आदित्यहर्षणस्तोत्रं सार्थम्
वैष्णवानां हरिस्त्वं शिवस्त्वं स्वयं
शक्तिरूपस्त्वमेवानयस्त्वं नतेः ।
त्वं गणाधिकृतस्त्वं सुरेशाधिप-
स्त्वं मरुत्वान्रविस्त्वं सदा स्तोचताम् ॥ १॥
त्वं सदा लोककल्याणकृन्मण्डलः
तप्यमानो जगद्भूतिसिद्ध्यै नभे ।
राति रात्र्यै निविष्टाभमग्निं तथा
द्वादशात्मन् सदाऽऽनन्दमग्नो भव ॥ २॥
जान्ममात्रेण चासक्तिग्रस्तो वयं
शाम्बरीबन्धने विस्मृताश्चार्थिनः ।
भक्तिभावेन हीनाय जोषालयोऽ-
र्कादितेयोष्णरश्मे प्रसन्नो मयि ॥ ३॥
अकृतार्थाय ब्रह्माण्डसाद्धस्तथा
तायको विष्णुरूपेण कल्पान्तरे ।
यो महाऽन्ते शिवश्चण्डनीलो नटो
दक्षजाऽङ्गप्रभस्त्वं सदा रोचताम् ॥ ४॥
ब्राह्मणो बाहुजोऽन्याश्च वर्णाश्रमा
ब्रह्मचर्याद्यतित्वो हृषीके ध्रुवः ।
धर्मकामादिरूपेण चावस्थितः
प्राणतत्वो महेन्द्रः प्रसन्नोऽवतु ॥ ५॥
अस्मदाचार्यप्रोक्तं प्रमाणं परं
याचकाः पादपद्मानुकम्प्यास्तव ।
स्वस्य जन्मान्तराच्चक्रमुक्तास्तदाऽ-
नर्हजीवस्तु ऋच्छामि धामं कथम् ॥ ६॥
शौचमाचारमस्मत् प्रमुक्ताः कृताः
स्वात्मधर्माद्विमुक्तास्तु पापे रताः ।
केवलं कुक्षिपूर्तेर्वयं याजका
हेऽधमोद्धारणस्तृप्यतात्तापनः ॥ ७॥
पूजितो दस्रतातान्ववायैस्तथा
ऋग्यजुर्वेदसामं चतुर्थों यथा ।
आगमाः पञ्चकालैर्क्रमे वेदक-
स्त्वं विहङ्गः सदाऽऽनन्दितोऽस्मासु हि ॥ ८॥
सप्तलोकार्णवाश्चान्तरीपाः स्वरा
योगिनो रश्मयः सप्तधाऽऽरोपितः ।
औषधेश्छन्दभावेऽन्नगोमारुतैः
पालकादित्य संज्ञापते रोचताम् ॥ ९॥
कौशलेन्द्रकृतस्योष्णरश्म्यर्पित-
-स्याग्रतः सूर्यवर्णस्य उत्कूजकः ।
हर्षितो वाद्ययन्त्रादिभिर्भूषितोऽ-
न्तत्यहार्यां गतिं सूर्यतत्वां पराम् ॥ १०॥
॥ इत्याचार्यश्रीकौशलेन्द्रकृष्णशर्मणा
विरचितमादित्यहर्षणं सम्पूर्णम् ॥
हिन्दी अर्थ -
वैष्णवों के आप ही हरि हैं, आप ही शिव हैं तथा आप ही शक्तिस्वरूप हैं । आप ही समस्त नमस्कारों के परम भाग्य (गन्तव्य) हैं । जो गणेश भी हैं, तथा देवाओं के अधिपति के भी अधिपति हैं । जो इन्द्र भी हैं, वे रवि सदा (हमपर) प्रसन्न हों ॥ १॥
आप लोककल्याण करने हेतु तत्पर स्वरूप वाले नित्य ही संसार की कीर्ति हेतु जलते ही रहते हैं । उससे अर्जित आभा को आप रात्रिकाल में अग्नि को दे देते हैं । हे बारह स्वरूपों वाले! आप सदा आनन्दित रहें ॥ २॥
जन्म लेने मात्र से हम सब आसक्तिग्रस्त हुए जीव माया के बन्धन में (आपको) भूले हुए सेवक हैं । (तथापि) आप भक्तिभाव से हीन हेतु भी आनन्द के सागर! अदितिनन्दन! तीव्र रश्मियों वाले! सूर्य! मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३॥
कल्पान्तर के बाद अकृतार्थ हेतु ब्रह्माण्ड को सिद्ध करने वाले (ब्रह्मा) तथा विष्णुरूप में उनके पालन करने वाले । जो महाप्रलय काल में चण्डनील शिव होकर नृत्य करने वाले हैं, वे दक्षपुत्री अदिति के पुत्र कृपा करें ॥ ४॥
ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा अन्य वर्णाश्रम ब्रह्मचर्य से संन्यासपर्यन्त, इन्द्रियों की एकस्थता तथा धर्म, कामादि (पुरुषार्थों) के रूप में अवस्थित रहने वाले सर्वप्राण स्वरूप महेन्द्र! आप प्रसन्न हों ॥ ५॥
हे विभु! हमारे आचार्यों के द्वारा जैसे कहा गया हे कि जो आपके चरणकमल के याचक तथा करुणा प्राप्ति के योग्य हैं, वे अपने जन्मान्तर के चक्र से मुक्त हो जाते हैं । तब मैं अयोग्य जीव आपके धाम तक कैसे पहुञ्चूँ?॥ ६॥
हम हमारे शौच तथा आचार को त्यागे हुए, स्वधर्म से विमुख तथा पाप में रत हैं । केवल कुक्षि पूर्ति के लिये ही हम कर्म करते हैं । हे अधमों का उद्धार करने वाले! हे तापन! आप हमसे सन्तुष्ट होइये ॥ ७॥
हे दस्र (अश्विनीकुमार) के पिता! आप सदा ही वैवस्वतों (अपनी सन्तानों) से पूजित हैं । जो पाञ्च कालों के द्वारा ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद तथा आगमों के क्रम में विद्यमान रहने वाले हैं, वे खग के समान आकाशाचारी हमपर सदा ही आनन्दित रहें ॥ ८॥
जो सप्तलोक, समुद्र, द्वीप, स्वर, ऋषि, रश्मि के रूप में आरोपित हैं । जो सप्तौषधि, सप्तछन्द के भाव से विद्यमान हैं तथा जो अन्न, जल, वायु के द्वारा सबका पालन करने वाले हैं, वे संज्ञापति आदित्य कृपा करें ॥ ९॥
कौशलेन्द्रकृष्णशर्मा द्वारा रचित तथा उष्णरश्मि सूर्य हेतु अर्पित इस स्तोत्र को जो भी श्री सूर्यनारायण के सम्मुख आनन्दित होकर वाद्ययन्त्रों सहित मधुर गाता है, उसे अहार्य तथा परम सूर्यतत्वयुक्त गति प्राप्त होती है ॥ १०॥
इस प्रकार आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी के द्वारा लिखा आदित्यहर्षणस्तोत्र (सूर्यहर्षण) पूर्ण हुआ ।