श्रीमानसाष्टकस्तोत्रम्
प्राणिमात्रमनोव्याधि दृश्यते वसुधातले ।
आश्चर्यं परमाश्चर्यं प्रभोर्लीला च वर्तते ॥ १॥
प्राणिमात्र की मानसिक व्यथा इस जगत् में अधिकांश दृष्टिगोचर हो रही है । वस्तुतः यह आश्चर्य से अधिकतम आश्चर्य है और इसे जगन्नियन्ता श्रीसर्वेश्वर भगवान् की अचिन्त्य माया ही समझनी चाहिए ॥ १॥
अतीव चञ्चलं लोके मनो भ्रमति नित्यदा ।
तन्निरोधस्तु कर्तव्यः शास्त्रचिन्तनपारगैः ॥ २॥
यह मन अतिशय चञ्चल है जो इस जगत् के व्यर्थ कार्यों में प्रतिपल भ्रमण करता रहता है, अतएव ``श्रीमद्भगवद्गीता'' ``श्रीमद्भागवत'' विभिन्न ``रामायण'' आदि उत्तमोत्तम शास्त्रों के ज्ञाताओं को चाहिए कि वे इस चपल मन का सर्वप्रकार से निग्रह करें तथा उत्तम साधकों को भी प्रेरित करें ॥ २॥
सत्सङ्गतिः सदा श्रेष्ठा पालनीया च सर्वदा ।
यया हि चञ्चलस्यास्य मनसः रुज् प्रशाम्यति ॥ ३॥
श्रेष्ठ पुरुषों का प्रेरणादायी सङ्ग करे यह सत्सङ्गति सर्वदा ही हितप्रद है जिसके परिपालन करने पर इस अतीव द्रुतगामी चञ्चल की जो क्लेश है उसका परिशमन हो जायेगा ॥ ३॥
एकदा ब्रह्मणः पार्श्वे समायाता महर्षयः ।
श्रीसनकादयो दिव्या विचरन्तो हि पुष्करे ॥ ४॥
एक समय इस सम्पूर्ण विश्व के रचयिता जगत्पिता श्रीब्रह्मा के समीप पुष्करतीर्थ के पावन स्थल पर विचरण करते हुए महर्षिवर्य श्रीसनकादिक जिनका दिव्यतम पावन स्वरूप है वे पधारे ॥ ४॥
त्रिगुणात्मकमन्तश्च तथैव भुवनत्रयम् ।
कथमन्योन्यसन्त्यागः प्रश्नं चक्रु-र्महर्षयः ॥ ५॥
तब वे महर्षिवर्य श्रीब्रह्मा के निकट आकर एक अत्यन्त
गूढतम प्रश्न किया कि हे ब्रह्मन्! यह मन जो त्रिगुणात्मक (सत्व, रज, तम) से समन्वित है इसी प्रकार यह त्रिगुणात्मक समस्त जगत् भी है अतः इस चराचरात्मक जगत् से यह मन कैसे पृथक् हो ॥ ५॥
चिन्तातुरो जगत्स्रष्टा तदा कृष्णः कृपार्णवः ।
हंसरूपेण भूलोकेऽवततार च पुष्करे ॥ ६॥
महर्षिवर श्रीसनकादिकों के द्वारा प्रश्न किये जाने पर जब जगत्स्रष्टा श्रीब्रह्मा अतीव चिन्ता मग्न होगये तब कृपार्णव श्रीकृष्ण भगवान् श्रीहंसरूप में श्रीब्रह्मदेव के निकट सर्वतीर्थ गुरु श्रीपुष्कर की पावन धरित्री पर अवतीर्ण हुए ॥ ६॥
विधाय च समाधानमन्तर्दधान केशवः ।
सर्वेश्वरः कृपाधाम सर्वकल्याणकारकः ॥ ७॥
सभी जीवमात्र का कल्याण करने वाले कृपानिधि सर्वान्तरात्मा सर्वेश्वर कृष्णरूप श्रीहंस भगवान् ने श्रीसनकादिकों के प्रश्न का समाधान करके अन्तर्धान होगये ॥ ७॥
अतस्तावन्मनोव्याधिर्हातव्या च सुधीजनैः ।
तदैव जीवने शान्तिर्भवतीति सुनिश्चितम् ॥ ८॥
अतएव इस मानसिक व्याधि को बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिए उसे सर्वथा त्याग करदें तभी इस मानव जीवन में निश्चित रूप से परम शान्ति प्राप्त होगी ॥ ८॥
श्रीमानसाष्टकं स्तोत्रं ज्ञानभक्तिप्रदायकम् ।
राधासर्वेश्वराद्येन शरणान्तेन निर्मितम् ॥ ९॥
विवेक और श्रीहरिभक्ति को प्रदान करने वाला यह ``श्रीमानसाष्टक स्तोत्र'' जिसका प्रणयन हंसरूप श्रीकृष्ण भगवान् का ही अनुकम्पा प्रसाद है ॥ ९॥
इति श्रीमानसाष्टकस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।
Proofread by Mohan Chettoor