करता है और अकार त्रिकुटि सञ्चारक कहा गया है फिर मकार दोनों ओष्ठ के मध्य सञ्चारक कहा गया है इसलिए यह वर्णत्रय समुदाय रोम रोम में प्रतिष्ठित हैं । रकारोयोगिनान्ध्येयो गच्छन्ति परमं पदम् । अकारो ज्ञानिनां ध्येयस्ते सर्वे मोक्षरूपिणः ॥ ६९॥ श्रीराम शब्द गत जो रेफ है वह योगियों का ध्येय अर्थात ध्यान का लक्ष्य है जिस लक्ष्य में मन को एकाग्र कर के परम पद अर्थात श्रीसाकेत धाम को योगिजन जाते हैं और आकार ध्येय ज्ञानियों का है जिस ध्येय के प्रभाव से वे सभी ज्ञानी मोक्ष स्वरूप होते हैं अर्थात जीवन मुक्त कहलाते हैं । पूर्ण नाम मुदा दासा ध्यायन्त्यचल मानसा । प्राप्नुवन्ति पराम्भक्ति श्रीरामस्य समीपताम् ॥ दास्य रस निष्ठ महात्मा वृन्द आनन्द के सहित अचल मन से पूर्ण राम नाम का ध्यान करते हैं इसलिए उन दास्य भाव निष्ठों को श्रीराम जी की सामीप्य पराभक्ति प्राप्त होती है । अन्तर्जपन्ति ये नाम जीवन्मुक्ता भवन्तिते । तेषां न जायते भक्तिर्न च राम समीपकः ॥ ७१॥ वैखरी परा पश्यन्ती आदि किसी वाणी का अवलम्ब न लेकर अन्तर निष्ठ होकर जो नाम जपते हैं सो जीवन मुक्ति को प्राप्त होते हैं किन्तु उनको रामसमीपकारिणी भक्ति नहीं मिलती है । जिह्वयाप्यन्तरेणैव रामनाम जपन्ति ये । तेषां चैव पराभक्तिर्नित्यं राम समीपका ॥ ७२॥ अन्तः करण और जिह्वा दोनों से जो राम नाम का जाप करते हैं उन्हें श्रीराम जी की सामीप्यकारिणी नित्यपराभक्ति प्राप्त होती है । योगिनो ज्ञानिनो भक्ताः सुकर्म निरताश्च ये । रामनाम्नि रताः सर्वे रमुक्रीडात एव वै ॥ ७३॥ योगी, ज्ञानी, भक्त और कर्मकाण्ड में जो निरत हैं ये चारों प्रकार के साधक श्रीराम नाम में रत रहते हैं इसलिए रमु क्रीड़ा धातु राम नाम से निष्पन्न है । श‍ृणुष्व मुख्य नामानि वक्ष्ये भगवतः प्रिये । विष्णुर्नारायणः कृष्णो वासुदेवो हरिः स्मृतः ॥ ७४॥ भगवान शिव बोले - हे प्रिये ! भगवान के जो कुछ मुख्य नाम हैं वे हैं विष्णु नारायण कृष्ण वासुदेव और हरि । ब्रह्मविश्वम्भरोऽनन्तो विश्वरूपः कलानिधिः । कल्मषघ्नो दयामूर्तिः सर्वगः सर्वसेवितः ॥ ७५॥ ब्रह्म, विश्वम्भर, अनन्त, विश्वरूप, कलानिधि, कल्मषघ्न, दयामूर्ति, सर्वग और सर्वसेवित इत्यादि भगवान के मुख्य नाम हैं । परमेश्वर नामानि सन्त्यनेकानि पार्वति । एकादेकं महास्वच्छ मुच्चाराणान्मोक्षदायकम् ॥ ७६॥ भगवान शिव कहते हैं कि हे पार्वती ! परमेश्वर पद वाच्य रघुनाथजी के गुण को दर्शाने वाले अनेकों नाम हैं अर्थात असङ्ख्य नाम हैं और सभी एक से एक, परम निर्मल और उच्चारण करने पर मोक्ष को प्रदान करने वाले हैं । नाम्नामेव च सर्वेषां रामनाम प्रकाशकः । ग्रहाणां च यथा भानुर्नक्षत्रानां यथाशशी ॥ ७७॥ नारायण कृष्णादिक निखिल नाम समूहों के परम प्रकाशक श्रीराम नाम उसी प्रकार हैं जैसे मङ्गलादिक ग्रहों के प्रकाशक सूर्य भगवान हैं और जैसे नक्षत्रों के प्रकाशक चन्द्रमा हैं । निर्जराणां यथा शक्रो नराणां भूपतिर्यथा । यथा लोकेषु गोलोकः सरयूनिम्नगासु च ॥ ७८॥ भगवान शिव जी राम नाम को सभी नामों से अधिक अनेक उपमाओं द्वारा दिखाते हैं। जैसे सभी देवों में इन्द्र हैं और नरों के मध्य में चक्रवर्ती हैं और अखिल लोकों के मध्य गोलोकस्थ साकेत है और जैसे नदियों के मध्य श्रीसरयू जी हैं । कवीनां च यथानन्तो भक्तानामञ्जनीसुतः । शक्तीनां यथा सीता रामोभगवतामपि ॥ ७९॥ श्री राम नाम सभी नामों में कैसे श्रेष्ठ है? जैसे सभी कवियों में भगवान शेष हैं और भक्तों में श्रीहनुमानजी श्रेष्ठ हैं, शक्तियों में जैसे श्रीजनक किशोरीजी श्रेष्ठ हैं और सभी अवतारों के मध्य जैसे श्रीराम श्रेष्ठ हैं । भूधराणां यथा मेरुः सरसां सागरो यथा । कामधेनुर्गवाम्मध्ये धन्विनां मन्मथो यथा ॥ ८०॥ जैसे पर्वतों के मध्य सुमेरू पर्वत श्रेष्ठ है और सरों के मध्य में सागर श्रेष्ठ है और गायों के मध्य कामधेनु श्रेष्ठ है, और धनुष धारियों के मध्य जैसे कामदेव श्रेष्ठ है उसी प्रकार सभी भगवन्नामों के मध्य श्रीरामनाम श्रेष्ठ है । पक्षिणां वैनतेयश्च तीर्थानां पुष्करो यथा । अहिंसा सर्व धर्मानां साधुत्वेऽपि दया यथा ॥ ८१॥ पक्षियों के मध्य जैसे वैनतेय गरुड़जी श्रेष्ठ हैं और तीर्थों के मध्य जैसे पुष्करराज श्रेष्ठ हैं और सब धर्मों के मध्य जैसे अहिंसा श्रेष्ठ है और साधुता के लक्षण में सबसे श्रेष्ठ जैसे दया है । मेदनी क्षमिनां मध्ये मणीनां कौस्तुभो यथा । धनुषां वै यथा शार्ङ्गः खड्गानां नन्दको यथा ॥ ८२॥ क्षमा करने में जैसे भूमि श्रेष्ठ और मणियों में जैसे कौस्तुभ मणि श्रेष्ठ है, धनुषों में जैसे शारङ्ग धनुष श्रेष्ठ है और खड्गों में जैसे नन्दक तलवार श्रेष्ठ है उसी प्रकार सब नामों में श्री राम नाम श्रेष्ठ है । ज्ञानानां ब्रह्मज्ञानञ्च भक्तीनां प्रेमलक्षणा । प्रणवः सर्वमन्त्राणां रुद्रानामहमेव च ॥ ८३॥ समस्त ज्ञानों में ब्रह्मज्ञान श्रेष्ठ है और भक्ति में जैसे प्रेमाभक्ति श्रेष्ठ है, मन्त्र समूह में जैसे प्रणव श्रेष्ठ है और जैसे सभी रुद्रों में मैं श्रेष्ठ हूएँ वैसे ही श्रीराम नाम सभी नामों में श्रेष्ठ है । कल्पद्रुमश्च वृक्षाणां यथा योध्यापुरीषु च । कर्मणां भगवत्कर्म अकारश्च स्वरेष्वपि ॥ ८४॥ जैसे सभी वृक्षों में कल्प वृक्ष श्रेष्ठ है और पुरियों के मध्य जैसे अयोध्या श्रेष्ठ है उसी प्रकार सभी कर्मों में भगवत्सम्बन्धी कर्म श्रेष्ठ हैं और सभी स्वर संज्ञक वर्णों में जैसे अकार श्रेष्ठ है उसी प्रकार सभी नामों में श्रेष्ठ श्रीराम नाम है । किमत्र बहुनोक्तेन सम्यग्भगवतः प्रिये । नाम्नामेव च सर्वेषां रामनाम परम्महत् ॥ ८५॥ भगवान शिव जी बोले - हे प्रिये! यहाएँ पर बहुत कहने से क्या श? तुम यह अच्छी प्रकार जान लो कि सभी भगवान के नामों में परम श्रेष्ठ यह श्रीराम नाम ही है । शब्दानां चैव सर्वेषां रामशब्दः परोमहान् । इदं त्वया कथं प्रोक्तं मे तदर्थ वद प्रभो ॥ ८६॥ माता पार्वती बोलीं कि हे प्रभो! सम्पूर्ण शब्दों में श्रीराम शब्द ही परम श्रेष्ठ है यह आप कैसे कहे इसलिए आप बाकी नामों के अर्थ को भी मुझसे कहिए ताकि मैं श्री राम नाम को पर जान सकूएँ नाम्नामर्थमहन्देवि सङ्क्षेपन वदामिते । शब्दा भगवतोऽनेका गुणार्था कोटिकोटयः ॥ ८७॥ भगवान शिव बोले कि हे देवि! अपर नामों के अर्थ को मैं सङ्क्षेप से कहता हूं तुम उसको सुनो। रघुनाथजी के जो करोड़ों करोड़ों नाम हैं वे सब गुणों के विधायक हैं । नारास्वप्सु गृहं यस्य तेन नारायणः स्मृतः । जीवनाराश्रयोयोऽस्ति तेन नारायणोऽपि च ॥ ८८॥ अब भगवान शिव रघुनाथ जी के गुण दर्शक नारायण नाम का अर्थ कहते हैं कि नर पद वाच्य सनातन द्विभुज परमात्मा जो है उससे नार अर्थात जल की उत्पत्ति होती है उसी जल में जिसका अयन है उसी को नारायण कहते हैं अर्थात नार रूपी जीव समूह के जो आश्रय हैं वे ही नारायण पद वाच्य हैं । सर्वे वसन्ति वैयस्मिन्सर्वस्मिन् वसतेऽपिवा । तमाहुर्वासुदेवञ्च योगिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ८९॥ वासुदेव शब्द का अर्थ यह है कि जिसमें सम्पूर्ण विश्व निवास करे अथवा सम्पूर्ण विश्व में जो वास करे उसको तत्त्वदर्शी योगी जन वासुदेव शब्द वाच्य तत्त्व बताते हैं । व्यापकोऽपिहियोनित्यं सर्वस्मिञ्च चराचरे । विष प्रवेशने धातोर्विष्णुरित्यभिधीयते ॥ ९०॥ जो सम्पूर्ण चराचर अर्थात जड़ चेतनात्मक संसार में नित्य ही व्यापक हो उसे विष्णु कहते हैं। इसलिए जो सर्व जगत में प्रविष्ट हो उसके लिए ही विष प्रवेशने धातु से विष्णु शब्द का अभिधान होता है । कृषिर्भूवाचकश्चैवणश्च निर्वृति वाचकः । तयोरैकां महाविद्ये कृष्णइत्यभिधीयते ॥ ९१॥ हे महाविद्ये ! कृष्ण शब्द में कृष पद भूवाचक अर्थात सत्ता वाचक है और ण यह पद आनन्द वाचक है यह दोनों पद मिलने से कृष्ण शब्द निष्पन्न होता है और सत्ता सम्पादक यह बोध होता है । कथ्यते सहरिर्नित्यं भक्तनाङ्क्लेश नाशनः । भरणं पोषणं चैव विश्वम्भर इति स्मृतः ॥ ९२॥ जो भक्तों के क्लेश का नाश कर देते हैं उन्हें ही हरि कहा जाता है और जो समस्त विश्व का भरण पोषण करते हैं उन्हें विश्वम्भर कहा जाता है । वायुवद्गगनेपूर्णे जगतांहि प्रवर्त्तते । सर्वं पूर्णं निराकारं निर्गुणं ब्रह्म उच्यते ॥ ९३॥ जो आकाशवत रूप से गगन में अखण्ड रूप से प्रवर्तित होकर भी पूर्ण और निराकार है उसी को निर्गुण ब्रह्म कहते हैं । यस्यानन्तानि रूपाणि यस्य चान्तं न विद्यते । श्रुतयो यं न जानन्ति सोप्यनन्तोऽभिधीयते ॥ ९४॥ जिसके रूप गुण अनन्त हों और जिसे श्रुति भी साङ्गोपाङ्ग न जान सके उसे अनन्त कहा जाता है । यो विराटस्तनुर्नित्यं विश्वरूपमथोच्यते । कलावैधिष्ठिता सर्वा यस्मिन्निति कलानिधिः ॥ ९५॥ यह सम्पूर्ण विराट जगत नित्य रूप से जिनका शरीर है उन्हें विश्वरूप कहते हैं और सम्पूर्ण कलाओं के जो स्वामी हैं उन्हें ही कलानिधि कहते हैं । सर्वाणि चैव नामानि मयाप्रोक्तानि यानि च । सच्चिदानन्दरूपानि नामान्येतानि सर्वसः ॥ ९६॥ भगवान शिव बोले कि हे गिरिजे! ये जितने नाम मैंने तुमसे वर्णन किए हैं वे सभी सच्चिदानन्द स्वरूप हैं । परन्तु नाम भेदाञ्च सङ्क्षेपे न वदामिते । सच्चिदानन्दरूपैश्च त्रिभिरेभिः पृथक् पृथक् ॥ ९७॥ परन्तु सत चित आनन्द यह तीनों भागों को पृथक-पृथक कहकर सङ्क्षेप में वर्णन करता हूएँ । वर्त्तते राम नामेदं पूर्णन्तत्त्व त्रयात्मकम् । नामान्येतान्यनेकानि मयोक्तानि च पार्वति ॥ ९८॥ भगवान शिव कहते हैं कि हे पार्वती! राम नाम सदा ही सत, चित और आनन्द इन तीनों तत्त्वों से परिपूर्ण रहता है और राम नाम से भिन्न भगवद्वाचक अनेकों नाम जो मैंने तुमसे वर्णन किया है उनका भेद सुनो । कस्मिञ्चिन्मुख्य आनन्दः सत्यञ्च गौणमुच्यते । कस्मिञ्चित्सन्मुख्यं च गौणं चानन्दमुच्यते ॥ ९९॥ श्रीराम नाम से अलग जो अन्य नाम हैं उनमें किसी नाम में आनन्द मुख्य है तो सत्य गौण है और किसी में सत्य मुख्य है तो आनन्द गौण है । नामभेदं वदाम्यन्यं प्रवीणे श‍ृणु भक्तितः । अन्यानि यानि सर्वाणि नामानि साक्षराणि च ॥ १००॥ भगवान शङ्कर बोले कि हे प्रवीणे! अन्य नामों का श्रीराम नाम से एक और भेद मैं तुम्हें बताता हूं उसे भक्तिपूर्वक सुनो। श्रीराम नाम से भिन्न जितने भी अन्य नाम हैं वे सभी साक्षर अर्थात वर्णात्मक हैं । निर्वर्णं रामनामेदं केवलं च स्वराधिपम् । मुकुटः क्षत्रं सर्वेषां मकारो रेफ व्यञ्जनम् ॥ १०१॥ यह जो श्री राम नाम है यह निर्वर्ण है अर्थात वर्णात्मक न होकर स्फोटात्मक है और स्वर तथा व्यञ्जन दोनों वर्ण समूहों का एक मात्र स्वामी है। श्रीराम नाम में जो व्यञ्जन हल मकार अनुस्वार रूप होकर सम्पूर्ण अक्षरों के शिरो भाग में मुकुट के समान विराजता है और रेफ (धर्म आदि शब्द में)छत्र के तुल्य प्रतिष्ठित है । रामनाममया सर्वे नामवर्णा प्रकीर्तिता । अतएव रमुक्रीडा नाम्नामीशः प्रवर्तते ॥ १०२॥ जितने भी नाम हैं उनके जो वर्ण हैं वे सभी रामनाममय हैं अर्थात् राम शब्द जन्य हैं इसलिए रमु क्रीड़ा धातु को निष्पन्न करने वाला श्रीराम नाम सभी भगवन्नामों का स्वामी है । कोटि तीर्थानि दानानि कोटि योग व्रतानि च । कोटि यज्ञ जपाश्चैव तपसः कोटि कोटयः ॥ १०३॥ कोटि ज्ञानैश्च विज्ञानं कोटि ध्यान समाधिभिः । सत्यं वदामि तैस्तुल्यं रामनाम प्रवर्त्तते ॥ १०४॥ तीर्थ, दान, योग, व्रत, यज्ञ, जप, तप और कोटिज्ञान विज्ञान तथा कोटि-कोटि ध्यान समाधि के तुल्य श्रीराम नाम है अर्थात श्रीराम नाम के जप से इन सबका फल मिल जाता है पार्वती! मैं सत्य सत्य कहता हूएँ । परावाण्या भजेन्नित्यं राम नाम परात्परम् । त्यक्त्वामोहं च मात्सर्यं वाक्यं चैवानतन्तथा ॥ १०५॥ मोह मत्सर असत भाषण को त्याग कर वाणी से परात्पर श्रीराम नाम को भजना चाहिए । हृन्मलं क्रोधकामादि लोभमज्ञानमेव च । रागद्वेषं च दुस्सङ्गं त्यक्त्वा दुर्वासनामपि ॥ १०६॥ सर्वेन्द्रिय जितो भूत्वा पूतो बाह्यान्तरस्तथा । इत्थं नाम जपेन्नित्यं रामरूपो भवेन्नरः ॥ १०७॥ हृदय के मल काम क्रोध लोभ और अज्ञान राग द्वेष और दुस्सङ्ग तथा दुर्वासना को भी त्याग कर सभी इन्द्रियों को जीत कर भीतर बाहर से शुद्ध होकर इस प्रकार जो नित्य राम नाम को जपते हैं वे श्रीराम रूप हो जाते हैं अर्थात सारूप्य मोक्ष को प्राप्त करते हैं । रहः पठतियो नित्यमेतत्कमललोचने । सर्व ध्यान फलं तस्य कलां नार्हतिषोडशीम् ॥ १०८॥ भगवान शिव बोले कि हे कमललोचने! जो पुरुष नित्य ही एकान्त चित्त होकर इसका पाठ करेङ्गे उस पुरुष के सम्पूर्ण ध्यानादि साधन का फल इसकी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकता है । शठाय पर शिष्याय विषयाढ्याय मानिने । नदातव्यं नदातव्यं श्रीरामोपासकं विना ॥ १०९॥ भगवान शिव बोले कि श्रीरामोपासकों को छोड़ कर पर शिष्य अथवा शठ विषयी अभिमानियों को नहीं देना चाहिए नहीं देना चाहिए । यदि दातव्यमन्येषां सद्योमृत्युः प्रजायते । महतामेव च सर्वेषां जीवनं प्रोच्यतेऽप्यतः ॥ ११०॥ भगवान शिव कहते हैं कि यह रहस्य सभी महानुभावों का जीवन धन है इसलिए अनधिकारी को इसे देने से सीधे मृत्यु हो जाती है और अधिकारी को देने से अमृत के सदृश लाभ मिलता है । - इति श्रीमन्महारामायणे उमाहेश्वर संवादे श्रीरामनाम्नोमहत्त्व कथन नाम द्विपञ्चाशत् सर्गः ॥ ५२॥ ॥ श्रीसीतारामाभ्यामर्पणमस्तु ॥ इसमे राम के चरणचिह्न, रामभक्त की प्राप्ति के उपाय, रामभक्तों के लक्षण, धनृषबाण धारण की विधि, परात्परतम ब्रह्मराम, एकमात्र सखीभाव से उपासना की सभावता, सीता की आह्लादिनी इत्यादि तेतीस शक्तियाँ तथा उनमें से प्रत्येक की एक-एक सहस्र उपशक्तियाँ बणित हैं। इसमे भी राम की रासलीला का वर्णन है । हिन्दुत्व मे महारामायण की निन्नानवे रासलीलाओं की चर्चा है । In this text of five chapters, the footprints of Rama, measures to attain Rama devotion, characteristics of Rama devotees, the method of holding a bow, the Supreme Lord Brahma, the gathering of worship with the only friend, the joy of Sita, etc. It also describes Rama's Raslila. In the book ᳚Hindutva᳚ by Ramdas Gaur, there is a discussion of nineteen rasalilas of Maharamayana (archive.org/details/in.gov.ignca.19051/page/n149/mode/1up.) Only five chapters given here are available till today, according to a book ᳚Ram Bhakti Shakha page no. 468᳚ archive.org/details/in.ernet.dli.2015.480197/page/n485/mode/1up this complete scripture has around 350,000 shlokas. And it's manuscripts is available at 'Kashmir Rajkiye Pustakalaya' and at Royal House of Kullu. Encoded and proofread by Mrityunjay Rajkumar Pandey
% Text title            : Five Chapters from Maharamayana
% File name             : mahArAmAyaNapanchasargAH.itx
% itxtitle              : mahArAmAyaNe panchasargAH
% engtitle              : mahArAmAyaNe panchasargAH
% Category              : raama
% Location              : doc_raama
% Sublocation           : raama
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Mrityunjay Rajkumar Pandey
% Indexextra            : (References 1, 2)
% Latest update         : June 9, 2024
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% Site access           : https://sanskritdocuments.org

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