सीताराम नाम प्रताप प्रकाश

सीताराम नाम प्रताप प्रकाश

(स्वामीयुगलानन्यशरणजी द्वारा सङ्कलित) भगवान श्रीराम की भान्ती श्रीराम नाम की महिमा अपार एवं अनन्त है इसीलिये ``राम न सकहिं नाम गुन गाई ``, श्रीराम नाम को लोग साधारण समझतें हैं । परन्तु ऐसा नहीं है । ``श्रीराम नाम में अपार शक्ति है'' । ``बन्दउँ नाम राम रघुवर को । हेतु कृशानु भानु हिमकर को ॥ ``इसी से देवर्षि नारद जी ने ``राम सकल नामन्ह ते अधिका'' ये वरदान मांगा । सच्चिदानन्दघन भगवान् श्रीराम एवं उनके पतित पावन नाम में कोई अन्तर नहीं है । ``रामस्य नाम रूपं च लीला धाम परात्परम् । एतच्चतुष्टयं नित्यं सच्चिदानन्दविग्रहम् ॥ '' (वसिष्ठ संहिता), नाम-नामी में अभेद सम्बन्ध है । श्रीराम महाराज में श्रीनामी भगवान् श्रीराम विद्यमान है । ``नाम निरूपन नाम जतन तें । सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें ॥ '' परम सन्त श्री युगलानन्यशरण जी महाराज ने श्री सीता राम नाम प्रताप प्रकाश में वेद, शास्त्र, पुराण आदि का सप्रमाण सङ्ग्रह किया है । श्री स्वामी जी महाराज ने भाषा-भाष्य भी किया है । जिनका सम्पूर्ण जीवन श्री नाम साधना में व्यतीत हुआ हो उनका कथोपकथन पूर्ण रूप से अनुपम एवं दिव्य है, नाम की साधना वेद शास्त्रों के साथ-साथ सभी सन्तों ने स्वीकार की है । वे चाहें किसी मत या पन्थ के हों । श्रीनाम की साधना, साधना के साथ ही साथ साध्य भी है । श्रीनाम महाराज ``नाम'' के साथ ``मन्त्र'' भी हैं । ज्ञान स्वरूप एवं साक्षात् ब्रह्मस्वरूप भगवान शङ्कर निरन्तर नाम जपते हैं एवं श्रीराम नाम के बल पर श्री काशी में मरने वालों को मुक्ति प्रदान करते हैं । नाम की साधना चारों युगों से चली आयी है, ``चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ । कलि विशेष नहिं आन उपाऊ ॥ '' एवं ``चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका । भए नाम जपि जीव बिसोका ॥ '' सभी ऋषि मुनियों व ज्ञानी ध्यानी सिद्ध सन्तों ने श्री नाम महाराज का आश्रय लिया है । श्री नाम महाराज की साधना में निम्न बातें विचारणीय हैं - १. निरन्तर एवं सदा सर्वत्र २. श्रद्धा विश्वासपूर्वक ३. दश नामापरध रहित होकर ४. सभी देश काल पात्रपात्र एवं शारीरिक स्थिति में ५. प्रारम्भिक अवस्था में भाव, कुभाव, अनख, आलस्य में परन्तु आगे बढ़ने पर एकाग्र मन से एवं प्रेमपूर्वक ६. परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी में वैखरी की प्रधानता । ७. सभी नाम एवं मन्त्रों सर्वोत्कृष्टता ८. जपात् सिद्धिः ९. योग, ध्यान, आदि से श्रेष्ठ सीताराम नाम प्रताप प्रकाश का सम्पादान एवं प्रकाशन लक्ष्मण किला में श्री स्वामी सीताराम शरण जी महाराज के द्वारा हुआ । पुनः प्रकाशन ``पुरी'' वाले महाराज श्री स्वामी गङ्गादास जी महाराज ने भी मणीराम दास जी की छावनी से कराया । वर्तमान प्रकाशन श्री सीताराम दास जी मधुकरिया के शिष्यगण करा रहे हैं । वर्तमान सम्पादन प्रकाशन में नैयायिक श्री तुलसीदास जी एवं श्री हरिशङ्कर दास जी के सत्प्रयास का सफल प्रमाण आप सभी के सन्मुख है । ``श्री तुलसीदास जी सम्प्रदाय के गौरव हैं इस दिशा में उनके अनेक प्रयास हो चुके हैं एवं आगे भी होङ्गे एतदर्थ धन्यवाद ।'' - महान्त श्री नृत्य गोपालदास जी, श्रीमणिरामदास छावनी सेवा ट्रस्ट, श्रीअयोध्या जी श्रीमते रामानन्दाय नमः । श्रीसीतारामाभ्यां नमः श्रीगुरवे नमः । स्वामीयुगलानन्यशरणजी द्वारा सङ्कलितः । अथ श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशः ।

अथ प्रथमः प्रमोदः

मङ्गलाचरण - श्रीरामं जनकात्मजामनिलजं वेधोवशिष्ठावृषी योगीशञ्चपराशरं श्रुतिविदं व्यासं जिताक्षं शुकम् । श्रीमन्तं पुरुषोत्तमं गुणनिधिं गङ्गाधराद्यान् यतीन् श्रीमद्राघवदेशिकञ्च वरदं स्वाचार्यवर्यंश्रये ॥ पुराणोक्तवचनानि - श्रीहनुमन्नाटके श्रीमहावीरवाक्यं रामनामानन्यभक्तान प्रति - कल्याणानां निधानं कलिमलमथनं पावनं पावनानां पाथेयं यन्मुमुक्षोस्सपदि परपदप्राप्तये प्रस्थितस्य । विश्रामस्थानमेकं कविवरवचसां जीवनं सज्जनानां बीजं धर्मद्रुमस्य प्रभवतु भवतां भूतये रामनाम ॥ १॥ श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाश के आरम्भ में परम उपासकवर्थ, आचार्यशिरोमणि नामानुरागियों में अग्रगण्य एवं श्रीरामजी को आनन्द प्रदान करने वाले पवनपुत्र श्रीमहावीरजी के द्वारा रचित श्लोक को शोक शमन के लिए मङ्गलाचरण में रखा गया है । जिससे श्रीहनुमानजी की कृपा से ग्रन्थ के विघ्नों का नाश हो, रसिक नामानुरागियों की सभा में प्राचुर्य हो, अभिराम श्रीनाम महाराज का अनुपम अर्थ चित्त में प्रकाशित हो इत्यादि अनेक अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए मङ्गलाचरण के रूप में लिखा गया है । श्रीहनुमानजी की रचना तो महागम्भीर एवं अथाह है, परन्तु उनकी दी हुई मति के अनुसार कुछ अर्थ लिखने का प्रयास किया जा रहा है । श्रीहनुमानजी समस्त श्रीरामनाम के रसिकों को आशीर्वाद देते हैं महाअभिराम श्रीरामनाम महाराज नामानुरागियों को एक रस परम ऐश्वर्य देने में सदा समर्थ हों, यहाँ ``भूति'' शब्द का अणिमादिक विभूति अर्थ नहीं है अपितु श्रीसीताराम नाम स्वरूपादि का बोध रूप सुख ही अर्थ इष्ट है । श्रीरामनाम कैसे हैं? इसी प्रश्न के उत्तर में शेष सम्पूर्ण विशेषण श्रीरामनाम के हैं । समस्त कल्याणों का दिव्य निवास स्थान हैं यहाँ ``कल्याण'' का तात्पर्य कल्याणप्रद ज्ञान, वैराग्यादि समस्त शुभ साधन एवं साध्य हैं । पुनः कैसे हैं ? कलियुग के पाप ताप का नाश करने वाले हैं । पुनः कैसे हैं ? पवित्र करने वाले जो श्रीगङ्गाजी आदि पवित्र तीर्थ हैं उन सबको भी पवित्र करने वाले हैं । पुनः कैसे हैं? अतिशीघ्र (इसी मानव शरीर से भगवद्धाम प्राप्ति के लिए सङ्कल्पित मुमुक्षु के लिए श्रीरामनाम महाराज राह खर्च हैं । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम ? महर्षि वाल्मीकि, व्यास, नारद आदि कवियों के वचनों (सद्ग्रन्थों) के एकमात्र विश्रामस्थल हैं । तात्पर्य यह है कि श्रीराम नाम के अवलम्बन के बिना किसी को विश्राम नहीं है । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम? सभी सत्पुरुषों का परम जीवन हैं तात्पर्य है कि सभी सज्जन विवेकी पुरुष श्रीरामनाम के जप के बिना अपने को मृतक मानते हैं सच्चा जीवन तभी है जब राम नाम का जप होय । पुनः कैसे हैं रामनाम ? समस्त सामान्य और विशेष धर्मों के बीज हैं अर्थात् कारण हैं, कारण दो प्रकार के होते हैंः उपादान (समवायि) कारण और निमित्त कारण जैसे घट का उपादान कारण कपाल (मिट्टी) एवं निमित्त कारण कुलाल है । उसी प्रकार श्रीरामनाम सर्वधर्ममय हैं और सब धर्म के कर्ता भी हैं । महाशम्भुसंहितायां श्रीशिववाक्यं श्रीरामभक्तान् प्रति- महाशम्भुसंहिता में श्रीशिवजी का वाक्य श्रीरामभक्तों के प्रति- मुक्तिस्त्रीकर्णपूरौ मुनिहृदयवयःपक्षती तीरभूमौ संसारापारसिन्धोः कलिकलुषतमस्तोमसोमार्कबिम्बो । उन्मीलत्पुण्यपुञ्जद्रुमललितदले लोचने च श्रुतीनां कामं रामेतिवर्णौ शमिह कलयतां सन्ततं सज्जनानाम् ॥ २॥ द्वितीय श्लोक शोक को दूर करने वाला श्रीमहाशम्भु संहिता का है भगवान् श्रीशङ्करजी श्रीरामानुरागियों में श्रेष्ठ हैं इसीलिए सभी नामरसिक सन्तों को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं कि श्रीरामनाम के दोनों अक्षर सभी नामानुरागियों का उनकी रूचि के अनुसार सदा महामङ्गल करें । यह मेरा आशीर्वाद है । श्रीरामनाम के दोनों वर्ण कैसे हैं- मुक्ति रूपी स्त्री के कर्ण के कर्णफूल हैं, ताटङ्क स्त्रियों के सौभाग्य का द्योतक होता है । यहाँ तात्पर्य यह है कि नाम सम्बन्ध के बिना मुक्ति भी विधवा की तरह अशोभनीय है अतः हर प्रकार से नाम रटना ही उचित है । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम के दोनों वर्ण? मुनियों के हृदय रूपी पक्षी के रामनाम महाराज दो पङ्ख है । अर्थात् समस्त मननशील महापुरुषों के अन्तःकरण को स्पन्दित करने वाले हैं । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम के दोनों वर्ण? संसाररूपी अपार सागर के दोनों किनारे हैं, अभिप्राय यह है कि जब दोनों वर्णों का उच्चारण करेङ्गे तो अवश्य ही भवसागर से पार हो जायेङ्गे । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम के दोनों वर्ण? कलियुग के महापापरूपी अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य एवं पापजन्य तापों को शमन करने के लिए चन्द्र स्वरूप हैं अर्थात् ``रकार'' अग्नि बीज है सूर्य में प्रकाशन का सामर्थ्य ``रकार'' से ही प्राप्त है ``मकार'' चन्द्र बीज है चन्द्रमा ताप का अपनोदन करके चित्त में आह्लाद को प्रकट करता है उसी प्रकार श्रीरामनाम के दोनों वर्ण कलि के भीषण पापरूपीतम एवं तज्जन्य तापों का अपनोदन करके चित्त में परम आह्लाद को प्रकट करते हैं । पुनः कैसे हैं श्रीराम नाम के दोनों वर्ण? प्रकाशित पुण्यरूपी वृक्ष के सुन्दर दो दल हैं, अङ्कुरण के समय वृक्ष में पहले दो दल आते हैं तदनन्तर उसका विकास होता है श्रीनाम महाराज के बिना उच्चारण किये सुकृत भी असम्भव है । पुनः कैसे हैं श्रीरामनाम के दोनों अक्षर? वेद पुरुष के दो नेत्र हैं । इनकी कृपा से ही वेदों के रहस्यों को जाना जा सकता है । तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के सहारे ही वेदों को सब कुछ दिखायी देता है श्रीनाम महाराज के बिना तो वेद भी अन्धे हैं श्रीनाम महाराज के बिना जब वेद ही अन्धे हैं तो वेद पढ़ने वालों की क्या कथा होगी अतः नाम रटो । पद्मपुराणे श्रीशिववाक्यं पार्वतीं प्रति- पद्मपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वती जी के प्रति- नामचिन्तामणी रामश्चैतन्यपरविग्रहः । पूर्ण शुद्धो नित्ययुक्तो न भेदो नामनामिनः ॥ ३॥ श्रीरामनाम महाराज चिन्तामणि हैं अर्थात् चिन्तनमात्र से समस्त अभीष्ट पदार्थों को प्रदान करने वाले हैं तथा श्रीरामजी साक्षात् सच्चिदानन्दस्वरूप हैं दोनों पूर्ण पवित्र एवं नित्ययुक्त हैं नाम और नामी में भेद नहीं है । अतः श्रीरामनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियै । स्फुरति स्वयमेवैतिञ्जह्लादौ श्रवणे मुखे ॥ ४॥ इसीलिए श्रीरामनाम रूपगुणादि मन और इन्द्रियों के विषय नहीं हैं ये तो स्वतः अहेतुकी कृपा से रसना, श्रवण, मुख, हृदय, कण्ठादि स्थानों में प्रकट होते हैं । यदि कोई कुतर्की कहे कि अग्नि के कहने से मुख नहीं जलता है चीनी के कहने से मुख नहीं मीठा होता है उसी प्रकार श्रीरामनाम के कहने से जीव कृतार्थ नहीं होता तो उसका यह कथन सर्वथा अनुचित है क्योङ्कि अघि चीनी आदि प्राकृत शब्द है और श्रीरामनाम अप्राकृत, दिव्य एवं चिन्मय है उनके साथ संसारी पदार्थों की तुलना नहीं हो सकती । दूसरी बात अग्नि के कथन से मुख जलता है इसमें कोई प्रमाण नहीं है और श्रीराम नाम के कथन से हजारों महापापी तर गये इसमें अनन्त प्रमाण हैं इसलिए उनका कुतर्क मालिन्ययुक्त एवं उपेक्षणीय है । नामानुरागी को ऐसे लोगों का सङ्ग नहीं करना चाहिए । रामरामेति रामेति रमे रामे मनोरमे । सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥ ५॥ सहस नाम सम सुनि सिव बानी । जपि जेईं पिय सङ्ग भवानी ॥ हरषे हेतु हेरि हर ही को । किय भूषन तिय भूषन ती को ॥ ``नाम्नां समूहो नामता, सहस्राणां नामता सहस्रनामता एवं सहस्रनामतातुल्यम्'' ऐसा पाठ मानकर ज।गु।रा । श्रीरामभद्राचार्य जी अर्थ करते हैं कि हजारो हजारों विष्णु सहस्रनामों का उच्चारण किया जाय और एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण किया जाय तो भी दोनों तुल्य नहीं होङ्गे । अतः श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है । लोक में भी हमारे राम ने देखा है- कहीं श्रीविष्णु महायज्ञ हो रहा था साकल कम था और आहुति पूरी करनी थी तो विप्रों ने कहा कि अब दूसरी विधि से आहुति पूर्ण करते हैं ``श्रीराम रामेति रामेति'' इस श्लोक का उच्चारण करते और आहुति डलवाते और कहते कि एक बार में एक हजार आहुति हो गयी, अतः लोक में भी यह मान्यता है कि श्रीविष्णु सहस्रनाम के पाठ की अपेक्षा श्रीरामनाम सहज, सुलभ और सर्वसिद्धि दायक है । एक बार श्रीशङ्करजी प्रसाद पाने जा रहे थे तब अपनी प्राणप्रिया श्रीपार्वती जी से कहा कि प्रिये ! चलिए साथ में प्रसाद पा लिया जाय तब श्रीपार्वती जी ने कहा कि श्रीविष्णु सहस्रनाम पाठ का नियम है, अभी पाठ पूरा नहीं हुआ है पाठ पूरा करके पाऊँगी । यह सुनकर श्रीशङ्करजी प्रसन्न हो गये और अपना मुख्य सिद्धान्त प्राणप्रिया श्रीपार्वती को सुनाते हैं हे वरानने ! हे रामे ! श्रीरामनाम श्रीविष्णु सहस्रनाम के तुल्य हैं अर्थात् श्रीरामनाम का एक बार उच्चारण करने से श्रीविष्णु सहस्रनाम के पाठ का पुण्य सहज में प्राप्त हो जाता है, श्रीरामनाम माया से परे हैं हमारा परम धन हैं अतः श्रीराम नाम का उच्चारण कीजिए और मेरे साथ प्रसाद पाइए! भगवान् शङ्कर जी की बात सुनकर श्रीपार्वतीजी ने श्रीरामनाम का उच्चारण करके श्रीशिवजी के साथ प्रसाद पाया । यह देखकर भगवान् शिव ने श्रीपार्वती को हृदय से लगा लिया और अपना भूषण बना लिया । हे वरानने ! यस्मिन् राम रामेति मनोरमे रामे (रामनाम्नि) अहं अति रमे । तत् श्रीरामनाम सहस्रनाम तुल्यं भवति, ऐसा अन्वय करने पर अर्थ होगा- हे चन्द्रमुखी पार्वति ! जिस मनोभिराम श्रीरामनाम में मैं अत्यन्त रमण करता हूँ वह श्रीरामनाम विष्णुसहस्रनाम के तुल्य है । जपतः सर्ववेदांश्च सर्वमन्त्रांश्च पार्वति । तस्मात्कोटिगुणं पुण्यं रामनाम्नैव लभ्यते ॥ ६॥ हे पार्वति ! समस्त वेद, पुराण और संहिता तथा मन्त्रों के करोड़ों बार पाठ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे कोटिगुना पुण्य एक बार श्रीरामनाम के जप से होता है । ये ये प्रयोगास्तन्त्रेषु तैस्तैर्यत्साध्यते फलम् । तत्सर्वं सिद्धयति क्षिप्रं रामनामेति कीर्तनात् ॥ ७॥ तन्त्रों में जो जो प्रयोग हैं मारण, सम्मोहन, उच्चाटन और आकर्षणादि और उनके प्रयोग से जिन-जिन फलों की सिद्धि होती है, वे सारे फल शीघ्र ही श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सिद्ध हो जाते हैं । आवश्यकता है विश्वास और प्रेम की । भूतप्रेतपिशाचाश्च वेतालाश्चेटकादयः । कूष्माण्डा राक्षसा घोरा भैरवा ब्रह्मराक्षसाः ॥ श्रीरामनाम ग्रहणात् पलायन्ते दिशो दशः ॥ ८॥ महाभयानक स्वरूप वाले जो भूत, प्रेत, पिशाच, भैरव, बैताल, राक्षस और कुष्माण्डादि हैं वे सब श्रीरामनाम के उच्चारण को सुनकर शीघ्र ही दशोदिशाओं में भाग जाते हैं । यह श्रीरामनाम का महाप्रताप है अतः सब कुछ छोड़कर श्रीरामनाम में प्रेम करना ही उचित है श्रीरामनाम के रसिकों को श्रीनाम विमुखों का सङ्ग छोड़ देना चाहिए । प्राणप्रयाणसमये रामनामसकृत्स्मरेत् । स भित्त्वा मण्डलं भानोः परं धामाभिगच्छति ॥ ९॥ चाहे जैसा भी पापी हो प्राण छूटते समय किसी भी प्रकार से यदि वह एक बार भी श्रीरामनाम का उच्चारण कर लेता है, तो वह सूर्य मण्डल का भेदन करके नगाड़ा बजाते हुए अवश्य ही परम धाम को जाता हैऽर्द्धमात्रे स्थितौ श्रीमत्सीतारामौ परात्परौ । ह्याकारेषु त्रयो देवा बिन्दौ शक्तिरनुत्तमा ॥ १०॥ श्रीरामनाम के ``अर्द्धमात्रा'' में परात्पर ब्रह्म श्री सीतारामजी स्थित हैं ``आकार'' में तीनों देवता (ब्रह्मा विष्णु महेश) और ``बिन्दु'' में महामाया आदिशक्ति स्थित हैं । भावार्थ- श्रीराम की स्थिति यह है- र् अ आ म् अ कुल पाँच अक्षर है ``व्यञ्जनं चार्द्धमात्रिकम्'' के अनुसार र् अर्द्धमात्रास्वरूप है म् (ं) अनुस्वार होने से बिन्दु स्वरूप है अतः रेफ का वाच्य (अर्थ) श्रीसीतारामजी हैं रेफ उनका वाचक है, वाच्य और वाचक में अभेद होने से रेफ ही श्रीसीतारामजी हैं अतः रेफ में श्रीसीतारामजी का ध्यान करना चाहिए । एवं रकार के उत्तर में जो ``अ'' है उसका अर्थ भगवान् वासुदेव है, तदनन्तर जो ``आ'' है उसका अर्थ ब्रह्मा है, मकार के उत्तर जो ``अ'' है ``उसका अर्थ श्रीमहेशजी है, ं का अर्थ महामाया मूल प्रकृति आदि शक्ति हैं । असङ्ख्यमन्त्रनाम्नां तु बीजं शर्मास्पदं परम् । अनादृत्य महामन्दा संशक्ताश्चान्यसाधने ॥ ११॥ अनन्त मन्त्रों और अनन्त नामों का बीज भूत परम कारण समस्त सुखों का स्थान श्रीरामनाम है, श्रीनाम परत्व को बिना विचारे श्रीरामनाम की उपेक्षा करके महामन्द मूढ़ अज्ञानी लोग दूसरे साधनों में लगे रहते हैं व्यर्थ आसक्त हो जाते हैं । जपकाले सदा देवि नामार्थञ्च परात्परम् । चिन्तयेच्चेतसा साक्षाद् बुद्ध्या श्रीरामरूपकम् ॥ १२॥ ``अब श्रीरामनामजप की विधि एवं फल का निरूपण करते हैं'' हे देवि ! हमेशा जप करते समय मन और बुद्धि से परात्पर ब्रह्मस्वरूप साक्षात् श्रीसीतारामजी के स्वरूपनामार्थ का चिन्तन करना चाहिए । तात्पर्य यह है कि जब भी भीतर से अथवा बाहर से श्रीरामनाम का उच्चारण करें उस समय अवश्य सावधानीपूर्वक अर्थानुसन्धान करें । महर्षि पतञ्जलि ने भी कहा कि- ``तज्जपस्तदर्थं भावनम्'' अर्थात् अर्थानुसन्धानपूर्वक जप से जप का वास्तविक एवं पूर्ण लाभ मिलता है यदि प्रत्येक नाम के साथ अर्थानुसन्धान नहीं हो पावे त्वरा के कारण अथवा निश्चित सङ्ख्या पूर्ति के कारण तो आदि मध्य और जप के अन्त में भलीभाँति अर्थानुसन्धान कर लेवें । श्रीरामनाम सर्वोपरि है और साक्षात् श्री सीताराम जी स्वरूप है । ऐसा चिन्तन करते हुए अपने चित्त की वृत्तियों को मन में लीन करे और अपने स्वरूप तथा इन्द्रियादि करणों को मन को और बाहर के व्यवहारों को श्रीरामनामार्थ में लीन करें तत्पश्चात् श्रीरामनाम का जप करें ऐसा करने से कुछ ही दिनों में महामोद विनोद की प्राप्ति होती है । अशनं सम्भाषणं शयनमेकान्तं खेदवर्जितम् । भोजनादित्रयं स्वल्पं तुरीये संस्थितिस्तदा ॥ १३॥ जप के समय भोजन कम करें जिससे आलस्य, प्रमाद और इन्द्रियों की चञ्चलता नहीं होगी । धीरे-धीरे भोजन को घटावें । प्रतिदिन थोड़ा-थोड़ा कम करे शुद्ध भोजन करे । रजोगुणी एवं तमोगुणी लोगों का अन्न न खायें । स्वादिष्ट सरस पदार्थों को चित् से हटा दे, इन्द्रियों को लम्पट न होने दे । हमेशा अवसर पाकर के ही थोड़ा सत्य, हितकारी एवं मधुर बोले । निद्रा को धीरे-धीरे कम करें जहाँ तक हो सके रात्रि में जागकर उच्चस्वर में नाम उच्चारण करे और धीरे-धीरे निद्रा पापिनी को जीत ले । सुन्दर एकान्त स्थान में निवास करें जहाँ किसी प्रकार का खेद विक्षेप आप को न हो, न दूसरे को हो । इस प्रकार साधन सम्पन्न होकर यदि श्रीराम नाम का जप करेङ्गे तो उसका फल अकथनीय होगा । संयमं सर्वदा धार्य्यं नैव त्याज्यं कदाचन । संयमान्नामचिन्मात्रे प्रीतिस्सञ्जायतेऽधिकाः ॥ १४॥ नाम जाप को संयमित होना चाहिए, संयम का त्याग नहीं करना चाहिए, संयमपूर्वक श्रीरामनाम का जप करने से सच्चिदानन्द स्वरूप श्रीरामनाम में उत्तरोत्तर प्रतिदिन प्रतिक्षण यथार्थ प्रीति बढ़ती है । प्रथमाभ्यासकाले च ग्रन्थं नामात्मकं सुधी । द्वियाममेकयामं वा चिन्तयेद्धि प्रयत्नतः ॥ १५॥ श्रीरामनाम के नये साधक को चाहिए कि सर्वप्रथम अभ्यास के समय में श्रीरामनाम परत्व बोधक ग्रन्थों का अध्ययन चिन्तन करें, एक प्रहर अथवा दो प्रहर सावधान चित्त होकर और श्रीरामनाम के रसिक विरक्त सन्तों की सङ्गति करें, उनकी सङ्गति से श्रीराम नाम में आश्चर्यजनक प्रीति होगी । यदा नाम्नि लयं याति चित्तङ्क्लेशविवर्जितम् । तदा न चिन्तयेत् किञ्चिल्लब्ध्वा ह्यानन्दमन्दिरम् ॥ १६॥ निरन्तर कुछ समय तक श्रीरामनाम का जप करने पर बिना श्रम के सहज जब श्रीरामनाम में चित्तविलीन हो जाय तब परमानन्दस्वरूप श्रीसीतारामजी को प्राप्त करके फिर कुछ भी चिन्तन न करें । क्योङ्कि विचारादि जितने साधन समूह हैं उनका एक ही प्रयोजन है चित्त का लय करना । श्रीरामनाम का प्रताप और प्रभाव बिना जप के नहीं मालूम पड़ता है । तत्रैव श्रीब्रह्मवाक्यं नारदं प्रति- पद्मपुराण में ही श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति- चिन्तामणिसमं कायं लब्ध्वा वै भारतेऽमलम् । संस्मरेन्न परन्नाम मोहात् स पतति ध्रुवम् ॥ १७॥ इस भारत वर्ष में चिन्तामणि के समान निर्मल शरीर को प्राप्त करके जो मोहवश परात्पर श्रीरामनाम का जप नहीं करता है सम्यक् स्मरण नहीं करता है वह निश्चित ही पुनः चौरासी लाख योनि में करोड़ों वर्षों तक भटकता है नरक कुण्ड में गिरता है । तब बाद में पश्चाताप करता है कि मनुष्य शरीर पाकर भी हम अपना उद्धार नहीं कर सके । मानुषं दुर्लभं प्राप्य सुरैरपि समर्चितम् । जप्तव्यं सावधानेन रामनामाखिलेष्टदम् ॥ १८॥ इसलिए देवदुर्लभ तथा देवपूजित मानव शरीर को प्राप्त करके सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का सावधानीपूर्वक जप करना चाहिए । श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं यथार्थं श्रुतिपूजितम् । सर्वाशां संविहायाशु स्मर्तव्यं सर्वदा बुधैः ॥ १९॥ समस्त श्रुतियों से पूजित श्रीरामनाम के यथार्थ माहात्म्य को सुनकर, शीघ्र ही सभी आशाओं को छोड़कर विद्वानों को सदा सर्वदा श्रीरामनाम का स्मरण करना चाहिए, यही परम पण्डिताई और सुबुद्धिमता है । शेष सारी चतुरता उदरपूर्ति के निमित्त है । दोहाः जिसकी रसना नाम रस रसी असी पद पाय । खसी वासना तिन्हन की हँसी उभय बिसराय ॥ विष्णुनारायणादीनि नामानि चामितान्यपि । तानि सर्वाणि देवर्षे जातानि रामनाम ॥ २०॥ हे नारद जी ! भगवान् के विष्णु, नारायण आदि जितने नाम हैं वे सब भी पतितपावन हैं किन्तु वे सारे नाम श्रीरामनाम से प्रकट हुए हैं और फिर महाप्रलय के समय श्रीरामनाम में ही विलीन हो जाते हैं । श‍ृणु नारद सत्यन्त्वं गुह्याद् गुह्यतमं मतम् । रामनाम सकृज्जप्त्वा याति रामास्पदं परम् ॥ २१॥ हे नारदजी ! मैं तुमसे अत्यन्त सत्य एवं गुह्य सिद्धान्त को कहता हूँ तुम सुनो- मनुष्य एक बार ही श्रीरामनाम का जप करके श्रीरामजी के दिव्यपद को प्राप्त कर सकता है इसमें आश्चर्य न करना, श्रीरामनाम की बड़ी महिमा हैं । -जिस प्रकार अन्धकारयुक्त कक्ष में दीप प्रज्वलित करते ही अन्धकार पूर्णतया नष्ट हो जाता है, पुनः अन्धकार प्रवेश न करने पावे इसके लिए दीप की लौ को जलाये रखना आवश्यक है उसी प्रकार एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, पुनः पाप प्रवेश न करने पावे इसलिए नित्य निरन्तर श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । प्रश्न-फिर सन्त महात्मा दिन रात राम नाम का जप क्यों करते हैं ? उत्तर -स्नेह होने के कारण, तात्पर्य यह है कल्याण तो एक ही बार रामनाम लेने से हो गया परन्तु श्रीरामनाम में अत्यन्त प्रेम हो जाने से वे दिन रात राम नाम रटा करते हैं । तब सामान्य लोगों को बार-बार नाम जप की प्रेरणा क्यों देते हैं? इसका उत्तर यह है कि एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण से परमपद की प्राप्ति तो हो जायेगी परन्तु आगे भगवत्प्रतिकूल आचरण न हो, हमेशा भगवान् की स्मृति बनी रहे अन्तःकरण की शुद्धता बनी रहे । इसलिए निरन्तर रामनाम का जप करना चाहिए । सर्वेषां हरिनाम्नां वै वैभवं रामनामतः । ज्ञातं मया विशेषेण तस्मात् श्रीनाम सञ्जप ॥ २२॥ हे नारदजी ! करोड़ों वर्षों तक साधना करके मैंने यह विशेष अनुभव किया है कि भगवान् के समस्त नामों का ऐश्वर्य और प्रताप श्रीरामनाम के अंशांश से है, इसलिए स्नेहपूर्वक तत्पर होकर श्रीरामनाम का जप करो । क्षणार्द्धं जानकीजानेर्नाम विस्मृत्य मानवः । महादोषालयं याति सत्यं वच्मि महामुने ॥ २३॥ हे महामुने ! जो मानव श्रीसीतापति श्रीरामजी के नाम को आधे क्षण के लिए भी भूलकर किसी अन्य कार्य में आसक्त होता है वह महादोषों और तापों के आलय, नरक में जाता है यह मेरा वचन सत्य है । तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के विस्मरण के समान कोई पाप नहीं है । रामनामप्रभावेण सीतारामं परेश्वरम् । सदात्मानं प्रपश्यन्ति रामनामार्थचिन्तकाः ॥ २४॥ श्रीरामनाम (सीतयासहितो रामः सीतारामः तं सीतारामम्।) के अनुसन्धान करने वाले साधकों को श्रीरामनाम के प्रभाव से परात्पर ब्रह्म श्रीसीतारामजी का साक्षात्कार होता है । तत्रैव श्रीसनत्कुमारवाक्यं नारदं प्रति- पद्मपुराण में ही श्रीसनत्कुमारजी का वाक्य नारदजी के प्रति- सर्वापराधकृदपि मुच्यते हरिसंश्रयः । हरेरप्यपराधान् यः कुर्य्याद् द्विपदपांशनः ॥ २५॥ नामाश्रयः कदाचित् स्यात्तरत्येव स नामतः । नाम्नो हि सर्वसुहृदो ह्यपराधात् पतन्त्यधः ॥ २६॥ किसी भी प्रकार का अपराध करने वाला व्यक्ति यदि श्रीरामजी की शरण में आ जाय तो वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । जो नराधम श्रीरामजी का अपराध करते हैं श्रीरामजी के बत्तीस सेवापराध हैं एवं वेद प्रतिकूल आचरण भी महद् अपराध हैं । ऐसे अपराधी भी सन्त सद्गुरु के शरणागत होकर अकारण- करुणावरुणालय श्रीरामनाम की शरण होकर श्रीरामनाम के जप करने से अपराध से मुक्त हो सकते हैं परन्तु अकारणहितैषी सर्वसुखदायक श्रीरामनाम का जो अपराध करता है उसका तो अधःपतन एवं नरक गमन सुनिश्चित है । श्रीनारद उवाच- के तेऽपराधा विप्रेन्द्र नाम्नो भगवतः कृताः । विनिघ्नन्ति नृणां कृत्यं प्राकृतं ह्यानयन्ति हि ॥ २७॥ श्रीनारदजी ने कहा हे विप्रवर ! श्रीरामनाम सम्बन्धी कितने अपराध हैं? उन अपराधों का स्वरूप क्या है? जिनके करने से सारे सुकृत नष्ट हो जाते हैं और महामलीन संसारियों जैसी गति प्राप्त होती है । श्री सनत्कुमार उवाच- सतान्निन्दानाम्नः प्रथममपराधं वितनुते । यतः ख्यातिं यातां कथमु सहते तद्विगर्हाम् ॥ शिवस्य श्रीविष्णोर्य्य इह गुणनामादि सकलम् । धिया भिन्नं पश्येत् स खलु हरिनामाहितकरः ॥ २८॥ जो श्रीरामनाम के रसिक सन्त हैं उनकी निन्दा करना प्रथम अपराध, असाध्य रोग की तरह है निन्दा का तात्पर्य श्रीरामनाम के रसिक सन्तों की वाणी का अनादर करना और अपने असत्पक्ष का स्थापन करना । यदि कोई कहे कि सन्तों की निन्दा नामापराध कैसे होगी तो कहते हैं कि जिन सन्तों के द्वारा श्रीरामनाम की प्रसिद्धि लोक में हुई उनकी बुराई को श्रीरामनाम महाराज कैसे सहन करेङ्गे? सन्तों के बिना श्रीरामनाम को कौन जानता? दूसरा नामापराध श्रीगौरीशङ्कर भगवान् के गुणनामादि को भगवान् श्रीसीताराम जी के गुणनामादि से भिन्न मानते हैं, अभिप्राय यह है कि परात्पर ब्रह्म सर्वेश्वर श्रीसीतारामजी हैं और सब उनके अधीन हैं अतः श्रीगौरीशङ्कर जी की भिन्न ईशता का प्रतिपादन करना नामापराध है अथवा श्रीसीतारामजी और श्रीगौरीशङ्कर भगवान् में अभेद मानना भी अपराध है । सेवक स्वामि भाव मानना धर्म है । गुरोरवज्ञा श्रुतिशास्त्रनिन्दनं तथार्थवादो हरिनाम्नि कल्पनम् । नाम्नो बलाद्यस्य हि पापबुद्धिर्न विद्यते तस्य यमैर्हि शुद्धिः ॥ २९॥ अपने गुरुजनों की अवज्ञा करना अर्थात् उनकी आज्ञा का उल्लङ्घन करना तीसरा नामापराध है । वेद पुराण की निन्दा करना चौथा नामापराध है यहाँ निन्दा का तात्पर्य है सुनकर के कुतर्क करना । श्रीनाम महाराज की महिमा सुनकर उसे यथार्थ रूप में स्वीकार न करना, केवल प्रशंसा मात्र मानना जैसे पुराणों में तीर्थों और स्तोत्रपाठादि की महिमा लिखी है वैसे ही, श्रीरामनाम की महिमा गायी गयी है । यह वास्तव नहीं है यह पाँचवां नामापराध है यह महापाप है ऐसे पापी की शुद्धता यमनियमादि साधनों से अथवा यमलोक में जाने से भी नहीं होती है । धर्म व्रत त्याग हुतादिसर्वशुभक्रिया साम्यमपि प्रमादः । अश्रद्दधानेऽप्यमुखेऽप्यश‍ृण्वति यश्चोपदेशं स नामापराधः ॥ ३०॥ धर्म, व्रत, दान, त्याग और तप आदि जितने शास्त्रविहित शुभकर्म है उनकी श्रीरामनाम से तुलना करना यह सातवां असाध्य नामापराध है जैसे सर्वेश्वर महाराजाधिराज से सामान्य प्रजा की तुलना करना यह महद् अपराध है वैसा ही यह श्रीनामापराध है । जो अश्रद्धालु हैं सुनना नहीं चाहते हैं ऐसे लोगों को लोभवश श्रीरामनाम की महिमा सुनाना आठवां नामापराध है, यह महाअपराध है तात्पर्य यह है उत्तम अधिकारी को ही श्रीरामनाम परत्व और रहस्य की बात सुनानी चाहिए । श्रीरामनाम का जप करना और प्रमाद करना, असावधान रहना, सन्तों का सङ्ग न करना, समस्त विश्व को श्रीरामनाममय जानकर भी हिंसा का त्याग न करना, यह नवम अपराध है तात्पर्य यह है कि प्रमाद और आलस्य से रहित होकर सावधानीपूर्वक अहिंसावृत्ति से सन्तों का सङ्ग करते हुए श्रीरामनाम का जप करना ही उत्तम जप है । श्रुत्वापि नाममाहात्म्यं यः प्रीतिरहितोऽधमः । अहं ममादिपरमो नाम्नि सोऽप्यपराधकृत् ॥ ३१॥ श्रीरामनाम की महिमा को सुनकर भी जो प्रीति से रहित है अहन्ता और ममता के मद में पागल है वह भी नामापराधी है यह दशम अपराध है क्योङ्कि ऐसे सुखसागर श्रीरामनाम के स्वभाव और माहात्म्य को सुनकर भी संसार का त्याग नहीं किया, श्रीरामनाम के रस को नहीं पिया इसलिए वह नामापराधी हैं । अपराधविनिर्मुक्त पलं नाम्नि समाचर । नाम्नैव तव देवर्षे सर्वं सेत्स्यति नान्यतः ॥ ३२॥ हे नारद जी ! इसलिए यह उचित है कि सभी प्रकार के नामापराधों को छोड़कर हर पल श्रीराम का जप करो, श्रीरामनाम जी की कृपा से ही सभी प्रकार के सुखों का लाभ तुम्हें मिल जायेगा । अन्य किसी भी साधन से अनन्त कल्प में भी परमानन्द दुर्लभ है । जाते नामापराधे तु प्रमादेन कथञ्चन । सदा सङ्कीर्तयन्नाम तदेकशरणो भवेत् ॥ ३३॥ यदि प्राचीन मलीन संस्कार वश अथवा कुसङ्गवश नामापराध हो जाय तो घबराना नहीं चाहिए अपितु सदासर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करे और श्रीरामनाम को ही अपना सर्वस्व एवं संरक्षक माने और श्रीरामनाम के अनुरागी सन्तों के नाम का कीर्तन करे तथा सन्त सेवा करे तो सब अपराध मिट जाता है । नामापराधयुक्तानां नामान्येव हरन्त्यघम् । अविश्रान्तप्रयुक्तानि तान्येवार्थकराणि यत् ॥ ३४॥ श्रीरामनाम के अपराधी का अपराध श्रीरामनाम के जप से ही मिटेगा परन्तु श्रीरामनाम का निरन्तर जप करें किसी भी समय जप बन्द न हो । नामैकं यस्य वाचि स्मरणपथि गतं श्रोत्रमूले गतं वा शुद्धं वाऽशुद्धवर्णं व्यवहितरहितं तारयत्येव सत्यम् । तद्वैदेहद्रविणजनता लोभपाखण्डमध्ये निक्षिप्तं स्यान्न फलजनकं शीघ्रमेवात्र विप्र ॥ ३५॥ शुद्ध अथवा अशुद्ध जैसे जल्दी-जल्दी में ``रम-रम'' कह देते हैं, बिना दांत वाले ``लाम-लाम'' बोल देते हैं, सूकर को देखकर यवन लोग ``हराम'' कह देते हैं एवं व्यवधान सहित जैसे अभी, ``रा'' कह दिया और दो घण्टे बाद ``म'' कहा । यह व्यवधानयुक्त है ऐसा नहीं होना चाहिए तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी प्रकार से जैसा कैसा भी श्रीरामनाम जिसके वाणी, मन और श्रोत्र का विषय हो गया उसको श्रीरामनाम महाराज निश्चित ही तार देगें, ऐसे श्रीरामनाम महाराज का जप जो देह, गेह,धन, मान, प्रतिष्ठा, जनता, दम्भ, लोभ और पाखण्ड के लिए करते हैं । हे नारद जी ! उनका शीघ्रता से कल्याण नहीं होता है धीरे-धीरे होता है अतः निष्काम भाव से ही श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । नाम के बल पर पापकर्म में प्रवृत्त होना नाम महाराज को नाराज करना है जैसे बार-बार शरीर में कीचड़ लगाकर श्रीसरयूजी में धोना अपराध है यद्यपि मलीनता तो दूर हो ही जायेगी पर यह उचित नहीं है उसी प्रकार नाम जप से पाप तो निवृत्त हो जाते हैं पर ऐसा करना सर्वथा अनुचित है । तत्रैव श्रीवशिष्ठवाक्यं भारद्वाजं प्रति- पद्मपुराण में ही श्रीवशिष्ठजी का वाक्य भारद्वाज जी के प्रति- अहो महामुने लोके रामनामाभयप्रदम् । निर्मलं निर्गुणं नित्यं निर्विकारं सुधास्पदम् ॥ ३६॥ प्रत्यक्षं परमं गुह्यं सौशील्यदि गुणार्णवम् । त्यक्ता मन्दात्मका जीवा नानामार्गानुयायिनः ॥ ३७॥ हे महामुने! बड़े आश्चर्य की बात यह है कि अभय प्रदान करने वाले, स्वच्छ, गुणातीत, अविनाशी, सकलविकार रहित, अमृतस्वरूप, प्रकट, परमगुप्त, सुशीलतादि गुणों के सागर, अगम एवं अगाध श्रीरामनाम-महाराज का निरादर करके दूसरे अनेक मार्गों का अनुगमन करते हैं वे निश्चित ही मन्दगति हैं । यत्र तत्र स्थितो वाऽपि संस्मरेन्नाममुक्तिदम् । सर्वपापविशुद्धात्मा स गच्छेत् परमां गतिम् ॥ ३८॥ जहाँ कहीं भी शुद्ध अथवा अशुद्ध स्थान में रहते हुए जिस किसी भी स्थिति में पवित्र हो या अपवित्र हो जो मुक्तिदाता श्रीरामनाम का स्मरण करता है वह मनुष्य समस्त पाप तापों का नाश करके परम धाम को प्राप्त करेगा । इसमें संशय नहीं है । मोहानलोल्लसज्ज्वाला ज्वलल्लोकेषु सर्वदा । श्रीनामाम्भोदच्छायायां प्रविष्टो नैव दह्यते ॥ ३९॥ मोहरूपी अग्नि में यह संसार सदा सर्वदा जल रहा है, जो भाग्यवशात् श्रीरामनाम रूपी मेघ की छाया के नीचे आ जाता है, वह शीतल हो जाता है वह फिर मोहादि की अग्नि में नहीं जलता है । यहाँ श्रीरामनाम का उच्चारण करना ही छाया के नीचे आना है । रामनामजपादेव रामरूपस्य साम्यताम् । याति शीघ्रं न सन्देहो सत्यं सत्यं वचो मम ॥ ४०॥ अति आसक्तिपूर्वक तन्मय होकर श्रीरामनाम के जप करने से श्रीरामजी की समता प्राप्त होती है इसमें सन्देह नहीं है मेरी वाणी को सत्य ही जानना । तत्रैव श्रीनारद वाक्यमम्बरीषं प्रति- वहीं पर अम्बरीष जी के प्रति श्रीनारद जी का वचन- सकृदुच्चारयेद्यस्तु रामनाम परात्परम् । शुद्धान्तःकरणो भूत्वा निर्वाणमधिगच्छति ॥ ४१॥ श्रीरामनाम को परात्पर तत्व समझकर जो एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह शुद्ध अन्तःकरण वाला होकर परम मोक्ष को प्राप्त करता है । कीर्तयन् श्रद्धया युक्तो रामनामाखिलेष्टदम् । परमानन्दमाप्नोति हित्वा संसारबन्धनम् ॥ ४२॥ श्रद्धा से युक्त होकर सम्पूर्णकामनाओं को पूर्ण करने वाले श्रीरामनाम का जो सङ्कीर्तन करता है वह संसार के बन्धन का त्याग करके परमानन्द को प्राप्त करता है । अनन्यगतयो मर्त्या भोगिनोऽपि परन्तप । ज्ञानवैराग्यरहिता ब्रह्मचर्य्यादिवर्जिताः ॥ ४३॥ सर्वोपायविनिर्मुक्ता नाममात्रैकजल्पकाः । जानकीवल्लभस्यापि धाम्नि गच्छन्ति सादरम् ॥ ४४॥ हे परन्तप ! जिनकी श्रीरामनाम के अलावा दूसरी कोई गति नहीं है जो भोगी है, ज्ञान वैराग्य से रहित है ब्रह्मचर्यादि से शून्य हैं और भगवत्प्राप्ति के समस्त उपाय से जो शून्य हैं परन्तु श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं- वे लोग निश्चित ही आदरपूर्वक श्री जानकीजीवन के परात्पर धाम साकेत लोक में जायेङ्गे । दुर्लभं योगिनां नित्यं स्थानं साकेतसंज्ञकम् । सुखपूर्वं लभेत्तत्तुनामसंराधनात् प्रिये ॥ ४५॥ हे पार्वति ! योग के जो आठ अङ्ग हैं उन आठ अङ्गों से युक्त योगी जन्म भर जो अभ्यास करते हैं ऐसे योगियों को भी जो दुर्लभ है, नित्य साकेतधाम जिसका नाम है, ऐसे दिव्य धाम को श्रीरामनाम की आराधना से भक्त सुखपूर्वक प्राप्त कर लेता है । तत्रैव श्रीअर्जुनम्प्रति श्रीकृष्णवाक्यं- वहीं पर अर्जुन के प्रति श्रीकृष्ण के वाक्य- भुक्तिमुक्तिप्रदातॄणां सर्वकामफलप्रद । सर्वसिद्धिकरानन्त नमस्तुभ्यं जनार्दन ॥ ४६॥ हे जनार्दन ! हे भुक्ति और मुक्ति प्रदान करने वालों की सभी कामनाओं के अनुसार फल प्रदान करने वाले ! हे समस्त सिद्धियों को सुलभ करने वाले ! हे अनन्त ! आपको नमस्कार हो । यं कृत्वा श्रीजगन्नाथ मानवा यान्ति सद्गतिम् । ममोपरि कृपां कृत्वा तत्त्वं ब्रूहिसुखालयम् ॥ ४७॥ हे श्रीजगन्नाथ ! मनुष्य जिसको करके सद्गति को प्राप्त करते है, उस सुख के आलय को मेरे ऊपर कृपा करके कहिए । श्रीकृष्ण उवाच - यदि पृच्छसि कौन्तेय सत्यं सत्यं वदाम्यहम् । लोकानान्तु हितार्थाय इह लोके परत्र च ॥ ४८॥ हे कुन्तीनन्दन ! यदि तुम पूछते हो तो मनुष्यों के इस लोक और परलोक में कल्याण के लिए मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । रामनाम सञ्जीवनी महामनोहर मूरि । जासु जीह जिय विच वसी तासु सुजल भलि भूरि ॥ रामनाम सदा पुण्यं नित्यं पठति यो नरः । अपुत्रो लभते पुत्रं सर्वकामफलप्रदम् ॥ ४९॥ सदा पुण्यप्रद श्रीरामनाम का जो नित्य पाठ करता है, वह यदि अपुत्र है तो वह समस्त कामनाओं के अनुरूप फल प्रदान करने वाले पुत्र को प्राप्त करता है । मङ्गलानि गृहे तस्य सर्वसौख्यानि भारत । अहोरात्रं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५०॥ जो दिन रात ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण करता है, हे भरतवंशी अर्जुन ! उसके घर में समस्त सुख और मङ्गल सदा निवास करते हैं । गङ्गा सरस्वती रेवा यमुना सिन्धु पुष्करे । केदारे तूदकं पीतं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५१॥ जिसने ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण किया उसने श्रीगङ्गा, श्रीसरस्वती, नर्मदा, पुष्कर और केदार में जल पी लिया । अतिथेः पोषणश्चैव सर्वतीर्थावगाहनम् । सर्वपुण्यं समाप्नोति रामनामप्रसादतः ॥ ५२॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से मनुष्य अतिथि सेवा और समस्त तीर्थों के अवगाहन जन्य पुण्यों को प्राप्त कर लेता है । सूर्य्यपर्वणि(*) कुरुक्षेत्रे कार्तिक्यां स्वामिदर्शने । कृपापात्रेण वै लब्धं येनोक्तमक्षरद्वयम् ॥ ५३॥ जिसने ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण किया, श्रीराम नाम के उस कृपापात्र को सूर्य ग्रहण के समय कुरुक्षेत्र में स्नान करने का तथा कार्तिक मास में श्रीस्वामी कार्तिकेय के दर्शन का पुण्य सहज में प्राप्त हो जाता है । *सूर्यग्रहे इत्येव सुवचम् । न गङ्गा न गया काशी नर्मदा चैव पुष्करम् । सदृशं रामनाम्नस्तु न भवन्ति कदाचन ॥ ५४॥ श्रीगङ्गाजी, गया, काशी, नर्मदा और पुष्कर आदि अनन्त पतितपावन तीर्थ भी अन्तःकरण की शुद्धि हेतु श्रीराम नाम की तुलना नहीं कर सकते हैं, अर्थात् श्रीरामनाम के जप से जितनी सहजता से अन्तःकरण पवित्र होता है अनन्त तीर्थों के अवगाहन से नहीं । तीर्थों के अर्थात् श्रीगङ्गाजी आदि के जल का कुछ दिनों तक निरन्तर सेवन करने से जो अन्तःकरण की शुद्धि प्राप्त होती है वह श्रीरामनाम के जप से तत्काल प्राप्त हो जाती है जैसा कि भागवतकार ने लिखा है- सद्यः पुनन्त्युपस्पृष्टाः स्वर्धुन्यापोऽनुसेवया । (भा । १ । १ । १५) येन दत्तं हुतं तप्तं सदा विष्णुः समर्चितः । जिह्वाग्रे वर्तते यस्य राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५५॥ जिसके जिह्वा के अग्रभाग में ``राम'' यह दो अक्षर विराजमान है उसने हर प्रकार के दान, हवन और तप का अनुष्ठान कर लिया और हमेशा हमेशा के लिए भगवान् विष्णु की अर्चना कर लिया । माघस्नानं कृतं तेन गयायां पिण्डपातनम् । सर्वकृत्यं कृतं तेन येनोक्तं रामनामकम् ॥ ५६॥ जिसने श्रीराम नाम का उच्चारण कर लिया उसने तीर्थराज श्रीप्रयाग में, माघ स्नान का श्रीगयाजी में पिण्डदान का तथा वेद, पुराण और संहिता में विहित समस्त शुभ कृत्यों के अनुष्ठान का फल सहज में प्राप्त कर लिया । चाहो चारों ओर दौर देखो गौर ज्ञान विना दीनता न छीन होय झीन अघ आग है । जहाँ तक साधन सुराधन विलोकिये जू बाधन उपाधन सहित नट बाग है ॥ तीरथ की आस सो तो नाहक उपास्य हेतु एक बार राम कहे कोटिन प्रयाग है । युगल अनन्य इत उत भ्रम श्रम दाम नाम के रटन बिनु छूटत न दाग है ॥ प्रायश्चित्तं कृतं तेन महापातकनाशनम् । तपस्तप्तं च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५७॥ जिसने ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने महापातकनाशक प्रायश्चित्त को कर लिया और सभी प्रकार के तप का अनुष्ठान कर लिया । चत्वारः पठिता वेदास्सर्वे यज्ञाश्च याजिताः । त्रिलोकी मोचिता तेन राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५८॥ जिसने ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने समस्त शाखा, अङ्ग और उपाङ्ग के सहित चारों वेदों का पाठ कर लिया और विधि सहित समस्त यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया तथा तीनों लोकों के जीवों को दुखजाल से छुड़ा दिया । भूतले सर्वतीर्थानि आसमुद्रसरांसि च । सेवितानि च येनोक्तं राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ५९॥ जिसने ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने ब्रह्माण्ड के सब तीर्थों, समुद्र पर्यन्त समस्त सरोवरों में स्नान, दान और सेवन कर लिया । अर्जुन उवाच - यदा म्लेच्छमयी पृथ्वी भविष्यति कलौ युगे । किं करिष्यति लोकोऽयं पतितो रौरवालये ॥ ६०॥ हे भगवन् ! जब यह पृथिवी सर्वथा म्लेच्छों से आक्रान्त हो जायेगी, सम्पूर्ण वातावरण रौरव नरक तुल्य हो जायेगा उस समय मनुष्य किस साधन के सहारे इस लोक में सुखी रहते हुए परम पद को प्राप्त करेगा ? श्रीकृष्ण उवाच - न सन्देहस्त्वया कार्य्यो न वक्तव्यं पुनः पुनः । पापी भवति धर्मात्मा रामनामप्रभावतः ॥ ६१॥ हे अर्जुन ! श्रीरामनाम के विषय में तुम्हें सन्देह नहीं करना चाहिए और न ही बार-बार कहना चाहिए चाहे जैसा भी पापी हो श्रीरामनाम के प्रताप से शुद्ध होकर पापी भी धर्मात्मा हो जाता है । न म्लेच्छस्पर्शनात्तस्य पापं भवति देहिनः । तस्मा मुच्यते जन्तुर्यस्स्मरेद्रामद्वयक्षरम् ॥ ६२॥ जो ``राम'' इन दो अक्षरों का स्मरण करेगा उनको म्लेच्छों के स्पर्श पाप नहीं लगेगा क्योङ्कि श्रीरामनाम के प्रभाव से म्लेच्छों के स्पर्श सम्बन्धी पाप से वे शीघ्र ही मुक्त हो जाते हैं । रामस्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः । कुलायुतं समुद्धृ त्यरामलोके महीयते ॥ ६३॥ जो श्रद्धाभक्तिपूर्वक श्रीरामजी के स्तोत्रों का पाठ करते हैं वे मनुष्य अपने कुल की दस हजार पीढ़ी का उद्धार करके श्रीसीतारामजी के दिव्य लोक साकेत में पूजित होते हैं । रामनामामृतं स्तोत्रं सायं प्रातः पठेन्नरः । गोघ्नः स्रीबालघाती च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ६४॥ जो इस श्री रामनामामृत स्तोत्रों का श्रद्धा, विश्वासपूर्वक प्रातः काल और सायङ्काल पाठ करता है वह गोहत्या, बालहत्या और स्त्रीहत्या जन्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है । तत्रैव श्रीअगस्त्यवाक्यं श्रीरामम्प्रति- उसी पद्म पुराण में श्रीअगस्त्यजी का वाक्य श्रीराम के प्रति- विश्वरूपस्य ते राम विश्वशब्दा हि वाचकाः । तथापि रामनामेदं प्रभो मुख्यतमं स्मृतम् ॥ ६५॥ हे रामजी ! सर्वस्वरूप आप सभी शब्दों के वाच्य हैं और दुनिया के सारे शब्द आपके वाचक हैं तथापि हे प्रभो ! यह श्रीरामनाम सभी नामों में अत्यन्त मुख्य कहा गया है । तत्रैव श्रीव्यासवाक्यं विप्रान्प्रति- उसी पद्मपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य विप्रों के प्रति- रामनामांशतो जाता ब्रह्माण्डाः कोटिकोटिशः । रामनाम्नि परे धाम्नि संस्थिता स्वामिभिस्सह ॥ ६६॥ अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड श्रीराम नाम के अंश से उत्पन्न होते हैं और सर्वोत्कृष्ट तेजःस्वरूप श्रीराम नाम में ही अपने स्वामियों के साथ स्थित हैं । विश्वासः सुदृढो नाम्नि कर्त्तव्यः साधकोत्तमैः । निश्चयेन परां सिद्धिं शीघ्रं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ ६७॥ सर्वोत्तम साधकों को चाहिए कि अन्य सभी साधनों से मन को खीञ्चकर श्रीरामनाम में विश्वास स्थापित करें । सुस्थिर विश्वासपूर्वक श्रीरामनाम का जप करने से अतिशीघ्र ही सर्वोत्कृष्ट सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं । चित्तस्यैकाग्रता विप्रा नाम्नि कार्या प्रयत्नतः । वृत्तिरोधं विना हार्दं दुर्लभं मुनीनामपि ॥ ६८॥ हे ब्राह्मणों ! चाहे जिस किसी प्रकार से हो श्रीरामनाम में चित्त की एकाग्रता करनी चाहिए । जब तक चित्त की वृत्तियों का निरोध नहीं होगा तब तक मुनियों को भी हृदयानन्द (परमानन्द) अत्यन्त दुर्लभ है । अहोभाग्यमहोभाग्यमहोभाग्यं पुनः पुनः । येषां श्रीमद्रघूत्तंसनाम्नि सञ्जायते रतिः ॥ ६९॥ वे लोग बहुत ही सौभाग्यशाली है बार-बार उनके सौभाग्य की बलिहारी है जिनकी श्रीरामनाम में रति है । जो सप्रेम श्रीरामनाम का जप करते हैं उनके समान सौभाग्यशाली कोई नहीं है । स्कन्दपुराणे शिववाक्यं शिवां प्रति- स्कन्दपुराण में भगवान् शिव का वाक्य श्रीपार्वतीजी के प्रति- कामात्क्रोधाद्धयान्मोहान्मत्सरादपि यस्स्मरेत् । परम्ब्रह्मात्मकं नाम राम इत्यक्षरद्वयम् ॥ ७०॥ परात्पर ब्रह्मस्वरूप श्रीरामनाम का जो काम सम्बन्ध से, क्रोध से, भय के कारण, मोह में आकर अथवा मात्सर्य से युक्त होकर भी स्मरण करता है वह निश्चय ही कृतार्थ हो जाता है येषां श्रीरामचिन्नाम्नि परा प्रीतिरचञ्चला । तेषां सर्वार्थलाभश्च सर्वदास्ति श‍ृणु प्रिये ॥ ७१॥ हे प्रिये ! सुनो जिन लोगों की सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीरामनाम में सुस्थिर परा प्रीति है उनके सभी मनोरथों की सिद्धि सर्वदा समझनी चाहिए । गिरिराजसुते धन्या नास्ति त्वत्सदृशी क्वचित् । यस्मात्तव महाप्रीतिर्वर्तते रामनाम्नि वै ॥ ७२॥ हे पर्वतराज पुत्रि पार्वति ! किसी भी लोक में तुम्हारे जैसा धन्य कोई नहीं है क्योङ्कि श्रीरामनाम में तुम्हारी निश्चय ही अत्यन्त प्रीति है । सर्वेऽवताराः श्रीरामनामशक्तिसमुद्भवाः । सत्यं वदामि देवेशि नाममाहात्म्यमद्भुतम् ॥ ७३॥ हे देवेशि ! जगत् उद्धार के लिए जितने अवतार पृथिवी पर होते हैं वे सारे अवतार श्रीरामनाम की अद्भूत शक्ति से प्रकट होते हैं श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है मैं सत्यकहता हूँ कि सभी अभिलाषाओं का त्याग करके कलियुग में श्रीरामनाम के उच्चारण से ही मोक्ष सम्भव है अन्य किसी उपाय से नहीं । ब्रह्माण्डपुराणे धर्मराजवाक्यं श्रीरामचन्द्रं प्रति- ब्रह्माण्डपुराण में श्रीधर्मराज का वाक्य श्रीरामचन्द्रजी के प्रति- जयस्व रघुनन्दन रामचन्द्र प्रपन्नदीनार्तिहराखिलेश । वाञ्छामहे नाम निरामयं सदा प्रदेहि भगवन् कृपया कृपालो ॥ ७४॥ हे रघुनन्दन ! हे अखिलेश ! शरणागत दीनों के आर्ति को हरण करने वाले हे रामचन्द्रजी ! हे परमकृपालु भगवन् ! हम सब आपसे श्रीरामनाम को चाहते हैं अतः निरामय श्रीरामनाम को प्रदान कीजिए तात्पर्य यह है बिना श्रीरामजी के दिये चित्त में श्रीरामनाम निवास नहीं करता है और न ही नाम जप में चित्त लगता है इसलिए श्रीरामजी से नाम महाराज को माँगना चाहिए । त्वन्नामसङ्कीर्त्तनतो निशाचरा द्रवन्ति भूतान्यपयान्ति चारयः । नाशं तथा सम्प्रति यान्ति राजन् ततः परं धाम प्रयाति साक्षात् ॥ ७५॥ हे महाराज श्रीरामचन्द्रजी ! आपके श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सारे निशाचर दूर भाग जाते हैं, सारे भूतप्रेत दूर चले जाते हैं और सारे शत्रु नष्ट हो जाते हैं । कीर्तन के पश्चात् साधक परमधाम को प्राप्त करता है सुखप्रदं रामपदं मनोहरं युगाक्षरं भीतिहरं शिवाकरम् । यशस्करं धर्मकरं गुणाकरं वचो वरं मे हृदयेऽस्तु सादरम् ॥ ७६॥ सुख प्रदान करने वाला, मन को हरने वाला, भय को हरण करने वाला, महामङ्गल करने वाला, महान् यश प्रदान करने वाला, धर्मप्रदाता, समस्त गुणों की खान, ``राम'' यह दो अक्षर आदरपूर्वक मेरे हृदय में निवास करे यह मुझे वर दीजिए । रामनामप्रभा दिव्या वेदवेदान्तपारगा । येषां स्वान्ते सदा भाति ते पूज्या भुवनत्रये ॥ ७७॥ वेद और वेदान्त का परम तत्व स्वरूप श्रीरामनाम की दिव्य प्रभा जिनके हृदय में सदा निवास करती है, वे लोग त्रिलोकी में सदा सर्वदा पूज्य हैं । विष्णुपुराणे व्यासवाक्यं शुकं प्रति- विष्णुपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य श्रीशुकदेवजी के प्रति- अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः । पुमान्विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्ता मृगा इव ॥ ७८॥ विवश होकर भी जिस श्रीरामनाम के कीर्तन करने पर मनुष्य समस्त पापों से तत्काल मुक्त हो जाता है उनके सम्पूर्ण पाप वैसे ही भाग जाते हैं जैसे सिंह के डर से मृग समूह भाग जाता है । ध्यायन्कृते यजन्यज्ञैस्त्रेतायां द्वापरेऽर्चयन् । यदाप्नेति तदाप्नोति कलौ श्रीरामकीर्त्तनात् ॥ ७९॥ सतयुग में ध्यान करने से, त्रेता में यज्ञ करने से, और द्वापर में भगवान् की पूजा करने से जो कुछ प्राप्त होता है कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से वह सब कुछ सहज में प्राप्त हो जाता है । तत्रैव श्रीसनत्कुमारवाक्यं वशिष्ठं प्रति- श्रीविष्णुपुराण में ही श्रीसनत्कुमार का वाक्य श्रीवशिष्ठजी के प्रति- प्रसङ्गेनापि श्रीरामनाम नित्यं वदन्ति ये । ते कृतार्था मुनिश्रेष्ठ सर्वदोषोद्गतास्सदा ॥ ८०॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! किसी प्रसङ्ग विशेष में भी जो नित्य श्रीराम नाम का उच्चारण करते हैं वे निश्चय ही कृतार्थ हैं सदा सर्वदा सभी दोषों से मुक्त हैं । दृष्टं श्रुतं मया सर्वं यत्किञ्चित्सारमुत्तमम् । परन्तु रामनामैकवैभवं तु परात्परम् ॥ ८१॥ जो कुछ भी सारतत्व है उत्तम से उत्तम वस्तु है उन सबको मैंने देख लिया और सुन लिया परन्तु सबसे श्रेष्ठ परात्पर तत्व श्रीरामनाम की अद्भुत महिमा है । तत्रैव श्रीविरञ्चिवाक्यं मरीचिं प्रति- श्रीविष्णुपुराण में ही श्री ब्रह्माजी का वाक्य श्रीमरीचिजी के प्रति- केचिद्यज्ञादिकं कर्म केचिज्ज्ञानादिसाधनम् । कुर्वन्ति नामविज्ञानविहीना मानवा भुवि ॥ ८२॥ परात्पर श्रीरामनाम के विज्ञान (अनुभव) से शून्य कुछ लोग पृथिवी पर यज्ञादि का अनुष्ठान करते हैं और कुछ लोग ज्ञानादि की साधना करते हैं । तत्र योगरताः केचित्केचिद्ध्यान विमोहिता । जपे केचित्तु क्लिश्यन्ति नैव जानन्ति तारकम् ॥ ८३॥ उनमें भी कुछ लोग योगाभ्यास में निरत हैं, कुछ लोग ध्यान में ही विमोहित हैं और कुछ लोग तान्त्रिक मन्त्रादि के जप में कष्ट भोग रहे हैं निश्चय ही वे लोग तारक मन्त्र श्रीरामनाम को नहीं जानते हैं इसलिए वे अभागी हैं । अहं च शङ्करो विष्णुस्तथा सर्वे दिवौकसः । रामनामप्रभावेण सम्प्राप्ता सिद्धिमुत्तमाम् ॥ ८४॥ मैं (ब्रह्मा), शङ्करजी, विष्णुजी तथा सभी देवगण श्रीरामनाम के प्रभाव से ही उत्तम सिद्धि को प्राप्त किये हैं । निर्वर्णं रामनामेदं वर्णानां कारणं परम् । ये स्मरन्ति सदा भक्त्या ते पूज्या भुवनत्रये ॥ ८५॥ यह श्रीरामनाम वर्णों से रहित है अर्द्धमात्रा रेफ बिन्दुरूप है और सभी वर्गों का परम कारण है ऐसे परमेश्वर स्वरूप श्रीरामनाम का जो भक्तिपूर्वक स्मरण करते हैं, वे लोग त्रिभुवन में सभी से सदा सर्वदा पूज्य हैं । भविष्योत्तरपुराणे श्रीनारायणवाक्यं महालक्ष्मीं प्रति- भविष्योत्तरपुराण में श्रीनारायणजी का वाक्य श्रीमहालक्ष्मी जी के प्रति- भजस्व कमले नित्यं नाम सर्वेशपूजितम् । रामेतिमधुरं साक्षान्मया सङ्कीर्त्यते हृदि ॥ ८६॥ हे महालक्ष्मि ! भगवान् सदाशिव से नित्य पूजित ``राम'' इस मधुर नाम का भजन करो! मैं स्वयं ही हृदय में श्रीराम नाम का सङ्कीर्तन करता रहता हूँ । रामनामात्मकं ग्रन्थं श्रवणात्प्राणवल्लभे । शुद्धान्तःकरणो भूत्वा स गच्छेद्रामसन्निधिम् ॥ ८७॥ हे प्राणप्रिये ! श्रीरामनाम के प्रतिपादक ग्रन्थों के श्रवण और पाठ करने से थोड़े ही दिनों में अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है तत्पश्चात् श्रीरामजी का नित्य सामीप्य प्राप्त होता है । जीवाः कलियुगे घोरा मत्पादविमुखास्सदा । भविष्यन्ति प्रिये सत्यं रामनामविनिन्दकाः ॥ ८८॥ हे प्रिये ! मैं सत्य कहता हूँ कि कलियुग में मेरे चरणों से विमुख और अत्यन्त नीच जो लोग होङ्गे वे व्यर्थ में मेरे भक्त कहाकर श्रीराम नाम की निन्दा करेङ्गे । गमिष्यन्ति दुराचारा निरये नात्र संशयः । कथं सुखं भवेद्देवि रामनामबहिर्मुखे ॥ ८९॥ ऐसे पापी दुराचारी अधम लोग अवश्य नरक कुण्ड में गिरेङ्गे इसमें संशय नहीं है । हे देवि! श्रीरामनाम से विमुख जीवों को सुख कैसे हो सकता है । सर्वेषां साधनानां वै श्रीनामोच्चारणं परम् । वदन्ति वेदमर्मज्ञा निमग्ना ज्ञानसागरे ॥ ९०॥ जो सदा सर्वदा ज्ञानसागर में निमग्न रहते हैं और जो वेद के रहस्यों को जानते हैं वे सन्त महापुरुष कहते हैं कि सभी साधनों से श्रेष्ठ श्रीरामनाम का उच्चारण अर्थात् सङ्कीर्तन है । यत्प्रभावान्मया नित्यं परमानन्ददायकम् । रूपं रसमयं दिव्यं दृष्टं श्रीजानकीपतेः ॥ ९१॥ जिस श्रीरामनाम के अद्भुत प्रभाव से मैंने नित्य परमानन्द प्रदान करने वाले दिव्य रसस्वरूप श्रीजानकीनाथजी के स्वरूप का साक्षात्कार किया । तत्रैव नारद वाक्यं भारद्वाजं प्रति- भविष्योत्तर पुराण में ही श्रीनारदजी का वाक्य महर्षि भारद्वाज के प्रति - योगादिसाधने क्लेशं दुस्तरं सर्वथा मुने । अतस्सौलभ्यसन्मार्गं सङ्गच्छेन्नाम संस्मरन् ॥ ९२॥ हे मुने ! योगादि अन्य साधन महादुस्तर और दुर्गम हैं उनके अनुष्ठान में सर्वथा कष्ट एवं श्रमाधिक्य है, अतः विवेकी पुरुष को श्रीरामनाम का स्मरण करते हुए सहज सुलभ सन्मार्ग पर चलना चाहिए । अनायासेन सर्वस्वं दुर्लभं मुनिसत्तम । प्रभावाद्रामनाम्नस्तु लभते रूपमद्भुतम् ॥ ९३॥ हे मुनिसत्तम ! श्रीरामनाम के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही दुर्लभ से दुर्लभ अपने सर्वस्व को साधक सहज में ही प्राप्त कर लेता है और श्रीरामनाम के प्रभाव से श्रीजानकीनाथ के परात्पर अद्भुत स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है । श्रीनारदीयपुराणे सूतवाक्यं शौनकं प्रति - श्रीनारदीयपुराण में सूतजी का वाक्य शौनक के प्रति - भयं भयानामपहारिणिस्थिते परात्परे नाम्नि प्रकाशसम्प्रदे । यस्मिन्स्मृते जन्मशतोद्भवान्यपि भयानि सर्वाण्यपयान्ति सर्वतः ॥ ९४॥ भयों के भय को भी दूर करने वाले, समस्त कल्याण प्रदान करने वाले परात्परस्वरूप श्रीरामनाम महाराज हैं जिनके स्मरण मात्र से सैकड़ों जन्मों के सभी भय सब प्रकार से दूर हो जाते हैं अत श्रीरामनाम के उपासक को चाहिए कि किसी से भी भय न करे और किसी से भी कुछ चाहे नहीं क्योङ्कि श्रीरामनाम सर्वत्र व्याप्त हैं नाम के बिना दूसरी आशा यम त्रास का कारण है । आयासः स्मरणे कोऽस्ति स्मृतो यच्छति शोभनम् । पापक्षयश्च भवति स्मरतां तदहर्निशम् ॥ ९५॥ श्रीरामनाम के स्मरण करने में कुछ श्रम भी नहीं है और स्मरण करने पर अनन्त कल्याण को प्राप्त करते हैं, जो दिन रात श्रीरामनाम का स्मरण करता है उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । प्रातर्निशि तथा सन्ध्यामध्याह्लादिषु संस्मरन् । श्रीमद्रामं समाप्नोति सद्यः पापक्षयो नरः ॥ ९६॥ प्रातःकाल, रात्रि में, सन्ध्या के समय एवं मध्याह्न काल में जो श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण करता है, तत्काल उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और वह श्रीरामजी को प्राप्त करता है । रामसंस्मरणाच्छीघ्रं समस्तक्लेशसङ्क्षयः । मुक्तिं प्रयाति विप्रेन्द्र तस्य विघ्नो न बाधते ॥ ९७॥ हे विप्रश्रेष्ठ ! श्रीरामनाम के सम्यक् स्मरण करने से समस्त क्लेशों का सम्यक् नाश हो जाता है, उसको मुक्ति की प्राप्ति होती है उसे किसी भी प्रकार के विघ्न बाधा उपस्थित नहीं होते । तत्रैव श्रीनारदवाक्यं व्यासं प्रति - श्रीनारदीयपुराण ही में नारदजी का वाक्य व्यासजी के प्रति - सर्वेषां साधनानां च सन्दृष्टं वैभवं मया । परन्तु नाममाहात्म्यकलां नार्हति षोडशीम् ॥ ९८॥ समस्त साधनों के ऐश्वर्य एवं महत्त्व को मैंने सम्यक् प्रकार से देख लिया है, परन्तु वे सब श्रीरामनाम के माहात्म्य की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है । श्रीरामनाम सर्वोपरि है श्रीरामनाम की अनन्त कलाएँ हैं, उनमें एक कला के तुल्य समस्त साधन, व्रत, तीर्थ, नेम, तप, यज्ञ, ज्ञान, वैराग्य और योगादि का सामर्थ्य है । दोहा ः राम रसायन पान करु परिहरु अपर भरोस । युगलानन्य विकार बन बीच न करु परितोस ॥ भवताऽपि परिज्ञातं सर्ववेदार्थसङ्ग्रहम् । नाम्नः परं क्वचित्तत्वं दृष्टं सत्यं वदस्व वै ॥ ९९॥ आपने भी समस्त वेदार्थ सङ्ग्रहों का परिज्ञान प्राप्त किया है, श्रीरामनाम से श्रेष्ठ किसी भी तत्व को कहीं भी यदि आपने देखा है तो सत्य सत्य कहिए! तात्पर्य यह है कि कहीं भी श्रीरामनाम से श्रेष्ठ तत्व नहीं है बहुधाऽपि मया पूर्वं कृतं यत्नं महामुने । नैव प्राप्तं परानन्दसागरं जन्मकोटिभिः ॥ १००॥ हे महामुने ! मैन्ने भी पहले अनेक प्रकार से प्रयत्न किया परन्तु परमानन्द सागर श्रीरामनाम के बिना करोड़ों जन्मों में भी कहीं भी परमानन्द की प्राप्ति नहीं हुई । यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु भावं वै परात्परम् । नाभ्यस्तं हृदये ब्रह्मन् तावन्नानार्थनिश्चयम् ॥ १०१॥ हे ब्रह्मन् ! जब तक श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव का अपने हृदय में अभ्यास नहीं किया तब तक अनेक साधनों के चक्र में पड़ा रहा । श्रीमद्रामस्य सन्नाम्नि यस्य स्यान्निश्चला रतिः । स्वप्नेऽपि न भवेदन्यसाधने रुचिर्निष्फला ॥ १०२॥ श्रीमान् श्रीरामजी के सन्नाम में जिस साधक की निश्चल रति हो जाती है उस साधक की अन्य साधनों में स्वप्न में भी निष्फल रूचि नहीं होती है । तात्पर्य यह है कि जिसका मन श्रीरामनाम में लग गया वह अन्य साधन में प्रवृत्त नहीं होता है । शिवपुराणे श्रीशङ्करवाक्यं नारदं प्रति- शिवपुराण में श्रीशङ्करजी का वाक्य नारदजी के प्रति- सीतया सहितं रामनाम जाप्यं प्रयत्नतः । इदमेव परं प्रेमकारणं संशयं विना ॥ १०३॥ श्रीसीताजी के दिव्य नाम से संयुक्त श्रीरामनाम का जप प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए, श्रीसीतारामनाम का जप ही बिना संशय के प्रेम का कारण है । सकृदुच्चारणादेव मुक्तिमायाति निश्चितम् । न जानेऽहं शतादीनां फलं वेदैरगोचरम् ॥ १०४॥ यह निश्चित है कि एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से ही मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है तब सैकड़ों बार श्रीरामनाम के जप का क्या फल है? यह मैं नहीं जानता, यह वेदों का भी अविषय है । यन्नाम सततं ध्यात्वाऽविनाशित्त्वं परं मुने । प्राप्तं नाम्नैव सत्यं च सुगोप्यं कथितं मया ॥ १०५॥ हे मुने ! जिस श्रीरामनाम का निरन्तर ध्यान करके उसी नाम महाराज की कृपा से मैंने अविनाशित्व को प्राप्त किया है, यह कथन सर्वथा सत्य एवं सुगोप्य है । मैंने आपको उत्तम अधिकारी जानकर श्रीरामनाम के प्रताप का रहस्य प्रकट किया है । श्रीरामनाम सकलेश्वरमादिदेवं धन्या जना भुवितले सततं स्मरन्ति । तेषां भवेत्परममुक्तिमयत्नतस्तथा श्रीरामभक्तिरचला विमला प्रसाददा ॥ १०६॥ श्रीरामनाम सभी का, समस्त ईश्वरों का भी ईश्वर है, आदिदेव है, पृथिवी तल पर वे लोग धन्य हैं जो निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं । उन साधकों को बिना श्रम के ही मुक्ति हो जाती है और श्रीरामजी की अविचल विमल एवं परम प्रसन्नता प्रदान करने वाली भक्ति प्राप्त हो जाती है रामनाम सदा सेव्यं जपरूपेण नारद । क्षणार्द्धं नामसंहीनं कालं कालातिदुखदम् ॥ १०७॥ हे नारद जी ! श्रीरामनाम की जपरूपीसेवा सदा करनी चाहिए । श्रीरामनाम से रहित जो समय व्यतीत होता है वह आधा क्षण भी महाकाल से भी अधिक दुःखदायी है तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम का विस्मरण ही नामानुरागियों के लिए मौत तुल्य है । श्रीमद्भागवते शुकदेववाक्यं परीक्षितम्प्रति- श्रीमद् भागवत में शुकदेव जी का वाक्य परीक्षितजी के प्रति- आपन्नः संसृतिं घोरां यन्नाम विवशो गृणन् । ततः सद्यो विमुच्येत यद् बिभेति स्वयं भयम् ॥ १०८॥ महाभयानक संसार दुःख से युक्त होने पर जिस श्रीरामनाम का विवश होकर उच्चारण करने पर भी जीव तत्काल ही उस क्लेश से मुक्त हो जाता है क्योङ्की श्रीरामनाम के भय से भय भी डरता है । कलिं सभाजयन्त्यार्या गुणज्ञाः सारभागिनः । यत्र सङ्कीर्त्तनेनैव सर्वस्वार्थोऽभिलभ्यते ॥ १०९॥ जो गुणी, सारग्राही एवं आर्यजन हैं वे लोग कलियुग की प्रशंसा करते हैं क्योङ्कि कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही सभी स्वार्थ की सिद्धि हो जाती है । अज्ञानादथवा ज्ञानादुत्तमश्लोकनाम यत् । सङ्कीर्त्तितमघं पुंसां दहत्येधो यथाऽनलः ॥ ११०॥ जानकर अथवा अनजान में चाहे जैसे भी उत्तम श्लोक भगवान् श्रीसीतारामजी के दिव्य नामों का सङ्कीर्तन मनुष्यों के पाप को उसी प्रकार जला कर भस्म कर देता है जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर भस्म कर देती है । ब्रह्महा पितृहा गोघ्नो मातृहाऽऽचार्यहाघवान् । श्वादः पुल्कसकोवाऽपि शुद्धेरन् यस्य कीर्त्तनात् ॥ १११॥ ब्रह्मघाती, पितृघाती, गोहिंसक, मातृघाती, गुरुघाती, पापी, कुत्ते का मांस खाने वाला चण्डाल और पुल्कसादि भी जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से पवित्र हो जाते हैं उस रामनाम का जप करो अन्य साधनों को छोड़कर । नातः परं कर्म निबन्धकृन्तनं मुमुक्षूणां तीर्थपदानुकीर्त्तनात् । न यत्पुनः कर्म सुसज्जते मनो रजस्तमोभ्यां कलिलं यदन्यथा ॥ ११२॥ मोक्षाभिलाषी लोगों के कर्मों के बन्धन को काटने वाला तीर्थ पाद श्रीसीतारामजी के श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के अतिरिक्त कोई साधन नहीं है । श्रीरामनाम के जप से जब मन निर्मल हो जाता है तो वह पुनः रजोगुण और तमोगुण से युक्त नहीं होता है और कर्म में आसक्त नहीं होता है । दूसरे साधनों से मन की निर्मलता स्थिर नहीं होती है कुछ समय तक शान्त रहेगा फिर रजोगुण और तमोगुण से युक्त हो जाता है । एवं व्रतः स्वप्रियनामकीर्त्या जातानुरागो द्रुतचित्त उच्चैः । हसत्यथो रोदिति रौति गायत्युन्मादवन्नृत्यति लोकबाह्यः ॥ ११३॥ इस प्रकार सङ्कल्पपूर्वक प्राणप्रिय श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से प्रेमलक्षणा भक्ति प्रकट होती है, तत्पश्चात् वह द्रवितचित्त साधक कभी-कभी जोर से हँसता है, कभी रोता है, कभी ऊँचे स्वर में गाता है, कभी उन्मादी की तरह नृत्य करता है उसकी सारी चेष्टाएं लोक व्यवहार से बाहर हो जाती है । यथागदं वीर्यतममुपयुक्तं यदृच्छया । अजानतोऽप्यात्मगुणं कुर्य्यान्मन्त्रोऽप्युदाहृतः ॥ ११४॥ जैसे सुधा विषादि शक्तिमान् औषध दैववश बिना जाने भक्षण करने पर भी अपना प्रभाव अवश्य दिखाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम बिना ज्ञान के भी जप करने पर संसार दुख मिटा देता है । मार्कण्डेय पुराणे श्रीव्यासवाक्यं स्वशिष्यान् प्रति- मार्कण्डेयपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य अपने शिष्यों के प्रति- धर्मानशेषसंशुद्धान्सेवन्ते ये द्विजोत्तमाः । तेभ्योऽनन्तगुणं प्रोक्तं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥ ११५॥ जो श्रेष्ठ ब्राह्मण समस्त शुद्ध धर्मों के सेवन से जो फल प्राप्त करते हैं उनसे अनन्त गुना अधिक पुण्य श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से प्राप्त होता है, अतः श्रीरामनाम सङ्कीर्तन सर्वश्रेष्ठ है । यस्यानुग्रहतो नित्यं परमानन्दसागरम् । रूपं श्रीरामचन्द्रस्य सुलभं भवति ध्रुवम् ॥ ११६॥ जिस श्रीरामनाम की कृपा से परमानन्द सागर श्रीसीतारामजी का स्वरूप साक्षात्कार निश्चित सुलभ हो जाता है और एक रस हृदय में बना रहता है । वेदानां सारसिद्धान्तं सर्वसौख्यैककारणम् । रामनाम परं ब्रह्म सर्वेषां प्रेमदायकम् ॥ ११७॥ समस्त वेदों का सार सिद्धान्तः समस्त सुखों का एकमात्र कारण, परब्रह्म स्वरूप और सभी को प्रेम प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है । तस्मात्सर्वात्मना रामनाम माङ्गल्यकारकम् । भजध्वं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहान् ॥ १८॥ इसलिए हे शिष्यों ! तुम लोग महामाङ्गल्य प्रदान करने वाले श्रीरामनाम को सभी दुराग्रहों को छोड़कर सावधान होकर सर्वात्मभाव से भजो । इसी में भलाई है श्रीरामनाम सम्बन्ध बिना जीव किसी रीति से भी कृतार्थ नहीं हो सकता है । नित्यं नैमित्तिकं सर्वं कृतं तेन महात्मना । येन ध्यातं परं प्राप्यं नाम निर्वाणदायकम् ॥ ११९॥ जिसने परम प्राप्य निर्वाणदायक श्रीरामनाम का चिन्तन कर लिया उस महात्मा ने नित्य, नैमित्तिक सभी प्रकार के कर्मों का अनुष्ठान कर लिया । उसके लिए कुछ भी करना शेष नहीं है । जिह्वा सुधामयी तस्य यस्य नामामृते रुचिः । कृतकृत्यस्स एव स्यात् सर्वदोषैकदाहकः ॥ १२०॥ जिस साधक की श्रीरामनामामृत जप में रूचि हो जाती है उसकी जिह्वा अमृतमयी हो जाती है और वह साधक कृतकृत्य हो जाता है उसके समस्त दोष जलकर भस्म हो जाते हैं । तत्रैव व्यासदेववाक्यं सूतं प्रति- उसी मार्कण्डेयपुराण में व्यासजी का वाक्य सूतजी के प्रति; रामनाम परं गुह्यं सर्ववेदान्त्वन्दितम् । ये रसज्ञा महात्मानस्ते जानन्ति परेश्वरम् ॥ १२१॥ श्रीरामनाम परम गुह्य है समस्त वेदान्तों से पूज्य है जो महात्मा श्रीरामनाम के रस को जानते हैं वे श्रीरामनाम के परेश्वर स्वरूप को जानते हैं । नामस्मरणनिष्ठानां निर्विकल्पैकचेतसाम् । किं दुर्लभं त्रिलोकेषु तेषां सत्यं वदाम्यहम् ॥ १२२॥ जिनकी श्रीरामनाम के स्मरण में अपार निष्ठा है, जो नाना प्रकार के सङ्कल्प विकल्पों से रहित हैं, जो एकाग्रचित हैं, उन महात्माओं के लिए त्रिलोकी में कुछ भी दुर्लभ नहीं है यह सत्य सत्य मैं कहता हूँ । अज्ञानप्रभवं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् । रामनामप्रभावेण विनाशो जायते ध्रुवम् ॥ १२३॥ जड़चेतनात्मक जो कुछ भी जगत् है वह सब अज्ञान से उत्पन्न हुआ है श्रीरामनाम का निरन्तर जप करने से अन्तःकरण शुद्ध हो जाता है उस समय उस महात्मा को सर्वत्र परिपूर्ण परब्रह्म श्रीरामजी का दर्शन होने लगता है सृष्टिगत नानात्व नष्ट हो जाता है । भजस्व सततं नाम जिह्वया श्रद्धया सह । स्वल्पकेनैव कालेन महामोदः प्रजायते ॥ १२४॥ इसलिए श्रद्धापूर्वक अपनी जिह्वा से निरन्तर श्रीरामनाम का भजन करो इससे थोड़े समय में ही महामोद की प्राप्ति होगी । धन्यं कुलवरं तस्य यस्मिन् श्रीरामतत्परः । जायते सत्यसङ्कल्पः पुत्रः श्रीशेशवल्लभः ॥ १२५॥ जिस कुल में श्रीरामनाम जप परायण, सत्यसङ्कल्प और श्रीविष्णु भगवान आदि के स्वामी श्रीसीतारामजी का प्रिय पुत्र उत्पन्न होता है । वह कुल धन्य एवं श्रेष्ठ है । गरुड़पुराणे श्रीविष्णुवाक्यं वैनतेयं प्रति - गरुड़पुराण में श्रीविष्णुजी का वाक्य गरुड़जी के प्रति - श्रीरामराम रामेति ये वदन्त्यपि पापिनः । पापकोटिसहस्रेभ्यस्तेषां सन्तरणं ध्रुवम् ॥ १२६॥ जो पापी भी श्रीराम, राम राम ऐसा उच्चारण करते हैं उन पापियों का भी करोड़ों पापों से उद्धार निश्चित है तात्पर्य है कि अनन्त जन्मों के अनन्त पापों से मनुष्य का उद्धार श्रीरामनाम महाराज की कृपा से हो सकता है लेकिन कुछ दिन तक निरन्तर सब आशा त्यागकर श्रीरामनाम का जप किया जाय तो । कलौ सङ्कीर्त्तनादेव सर्वपापं व्यपोहति । तस्माच्छ्रीरामनाम्नस्तु कार्यं सङ्कीर्त्तनं वरम् ॥ १२७॥ कलियुग में श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं इसलिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ साधन है श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही करना चाहिए । अग्निपुराणे श्रीमहादेववाक्यं दुर्वाससं प्रति - अग्निपुराण में श्रीमहादेवजी का वाक्य दुर्वासा के प्रति - न भयं यमदूतानां न भयं रौरवादिकम् । न भयं प्रेतराजस्य श्रीमन्नामानुकीर्त्तनात् ॥ १२८॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से यमदूतों का, रौरवादि नरकों का और यमराज का भय नहीं रहता है । यच्चापराह्ने पूर्वाह्ने मध्याह्ने च तथा निशि । कायेन मनसा वाचा कृतं पापं दुरात्मना ॥ १२९॥ परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं च यत् । रामनामजपाच्छीघ्रं विनष्टं भवति ध्रुवम् ॥ १३०॥ दुरात्मा पापी के द्वारा पूर्वाह्न, मध्याह्न और रात्रि में शरीर, मन और वाणी से जो पाप किया जाता है वह सम्पूर्ण पाप निश्चित ही परम ब्रह्म परम तेजोमय और परमपवित्र स्वरूप श्रीरामनाम के जप से विनष्ट हो जाता है । ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः स्त्रीशूद्राश्च तथान्त्यजाः । यत्र कुत्रानुकुवर्तु रामनामानुकीर्त्तनम् ॥ १३१॥ इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, स्त्री शुद्र तथा अन्त्यजों को शुचि अथवा अशुचि किसी भी अवस्था में सर्वत्र श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए । तत्रैव प्रह्लादवाक्यं बालकान् प्रति अनि पुराणे - उसी अग्निपुराण में प्रह्लादजी का वाक्य बालकों के प्रति - यत्प्रभावादहं साक्षात्तीर्णो घोरभयार्णवम् । अनायासेन बाल्येऽपि तस्माच्छ्रीनामकीर्त्तनम् ॥ १३२॥ हे दैत्य बालकों ! जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से बिना परिश्रम के ही बाल्यावस्था में ही मैंने अपने पिताजी के क्रोधरूपी अत्यन्त भयावह समुद्र को पार कर लिया है, अतः हम सभी को श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए । कर्त्तव्यं सावधानेन त्यक्त्वा सर्वदुराग्रहम् । साधनान्यं विहायाशु बुद्ध्वा वैरस्यमात्मनि ॥ १३३॥ अतः समस्त दुराग्रह का त्याग करके एवं अन्य सभी साधनों को रस शून्य जानकर सावधान होकर श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए । यद्भुञ्जन्यस्वपंस्तिष्ठन् गच्छन्वै जाग्रति स्थितौ । कृतवान्पापमद्याहं कायेन मनसा गिरा ॥ १३४॥ यत्स्वल्पमपि यत्स्थूलं कुयोनिनरकावहम् । तद्यातु प्रशमं सर्वं रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ १३५॥ आज मैंने शरीर, मन और वाणी से भोजन करते समय, बैठते-उठते, चलते-जागते, सोते एवं सकल व्यवहार करते समय जो पाप किया है जो थोड़ा अथवा बहुत हो, एवं शूकरादि योनि एवं महाघोर नरक प्रदान करने वाले जो पाप हैं वे समस्त पाप श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से नष्ट हो जावें । क्रियाकलापहीनो वा संयुतो वा विशेषतः । रामनामानिशं कुर्वन् कीर्त्तनं मुच्यते भयात् ॥ १३६॥ वेदोक्त समस्त क्रियाकलापों से जो शून्य हो अथवा युक्त हो वह निरन्तर श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से जन्ममरण रूप भय से मुक्त हो जाता है । यदिच्छेत्परमां प्रीतिं परमानन्ददायिनीम् । तदा श्रीरामभद्रस्य कार्यं नामानुकीर्तनम् ॥ १३७॥ यदि श्रीसीतारामजी की परमानन्ददायिनी परात्पर प्रीति को प्राप्त करना चाहते हो तो सभी आशाओं का त्याग करके श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो पराप्रीति का उदय हो जायेगा । ब्रह्म वैवर्त्तपुराणे शिववाक्यं नारदं प्रति - बह्मवैवर्तपुसण में श्रीशिवजी का वाक्य श्रीनारदजी के प्रति - हनन्ब्राह्मणमत्यन्तं कामतो वा सुरां पिबन् । रामनामेत्यहोरात्रं सङ्कीर्त्य शुचितामियात् ॥ १३८॥ जो अत्यन्त पापी हजारों ब्राह्मणों की हत्या करने वाला है अथवा स्वच्छन्द मदिरापान करने वाला है, वह नीच भी एक दिन रात निरन्तर श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से परम पवित्र हो जाता है । अपि विश्वासघाती च तथा ब्राह्मण निन्दकः । कीर्त्तयेद् रामनामानि न पापैः परिभूयते ॥ १३९॥ किसी की सहायता का वचन देकर सामर्थ्य होने पर भी न करना विश्वासघात है यह महापाप एवं ब्राह्मण की निन्दा करना भी महापाप है इत्यादि अनेक पापों को करने वाला भी यदि श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करे तो शीघ्र ही समस्त पापों से रहित हो जाता है । तत्रैव श्रीनारदवाक्यमम्बरीषं प्रति - उसी ब्रह्मवैवर्तपुराण में श्रीनारदजी का वाक्य अम्बरीष के प्रति - व्रजेंस्तिष्ठन्स्वपन्नश्नन्स्वसन्वाक्यप्रपूर्णके । रामनाम्नस्तु सङ्कीर्त्य भक्तियुक्त परंव्रजेत् ॥ १४०॥ जो चलते, बैठते, बोलते, खाते, पीते, सोते एवं वाक्य के अन्त में स्नेहपूर्वक श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह श्रीसीतारामजी के परम धाम को प्राप्त करता है । कदाचिन्नाम सङ्कीर्त्य भक्त्या वा भक्तिवर्जितः । दहते सर्व पापानि युगान्ताग्निरिवोत्थितः ॥ १४१॥ जो श्रीरामनाम का उच्चारण किसी भी समय भक्तिपूर्वक अथवा भक्ति से रहित ही करता है उसके जन्म जन्मान्तर के समस्त पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे महाप्रलय की अग्नि से समस्त सृष्टि का संहार हो जाता है । जन्मान्तर सहस्रैस्तु कोटि जन्मान्तरेषु यत् । रामनाम प्रभावेण पापं निर्याति तत्क्षणात् ॥ १४२॥ असङ्ख्य जन्मों में असङ्ख्य शरीरों के द्वारा किये जाने वाले जो असङ्ख्य पाप हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के प्रभाव से क्षणभर में भस्म हो जाते हैं । अभक्ष्यभक्षणात्पापमगम्यागमनाच्च यत् । नश्यते नात्र सन्देहो रामनाम जपान्नृप ॥ १४३॥ हे राजन् ! अभक्ष्य के भक्षण करने से एवं अगम्या स्त्री के साथ गमन करने का जो पाप लगता है वह पाप श्रीरामनाम के जप से नष्ट हो जाता है इसमें सन्देह नहीं है । अम्बरीष महाभाग श‍ृणुमद्ववचनं वरम् । सर्वोपद्रवनाशाय कुरु श्रीरामकीर्त्तनम् ॥ १४४॥ हे महाभाग अम्बरीष ! मेरे श्रेष्ठ वचन को सुनो, सभी प्रकार के उपद्रवों के नाश के लिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो । तावत्तिष्ठति देहेस्मिन्काल कल्मष सम्भवम् । श्रीनामकीर्त्तनं यावत्कुरुते मानवो नहि ॥ १४५॥ मनुष्य के शरीर में काल जन्य कल्मष तभी तक निवास करते हैं जब तक वह श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन नहीं करता है श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सभी पाप नष्ट हो जाते है । यस्यस्मृत्या च नामोक्त्या तपो यज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति सद्यो वन्दे तमच्युतम् ॥ १४६॥ जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का उच्चारण करने से तप, यज्ञ, क्रियादि में होने वाली न्यूनता तत्काल सम्पूर्णता को प्राप्त हो जाती है उन अच्युत भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ । आधयो व्याघयो यस्य स्मरणान्नामकीर्त्तनात् । शीघ्रं वैनाशमायान्ति तं वन्दे पुरुषोत्तमम् ॥ १४७॥ जिनके स्मरण करने से और जिनके नाम का सङ्कीर्तन करने से सभी प्रकार की मानसिक व्यथा एवं शारीरिक व्यथाएँ शीघ्र ही नष्ट हो जाती हैं उन पुरुषोत्तम भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ । श्रीरामेत्युक्तमात्रेण हेलया कुलवर्द्धन । पापौघं विलयं याति दत्तमश्रोत्रिये यथा ॥ १४८॥ हे कुलवर्द्धन ! अनादरपूर्वक श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से भी पापों का समूह उसी प्रकार नष्ट हो जाता है जिस प्रकार अश्रोत्रिय को दिया गया दान नष्ट हो जाता है । गवामयुतकोटीनां कन्यानामयुतायुतैः । तीर्थकोटि सहस्राणां फलं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥ १४९॥ अनन्त कोटि गोदान, अनन्तकोटि कन्यादान और अनन्तकोटि तीर्थों में स्नान करने का जो पुण्य प्राप्त होता है वह एक बार श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सहज में प्राप्त हो जाता है । रामनामेति सद्भक्त्या येन गीतं महात्मना । तेनैव च कृतं सर्वं कृत्यं वै संशयं विना ॥ १५०॥ जिस महात्मा ने श्रद्धाभक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का गान कर लिया, उसने ही समस्त कर्त्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर लिया, इसमें संशय नहीं है । वसन्ति यानि तीर्थानि पावनानि महीतले । तानि सर्वाणि नाम्नस्तुकलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ १५१॥ पृथ्वी पर पवित्र करने वाले जितने तीर्थ विद्यमान हैं वे सभी तीर्थ श्रीरामनाम की सोलहवीं कला के तुल्य भी नहीं है, अतः श्रीरामनाम सर्वश्रेष्ठ एवं पावनों को भी पावन बनाने वाला है । रामनाम समं चान्यत्साधनं प्रवदन्ति ये । ते चाण्डालसमास्सर्वे सदा रौरव वासिनः ॥ १५२॥ जो लोग दूसरे साधनों को श्रीरामनाम के समकक्ष कहते एवं समझते हैं वे लोग चाण्डाल के तुल्य हैं और सदा रौरव नरक में निवास करते हैं । रामनामाशयं दिव्यं ये जानन्ति समादरात् । ते कृतार्थाः कलौ राजन्सत्यंसत्यं वदाम्यहम् ॥ १५३॥ जो लोग श्रीरामनाम के दिव्य आशय को आदरपूर्वक जानते एवं स्वीकार करते हैं, हे राजन् ! कलियुग में वे ही लोग कृतार्थ हैं यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । दृष्टं नामात्मकं विश्वं मया विज्ञानचक्षुषा । वाङ्मनोगोचरातीतं निर्विकल्पं प्रमोददम् ॥ १५४॥ मैंने विज्ञानरूपी नेत्र से देख लिया है कि समस्त विश्व श्रीरामनामात्मक है श्रीरामनाम वाणी, मनबुद्धि आदि इन्द्रियों से सर्वथा परे हैं सभी कल्पनाओं से परे हैं और महाप्रमोद को प्रदान करने वाला है । ब्रह्मपुराणे श्रीब्रह्मवाक्यं नारदं प्रति - ब्रह्मपुराण में श्रीब्रह्माजी का वाक्य नारदजी के प्रति - इदमेव हि माङ्गल्यमिदमेव धनागमः । जीवितस्य फलञ्चैव रामनामानुकीर्त्तनम् ॥ १५५॥ श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही परम मङ्गलस्वरूप है सर्वश्रेष्ठ धन का आगम है और मानव जीवन का परम फल है । प्रमादादपि संस्पृष्टो यथाऽनलकणो दहेत् । तथौष्ठपुट संस्पृष्टं रामनामदहेदघम् ॥ १५६॥ जैसे प्रमाद से भी स्पर्श करने पर अग्निकण स्पर्श करने वाले को जलाता है वैसे ही श्रीरामनाम ओष्ठपुट और रसना से उच्चरित होने पर पाप को दग्ध कर देता है । हत्याऽयुतं पानसहस्रमुग्रं गुर्वङ्गनाकोटि निषेवनञ्च । स्तेनान्यसङ्ख्यानि च पातकानि श्रीरामनाम्ना निहतानि सद्यः ॥ १५७॥ दस हजार हत्या, हजारों प्रकार से भयङ्कर मद्यपान, गुरुपत्नी के साथ करोड़ों बार गमन और असङ्ख्य बार सुवर्णादि की चोरी करने से होने वाले जो पाप हैं वे सब श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से तत्काल नष्ट हो जाते हैं । निर्विकारं निरालम्बं निर्वैरञ्च निरञ्जनम् । भज श्रीरामनामेदं सर्वेश्वर प्रकाशकम् ॥ १५८॥ हे नारद ! श्रीरामनाम जन्मादि विकारों से रहित हैं, श्रीरामनाममहाराज जीव को कृतार्थ करने के लिए किसी अन्य साधन का अवलम्ब नहीं लेते हैं, श्रीरामनाम का किसी से वैर नहीं है, श्रीरामनाम मायादि अञ्जनों से रहित हैं, श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं श्रीसीतारामजी के परात्परेश्वरस्वरूप को साक्षात् नामानुरागी के भीतर बाहर प्रकाशित कर देते हैं अतः तुम इस श्रीरामनाम का भजन करो । श्रुत्वा श्रीरामनाम्नस्तु प्रभावं वै परात्परम् । सत्यं यो नाभिजानाति द्रष्टव्यं तन्मुखं नहि ॥ १५९॥ श्रीरामनाम के परात्पर प्रभाव को सुनकर भी जो उसे सत्य नहीं समझता है उसके मुख को नहीं देखना चाहिए । विज्ञानं परमं गुह्यमिदमेव महामुने । बाह्यं वाऽभ्यन्तरं नाम सततं चिन्तनं वरम् ॥ १६०॥ हे महामुने ! नारदजी ! सर्वोत्कृष्ट विज्ञान एवं परम गोपनीय यही है कि भीतर बाहर से निरन्तर श्रीरामनाम का जप करना यही श्रेष्ठ चिन्तन है । कूर्म पुराणे श्रीशङ्करवाक्यं शिवां प्रति - कूर्मपुराण में श्रीशङ्करजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति - गोप्याद्गोप्यतमं भद्रे सर्वस्वं जीवनं मम । श्रीरामनाम सर्वेशमद्भुतं भुक्ति मुक्तिदम् ॥ १६१॥ हे कल्याणि ! गोप्य से भी अत्यन्त गोपनीय मेरे जीवन सर्वस्व श्रीरामनाम हैं, श्रीरामनाम सर्वेश्वर एवं आश्चर्यमय भोग एवं मुक्ति प्रदान करने वाले हैं । जपस्व सततं रामनाम सर्वेश्वर प्रियम् । नियामकानां सर्वेषां कारणं प्रेरकं परम् ॥ १६२॥ हे प्रिये ! तुम निरन्तर श्रीरामनाम का जप करो क्योङ्कि श्रीरामनाम सभी ईश्वरों को भी प्रिय हैं समस्त नियामकों का परम कारण एवं सर्वश्रेष्ठ प्रेरक है । रामनामैव सद्विद्ये सत्यं वच्मि वरानने । समाहितेन मनसा कीर्त्तनीयस्सदा बुधैः ॥ १६३॥ हे सुमुखि ! हे ब्रह्म विद्यास्वरूपिणि पार्वति ! मैं सत्य-सत्य कहता हूँ कि विद्वानों को सदा सावधानचित्त होकर श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए । रामनामात्मकं तत्त्वं सतां जीवनमुत्तमम् । निन्दितस्सर्वलोकेषु रामनाम बहिर्मुखः ॥ १६४॥ श्रीरामनाम सभी सन्तों का जीवन है जो श्रीराम से बहिर्मुख है वह सभी लोकों में निन्दित है । लौकिकी वैदिकी या या क्रिया सर्वार्थसाधिका । ताभ्य कोट्यर्बुदगुणं श्रेष्ठं श्रीनामकीर्त्तनम् ॥ १६५॥ सभी अर्थों को सिद्ध करने वाली लौकिक या वैदिक जितनी क्रियाएँ हैं उन समस्त क्रियाओं से कई श्रेष्ठ श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है । धिक्कृतं तमहं मन्ये सततं प्राणवल्लभे । यज्जिह्वाग्रे न श्रीरामनाम संराजते सदा ॥ १६६॥ हे प्राण वल्लभे ! मैं उसे सतत धिक्कार के योग्य मानता हूँ जिसकी जिह्वा पर सदा श्रीरामनाम विराजमान न हो अर्थात् जो सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन नहीं करता है उसे धिक्कार है । वामनपुराणे श्रीवामन वाक्यं मुनीन्प्रति - वामनपुराण में श्रीवामनजी का वाक्य मुनियों के प्रति - अघौघा वज्रपाताद्या ह्यन्ये दुर्नीत सम्भवः । स्मरणाद्रामभद्रस्य सद्यो याति क्षयं क्षणात् ॥ १६७॥ पापों का समूह, वज्रपातादि दोष तथा दूसरे दुष्टनीतियों से समुत्पन्न दुर्भिक्षादि जितने दोष हैं वे सब श्रीरामनाम के स्मरण से तत्काल नष्ट हो जाते हैं । श‍ृण्वन्ति ये भक्तिपरा मनुष्याः सङ्कीर्त्यमानं भगवन्तमुग्रम् । ते मुक्तपापाः सुखिनो भवन्ति यथाऽमृतप्राशनतर्पितास्तु ॥ १६८॥ भक्तिपरायण जो मनुष्य भगवान् के श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन एवं भगवान् के गुण कीर्तन को सुनते है वे समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं और उसी प्रकार सुखी हो जाते हैं जिस प्रकार अमृतपान करने से प्राण तृप्त हो जाते हैं । परदाररतो वाऽपि परापकृतकारकः । स शुद्धो मुक्तिमायाति रामनामानुकीर्तनात् ॥ १६९॥ जो परस्त्री भोगरत है अथवा जो दूसरे का अपकार करता है वह पापी भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से शुद्ध होकर मुक्ति को प्राप्त करता है । अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा । यस्स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः ॥ १७०॥ अपवित्र हो या पवित्र हो अथवा किसी भी अवस्था में हो जो श्रीराम राजीव लोचन के नाम का स्मरण करता है वह भीतर बाहर सभी प्रकार से पवित्र हो जाता है । मत्स्य पुराणे - मत्स्यपुराण में - सर्वेषां राममन्त्राणां श्रेष्ठं श्रीतारकं परम् । षडक्षरमनुंसाक्षात्तथा युग्माक्षरं वरम् ॥ १७१॥ समस्त श्रीराममन्त्रों में तारक मन्त्र (बीजयुक्त षडक्षरमन्त्र) श्रेष्ठ है एवं श्रीरामनाम श्रेष्ठ है दोनों में भेद नहीं है । येन ध्यातं श्रुतं गीतं रामनामेष्टदं महत् । कृतं तेनैव सत्कृत्यं वेदोदितमखण्डितम् ॥ १७२॥ समस्त अभिलषित वस्तुओं को प्रदान करने वाले श्रीरामनाम का जिसने ध्यान श्रवण और गायन किया, उसने वेद में कहे गये सत्कृत्यों का अखण्ड अनुष्ठान कर लिया । ध्येयं ज्ञेयं परं पेयं रामनामाक्षरं मुने । सर्वसिद्धान्तसारेदं सौख्यं सौभाग्य कारणम् ॥ १७३॥ हे मुनिराज ! सभी सिद्धान्तों का सार, सुख और सौभाग्य का परम कारण अविनाशी श्रीरामनाम ही चिन्तन के योग्य, जानने योग्य एवं अत्यन्त पेय हैं । अतः निरन्तर श्रीरामनाम का ही पान करना चाहिए । नामैव परमं ज्ञानं ध्यानं योगं तथा रतिम् । विज्ञानं परमं गुह्यं रामनामैव केवलम् ॥ १७४॥ श्रीरामनाम ही सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, ध्यान, योग तथा प्रेम है केवल श्रीरामनाम ही विज्ञान एवं अत्यन्त गुह्य है । नाम स्मरण निष्ठानां नामस्मृत्या महाघवान् । मुच्यते सर्वपापेभ्यो वाञ्छितार्थं च विन्दति ॥ १७५॥ श्रीरामनाम के स्मरण कीर्तन में जिनकी अपार निष्ठा है ऐसे नामनिष्ठ भक्तों के नाम का स्मरण करने से महापापी भी समस्त पापों से मुक्त होकर मनचाही वस्तु को प्राप्त कर लेता है । वाराहपुराणे श्रीशिववाक्यं शिवाम्प्रति - वाराहपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति - दैवाच्छूकरशावकेन निहतो म्लेच्छो जराजर्जरो- हारामेण हतोऽस्मि भूमिपतितो जल्पंस्तनुं त्यक्तवान् । तीर्णोगोष्पदवद्भवार्णवमहो नाम्नः प्रभावादहोकिं चित्रं यदि रामनाम रसिकास्ते यान्ति रामास्पदम् ॥ १७६॥ दैवयोग से एक म्लेच्छ (यवन) जो कि बुढ़ापे से जर्जर था, उसे एक शूकर के बच्चे ने मारा, ``हाराम (हराम -शूकर) ने मुझे मारा एवं हा ! राम ने मुझे मारा'' ऐसा कहता हुआ वह भूमि पर गिर पड़ा और शरीर हे छोड़ दिया । वह गौ के खुर के समान भवसागर को तर गया । अहो ! श्रीरामनाम का प्रभाव आश्चर्यमय है । यदि श्रीरामनाम के प्रेमी श्रीरामजी के धाम को जाते हैं तो इसमें कौन आश्चर्य है । ध्येयं नित्यमनन्य प्रेमरसिकैः पेयं तथा सादरं- ज्ञेयं ज्ञानरतात्मभिश्च सुजनैः सम्यक् क्रियाशान्तये । श्रीमद्रामपरेश नाम सुभगं सर्वाधिपं शर्मदं- सर्वेषां सुहृदं सुरासुरनुतं ह्यानन्दकन्दं परम् ॥ १७७॥ अनन्यनामानुरागियों के द्वारा नित्य ध्यान के योग्य, तथा परम प्रेमी रसिकों के द्वारा सादर पान करने योग्य, क्रिया की सम्यक् शान्ति के लिए ज्ञान, सुजनों के द्वारा जानने योग्य श्रीरामनाम ही हैं । श्रीरामनाम सुन्दर सबके स्वामी, कल्याण प्रदान करने वाला, सभी के अकारण हितैषी, सुर और असुर सभी से संस्तुत एवं परम आनन्दकन्द हैं ऐसा विचार करके सदा सर्वदा श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । निरपेक्षं सदा स्वच्छं सर्वसम्पत्ति साधकम् । भजध्वं रामनामेदं महामाङ्गलिकं परम् ॥ १७८॥ श्रीरामनाम महाराज पत्र, पुष्प, फल, शुद्धता आदि अपेक्षाओं से सर्वथा रहित अर्थात् निरपेक्ष हैं । सदा सर्वदा स्वच्छ निर्मल हैं, सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्रदान करने वाले हैं और अतिशय महामङ्गलरूप हैं अतः आप सभी को इस श्रीरामनाम का भजन करना चाहिए । करुणावारिधिं नाम ह्यपराधनिवारकम् । तस्मिन्प्रीतिर्न येषां वै ते महापापिनो नराः ॥ १७९॥ श्रीरामनाम महाकरुणा के सागर एवं समस्त अपराधों को दूर करने वाले हैं ऐसे श्रीरामनाम में जिन लोगों की सच्ची प्रीति नहीं है । वे लोग निश्चय ही महापापी हैं । लिङ्गपुराणे सूतवाक्यं शौनकं प्रति - लिङ्गपुराण में सूतजी का वाक्य शौनकजी के प्रति - रामनामानिशं भक्त्या प्रजप्तव्यं प्रयत्नतः । नातः परतरोपायो दृश्यते श्रूयते मुने ॥ १८०॥ हे मुनिराज ! श्रीरामनाम का भक्तिपूर्वक एवं संयमपूर्वक दिनरात जप करना चाहिए । आत्मकल्याण के लिए श्रीरामनाम से बढ़कर कोई दूसरा उपाय न दिखायी देता है और न सुना जाता है । तत्रैव श्रीमहादेव वाक्यं पार्वतीं प्रति - लिङ्गपुराण में ही श्रीशङ्करजी का वाक्य श्रीपार्वतीजी के प्रति - वृथाऽऽलापंवदन्न्रीडा येषां नायाति सत्वरम् । हित्वा श्रीरामनामेदं ते नराः पशवः स्मृताः ॥ १८१॥ श्रीरामनाम को छोड़कर व्यर्थ वार्तालाप करने में जिनको शीघ्र ही लज्जा नहीं आती है वे मनुष्य पशु कहे जाते हैं । न जाने किं फलं ब्रह्मन् जायते नामकीर्त्तनात् । जानाति तच्छिवः साक्षाद्रामानुग्रहतो मुने ॥ १८२॥ हे ब्रह्मन् ! श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से कौन सा फल प्राप्त होता है हे मुनि श्रेष्ठ ! उसको श्रीरामजी की कृपा से साक्षात् शिवजी ही जानते हैं । अहो नामामृतालापी जनः सर्वार्थसाधकः । धन्याद्धन्यतमोनित्यं सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ १८३॥ आश्चर्य है श्रीरामनामरूपी अमृत का जप करने वाले (पान करने वाले ) साधक सभी प्रकार के पुरुषार्थों को सिद्ध कर लेते हैं वे सभी धन्यों में नित्य अतिशय धन्य हैं यह बात मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ । रामनाम्ना जगत्सर्वं भासितं सर्वदा द्विज । प्रभावं परतमं तस्य वचनागोचरं मुने ॥ १८४॥ हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण जगत् श्रीरामनाम से ही सदा सर्वदा प्रकाशित हैं । हे मुने! उस श्रीरामनाम का सर्वोत्कृष्ट प्रभाव वाणी से सर्वथा परे है । अलं योगादिसङ्क्लेशैर्ज्ञानविज्ञानसाधनैः । वर्त्तमाने दयासिन्धौ रामनामेश्वरे मुने ॥ १८५॥ मुने ! दयासिन्धु सर्वेश्वर श्रीरामनाम के विद्यमान होने पर योगादि में क्लेश उठाने से क्या लाभ? एवं ज्ञानविज्ञान के साधक विभिन्न साधनों से क्या प्रयोजन? अर्थात् योगादि एवं ज्ञान विज्ञान के विभिन्न साधनों का त्याग करके एकमात्र परमदयालु श्रीरामनाम का आश्रय लो । उसी से सभी प्रकार के अभीष्टों की सिद्धि हो जायेगी । रामात्परतरं नास्ति सर्वेश्वरमनामयम् । तस्मात्तन्नाम संलापे यत्नं कुरु मम प्रिये ॥ १८६॥ हे मेरी प्राणवल्लभे पार्वति ! श्रीरामनाम से परे सर्वेश्वर, निरामय, अशोक कोई दूसरा तत्व नहीं है इसलिए श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने का प्रयास करो । चाण्डालादिकजन्तूनामधिकारोऽस्ति वल्लभे । श्रीरामनाम मन्त्रेऽस्मिन् सत्यं सत्यं सदा शिवे ॥ १८७॥ हे प्राणवल्लभे पार्वति ! इस श्रीरामनाम महामन्त्र के जप में ब्रह्मा से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सभी जीवों का अधिकार है यह बात मैं सदा सत्य-सत्य कहता हूँ । यत्प्रभावलवकांशतः शिवे शिवपदं सुभगं यदवाप्तम् । तद्रतिं विरहिता किल जीवा यान्ति कष्टमतुलं यम सादनम् ॥ १८८॥ हे पार्वति ! मैंने जिस श्रीरामनाम के लवांश मात्र प्रभाव से सुन्दर अमर शिवपद प्राप्त किया है । ऐसे श्रीरामनाम में जिनकी प्रीति नहीं है वे लोग अतुलकष्टप्रद यमसदन नरकादि में अवश्य जायेङ्गे साकारादगुणाच्चापि रामनाम परं प्रिये । गोप्याद्गोप्यतमं वस्तु कृपया सम्प्रकाशितम् ॥ १८९॥ हे प्रिये पार्वति ! साकार-निराकार सगुण-निर्गुण दोनों से सर्वोत्कृष्ट वस्तु श्रीरामनाम है यह गोपनीय से भी अत्यन्त गोपनीय है यह मैंने कृपा करके तुम्हारे समक्ष प्रकाशित किया है । स्मर्तव्यं तत्सदा रामनाम निर्वाणदायकम् । क्षणार्द्धमपि विस्मृत्य याति दुःखालयं जनः ॥ १९०॥ इसलिए मोक्षप्रदायक श्रीरामनाम का सदा सर्वदा स्मरण करना चाहिए आधे क्षण के लिए भी श्रीरामनाम का विस्मरण करने वाला मनुष्य दुःख सागर में डूब जाता है अतः श्रीरामनाम का सतत स्मरण करना चाहिए । विष्णुपुराणे व्यासवाक्यं - विष्णुपुराण में श्रीव्यासजी का वाक्य - विष्णोरेकैक नामापि सर्ववेदाधिकं मतम् । तादृम्नाम सहस्रेण रामनाम सतां मतम् ॥ १९१॥ भगवान् विष्णु का प्रत्येक नाम समस्त वेदों से श्रेष्ठ है और भगवान् विष्णु के सहस्रों नामों से भी अत्यधिक पुण्य एवं फलप्रद श्रीरामनाम है यह सन्तों को अभिमत है । श्रीरामेति परम्नाम रामस्यैव सनातनम् । सहस्रनाम सादृश्यं विष्णोर्नारायणस्य च ॥ १९२॥ भगवान् श्रीराम का सनातन एवं सर्वोत्कृष्ट नाम श्रीरामनाम है भगवान विष्णु और नारायण के सहस्र नामों के तुल्य श्रीरामनाम है । रामनाम्नः परं किञ्चित्तत्त्वं वेदे स्मृतिष्वपि । संहितासु पुराणेषु नैव तन्त्रेषु विद्यते ॥ १९३॥ श्रीरामनाम से बढ़कर कोई भी तत्व वेदों में, स्मृतियों मे, संहिताओं में, पुराणों में और तन्त्रों में नहीं है । नाम्नो रामस्य ये तत्त्वं परं प्राहुः कुबुद्धयः । राक्षसांस्तान्विजानीयाद्ब्रजेयुर्नरकन्ध्रुवम् ॥ १९४॥ जो लोग श्रीरामनाम से बढ़कर किसी दूसरे को तत्त्व कहते हैं वे लोग कुबुद्धि हैं उन लोगों को राक्षस समझना चाहिए वे लोग निश्चित ही नरक में जायेङ्गे । सा जिह्वा रघुनाथस्य नामकीर्त्तनमादरात् । करोति विपरीता या फणिनो रसना समा ॥ १९५॥ श्रीरामजी के श्रीरामनाम का जो आदरपूर्वक कीर्तन करती है वही जिह्वा है इसके विपरीत जो श्रीरामनाम का कीर्तन न करके दुनियादारी के बातचीत में लगी रहती है वे सर्प की जिह्वा के समान हैं । रामेति नाम यच्छ्रोत्रे विश्रम्भाज्जपितो यदि । करोति पापसन्दाहं तूलवह्निकणो यथा ॥ १९६॥ जिस किसी के भी कान में ``श्रीराम'' इस नाम का विश्वासपूर्वक जप किया गया उसके समस्त पापों का उसी प्रकार दाह हो जाता है जिस प्रकार अग्नि के कण से रुई समूह का दाह हो जाता है । तावद् गर्जन्ति पापानि ब्रह्महत्याशतानि च । यावद्रामं रसनया न गृह्णातीति दुर्मति ॥ १९७॥ तभी तक सभी पाप गरजते हैं और तभी तक सैकड़ों ब्रह्म हत्याएँ विद्यमान रहती हैं जब तक दुष्टबुद्धि मनुष्य अपनी जिह्वा से श्रीरामनाम का ग्रहण नहीं करता है । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते अष्टादशपुराणप्रमाणनिरूपणनाम प्रथमः प्रमोदः ॥ १॥ श्रीयुगलानन्यशरणजी के द्वारा सङ्गृहीत प्रमोदनिधि परात्पर ऐश्वर्य प्रदायक श्रीसीतारामनाम प्रताप प्रकाश में अष्टादशपुराण प्रमाण निरूपणनामकः प्रथमः प्रमोदः समाप्तः ।

अथ द्वितीयः प्रमोदः

उपपुराण वचनानि - वायुपुराणे श्रीशिववाक्यं नारदं प्रति - वायुपुराण में श्रीशिवजी का वाक्य नारदजी के प्रति - महतस्तपसोमूलं प्रसवः पुण्य सन्ततेः । जीवितस्य फलस्वादु सदा श्रीरामकीर्त्तनम् ॥ १९८॥ बड़ी से बड़ी तपस्या का मूल, समस्त पुण्यरूपी सन्तान का उत्पत्ति स्थान एवं मानव जीवनरूपी वृक्ष का सुस्वादु फल श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन है तात्पर्य है कि श्रीरामनामसङ्कीर्तन के बिना शेष साधन श्रममात्र है । श्रीरामनाम सामथ्र्यं वैभवं शौर्यविक्रमम् । न वक्तुं कोपि शक्नोति सत्यं सत्यं च नारद ॥ १९९॥ हे नारदजी ! श्रीरामनाम के सामर्थ्य, वैभव, शौर्य एवं पराक्रम का वर्णन कोई भी नहीं कर सकता है यह सत्य है सत्य है । सततं राम रामेति यस्तु कीर्त्तयते सदा । गुरुतल्पशतेनापि सद्य एव प्रमुच्यते ॥ २००॥ जो निरन्तर राम राम ऐसा सङ्कीर्तन करता रहता है वह मनुष्य सैङ्कड़ों बार गुरु पत्नी के साथ गमन जन्य पापों से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है । यातना यमलोकेषु तावदेव भवेन्नृणाम् । यावन्न भजतेप्रीत्या रामनामपरात्परम् ॥ २०१॥ मनुष्यों को तभी तक यमलोक में यातना सहन करनी पड़ती है । जब तक वह प्रीतिपूर्वक परात्पर श्रीरामनाम का जप नहीं करता है । सर्वेषामवताराणां कारणं परमाद्भुतम् । श्रीमद्रामेतिनामैव कथ्यते सद्भिरन्वहम् ॥ २०२॥ सभी अवतारों का परम अद्भुत कारण श्रीरामनाम ही है ऐसा सभी सन्त निरन्तर कहते हैं । यत्र यत्र समुद्धारो दृश्यते श्रूयतेऽथवा । तत्सर्वं रामनाम्नैव सत्यं सत्यं वचो मम ॥ २०३॥ जहाँ कहीं भी पापियों का उद्धार देखा या सुना जाता है वह सब श्रीरामनाम की कृपा से ही हुआ है यह मेरा वचन सत्य है सत्य है । रामनामात्मिकावाणी श्रोतव्या सर्वदा बुधैः । त्यक्त्वा नानार्थवच्छब्दान्वादविभ्रान्न्तिमण्डितान् ॥ २०४॥ अनेक प्रकार के अर्थ वाले शब्दों, वादविवादों, भ्रमयुक्त वाक्यों को छोड़ कर विद्वानों को सदा सर्वदा श्रीरामनाम का श्रवण करना चाहिए । नृसिंहपुराणे - नरसिंहपुराण में - रामरामेति रामेति सततं संस्मरन्ति ये । त एव वल्लभास्माकमीश्वराणां च नारद ॥ २०५॥ हे नारद ! राम, राम, राम इस प्रकार जो निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं वे ही हमारे प्रिय हैं और सभी ईश्वरों के भी प्रिय हैं । सर्वासां चित्तवृत्तीनां निरोधो जायते ध्रुवम् । रामनाम प्रभावेण जप्तव्यं सावधानतः ॥ २०६॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से सभी चित्तवृत्तियों का निश्चित ही निरोध हो जाता है अतः सावधान होकर श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । नरका ये नरा नीचा जीवन्तोऽपि मृतोपमाः । तेषामपि भवेन्मुक्ती रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ २०७॥ जो लोग नारकी हैं, नीच हैं और जीते हुए भी मृतक तुल्य हैं उन लोगों की भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से मुक्ति हो जाती है । तत्रैव श्रीप्रह्लादवाक्यं पितरं प्रति - वहीं श्रीप्रह्लादजी का वाक्य अपने पिताजी के प्रति - रामनामजपतां कुतो भयं सर्वतापशमनैकभेषजम् । पश्यतात मम गात्र सङ्गतःपावकोऽपिसलिलायतेऽधुना ॥ २०८॥ हे तात ! श्रीरामनाम के जप करने वालों को कहीं भी किसी से भय नहीं होता है समस्त तापों एवं रोगों के नाश करने के लिए एकमात्र औषधि श्रीरामनाम है । हे तात ! देखिए मेरे शरीर के सम्पर्क से इस समय अग्नि भी जल जैसे शीतल हो गया है । रामनाम प्रभावेण मुच्यते सर्वबन्धनात् । तस्मात्त्वमपि दैत्येश तस्यैव शरणं ब्रज ॥ २०९॥ हे दैत्ये ! श्रीरामनाम के प्रभाव से जीव समस्त बन्धनों से सहज में मुक्त हो जाता है इसलिए हे राक्षसराज ! आप भी श्रीरामनाम की शरण में जाएँ । तत्रैव श्रीनारदवाक्यं याज्ञवल्क्यं प्रति - वहीं श्रीनारदजी का वाक्य याज्ञवल्क्य के प्रति - श्रीरामेति जपन्जन्तुः प्रत्यहं नियतेन्द्रियः । सर्वपाप विनिर्मुक्तः सुरवद्भासते नरः ॥ २१०॥ अपनी इन्द्रियों को वश में करके प्रतिदिन ``श्रीराम'' इस प्रकार जप करने वाला साधक शीघ्र ही समस्त पापों से मुक्त होकर देवताओं की तरह प्रकाशित होने लगता है । सौभाग्यं सर्वदा स्वच्छं सरसानन्दमद्भुतम् । अवश्यं लभते भक्त्या रामनामानुकीर्तनात् ॥ २११॥ भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने से सर्वदा स्वच्छ सौभाग्य एवं अद्भुत सरस आनन्द अवश्य प्राप्त होता है । रामनामरतानारी सुतं सौभाग्यमीप्सितम् । भर्तुः प्रियत्वं लभते न वैधव्यं कदाचन ॥ २१२॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन में निरत रहने वाली स्त्री, पुत्र, अभीष्ट सौभाग्य और पति की प्रियता को प्राप्त करती है और कभी भी विधवा नहीं होती है । पतिव्रतानां सर्वासां रामनामानुकीर्त्तनम् । ऐहिकामुष्किकं सौख्यदायकं सर्वशो मुने ॥ २१३॥ हे मुनिराज ! सभी पतिव्रताओं के लिए इस लोक से सम्बन्धित एवं परलोक से सम्बन्धित सभी प्रकार के सुखों का सम्पादक श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है । सीतयासहितं रामनाम येषां परं प्रियम् । त एव कृतकृत्याश्च पूज्या सर्वसुरेश्वरैः ॥ २१४॥ श्रीसीतानाम के साथ श्रीरामनाम अर्थात् ``श्रीसीताराम'' यह दिव्यनाम जिन लोगों को परम प्रिय है वे लोग ही कृतकृत्य हैं और समस्त देवेश्वरों से पूज्य हैं । रामनामार्थमध्ये तु साक्षात् सीतापदं प्रियम् । विज्ञानागोचरं नित्यं मुने श्रीरामवैभवम् ॥ २१५॥ हे मुने ! श्रीरामनाम के अर्थ के मध्य में ही साक्षात् परमप्रिय सीतापद विराजमान है । और विशिष्ट ज्ञान के द्वारा जाना जाने वाला श्रीरामजी का प्रभाव भी श्रीरामनाम में ही संनिहित है । आदौ सीतापदं पुण्यं परमानन्ददायकम् । पश्चाच्छ्रीरामनाम्नस्तु कथनं सम्प्रशस्यते ॥ २१६॥ पुण्य एवं परमानन्द प्रदायक श्रीसीतापद का प्रथम उच्चारण होना चाहिए तत्पश्चात् श्रीरामनाम का उच्चारण सम्यक् प्रशस्त है अर्थात् श्रीसीताराम श्रीसीताराम सङ्कीर्तन ही सर्वथा प्रशंसनीय है । युम्मं वर्णं जपेद्यर्हि तदा सीतेति कीर्त्तयेत् । सावकाशे सदा भक्त्यामध्ये मध्ये समादरात् ॥ २१७॥ यदि श्रीरामनाम का राम राम जप करना हो तब भी पहले श्रीसीताराम सीताराम कह ले बाद में राम राम जप करे, समय मिलने पर भक्तिपूर्वक सदा सीताराम सीताराम जप करे । श्रीरामनाम के जप के समय बीच- बीच में आदरपूर्वक सीताराम सीताराम जप करे । एवं रीत्या स्मरन्नाम रामभद्रस्य सन्ततम् । षण्मासात्सिद्धिमाप्नोति कलौ विश्वासपूर्वकम् ॥ २१८॥ इस रीति से जो साधक विश्वासपूर्वक श्रीरामनाम का जप निरन्तर करता है उसको इस कलियुग में छः महीने में परम सिद्धि की प्राप्ति हो जाती है । सूर्योदये यथा नाशमुपैति ध्वान्तमाशु वै । तथैव रामसंस्मरणाद्विनाशं यान्त्युपद्रवाः ॥ २१९॥ सूर्यनारायण के उदित होने पर जैसे शीघ्र ही अन्धकार नष्ट हो जाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम के स्मरण करने से सभी उपद्रव नष्ट हो जाते हैं । दुराचारो महादुष्टोमहाघौघ निकेतनः । रामनाम स्मरन् भक्त्या विशुद्धो भवति ध्रुवम् ॥ २२०॥ दुराचारी महादुष्ट एवं महापाप निवास स्वरूप मनुष्य भी भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का स्मरण करने से निश्चित ही शुद्ध हो जाता है । रामनाम प्रभावेण यद्यच्चिन्तयते जनः । तत्तदाप्नोति वै तूर्णमभीष्टमति दुर्लभम् ॥ २२१॥ श्रीरामनाम का जापक साधक जो-जो चिन्तन करता है अर्थात् जिस-जिस वस्तु को प्राप्त करना चाहता है उस-उस वस्तु को निश्चित ही प्राप्त कर लेता है एवं अति दुर्लभ अभीष्ट को भी शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । सर्वाभीष्टप्रदे नाम्नि प्रीतिर्नैवाभिजायते । मुने तस्यापराधानां नियमो नैव विद्यते ॥ २२२॥ हे मुने ! सभी अभीष्ट वस्तुओं को प्रदान करने वाले श्रीरामनाम में जिसकी प्रीति नहीं है उसके अपराधों की गिनती नहीं है । रामनाम्नि रतिर्नास्ति कुरुते धर्मसञ्चयम् । तत्सर्वं निष्फलं प्रोक्तं पथिबीजाङ्कुरा इव ॥ २२३॥ जिसकी श्रीरामनाम में प्रीति नहीं है उसके द्वारा किया गया धर्म का सङ्ग्रह उसी प्रकार निष्फल है जिस प्रकार मार्ग में बोये गये बीजों के अङ्कुर । बहुजन्मोग्रपुण्यानां फलं नामानुकीर्त्तनम् । सर्वेषां ऋषिमुख्यानां सम्मतं संशयं विना ॥ २२४॥ सभी श्रेष्ठ ऋषि मुनियों का संशय रहित मत है कि अनेक जन्मों के श्रेष्ठ पुण्यों का फल ही श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है अर्थात् अनेक जन्मों के उत्कट पुण्यों के फलस्वरूप ही श्रीरामनाम सङ्कीर्तन में रूचि होती है । वृहद्विष्णु पुराणे श्रीपराशर वाक्यं शिष्यं प्रति - वृहद्विष्णुपुराण में श्रीपराशर जी का वाक्य मैत्रेय जी के प्रति - क्व नाकपृष्ठगमनं पुनरावृत्ति लक्षणम् । क्व जपो रामनाम्नस्तु मुक्तेर्बीजमनुत्तमम् ॥ २२५॥ कहाँ स्वर्गादि लोकों का गमन? और कहाँ श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन? स्वर्गादि लोकों में जाने के बाद पुनर्जन्म का भय बना रहता है ``क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोके विशन्ति'' पुण्यों के नाश हो जाने के पश्चात् पुनः मृत्युलोक में आना पड़ता है और श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ बीज है अर्थात् श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से मुक्ति की प्राप्ति होती है, जिसमें पुनरागमन का भय नहीं होता है । सर्वरोगोपशमनं सर्वोपद्रवनाशनम् । सर्वारिष्टहरं क्षिप्रं रामनामानुकीर्त्तनम् ॥ २२६॥ समस्त रोगों का नाश करने वाला, समस्त उपद्रवों का नाशक और शीघ्र ही सभी अरिष्टों का हरण करने वाला श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है अर्थात् श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से शीघ्र ही सभी रोग, सभी उपद्रव एवं सभी अरिष्ट दूर हो जाते हैं । नास्ति श्रीरामनाम्नस्तु परत्वं दृश्यते क्वचित् । सदृशं त्रिषुलोकेषु सर्वतन्त्रेषु कुत्रचित् ॥ २२७॥ श्रीरामनाम से श्रेष्ठ तत्त्व कहीं भी दिखायी नहीं देता है । सभी लोकों में एवं सभी तन्त्रों में कहीं भी श्रीराम नाम के सदृश कोई तत्व नहीं दिखायी देता है । रामरामेति यो नित्यं मधुरं जपति क्षणम् । स सर्व सिद्धिमाप्नोति रामनामानुभावतः ॥ २२८॥ जो साधक नित्य क्षण भर भी मधुर स्वर में राम राम ऐसा जप करता है वह श्रीरामनाम के प्रभाव से सभी सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है । परानन्दे सुधासिन्धौ निमग्नो जायते जनः । यदा श्रीरामसन्नाम संस्मरेद्भावनायुतः ॥ २२९॥ जब कोई साधक सद्भावना से युक्त होकर श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण या सङ्कीर्तन करता है उस समय वह परमानन्दरूपी अमृत सिन्धु में निमग्न हो जाता है । प्रायो विवेकिनः सौम्य वेदान्तार्थैक नैष्ठिकाः । श्रीमद् रामेशभद्रस्य नाम संराधने रताः ॥ २३०॥ हे सौम्य ! अधिकांश वेदान्तार्थ चिन्तन परायण विवेकीजन श्रीरामनाम की आराधना में ही लगे रहते हैं ``धर्ममार्गं चरित्रेण ज्ञानमार्गं च नामतः'' सिद्धान्त के अनुसार समस्त वेदान्तार्थों का प्रकाश श्रीरामनाम के जप से ही होता है अतः विवेकी वेदान्ती लोग भी श्रीरामनाम के जप में लगे रहते हैं । तावदेव मदस्तेषां महापातक दन्तिनाम् । यावन्न श्रूयते रामनाम पञ्चाननध्वनिः ॥ २३१॥ तभी तक महापापरूपी हाथियों का मद दिखायी देता है जब तक श्रीरामनाम सङ्कीर्तन रूपी सिंह की ध्वनि सुनायी नहीं देती है अर्थात् श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन होते ही सभी महापाप दूर भाग जाते हैं । अविकारी विकारी वा सर्वदोषैकभाजनः । परमेशपदं याति सीतारामानुकीर्त्तनात् ॥ २३२॥ चाहे निर्विकार हो या सविकार हो चाहे समस्त दोषों का खजाना हो, चाहे कैसा भी हो, यदि वह सीताराम सीताराम सङ्कीर्तन करता है तो वह कीर्तन के प्रभाव से भगवान् के धाम को अवश्य जायेगा । हे जिह्वे रससारज्ञे सततं मधुरप्रिये । श्रीरामनामपीयूषं पिबप्रीत्या निरन्तरम् ॥ २३३॥ हे रसों के सार को जानने वाली निरन्तर मधुर प्रिये जिह्वे ! तू निरन्तर प्रीतिपूर्वक श्रीरामनामरूपी अमृत का पान कर । नातः परतरोपायो दृश्यते सम्मतौ श्रुतौ । सारात्सारतमं शुद्धं सर्वेषां मुक्तिदं परम् ॥ २३४॥ श्रीरामनाम से बढ़कर दूसरा कोई उपाय सन्तों की सम्मति में और वेदों में नहीं दिखायी देता है । सभी को मुक्ति प्रदान करने वाला एवं सारतत्वों का भी सार शुद्ध सर्वोत्कृष्ट श्रीरामनाम है । स्वाभाविकी तथा ज्ञानक्रियाद्याः शक्तयः शुभाः । रामनामांशतो जाता सर्वलोकेषु पूजिता ॥ २३५॥ सभी लोकों में पूजित स्वाभाविकी, ज्ञान एवं क्रियादि जितनी शुभ शक्तियाँ हैं वे सब श्रीरामनाम के अंश से उत्पन्न हुई हैं । लघु भागवते - लघु भागवत में - ज्ञानं वैराग्यमेवाथ तथा प्रीतिः परात्मनि । संलभेन्नामसङ्कीर्त्य ह्यभिरामाख्यमद्भुतम् ॥ २३६॥ अद्भुत लोकाभिराम श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करके साधक ज्ञान, वैराग्य एवं भगवान् में परम प्रीति प्राप्त कर सकता है । बृहन्नारदीये - बृहन्नारदीयपुराण में - ते कृतार्थाः सदा शुद्धाः सर्वोपाधि विवर्जिताः । नाम्नः प्रभावमासाद्य गमिष्यन्ति परम्पदम् ॥ २३७॥ श्रीनारदजी कहते हैं कि जो श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे कृतार्थ हैं । सदा शुद्ध हैं समस्त उपाधियों से शून्य हैं वे लोग श्रीरामनाम के प्रभाव से परम पद को प्राप्त करेङ्गे । रामनाम परा ये च नामकीर्त्तनतत्परा । नाम्नः पूजापरा ये वै ते कृतार्थाः न संशयः ॥ २३८॥ जो लोग तन, मन, वचन, गति, मति एवं रति से श्रीरामनाम परायण हैं और श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन में लगे रहते हैं और जो लोग श्रीरामनाम की पूजा में लगे हुए हैं वे लोग निश्चित ही कृतार्थ हैं इसमें संशय नहीं है । तस्मात्समस्तलोकानां हितमेव मयोच्यते । रामनाम परान् मर्त्यान्न कलिर्बाधते क्वचित् ॥ २३९॥ इसलिए मैं सभी लोगों के हित की बात कहता हूँ कि श्रीरामनाम के जप, कीर्तन एवं पूजन परायण लोगों को कलियुग कहीं भी दुखी नहीं करता है । श्रीमद्रामेशनाम्नस्तु सततं शरणं व्रजेत् । अस्माकं सत्समाजेषूपायान्तरमनर्थकम् ॥ २४०॥ हम लोगों के सत्समाजों में श्रीरामनाम के अतिरिक्त दूसरे सभी उपाय अनर्थक माने गये हैं अतः साधक को सदा सर्वदा श्रीरामनाम की शरण में जाना चाहिए और श्रीरामनाम को ही अपना रक्षक समझना चाहिए । सकृदुच्चारयेदेतद्रामनाम कलौयुगे । ते कृतार्था महात्मानस्तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ २४१॥ इस कलियुग में जो लोग एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे लोग महात्मा एवं कृतार्थ हैं उनको नित्य नमस्कार है नमस्कार है । न्यूनातिरिक्ततासिद्धिः कलौ वेदोक्तकर्मणाम् । नाम सङ्कीर्त्तनादेव सम्पूर्ण फलदायकम् ॥ २४२॥ कलियुग में वैदिक कर्मों में न्यूनता एवं अतिरिक्तता की सिद्धि श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से होती है श्रीरामनाम सङ्कीर्तन के प्रभाव से वह कर्म सम्पूर्ण फल प्रदान करता है । सीतारामात्मकन्नाम सुधाधाम निरन्तरम् । ये जपन्ति सदा भक्त्या तेषां किञ्चिन्न दुर्लभम् ॥ २४३॥ साक्षात् अमृतस्वरूप श्रीसीतारामनाम को जो सदा भक्तिपूर्वक जप करते हैं उनके लिए कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है सब सुलभ है । नमः श्रीरामचन्द्राय परमानन्दरूपिणे । निवसद्यस्य जिह्वायां तस्याघं नश्यति क्षणात् ॥ २४४॥ परमानन्दस्वरूप श्रीरामचन्द्रजी को नमस्कार है ऐसा वाक्य जिसकी जिह्वा पर निवास करता है उसके पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । स्वपन्भुञ्जन्ब्रजस्तिष्ठन्नुत्तिष्ठंश्चवदंस्तथा । येषां सङ्कीर्त्तनन्नाम तेभ्यो नित्यं नमोनमः ॥ २४५॥ जो सोते हुए, भोजन करते हुए, रास्ते में चलते हुए, ठहरते हुए, उठते हुए और परस्पर बातचीत करते हुए भगवान् श्रीराम के नाम का उच्चारण करते हैं । उन महात्माओं को नित्य नमस्कार है नमस्कार है । नामसङ्कीर्त्तनं नित्यं क्षुत्तृट्स्खलानादिषु । करोति प्रेम संहीनस्सोपि श्रीरामकिङ्करः ॥ २४६॥ जो भूख एवं प्यास के कारण, गिरते समय या किसी भी परिस्थिति में बिना भाव के भी श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह भी श्रीरामजी का सेवक है । अहोचित्रमहोचित्रमहोचित्रमिदम्परम् । रामनाम्नि स्थिते लोके संसार वर्त्तते पुनः ॥ २४७॥ आश्चर्य है महान् आश्चर्य यह है कि इस लोक में श्रीरामनाम के विद्यमान होने पर भी लोगों का पुनरागमन हो रहा है तात्पर्य यह है कि मुक्ति का सर्वसुलभ साधन श्रीरामनाम विद्यमान हैं फिर भी लोग मुक्त नहीं हो पा रहे हैं यही महान् आश्चर्य है । मित्रद्रोही कृतघ्नश्च स्तेयी विश्वासघातकः । दुहितासङ्गमी दुष्टो भ्रातृपत्नीरतस्तथा ॥ २४८॥ विप्रदारारतो यस्तु विप्रवित्तापहारकः । परापवादकारी च बालघाती च वृद्धहा ॥ २४९॥ स्त्रीजनानां सङ्घाती हिंसकः सर्वदेहिनाम् । मातृगामी गुरुद्रोही रामनाम्ना विशुद्धयति ॥ २५०॥ मित्रों से द्रोह करने वाला, किये गये उपकार को न मानने वाला, चोर, विश्वासघात करने वाला, पुत्री के साथ समागम करने वाला, दुष्ट, अपने भाई की पत्नी के साथ समागम करने वाला, विप्रपत्नियों के साथ समागम करने वाला, विप्रों के धन को चुराने वाला, दूसरे की निन्दा करने वाला, बाल हत्यारा, वृद्धों की हत्या करने वाला, स्त्रियों की हत्या करने वाला, सभी जीवों का हिंसक, माता के साथ समागम करने वाला और गुरुद्रोह करने वाला पापी भी श्रीरामनाम के जप से शुद्ध हो जाता है तात्पर्य यह है कि उपर्युक्त पापों का प्रायश्चित्त यदि किया जाय तो कितने जन्म बीत जायेङ्गे परन्तु श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन मात्र से ये सारे पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं । अतः श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है । महाचिन्ताऽऽतुरो यस्तु महाधिव्याधिव्याकुलः । ज्वरापस्मारकुष्ठादिमहारोगैः प्रपीडितः ॥ २५१॥ महोत्पातमहारिष्टमहाक्रूरग्रहार्द्दितः । महाशोकाग्निसन्तप्तस्सर्वलोकैस्तिरस्कृतः ॥ २५२॥ महानिन्द्यो निरालम्बो महादुर्भाग्यदुःखितः । महादरिद्री सन्तापी सुखीस्याद्रामकीर्तनात् ॥ २५३॥ जो महाचिन्ता के कारण आतुर हैं, जो महान् मानसिक व्यथा एवं शारीरिक व्यथा से विशेष आकुल हैं, जो ज्वर, मिरगी और कुष्टादि महारोगों से विशेष पीड़ित हैं । जो महाउत्पात, महारोग और महान् क्रूर ग्रहों से पीड़ित हैं । जो महाशोकरूपी अग्नि में सन्तप्त हैं, सभी लोगों से जो तिरस्कृत हैं । जो अतिशय निन्दनीय हैं जिनका संसार में कोई अवलम्ब नहीं है । विशेष दुर्भाग्ययुक्त होने से जो अतिशय दुःखी हैं । जो महान् दरिद्र है एवं सभी प्रकार के क्लेशों से जो युक्त है वे भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने से शीघ्र ही सभी कष्टों से मुक्त होकर सुखी हो जाते हैं । कामक्रोधातुरः पापी लोभमोहमदोद्धतः । रागद्वेषादिभिर्दग्धो महादुर्वासनाऽऽवृतः ॥ २५४॥ षड्भिरूर्मिभिराक्रान्तः षड्विकारैर्विखिद्यतः । मनोराजकषायाद्यैर्व्याकुलः समुपद्रवैः ॥ २५५॥ अन्यैश्चविविधोत्पातैर्दारुणैरतिदुःखितः । रामनामानुभावेन परानन्दमवाप्नुयात् ॥ २५६॥ जो लोग काम, क्रोध से व्याकुल हैं, पापी हैं, लोभ एवं मोहयुक्त हैं महाअहङ्कारी हैं, रागद्वेषरूपी अग्नि से दग्ध हैं, महान् दुर्वासना के कारण जिनका स्वरूप ढका हुआ है । क्षुधा, तृषा (प्यास) , शोक, मोह, जरा एवं मरण रूप छः कर्मवासना से विशेष आक्रान्त हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सरादि छः विकारों के कारण जो विशेष दुःखी है । मानसिक हवाई कल्पनारूपी कषायों एवं अनेक उपद्रवों से जो व्याकुल हैं । एवं दूसरे अनेक दारुण उत्पातों के कारण जो अतिशय दुःखित हैं वे लोग भी यदि भाव सहित श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करें तो श्रीरामनाम के प्रभाव से परम आनन्द की प्राप्ति कर सकते हैं । किन्तीर्थैः किंव्रतैर्होमैः किन्तपोभिः किमध्वरैः । दानैध्यनैश्च किंज्ञानैर्विज्ञानैः किंसमाधिभिः ॥ २५७॥ किंयोः किंविरागैश्च जपैरन्यै किमर्चनैः । यन्त्रैर्मन्त्रैस्तथातन्त्रैः किमन्यैरुग्रकर्मभिः ॥ २५८॥ स्मरणात्कीर्त्तनाच्चैव श्रवणाल्लेखनादपि । दर्शनाद्धारणादेव रामनामाखिलेष्टदम् ॥ २५९॥ जब श्रीरामनाम के स्मरण, कीर्तन, श्रवण, लेखन, दर्शन एवं धारण करने से ही सभी अभीष्टों की प्राप्ति हो सकती है तो फिर अनेक तीर्थों, व्रतों, हवनानुष्ठानों, तपस्याओं, यज्ञों, दानों, ध्यानों, ज्ञान-विज्ञानों, समाधियों, योगों, विरागों, दूसरे जपों, पूजनों, यन्त्रों, मन्त्रों, तन्त्रों एवं दूसरे उग्र कर्मों के अनुष्ठान से क्या प्रयोजन? अर्थात् एक श्रीरामनाम के आश्रय लेने से ही यदि सभी मनोरथ सिद्ध हो जायँ तो व्यर्थ दूसरे साधनों की क्या आवश्यकता है? आदित्यपुराणे श्रीमहादेववाक्यं शिवां प्रति - आदित्यपुराण में श्रीमहादेवजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति - अहं जपामि देवेशि रामनामाक्षरद्वयम् । श्रीसीतायाः स्वरूपस्य ध्यानं कृत्वा हृदिस्थले ॥ २६०॥ हे देवेश्वरि पार्वति ! मैं भगवती श्रीसीताजी के स्वरूप का हृदय में ध्यान करके ``राम'' इन दो अक्षरों का जप करता हूँ । रामनाम्नि स्थितास्सर्वे भ्रातरः परिकरास्तथा । गुणानां निचयं देवि तथा श्रीधाममङ्गलम् ॥ २६१॥ हे देवि पार्वति ! श्रीरामनाम में ही परिकरों के सहित श्रीरामजी के श्रीभरतादि भाई, सद्गुणों का समुदाय एवं नित्य मङ्गलस्वरूप श्रीअयोध्या धाम नित्य स्थित हैं श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन जप करने से सबका दर्शन सहज में प्राप्त हो जाता है । तत्रैवादित्यवाक्यं ऋषीन् प्रति - आदित्यपुराण में ही श्रीसूर्यजी का वाक्य ऋषियों के प्रति - रामनामजपादेव भासकोऽहं विशेषतः । तथैव सर्वलोकानां क्रमणे शक्तिवानहम् ॥ २६२॥ हे ऋषियों ! श्रीरामनाम के जप के प्रभाव से ही मैं सबको प्रकाशित करता हूँ उसी प्रकार श्रीरामनाम के जप के द्वारा प्राप्त शक्ति से युक्त होकर मैं समस्त लोकों की परिक्रमा करता हूँ । नामविश्रब्धहीनानां साधनान्तरकल्पना । कृतामहर्षिभिस्सर्वैः परमानन्दनैष्ठिकैः ॥ २६३॥ श्रीरामनाम सङ्कीर्तनजन्य परमानन्द में निमग्न रहने वाले महात्माओं ने श्रीरामनाम में विश्वास न करने वाले लोगों के लिए ही दूसरे अनेक साधनों की कल्पनाएँ की हैं अर्थात् जिन लोगों का श्रीरामनाम में पूर्ण विश्वास है उनके लिए दूसरी किसी साधना की आवश्यकता नहीं है । आङ्गिरसपुराणे - आङ्गिरसपुराण में - नामसङ्कीर्त्तनात्सर्वं मङ्गलं शाश्वतं शुभम् । सामीप्यं रामचन्द्रस्य तथा सर्वार्थसञ्चयः ॥ २६४॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सभी प्रकार के कल्याण एक रस शुभ, सभी अर्थों का समूह एवं श्रीसीतारामजी का सामीप्य प्राप्त होता है । श्रीरामेति मनुष्यो यः समुच्चरति सर्वदा । जीवन्मुक्तो भवेत्सो हि साक्षाद्रामात्मकः सुधीः ॥ २६५॥ जो मनुष्य सदा सर्वदा ``श्रीराम'' ऐसा उच्चारण करता रहता है वह जीते जी मुक्त है, वह विद्वान् साक्षात् श्रीसीताराममय है । सुरद्रुमचयं त्यक्त्वा ह्येरण्डं समुपासते । यस्यान्यसाधने प्रीतिस्त्यक्त्वा श्रीनाममङ्गलम् ॥ २६६॥ सर्वथा मङ्गलकारी श्रीरामनाम को छोड़कर जो लोग दूसरे साधनों में प्रीति करते हैं वे लोग कल्पवृक्ष समूह का त्याग करके अपावन वृक्ष रेण्ड की उपासना करते हैं । आभ्यन्तरं तथा बाह्यं यस्तु श्रीराममुच्चरेत् । स्वल्पायासेन सङ्काशं जायते हृदिपङ्कजे ॥ २६७॥ जो लोग सर्वदा सावधान होकर प्रीतिपूर्वक भीतर तथा बाहर से निरन्तर श्रीरामनाम का उच्चारण करते रहते हैं थोड़े समय में ही उनके हृदय कमल में प्रकाश का दर्शन होने लगता है । शुकपुराणे श्रीअगस्त्यवाक्यं सुतीक्ष्णं प्रति - शुकपुराण में श्रीअगस्त्यजी का वाक्य सुतीक्ष्णजी के प्रति - श्रीमद्रामेतिनामैव जीवनानां च जीवनम् । कीर्त्तनात्सर्वरोगेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ २६८॥ श्रीरामनाम ही समस्त जीवों का जीवन है । श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से निश्चित ही समस्त रोगों से मुक्ति मिल जाती है इस कथन में संशय नहीं है । ब्रह्माण्डशतदानस्य यत्फलं समुदाहृतम् । तत्फलादधिकं विद्यात्सकृच्छ्रीराममुच्चरन् ॥ २६९॥ सैकड़ों ब्रह्माण्ड दान का जो फल कहा गया है उससे भी अधिक फल एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण से होता है । तत्रैव श्रीशिववाक्यं शिवां प्रति - शुकपुराण में ही श्रीशिवजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति - यथैव पावको देवि रजसाच्छन्नतां व्रजेत् । तथा विश्वासहीनानां नास्तिनामार्थवैभवम् ॥ २७०॥ हे देवि ! जिस प्रकार अग्नि धूल से ढके जाने पर अपने स्वभाव प्रभाव को प्रकट नहीं करता है उसी प्रकार विश्वासहीन मनुष्य श्रीरामनाम के महाऐश्वर्यादि को नहीं समझ पाता है । अर्थात् विश्वासहीनों के लिए श्रीरामनाम की महिमा कुछ नहीं है । अहो भाग्यतराः सर्वे नामसंलग्नमानसाः । पावयन्ति जगत्सर्वं रामनामार्थचिन्तनात् ॥ २७१॥ आश्चर्य है कि जिनका मन श्रीराम नाम में संलग्न है वे सभी अत्यन्त भाग्यशाली है क्योङ्की वे लोग लोकोपकारी श्रीरामनाम के अर्थ के चिन्तन से सारे संसार को पवित्र करते हैं । यत्प्रभावं समासाद्य शुको ब्रह्मर्षिसत्तमः । जपस्व तन्महामन्त्रं रामनामरसायनम् ॥ २७२॥ हे पार्वति ! जिस श्रीरामनाम के स्वभाव प्रभाव को समझकर जप करके श्रीशुकदेवजी ब्रह्मर्षियों में श्रेष्ठ हो गये उस महामन्त्र रसायन श्रीरामनाम का जप करो । पुराणसङ्ग्रहे श्रीसूत वाक्यं शौनकं प्रति - पुराणसङ्ग्रह में सूतजी का वाक्य शौनक के प्रति - इदानीं रामनाम्नस्तु रहस्यं प्रवदामि ते । यच्छ्रुत्वा च पठित्वा च नरो याति परां गतिम् ॥ २७३॥ हे शौनक जी ! इस समय मैं आपके लिए श्रीरामनाम के उस रहस्य को कहने जा रहा हूँ जिसको सुनकर और पढ़कर मनुष्य परमगति को प्राप्त करता है । सर्वेषां मन्त्रवर्गाणां रामनाम परं स्मृतम् । गोप्यं श्रीपार्वतीशस्य जीवनं चित्तशोधकम् ॥ २७४॥ सभी मन्त्रों में श्रीरामनाम महामन्त्र सर्वश्रेष्ठ है अत्यन्त गोपनीय है श्रीपार्वती पति भगवान् शङ्कर का जीवन सर्वस्व है और अन्तःकरण की शुद्धि करने वाला है । सुलभं सर्वजीवानामनायासेन सिद्धिदम् । सर्वोपायं विहायाशु जप्तव्यं प्रेमतत्परैः ॥ २७५॥ श्रीरामनाम सभी जीवों के लिए सुलभ है बिना परिश्रम के ही सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है अतः सभी उपायों को छोड़कर प्रेम-तत्पर होकर शीघ्र ही श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । येन केन प्रकारेण जपन्मोक्षप्रदं नृणाम् । एवंरीत्या जपेद्यस्तु रामनाममनुत्तमम् ॥ २७६॥ तस्य पाणितले सिद्धिरनायासेन सत्वरम् । सत्यं वदामि सिद्धान्तं सर्वं कलिमलापहम् ॥ २७७॥ जिस किसी भी प्रकार से श्रीरामनाम का जप करने वाले मनुष्यों को श्रीरामनाम मोक्ष प्रदान करता है ऐसा समझकर जो सर्वोत्तम श्रीरामनाम का जप करता है उसके करतल में बिना परिश्रम के शीघ्र ही सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, यह सत्य सिद्धान्त मैं कहता हूँ कि कलि के समस्त मलों को दूर करने वाला श्रीरामनाम है । पृष्ट्वा रीतिर्यथातथ्यं गुरोः सान्निध्यतो मुने । तत्पश्चादभ्यसेन्नाम सर्वेश्वरमतन्द्रितः ॥ २७८॥ स्वल्पाहारं तथानिद्रां स्वल्पवाक्यं निरन्तरम् । मिथ्यासम्भाषणं त्यक्त्वा तथा च गमनादिकम् ॥ २७९॥ इहैव लभते नित्यं परिकराणां समागमम् । तथा नानारहस्यानां ज्ञानं सञ्जायते ध्रुवम् ॥ २८०॥ हे मुने ! सबसे पहले श्रीगुरु महाराज से श्रीरामनाम का यथार्थ स्वरूप और जप की विधि रीति समझना चाहिए । तत्पश्चात् आलस्यरहित होकर सर्वेश्वर श्रीरामनाम का अभ्यास करना चाहिए । भोजन स्वल्प, निद्रा स्वल्प, मिथ्या भाषण का त्याग करके बहुत कम बोलना एवं यत्र तत्र आना जाना बन्द करके निरन्तर श्रीरामनाम का जप किया जाय तो यहीं सपरिकर श्रीसीतारामजी का दर्शन प्राप्त होता है और अनेक प्रकार के रहस्यों का ज्ञान भी निश्चित रूप से हो जाता है । नाम्नःपरात्परैश्वर्यं कथं वाचा वदामि ते । स्मरणाल्लक्ष्यते विश्वं रामरूपेण भास्वरम् ॥ २८१॥ हे मुने ! श्रीरामनाम का परत्व, महत्व और ऐश्वर्य का मैं वाणी से क्या वर्णन करूँ? इतना सच है कि श्रीरामनाम का स्मरण कीर्तन करने से सम्पूर्ण विश्व श्रीसीतारामजी के रूप में भासित होने लगता है । भारतविभागे - भारतविभाग में - सर्वलक्षणहीनोऽपि युक्तो वा सर्वपातकैः । सर्वं तरति तत्पापं भावयन्नाममङ्गलम् ॥ २८२॥ जो समस्त शुभ लक्षणों से हीन हैं अथवा समस्त पापों से युक्त हैं वे भी मङ्गलमय श्रीरामनाम की भावना करने से समस्त पापों से मुक्त हो जाते हैं अर्थात् निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण कीर्तन करने से शीघ्र ही उनके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । प्राणप्रयाणपाथेयं संसारव्याधिभेषजम् । दुःखशोकपरित्राणं श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ २८३॥ प्राणों के महाप्रयाण के समय पाथेयस्वरूप, संसाररूपी महाव्याधि के नाश के लिए सर्वश्रेष्ठ औषधिस्वरूप और अनेक प्रकार के दुःख एवं शोक से बचाने वाले ``श्रीराम'' ये दो अक्षर हैं । मातृहा पितृहा गोघ्नो ब्रह्महाऽऽचार्यहा मुने । श्वादःपुल्कसको वाऽपि शुद्धेरन् रामनामतः ॥ २८४॥ हे मुने ! संसार में जो सर्वथा पूज्य हैं-माता, पिता, गौ, ब्राह्मण एवं आचार्य ऐसे पूज्यों की हत्या करने वाले, कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डाल एवं नीच जाति के लोग भी श्रीरामनाम का जप करने से श्रीरामनाम के प्रभाव से परमपवित्र हो जाते हैं । सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वसिद्धान्तपारगम् । सर्वदेवाधिपं भद्रं सर्वसम्पत्तिकारकम् ॥ २८५॥ महानादस्य जनकं महामोक्षस्यहेतुकम् । महाप्रेमरसेशानं महामोदमयं परम् ॥ २८६॥ आह्लादकानां सर्वेषां रामनाम परात्परम् । परं ब्रह्म परं धाम परं कारणकारणम् ॥ २८७॥ सम्पूर्ण मङ्गलों को भी माङ्गल्य प्रदान करने वाले, समस्त सिद्धान्तों का सार, सम्पूर्ण देवताओं का स्वामी, कल्याणदायक, सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्रदान करने वाले, दस प्रकार के नादों से परे महानाद का जनक, महामोक्ष का परम कारण, महाप्रेम एवं महारस के स्वामी, परमानन्दस्वरूप, सर्वोत्कृष्ट, प्रदान करने वालों में सर्वश्रेष्ठ, परब्रह्मस्वरूप, असाधारण तेजःस्वरूप, समस्त कारणों के भी परम कारण श्रीरामनाम महाराज हैं, अतः अन्य साधनों का आश्रय छोड़कर श्रीरामनाम महाराज का आश्रय लेना चाहिए । गणेशपुराणे श्रीगणेशवाक्यं ऋषीन् प्रति - गणेशपुराण में श्रीगणेशजी का वाक्य ऋषियों के प्रति - रामनाम परं ध्येयं ज्ञेयं पेयमहर्निशम् । सर्वदा सद्भिरित्युक्तं पूर्वं मां जगदीश्वरैः ॥ २८८॥ हे ऋषियों ! सत्पुरुषों के द्वारा सर्वदा परम ध्यान के योग्य, जानने योग्य एवं दिन रात पान करने योग्य श्रीरामनाम ही है । यह बात मुझको पहले ही जगत् के स्वामी ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने बता दिया था । अहं पूज्योऽभवंलोके श्रीमन्नामानुकीर्त्तनात् । अतः श्रीरामनाम्नस्तु कीर्त्तनं सर्वदोचितम् ॥ २८९॥ इस लोक में श्रीरामनाम के प्रभाव से ही मैं प्रथम पूज्य हुआ हूँ अतः हम सभी के लिए सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही उचित होगा । विघ्नानां सन्निहन्तारं दातारं सर्वसम्पदाम् । सुधासारं सदा स्वच्छं निर्विकारं निराश्रयम् ॥ २९०॥ क्योङ्कि श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन समस्त विघ्नों का नाश करने वाला, सम्पूर्ण सम्पत्तियों को प्रदान करने वाला, अमृत की मूसलाधार वृष्टिस्वरूप, सदासर्वदा निर्मल, विकार रहित एवं अन्य आश्रयों से रहित परम आश्रयस्वरूप है । अतः श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन सबको करना चाहिए । नन्दीपुराणे नन्दीश्वरवाक्यं गणान् प्रति - नन्दीपुराण में श्रीनन्दीश्वर जी का वाक्य गणों के प्रति - सर्वदा सर्वकालेषु ये वै कुर्वन्ति पातकम् । रामनामजपं कृत्वा यान्ति धाम सनातनम् ॥ २९१॥ जो लोग हर समय पाप करते रहते हैं वे लोग भी श्रीरामनाम का जप करके श्रीरामनाम के प्रभाव से सनातन धाम दिव्य नगरी अयोध्या को प्राप्त कर लेते हैं । हरन् ब्राह्मणसर्वस्वं प्रपन्नघ्नं सुरां पिबन् । अपि भ्रूणं हनन् पूतो जायते नामकीर्त्तनात् ॥ २९२॥ जो लोग ब्राह्मण के सर्वस्व का हरण करने वाले हैं, शरणागत की हत्या करने वाले हैं, मदिरापान करने वाले हैं, एवं गर्भपात कराने नाले हैं वे लोग भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने से शीघ्र ही पवित्र हो जाते हैं । श‍ृणुध्वं भो गणास्सर्वे रामनाम परं बलम् । यत्प्रसादान्महादेवो हालाहलमपीपिबत् ॥ २९३॥ हे महादेवजी के गणों ! तुम सभी लोग श्रीरामनाम के उत्कृष्ट बल को श्रवण करो, जिस श्रीरामनाम की प्रसन्नता के फलस्वरूप भगवान् शङ्कर ने हलाहल विष का पान कर लिया । अर्थात् जिस श्रीरामनाम महाराज की कृपा से विष भी अमृत हो गया एवं शिवजी के गले का आभूषण हो गया । जानाति रामनाम्नस्तु परत्वं गिरिजापतिः । ततोऽन्यो न विजानाति सत्यं सत्यं वचो मम ॥ २९४॥ श्रीरामनाम के परत्व और महत्व को यथार्थरूप से श्रीपावर्ती पति भगवान् शङ्कर जी ही जानते हैं उनके अलावा दूसरा कोई भी यथार्थ रूप से नहीं जानता है मेरी यह वाणी सत्य है सत्य है । इतिहासोत्तमे - इतिहासोत्तम में - श्रीरामकीर्त्तने नित्यं यस्य पुंसो न जायते । सलोमपुलकं गात्रं स भवेत्कुलिशोपमः ॥ २९५॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन एवं स्मरण के समय जिस पुरुष का शरीर रोमाञ्चित नहीं होता है वह वज्र जैसा महा कठोर है ऐसे व्यक्ति को बारम्बार ग्लानि करनी चाहिए और श्रीरामनाम महाराज से प्रार्थना करनी चाहिए कि हमारे हृदय में भी श्रीरामनाम के जप सङ्कीर्तन में प्रेम प्रकट हो । रामनामजपे येषामश्रुपातो भवेन्नहि । त एव खरतुल्यास्तु ह्यपूताः पातकालयाः ॥ २९६॥ श्रीरामनाम के जप के समय जिन पुरुषों को अश्रुपात नहीं होते हैं वे लोग गधे के समान है, अपवित्र एवं पाप निवास हैं । श्रुत्वा श्रीरामनाम्नस्तु वैभवं पारमार्थिकम् । श्रवते न जलं नेत्रात्तन्नेत्रे वै रजोक्षिपेत् ॥ २९७॥ श्रीरामनाम के यथार्थ परत्व एवं महत्व को सुनकर जिन नेत्रों से अश्रुपात नहीं होते उन आँखों में निश्चित ही धूल डाल देनी चाहिए । तत्रैव नारकान् प्रति पुष्कलमुनिवाक्यं - वहीं श्रीपुष्कल मुनि का वाक्य नरकवासियों के प्रति - अहमप्यत्र नामानि कीर्त्तयामि जगत्पते । तानि वः श्रेयसे नित्यं भविष्यन्ति न संशयः ॥ २९८॥ हे नरकवासियों ! मैं भी यहाँ जगत् पति भगवान् श्रीसीतारामजी के पवित्र नामों का सङ्कीर्तन करता हूँ भगवान् के वे पवित्र नाम निश्चित ही तुम लोगों के कल्याण के लिए समर्थ होङ्गे इसमें संशय नहीं है । अहो सतां सङ्गममद्भुतम्फलं परं पवित्रं नरकादि नाशनम् । कर्तव्यमेतद्धि सदैव सज्जनैः श्रीरामनाम्नि प्रभवेत्परारतिः ॥ २९९॥ आश्चर्य है कि सन्त महापुरुषों का सङ्ग अद्भुत फल प्रदान करने वाला, परम पवित्र और नरकादि जन्य पीड़ा को नष्ट करने वाला है । अतः सत्पुरुषों को सदा ही सन्त महापुरुषों का सङ्ग करना चाहिए क्योङ्कि सन्त महापुरुषों के सान्निध्य से ही श्रीरामनाम में परा प्रीति उत्पन्न होती है । सकृत्सङ्कीर्त्तितो देवः स्मृतो वा मुक्तिदो नृणाम् । स्मरतामहर्निशं नाम न जाने किं फलं भवेत् ॥ ३००॥ श्रीरामनाम का एक बार सङ्कीर्तन अथवा स्मरण करने पर भगवान् मनुष्यों को मुक्ति प्रदान करते हैं । जो लोग दिन रात श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं उन लोगों को भगवान् क्या फल देते हैं? यह मैं नहीं जानता हूँ । कृतज्ञानां शिरोरत्नं रामनामपरात्परम् । कथं न द्रवते श्रुत्वा स्वनामाह्वानमुत्तमम् ॥ ३०१॥ कृतज्ञों में शिरोमणि परात्परस्वरूप श्रीरामनाम महाराज अपने उत्तम नाम का आह्वान सुनकर नहीं द्रवित होङ्गे? किमत्र हाहाकारेण युष्माकमधुनाध्रुवम् । स्मरध्वं रामनामाख्यं मन्त्रं दुःखापहारकम् ॥ ३०२॥ हे नरकवासियों ! तुम लोग यहां व्यर्थ में इस प्रकार हाहाकार क्यों कर रहे हो? तुम लोग इस समय समस्त दुःखों को दूर करने वाले महामन्त्र श्रीरामनाम का स्मरण करो । कालं करालमत्यन्तं दृष्ट्वा स्वप्नमिदं जगत् । रामनामजपाच्छिद्रं जागृतिं याति निश्चितम् ॥ ३०३॥ काल को अत्यन्त कराल एवं इस जगत् को स्वप्न तुल्य मानकर श्रीरामनाम का जप करने से शीघ्र ही निश्चित रूप से मोह-निद्रा से जागरण होगा मोह-निद्रा भङ्ग होगी और जीव को स्वस्वरूप की प्राप्ति हो जायेगी । रामनाम्निसुधाधाम्नि कुतर्क निरयावहम् । समाश्रयन्ति ये पापास्ते महाराक्षसाधमाः ॥ ३०४॥ अमृतस्वरूप श्रीरामनाम की महिमा के विषय में जो मलीनमति पापीजन नरकप्रद कुत्सित तर्कों का आश्रय लेते हैं वे अधम महाराक्षस हैं । प्रभाकरस्य सङ्काशं सर्वलोकैकगोचरम् । उलूका नेत्रहीनाश्च नैव पश्यन्ति दुर्भगा ॥ ३०५॥ श्रीरामनाम की महिमा सूर्य के समान सर्वत्र सभी लोकों के ज्ञान का विषय है फिर भी उल्लू एवं नेत्रहीन मन्दमति दुर्भाग्यवश उसको नहीं देख पाते हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे सूर्य का प्रकाश तो सर्वत्र फैल रहा है लेकिन उल्लू और नेत्रहीन लोगों को उसका दर्शन नहीं होता है वैसे ही श्रीरामनाम की महिमा सर्वत्र सभी लोगों के समक्ष प्रकट हो रही है परन्तु उल्लू एवं नेत्रहीन जैसे भाग्यहीन लोगों को नहीं दिखायी दे रही है । तत्रैव श्रीभृगुवाक्यं - वहीं श्रीभृगुजी का वाक्य - श्रुत्वा नामानि तत्रस्थास्तेनोक्तानि तथा द्विज । नारका नरकान्मुक्ताः सद्य एव महामुने ॥ ३०६॥ हे महामुने ! हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! उन श्री पुष्कल मुनि के द्वारा कहे गये भगवान् के नामों को सुनकर उस नरक में रहने वाले नारकी लोग नरक से तत्काल मुक्त हो गये । श्वादोऽपि नहि शक्नोति कर्तुं पापानि यत्नतः । तावन्ति यावती शक्ती रामनाम्नोऽशुभक्षये ॥ ३०७॥ अशुभों के नाश करने के लिए श्रीरामनाम में जितनी शक्ति है उतने पाप प्रयास करके भी महानीच चाण्डाल भी नहीं कर सकते हैं । स्वप्नेऽपि नामस्मृतिरादिपुंसः क्षयङ्करोत्याहित पापराशिः । प्रयत्नतः किं पुनरादिपुंसः सङ्कीर्त्यते नाम रघूत्तमस्य ॥ ३०८॥ जब आदि पुरुष भगवान् श्रीरामचन्द्रजी का स्वप्न में भी नाम स्मरण करने पर अनेक जन्मों की सङ्कलित पापराशि नष्ट हो जाती है तब जो लोग श्रद्धापूर्वक प्रयत्न करके श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते हैं उनके लिए क्या कहना । इदमेव परम्भाग्यं प्रशस्यं सद्भिरुत्तमैः । श्रीसीतारामनाम्नस्तु सततं कीर्त्तनं मुने ॥ ३०९॥ हे मुने ! उत्तम सत्पुरुषों ने इसी को सर्वश्रेष्ठ एवं प्रशस्त भाग्य कहा है कि निरन्तर श्रीसीतारामनाम का सङ्कीर्तन होता रहे । चातुर्य्यं सर्वथा विप्र इदमेव विनिश्चितम् । नामव्याहरणं नित्यं त्यक्त्वा दुर्वासनादिकम् ॥ ३१०॥ हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! सभी महापुरुषों ने इसी को सभी प्रकार से परम चतुरता निश्चित किया है कि दुर्वासनाओं का त्याग करके नित्य श्रीसीताराम नाम का सङ्कीर्तन किया जाय । पुरा महर्षयः सर्वे रामनामानुकीर्त्तनात् । सिद्धा ब्रह्मसुखेमग्ना याताः श्रीरामसद्मनि ॥ ३११॥ श्रीसीताराम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से पहले सभी ऋषि महर्षि सिद्ध एवं ब्रह्मसुख में मग्न हो गये थे और अन्त में श्रीसीतारामजी के दिव्य धाम में चले गये । श्रुतं सङ्कीर्त्तितं वाऽपि रामनामाखिलेष्टदम् । दहत्येनांसिसर्वाणि प्रसङ्गात्किमु भक्तितः ॥ ३१२॥ सम्पूर्ण अभीष्ट को प्रदान करने वाले श्रीरामनाम का प्रसङ्गवश किया गया सङ्कीर्तन अथवा श्रवण समस्त पापों को जला देता है तब जो लोग भक्तिपूर्वक सङ्कीर्तन या श्रवण करते हैं उनके लिए क्या कहना । तत्रैव स्थानान्तरे परमपुरुषवाक्यं वैष्णवान्प्रति - उसी ग्रन्थ में दूसरी जगह परमपुरुष का वाक्य वैष्णवों के प्रति - मद् भक्ताः सत्यमेतत्तु वाक्यं मे श‍ृणुताधुना । सकृदुच्चार्य्य मन्नाम मत्तुल्यो जायते नरः ॥ ३१३॥ हे मेरे भक्तों ! आप लोग इस समय मेरे इस वाक्य को सुनें कि मनुष्य एक बार मेरे मङ्गलमय नाम का उच्चारण करके मेरे समान पूज्य हो जाता है । रामनाम समं नाम न भूतो न भविष्यति । तस्मात्तदेव सङ्कीर्त्य मुच्यते कर्मबन्धनात् ॥ ३१४॥ श्रीरामनाम के समान दूसरा नाम न है न पहले था और न आगे होने वाला है अतः श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करके कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाना चाहिए । लघुभागवते श्रीव्यास वाक्यं - लघु भागवत में श्रीव्यासजी का वाक्य - गोवधः स्त्रीवधः स्तेयं पापं ब्रह्मवधादिकम् । श्रीरामकीर्त्तनादेव शतधा याति सत्वरम् ॥ ३१५॥ गोहत्या, स्त्री हत्या, ब्राह्मण हत्यादि एवं चोरी आदि से जन्य जितने पाप हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने से शीघ्र ही सैकड़ों खण्डों में विभक्त होकर नष्ट हो जाते हैं । किं तात वेदागम शास्त्रविस्तरैस्तीर्थादिकैरन्यकृतैः प्रयोजनम् । यद्यात्मनो वाञ्छसि मुक्तिकारणं श्रीरामरामेति निरन्तरं रट ॥ ३१६॥ वेद एवं आगम ग्रन्थों के अध्ययन दूसरों के द्वारा किये गये विभिन्न तीर्थों की यात्राओं से तुम्हें क्या प्रयोजन है? यदि तुम अपनी आत्मा की मुक्ति चाहते हो तो निरन्तर श्रीरामनाम का जप करो । वर्तमानं च यत्पापं यद्भूतं यद्भविष्यति । तत्सर्वं निर्द्दहत्याशु रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ ३१७॥ जितने पाप पूर्व में हो चुके हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होने वाले हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से शीघ्र ही जल जाते हैं । ते कृतार्थाः मनुष्येषु सुभाग्या नृप निश्चितम् । रामनाम सदाभक्त्या स्मरन्ति स्मारयन्ति ये ॥ ३१८॥ हे राजन् ! मनुष्यों में वे सौभाग्यशाली मनुष्य निश्चित ही कृतार्थ हैं जो सदा सर्वदा भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं और दूसरों से स्मरण करवाते हैं । अभक्ष्यभक्षणात्पापमगम्यागमनाच्च यत् । तत्सर्वं विलयं याति सकृद्रामेतिकीर्त्तनात् ॥ ३१९॥ अभक्ष्य पदार्थों के भक्षण करने से और अगम्या स्त्री के साथ गमन करने से जो पाप होता है वह सम्पूर्ण पाप एक बार श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से नष्ट हो जाता है । सदा द्रोह परो यस्तु सज्जनानां महीतले । जायते पावनो धन्यो रामनाम वदन् सदा ॥ ३२०॥ पृथ्वीलोक में जो सदा सर्वदा सन्त महापुरुषों से द्रोह करता है, वह भी सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता हुआ परम पवित्र एवं धन्य हो जाता है । श्रीरामेति मुदायुक्त कीर्त्तयेद्यस्त्वनन्य धीः । पावनेन च धन्येन तेनेयं पृथिवी धृता ॥ ३२१॥ जो अनन्य बुद्धि से प्रसन्नतापूर्वक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता है वह परमपवित्र एवं धन्य है वैसे पवित्रात्मा के द्वारा यह पृथिवी धारण की गयी है । अर्थात् ऐसे ही महापुरुषों से यह पृथिवी टिकी है । प्रभासपुराणे - प्रभासपुराण में - मधुरालयमदो मुख्यं नाम सर्वेश्वरेश्वरम् । रसनायां स्फुरत्याशु महारासरसालयम् ॥ ३२२॥ भगवान् का वह श्रीरामनाम महामधुरता का आलय है, समस्त भगवन्नामों में मुख्य हैं, सभी स्वामियों का परमेश्वर हैं और महारास रस का साक्षान्निवासभूत हैं तथा अपनी अकारण करुणा से साधक की जिह्वा पर स्फुरित होते हैं । तत्रैव श्रीभगवद्वाक्यं नारदं प्रति - वहीं श्रीभगवान् का वाक्य श्रीनारदजी के प्रति - नाम्नां मुख्यतमं नाम श्रीरामाख्यं परन्तप । प्रायश्चित्तमशेषाणां पापानां मोचकं परम् ॥ ३२३॥ हे नित्य शत्रुओं को पीड़ित करने वाले नारद जी ! भगवान् के समस्त नामों में श्रीरामनाम अत्यन्त मुख्य, सम्पूर्ण पापों का मोचक तथा परम प्रायश्चित स्वरूप है । श्रीरामनाम परमं प्राणात्प्रियतरं मम । न हि तस्मात् प्रियः कश्चित् सत्यं जानीहि नारद ॥ ३२४॥ हे नारद जी ! श्रीरामनाम मुझे प्राणों से भी अत्यन्त प्रिय है श्रीराम नाम से बढ़कर कोई भी मुझे प्रिय नहीं है यह सत्य जानो । नराणां क्षीणपापानां सर्वेषां सुकृतात्मनाम् । इदमेव परं ध्येयं नान्यत्स्वप्नेपि नारद ॥ ३२५॥ हे नारद जी ! जिनके पाप नष्ट हो गये हैं उनके लिए और सभी सुकृतियों के लिए यह श्रीरामनाम ही परम ध्यान करने योग्य है स्वप्न में भी दूसरा कुछ नहीं है । कालिका पुराणे - कालिकापुराण में - रामेत्यभिहिते देवे परात्मनि निरामये । असङ्ख्यमखतीर्थानां फलं तेषां भवेद्ध्रुवम् ॥ ३२६॥ परम प्रकाश, निरामय एवं परात्मस्वरूप श्रीरामनाम का जो लोग उच्चारण करते हैं उन लोगों को असङ्ख्य यज्ञ एवं तीर्थों का फल निश्चित ही प्राप्त होता है । रामनाम प्रभा दिव्या सर्ववेदान्त पारगा । वदन्ति नियतं राजन् ज्ञात्वा सर्वोत्तमोत्तमाः ॥ ३२७॥ हे राजन् ! सभी शरीरधारियों में सर्वश्रेष्ठ सन्त महापुरुष निश्चित रूप से यह जानकर कहते हैं कि श्रीरामनाम की प्रभा दिव्य एवं समस्त वेदान्तों से परे हैं । सर्वासामेव शक्तीनां कारणं तमसः परम् । श्रीरामनाम सर्वेशं सौख्यदं शरणार्थिनाम् ॥ ३२८॥ सभी शक्तियों का मूल कारण, मोहान्धकार से सर्वथा परे, सबका स्वामी एवं शरणागत जीवों को सुखशान्ति प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है । प्राणानां प्राणमित्याहुर्जीवानां जीवनं परम् । मन्त्राणां परमं मन्त्रं रामनाम सदा प्रियम् ॥ ३२९॥ सन्त महात्मा कहते हैं कि समस्त प्राणियों का प्राण, समस्त जीवों का परम जीव, सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ मन्त्रराज एवं सदा सर्वदा प्रिय लगने योग्य एकमात्र श्रीरामनाम । देवीभागवते व्यासवाक्यं शुकं प्रति - देवी भागवत में व्यासजी का वाक्य शुकदेवजी के प्रति - जीवानां दुष्टभावानां कृतघ्नानां तथा शुक । चरितं श‍ृणु भो तात सदा पाप रतात्मनाम् ॥ ३३०॥ हे तात शुक ! तुम दुष्टभाव वाले, कृतघ्न और सदा सर्वदा पाप में रत रहने वाले जीवों के चरित्रों को सुनो । श्रीमद्रामेतिनाम्नस्तु प्रभावं वै परात्परम् । ज्ञान वैराग्य हीनानां दृश्यं नैव भवेत् कदा ॥ ३३१॥ जो जीव सर्वथा ज्ञान वैराग्य से रहित है उन लोगों को कभी भी श्रीरामनाम का परात्पर प्रभाव नहीं दिख सकता । तात्पर्य यह है कि ज्ञान, वैराग्य एवं सत्सङ्ग के द्वारा ही श्रीरामनाम का परत्व एवं महत्व का दर्शन होता है इसके अभाव में नहीं हो सकता है । गर्भमध्ये तु यत्प्रोक्तं करुणानिधिमग्रतः । सततं कीर्त्तनं रामनाम कुर्वे समादरात् ॥ ३३२॥ गर्भ के मध्य में जीव ने करुणासागर भगवान् के समक्ष प्रतिज्ञा किया था कि मैं निरन्तर आदरपूर्वक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करूँगा । त्यक्त्वा दुराग्रहं सर्वं कुटुम्बादिक सङ्ग्रहम् । करिष्यामि सदा भक्त्या तव नामानुकीर्त्तनम् ॥ ३३३॥ हे प्रभो ! मैं सभी प्रकार के दुराग्रहों को छोड़कर एवं सुतदारा कुटुम्बादि सङ्ग्रहों को छोड़कर सदा सर्वदा भक्तिपूर्वक आपके नाम का कीर्तन करूङ्गा । तत्सर्वं विस्मृतं ताताधमेनात्मापहारिणा । तस्मात्कष्टतरं दुःखं स प्राप्नति पुनः पुनः ॥ ३३४॥ हे तात ! आत्मापहारी अधम जीव ने अपने प्रतिज्ञादि कृत्यों को भूला दिया इसलिए बार-बार वह अत्यन्त कष्टप्रद दुःख प्राप्त करता है । तात्पर्य यह है कि जीव यदि अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भगवान् का भजन स्मरण करे तो सुखी जीवन जी सकता है लेकिन जीव दुर्भाग्यवश अपनी प्रतिज्ञा भूलकर संसार में फेस जाता है इसीलिए बार-बार दुखी होता है, जन्म लेता है, मरता है, संसृति चक्र में पड़ा है । पद्म पुराण क्रियायोगसारे - पद्म पुराण क्रियायोगसार में - स्मरणे रामनाम्नस्तु न काल नियमः स्मृतः । भ्रमादुच्चार्यमाणोऽपि सर्व दुःख विनाशनः ॥ ३३५॥ श्रीरामनाम के स्मरण कीर्तनादि में कालादि का कोई प्रतिबन्ध नहीं है प्रत्येक अवस्था में हर समय श्रीरामनाम का स्मरण कीर्तन किया जा सकता है भ्रमवश या असावधानता से श्रीरामनाम का उच्चारण करने पर भी समस्त दुःखों का नाश हो जाता है । नाम प्रभावं ब्रह्मर्षे रामचन्द्रस्य शाश्वतम् । ब्रवीम्यहं समासेन सेतिहासं निशामय ॥ ३३६॥ हे ब्रह्मर्षे ! मैं भगवान् श्रीसीतारामजी के नामों के शाश्वत प्रभाव का इतिहास के साथ सङ्क्षेप में वर्णन करता हूँ-सुनो-पहले किसी सतयुग में रघुनाम का एक वैश्य था उसकी पुत्री बड़ी सुन्दरी थी वह विवाह के पश्चात् विधवा हो गयी और कुछ दिन के बाद में व्यभिचार में निरत हो गयी । ससुराल से अपने पिता के घर आकर भी जब वह नीचाचरण में प्रवृत्त होने लगी तब उसके पिता ने उसके ऊपर क्रोध किया और समझाया तब वह अपने पिता के कोप के भय से वहाँ से भागकर किसी शहर में जाकर गणिका के रूप में निवास करने लगी । एक दिन किसी सन्त से पालित तोते को उसने बाजार में देखा तो उसे खरीद कर अपने घर ले आयी । रामेति सततं नाम पाठ्यते सुन्दराक्षरम् । रामनाम परम्ब्रह्म सर्ववेदाधिकं महत् ॥ ३३७॥ समस्त पातकध्वंसि स शुकस्तत्तदाऽपठत् । नामोच्चारणमात्रेण तयोश्च शुकवेश्ययोः ॥ ३३८॥ विनष्टमभवत्पापं सर्वमेव सुदारुणम् । रामनाम प्रभावेण तौ गतौ धाम्नि सत्वरम् ॥ ३३९॥ और वह वेश्या तोते को निरन्तर सुन्दर अक्षरों से युक्त श्रीरामनाम को पढ़ाती रहती थी कि श्रीरामनाम परब्रह्मस्वरूप, समस्त वेदों से श्रेष्ठ, महान् एवं समस्त पापों का नाशक है । उसके बाद वह तोता श्रीरामनाम का पाठ करने लगा । श्रीरामनाम के उच्चारण मात्र से उन दोनों तोता और वेश्या के सभी दारुण पाप नष्ट हो गये । श्रीरामनाम के प्रभाव से वे दोनों शीघ्र ही भगवान् के दिव्य धाम को चले गये । ईदृशं रामनामेदं जपस्व द्विजसत्तम । अनायासेन तेऽभीष्टं सर्वं सेत्स्यति नान्यतः ॥ ३४०॥ हे द्विजश्रेष्ठ ! ऐसे श्रीरामनाम का सादर जप करो, श्रीरामनाम के जप से बिना परिश्रम के ही तुम्हारे सारे अभीष्ट सिद्ध हो जायेङ्गे । दूसरे साधनों से नहीं । विष्णोर्नामानि विप्रेन्द्र सर्ववेदाधिकानि वै । तेषां मध्ये तु तत्वज्ञ रामनाम परं स्मृतम् ॥ ३४१॥ हे विप्रेन्द्र! भगवान् नारायण के सभी नाम वेदों से श्रेष्ठ हैं और हे तत्व! भगवान् के उन सभी नामों में श्रीरामनाम सर्वश्रेष्ठ कहा गया है । रामेत्यक्षरयुग्मं हि सर्वमन्त्राधिकं द्विज । यदुच्चारणमात्रेण पापी याति पराङ्गतिम् ॥ ३४२॥ हे द्विजवर्य ! राम ये दो अक्षर सभी मन्त्रों से श्रेष्ठ हैं जिसके उच्चारण मात्र से पापी भी श्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है । रामनाम प्रभावं हि सर्ववेदैः प्रपूजितम् । महेश एवं जानाति नान्यो जानाति वै मुने ॥ ३४३॥ सभी वेदों से पूजित श्रीरामनाम के प्रभाव को भगवान् शङ्कर ही जानते हैं, हे मुने ! दूसरा कोई नहीं जानता है । विष्णोर्नामसहस्राणि पठनाद्यल्लभते फलम् । तत्फलं लभते मर्त्यो रामनाम स्मरन् सकृत् ॥ ३४४॥ भगवान् विष्णु के एक हजार नामों के पाठ से जो फल प्राप्त होता है उस फल को मनुष्य एक बार श्रीरामनाम के स्मरण से प्राप्त कर लेता है । तत्रैव धर्मराजवाक्यं दूतान् प्रति - वहीं धर्मराजजी का वाक्य दूतों के प्रति - दूतः स्मरन्तौ तौ चापि रामनामाक्षरद्वयम् । तदा न मे दण्डनीयौ तयोः सीतापतिः प्रभुः ॥ ३४५॥ हे दूतों! यदि वे दोनों (तोता और वेश्या) ``रा'' ``म'' इन दो अक्षरों का स्मरण करते रहें हों तो वे दोनों मेरे द्वारा दण्डनीय नहीं है क्योङ्कि उन दोनों के स्वामी श्रीसीतारामजी हैं । संसारे नास्ति तत्पापं यद्रामस्मरणैरपि । न याति सङ्क्षयं सद्यो दृढं श‍ृणुत किङ्करा ॥ ३४६॥ हे सेवकों ! तुम लोग निश्चित सुनो कि संसार में ऐसा कोई पाप नहीं है जो श्रीरामनाम के स्मरण से तत्काल नष्ट न हो जाय । ये मानवाः प्रतिदिनं रघुनन्दनस्य नामानि घोरदुरितौघविनाशकानि । भक्त्याऽर्चयन्ति विबुध प्रवरार्चितस्य ते पापिनोऽपि हि भटा मम नैव दण्ड्या ॥ ३४७॥ हे मेरे भटो! जो मनुष्य श्रेष्ठ विद्वानों से पूजित श्रीसीताराम जी के, भयङ्करपापसमूहों के नाशक नामों का प्रतिदिन भक्तिपूर्वक अर्चन करते हैं अर्थात् श्रीरामनाम का जप करते हैं वे पापी भी मेरे द्वारा दण्ड के योग्य नहीं है । तस्माद्धि सर्व पुण्याढ्यौ गणिका स शुको भटाः । पूजनीयौ च तौ नित्यमस्माभिर्नात्र संशयः ॥ ३४८॥ इसलिए हे भटो ! वह गणिका और तोता ये दोनों पुण्यात्मा हैं और हम लोगों के द्वारा नित्य पूज्य हैं इसमें संशय नहीं है । तावत्तिष्ठन्ति पापानि देहेषु देहिनां वर । रामरामेति यावद्वै न स्मरन्ति सुख प्रदम् ॥ ३४९॥ हे देहधारियों में श्रेष्ठ मुनिवर! जीवों के शरीरों में तभी तक पाप निवास करते हैं जब तक वह सुख प्रदान करने वाले श्रीरामनाम का उच्चारण व स्मरण नहीं करता है । श्राद्धे च तर्पणे चैव बलिदाने तथोत्सवे । यज्ञे दाने व्रते चैव देवताराधनेऽपि च ॥ ३५०॥ अन्येष्वपि च कार्येषु वैदिकेषु विचक्षणैः । स स्मरेद्यत्फलं प्रेप्सू रामनामेति भक्तितः ॥ ३५१॥ श्राद्ध, तर्पण, बलिदान, उत्सव, यज्ञ, दान, व्रत, देवताराधन एवं विद्वानों के करने योग्य दूसरे सभी वैदिक कार्यों के अनुष्ठान के समय जिस फल की प्राप्ति की इच्छा हो उसके लिए भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का स्मरण करें । मृत्युकाले द्विजश्रेष्ठ रामरामेति यस्स्मरेत् । स पापात्माऽपि परमं मोक्षमाप्नोति मानवः ॥ ३५२॥ हे द्विजश्रेष्ठ! मृत्यु के समय में जो राम राम ऐसा स्मरण करता है वह पापी मनुष्य भी परम मोक्ष को प्राप्त करता है । रामेति नाम यात्रायां ये स्मरन्ति मनीषिणः । सर्वसिद्धिर्भवेत्तेषां यात्रायां नात्र संशयः ॥ ३५३॥ जो मनीषी लोग यात्रा के समय राम नाम का स्मरण करते हैं यात्रा में उन लोगों को सभी सिद्धि प्राप्त हो जाती है अर्थात् उनकी यात्रा मङ्गलमय एवं सफल होती है इसमें कोई संशय नहीं है । राजद्वारे तथा दुर्गे विदेशे दस्यु सङ्गमे । दुःस्वप्नदर्शने चैव ग्रहपीडासु वै मुने ॥ ३५४॥ अरण्ये प्रान्ते वाऽपि श्मशाने च भयानके । रामनाम स्मरेत्तस्य विद्यन्ते नापदो द्विज ॥ ३५५॥ हे मुने! राजद्वार, किला, विदेश, लुटेरों के समक्ष, दुःस्वप्न के दिखने पर, किसी ग्रह से पीड़ित होने पर, जङ्गल, मैदान और भयानक श्मशानादि स्थानों में हे द्विजों! जो रामनाम का स्मरण करता है उसके समक्ष कोई आपत्ति नहीं आती है । औत्पातिके महाघोरे राजरोगादिके भये । रामनाम स्मरन् मर्त्यो लभते नाशुभं क्वचित् ॥ ३५६॥ महा उत्पात के समय एवं महा भयङ्कर यक्ष्मादि राजरोग के भय के समय जो रामनाम का स्मरण करता है उसे कहीं भी अशुभ की प्राप्ति नहीं होती है । रामनाम द्विजश्रेष्ठ सर्वाशुभ निवारणम् । कामदं मोक्षदं चैव स्मर्तव्यं सततं बुधैः ॥ ३५७॥ हे द्विजश्रेष्ठ! श्रीरामनाम समस्त अशुभों का निवारक, कामनाओं को पूर्ण कर देने वाला और मोक्ष प्रदान करने वाला है अतः विद्वानों को निरन्तर श्रीरामनाम का स्मरण करना चाहिए । रामनामेति विप्रर्षे यस्मिन्न स्मर्यते क्षणे । क्षणः स एव व्यर्थस्स्यात्सत्यमेव मयोच्यते ॥ ३५८॥ हे ब्रह्मर्षे! मैं सत्य ही कहता हूँ कि जिस क्षण में श्रीरामनाम का स्मरण नहीं होता है वह क्षण व्यर्थ ही है । स्मरन्ति रामनामानि नावसीदन्ति मानवाः । सत्यं वदामि ते नित्यं महामङ्गल कारणम् ॥ ३५९॥ हे महात्मन् ! मैं आपसे कहता हूँ कि श्रीरामनाम नित्य महामङ्गलकारी है जो मनुष्य श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं वे दुखी नहीं होते हैं । जन्मकोटि दुरित क्षयमिच्छुस्सम्पदं च लभते भुवि मर्त्यः । रामनाम सततं यदि भक्त्या मोक्षदायि मधुरं स्मरतु स्म ॥ ३६०॥ जो मनुष्य अपने करोड़ों जन्मों के पापों को नष्ट करना चाहता है और पृथिवी पर सम्पत्ति की प्राप्ति करना चाहता है उसे मोक्ष देने वाले मधुर श्रीरामनाम का निरन्तर भक्तिपूर्वक स्मरण करना चाहिए । अहो चरित्रं जीवानां दुष्टानां पाप कर्मणात् । रामेति मुक्तिदं नाम न स्मरन्ति नराधमा ॥ ३६१॥ दुष्ट पाप परायण जीवों का चरित्र आश्चर्यजनक है कि वे नराधम मुक्ति देने वाले श्रीरामनाम का स्मरण नहीं करते हैं । अहर्निशं नाम परात्परेश्वरं जपन्ति ये ते सुखदा सदा शिवाः । तेषां पदस्पर्शरजोभिषेकात् सदैव पूतः किल पापिनो द्विजाः ॥ ३६२॥ हे ब्राह्मणों! जो लोग परात्परेश्वर श्रीरामनाम का दिन रात जप करते हैं वे लोग सबको सुख देने वाले एवं कल्याणस्वरूप हैं उनकी चरण धूलि से अभिषेक करने पर पापी भी निश्चित ही सदा सर्वदा के लिए पवित्र हो जायेङ्गे । सहस्रास्येन शेषोऽपि रामनाम स्मरत्यलम् । तत्प्रभावेण ब्रह्माण्डं धृत्वा क्लेशं बिना द्विज ॥ ३६३॥ हे द्विजश्रेष्ठ! भगवान् शेष भी अपने हजारों मुखों से अतिशय रूप से अपनी दो हजार रसनाओं से निरन्तर श्रीरामनाम का जप करते हैं और उसी के प्रभाव से बिना कष्ट के सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भार धारण करते हैं । वक्तुं श्रमो न चाल्पोऽपि श्रोतुमत्यन्त मोददम् । तथापि रामनामेदं न स्मरन्ति दुराशयः ॥ ३६४॥ श्रीरामनाम को कहने में थोड़ा भी परिश्रम नहीं है और सुनने पर अत्यन्त आनन्द प्रदान करने वाला है फिर भी दुष्ट हृदय जीव इस श्रीरामनाम का स्मरण नहीं करता है । अत्यन्त दुःखलभ्योपि सुमुक्तिर्जन्म कोटिभिः । लभ्यते रामनाम्नैव कर्मास्ति किमतः परम् ॥ ३६५॥ करोड़ों जन्मों में अत्यन्त दुःख से प्राप्त होने वाली मुक्ति श्रीरामनाम से सहज में ही सुलभ हो जाती है फिर श्रीरामनाम के जप से बढ़कर दूसरा कौन श्रेष्ठकर्म होगा? अर्थात् कोई नहीं । रामनामामृतं स्वादु कथं वाचा वदामि ते । स्मरणादेव ज्ञातव्यं सर्वदा बुध सत्तमैः ॥ ३६६॥ श्रीरामनामरूपी अमृत कितना सुस्वादु है इसको हम अपनी तुच्छ वाणी से तुमसे क्या कहें? श्रेष्ठ विद्वानों को सदा सर्वदा श्रीरामनाम का स्मरण करके श्रीरामनाम की श्रेष्ठता व माधुर्यता को समझ लेना चाहिए अर्थात् स्वाद वाणी का विषय नहीं अनुभव का विषय होता है और सबका अनुभव अपना-अपना होता है अतः श्रीरामनामरूपी अमृत का स्वाद स्वतः जप करके अनुभव कर लेना चाहिए । सर्वं कृत्यं कृतं तेन येनोक्तं नाम मुक्तिदम् । नातः परतरं वस्तु क्वचित् सन्दृश्यते द्विज ॥ ३६७॥ हे द्विजवर! जिस व्यक्ति ने मुक्तिदाता श्रीरामनाम का उच्चारण कर लिया उसने समस्त कर्त्तव्य कर्मों का अनुष्ठान कर लिया क्योङ्कि श्रीरामनाम से बढ़कर कोई भी दूसरी वस्तु कहीं नहीं दिखायी देती है । यग्वच्छ्रीरामनाम्नस्तु सुप्रतापं हृदिस्थले । नायाति सम्भ्रमन्तीह विमुखाः सर्वयोनिषु ॥ ३६८॥ जब तक श्रीरामनाम का सुन्दर प्रताप हृदय में व्यवस्थित नहीं होता है अर्थात् जब तक श्रीरामनाम के प्रति पूर्ण समर्पण नहीं हो जाता है तब तक मनुष्य भगवान् से विमुख होकर सभी योनियों में भटकते रहते हैं । रामनाम जप तत्परो जनो यत्फलं लभति तन्निरूपणे । याति नैव श्रमतोऽपि कदाचिच्छिव शिवा श्रुति शेष गणेशाः ॥ ३६९॥ श्रीरामनाम का जो तत्परता से जप करता है उसे जो फल प्राप्त होता है उसके वर्णन करने में भगवान् शङ्कर, पार्वती, वेद, अनन्त एवं गणेशजी भी परिश्रम करने पर भी कहीं भी समर्थ नहीं है अर्थात् ये लोग भी उस फल का वर्णन नहीं कर सकते हैं । मानुषं जन्म सम्प्राप्य यैर्नोक्तमक्षरद्वयम् । ते पिशाचास्तु चाण्डालस्सर्व प्रेत प्रपूजिताः ॥ ३७०॥ सुन्दर मानव शरीर को प्राप्त करके भी जिन लोगों ने श्रीरामनाम के दो अक्षर का उच्चारण नहीं किया वे सब लोग सभी प्रेतात्माओं से पूजित पिशाच एवं चाण्डाल है । आदिपुराणे श्रीकृष्णवाक्यमर्जुनं प्रति- आदिपुराण में श्रीकृष्ण का वाक्य अर्जुन के प्रति- रामनाम सदा ग्राही रामनाम प्रियः सदा । भक्तिस्तस्मै प्रदातव्या न च मुक्तिः कदाचन ॥ ३७१॥ हे अर्जुन ! जो सदा सर्वदा श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं और जिन्हें श्रीरामनाम प्रिय है उन लोगों को मैं भक्ति प्रदान करता हूँ कभी भी भूलकर भी मुक्ति नहीं देता हूँ । गायन्ति रामनामानि वैष्णवाश्च युगे युगे । त्यक्त्वा च सर्वकर्माणि धर्माणि च कपिध्वज ॥ ३७२॥ हे अर्जुन ! प्रत्येक युग में वैष्णवजन सभी कर्मों और धर्मों को छोड़कर श्रीरामनाम का गान करते रहते हैं । रामनामैव नामैव रामनामैव केवलम् । गतिस्तेषां गतिस्तेषां गतिस्तेषां सुनिश्चितम् ॥ ३७३॥ उन वैष्णवों की निश्चित रूप से श्रीरामनाम ही परम गति है अर्थात् वैष्णवों का जीवन सर्वस्व श्रीरामनाम ही है । श्रद्धया हेलया नाम वदन्ति मनुजा भुवि । तेषां नास्ति भयं पार्थ रामनामप्रसादतः ॥ ३७४॥ हे पृथा पुत्र अर्जुन! जो मनुष्य श्रद्धा से अथवा अनादर भाव से भी पृथिवी पर श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं, श्रीरामनाम महाराज की कृपा से उन्हें कहीं भी किसी भी प्रकार का भय नहीं है । रामनाम रता यत्र गच्छन्ति प्रेम सम्प्लुताः । भक्तांस्ताननुगच्छन्ति मुक्तयः स्तुतिभिस्सह ॥ ३७५॥ भगवत्प्रेमरस में भीने हुए श्रीरामनामानुरागी भक्तजन जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ-वहाँ पाँचों प्रकार की मुक्तियाँ विभिन्न प्रकार से स्तुति करती हुई उन भक्तों का अनुगमन करती है । मानवा ये सुधासारं रामनाम जपन्ति हि । ते धन्या मृत्यु सन्त्रासरहिता रामवल्लभा ॥ ३७६॥ जो मानव अत्यन्त सुधासागर स्वरूप श्रीरामनाम का धारा प्रवाह जप करते हैं । वे लोग धन्य, मृत्यु के भय से रहित एवं भगवान् श्रीराम के अत्यन्त प्रिय हैं । नामैव परमा मुक्तिर्नामैव परमा गतिः । नामैव परमा शान्तिर्नामैव परमा मतिः ॥ ३७७॥ नामैव परमा भक्तिर्नामैव परमा धृतिः । नामैव परमा प्रीतिर्नामैव परमा स्मृतिः ॥ ३७८॥ नामैव परमं पुण्यं नामैव परमं तपः । नामैव परमो धर्मो नामैव परमो गुरुः ॥ ३७९॥ नामैव परमं ज्ञानं नामैव चाखिलं जगत् । नामैव जीवनं जन्तोर्नामैव विपुलं धनम् ॥ ३८०॥ नाव जगतां सत्यं नाव जगतां प्रियम् । नामैव जगतां ध्यानं नामैव जगतां परम् ॥ ३८१॥ नामैव शरणं जन्तोर्नामैव जगतां गुरुः । नामैव जगतां बीजं नामैव पावनं परम् ॥ ३८२॥ हे अर्जुन ! श्रीरामनाम ही परम मुक्ति, परम गति, परम शान्ति, परम बुद्धि, परम भक्ति, परम धैर्य, परम प्रेम, परम स्मृति, परम पुण्य, परम तप, परम धर्म, परम गुरु, परम ज्ञान, सम्पूर्ण जगत्, जन्तुओं का जीवन, पर्याप्त धन, जगत् में सत्य पदार्थ, जगत् में एकमात्र प्रेमास्पद, जगत् में एक मात्र ध्यान का विषय, जगत् से सर्वदा परे, जीवमात्र का एकमात्र शरण, जगद्गुरु जगत् का मूल कारण परम पवित्र है । रामनाम रता ये च ते वै श्रीरामभावुकाः । तेषां सन्दर्शनादेव भवेद्भक्ती रसात्मिका ॥ ३८३॥ जो लोग निरन्तर श्रीरामनाम के जप में निरत है वे निश्चय ही श्रीरामजी के भावुक भक्त हैं उन भक्तों के दर्शन से ही रसात्मिका भक्ति प्रकट हो जाती है । कामादि गुण संयुक्ता नाममात्रैक बान्धवाः । प्रीतिं कुर्वन्ति ते पार्थ न तथा जित षड्गुण ॥ ३८४॥ हे पार्थ ! जो लोग कामक्रोधादि विकारों से युक्त होते हुए भी श्रीरामनाम को ही अपना सर्वस्व मानते हैं वे लोग जिस प्रकार मुझसे प्रेम करते हैं वैसा प्रेम कामक्रोधादि दोषों को जीतने वाले लोग नहीं कर पाते हैं । तं देशं पतितं मन्ये यत्र नास्ति सु वैष्णवः । रामनाम परो नित्यं परानन्द विवर्द्धनः ॥ ३८५॥ हे पार्थ ! मैं उस देश को पतित (महानिन्दनीय) मानता हूँ जहाँ नित्य परमानन्द को बढ़ाने वाले, श्रीरामनाम परायण सुन्दर वैष्णव नहीं रहते हैं । रामनाम रता जीवा न पतन्ति कदाचन । इन्द्राद्यास्सम्पतन्त्यन्ते तथा चान्येऽधिकारिणः ॥ ३८६॥ श्रीरामनाम के जप में निरत जीवों का कभी भी पतन नहीं होता है । श्रीरामनामानुरागियों के अतिरिक्त इन्द्रादि देवताओं तथा दूसरे अधिकारियों का अन्त में पतन निश्चित है । राम स्मरण मात्रेण प्राणान्मुञ्चन्ति ये नराः । फलं तेषां न पश्यामि भजामि तांश्च पार्थिव ॥ ३८७॥ हे राजन् ! जो मनुष्य श्रीरामनाम का स्मरण मात्र करके अपने प्राणों को छोड़ता है उनके फल को मैं नहीं देखता हूँ और मैं उनका भजन करता हूँ । नाम स्मरण मात्रेण नरो याति निरापदम् । ये स्मरन्ति सदा रामं तेषां ज्ञानेन किं फलम् ॥ ३८८॥ श्रीरामनाम के स्मरणमात्र से मनुष्य आपत्ति शून्य पद को प्राप्त करता है, जो लोग सदा सर्वदा श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं उनको ज्ञान से क्या प्रयोजन है? नामैव जगतां बन्धुनमैव जगतां प्रभुः । नामैव जगतां जन्म नामैव सचराचरम् ॥ ३८९॥ श्रीरामनाम ही सम्पूर्ण जगत् का बन्धु है वही सबका स्वामी है वही सबका उत्पत्ति स्थान है चर अचर सम्पूर्णजगत् वही है । नाम्नैव धार्यते विश्वं नाम्नैव पाल्यते जगत् । नाम्नैव नीयते नाम नाम्नैव भुज्यते फलम् ॥ ३९०॥ सम्पूर्ण विश्व श्रीरामनाम के द्वारा ही धारण किया जा रहा है । सम्पूर्ण जगत् नाम के द्वारा ही पालित है नाम के द्वारा ही नाम ले जाया जाता है । नाम के द्वारा ही फल भोगा जाता है । नाम्नैव गृह्यते नाम गोप्यं परतरात्परम् । नाम्नैव कार्यते कर्म नाम्नैव नीयते फलम् ॥ ३९१॥ अत्यन्त गोपनीय एवं परात्पर श्रीरामनाम के द्वारा ही नाम ग्रहण किया जाता है । नाम के द्वारा ही सारे कर्म कराये जाते हैं और नाम के द्वारा ही फल प्राप्त कराये जाते हैं । नामैव चाजशास्त्राणां तात्पर्यार्थमुत्तमम् । नामैव वेद सारांशं सिद्धान्तं सर्वदा शिवम् ॥ ३९२॥ समस्त वेदाङ्ग शास्त्रों का उत्तम तात्पर्यार्थ श्रीरामनाम ही है और समस्त वेदों का सारांश सिद्धान्त सर्वदा कल्याणस्वरूप श्रीरामनाम ही है । नाम्नैव नीयते मेधा परे ब्रह्मणि निश्चला । नाम्नैव चञ्चलं चित्तं मनस्तस्मिन्प्रलीयते ॥ ३९३॥ श्रीरामनाम से ही निश्चला बुद्धि परब्रह्म में हो पाती है और श्रीरामनाम के जप से ही चञ्चलचित्त व मन परब्रह्म में विलीन होता है । श्रीरामस्मरणेनैव नरो याति पराङ्गतिम् । सत्यं सत्यं सदा सत्यं न जाने नामजं फलम् ॥ ३९४॥ श्रीरामनाम के स्मरण से ही मनुष्य सर्वश्रेष्ठ गति को प्राप्त करता है यह बात सत्य एवं सदासत्य है कि श्रीरामनाम से होने वाले फल को मैं नहीं जानता हूँ । रामनाम प्रभावोऽयं सर्वोत्तम उदाहृतः । समासेन तथा पार्थ वक्ष्येऽहं तव हेतवे ॥ ३९५॥ हे पार्थ ! श्रीरामनाम का यह सर्वोत्तम प्रभाव कहा गया और तुम्हारे लिए सङ्क्षेप से मैं पुनः कहूँगा । न नाम सदृशं ध्यानं न नाम सदृशो जपः । न नाम सदृशस्त्यागो न नाम सदृशी गतिः ॥ ३९६॥ न नाम सदृशं तीर्थं न नाम सदृशं तपः । न नाम सदृशं कर्म न नाम सदृशः शमः ॥ ३९७॥ न नाम सदृशी मुक्तिर्न नाम सदृशः प्रभुः । ये गृह्णन्ति सदा नाम त एव जित षड्गुणा ॥ ३९८॥ श्रीरामनाम के सदृश न कोई ध्यान है, न कोई जप है, न कोई त्याग है, न कोई गति है, न कोई तीर्थ है, न कोई शम (मनोनिग्रह) है, न कोई मुक्ति है, न कोई समर्थ है, जो लोग सदा सर्वदा श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वास्तव में वे लोग ही छः विकारों को जीतने वाले हैं । कुर्वन् वा कारयन्वाऽपि रामनामजपँस्तथा । नीत्वा कुल सहस्राणि परन्धामाधिगच्छति ॥ ३९९॥ जो कोई श्रीरामनाम का जप करते हैं अथवा जप करवाते हैं वे हजारों कुल कुटुम्बियों के साथ भगवान् के परम धाम को जाते हैं । नाम्नैव नीयते पुण्यं नाम्नैव नीयते तपः । नाम्नैव नीयते धर्मो जगदेतच्चराचरम् ॥ ४००॥ श्रीरामनाम से ही पुण्य प्राप्त किया जाता है, तपस्या प्राप्त होती है, धर्म प्राप्त किया जाता है, यह चराचर जगत् श्रीरामनाम से ही पालित एवं व्यवस्थित है । रामनाम प्रभावेण सर्व सिद्धीश्वरो भवेत् । विश्वासेनैव श्रीरामनाम जाप्यं सदा बुधैः ॥ ४०१॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से साधक सभी सिद्धियों का स्वामी हो सकता है । अतः विद्वानों को सदा विश्वासपूर्वक श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । शान्तो दान्तः क्षमाशीलो रामनाम परायणः । असङ्ख्य कुलजानां वै तारणे सर्वदा क्षमः ॥ ४०२॥ जो शान्त है अर्थात् जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है और दान्त हैं अर्थात् जो इन्द्रियों को वश में कर लिया है, जो क्षमाशील हैं और जो रामनाम परायण है वे लोग निश्चय ही असङ्ख्य कुल में उत्पन्न जीवों को भवसागर से तारने में सदा समर्थ होते हैं । ये नाम युक्ता विचरन्ति भूमौ त्यक्त्वाऽर्थकामान्विषयांश्च भोगान् । तेषां च भक्तिः परमा च निष्ठा सदैव शुद्धा शुभगा भवन्ती ॥ ४०३॥ जो लोग अर्थ, काम, विषयों और भोगों का त्याग करके श्रीरामनाम के जप स्मरण से युक्त होकर पृथिवी पर विचरण करते हैं उनकी भक्ति और परम निष्ठा सदैव शुद्ध और सुन्दर होती है । स्मरन्यो रामनामानि त्यक्त्वा कर्मापि चाखिलम् । स पूतः सर्वपापेभ्यः पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ ४०४॥ जो सम्पूर्ण कर्मों का त्याग करके श्रीरामनाम का स्मरण करता है वह समस्त पापों से पवित्र हो जाता है जैसे कमल का पत्र जल में रहकर भी जल से अलग रहता है वैसे ही वह संसार में रहकर भी संसार से अलग रहता है । त्यक्त्वा श्रीरामनामानि कर्म कुर्वन्ति येऽधमाः । तेषां कर्माणि बन्धाय न सुखाय कदाचन ॥ ४०५॥ जो लोग श्रीरामनाम का त्याग करके दूसरे कर्मों का अनुष्ठान करते हैं वे सब अधम है उनके सारे कर्म बन्धन के हेतु हैं कभी भी सुख देने वाले नहीं है । यस्य चेतसि श्रीराम नाम माङ्गलिकं परम् । स जित्वा सकलाल्लोकान् परन्धाम परिव्रजेत् ॥ ४०६॥ जिसके चित्त में सदा सर्वदा परम मङ्गलमय श्रीरामनाम विराजमान हैं वह सभी लोकों को जीतकर भगवान् के दिव्य धाम को प्राप्त करता है । नाम युक्ता जना पार्थ जात्यन्तर समन्विताः । प्रीतिं कुर्वन्ति श्रीरामं न तथा नष्ट षड्गुणाः ॥ ४०७॥ हे पार्थ ! नीच जाति में उत्पन्न भक्त भी श्रीरामनाम से युक्त होकर भगवान् श्रीराम से जैसी प्रीति करते हैं वैसी प्रीति उत्तम कुल में जन्म लेने वाले कामादि विकारों को जीतने वाले ब्राह्मणादि नहीं करते हैं श्रीरामनाम से रहित होने से । गायन्ति रामनामानि सततं ये जना भुवि । नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यो नमस्तेभ्यः पुनः पुनः ॥ ४०८॥ जो लोग पृथिवी पर निरन्तर श्रीरामनाम का गान करते रहते हैं उनको नमस्कार है, उनको नमस्कार है उनको बारम्बार नमस्कार है । रामनामाश्रया ये वै भावुकाः प्रेम सम्प्लुताः । ते कृतार्थास्सदा तात सत्यं सत्यं न चान्यथा ॥ ४०९॥ हे तात ! जो भावुक भगवत्प्रेमरस में निमग्न होकर श्रीरामनाम का आश्रय लेते हैं वे लोग सदा सर्वदा के लिए कृतार्थ हैं मेरी वाणी अन्यथा नहीं है सत्य है सत्य है । इति विज्ञापितं तात स्वया बुद्धया विधारय । रामनाम प्रसादेन सर्वं सुखमवाप्स्यसि ॥ ४१०॥ हे तात अर्जुन ! मेरे द्वारा विज्ञापित रहस्य को अपनी बुद्धि से विशेष रूप से निर्धारण करो इतना तो सच है कि श्रीरामनाम की कृपा से तुम सभी सुखों को प्राप्त करोगे । तां नामगाथां विचरन्ति भूमौ गीत्वा सदा ते पुरुषाः सुधन्यष्टी । ये नामगाथा परतत्त्वनिष्ठास्ते धन्य धन्याः भुवि कृत्य पुण्याः ॥ ४११॥ जो लोग श्रीरामनाम की महिमा का गान करते हुए पृथिवी पर विचरण करते हैं वे लोग सदासर्वदा के लिए धन्य हैं और जो लोग श्रीरामनाम के परत्व एवं महत्व में निष्ठा रखने वाले हैं वे लोग पृथिवी में धन्यातिधन्य हैं सदा कृतार्थ रूप हैं । रामनाम जनासक्तो रामनाम जनप्रियः । स पूतो निर्विकल्पश्च सर्वपाप बहिर्मुखः ॥ ४१२॥ श्रीरामनामानुरागीजनों में जो आसक्त है और श्रीरामनामानुरागीजन जिसे प्रिय हैं वही परम पवित्र है सभी कल्पनाओं से रहित है, एवं समस्त पापों से मुक्त है । रामनाम प्रसङ्गेन ये जपन्तीह चार्जुन । तेऽपि ध्वस्ताखिलाघौङ्घा यान्ति रामास्पदं परम् ॥ ४१३॥ हे अर्जुन ! इस संसार में जो लोग बिना श्रद्धा के प्रसङ्गवश श्रीरामनाम का जप किया करते हैं उनके भी सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वे भी भगवान् के दिव्य धाम को प्राप्त करते हैं । घोषयेन्नाम निर्वाण कारणं यस्त्वनन्य धीः । तस्य पुण्यफलं पार्थ वक्तुं कैः शक्यते भुवि ॥ ४१४॥ हे पार्थ ! अनन्यबुद्धि जो भक्त मोक्षकारण श्रीरामनाम का उच्चारण करता है उसके पुण्यफल कावर्णन पृथिवी पर कौन कर सकता है । तस्मान्नामानि कौन्तेय भजस्व दृढ चेतसा । रामनाम समायुक्तास्ते मे प्रियतमास्सदा ॥ ४१५॥ हे कुन्ती पुत्र अर्जुन ! तुम दृढ़चित्त होकर भगवान् के नामों का भजन करो । जो लोग श्रीरामनाम से समायुक्त हैं वे मुझे सदा सर्वदा अत्यन्त प्रिय हैं । सततं नाम गायन्ति विनिर्विण्णेन चेतसा । तेषां मध्ये सदा वासः श्रीरामस्य विशेषतः ॥ ४१६॥ जो लोग खेद रहित चित्त से निरन्तर श्रीरामनाम का गान करते हैं उन लोगों के मध्य में सदासर्वदा विशेष रूप से श्रीरामजी निवास करते हैं । श्रद्धया हेलया वाऽपि गायन्ति नाम मङ्गलम् । तेषां मध्ये परं नाम वसेन्नित्यं न संशयः ॥ ४१७॥ जो श्रद्धापूर्वक अथवा अनादरभाव से महामङ्गलस्वरूप श्रीरामनाम का गान करते हैं उनके मध्य में नित्य श्रीरामनाम महाराज निवास करते हैं इसमें संशय नहीं है । न तत्र विस्मयः कार्यो भवता रामनाम्नि च । सत्यं वदामि ते पार्थ प्रियाय मम चात्मने ॥ ४१८॥ हे अर्जुन ! श्रीरामनाम के परत्व एवं महत्व के विषय में तुम आश्चर्य मत करना, तुम मुझे प्रिय एवं मेरी आत्मा हो इसलिए तुमसे सत्य कहता हूँ । यन्नाम स्मरतो नित्यं महा ह्यज्ञान बन्धनम् । छिद्यते चाश्रमेणैव तमहं राघवं भजे ॥ ४१९॥ जिस भगवान् श्रीराघवेन्द्र के नाम का नित्य स्मरण करने से बिना श्रम के ही महान् अज्ञान का बन्धन भी छिन्न भिन्न हो जाता है उन भगवान् श्रीराघवेन्द्र का मैं भजन करता हूँ । श्रद्धया परया युक्तो रामनाम परायणः । करोति जानकीजानिस्तस्य चिन्तां पुनः पुनः ॥ ४२०॥ जो सर्वोत्कृष्ट श्रद्धा से युक्त होकर श्रीरामनाम के परायण हैं अर्थात् भजन में लगे रहते हैं उसकी बार-बार चिन्ता श्रीजानकीनाथ भगवान् करते हैं । अशेष पातकैर्युक्तः सर्वदोष परिप्लुतः । स पूतः सर्वपापेभ्यो यस्य नाम परन्तप ॥ ४२१॥ हे शत्रुओं को तपाने वाले अर्जुन ! जो सम्पूर्ण पापों से युक्त हैं और जो सभी प्रकार के दोषों में निमग्न हैं वह भी सभी पापों से मुक्त होकर परम पवित्र हो जाता है जिसका श्रीरामनाम से सम्बन्ध हो जाता है अर्थात् जो श्रीरामनाम को अपना मानकर भजन करने लगता है । रामनाम सदा प्रेम्णा संस्मरामि जगद्गुरुम् । क्षणं न विस्मृतं याति सत्यं सत्यं वचो मम ॥ ४२२॥ मैं सदा सर्वदा प्रेम से जगद्गुरु श्रीरामनाम का स्मण करता हूँ, क्षण भर भी नहीं भूलता हूँ यह मेरी वाणी सत्य है सत्य है । पर निन्दा समायुक्तः परदार परायणः । स पूतः सर्वपापेभ्यो यस्य नाम परन्तप ॥ ४२३॥ हे परन्तप अर्जुन ! जो दूसरों की निन्दा करने में लगे हुए हैं और जो परस्त्री गमन करने वाले हैं वे भी सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं, जिसका श्रीरामनाम से सम्बन्ध हो जाता है । पर हिंसा समायुक्तो लोभ मोह समाकुलः । सः पूतः सर्वपापेभ्यो यस्य नाम्नि सदा रुचिः ॥ ४२४॥ जो दूसरों की हिंसा करने में लगे हुए हैं और जो लोभ मोह से सम्यक् व्याकुल हैं वे भी सभी पापों से मुक्त होकर परम पवित्र हो जाते हैं, जिनकी श्रीरामनाम में सदा रूचि बनी रहती है । अशेष पातकैर्व्याप्ताः स्वधर्म परिवर्जिताः । एते तरन्ति पापिष्ठा रामनाम प्रसादतः ॥ ४२५॥ जो सम्पूर्ण पापों से पूर्णतया व्याप्त हैं और जो अपने धर्म कर्म से शून्य है ऐसे पापिष्ठ भी श्रीरामनाम की कृपा से तर जाते हैं । तिष्ठन्ति रामनामानि तिष्ठन्ति वदनानि च । तथापि नरकेमूढाः पतन्तीत्यद्भुतं महत् ॥ ४२६॥ भगवान् श्रीराम के सुन्दर-सुन्दर नाम विद्यमान हैं और सुन्दर मुख मण्डल भी विराजमान है फिर भी मूर्ख लोग नरक में गिर रहे हैं यह महान् आश्चर्य है । गायन्ति रामनामानि कर्म कुर्वन्ति चाखिलम् । स याति परमं स्थानं रामेण सह मोदते ॥ ४२७॥ जो सारे कर्मों को करते हैं और श्रीरामनाम का गान करते हैं वे लोग दिव्य धाम में जाते हैं और वहाँ श्रीरामजी के साथ आनन्द का अनुभव करते हैं । विसृज्य रामनामानि कर्म कुर्वन्ति चाखिलम् । किमाश्चर्यं किमाश्चर्यं किमाश्चर्यं धनञ्जय ॥ ४२८॥ हे अर्जुन'' ! भगवान् श्रीराम के मधुर नामों को छोड़कर अन्य सभी कर्मों को करते हैं इससे बढ़कर आश्चर्य क्या है? उनका सारा प्रयास व्यर्थ है । शान्तोदान्तः क्षमाशीलो रामनामार्थ चिन्तकः । तस्य सद्गुण सङ्ख्यमं वक्तुन्नैव क्षमोप्यहम् ॥ ४२९॥ जो मन एवं इन्द्रियों का निग्रह करते हुए श्रीरामनाम के अर्थों का चिन्तन करते हैं उनके सद्गुणों की सङ्ख्या का वर्णन मैं भी नहीं कर सकता । विसृज्य रामनामानि कर्म कुर्वन्ति ये नराः । अप्राप्य सद्गतिं पार्थ भ्रमन्ति कर्म वर्त्मसु ॥ ४३०॥ जो लोग श्रीरामनाम को छोड़कर दूसरे सारे कर्म करते हैं वे लोग सद्गति न प्राप्त करके कर्म मार्ग में ही घूमते रहते हैं । सर्वयोनिषु कौन्तेय भ्रमन्ति ते नराधमा । विसृज्य रामनामानि माया मोहित चेतसः ॥ ४३१॥ जो श्रीरामनाम का त्याग करके माया से मोहित चित्त वाले हो गये हैं वे नराधम हैं हे अर्जुन ! वे लोग सभी योनियों में घूमते रहते हैं । यदृच्छ्यापि श्रीरामनाम गृह्णन्ति सादरम् । स पूतः सर्वपापेभ्यो रामनाम प्रसादतः ॥ ४३२॥ जो लोग दैववश बिना प्रेम के अथवा आदरपूर्वक श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे भी श्रीरामनाम की कृपा से सभी पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं । येनकेन प्रकारेण नाममात्रैक जल्पकाः । श्रमं विनैव गच्छन्ति परे धाम्नि समादरात् ॥ ४३३॥ जो लोग जिस किसी प्रकार से केवल श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे लोग बिना परिश्रम के ही सादर भगवान् के दिव्य धाम को प्राप्त करते हैं । नामयुक्ताञ्जनान् दृष्ट्वा यः पश्येत् सादरं सखे । स याति परमं स्थानं रामेण सह मोदते ॥ ४३४॥ जो लोग श्रीरामनामानुरागी साधकों को देखकर उनका आदर करते हैं हे मित्र अर्जुन ! वे भी भगवान्के दिव्य धाम साकेत में जाकर भगवान् श्रीरामजी के साथ आनन्दानुभव करते हैं । नामयुक्ताञ्जनान् दृष्ट्वा प्रणमन्ति च ये नराः । ते पूतास्सर्वपापेभ्यः कर्मणा तेन हेतुना ॥ ४३५॥ श्रीरामनामानुरागी भक्तों को देखकर जो उन्हें सादर प्रणाम करते हैं वे लोग उस कर्म के प्रभाव से सभी पापों से मुक्त होकर पवित्र हो जाते हैं । नामयुक्ताञ्जनान् दृष्ट्वा स्निग्धो भवति यो नरः । स याति परमं स्थानं परमानन्द सागरम् ॥ ४३६॥ श्रीरामनामानुरागी भक्तों का दर्शन करके जिनका चित्तभाव से द्रवित हो जाता है वे लोग भी परमानन्द सागर दिव्य लोक में जाते हैं । गीत्वा च रामनामानि विचरेद्राम सन्निधौ । इदं ब्रवीमि ते सत्यं तस्य वश्यो जगत्पतिः ॥ ४३७॥ जो लोग श्रीरामनाम का गान करते हुए श्रीरामजी के समीप विचरण करते रहते हैं अर्थात् जो भगवन्नाम सङ्कीर्तन करते हुए भगवान् की परिक्रमा करते रहते हैं हे अर्जुन ! मैं तुमसे सत्य कहता हूँ कि उस भक्त के अधीन भगवान् हो जाते हैं । गीत्वा च रामनामानि ये रुदन्ति नरोत्तमाः । तेषां हरिः परिक्रीतो परमेशेन संयुक्तः ॥ ४३८॥ जो श्रेष्ठपुरुष श्रीरामनाम का गान करते हुए रुदन करते रहते हैं उनके हाथों भगवान् श्रीराम के साथ मैं बिक जाता हूँ अर्थात् उनके वश में हो जाता हूँ । गीत्वा च रामनामेति पतन्ति भुवि ये नराः । ते वै धन्यातिधन्याश्च वैष्णवानां शिरोमणिः ॥ ४३९॥ जो श्रीरामनाम का गान करते हुए पृथिवी पर गिर पड़ते हैं वे लोग धन्यातिधन्य एवं वैष्णवों में अग्रगण्य हैं । यदृच्छया न गृह्णन्ति रामनामेति मङ्गलम् । अदृश्यास्ते जनाः पार्थ दृष्टिमात्रेण वर्जिताः ॥ ४४०॥ परममङ्गल श्रीरामनाम का उच्चारण जो दैववश भी नहीं करते हैं हे अर्जुन ! ऐसे लोगों का दर्शन नहीं करना चाहिए यदि कदाचित् सामने आ जाये तो मुख फेर लेना चाहिए अथवा नेत्र बन्द कर लेना चाहिए तात्पर्य यह है कि विमुखों के मुख देखने से सम्भाषण से, एवं स्पर्श से पाप ताप प्राप्त होता है अतः सावधान रहना चाहिए । स्वप्नेऽपि रामनाम्नस्तु येषामुच्चारणं नहि । भाग्यहीनास्तु ते नीचाः पापिनामग्रगामिनः ॥ ४४१॥ स्वप्न में भी जिनके मुख से श्रीरामनाम का उच्चारण नहीं हुआ, वे भाग्यहीन, नीच एवं पापियों में अग्रगण्य हैं । भिक्षया ये न गृह्णन्ति रामनाम परमेश्वरम् । लोकोपचारनिरतास्ते वै पाखण्डिनो ध्रुवम् ॥ ४४२॥ जो लोग भिक्षा के कारण अर्थात् श्रीरामनाम कहेङ्गे तो भिक्षा नहीं मिलेगा इस भय से परमेश्वर श्रीरामनाम का उच्चारण नहीं करते हैं वे लोग लोकवासना में बन्धे हुए हैं और निश्चित ही पाखण्डी हैं । रामनाम जपाज्जीवा अनायासेन संसृतिम् । तरन्त्येव तरन्त्येव तरन्त्येव सुनिश्चितम् ॥ ४४३॥ श्रीरामनाम के जप से जीव बिना परिश्रम के ही निश्चित ही संसार चक्र को तर जाते हैं तर जाते हैं तर जाते हैं । तत्रैवार्जुनवाक्यं श्रीकृष्णं प्रति - वहीं अर्जुनजी का वाक्य श्रीकृष्ण के प्रति - भवत्येव भवत्येव भवत्येव महामते । सर्वपाप परिव्याप्तास्तरन्ति नामबान्धवाः ॥ ४४४॥ हे महाबुद्धे ! आपने जैसा कहा वैसा ही है वैसा ही है, जो सम्पूर्ण पाप से युक्त है वह यदि श्रीरामनाम को अपना बना ले तो निश्चित ही भवसागर से पार हो जायेगा । नमोस्तु नामरूपाय नमोस्तु नामजल्पिने । नमोस्तु नाम साध्याय वेदवेद्याय शाश्क्ते ॥ ४४५॥ श्रीरामनाम के परात्पर स्वरूप को नमस्कार हो, श्रीरामनाम के जप करने वालों को नमस्कार हो, एवं श्रीरामनाम के परम साध्य फलस्वरूप समस्त वेदों से प्रतिपाद्य तथा अविनाशी भगवान् श्रीराम को नमस्कार हो । नमोस्तु नाम नित्याय नमो नामप्रभाविने । नमोस्तु नामशुद्धाय नमो नाममयाय च ॥ ४४६॥ नित्यस्वरूप, परम प्रभावी, परम विशुद्ध और समस्त नाममय श्रीरामनाम को नमस्कार हो । श्रीरामनाम माहात्म्यं यः पठेच्छ्रद्धयान्वितः । स याति परमं स्थानं रामनाम प्रसादतः ॥ ४४७॥ जो श्रद्धाभक्ति से युक्त होकर श्रीरामनाम के माहात्म्य को पढेगा वह श्रीरामनाम की कृपा से सर्वोत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करेगा । रामनामार्थमुत्कृष्टं पवित्रं पावनं परम् । ये ध्यायन्ति सदा स्नेहात्ते कृतार्थाः जगत्त्रये ॥ ४४८॥ जो श्रीरामनाम के उत्कृष्ट पवित्र एवं परम पावन अर्थों का सदा सर्वदा स्नेहपूर्वक चिन्तन करते हैं वे लोग तीनों लोकों में कृतार्थ हैं । सौर्य धर्मोत्तरे - सौर्य धर्मोत्तर में - श्रीमद्रामस्य नाम्नस्तु प्रभावं निर्मलं मुने । जपावेशवशेनैव ज्ञायते सज्ज्मैः वचित् ॥ ४४९॥ हे मुने ! भगवान् श्रीराम के नाम के निर्मल प्रभाव को जपावेश के द्वारा ही कुछ सज्जन लोग कहीं समझ (जान) पाते हैं, सब नहीं । मनोरथप्रदातारं सज्जनानां परं प्रियम् । लौकिकी दुर्भगा ब्रीडा हन्तरं नाम सद्यशः ॥ ४५०॥ श्रीरामनाम का पवित्र यश सत्पुरुषों के मनोरथ को पूर्ण करने वाला, सन्त महापुरुषों को परम प्रिय एवं दुर्भाग्यस्वरूप लोक लज्जा का नाश करने वाला है । सकृदुच्चरितः शब्दो रामनाम्ना विभूषितः । कुरुते नामवत्कार्यं सर्वं मोक्षावधिं नृणाम् ॥ ४५१॥ यदि श्रीरामनाम से अलङ्कृत शब्दों का एक बार उच्चारण किया गया तो वह शब्द मनुष्यों के मोक्ष पर्यन्त श्रीरामनाम की तरह सभी कार्यों को करता है । परत्वं परमं नाम्नो विदितं सर्वतः श्रुतौ । अबुधाः नैव जानन्ति सम्पतन्ति भवार्णवे ॥ ४५२॥ श्रीरामनाम का परम परत्व सर्वत्र वेद में प्रसिद्ध है मूर्ख लोग उसे नहीं जानते हैं और बार-बार भवसागर में गिरते हैं । सकर्मोपासना ज्ञानमनायासेन सिद्धयति । रामनाम यदा जिह्वा सञ्जपत्यखिलेश्वरम् ॥ ४५३॥ जब जिह्वा सर्वेश्वरेश्वर श्रीरामनाम का सम्यक् जप करती है उस समय सभी कर्म, उपासना एवं ज्ञान अनायास ही सिद्ध हो जाते हैं । काशीखण्डे श्रीशिववाक्यं - काशीखण्ड में श्रीशिवजी का वाक्य - पेयं पेयं श्रवणपुटके रामनामाभिरामं ध्येयं ध्येयं मनसि सततं तारकं ब्रह्मरूपम् । जल्पन्जल्पन्प्रकृतिविकृतौ प्राणिनां कर्णमूले वीथ्यां वीथ्यामटतिजटिलः कोऽपि काशी निवासी ॥ ४५४॥ काशी में नित्य निवास करने वाले जटाधारी दयासागर कोई (भगवान् शङ्कर) प्राणियों की विकृति (शरीर) के प्रकृति (पञ्चमहाभूतों) में विलीन होने पर अर्थात् प्राणियों के शरीर त्याग (मृत्यु) के समय काशी में ``हे काशी वासियों ! अपने कानरूपी दोनों से श्रीरामनामरूपी अमृत का खूब पान करो और परब्रह्म स्वरूप तारक मन्त्र का मन से निरन्तर चिन्तन करो'' ऐसा कहते-कहते काशी की गलियों में घूम रहा है । यस्यामलं प्रिययशः सुयशोविधाता ताक्ष्र्यध्वजश्च गिरिजे नितरां तथाहम् । प्रेम्णा वदामि च श‍ृणोमि सहैव ताभ्यां तद्रामनाम सकलेश्वरमादिदेवम् ॥ ४५५॥ हे पार्वति ! जिस श्रीरामनाम के सुन्दर एवं प्रिय यश को मैं ब्रह्मा तथा भगवान् विष्णु प्रेम से कहते हैं और उन दोनों के साथ मैं प्रेम से सुनता हूँ वह श्रीरामनाम सबका स्वामी एवं आदिदेव हैं । इदमेकं परं तत्वं निर्णीतं ब्रह्मवादिभिः । नाम व्याहरणं शुद्धं सर्वकालेषु प्रेमतः ॥ ४५६॥ ब्रह्मवादी मुनियों ने यही एक परमतत्व निर्धारित किया है कि सभी कालों में अर्थात् हर क्षण प्रेमपूर्वक शुद्ध भगवन्नाम का उच्चारण किया जाये । केदारखण्डे श्रीशङ्करवाक्यं पार्वतीं प्रति - केदारखण्ड में श्रीशङ्करजी का वाक्य पार्वती के प्रति - रामनाम समं तत्वं नास्ति वेदान्त गोचरम् । यत्प्रसादात्परांसिद्धिं सम्प्राप्ता मुनयोऽमलाः ॥ ४५७॥ श्रीरामनाम से बढ़कर वेदान्त का विषय कोई दूसरा तत्व नहीं है जिस श्रीरामनाम की कृपा से निर्मल महात्माओं ने परासिद्धि को प्राप्त किया है । अतस्सर्वात्मना रामनाम रूपं स्मर प्रिये । अनायासेन भो देवि अमरी त्वं भविष्यसि ॥ ४५८॥ हे प्रिये देवि पार्वति ! इसलिए तुम श्रीरामनाम के स्वरूप का स्मरण करो जिसके प्रभाव से बिना परिश्रम के ही तुम भी अविनाशी हो जाओगी । रामनाम प्रभावेण ह्यविनाशी पदं प्रिये । प्राप्तं मया विशेषेण सर्वेषां दुर्लभं परम् ॥ ४५९॥ हे प्रिये ! जो पद सभी के लिए दुर्लभ है उस अविनाशी पद को मैंने श्रीरामनाम के प्रभाव से विशेष रूप से प्राप्त कर लिया है । अन्यानि यानि नामानि तानि सर्वाणि पार्वति । कार्यार्थे सम्भवानीह रामनामादित प्रिये ॥ ४६०॥ हे पार्वति ! भगवान् के और दूसरे जितने नाम हैं वे सभी नाम अनादि रामनाम से भक्तों के कार्यसम्पादन के लिए प्रगट हुए हैं श्रीरामनाम तो सबका मूल एवं अनादि है । मार्कण्डेयोऽपि श्रीरामनाम संस्मृत्य सादरम् । मृत्युं तीर्णोऽविलम्बेन रामनाम परं बलम् ॥ ४६१॥ श्रीमार्कण्डेय महर्षि भी सादर श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण करके अविलम्ब ही मृत्यु को पार कर गये अतः श्रीरामनाम का बल ही सर्वोत्कृष्ट बल हैं । तथैव नारदो योगी भक्तभूपास्तथापरे । मृत्योर्महार्णवं तीर्त्वा सन्निमग्नाः सुधाम्बुधौ ॥ ४६२॥ उसी प्रकार योगिराज नारदजी एवं दूसरे श्रेष्ठ भक्तों ने भी श्रीरामनाम का जप करके मृत्युरूपी महासागर को पार करके भगवत्सान्निध्यरूपी सुधा सागर में सदा सर्वदा के लिए निमग्न हो गये । लम्बोदरोऽपि श्रीरामनाममाहात्म्यमुज्वलम् । श्रुत्वा च धारितं चित्ते ततः पूज्यः सुरासुरैः ॥ ४६३॥ श्रीगणेशजी ने भी श्रीरामनाम की उज्ज्वल महिमा को सुनकर अपने चित्त में धारण किया तत्पश्चाद् देवताओं और असुरों से भी परम पूज्य हो गये । एवं नाम प्रसादेन ऋषयो देवतास्तथा । मनुष्याः किन्नरा नागा यक्षा विद्याधरास्तथा ॥ ४६४॥ सर्वे कृतार्था अभवन् तस्मिन्तस्मिन्युगे युगे । नातः परतरोपायो दृश्यते श्रूयतेऽपि वा ॥ ४६५॥ इसी प्रकार श्रीरामनाम की कृपा से ऋषि, देवता, मनुष्य, किन्नर, नाग, यक्ष एवं विद्याधर आदि सभी लोग उस-उस युग में कृतार्थ हो गये । अतः श्रीरामनाम से बढ़कर दूसरा कोई उपाय न देखा जाता है और न सुना जाता है । निर्वाणखण्डे श्रीशिववाक्यं श्रीरामं प्रति - निर्वाणखण्ड में श्रीशिवजी का वाक्य श्रीरामजी के प्रति - भवन्नामामृतं पीत्वा गीत्वा च भवतां यशः । शिवोऽहं सर्वदेवैश्च पूजनीयो दयानिधे ॥ ४६६॥ हे रामजी ! हे दयानिधे ! मैं आपके श्रीरामनामरूपी अमृत का पान करके एवं आपकी कथारूपी अमृत का गान करके सभी देवताओं से पूज्य हो गया हूँ । निराकारं च साकारं सगुणं निर्गुणं विभो । उभौ विहाय सर्वस्वं तव नाम स्मराम्यहम् ॥ ४६७॥ हे विभो ! मैं निराकार, साकार, निर्गुण एवं सगुण दोनों को छोड़कर आपके श्रीरामनाम का स्मरण करता हूँ । मन्दात्मानो न जानन्ति बहिरर्थ स्पृहायुताः । रामनाम परब्रह्म सर्ववेदान्त सम्मतम् ॥ ४६८॥ सभी वेदान्तों का अभिमत परब्रह्म श्रीरामनाम ही है इस रहस्य को बाह्य पदार्थों में आसक्ति रखने वाले मन्दमति लोग नहीं जानते हैं । जगत्प्रभुं परानन्दं कारणं सदसत्परम् । रामनाम परेशानं सर्वोपास्यं परेश्वरम् ॥ ४६९॥ श्रीरामनाम ही जगत् में परम समर्थ, परमानन्द का परम हेतु, स्थूल सूक्ष्म से परे परम ईश्वर परात्परेश्वर एवं सभी से उपास्य है । सर्वेषां मत साराणामिदमेकं महन्मतम् । जानकीजीवनस्याथ नामसङ्कीर्तनं परम् ॥ ४७०॥ सभी मतों का सार एवं श्रेष्ठमत एकमात्र यही है कि श्रीजानकी जीवन भगवान् श्रीरामजी के नाम का सङ्कीर्तन ही सर्वोत्तम है । ब्रह्माण्ड पुराणे कोशलखण्डे सूतवाक्यं ऋषीन् प्रति - ब्रह्माण्ड पुराण के कोशलखण्ड में सूतजी का वाक्य ऋषियों के प्रति - न तत्पुराणो नहि यत्र रामो यस्यां न रामो नहि संहिता सा । स नेतिहासो नहि यत्र रामः काव्यं न तत्स्यान्न हि यत्र रामः ॥ ४७१॥ वास्तव में वह पुराण पुराण नहीं है, वह संहिता संहिता नहीं है, वह इतिहास इतिहास नहीं है और वह काव्य-काव्य नहीं है, जहाँ श्रीरामनाम नहीं है । तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम से रहित ग्रन्थ आदरणीय एवं कल्याणप्रद तो नहीं है अपितु ग्रन्थि प्रदान करने वाला एवं संशयजनक है । शास्त्रं न तत्स्यान्नहि यत्र रामस्तीर्थं न तद्यत्र न रामचन्द्रः । यागः स आगो नहि यत्र रामो योगस्स रोगो नहि यत्र रामः ॥ ४७२॥ वास्तव में वह शास्त्र-शास्त्र नहीं है एवं वह तीर्थ-तीर्थ नहीं है जहाँ श्रीरामनाम का परत्व, महत्व एवं पूजा नहीं है । वह यज्ञ-यज्ञ नहीं है अपराध है एवं वह योग -योग नहीं है रोग है जहाँ श्रीरामनाम नहीं है । न सा सभा यत्र न रामचन्द्रः कालोऽप्यकालः कलिरेव सोऽस्ति । सङ्कीर्त्यते यत्र न रामदेवो विद्याप्यविद्या रहिताह्यनेन ॥ ४७३॥ वह सभा-सभा नहीं है जहाँ श्रीरामनाम की चर्चा नहीं है, वह समय-समय नहीं अकाल है कलियुगस्वरूप है जिसमें श्रीरामनाम का उच्चारण न हों एवं वह विद्या-विद्या नहीं अविद्या है जो श्रीरामनाम से रहित है । स्थानं भयस्थानमरामकीर्ति रामेतिनामामृत शून्यमास्यम् । सर्पालयं प्रेतगृहं गृहं तद् यत्रार्च्यते नैव महेशपूज्यः ॥ ४७४॥ वह स्थान महाभयप्रद हैं जहाँ श्रीरामजी का यशोगान न हो, वह मुख मलीन एवं शून्य है जिसमें श्रीरामनामरूपी अमृत न हो, वह घर सर्पों एवं प्रेतों का घर है जहाँ भगवान् शङ्कर से पूज्य श्रीरामजी की पूजा न होती हो । उक्तेन किं स्याद् बहुनात विश्वं सर्वं मृषास्याद्यदि रामशून्यम् । एतच्च कृष्णः पुनराहगनां स्पृष्ट्वोपवीतं जपमालिकां च ॥ ४७५॥ हे मुनियों ! बहुत कहने से क्या लाभ? इतना सत्य समझो कि - श्रीरामनाम से शून्य सम्पूर्ण विश्व भी झूठा ही है इस बात को श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यासजी ने श्रीगङ्गाजी में खड़े होकर हाथ में यज्ञोपवीत और जप करने वाली माला को लेकर कहा था । तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम सत्य है और श्रीरामनाम के सम्बन्ध से ही दूसरी कोई वस्तु सत्य है अन्य नहीं । रकारोध्वजवत्प्रोक्तो मकारश्छत्रवत्तथा । सर्ववर्णशिरस्थो हि राम इत्युच्यते बुधैः ॥ ४७६॥ विद्वानों ने श्रीरामनाम के दोनों अक्षरों में रेफ (र) को ध्वजा की तरह एवं ``म'' को छत्र की तरह सभी वर्णों के शिर के आभूषण के रूप में कहा है । तात्पर्य है कि ``र'' और ``म'' ये दोनों वर्ण सभी वर्गों के आभूषण हैं जिस शब्द में वाक्य में ``र'' और ``म'' नहीं है वह शब्द एवं वाक्य श्री हीन एवं उपेक्षणीय हैं । रकारार्थो भवेद्रामः परमानन्दविग्रहः । मकारार्थो भवेत्सीता सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ ४७७॥ श्रीरामनाम में ``र'' का अर्थ परमानन्द विग्रह स्वरूप श्रीरामजी हैं और ``म'' का अर्थ सच्चिदानन्दस्वरूपिणी श्रीसीताजी है । जैमिनि पुराणे - जैमिनि पुराण में - रामनाम परं स्वादु भेदज्ञा रसना च या । तन्नाम रसनेत्याहुर्मुनयस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ४७८॥ श्रीरामनाम परम सुस्वादु है इस रहस्य को जो जानती है अर्थात् जो नित्य निरन्तर श्रीरामनाम के स्वाद का आस्वादन करती है उसे ही तत्वदर्शी मुनियों ने जिह्वा कहा है अन्य को मांस का टुकड़ा । कर्माधीनं जगत्सर्वं विष्णुना निर्मितं पुरा । तत्कर्म केशवाधीनं रामनाम्ना विनश्यति ॥ ४७९॥ प्राचीन समय में भगवान् नारायण ने सम्पूर्ण जगत् को जीवों के कर्मानुसार बनाया । अर्थात् जगत् कर्म के अधीन है एवं कर्म भगवान् के अधीन हैं और कर्म का नाश श्रीरामनाम के जप से होता है तात्पर्य यह है कि जब तक कर्म रहेङ्गे तब तक जगत् का सम्बन्ध बना रहेगा अतः कर्म का नाश आवश्यक है श्रीरामनाम के जप के बिना कर्म का नाश सम्भव नहीं है अतः श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे परात्परविलासनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते उपपुराणेतिहासादिनिरूपणन्नाम द्वितीयः प्रमोदः ॥ २॥

अथ तृतीयः प्रमोदः

संहितोक्त वचनानि - अगस्त्य संहितायां श्रीशङ्करवाक्यं श्रीरामचन्द्रं प्रति - अगस्तसंहिता में श्रीशङ्करजी का वाक्य श्रीरामचन्द्रजी के प्रति - अहं भवन्नामजपन्कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं भवान्या । मरिष्यमाणस्य विमुक्तयेऽपि दिशामि मन्त्रं तव रामनाम ॥ ४८०॥ हे श्रीरामजी ! भवानी के साथ मैं आपके मङ्गलमय श्रीरामनाम का जप करते हुए कृतार्थ होकर काशी में रहता हूँ । मरणासन्न जीवों को उनके मोक्ष के लिए उनके दक्षिण कर्ण में आपके श्रीरामनाम का उपदेश करता हूँ । रकारो रामचन्द्रस्स्यात्साच्चिदानन्दविग्रहः । अकारो जानकीप्रोक्ता मकारो लक्ष्मणः स्वराट् ॥ ४८१॥ श्रीरामनाम में ``र'' का अर्थ सच्चिदानन्द विग्रह स्वरूप श्रीरामजी है ``अ'' का अर्थ श्रीजानकीजी है और ``म'' का अर्थ स्वयमेव प्रकाशमान श्रीलक्ष्मणजी हैं । रकारेण बहिर्याति मकारेण विशेत्पुनः । रामरामेति सच्छब्दो जीवो जपति सर्वदा ॥ ४८२॥ अजपाजप की उत्तम प्रक्रिया यह है कि श्वास के बाहर निकलते समय ``रा'' का उच्चारण करें एवं श्वास के भीतर जाते समय ``म'' का उच्चारण करें इस प्रकार राम राम इस पवित्र शब्द को जीव सदा सर्वदा जप करता है । दैन्यं दिनं तु दुरितं पक्षमासर्त्तुवर्षजम् । सर्वं दहति निशेषं तूलाचलमिवानलः ॥ ४८३॥ वर्ष, ऋतु, मास, पक्ष एवं एक दिन में किये गये सारे पाप एक बार श्रीरामनाम के उच्चारण करने से साकल्येन उसी प्रकार भस्म हो जाता है जैसे रूई का पर्वत अग्नि के स्पर्श होते ही भस्म हो जाता है । नामसङ्कीर्तनञ्चैव गुणानामपि कीर्त्तनम् । भक्त्या श्रीरामचन्द्रस्य वचसा शुद्धिरिष्यते ॥ ४८४॥ अपनी वाणी से भगवान् श्रीसीताराम जी के नाम का भक्तिपूर्वक सङ्कीर्तन एवं भगवान् के गुणों का कीर्तन, गायन ही वाणी एवं जीवन की शुद्धि है तात्पर्य यह है कि हमारा जीवन एवं हमारी वाणी तभी शुद्ध होगी जब हम अपनी वाणी से भगवन्नाम सङ्कीर्तन एवं भगवद् गुणानुवाद करें । विश्वामित्र संहितायां विश्वामित्रवाक्यं वैश्यं प्रति - विश्वामित्र संहिता में विश्वामित्र जी का वाक्य वैश्य के प्रति - विश्रुतानि बहून्येव तीर्थानि विविधानि च । कोट्यंशान्नापि तुल्यानि नाम सङ्कीर्त्तनस्य वै ॥ ४८५॥ वेदों एवं पुराणों में अनेक प्रकार से बहुत सारे तीर्थ प्रसिद्ध हैं परन्तु वे सारे तीर्थ निश्चित रूप से श्रीरामनाम सङ्कीर्तन के करोड़वें अंश की बराबरी भी नहीं कर सकते हैं । धन्याः पुण्याःप्रपन्नास्ते भाग्ययुक्ता कलौयुगे । संविहायाथ योगादीन् रामनामैक नैष्ठिकः ॥ ४८६॥ वे लोग बड़े ही सौभाग्यशाली, धन्यातिधन्य, पुण्यात्मा एवं भगवत्प्रपन्न हैं जो योगादि सारे साधनों को छोड़ करके श्रीरामनाम के जप में पूर्णनिष्ठा रखते हैं । रकारो रामरूपस्तु मकारस्तस्य सेवकः । आचार्यस्तु ह्याकारः स्यात्तयोः संयोजनाय च ॥ ४८७॥ श्रीरामनाम में ``र'' का अर्थ भगवान् राम है ``म'' का अर्थ श्रीरामजी के सेवक जीव मात्र है । ``आ'' का अर्थ जीव को भगवान् से मिलाने वाला आचार्य है । राम रामेति यो नित्यं मधुरं जपति क्षणम् । स सर्वसिद्धिमाप्नोति सत्यं नैवात्र संशयः ॥ ४८८॥ जो क्षणभर भी मधुर स्वर में श्रीराम राम राम ऐसा नित्य जप करता है । उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । ब्रह्मघ्नश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः । शरणागतघाती च मित्रविश्रम्भकारकः ॥ ४८९॥ लब्धं परं पदं तेन जन्म कोटिभिरर्जितम् । कीर्त्तितं येन महत्ता श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ४९०॥ ब्राह्मण की हत्या करने वाला, शराबी, चोर, गुरुपत्नीगामी, शरणागत की हत्या करने वाला और मित्र के साथ विश्वासघात करने वाला मनुष्य उस परमपद को सहज में प्राप्त कर लेता है जो करोड़ों जन्मों के अर्जित सुकृत से प्राप्त होने वाला है जिसने ``श्रीराम'' इन दोनों अक्षरों का कीर्तन कर लिया । ज्ञातमध्यात्मशास्त्रं च प्राप्तं तेनामृतं महत् । कीर्त्तितं येन वचसा श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ४९१॥ जिसने ``रा'' ``म'' इन दो अक्षरों को अपनी वाणी से एक बार उच्चारण कर लिया उसने सम्पूर्ण अध्यात्मशास्त्र (वेदान्त) का अध्ययन कर लिया और परम मोक्ष स्वरूप महान् अमृत को प्राप्त कर लिया । सर्वमन्त्रमयं नाम यन्त्रास्पदमनुत्तमम् । स्वाभाविकीं परां सिद्धिं दुर्लभां तज्ज्पाल्लभेत् ॥ ४९२॥ श्रीरामनाम सर्वमन्त्रमय एवं सर्वोत्तम यन्त्र स्वरूप है जिसके जप करने से अति दुर्लभ परा सिद्धि स्वाभाविक रूप से प्राप्त हो जाती है । वृथा नाना प्रयोगेषु मन्त्रतन्त्रेषु मानवाः । यत्नं कुर्वन्त्यहो मूढास्त्यक्त्वा श्रीनाम सुन्दरम् ॥ ४९३॥ बड़े आश्चर्य की बात है कि परमसुन्दर श्रीरामनाम को छोड़कर मूर्ख लोग अनेक प्रयोगों, मन्त्रों एवं तन्त्रों में व्यर्थ में परिश्रम करते हैं । यस्य संस्मरणादेव सर्वार्थाश्चक्षुगोचराः । भवन्त्येवानायासेन तच्छ्रीराममहं भजे ॥ ४९४॥ जिनका सम्यक् स्मरण करने से सभी पदार्थों का अनायास ही प्रत्यक्ष दर्शन होने लगता है उन भगवान् श्रीरामजी का मैं भजन करता हूँ । सौर संहितायां - सौर संहिता में - श्रीरामनाममनिशं परिकीर्त्तनीयं वर्तेत मोद सु निधानमशेष सारम् । जन्मार्जितानि विविधान्यपहाय दुःखान्यत्यन्त धर्म निचयं परधाममेति ॥ ४९५॥ आनन्द के सार स्वरूप श्रीरामनाम का कीर्त्तन सतत करना चाहिये ऐसा करने से जीव अनेक जन्मों में किये गये, विविध पापों से उत्पन्न होने वाले दुःखों से रहित होकर अत्यन्त पुण्य समूह को प्राप्त कर परम धाम को जाता है । स सागरां महीं दत्त्वा शुद्धकाञ्चन पूर्णिताम् । यत्फलं लभते लोके नामोच्चारस्ततोऽधिकम् ॥ ४९६॥ समस्त समुद्रों के साथ शुद्ध सुवर्णयुक्त पृथिवी का किसी सुपात्र को दान करके जो फल प्राप्त होता है लोक में, उससे कई गुना अधिक फल श्रीरामनाम के उच्चारण से होता है । वाच्यश्श्रीरामचन्द्रस्तु वाचको नाम संस्मृतम् । वाच्यवाचक सम्बन्धो नित्यमेव न संशयः ॥ ४९७॥ भगवान् श्रीराम वाच्य हैं और वाचक श्रीरामनाम है वाच्य और वाचक का सम्बन्ध नित्य होता है इसमें संशय नहीं है । जाबालि संहितायां - जाबालिसंहिता में - रामनाम परं जाप्यं ज्ञेयं ध्येयं निरन्तरम् । कीर्त्तनीयं च बहुधा मुमुक्षुभिरहर्निशम् ॥ ४९८॥ मुमुक्षुपुरुषों के लिए दिन रात निरन्तर परम जप, ज्ञान, ध्यान एवं अनेक प्रकार से कीर्तन के योग्य श्रीरामनाम ही है । श्रीरामनाम सामर्थ्यादखिलेष्टं करे स्थितम् । भवन्ति कृत पुण्यानां यथाकल्पतरोर्धनम् ॥ ४९९॥ श्रीरामनाम के जप करने वालों के लिए अखिल अभीष्ट पदार्थ श्रीरामनाम के सामर्थ्य से उनके करतल में वैसे ही स्थित हो जाता है जैसे पुण्यात्मा पुरुषों के लिए कल्पवृक्ष से सम्पूर्ण धन उपस्थित हो जाता है । नाम्नि यस्य रतिर्नास्ति स वै चाण्डालतोऽधिकः । सम्भाषणं न कर्तव्यं तत्समं नामतत्परैः ॥ ५००॥ श्रीरामनाम में जिसकी प्रीति नहीं है वह तो निश्चित ही चाण्डाल है श्रीरामनामानुरागी भक्तों को उनसे बातचीत नहीं करना चाहिए । रामनाम प्रभा दिव्या यस्योरसि प्रकाशते । तस्यास्ति सुलभं सर्वं सौख्यं सर्वेशजं परम् ॥ ५०१॥ श्रीरामनाम की दिव्य प्रभा जिसके हृदय कमल में प्रकाशित होती है उस महात्मा के लिए सर्वेश्वर सम्बन्धी सभी उत्कृष्ट सुख सहज में सुलभ हो जाते हैं । साधनेन बिना सिद्धिर्दृष्टं नाम्नैव संस्फुटम् । अन्यत्र साधनैः दुखै दुर्लभं तन्महत् सुखम् ॥ ५०२॥ बिना साधन श्रम के ही श्रीरामनाम से सभी सिद्धि सुख सुलभ हो जाती है श्रीरामनाम के बिना दूसरे दुःखप्रद अनेक साधनों से वह महान् सुख नहीं प्राप्त हो सकता है । सूत संहितायां - सूतसंहिता में - यः श्रीरामपदं नरः प्रतिपदं सङ्कीर्तयन्तत्क्षणान्मुक्तो दुष्कृतराशितो बुधजनैः पूज्यो विवस्वत्प्रभः । त्यक्त्वा संसृति मृत्यु दुःख पटलं संशुद्धचित्तः पुमान् श्रीरामास्पदमुन्नतं पर पदं प्राप्नोत्ययासं विना ॥ ५०३॥ जो मनुष्य पग-पग पर श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता है वह उसी क्षण से पापराशियों से मुक्त हो जाता है, सभी देवताओं का पूज्य हो जाता है, सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है । संसार-चक्र, मृत्यु एवं दुःख समूह का त्याग करके परम विशुद्ध चित्त होकर बिना प्रयास के ही सबसे उन्नत परम पद श्रीरामधाम को प्राप्त करता है । रिपवस्तस्य नश्यन्ति न बाधन्ते ग्रहाश्च तम् । राक्षसाश्च न खादन्ति नरं रामेति वादिनम् ॥ ५०४॥ जो श्रीरामनाम का उच्चारण करता है उसके सारे शत्रु नष्ट हो जाते हैं कोई भी ग्रह उसे पीडित नहीं करते हैं और राक्षस, भूत प्रेतादि उसका भक्षण नहीं कर सकते हैं । अहो धैर्यमहोधैर्यमहोधैर्यमिदं नृणाम् । रामनाम्नि स्थिते लोक्के न भजन्ति बहिर्मुखाः ॥ ५०५॥ आश्चर्य की बात है कि मनुष्यों का यह कैसा अद्भुत धैर्य है कि इस लोक में श्रीरामनाम के विद्यमान होने पर भी बहिर्मुखी वृत्ति वाले लोग भजन नहीं कर रहे हैं । रामनामामृतं पीत्वा भवेन्नित्यं निरामयम् । सिद्धान्तं सारमित्येकं साधूनां भावितात्मनाम् ॥ ५०६॥ शुद्ध अन्तःकरण वाले साधु सन्तों का सिद्धान्तसार एक यही है कि श्रीरामनाम रूपी अमृत का पान करके सदा सर्वदा के लिए समस्त रोगों से मुक्त हो जाओ । श्रीरामं रामभद्रं च सीतारामं सुखाकरम् । इतीरयन्ति ये नित्यं ते वै धन्यतमा नराः ॥ ५०७॥ महासुखखानि श्रीराम, रामभद्र और सीताराम इस प्रकार जो भगवान् के नामों का नित्य उच्चारण करते हैं वे लोग निश्चित ही धन्य हैं । ब्रह्म संहितायां श्रीशिववाक्यं - ब्रह्मसंहिता में श्रीशिवजी का वाक्य - रामेति वर्णद्वयमादरेण सदा स्मरन्मुक्तिमुपैति जन्तु । कलौ युगे कल्मषमानसानामन्यत्र धर्मे खलु नाधिकारः ॥ ५०८॥ ``श्रीराम'' इन दोनों अक्षरों को आदरपूर्वक सदा सर्वदा स्मरण करने वाला जीव मुक्ति को प्राप्त करता है । इस घोर कलियुग में कलुषित हृदय वाले जीवों का किसी दूसरे धर्म में निश्चय ही अधिकार नहीं है । यन्नामकीर्त्तन फलं विविधं निशम्य न श्रद्दधाति मनुते यदुतार्थवादम् । यो मानुषस्तमिह दुःखचये क्षिपामि संसार घोर विविधार्त्तिनिपीडिताङ्गम् ॥ ५०९॥ जो मनुष्य श्रीरामनाम के कीर्तन, स्मरण के विविध प्रकार के फलों को सुनकर श्रीरामनाम में श्रद्धा नहीं करता है बल्कि महिमा को अर्थवादमात्र मानता है संसार के अनेक घोर दुःख से पीडित अङ्ग वाले उस मनुष्य को मैं दुःख समुद्र में डाल देता हूँ । कलिप्रभावतो नष्टाः सद्ग्रन्थानां कथाः शुभाः । पाखण्डैर्निर्मितं नानामतं श्रीनाम वर्जितम् ॥ ५१०॥ कलियुग के प्रभाव से सद्ग्रन्थों की शुभ कथाएँ नष्ट हो गयी हैं । पाखण्डियों ने श्रीरामनाम से रहित भ्रमावह अनेक मतों का निर्माण किया है । अतस्सर्वं परित्यज्य नामसंस्मरणे रताः । त एव कृतकृत्याश्च सर्व वेदार्थ कोविदाः ॥ ५११॥ इसीलिए अन्य सभी साधनों को छोड़कर जो श्रीरामनाम के स्मरण में लग गये हैं वास्तव में वे ही कृतार्थ एवं समस्त वेदार्थ के पण्डित है । श्रीरामेति वदन् जीवो याति ब्रह्म सनातनम् । सर्वाचारविहीनोऽपि ताप क्लेशादि संयुक्त ॥ ५१२॥ जो सभी सदाचार से रहित हैं एवं सन्तापक्लेशादि से युक्त है वे भी जीव श्रीरामनाम का उच्चारण करके सनातन ब्रह्म को प्राप्त कर लेते हैं । बोधायन संहितायां महर्षिबोधायनवाक्यं - बोधायनसंहिता में महर्षिबोधायन का वाक्य - इष्टापूर्त्तानि कर्माणि सुबहूनि कृतान्यपि । भव हेतूनि तान्येव रामनाम्ना सुमुक्तयः ॥ ५१३॥ यज्ञादिक पुण्य कर्मों के सम्यक् अनुष्ठान होने पर भी जितने शुभ कर्म हैं वे सारे संसार के ही कारण है मुक्ति में नहीं । मुक्ति तो श्रीरामनाम से ही हो सकती है अन्य साधनों से नहीं । श्रीमद्रामेतिनाम्नस्तु सदा सर्वत्र कीर्त्तनम् । नाशौचं कीर्त्तने तस्य स पवित्रकरो यतः ॥ ५१४॥ श्रीरामनाम का सदा सर्वदा कीर्तन करना चाहिए श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन में शुचि अशुचि का विचार नहीं करना चाहिए क्योङ्कि श्रीरामनाम स्वतः पवित्र है और अपवित्र को भी पवित्र बनाने वाला है । रामनामानि लोकेस्मिन् सर्वदा यस्तु कीर्त्तयेत् । तस्यापराधकोटिस्तु क्षमाम्येव न संशयः ॥ ५१५॥ श्रीरामजी कहते हैं कि इस लोक में जो सदा सर्वदा श्रीरामनाम का उच्चारण करता है उसके करोड़ों अपराधों को मैं क्षमा कर देता हूँ इसमें संशय नहीं है । न तादृशं महाभाग पापं लोकेषु विश्रुतम् । यादृशं विप्र शार्दूल रामनाम्ना विदह्यते ॥ ५१६॥ हे महाभाग ! हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! मैं इस लोक में ऐसा कोई प्रबल एवं प्रसिद्ध पाप नहीं देखता हूँ जो श्रीरामनाम के उच्चारण से भस्म न हो जाये । श्रीरामनाम सामर्थ्यमतुलं विद्यते द्विज । न हि पापात्मकस्तावत्पापं कर्तुं क्षमः क्षितौ ॥ ५१७॥ हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! श्रीरामनाम का सामर्थ्य अतुल है श्रीरामनाम के स्मरण से जितना पाप नष्ट हो सकता है पृथिवी पर उतना पाप कोई पापी नहीं कर सकता है । तापनीय संहितायां - तापनीयसंहिता - सर्वेषामेव दोषाणां प्रायश्चित्तं परं स्मृतम् । अपमृत्यु प्रशमनं मूलाविद्या विनाशनम् ॥ ५१८॥ सभी दोषों का सबसे बड़ा प्रायश्चित्त श्रीरामनाम कहा गया है जो अपमृत्यु का शमन करने वाला है मूलाविद्या अनादि अविद्या का नाशक श्रीरामनाम है । नाम सङ्कीर्त्तनं विद्धि अतो नान्यद्वदाम्यहम् । सर्वस्वं रामचन्द्रस्य तन्नामानन्त वैभवम् ॥ ५१९॥ इसलिए मैं दूसरी बात नहीं करता हूँ इतना सच मानो कि श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन भगवान् श्रीराम का भी सर्वस्व है इसलिए श्रीरामनाम का वैभव अनन्त हैं । स्वप्नेऽपि यो वदेन्नित्यं रामनाम परात्परम् । सोऽपि पातकराशीनां दाहको भवति ध्रुवम् ॥ ५२०॥ जो स्वप्न में भी परात्पर श्रीरामनाम का नित्य उच्चारण करते हैं उनके भी पापराशि को श्रीरामनाम महाराज निश्चित ही भस्म कर देते हैं । पापद्रुमकुठारोऽयं पापेन्धनदावानलम् । पापराशितमस्तोमं रविः साक्षात्प्रभानिधिः ॥ ५२१॥ पापरूपी वृक्ष के लिए कुठार के समान, पापरूपी ईन्धन को जलाने के लिए दावाग्नि के समान और पापसमूह रूपी अन्धकार का नाश करने के लिए प्रभा पुञ्ज सूर्यनारायण के समान श्रीरामनाम हैं । रामनाम परन्धाम पवित्रं पावनास्पदम् । अतः परं न सन्म स्तारकं विद्यते क्वचित् ॥ ५२२॥ श्रीरामनाम दिव्य तेजःस्वरूप, पवित्र, पवित्र करने का एकमात्र परम स्थान है इससे बढ़कर दूसरा कोई अच्छा तारक मन्त्र नहीं है । हिरण्यगर्भ संहितायां श्रीअगस्त्यवाक्यं सुतीक्ष्णं प्रति - हिरण्यगर्भसंहिता में श्रीअगस्त्यजी का वाक्य सुतीक्ष्ण जी के प्रति - अभिरामेति यन्नाम कीर्त्तितं विवशाच्च यैः । तेऽपि ध्वस्ताखिलाघौघा यान्ति रामास्पदं परम् ॥ ५२३॥ जिन लोगों ने श्रीराम न कहकर अभिराम शब्द कहा और जो लोग विवश (पराधीन) होकर श्रीरामनाम का उच्चारण किया है उनके भी सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वे भगवान् श्रीरामजी के दिव्य धाम को प्राप्त करते हैं । श्रीरामेति वदन्ब्रह्मभावमाप्नोत्यसंशयम् । तत्त्वविद्यार्थिनो नित्यं रमन्ते चित्सुखात्मनि ॥ ५२४॥ रामनाम का उच्चारण करते ही जीव बिना संशय के ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । तत्वविद्या की कामना करने वाले साधक सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीरामनाम में नित्य रमण करते हैं । इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते । सर्वसिद्धान्तमित्याहुः सर्वे वै ब्रह्मवादिनः ॥ ५२५॥ श्रीरामनाम ही परब्रह्म है सभी ब्रह्मवादी इसी को सर्वसिद्धान्त कहते हैं । श्रीरामेति परं मन्त्रं तदेव परमं पदम् । तदेव तारकं विद्धि जन्ममृत्यु भयापहम् ॥ ५२६॥ श्रीरामनाम को ही परम मन्त्र, परमपद, तारकमन्त्र एवं जन्म मृत्युरूपी भय का नाशक जानो । अल्पेन नाम्ना कथमस्य पापक्षयो भवेदत्र न शङ्कनीयम् । तृणादि राशिं दहतेऽल्पवह्निस्तथा महामोहमदादि नाम ॥ ५२७॥ थोड़े से रामनाम से इस पापी के महान् पापों का नाश कैसे होगा? यहाँ ऐसी शङ्का नहीं करनी चाहिए क्योङ्कि जैसे थोड़ी सी अग्नि तृण समूह का नाश कर देती है उसी प्रकार श्रीरामनाम के स्मरण से महा मोहमदमत्सरादि का नाश हो जाता है । पुलह संहितायां - पुलह संहिता में - बीजे यथा स्थितो वृक्षः शाखा पल्लव संयुतः । तथैव सर्ववेदाश्च रकारेषु व्यवस्थिताः ॥ ५२८॥ जिस प्रकार बीज में शाखा पल्लव से युक्त वृक्ष विराजमान होता है उसी प्रकार सम्पूर्णवेद ``र'' में व्यवस्थित हैं तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के जप स्मरणादि करने से सम्पूर्णवेद शास्त्रों के अर्थ हृदय में प्रकाशित होने लगते हैं । यथा करण्डे रत्नानि गुप्तान्यज्ञैर्न दृश्यन्ते । तथैव सर्व मन्त्राश्च रकारेषु व्यवस्थिताः ॥ ५२९॥ जैसे डिब्बे के भीतर रखे गये रत्नों को अज्ञानी नहीं देख पाता है उसी प्रकार सभी मन्त्र तन्त्र ``र'' में व्यवस्थित है । रकारोच्चारणेनैव बहिर्नियति पातकम् । पुनः प्रवेशकाले च मकारस्तु कपाटवत् ॥ ५३०॥ श्रीरामनाम के ``रकार'' के उच्चारण करने से शरीर के सारे पाप बाहर चले आते हैं पुनः प्रवेश न कर सकें इसके लिए ``म'' कपाट की तरह मुख बन्द कर देता है । सावित्री ब्रह्मणा सार्द्धं लक्ष्मीर्नारायणेन च । शम्भुना रामरामेति पार्वती जपति स्फुटम् ॥ ५३१॥ ब्रह्माजी के साथ सावित्रीजी, लक्ष्मीजी के साथ नारायण भगवान् और शङ्करजी के साथ पार्वतीजी स्पष्ट शब्दों में राम राम ऐसा जप करते हैं । रामरामेति रामेति स्वपन् जाम्रेंस्तथा निशि । ये जपन्ति कलौ नित्यं ते वै श्रीरामरूपिणः ॥ ५३२॥ जो लोग सोते, जागते तथा रात्रि में नित्य राम राम ऐसा जप करते हैं कलियुग में वे साक्षात् श्रीरामस्वरूप ही है । पराशर संहितायां व्यासवाक्यं साम्बं प्रति - पराशरसंहिता में व्यासजी का वाक्य साम्ब के प्रति - न साम्ब व्याधिजं दुःखं हेयं नानौषधैपि । रामनामौषधं पीत्वा व्याधेस्त्यागो न संशयः ॥ ५३३॥ हे साम्ब ! महाकुष्टरूप व्याधि जन्य दुख अनेक औषधियों से भी दूर नहीं होगा और श्रीरामनामरूपी महाऔषधि का पान करने से निश्चित ही व्याधि दूर हो जायेगी । अतः श्रीरामनामरूपी औषधि का पान करो । कोटिजन्मार्जितं पापमौषधैः शान्तिमेति किम् । कीर्त्तनीयं परं नाम भवव्याधेस्तदौषधम् ॥ ५३४॥ करोड़ों जन्मों से उपार्जित पाप से समुत्पन्न व्याधि क्या औषधियों से शान्त होगी? नहीं, तस्मात् संसार रूपी महाव्याधि का नाशक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो । सर्व रोगोपशमनं सर्वाधीनां विनाशनम् । स्मर त्वं रामरामेति महामोदैकमन्दिरम् ॥ ५३५॥ समस्त रोगों को शान्त करने वाला, सभी आधियों (मानसिक पीड़ा) का नाश करने वाला एवं महाप्रमोद का निवास स्थान श्रीरामनाम का स्मरण है । श्रीरामनामविमुखं जीवं शोधयितुं क्षमम् । प्रायश्चित्तं न चैवास्ति किश्चत् सत्यं वचो मम ॥ ५३६॥ श्रीरामनाम से विमुख जीवों की शुद्धि के लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है यह मेरी वाणी सत्य है । प्रायश्चित्तेषु सर्वेषु रामनाम जपं परम् । यतीनां रामभक्तानां सर्वरीत्या विशिष्यते ॥ ५३७॥ सभी प्रायश्चित्तों में श्रीरामनाम का जप सर्वश्रेष्ठ प्रायश्चित्त है संन्यासियों एवं रामभक्तों के लिए तो विशेष रूप से श्रीरामनाम का जप परम प्रायश्चित्त है । सनत्कुमार संहितायां श्रीव्यासवाक्यं युधिष्ठिरं प्रति - सनत्कुमारसंहिता में श्रीव्यासजी का वाक्य युधिष्ठिर के प्रति - श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् । ब्रह्महत्यादि पापघ्नमिति वेदविदोविदुः ॥ ५३८॥ हे राजन् ! सर्वश्रेष्ठ जप करने योग्य मन्त्र, तारक ब्रह्म एवं ब्रह्महत्यादि पापों का नाश करने वाला श्रीरामनाम है ऐसा वेद को जानने वाले विद्वान् लोग जानते और कहते हैं । श्रीरामरामेति जना ये जपन्ति च सर्वदा । तेषां भुक्तिश्च मुक्तिश्च भविष्यति न संशयः ॥ ५३९॥ श्रीरामराम इस प्रकार जो लोग सदा सर्वदा जप करते हैं उन लोगों के लिए इस लोक में भुक्ति-भोगसाधन एवं परलोक में मुक्ति निश्चित ही प्राप्त होगी । ब्रह्महत्यादि पापानि तत्समानि बहूनि च । स्वर्णस्तेयसुरापानगुरुतल्पायुतानि च ॥ ५४०॥ गोवधाद्युपपापानि अनृतात्सम्भवानि च । सर्वैः प्रमुच्यते पापैः कल्पायुतशतोद्भवैः ॥ ५४१॥ ब्रह्महत्यादि पाप, उसके समान और भी बहुत से पाप, सुवर्ण की चोरी, मदिरापान, गुरुपत्नी के साथ हजारों बार गमन, गोवध आदि उपपाप, मिथ्या सम्भाषण से उत्पन्न पाप एवं करोड़ों कल्पों में उत्पन्न पाप समूह इन समस्त पापों से वह मुक्त हो जाता है जो श्रीरामनाम का उच्चारण करता है । मानसं वाचिकं पापं कर्मणा समुपार्जितम् । श्रीरामस्मरणेनैव तत्क्षणान्नश्यति ध्रुवम् ॥ ५४२॥ मन से, वाणी से, कर्म से जो पाप इकट्ठे हुए हैं वे सारे पाप श्रीरामनाम के स्मरण करने से उसी क्षण निश्चित ही नष्ट हो जाते हैं । इदं सत्यमिदं सत्यं सत्यमेतदिहोच्यते । रामः सत्यं परब्रह्म रामात्किञ्चिन्न विद्यते ॥ ५४३॥ मेरे द्वारा यह सत्य सत्य सत्य कहा जाता है कि भगवान् श्रीराम ही सत्य एवं परब्रह्म है श्रीरामजी से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । सुश्रुत संहितायां - सुश्रुतसंहिता में - दृष्टो येनैव श्रीरामस्तथा तन्नामकीर्त्तनम् । कृतं सर्वं शुभं तेन जितं जन्मसुदुर्लभम् ॥ ५४४॥ जिसने भगवान् श्रीराम का साक्षात्कार कर लिया एवं जिसने श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन कर लिया उसने समस्त वैदिक कर्मों का अनुष्ठान कर लिया और अति दुर्लभ इस मानव शरीर पर विजय पा लिया । कारणं प्रणवस्यापि रामनाम जगद्गुरुम् । तस्मद्धेयं सदा चित्ते यतिभिः शुद्धचेतनैः ॥ ५४५॥ वेदों के मूल प्रणव (ओं ) का भी परम कारण एवं जगद्गुरु श्रीरामनाम है इसलिए शुद्धचित्त वाले यतियों को सदासर्वदा अपने चित्त में श्रीरामनाम का ध्यान करना चाहिये । प्रमादादपि श्रीरामराम उच्चरितं जनैः । भष्मी भवन्ति पापानि रोगानीव रसायनैः ॥ ५४६॥ लोगों के द्वारा प्रमाद से भी श्रीरामनाम का उच्चारण करने पर पाप उसी प्रकार भस्म हो जाते हैं जैसे रसायनों के द्वारा रोग भस्म हो जाते हैं । तदेव लग्नं सुदिनं तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव । विद्याबलं दैवबलं तदेव सीतापतेर्नाम यदा स्मरामि ॥ ४४७॥ जिस समय मैं श्रीसीताराम नाम का उच्चारण करता हूँ वहीं शुभ लग्न, सुदिन, ताराबल, चन्द्रबल, विद्याबल और वही प्रारब्धादि सब उत्तम सगुन है । सर्वाभिलाषं पूर्णार्थं जपेन्नामपरात्परम् । सर्वं त्यक्त्वा ततो याति ह्यवशं पदमव्ययम् ॥ ५४८॥ अपने समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति के लिए अन्य साधनों को छोड़कर परात्परस्वरूप श्रीरामनाम का जप करना चाहिए इससे अवश्य ही अविनाशी परम पद प्राप्त होगा । कात्यायन संहितायां - कात्यायनसंहिता में - नाम सङ्कीर्त्तनाज्जातं पुण्यं नोपचयन्ति ये । नाना व्याधि समायुक्ताः शतजन्मसु ते नराः ॥ ५४९॥ जो लोग श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से उत्पन्न पुण्यों का सङ्ग्रह नहीं करते हैं वे लोग हजारों जन्मों में अनेक रोगों से युक्त हो जाते हैं । अर्थवादं परे नाम्नि भावयन्तीह यो नरः । स पापिष्ठो मनुष्याणां निरये पतति स्फुटम् ॥ ५५०॥ जो लोग श्रीरामनाम की महिमा सुनकर उसे अर्थवाद मात्र मानते हैं वे लोग मनुष्यों में अतिशयपापी हैं और अन्त में निश्चित ही घोर नरक में जायेङ्गे । श्रीरामनाममाहात्म्यं याथाथ्र्यं श्रुति सम्मतम् । कुतर्कं ये प्रकुर्वन्ति तेऽधमाः पापयोनयः ॥ ५५१॥ श्रीरामनाम का माहात्म्य यथार्थ एवं श्रुति सम्मत है उस विषय में जो कुतर्क करते हैं वे लोग अधम एवं पापयोनि हैं । रामरामेति रामेति प्रत्यहं वक्ति यो नरः । सम्यक् पूजायुतं पुण्यं तीर्थकोटि फलं लभेत् ॥ ५५२॥ राम राम राम इस प्रकार जो प्रतिदिन जप करता है उसे सम्यक् प्रकार से देवताओं के हजारों बार पूजन का पुण्य एवं कोटि तीर्थयात्रा का पुण्य प्राप्त होता है । यस्तु पुत्रः शुचिर्दक्षः पूर्वे वयसि धार्मिकः । रामनाम परं नित्यं तत्पुत्रं कवयो विदुः ॥ ५५३॥ जो पुत्र बाल्यावस्था में ही पवित्र, चतुर और श्रीरामनाम परायण धार्मिक है विद्वानों ने उसी को वास्तव में पुत्र कहा है अन्य तो मलमूत्र के समान है । वैश्वानर संहितायां - वैश्वानर संहिता में - न देशकालनियमो न शौचाशौचनिर्णयः । विद्यते कुत्रचिन्नैव रामनाम्नि परे शुचौ ॥ ५५४॥ श्रीरामनाम के जप, स्मरण, कीर्तन करने के लिए पवित्र स्थान, पुण्य तिथि, शौच, अशौच आदि का नियम नहीं है इसमें किसी की अपेक्षा नहीं है क्योङ्कि श्रीरामनाम सबके परे है । रामेति नित्यं यो भक्त्या ब्रूयाद्रात्रिदिवं नरः । महापातककोटिभ्यो मुक्तः पूतो भवेत्तु सः ॥ ५५५॥ जो मनुष्य रात दिन भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का नित्य उच्चारण करते हैं वे मनुष्य करोड़ों महापापों से निश्चित ही मुक्त हो जाते हैं और परम पवित्र हो जाते हैं । रामनामात्मकं मन्त्रं सततं कीर्त्तयन्ति ये । सर्वरोगविनिर्मुक्तो मुक्तिमाप्नोति दुर्लभाम् ॥ ५५६॥ जो लोग श्रीरामनामरूपी महामन्त्र का निरन्तर कीर्तन करते हैं वे लोग सभी रोगों से मुक्त होकर निश्चित ही दुर्लभ मुक्ति को प्राप्त करते हैं । म्लेक्षतुल्याः कुलीनास्ते ये न भक्ता रघूत्तमे । सङ्कीर्णयोनयः पूता नामगृह्णन्ति ये सदा ॥ ५५७॥ उत्तम कुल में जन्म लेने के बाद भी जो लोग भगवान् श्रीराम की भक्ति नहीं करते हैं वे महाचाण्डाल म्लेच्छ से भी अधम हैं जो नीच योनि में जन्म लेक सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते हैं वे परम पवित्र हैं । नास्ति नास्ति महाभाग कलेर्युगसमं युगम् । स्मरणात् कीर्त्तनाद्यत्र लभते परमं पदम् ॥ ५५८॥ हे महाभाग ! कलियुग के समान कोई युग नहीं है नही है जहाँ केवल श्रीरामनाम के स्मरण कीर्तन से परम पद की प्राप्ति होती है । वात्स्यायन संहितायां - वात्स्यायनसंहिता में - तुला पुरुष दानानि दत्त्वा यत्फलमश्नुते । तस्मादसङ्ख्यगुणितं रामनाम्नापि संलभेत् ॥ ५५९॥ सुवर्ण पुरुष आदि का तुला दान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे असङ्ख्य गुना अधिक पुण्य एक बार श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से होता है । स्त्रीराजबालहा चैव यश्च विश्वासघातकः । सर्वापहारी पापिष्ठो मार्गघ्नो ग्रामदाहकः ॥ ५६०॥ मातृगामी सुरापश्च भूतध्रुक् सर्वनिन्दकः । मातृहा पितृहा चैव भ्रूणहा गुरुतल्पगः ॥ ५६१॥ ते चान्ये चैव पापिष्ठा महापापयुताश्च ये । सर्वपापैः प्रमुच्यन्ते रामनाम्नस्तु कीर्त्तनात् ॥ ५६२॥ स्त्री, राजा और बालक की हत्या करने वाला, विश्वासघाती, सर्वस्व को लूटने वाला, महापापी, पथिकों को लूटने वाला, गाएंव में अग्नि लगाने वाला, माता के साथ गमन करने वाला, शराबी, सर्वद्रोही, सबका निन्दक, माता, पिता एवं गर्भ की हत्या करने वाला, गुरुपत्नी के साथ गमन करने वाला और दूसरे भी जो अत्यन्त पापी एवं महापापी हैं वे सभी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से समस्त पापों से मुक्त हो जाते है । हेमभारसहस्रैश्च कुरुक्षेत्रे रविग्रहे । गजाश्वरथदानैश्च देवालय प्रतिष्ठया ॥ ५६३॥ सेवनैः सर्वतीर्थानां तपोभिर्विविधैश्च किम् । श्रीरामनाम्नि सततं नित्यं यस्यास्ति निश्चयम् ॥ ५६४॥ कुरुक्षेत्र में सूर्यग्रहण के समय हजारों मन सोना, हाथी, घोड़ा और रथ के दान से, देवालय बनवाकर उसमें देवताओं की प्राण प्रतिष्ठा करने से, सभी तीर्थों के सेवन करने से और अनेक प्रकार के तप करने से क्या लाभ है? जिसका श्रीरामनाम में पूर्ण विश्वास हो गया है उसके लिए किसी अन्य कर्म के करने की आवश्यकता नहीं है । घोरे कलियुगे प्राप्ते सर्वदोषैकभाजने । रामनामरता जीवास्ते कृतार्थाः सुजीविनः ॥ ५६५॥ समस्त दोषों का एकमात्र पात्र इस घोर कलियुग के आने पर जो लोग श्रीरामनाम के जप में लगे हुए हैं वास्तव में वे ही कृतार्थ हैं उन्हीं का जीवन सफल हैं । रामनामपरा ये च घोरे कलियुगे द्विजाः । त एव कृतकृत्याश्च न कलिर्बाधते हि तान् ॥ ५६६॥ हे ब्राह्मणों ! इस घोर कलियुग में जो लोग श्रीरामनाम के जप स्मरण कीर्तन में लगे हैं वे ही कृतकृत्य हैं उनको कलियुग पीड़ा नहीं पहुँचाता है । समस्तजगदाधारं सर्वेश्वरमखण्डितम् । रामनाम कलौ नित्यं ये जपन्ति समादरात् ॥ ५६७॥ ते धन्याः पूजनीयाश्च तेषां नास्ति भयं क्वचित् । सत्यं वदामि विप्रेन्द्र नान्यथा वचनं मम ॥ ५६८॥ सम्पूर्ण जगत् का आधार, सर्वेश्वर और अखण्ड श्रीरामनाम को जो इस कलियुग में नित्य आदरपूर्वक जपते हैं वे ही धन्य एवं पूजनीय हैं उनको कहीं भी किसी से भय नहीं है, हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! मैं सत्य कहता हूँ मेरी वाणी अन्यथा नहीं है । महाशम्भु संहितायां श्रीशिववाक्यं - महाशम्भुसंहिता में शिवजी का वाक्य - यत्र कुत्राशुभे देशे भवेद्रामानुकीर्त्तनम् । सर्वं तीर्थादिकं विद्धि महाघौघं हरं हि तत् ॥ ५६९॥ जिस किसी अपवित्र स्थान में श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन होता है उस स्थान को सभी तीर्थों से श्रेष्ठ समझो वह स्थान महापापपुञ्ज का भी नाशक है । श्रीरामनामाखिलमन्त्रबीजं सञ्जीवनं चेत् हृदये प्रविष्टम् । हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं वा विशतां कुतो भी ॥ ५७०॥ श्रीरामनाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज है और सञ्जीवन भूरि है यह रामनाम एक बार किसी तरह सन्त सद्गुरु कृपा से हृदय में प्रविष्ट हो जाय तो उस साधक के लिए हालाहल विष, प्रलयाग्नि अथवा मृत्यु के मुख में प्रवेश करने में भी कोई भय नहीं है । तत्रैव श्रीजानकीवचनं श्रीरामं प्रति - वहीं श्रीजानकीजी का वाक्य श्रीरामजी के प्रति - प्रणवं केचिदाहुर्वै बीजं श्रेष्ठं तथा परे । तत्तु ते नाम वर्णाभ्यां सिद्धिमाप्नोति मे मतम् ॥ ५७१॥ कुछ लोग ॐ को तथा कुछ लोग एकाक्षर बीज गं, हं आदि को श्रेष्ठ कहते हैं परन्तु वे दोनों (ओं, गं, हं आदि) ``र'' और ``म'' इन दोनों वर्गों से ही सिद्ध होते हैं ऐसा मेरा मत है । रामेति नाममात्रस्य प्रभावमतिदुर्गमम् । मृगयन्ति तु तद्वेदाः कुतो मन्त्रस्य ते प्रभो ॥ ५७२॥ हे स्वामिन् ! श्रीरामनाम का प्रभाव अति दुष्प्राप्य है सभी वेद उसका अन्वेषण करते हैं परन्तु पार नहीं पाते हैं फिर किसी दूसरे में इतनी शक्ति कहाँ? जो उसका पार पा सके । रामनाम प्रभावेण स्वयम्भूः सृजते जगत् । विभर्ति सकलं विष्णुः शिवः संहरते पुनः ॥ ५७३॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से स्वयम्भू ब्रह्माजी जगत् की सृष्टि करते हैं भगवान् विष्णु पालन करते हैं और शङ्करजी संहार करते हैं । पतञ्जलि संहितायां - पतञ्जलिसंहिता में - पृथ्वीं शस्यसम्पूर्णां दत्त्वा यत्फलमश्नुते । रामनाम सकृज्जप्त्वा ततोऽनन्तगुणं फलम् ॥ ५७४॥ हरे भरे धान्य से सम्पन्न सम्पूर्ण पृथिवी का दान करके जो फल प्राप्त किया जाता है उससे अनन्त गुना फल एक बार श्रीरामनाम के जप करने से प्राप्त होता है । रामेति नाम परमं मन्त्राणां बीजमव्ययम् । ये कीर्त्तयन्ति सततं तेषां किञ्चिन्न दुर्लभम् ॥ ५७५॥ सभी मन्त्रों का अविनाशी बीज श्रीरामनाम का जो निरन्तर कीर्तन करते हैं उनके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है । रामनाम परब्रह्म त्यक्त्वा वात्सल्यसागरम् । अन्यथा शरणं नास्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ५७६॥ वात्सल्य सागर परब्रह्मस्वरूप श्रीरामनाम को छोड़कर दूसरा कोई रक्षक नहीं है यह बात मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । नाम सङ्कीर्त्तनादेव सम्पूर्णफलदायकम् । अन्यत् फल्गु फलं सर्वं मोक्षावधिमसंशयम् ॥ ५७७॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही सम्पूर्ण फल की प्राप्ति सम्भव है अन्य साधनों से नहीं । क्योङ्कि अन्य सारे साधन तुच्छ फल देने वाले हैं अधिक से अधिक मोक्ष तक देने वाले हैं वह भी परमानन्द रस की अपेक्षा निश्चित ही तुच्छ है । कलौ युगे राघवनामतस्सदा परं पदं यात्यनायासतो ध्रुवम् । सर्वैर्युगैः पूजितमुन्नतं युगं समस्तकल्याणनिकेतनं वरम् ॥ ५७८॥ दूसरे सभी युगों से पूजित, उन्नत, समस्त कल्याण का निधान एवं श्रेष्ठ युग कलियुग है क्योङ्कि इस कलियुग में सदा सर्वदा श्रीरामनाम के जप स्मरण एवं कीर्तन से बिना श्रम के ही निश्चित ही परमपद की प्राप्ति होती है । माङ्गल्यं सर्वपापघ्नमायुष्यमखिलेष्टदम् । भुक्ति मुक्तिप्रदं पुण्यं रामनाम्नस्तु कीर्त्तनम् ॥ ५७९॥ श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन महामङ्गलमय, सभी पापों का नाश करने वाला, आयुष्य एवं सम्पूर्ण अभीष्टों को प्रदान करने वाला, भुक्ति और मुक्ति को प्रदान करने वाला एवं पुण्यप्रद श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन है । येऽहर्निश जगद्धातू रामनाम्नस्तु कीर्त्तनम् । कुर्वन्ति तान् नरव्याघ्र न कलिर्बाधते क्वचित् ॥ ५८०॥ हे नरश्रेष्ठ ! जो लोग दिन रात जगत् पिता भगवान् श्रीरामजी के नाम का सङ्कीर्तन करते हैं उनको कहीं भी कलि पीड़ा नहीं पहुँचाता है । शमनाय जलं वह्नेस्तमसो भास्करोदये । शान्तिः कलेरघौघस्य नामसङ्कीर्त्तनं वरम् ॥ ५८१॥ जिस प्रकार वह्नि की शान्ति के लिए जल समर्थ होता है और अन्धकार समूह की शान्ति के लिए सूर्य समर्थ होता है उसी प्रकार कलि के पाप समूह की शान्ति के लिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन ही सर्वश्रेष्ठ है । नामसङ्कीर्त्तनं तस्य क्षुत्तृट् संस्खलनादिषु । यः करोति महाभाग तस्य तुष्यति राघवः ॥ ५८२॥ भूख प्यास के दुख से एवं गिरते पड़ते छीङ्कते जैसे कैसे भी जो बड़भागी श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता है उस पर भगवान् श्रीराम प्रसन्न होते हैं । वैशम्पायन संहितायां - वैशम्पायनसंहिता में - सर्वधर्मबहिर्भूतः सर्वपापयुतस्तथा । मुच्यते नात्र सन्देहो रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ ५८३॥ जो सभी धर्म एवं कर्म से बहिर्भूत है एवं समस्त पापों से युक्त है वह भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है । ब्रवीमि वाक्यं श्रुतिशास्त्रसारं श‍ृण्वन्तु तत्सर्वजनाः पवित्रम् । रामेति वर्णद्वयमादरेण जपन्तु सर्वैर्मुनिभिः प्रदिष्टम् ॥ ५८४॥ मैं समस्त वेदों एवं शास्त्रों के सार एवं पवित्र वचन कहता हूँ आप सभी लोग उसको सुनें सभी मुनियों का यही प्रकृष्ट आदेश है कि राम इन दो अक्षरों को आदरपूर्वक जप करे । रामनाम जपादेव महापातक कोटयः । विनश्यन्ति महाभाग अनायासेन तत्क्षणात् ॥ ५८५॥ हे महाभाग ! श्रीरामनाम के जप से ही बिना श्रम के उसी क्षण करोड़ों पाप भस्म हो जाते हैं । जीवनं रामभक्तस्य वरं पञ्चदिनानि च । न तु नामविहीनस्य कल्पकोटिशतानि च ॥ ५८६॥ श्रीरामभक्ति से युक्त भक्तों का जीवन यदि केवल पाञ्च दिन के लिए है तो भी वह अतिश्रेष्ठ एवं धन्य है श्रीरामनाम से रहित करोड़ों वर्षों का जीना भी बेकार एवं हेय है । वारान्निधौ पततु गच्छतु वा हुताशं बन्ध्याऽथवा भवतु तज्जननी खरारेः । भक्तिर्न यस्य विमलेश्वरनाम्नि शुद्धे जीवच्छवो जगति गर्हित कर्मकर्ता ॥ ५८७॥ खरारि भगवान् श्रीरामजी के पवित्र एवं शुद्ध श्रीरामनाम में जिसकी प्रीति नहीं है वह जगत् में जीते जी मुर्दा है निन्दनीय कर्म करने वाला है, वह चाहे समुद्र में गिर पड़े अथवा अग्नि में प्रवेश कर जाये अथवा उसकी मां बन्ध्या हो जाये । गार्गीयसंहितायां धर्मराजवाक्यं दूतान् प्रति - गार्गीयसंहिता में धर्मराजजी का वाक्य दूतों के प्रति - दूतः श‍ृणुध्वं मम शासनं ध्रुवं सदैव माङ्गल्यकरं सुखावहम् । स्मरन्ति ये राघवनाम निर्मलं न तत्र यात्रा भवती शुभावहा ॥ ५८८॥ हे दूतों ! तुम लोग मेरे सदा सर्वदा मङ्गल करने वाले और सुखद निश्चित आदेश को सुनो, जो लोग नित्य निरन्तर भगवान् श्रीराघवेन्द्र के निर्मल नाम का उच्चारण करते हैं स्मरण करते हैं वहाँ तुम्हारी यात्रा मङ्गलकारी नहीं है । इसलिए तुम लोग वहाँ भूलकर भी मत जाना । साङ्केतरीत्याथ भयेन क्लेशादन्तेऽपि श्रीराममुदाहरन्ति । ते पुण्यभाजो मनुजा महात्मका न तत्र यात्रा भवती शुभावहा ॥ ५८९॥ जो लोग सङ्केत में, भय से अथवा किसी क्लेश के कारण अन्त में भी श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं वे लोग अवश्य ही पुण्यात्मा और महान् आत्मा है वहाँ तुम्हारी यात्रा शुभ नहीं होगी । वयंः सदा नाम सुहृद्दुःणे रतास्तथैव तज्जापकपादसेवकाः । प्रभावतो यस्य हरीश ब्रह्मा विभर्ति विश्वं सलयं ससम्भवम् ॥ ५९०॥ हम लोग भी सदा सर्वदा श्रीरामनामानुरागियों के गुणगान में लगे रहते हैं और श्रीरामनाम के जापकों की चरण सेवा करते हैं । जिस श्रीरामनाम के प्रभाव से भगवान् विष्णु विश्व की रक्षा, भगवान् शङ्कर संहार एवं ब्रह्माजी विश्व की रचना करते हैं । तस्मात् प्रमादमुत्सृज्य दूरतः किङ्करास्सदा । श्रीरामनामसम्पन्ने गृहे गच्छतु नैव हि ॥ ५९१॥ हे सेवकों ! इसीलिए प्रमाद को दूर छोड़कर श्रीरामनाम से सम्पन्न घर में भूलकर भी न जाना । कर्तव्यं वाक्यमाकर्ण्य स्वामिनो मम साम्प्रतम् । धार्यं ध्रुवं प्रयत्नेन महामोहैकनाशनम् ॥ ५९२॥ हे सेवकों ! इस समय मुझ स्वामी के महामोहनाशक कर्त्तव्य वाक्य को सुनकर निश्चित ही प्रयत्नपूर्वक धारण करो । वृहद् वशिष्ठसंहितायां श्रीवशिष्ठवाक्यं राजकुमारं प्रति - बृहद् वशिष्ठसंहिता में श्रीवशिष्ठजी का वाक्य राजकुमारों के प्रति - हित्वा सकलपापानि लब्ध्वा सुकृतसञ्चयम् । स पूतो जायते धीमान् रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ ५९३॥ वह श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के प्रभाव से समस्त पापों का त्यागकर सुकृत पुञ्ज को प्राप्त कर बुद्धिमान् पवित्र हो गया । राम रामेति रामेति कीर्त्तयच्छुद्धचेतसा । राजसूयसहस्राणाम्फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ५९४॥ जो मनुष्य शुद्धचित्त से राम राम राम कीर्तन करता है वह हजारों राजसूय यज्ञों का फल प्राप्त करता है । तत्रैव श्रीनारदवाक्यं मुनीन् प्रति - वहीं श्रीनारदजी का वाक्य मुनियों के प्रति - एकतः सर्वतीर्थानि जलं चैव प्रयागजम् । श्रीरामनाभ माहात्म्यं कलां नार्हति षोडशीम् ॥ ५९५॥ तराजू के एक पलड़े पर सभी तीर्थों एवं तीर्थराज प्रयाग के सङ्गम के जल को रखें और दूसरी ओर किञ्चिद् रामनाम माहात्म्य को रखें तो सभी तीर्थ एवं सङ्गम का जल उसकी कला के समान भी नहीं हो सकते । अन्धानां नेत्रमुत्कृष्टं स्वच्छं श्रीनाम मङ्गलम् । बधिराणां तथा कर्णं पङ्गूनां हस्तपादकम् ॥ ५९६॥ भीतर बाहर दोनों तरफ से जो अन्धे हैं उनके लिए श्रीरामनाम परम मङ्गल मय एवं उत्कृष्ट नेत्र हैं बधिरों के लिए कान एवं लूले लङ्गड़ों के लिए हाथ पांव श्रीरामनाम है अर्थात् असहाय लोगों के लिए परम सहायक श्रीरामनाम है । गालवीय संहितायां - गालवीयसंहिता में - आश्रयः सर्वजन्तूनामाधाररहितात्मनाम् । जननी तातवन्नित्यं पोषकं सर्वदेहिनाम् ॥ ५९७॥ जो लोग निराधार हैं उन सभी निराधार जन्तुओं का परम आधार श्रीरामनाम है एवं सभी देहधारियों का माता-पिता की तरह नित्य भरण पोषण करने वाला श्रीरामनाम है । सुदर्शन संहितायां - सुदर्शनसंहिता में - चातकानां चकोराणां मयूराणां तथा शुभम् । लक्षणं दोषनिर्मुक्तं धार्य श्रीनाम तत्परैः ॥ ५९८॥ श्रीरामनामजापकों को चातकों, चकोरों एवं मयूरों के दोषरहित लक्षण टेक, ध्यान एवं मधुर शब्द को धारण करना चाहिए । दुःखादिकं समं कृत्वा द्वन्दधर्मं विहाय च । भजेन्निरामयं नाम चित्तमाकृष्य सर्वतः ॥ ५९९॥ सुख दुखादि को सम मानकर और मान-अपमानादि द्वन्द्वों को छोड़कर अपने चित्त को सभी तरफ से खीञ्चकर निरामय श्रीरामनाम का भजन करना चाहिए । श्रीरामनाममात्रायामादौ चित्तस्य धारणा । कृत्वा पश्चात्सुधीर्ध्यानं रेफस्यैव विवेकतः ॥ ६००॥ बुद्धिमानों को पहले श्रीरामनाम के अवयव मात्रा ``आ'' के मनन अर्थानुसन्धान में मन को लगाना चाहिए तत्पश्चात् विवेकपूर्वक ``र'' का अर्थानुसन्धान मनन करना चाहिए । प्रणवादीनि मन्त्राणि रामनाम्नि समभ्यसेत् । यथा गुरूपदेशेन नित्यमेकाग्रमानसैः ॥ ६०१॥ अपने गुरु महाराज ने जिस प्रकार उपदेश दिया है उसी के अनुसार स्थिर आसन पर बैठकर एकाग्रचित होकर नित्य प्रणवादि सभी मन्त्रों का श्रीरामनाम में ही अभ्यास करें । एवं रीत्या जपेन्नाम तदा स्वल्पमुपागतः । जायते परमा सिद्धिर्विरक्तिर्भक्तिरुज्वला ॥ ६०२॥ इसी रीति से यदि श्रीरामनाम का जप किया जाय तो थोड़े समय में ही परम सिद्धि, वैराग्य एवं उज्ज्वल भक्ति की प्राप्ति हो जाती है । शिव संहितायां - शिवसंहिता में - नारायणादि नामानि कीर्त्तितानि बहून्यपि । सम्यग् भगवतस्तेषु रामनाम प्रकाशकम् ॥ ६०३॥ भगवान् के नारायणादि अनन्त नामों के कीर्तन करने पर भी उन सभी नामों में सम्यक् प्रकाशक नाम तो श्रीरामनाम ही है । नारायणादि नामानि साकारैश्वर्यमुत्तमम् । नित्यं ब्रह्म निराकारमैश्वर्यं वै विभाति च ॥ ६०४॥ नारायणादि जितने भगवान् के नाम है वे सब साकार एवं उत्तम ऐश्वर्यमय हैं और नित्य निराकार ऐश्वर्यमय ब्रह्म है दोनों अलग-अलग हैं । उभयैश्वर्यमान्नित्यो रामो दशरथात्मजः । साकेते नित्यमाधुर्य्ये धाम्नि संराजते सदा ॥ ६०५॥ श्रीदशरथनन्दन भगवान् श्रीराम दोनों प्रकार के ऐश्वर्य से नित्य सम्पन्न हैं और नित्य माधुर्यमय साकेत धाम में सदा सर्वदा विराजते हैं । रामनाम परं तत्त्वं द्वयोः कारणमुज्ज्वलम् । तस्य संस्मरणादेव साक्षाद्रामालयं व्रजेत् ॥ ६०६॥ साकार निराकार का परम कारण उज्ज्वल परात्पर तत्व श्रीरामनाम है उसके स्मरण मात्र से मनुष्य साक्षात् श्रीरामधाम साकेत जाता है । नाम स्मरणामात्रेण नामी सन्मुखतां लभेत् । तस्माच्छ्रीरामनाम्नस्तु कीर्त्तनं सर्वदोचितम् ॥ ६०७॥ श्रीरामनाम के स्मरण मात्र से भगवान् श्रीराम प्रत्यक्ष प्रकट हो जाते हैं इसलिए सदा सर्वदा श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए यही उचित है । रा शब्दस्तु परं ब्रह्म वाचकत्वेन बोधितः । मकारस्तु परा शक्तिस्सर्वशक्त्यभिवन्दिता ॥ ६०८॥ श्रीरामनाम में ``र'' परब्रह्म का वाचक कहा गया है । एवं ``म'' सभी शक्तियों से पूज्या पराशक्ति श्रीसीताजी का वाचक है । लोमश संहितायां - लोमशसंहिता में - न सोऽस्तु प्रत्ययो लोके यश्च श्रीराम नामतः । भिन्नं प्रतीयते विप्र सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ६०९॥ हे विप्र ! ऐसा कोई शब्द अर्थ नहीं है ज्ञान नहीं है जो श्रीरामनाम से भिन्न प्रतीत हो यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । तात्पर्य यह है कि सभी शब्दार्थ ज्ञान श्रीरामनाम के अंश से प्रकट होते हैं । लौकिकाः वैदिकाः सर्वे शब्दा श्रीरामनामतः । समुद्भवन्ति लीयन्ते काले काले न संशयः ॥ ६१०॥ वैदिक एवं लौकिक सभी शब्द समय-समय पर श्रीरामनाम से ही प्रकट होते हैं और विलीन भी होते हैं मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । यथा भुशुण्डिशब्देन पलायन्ते खगा मुने । तरुं विहाय वै तद्वद्राम नाम्ना दुराशय ॥ ६११॥ हे मुने ! जैसे धमाके की आवाज सुनकर वृक्ष छोड़कर पक्षी भाग जाते हैं उसी प्रकार श्रीरामनाम की ध्वनि सुनकर शरीर के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । यथा चिन्तामणेस्स्पर्शाद्दारिद्र् यं याति सङ्क्षयम् । तथा श्रीराम नाम्ना वै मोहजालमसंशयम् ॥ ६१२॥ जैसे चिन्तामणि के स्पर्श से दरिद्रता का नाश हो जाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम से निश्चित ही मोहजाल नष्ट हो जाते है । रामेति द्वयक्षरं नाम मानम्भङ्गः पिनाकिनः । अभेदो बोध्यते तेन सततं नामनामिनोः ॥ ६१३॥ श्रीरामनाम के दोनों अक्षरों ने (रा म) शङ्करजी के मान का भञ्जन किया है इससे प्रतीत होता है कि नाम और नामी में अभेद है । तात्पर्य यह है कि धनुष तोड़ा रामजी ने और कहा गया कि दो अक्षरों ने शिवजी का मान भङ्ग किया अतः रामजी और रामनाम दोनों एक ही है । तत्रैव लोमशवाक्यं - वहीं लोमशवाक्य - एकदा मुनयः सर्वे शौनकाद्या बहुश्रुताः । नैमिषे सूतमासीनं पप्रच्छुरिदमादरात् ॥ ६१४॥ एक बार नैमिषारण्य में बहुश्रुत शौनकादि ऋषियों ने सुखपूर्वक बैठे हुए श्रीसूतजी से आदरपूर्वक यह पूछा । अज्ञानध्वान्तविध्वंसोऽनन्त कोटि समप्रभः । कथितो भवता पूर्वं तद्वदस्व महामते ॥ ६१५॥ हे महामते ! आपने पहले कहा था कि अज्ञानरूपी अन्धकार को नाश करने के लिए अनन्त सूर्य के समान प्रभा श्रीरामनाम में है अब उसे विस्तार से कहिए । श्रीसूत उवाच - सूतजी ने कहा - श‍ृणुध्वं मुनयः सर्वे रहस्यं परमाद्भुतम् । पार्वती शिव संवादं चतुर्वर्गप्रदायकम् ॥ ६१६॥ हे मुनियों ! आप सब परम अद्भुत रहस्यात्मक चार पदार्थों को प्रदान करने वाला भगवान् शिव और पार्वतीजी का सुन्दर संवाद सुनिए । कैलासशिखरासीनं देवदेवं जगद्गुरुम् । लोकानाञ्च हितार्थाय पप्रच्छ नगकन्यका ॥ ६१७॥ कैलास के शिखर पर सुखपूर्वक बैठे हुए जगदुगुरु देवाधिदेव भगवान् शिवजी से श्रीपार्वतीजी जगत् के कल्याण की कामना से पूछा । पार्वत्युवाच - पार्वतीजी बोली - देव देव महादेव सर्वज्ञ परमेश्वर । त्वत्तः श्रुतं मया पूर्व मन्त्रतन्त्राद्यनेकधा ॥ ६१८॥ हे सर्वज्ञ ! हे परमेश्वर ! हे देवाधिदेव महादेव ! मैन्ने पहले आपके मुख से अनेक प्रकार के मन्त्रों एवं तन्त्रों को सुना है । सर्वधर्माणि जीवानां व्यवहाराणि यानि च । इदानीं श्रोतुमिच्छामि किं तत्त्वं कृतनिश्चितम् ॥ ६१९॥ और जीवों के सभी धर्मों और सभी व्यवहारों को सुना । इस समय मैं यह सुनना चाहती हूँ कि अब तक आपने कौनसा तत्व निश्चित किया । गुह्याद् गुह्यतरं गुह्यं पवित्रं परमं च यत् । सुलभं सुगमोपायं विनायासेन सिद्धिदम् ॥ ६२०॥ जो गुह्य से भी गुह्य और परम पवित्र हो, जो सुलभ एवं सुगम उपाय वाला हो, और बिना श्रम के ही सिद्धि प्रदान करने वाला हो ऐसे तत्व को बताइए । शिव उवाच - शिवजी ने कहा - धन्यासि कृतपुण्यासि यदि ते मतिरीदृशी । पृष्टं लोकोपकाराय तस्मात्त्वां प्रवदाम्यहम् ॥ ६२१॥ हे पार्वती ! तुम धन्य हो, तुमने पुण्य का कार्य किया है क्योङ्कि तुम्हारी ऐसी मति है तुमने लोक कल्याण की कामना से पूछा है अतः मैं तुमसे कहूँगा । रहस्यं परमं प्रेष्ठं सर्वसिद्धिप्रदायकम् । रामनामपरं तत्त्वं सर्वशास्त्रेषु प्रस्फुटम् ॥ ६२२॥ सभी प्रकार की सिद्धियों को प्रदान करने वाला, अत्यन्त प्रिय तत्व श्रीरामनाम है जो सभी शास्त्रों में प्रकृष्टता से स्फुटित हुआ है । यस्य नामप्रभावेण सर्वज्ञोऽहं वरानने । रामनाम्नः परं तत्त्वं नास्ति किञ्चिज्जगत्त्रये ॥ ६२३॥ हे सुमुखि ! जिस श्रीरामनाम के जप के प्रभाव से मैं सर्वज्ञ हो गया हूँ श्रीरामनाम से बढ़कर तीनों लोकों में कोई दूसरा तत्व नहीं है । रामभद्रं परित्यज्य योऽन्यदेवमुपासते । कुम्भीपाके महाघोरे पच्यते नात्र संशयः ॥ ६२४॥ भगवान् श्रीरामचन्द्र को छोड़कर जो किसी दूसरे देवी देवता की उपासना करते हैं वे लोग निश्चित ही महाघोर कुम्भीपाक नरक में पकाये जाते हैं । अज्ञानादथवा ज्ञानाद्रामेति द्वयक्षरं वदेत् । जन्मकोटिकृतं पापं नाशमायाति तत्क्षणात् ॥ ६२५॥ जानबूझकर अथवा अनजान में जो ``राम'' इन दो अक्षरों का उच्चारण करते हैं उनके कई जन्मों के पापों का नाश तत्क्षण ही हो जाता है । यज्ञदानतपस्तीर्थस्वाध्यायाध्यात्मबोधतः । कोटिसङ्ख्यं रामनाम्नि पावित्र्यं वर्तते प्रिये ॥ ६२६॥ हे प्रिये ! यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, स्वाध्याय एवं स्वस्वरूप बोध की अपेक्षा करोड़ों गुना अधिक पवित्रता श्रीरामनाम में है । ततः कोटिगुणं पुण्यं सीतानाम सनातनम् । इति मत्वा भजन्त्येतान् मुनयो नारदादयः ॥ ६२७॥ और यज्ञदानादि से कोटि गुना अधिक पुण्य श्रीसीता नाम के साथ राम नाम के जप में है ऐसा मान करके ही नारदादि ऋषि मुनि श्रीसीताराम नाम का जप करते हैं । यावन्न कीर्तयेदस्या नाम कल्मषनाशनम् । अनन्तकोटिं जपतोऽपि न रामः फलसाधकः ॥ ६२८॥ जब तक समस्त पापों का नाशक श्रीसीताजी के नाम का कीर्तन जप नहीं करेङ्गे तब तक केवल श्रीरामनाम के अनन्त कोटि जप करने से भी कोई फल नहीं मिलेगा अतः सदा सर्वदा युगल नाम का जप करना चाहिए । सीतया सहितं यत्र रामनाम प्रकीर्त्यते । न तत्र नामदोषाणां प्रवृत्तिस्स्यात्कथञ्चन ॥ ६२९॥ जहाँ सीतानाम के साथ श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन होता है अर्थात् सीताराम सीताराम सङ्कीर्तन होता है वहाँ नामापराध जन्य दोष नहीं लगते हैं अर्थात् नामापराध होने पर भी श्रीसीताराम जप करने से उसका पाप नष्ट हो जाता है उसका फल नहीं भोगना पड़ता है । साङ्गाः सह रहस्याश्च पठिता वेदराशयः । कृताश्च सकलाः यज्ञा येन रामेति कीर्त्तितम् ॥ ६३०॥ जिसने श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन कर लिया उसने समस्त अङ्गों एवं रहस्यों के साथ सम्पूर्ण वेद राशि को पढ़ लिया और समस्त यज्ञों का अनुष्ठान कर लिया । रामेति द्वयक्षरं नाम यत्र सङ्कीर्त्यते बुधैः । तत्राविर्भूय भगवान् सर्वदुखं विनाशयेत् ॥ ६३१॥ जहाँ पर विद्वानों के द्वारा ``राम'' इन दो अक्षरों का सङ्कीर्तन किया जाता है वहाँ भगवान् प्रकट होकर सभी दुःखों का नाश कर देते हैं । अज्ञानतिमिरोद्भेदं कोटिसूर्येन्दुभास्वरम् । ज्ञानामृतपयोवाहं रामनाम सदा जपेत् ॥ ६३२॥ अज्ञानरूपी अन्धकार के नाश करने के लिए करोड़ों सूर्य एवं चन्द्र सम तेजस्वी, ज्ञानामृत की वृष्टि करने वाले मेघ के समान श्रीरामनाम का सदा सर्वदा जप करना चाहिए । किं कार्यं वैदिकैः शब्दः किंवा मन्त्रैश्च तान्त्रिकैः । किं कर्मणा च ज्ञानेन किमन्यैस्तपसाश्रमैः ॥ ६३३॥ दूसरे वैदिक शब्दों से अथवा तन्त्र मन्त्रों से, कर्म, ज्ञान एवं दूसरे तपस्याओं एवं आश्रम धर्म के पालन से क्या प्रयोजन? तात्पर्य यह है कि जब श्रीरामनाम के जप से सहज में ही सब कुछ प्राप्त हो जाता है तब अन्य साधनों की क्या आवश्यकता है । स्मर्तव्यं रामनामैकं श्रोतव्यं चैव सर्वदा । पठितव्यं कीर्त्तितव्यं च श्रद्धायुक्तैर्दिवानिशम् ॥ ६३४॥ अतः रात दिन सदा सर्वदा श्रद्धापूर्वक एकमात्र श्रीरामनाम का स्मरण, श्रवण, पठन और कीर्तन करना चाहिए । विधिरुक्तं सदैवास्य न निषेधः क्वचिद्भवेत् । सर्वदेशे सर्वकाले सर्वैश्च नरजातिभिः ॥ ६३५॥ श्रीरामनाम के जप का विधान सदासर्वदा है निषेध कहीं नहीं है हर जाति का स्त्री या पुरुष हर जगह और हर समय श्रीरामनाम का जप कीर्तन कर सकते हैं । इदमेकं सदा कार्यं यदीच्छेच्छुभमात्मनः । चतुर्वर्गप्रदानेऽपि समर्थो रघुपुङ्गवः ॥ ६३६॥ यदि कोई अपना कल्याण चाहता है तो उसे एकमात्र श्रीरामनाम का सदासर्वदा कीर्तन करना चाहिए सभी मनोरथों को पूर्ण करने में भगवान् श्रीराम समर्थ हैं । ध्यानाज्ज्ञानाच्च सततं नाममात्रस्य कीर्त्तनात् । इत्युक्तं वः प्रियं सर्वं मया देवर्षिपुङ्गवाः ॥ ६३७॥ ध्यान एवं ज्ञान की अपेक्षा निरन्तर श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन श्रेष्ठ है हे मुनिश्रेष्ठों ! मैं आप लोगों को प्रिय लगने वाली बात यह कह दिया । नातोऽपि वेदितव्यं स्याद्भवतां तत्त्वमीयुषाम् । सिद्धान्तः सर्वशास्त्राणां भवतां समुदाहृतम् ॥ ६३८॥ आप तत्व जिज्ञासुओं को इसके अतिरिक्त कुछ भी जानना बाकी नहीं है मैंने आप लोगों के लिए सभी शास्त्रों का सार सिद्धान्त कहा है । इति ते कथितं देवि रहस्यं परमाद्भुतम् । गोपनीयं प्रयत्न येन श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ६३९॥ हे देवि ! मैंने परम अद्भुत रहस्य तुमसे कहा है इसको प्रयत्नपूर्वक छिपाना चाहिए सबसे नहीं कहना चाहिए तभी इससे कल्याण प्राप्त करोगी । पुलस्त्यसंहितायां - पुलस्त्यसंहिता में - कृष्णेति वासुदेवेति सन्ति नामान्यनेकशः । तेभ्यो रामेति यन्नाम प्राहुर्वेदाः परं मुने ॥ ६४०॥ हे मुने ! वेदों ने भगवान् के कृष्ण, वासुदेव आदि अनेक नाम कहे हैं उनसे बढ़कर श्रीरामनाम हैं अर्थात् सभी नामों से श्रेष्ठ श्रीरामनाम है । सर्ववेदाश्रयत्वाच्च सर्वलोकस्य कारणात् । ईश्वरप्रतिपाद्यत्वादखण्डब्रह्मवाचकः ॥ ६४१॥ समस्त वेदों का परम आश्रय, समस्त लोकों का परम कारण एवं ईश्वर शिवजी का भी प्रतिपाद्य होने से श्रीरामनाम परब्रह्म वाचक है । शुकसंहितायां - श्रीशुकसंहिता - आकृष्टिः कृतचेतसां सुमहतामुच्चाटनं चांहसा- माचाण्डालममूकलोकसुलभो वश्यश्च मुक्ति स्त्रियः । नो दीक्षां न च दक्षिणां न च पुरश्चर्यामनागीक्षते मन्त्रोऽयंरसनास्पृगेव फलति श्रीरामनामात्मकः ॥ ६४२॥ जिन्होंने अपने मन को वशकर लिया है ऐसे महात्माओं के भी चित्त को आकृष्ट करने वाला, पापों का उच्चाटन करने वाला, गूँगों को छोड़कर ब्रह्मा से लेकर चाण्डाल पर्यन्त सभी जीवों के लिए सुलभ, मुक्ति स्त्री को वश में करने वाला श्रीरामनाम है इसमें दीक्षा दक्षिणा और पुरश्चरणादि की अपेक्षा नहीं है यह श्रीरामनामरूपी महामन्त्र केवल जिह्वा के स्पर्श मात्र से सम्पूर्ण फल प्रदान करता है । नायनाय यदृतेऽक्षराष्टकं पञ्चकं च न शिवाय यद्विना । मुक्तिदं भवति यद्द्वयोर्वशात्तद्द्वयं वयमुपास्महे किल ॥ ६४३॥ श्रीरामनाम के ``रा'' शब्द के बिना अष्टाक्षर मन्त्र नायणाय एवं ``म'' के बिना पञ्चाक्षर मन्त्र ``न'' शिवाय होकर अभीष्ट फल नहीं देते हैं तात्पर्य यह है कि श्रीरामनाम के ``रा'' के कारण ही नारायण मन्त्र एवं ``म'' के कारण ही शिव का पञ्चाक्षर मन्त्र अभीष्ट अर्थ प्रदान करता है मुक्ति प्रदान करता है इसलिए हम लोग निश्चित ही श्रीरामनाम की उपासना करते हैं । रामस्यातिप्रियं नाम रामेत्येव सनातनम् । दिवारात्रौ गृणन्नेषो भाति वृन्दावने स्थितः ॥ ६४४॥ भगवान् श्रीराम का अतिप्रिय सनातन नाम श्रीराम ही है इसी नाम को श्रीधाम वृन्दावन में स्थित होकर श्रीकृष्णचन्द्र दिन रात श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते रहते हैं । येषां रामः प्रियो नैव रामे न्यूनत्वदर्शिनाम् । द्रष्टव्यं न मुखं तेषां सङ्गतिस्तु कुतस्तराम् ॥ ६४५॥ जिन लोगों का श्रीराम के प्रति प्रेम नहीं है अथवा जो लोग श्रीरामजी में न्यूनत्व का दर्शन करते हैं उन सबका मुख नहीं देखना चाहिए सङ्गति करना तो बहुत दूर है । यन्नामवैभवं श्रुत्वा शङ्कराच्छुकजन्मना । साक्षादीश्वरतां प्राप्तः पूजितोऽहं मुनीश्वरैः ॥ ६४६॥ जिस श्रीरामनाम की महिमा को भगवान् शङ्कर से सुनकर मैं शुक शरीर से साक्षात् ईश्वर रूप हो गया और बड़े-बड़े मुनीश्वरों के भी पूज्य हो गये । नातः परतरं वस्तु श्रुतिसिद्धान्तगोचरम् । दृष्टं श्रुतं मया क्वापि सत्यं सत्यं वचो मम ॥ ६४७॥ समस्त वेदान्तों में श्रीरामनाम से बढ़कर कोई दूसरी वस्तु मैंने न देखा है और न कहीं सुना है यह मेरी वाणी सत्य सत्य है । पद्मसंहितायां - पद्मसंहिता में - पठति सकलशास्त्रं वेदपारं गतो वा यमनियमयुतो वा वेदशास्त्रार्थकृद्वा । अपि च सकलतीर्थव्राजको वाहिताग्नि- र्नहि हृदि यदि रामस्सर्वमेतद्वृथा स्यत् ॥ ६४८॥ सम्पूर्ण शास्त्रों को पढ़ लिया हो अथवा वेदों में पारङ्गत हो गये हो । यमनियमादि से युक्त हो अथवा वेदशास्त्रों के अर्थ करने वाले हों, अथवा सभी तीर्थों की यात्रा कर लिया हो अथवा अग्नि होत्रादि कर्म कर लिया हो, यदि भगवान् श्रीराम हृदय में नहीं आये अर्थात यदि भगवान् श्रीराम से प्रेम नहीं हुआ तो यह सब कुछ करना व्यर्थ चला गया । रूपस्यानुभवं दिव्यं परानन्दस्य सागरम् । रामनाम रसं दिव्यं पिब नित्यं सदाव्ययम् ॥ ६४९॥ भगवान् श्रीराम के दिव्य स्वरूप का अनुभव करने वाला, परमानन्द का समुद्र, दिव्य रस एवं अविनाशी श्रीरामनाम है अतः तुम सदासर्वदा इसका पान करो । रामनामरसानन्तंसाधकं सु रसालयम् । स्मरणाद्रामभद्रस्य सङ्काशः तस्य संस्फुटम् ॥ ६५०॥ श्रीरामनाम अनन्त रस का साधक और रस का निवास स्थान है श्रीरामनाम के स्मरण करने से भगवान् श्रीराम का भीतर बाहर प्रकाश होने लगता है । रकाराज्जायते ब्रह्मा रकाराज्जायते हरिः । रकाराज्जायते शम्भू रकारात्सर्वशक्तयः ॥ ६५१॥ श्रीरामनाम के ``र'' से ब्रह्मा, विष्णु, शङ्कर एवं सभी शक्तियाँ उत्पन्न होती हैं । आदावन्ते तथा मध्ये रकारेषु व्यवस्थितम् । विश्वं चराचरं सर्वमवकाशेन नित्यशः ॥ ६५२॥ यह चराचर सम्पूर्ण विश्व आदि मध्य एवं अन्त में अवकाश के साथ ``र'' में नित्य ही अवस्थित हैं । अनन्तसंहितायां - अनन्तसंहिता में - वने चरामो वसु चाहरामो नदीस्तरामो न भयं स्मरामः । इत्थं वदन्तश्च वने किराता मुक्तिं गता रामपदानुषङ्गात् ॥ ६५३॥ किसी वन में चार किरात आपस में वन में ``विचरण करेङ्गे, धन का हरण करेङ्गे, नदी पार करेङ्गे और भय की याद नहीं करेङ्गे'' इस प्रकार बातचीत करते हुए दैववश मर गये । श्रीरामनाम से सम्बन्धित ``र'' ``म'' का उच्चारण करने के कारण वे सब मुक्त हो गये । सर्वैश्वर्यप्रदं सर्वं सिद्धिदं सर्वधर्मदम् । सर्वमोक्षकरं शुद्धं परानन्दस्य कारणम् ॥ ६५४॥ सभी ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाला, विश्वस्वरूप, सिद्धि एवं सभी धर्म प्रदान करने वाला, सभी मुक्तियों को प्रदान करने वाला, शुद्ध तथा परमानन्द का कारण श्रीरामनाम है । एकैकं रामनाम्नस्तु सर्वतापप्रणाशनम् । सहस्रनामकोटीनां फलदं वेदविश्रुतम् ॥ ६५५॥ श्रीरामनाम का एक नाम तो सभी तापों का नाश करने वाला है एवं भगवान् विष्णु के हजारों करोड़ों नाम के समान फल देने वाला है यह बात वेद प्रसिद्ध हैं । इमं मन्त्रं सदा स्नेहाद्ये जपन्तीह सादरम् । ते कृतार्थाः कलौ देवि अन्ये मायाविमोहिताः ॥ ६५६॥ हे देवि ! जो लोग प्रेम से आदरपूर्वक सदासर्वदा श्रीरामनाम का जप करते हैं इस कलियुग में वे लोग निश्चित ही कृतार्थ हैं, शेष लोग माया के कारण मोहितचित्त वाले हैं । इमं मन्त्रं महेशानि जपन्नित्यमहर्निशम् । मुच्यते सर्वपापेभ्यो रामसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ६५७॥ हे पार्वति ! इस मन्त्र को नित्य रात दिन जप करने से सभी पापों से जीव मुक्त हो जाता है और श्रीराम की सायुज्य मुक्ति (भगवान् के आभूषण, वस्त्रादि) को प्राप्त होता है । सर्वेषां सिद्धिदं रामनाम सर्वत्र सर्वदा । यस्य संस्मरणाच्छीघ्रं फलमायाति दूरगम् ॥ ६५८॥ सभी जगह सदासर्वदा जीवमात्र को सिद्धि प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है जिसके स्मरणमात्र से दूर में विद्यमान फल भी शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है । रामनाम्नः प्रभावेण स्क्यम्भूः सृजते जगत् । तथैव सर्वदेवाश्च सर्वैश्वर्यसमन्विताः ॥ ६५९॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से ब्रह्माजी जगत् की सृष्टि करते हैं और श्रीरामनाम के प्रभाव से ही देवता लोग सभी ऐश्वर्यों से युक्त हुए हैं । मार्कण्डेयसंहितायां - मार्कण्डेयसंहिता में - अन्तःकरणसंशुद्धिर्नान्यसाधनतो भवेत् । कलौ श्रीरामनाम्नैव सर्वेषां सम्मतं परम् ॥ ६६०॥ सभी सन्त महापुरुषों का सर्वश्रेष्ठ मत है कि कलियुग में अन्तःकरण की शुद्धि केवल श्रीरामनाम से ही हो सकती है अन्य किसी साधन से नहीं । आर्त्तानां जीवनं नित्यं दृप्तानां वै प्रमोददम् । भक्तानां त्राणकर्तारं रामनाम समाश्रये ॥ ६६१॥ दोनों प्रकार के शरणागत भक्तों में आर्त भक्तों का तो नित्य जीवन एवं दृप्त भक्तों को आनन्द प्रदान करने वाला श्रीरामनाम है ऐसे सभी भक्तों की रक्षा करने वाले श्रीरामनाम का मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ । कृपादिगुणसम्पन्नं सर्वदा शोकहारकम् । तारकं संसृतेर्नित्यं रामनाम भजाम्यहम् ॥ ६६२॥ कृपादि अनन्त गुणों से सम्पन्न, सदासर्वदा शोक रहने वाले, भवसंसृति से तारने वाले श्रीरामनाम का मैं नित्य भजन करता हूँ । चित्तस्य वासना सूक्ष्मा सर्वानन्दविनाशिनी । सोपि श्रीरामसंलापादनायासेन नश्यति ॥ ६६३॥ चित्त की जो सूक्ष्म वासना सभी आनन्दों का नाश करने वाली है वह वासना भी श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से बिना श्रम के नष्ट हो जाती है । रसना सर्पिणी प्रोक्ता संस्थिता बिल वन्मुखे । या न वक्ति सुधासारं रामनामपरात्परम् ॥ ६६४॥ जो जिह्वा अमृत की मूसलाधार वृष्टि स्वरूप श्रीरामनाम का उच्चारण नहीं करती है वह जिह्वा सर्पिणी कही गयी है और मुखरूपी बिल में बैठी है । विवेकादीन् शुभाचारान् रक्षणाय सदोद्यतम् । श्रीरामेति सन्नाम परमानन्दविग्रहम् ॥ ६६५॥ विवेकादि शुभाचरणों की रक्षा के लिए सदासर्वदा उद्यत, परमानन्दस्वरूप सन्नाम श्रीरामनाम है । अत्रिसंहितायां श्रीशङ्करवाक्यं पार्वतीं प्रति - अत्रिसंहिता में श्रीशङ्करजी का वाक्य पार्वतीजी के प्रति - येन केन प्रकारेण संस्मरेद्रामनामकम् । अवश्यं लभते सिद्धिं प्राप्तिरूपां मनोरमाम् ॥ ६६६॥ जिस किसी भी प्रकार से जो श्रीरामनाम का स्मरण करता है वह निश्चित ही भगवत्प्राप्तिरूप मनोरम सिद्धि को प्राप्त करता है । श्रीमद्रामेति नाम्नस्तु नियमं धारणं सदा । कर्तव्यं सावधानेन त्यक्त्वा प्रामादिकं शिवे ॥ ६६७॥ हे पार्वति ! प्रमादादि दोषों का त्याग करके सदासर्वदा सावधानचित्त से श्रीरामनाम के जप का नियम धारण करना चाहिए । तावद्वै नियमं कार्यं यावत् चित्तं न संस्मरेत् । अनियमं कृतं जाप्यं निष्फलं प्रथमं प्रिये ॥ ६६८॥ हे पार्वति ! बिना नियम के जप ज्यादा दिन नहीं चलता है और निष्फल भी होता है अतः नियमपूर्वक जप करना चाहिए और तब तक नियम धारण करना चाहिए जब तक अपना चित्त स्वतः निरन्तर स्मरण न करे । नियमेनैव श्रीरामनाम्नि प्रीतिर्घुवा भवेत् । तस्माद्विपर्य्ययं त्यक्त्वा नियमं सश्चरेद्बुधः ॥ ६६९॥ नियमपूर्वक जप करने से ही श्रीरामनाम में निश्चित व ध्रुव प्रेम प्रकट होगा अतः अन्यथा विचार का त्याग करके बुद्धिमान् को नियम लेना चाहिए । अहो भाग्यमहो भाग्यं कलौ तेषां सदा शिवे । येषां श्रीरामनाम्नस्तु नियमं समखण्डितम् ॥ ६७०॥ हे पार्वति ! इस कलियुग में वे ही भाग्यशाली हैं सदा भाग्यवान् हैं जिनका श्रीरामनाम के जप का नियम सम्यक् एवं अखण्ड रूप से चल रहा है । सनकसनातनसंहितायां - सनकसनातनसंहिता में - हे जिह्वे मधुरप्रिये सुमधरं श्रीरामनामात्मकं पीयूषं पिबप्रेमभक्तिमनसा हित्वा विवादानलम् । जन्मव्याधिकषायकामशमनं रम्यातिरम्यं परं श्रीगौरीशप्रियं सदैव सुभगं सर्वेश्वरं सौख्यदम् ॥ ६७१॥ हे मधुरप्रिये जिह्वे ! विवादरूपी अग्नि का त्याग करके प्रेमस्वरूपा भक्ति से युक्त मन से अत्यन्त मधुर अमृत स्वरूप श्रीरामनाम को खूब पिओ । यह श्रीरामनाम जन्म मरणरूपी भयङ्कर व्याधि एवं कामरूपी कषाय का नाशक है अत्यन्त रमणीय, सर्वोत्कृष्ट, सदासर्वदा भगवान् शिव को प्रिय, सुभग, सर्वेश्वर एवं सुख प्रदान करने वाला है । नाना तर्कवितर्कमोहगहने क्लिश्यन्ति ते मानवा- स्तेषां श्रीरघुवीरनामविमलं सर्वात्मना सौख्यदम् । प्रेमानन्दपवत्ररङ्गरमणं सर्वाधिपं सुन्दरं दृष्टं बोधमयंविचित्ररचनं सर्वोत्तमं शाश्वतम् ॥ ६७२॥ जो नाना प्रकार के तर्क वितर्क एवं मोह के गहन वन में दुःख पा रहे हैं उन लोगों के लिए भगवान् राघवेन्द्र का यह विमल रामनाम हर प्रकार से सुख प्रदान करने वाला है परम प्रेमानन्द के पवित्र रङ्ग में रमण करने वाला है, सबका स्वामी है, सुन्दर दर्शनमात्र से बोध प्रदान कराने वाला, विचित्र रचनामय, शाश्वत एवं सर्वोत्तम है । श्रमं मृषैव कुर्वन्ति ज्ञानयोगादिसाधने । कथं न भजते रामनाम सर्वेशपूजितम् ॥ ६७३॥ लोग व्यर्थ में ही ज्ञानयोगादि साधनों में श्रम करते हैं क्यों नहीं अन्य साधनों को छोड़कर भगवान् शङ्कर से भी पूजित श्रीरामनाम का भजन करते हैं? सर्वेषां साधनानां वै परिपाकमिदं मुने । यज्जिह्वाग्रे परं नाम जपेन्नित्यमतन्द्रितम् ॥ ६७४॥ हे मुने ! सभी साधनों का परम फल यही है कि तन्द्रा का त्याग करके सदासर्वदा सर्वश्रेष्ठ श्रीरामनाम का नित्य जप करे । श्रीहनुमत् संहितायां - श्रीहनुमत् संहिता में - राम त्वत्तोऽधिकं नाम इति मे निश्चला मतिः । त्वया तु तारिताऽयोध्या नाम्ना तु भुवनत्रयम् ॥ ६७५॥ हे रामजी ! आपसे बढ़कर अधिक फलदायी आपका नाम श्रीरामनाम है यह मेरी निश्चला बुद्धि है क्योङ्कि आपने तो केवल अयोध्यावासियों को तारा है आपके रामनाम ने सम्पूर्ण त्रिभुवन को तार दिया है । हे जिह्ने ! जानकीजानेर्नाम माधुर्यमण्डितम् । भजस्व सततं प्रेम्णा चेद्वाञ्छसि हितं स्वकम् ॥ ६७६॥ हे जिह्वे ! यदि तुम अपना कल्याण चाहती हो तो तुम श्रीजानकीपति श्रीरामजी के माधुर्य युक्त पावन नाम श्रीरामनाम का निरन्तर प्रेम से भजन करो । जिह्वे श्रीरामसंलापे विलम्बं कुरुषे कथम् । व्रीडा नायाति ते किञ्चिद्विना श्रीनाम सुन्दरम् ॥ ६७७॥ हे जिह्वे ! श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन में तुम विलम्ब क्यों करते हो? परम सुन्दर श्रीरामनाम के बिना तुम्हें कुछ लज्जा नहीं आती । रामनामात्मकं मन्त्रं यन्त्रितं येन धारितम् । तस्य क्वापि भयं नास्ति सत्यं सत्यं वदाम्यहम् ॥ ६७८॥ जिसने यन्त्र स्वरूप महामन्त्र श्रीरामनाम को धारण कर लिया उसे कहीं भी भय नहीं है मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । स्मरतोऽभीष्टमाप्नोति रामनामानुरागिणाम् । न जाने दर्शनस्पर्शपादोदकफलं यथा ॥ ६७९॥ श्रीरामनाम के अनुरागी भक्तों के स्मरण करने मात्र से सम्पूर्ण अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है फिर नामानुरागी सन्तों के दर्शन, चरणस्पर्श और उनके चरणामृत का क्या फल होता है यह मैं नहीं जानता हूँ । श्रीरामनामस्मरणात् सीतारामौ ममोपरि । कृपामहैतुकीं नित्यं कृत्वा सर्वोत्तमां मुने ॥ ६८०॥ हे मुने ! श्रीरामनाम के स्मरण से श्रीसीतारामजी ने मेरे ऊपर अपनी सर्वश्रेष्ठ अहेतुकी कृपा नित्य की है । सदाशिवसंहितायां श्रीहनुमद्वाक्यमगस्त्यं प्रति - सदाशिवसंहिता में श्रीहनुमानजी का वाक्य अगस्त्य के प्रति - यस्तु स्वप्ने वदेद्रामं सम्भ्रमस्खलनादिभिः । तस्य पादरजो मे तु मूर्धानमधिरोहतु ॥ ६८१॥ जो स्वप्न में भी बड़बड़ाते समय अथवा गिरते समय श्रीरामनाम का स्मरण करते हैं उच्चारण करते हैं उनके चरणों की धूलि मेरे शिर पर सुशोभित हो । उनके चरण धूलि से हमारी आत्मा प्रसन्न होती है । रामनामात्मकं शब्दं श्रवणान्मुनिशिरोमणे । रामनामसमं पुण्यं फलं प्राप्नोति मानवः ॥ ६८२॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! श्रीरामनाम के श्रवण से मनुष्य को श्रीरामनाम के जप के समान ही पुण्यफल प्राप्त होता है अर्थात् श्रीरामनाम का जप और श्रवण दोनों तुल्यफल है । रामनामगुणालापी सज्जनो रामवल्लभः । सत्यं वच्मि महाभाग रामनाम परात्परम् ॥ ६८३॥ हे महाभाग ! श्रीरामनाम का जप कीर्तन करने वाले सज्जन पुरुष श्रीरामजी के अत्यन्त प्रिय हैं श्रीरामनाम परात्पर तत्व है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्य्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते संहितावाक्यप्रमाणो नाम तृतीयः प्रमोदः ॥ ३॥

अथ चतुर्थः प्रमोदः

चतुर्थ प्रमोद में - नाटकोक्तवचन - श्रीहनुमन्नाटके श्रीहनुमद्वाक्यमगस्त्यं प्रति - श्रीहनुमन्नाटक में श्रीहनुमानजी का वाक्य अगस्त्यजी के प्रति - इदं शरीरं शतसन्धिजर्जरं पतत्यवश्यं परिणामदुर्वहम् । किमौषधं पृच्छसि मूढ दुर्मत्ते निरामयं रामरसायनं पिव ॥ ६८४॥ हे मूढ़ दुर्मते ! यह मानव शरीर सैकड़ों सन्धियों के कारण जर्जर है यह निश्चित ही नष्ट होगा और अन्त में दुःख रूप है, इसको स्वस्थ करने के लिए औषधियों के बारे में क्या पूछ रहे हो? यदि स्वस्थ रहना चाहते हो तो निरामयस्वरूप परम रसायन श्रीरामनाम का पान करो । आसीनो वा शयानो वा तिष्ठतो यत्र कुत्र वा । श्रीरामनाम संस्मृत्य याति तत्परमं पदम् ॥ ६८५॥ बैठे सोते हुए, अथवा जहाँ-तहाँ ठहरते हुए मनुष्य श्रीरामनाम का सम्यक् स्मरण करते हुए भगवान् का जो लोग सदासर्वदा स्नेह से जप करते हैं । वे परम पद को प्राप्त करते हैं । ये जपन्ति सदा स्नेहान्नाम माङ्गल्यकारणम् । श्रीमतो रामचन्द्रस्य कृपालोर्मम स्वामिनः ॥ ६८६॥ परम कृपालु हमारे स्वामी श्रीमान् श्रीरामचन्द्रजी के ``कल्याण का परम कारण'' श्रीरामनाम का जो लोग सदासर्वदा स्नेह से जप करते हैं । तेषामर्थे सदा विप्र प्रयातोऽहं प्रयत्नतः । ददामि वाञ्छितं नित्यं सर्वदा सौख्यमुत्तमम् ॥ ६८७॥ हे विप्र ! उन भक्तों के लिए मैं सदासर्वदा प्रयत्न करके प्रिय से भी प्रिय अभीष्ट पदार्थों एवं उत्तम सुख को नित्य प्रदान करता हूँ । रामनामैव नामैव सदा मज्जीवनं मुने । सत्यं वदामि सर्वस्वमिदमेकं सदा मम ॥ ६८८॥ हे मुने ! श्रीरामनाम ही सदासर्वदा मेरा जीवन है मैं सत्य कहता हूँ कि श्रीरामनाम ही मेरा सर्वस्व है । श्रीजानकीपरिणयनाटके - श्रीजानकीपरिणय नाटक में - महामणीन्द्रादपि काशतेऽधिकं सदेव जिह्वाग्रप्रदीपयत्यलम् । आभ्यन्तरध्वान्तसबाह्यमुल्वणं निवारणे शक्तमहर्निशं भजे ॥ ६८९॥ शङ्करजी कहते हैं कि श्रीरामनाम महामणियों से भी अधिक प्रकाशमान है, जिह्वा के अग्र भाग पर प्रदीप की तरह अतिशय रूप से प्रकाशित होता रहता है भीतर और बाहर के भयङ्कर अन्धकार के नाश करने में परम समर्थ है ऐसे श्रीरामनाम का मैं रात दिन भजन करता हूँ । सीतासमेतं रघुवीरनाम जपन्ति ये नित्यमघौघहारि । ते पुण्यवन्तः खलु भाग्यवन्तः परं पदं यान्ति स्ववर्गयुक्ताः ॥ ६९०॥ जो लोग श्रीसीतानाम के साथ श्रीरामनाम अर्थात् श्रीसीताराम नाम, जो पाप समूह का हरण करने वाले है, उस सीताराम नाम का नित्य जप करते हैं वे लोग निश्चित ही पुण्यवान् एवं परम भाग्यशाली हैं वे लोग अपने परिकर के साथ भगवान् के परम पद को प्राप्त होते है । रोमाञ्चितशरीराश्च त्यक्तसर्वदुराग्रहा । रटन्ति रामनामाख्यं मन्त्रं ते पावनेश्वराः ॥ ६९१॥ श्रीरामनामरूपी मन्त्र के जप, कीर्तन के समय जिनके शरीर में रोमाञ्च हो जाता है जो समस्त दुराग्रहों का त्याग कर देते हैं वे लोग निश्चित ही सभी पवित्र करने वालों के स्वामी हैं । येऽभिनन्दन्ति नामानि रामभद्रस्य नित्यशः । मनसा वचसा नित्यं ते वै भागवतोत्तमाः ॥ ६९२॥ जो लोग रात दिन श्रीरामनाम का अभिनन्दन करते हैं तथा मन और वाणी से नित्य जप करते हैं । वे ही वास्तव में श्रेष्ठ भागवत हैं । दृढाभ्यासेन ये नित्यं रामनाम्नि रमन्ति च । तेषामभयदाता च श्रीरामो जानकीपतिः ॥ ६९३॥ दृढ़ अभ्यासपूर्वक जो नित्य श्रीरामनाम में रमण करते हैं उन भक्तों को श्रीसीतापति रामजी सदा अभय प्रदान करते हैं । विचित्रनाटके - विचित्रनाटक में - प्रभावतो यस्य हि कुम्भजन्मना प्रशोषितः सिन्धुरपारपारणः । तथैव विन्ध्याचलरोधिताद्भुता मुनीन्द्रराजेन प्रभाकरेण ॥ ६९४॥ श्रीरामनाम के प्रभाव से सूर्यसम तेजस्वी मुनीन्द्र श्रीअगस्तजी ने अपार समुद्र को पीकर सोख लिया एवं महाभिमानी विन्ध्याचल का निरोध किया । न नामतः साधनमन्यदस्ति वै न साध्यसौभाग्यमतः परं क्वचित् । परात्परं प्रेमप्रकाशकं वरं सुधासारं सारमनन्तवैभवम् ॥ ६९५॥ परात्पर, प्रेम का प्रकाशक, श्रेष्ठ, अमृत की मूसलाधार वृष्टि स्वरूप, समस्त शास्त्रों का सार अनन्त विभूतिवान् श्रीरामनाम से बढ़कर दूसरा कोई न साधन है और न कहीं कोई दूसरा सौभाग्यशाली साध्य है । यदीक्षणाच्छम्भुसुतो गणाधिपः सुरासुरैः प्राथमिकः प्रपूज्यः । प्रदक्षिणा यस्य कृते समस्ता क्षमावती स्यात् परितः प्रदक्षिणा ॥ ६९६॥ जिनकी कृपा कटाक्ष से भगवान् शङ्कर के सुपुत्र श्रीगणेशजी सुर असुर सभी से प्रथम पूज्य हो गये जिसके लिए गणेशजी ने सम्पूर्ण पृथिवी की चारों तरफ से परिक्रमा की थी । साराणां सारमित्याहुर्मुनयः सत्यवादिनः । श्रीरामनाम सर्वेशं नित्यानां नित्यमव्ययम् ॥ ६९७॥ सत्यवादी मुनियों ने कहा है कि समस्त सारों का भी सार, सबका स्वामी, नित्यों में भी नित्यता सम्पादन करने वाला एवं अविनाशी श्रीरामनाम है । सर्वेषां सुलभं नाम सदा सर्वत्र सौख्यदम् । ये जपन्ति सदा भक्त्या तेभ्यो नित्यं नमो नमः ॥ ६९८॥ वैसे तो सभी को सुख देने वाला भगवान् का नाम सभी के लिए सदासर्वदा सब जगह सुलभ है तथापि जो लोग सदासर्वदा भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम का जप करते हैं उन भक्तों को बारम्बार नमस्कार है । प्रमोदनाटके - प्रमोदनाटक में - वन्दे श्रीरामचन्द्रस्य नाम मुक्तिप्रदं परम् । यत्कृपालेशतोऽस्माकं सुलभं सर्वतः सुखम् ॥ ६९९॥ जिनकी लेशमात्र कृपा से हम लोगों के लिए सर्वत्र सुख सुलभ हो रहा है भगवान् श्रीराम के उस सर्वश्रेष्ठ एवं मुक्तिप्रद श्रीरामनाम की मैं वन्दना करता हूँ । अनामयं रूपयुगप्रकाशकं सदैव भक्तर्तिहरं कृपानिधिम् । स्मरामि श्रीराघवनाम निर्मलं प्रपूजितं देवमुनीश्वरेश्वरैः ॥ ७००॥ श्रीरामनाम अनामय-निरोग, श्रीसीताराम युगल सरकार के स्वरूप का प्रकाशक, सदासर्वदा भक्तों के दुख को हरने वाला, कृपा समुद्र, देवताओं और बड़े-बड़े मुनीश्वरों से प्रकर्ष रूप से पूजित है । ऐसे श्रीरामजी के निर्मल नाम का मैं स्मरण करता हूँ । नाम्नः पराशक्तिपतेः प्रभावं प्रजानते मर्कटराजराजः । यद्रूपरागीश्वरवायुसूनुस्तद्रोमकूपे ध्वनिमुल्लसन्तम् ॥ ७०१॥ पराशक्ति के स्वामी श्रीरामनाम के प्रभाव को वानरराज श्रीहनुमानजी महाराज जानते हैं जो भगवान् श्रीसीतारामजी के स्वरूप के अनुरागी हैं एवं जिनके रोम-रोम से श्रीरामनाम की ध्वनि होती रहती है । कषायविक्षेपलयादिहारकं सुतारकं संसृतिसागरस्या । सदैव दीनार्तिहरं दयानिधिं स्मरामि भक्त्या परमेश्वरप्रियम् ॥ ७०२॥ समाधि के विघ्न स्वरूप वासना विक्षेप तन्द्रादि का हरण करने वाले, संसारसागर से पार करने वाले, सत्स्वरूप, दीन दुखियों के आर्ति को हरण करने वाले, दयासागर भगवान शिव के प्राण प्रिय श्रीरामनाम का मैं भक्तिपूर्वक स्मरण करता हूँ । गुणानां कारणं नाम तथैश्वर्यवतां सदा । सङ्कीर्तनाल्लभेन्मर्त्यः पदमव्ययमुज्ज्वलम् ॥ ७०३॥ श्रीरामनाम सदासर्वदा दिव्य गुणों एवं ऐश्वर्यवानों का परम कारण है मनुष्य श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करके उज्ज्वल एवं अविनाशी पद को प्राप्त कर लेता है । रहस्यनाटकें - रहस्यनाटक में - मधुरमधुरमेतं मङ्गलं मङ्गलानां सकलनिगमवल्लीसत्फलं चित्स्वरूपम् । सकृदपि परिगीतं श्रद्धया हेलया वा स भवति भवपारं रामनामानुभावात् ॥ ७०४॥ मधुरातिमधुर, मङ्गलों का भी परम मङ्गलकर्ता, सम्पूर्ण वेदरूपी वृक्ष का दिव्य स्वरूप फल चित्स्वरूप श्रीरामनाम है जो मनुष्य श्रद्धा से अथवा अवहेलना से ही एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करता है वह श्रीरामनाम के प्रभाव से भव से पार हो जाता है । चेतोऽलेः कमलद्वयं श्रुतिपुटीपीयूषपुरद्वयं वागीशानयनद्वयङ्घनतमश्चण्डांशुचन्द्रद्वयम् । छान्दस्सिन्धुमणिद्वयं मुनिमनःकासारहंसद्वयं मोक्षश्रीश्रवणोत्पलद्वयमिदं रामेति वर्णद्वयम् ॥ ७०५॥ चित्तरूपी भ्रमर के लिए दो कमलस्वरूप, दोनों कानों के दोना को पूर्ण करने के लिए अमृत की धारास्वरूप, श्रीसरस्वतीजी के लिए युगल नेत्र स्वरूप, महामोहरूपी अन्धकार का नाश करने के लिए श्रीसूर्य एवं चन्द्रस्वरूप, वेदरूपी समुद्र के अनुपम दो मणि स्वरूप, मुनियों के मनरूपी मानसरोवर के युगल हंस और मोक्षरूपी लक्ष्मी के युगल कर्णफूल स्वरूप श्रीरामनाम के दो अक्षर ``रा'' ``म'' हैं । रामनाम परब्रह्म दुराराध्यं दुरात्मनाम् । साध्यं च सुलभं नित्यं प्रेमसम्पन्नमानसैः ॥ ७०६॥ दुष्ट दुरात्माओं के लिए दुराराध्य एवं प्रेमी मन वाले साधकों के लिए सुलभ साध्य नित्य तथा परमब्रह्म श्रीरामनाम हैं । श्रुतिस्मृतिपुराणानि रामनाम्नि च संस्थितम् । यथैव लोके सुस्पष्टं सूत्रे मणिगणा इव ॥ ७०७॥ जैसे लोक में देखा जाता है कि मणियों का समूह सूत्र में गूथे होते हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण वेद पुराण श्रीरामनाम में स्थित हैं श्रीरामनाम की साधना करने से समस्त शास्त्रों का अर्थ प्रकाश में आता है । स्मरणाद्रामनाम्नस्तु यत् सुखं न लभेन्नरः । तत्सुखं खे गतं पुष्पं बन्ध्यापुत्रमिवाद्भुतम् ॥ ७०८॥ श्रीरामनाम के स्मरण से जो सुख मनुष्य को नहीं मिल पाता है वह सुख गगन पुष्प एवं बन्ध्या पुत्र की तरह मिथ्या है अर्थात् श्रीरामनाम के स्मरण से सभी लौकिक एवं अलौकिक सुख सहज में प्राप्त हो जाते हैं इसमें आश्चर्य नहीं है । प्रेमार्णवनाटके - प्रेमार्णवनाटक में - चित्राच्चित्रतरं लोके दृष्टं न कथितं मया । सार्वभौमस्य रामस्य नाम्नैव सुजपत्यलम् ॥ ७०९॥ चक्रवर्ती संराट् भगवान् श्रीराम के नाम के प्रभाव से ही इस लोक में मैंने अनेक आश्चर्य देखा किन्तु कहा नहीं, इसीलिए श्रीरामनाम को ही अतिशयेन सुष्ठु जप करते हैं क्षणं विहाय श्रीरामनाम यः पामराधमः । कुरुते चान्यवस्तूनां चिन्तनं स तु गर्दभः ॥ ७१०॥ जो मनुष्य क्षणभर के लिए श्रीरामनाम को छोड़कर अन्य वस्तुओं का चिन्तन करते हैं वे अत्यन्त पामर गधे हैं । प्रेमवैचित्र्यता प्रोक्ता दुर्लभा साधनान्तरैः । तां लभेद्रामनाम्नस्तु जपाच्छीघ्रं न संशयः ॥ ७११॥ अन्य दूसरे साधनों से प्रेम वैचित्र्य दुर्लभ कहा गया है और श्रीरामनाम के जप से बहुत जल्दी से प्राप्त हो जाती है । इसमें संशय नहीं है । प्रेम वैचित्र्य का मतलब होता है -वियोग में साक्षात् संयोग का अनुभव एवं संयोग में वियोग का अनुभव होना । सर्वाशां सम्परित्यज्य संस्मरेन्नाम मङ्गलम् । यदीच्छा वर्तते स्वच्छा प्राप्तिरूपा परात्पराः ॥ ७१२॥ यदि आपके में भगवत्प्राप्तिरूप पवित्र इच्छा है तो अन्य सभी आशाओं को छोड़कर परम मङ्गलमय श्रीरामनाम का स्मरण करें अवश्य श्रीरामजी की प्राप्ति हो जायेगी । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते नाटकवाक्यप्रमाणनिरूपणं नाम चतुर्थः प्रमोदः ॥ ४॥ चतुर्थप्रमोदः समाप्तः

अथ पञ्चमः प्रमोदः

स्मृत्युक्तवचनानि - पाञ्चवां प्रमोद स्मृतियों में कहे गये वचन - मनुस्मृतौ - मनुस्मृति में - सप्तकोटिमहामन्त्राश्चित्तविभ्रमकारकाः । एक एव परो मन्त्रः श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ७१३॥ सात करोड़ जो बड़े-बड़े मन्त्र कहे गये हैं वे सब साधक के चित्त को भ्रमित करने वाले हैं ``श्रीराम'' यह दो अक्षर ही एकमात्र सर्वश्रेष्ठ मन्त्र है । येषां नित्यं रमेच्चित्तं रामनाम्नि सदोज्ज्वले । तेषां पुण्यौघमुत्कृष्टं जायते हि प्रतिक्षणम् ॥ ७१४॥ जिन साधकों का चित्त सदासर्वदा उज्ज्वल श्रीरामनाम में रमण करता है उन साधकों को प्रतिक्षण में उत्कृष्ट पुण्य समूह प्राप्त होता है । दक्षस्मृतौ - दक्षस्मृति में - धन्या माता पिता धन्यो धन्याद्धन्यतमं कुलम् । यत्र श्रीरामनाम्नस्तु जापको जायते शुचिः ॥ ७१५॥ जहाँ श्रीरामनाम के पवित्र जापक प्रकट होते हैं वे माता, पिता धन्य हैं और धन्याति धन्य वह कुल है । विषं तस्य सुधा प्रोक्तं शत्रुस्तस्य सुहृद्भवेत् । सर्वेषां प्रेमपात्रं सः यस्य नाम्नि सदा रुचिः ॥ ७१६॥ श्रीरामनाम में जिसकी सदासर्वदा रूचि होती है उसके लिए विष अमृत और शत्रु मित्र हो जाते हैं तथा वह सभी का प्रेमपात्र हो जाता है । धर्मराजस्मृतौ - धर्मराजस्मृति में - दृष्ट्वा श्रीरामनाम्नस्तु जापकं ध्यानतत्परम् । अभ्युत्थानं सदा स्नेहात् करिष्येऽहं महामुने ॥ ७१७॥ हे महामुने ! श्रीरामनाम के जापक को ध्यान करते हुए देखकर मैं सदासर्वदा सप्रेम उठकर उसका आदर करूँगा । स वै धन्यतरो देशः साक्षाच्छ्रीधामसन्निभः । यत्र तिष्ठन्ति श्रीरामनामसंलाफ्नैष्ठिका ॥ ७१८॥ निश्चित ही वह देश अत्यन्त धन्य एवं साक्षाद् साकेतधाम तुल्य है जहाँ एकमात्र श्रीरामनाम के कीर्तन में निष्ठा रखने वाले भक्त निवास करते हैं । कात्यायनस्मृतौ - कात्यायनस्मृति में - मिथ्यावादे दिवा स्वापे बहुशोऽम्बुनिषेवणे । रामनामाक्षरं जप्त्वा सद्यः पूतः प्रजायते ॥ ७१९॥ मिथ्या सम्भाषण करने से, दिन में सोने से एवं अत्यधिक जल का दुरुपयोग करने से जो पाप लगता है श्रीरामनाम के जप करने से वह पाप नष्ट हो जाता है और कर्ता पवित्र हो जाता है । कृतैश्च क्रियमाणैश्च भविष्यद्भिश्च पातकैः । रामेति द्वयक्षरं नाम सकृज्जप्त्वा विशुध्यति ॥ ७२०॥ भूत वर्तमान एवं भविष्यत्कालिक पापों से श्रीरामनाम के दो अक्षर ``रा'' ``म'' के एक बार जप करने से मुक्ति हो जाती है । साधक परम विशुद्ध हो जाता है । आयासः स्मरणे कोऽस्य मोक्षं यच्छति शोभनम् । पापक्षयश्च भवति स्मरतां तदहर्निशम् ॥ ७२१॥ श्रीरामनाम के स्मरण करने में कोई श्रम भी नहीं होता और सुन्दर मुक्ति प्राप्त होती है श्रीरामनाम के स्मरण करने वालों का रात दिन पाप क्षय होता है । अभिमानं परित्यज्य चेतसा शुद्धगामिना । श‍ृण्वन्तु रामभद्रस्य नाममाहात्म्यमुज्ज्वलम् ॥ ७२२॥ अभिमान का सर्वथा त्याग करके विशुद्ध चित्त से भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के नाम के उज्ज्वल माहात्म्य को सुनना चाहिए । साङ्खल्यस्मृतौ - साङ्खल्य स्मृति में - श्रवणात्कीर्तनाद्यस्य नरो याति निरापदम् । तच्छ्रीमद्रामनामाख्यं मन्त्रं वै संश्रयाम्यहम् ॥ ७२३॥ जिस श्रीरामनाम के श्रवण एवं कीर्तन से मनुष्य आपत्तिरहित पद को प्राप्त करता है उस श्रीरामनाम महामन्त्र का मैं निश्चित ही आश्रय ग्रहण करता हूँ । पापानां शोधकं नित्यं परानन्दस्य बोधकम् । रोधकं चित्तवृत्तीनां भजध्वं नाम मङ्गलम् ॥ ७२४॥ हे साधकों ! पापों का शोधक, परमानन्द का समुद्भावक एवं चित्तवृत्तियों का निरोधक मङ्गलमय श्रीरामनाम का भजन करो । हारितस्मृतौ - हारित स्मृति में - इमं मन्त्रमगस्त्यस्तु जप्त्वा रुद्रत्वमाप्तवान् । ब्रह्मत्वं काश्यपश्चैव कौशिकोऽप्यमरेशताम् ॥ ७२५॥ इस श्रीरामनामरूपी महामन्त्र का जप करके अगस्त्यजी ने रूद्र पद को, काश्यप मुनि ने ब्रह्म पद को और विश्वामित्र जी ने इन्द्र पद को प्राप्त कर लिया । कार्तिकेयो मनुश्चैव इन्द्रार्कगिरिनारदाः । बालखिल्यादि मुनयो देवतात्वं प्रपेदिरे ॥ ७२६॥ एवं कार्तिकेय, मनु, इन्द्र, सूर्य, पर्वत, नारद एवं बालखिल्यादि ऋषि देवत्व को प्राप्त किये । अद्यापि रुद्रः काश्यां वै सर्वेषां त्यक्तजीविनाम् । दिशत्येतन्महामन्त्रं तारकं ब्रह्मनामकम् ॥ ७२७॥ आज भी भगवान् शङ्कर जी काशी में मरने वाले सभी जीवों के दक्षिण कर्ण में श्रीरामनामरूपी तारक ब्रह्म का उपदेश करते हैं । यस्य श्रवणमात्रेण सर्व एव दिवं गताः । प्रजप्तव्यं सदा प्रेम्णा तन्मन्त्रं रामनामकम् ॥ ७२८॥ जिस श्रीरामनाम के श्रवण मात्र से सभी लोग स्वर्ग को चले गये । उस महामन्त्र श्रीरामनाम का सदासर्वदा प्रेम से जप करना चाहिए । विनैव दीक्षां विप्रेन्द्र पुरश्चर्यां विनैव हि । विनैव न्यासविधिना जपमात्रेण सिद्धिदः ॥ ७२९॥ हे ब्राह्मण श्रेष्ठ ! दीक्षा, पुरश्चरण एवं न्यासविधि आदि केबिना भी केवल जप करने से श्रीरामनाम सिद्धि प्रदान करता है । तस्मात् सर्वात्मना रामनाम रूपं परं प्रियम् । मन्त्रं जपेत् सदा धीमान् संविहायान्यसाधनम् ॥ ७३०॥ इसलिए बुद्धिमान को अन्य साधनों को छोड़कर सदासर्वदा परमप्रिय श्रीरामनाम महामन्त्र का जप करना चाहिए । वैष्णवस्मृतौ - वैष्णवस्मृति में - रामनामरता ये च रामनामपरायणाः । वर्णा वा वर्णबाह्या वा ते कृतार्थाः सदा भुवि ॥ ७३१॥ जो लोग श्रीरामनाम में रत है और जो लोग श्रीरामनाम परायण हैं इस पृथ्वी में वे ही लोग सदासर्वदा कृतार्थ हैं चाहे वे चारों वर्ण के भीतर हो चाहें वर्णबहिर्भूत हों । स्वपन् भुञ्जन् व्रजंस्तिष्ठनुत्तिष्ठंश्च वदंस्तथा । यो वक्ति रामनामाख्यं मन्त्रं तस्मै नमो नमः ॥ ७३२॥ सोते हुए, खाते हुए, चलते ठहरते और बोलते हुए या बातचीत करते हुए जो श्रीरामनाम महामन्त्र का उच्चारण करते हैं उनको नमस्कार है नमस्कार है । अत्रिस्मृतौ - अत्रिस्मृति में - कवले कवले कुर्वन् रामनामनुकीर्तनम् । यः कश्चित् पुरुषोऽश्नाति सोऽन्नदोषैर्न लिप्यते ॥ ७३३॥ जो कोई पुरुष भोजन करते समय प्रत्येक ग्रास को लेते समय श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते हुए भोजन करते हैं उसे अन्न दोष नहीं लगता है । सिक्थे सिक्थे लभेन्मर्त्यो महायज्ञाधिकं फलम् । यः स्मरेद्रामनामाख्यं मन्त्रराजमनुत्तमम् ॥ ७३४॥ जो सर्वोत्तम मन्त्रराज श्रीरामनाम का स्मरण करता है उसको भोजन करते समय दाने-दाने पर महायज्ञों से भी अधिक पुण्य प्राप्त होता है । साम्वर्तकस्मृतौ - साम्बर्तकस्मृति में - असङ्ख्यजन्मसुकृतैर्युक्तो यदि भवेज्जनः । तदा श्रीरामसन्मन्त्रे रतिस्सञ्जायते नृणाम् ॥ ७३५॥ असङ्ख्यजन्मों के पुण्य से युक्त जब मनुष्य होता है तब उसके हृदय में श्रीराममन्त्र के प्रति प्रेम प्रकट होता है । तन्नामस्मरतां लोके कर्मलोपो भवेद्यदि । तस्य तत्कर्म कुर्वन्ति त्रिंशत्कोट्यो महर्षयः ॥ ७३६॥ भगवान् श्रीराम के नाम स्मरण करने में यदि किसी साधक के नित्य नैमित्तिक कर्म का लोप हो जाता है तो उसके कर्म को तीस करोड़ महर्षि लोग पूरा करते हैं । आङ्गिरसस्मृतौ - आङ्गिरसस्मृति में - कान्तारवनदुर्गेषु सर्वापत्सु च सम्भ्रमे । दस्युभिस्सन्निरूद्धे च यस्तु श्रीनाम कीर्तयेत् ॥ ७३७॥ ततः सद्यो विमुच्येद्वै रामनामप्रभावतः । एतादृशं सदा स्वच्छं स्वतन्त्रं रामनाम च ॥ ७३८॥ बीहड़ वन कीला, सभी प्रकार की विपत्ति, भ्रम की स्थिति और लूटेरों के द्वारा रोके जाने पर जो श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता है वह श्रीरामनाम के प्रभाव से तत्काल सङ्कट मुक्त हो जाता है ऐसा सदासर्वदा पवित्र एवं स्वतन्त्र श्रीरामनाम है । शनैश्चरस्मृतौ - शनैश्चरस्मृति में - मत्कृता या भवेद्बाधा महादुःखौघदायिनी । रामनाम्नो जपोत्साही मुच्यते स्वल्पकालतः ॥ ७३९॥ शनि देवता कहते हैं कि महादुःख को देने वाली मेरे द्वारा की गयी जो बाधा है वह स्वल्पकाल में उत्साह से श्रीरामनाम का जप करने से नष्ट हो जाती है । सर्वोपद्रवनाशार्थं रामनाम जपेद् बुध् । सत्यं सत्यं न सन्देहो मन्तव्यं सततं जनैः ॥ ७४०॥ सभी प्रकार के उपद्रव के नाश के लिए बुद्धिमान् को श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । इस बात को सज्जनों को बिना सन्देह के निरन्तर सत्य -सत्य मानना चाहिए । याज्ञवल्क्यस्मृतौ - याज्ञवल्क्यस्मृति में - परमात्मानमव्यक्तं प्रधानपुरुषेश्वरम् । अनायासेन प्राप्नोति कृते तन्नामकीर्तनम् ॥ ७४१॥ श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करने पर मनुष्य बिना परिश्रम के ही अव्यक्त प्रधान पुरुष, ईश्वर परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । ज्ञानविज्ञानसम्पन्नं वैराग्यं विषयेष्वनु । अमलां प्रीतिमुन्निद्रां लभते नामकीर्तनात् ॥ ७४२॥ श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने पर साधक विषयों के प्रति ज्ञान विज्ञान से युक्त वैराग्य एवं निर्मल प्रीति एवं उन मुनीमुद्रा को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है । वशिष्ठस्मृतौ - वशिष्ठस्मृति में - रामनामजपेनैव तदर्चा चोत्तमा स्मृता । अन्येषां लौकिकी पूजा प्रतिष्ठावर्द्धिनी भुवि ॥ ७४३॥ श्रीरामनाम के जप से ही भगवान् की श्रुतिसम्मत उत्तमा पूजा कही गयी है । दूसरे लोगों की श्रीरामनाम से रहित पूजा पृथिवी पर लोक में प्रतिष्ठा बढ़ाने वाली मेला मात्र है । श्रीराम राम रामेति ये वदन्त्यपि पापिनः । पापकोटिसहस्रेभ्यस्तेषामुद्धरणं क्षणात् ॥ ७४४॥ जो पापी भी राम राम राम ऐसा उच्चारण करते हैं क्षण भर में करोड़ों पापों से उनका उद्धार हो जाता है । गौतमस्मृतौ - गौतमस्मृति में - तावद्विजृम्भते पापं ब्रह्महत्या पुरस्सरम् । यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु नास्ति सम्भाषणं नृणाम् ॥ ७४५॥ ब्रह्महत्यादि सारे पाप तभी तक शरीर में गरजते हैं, मनुष्य जब तक श्रीरामनाम का उच्चारण नहीं करता है । श्रीरामनाम का उच्चारण करते ही उसी क्षण सारे पाप नष्ट हो जाते हैं । रामनाम्नः परं तत्त्वं समं वा यस्त्वघी वदेत् । संसर्गं तस्य यः कुर्याद्रामद्वेषी भवेत्तु सः ॥ ७४६॥ यदि कोई बुद्धिहीन श्रीरामनाम से श्रेष्ठ अथवा तुल्य किसी तत्व को कहता है उस पापी के संसर्ग में रहने वाले भी निश्चित ही श्रीरामजी के द्वेषी हैं । माण्डव्यस्मृतौ - माण्डव्यस्मृति में - सुरापो ब्रह्महा स्तेयी चौरो भग्नव्रतोऽशुचिः । स्वाध्यायोपार्जितः पापी लुब्धो नैष्कृतिकः शठः ॥ ७४७॥ अव्रती वृषलीभर्ता कुनखी सोमविक्रयी । सोऽपि मुक्तिमवाप्नोति रामनामानुकीर्तनात् ॥ ७४८॥ शराबी, ब्राह्मण हत्यारा, चोर, नियम खण्डित हो गया है जिसका, अपवित्र, जो वेदादि के स्वाध्याय से वर्जित है, पापी, लोभी, कृतघ्नी, मूर्ख, अपने वर्ण एवं आश्रम के अनुरूप व्रत का पालन न करने वाला, शुद्रा स्त्री का पति, कुत्सित नखों वाला और सोमलता को बेचने वाला भी श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करने से शीघ्र पापों से मुक्त हो जाता है । बृहस्पतिस्मृतौ - बृहस्पतिस्मृति में - यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु स्मरणं नास्ति भो मुने । तावद् यमभटा सर्वे विचरन्तीह निर्भयाः ॥ ७४९॥ हे मुने ! जब तक श्रीरामनाम का स्मरण नहीं होता है तभी तक यहां यमराज के दूत निर्भय होकर विचरण करते हैं । रामनाम परं ब्रह्म सर्वदेवैः प्रपूजितम् । सर्वेषां सम्मतं शुद्धं जीवनं महतामपि ॥ ७५०॥ सभी देवों से भी प्रकृष्ट रूप से पूजित परम ब्रह्म स्वरूप श्रीरामनाम सभी प्रकार के जीवों की शुद्धि का परम साधन एवं महापुरुषों का जीवन सर्वस्व है । आतातपस्मृतौ - आतातपस्मृति में - नित्यन्धिक् क्रियतेऽस्माभिस्तेषां भाग्येषु निश्चितम् । नो पीतं रामनामाख्यं पीयूषं मानवाऽऽकृतौ ॥ ७५१॥ हम लोग उन लोगों के भाग्य को निश्चित ही नित्य धिक्कारते हैं जिन लोगों ने मानव शरीर से श्रीरामनाम रूपी अमृत का पान नहीं किया । सूक्ष्ममत्यन्तमात्मानं प्रवदन्ति विपश्चितः । तस्याऽप्यनुभवः साक्षाज्जायते नामकीर्तनात् ॥ ७५२॥ विद्वान लोग आत्मा को अत्यन्त सूक्ष्म कहते हैं उस सूक्ष्म आत्मा का भी अनुभव श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से हो जाता है । ज्ञानानां परमं ज्ञानं ध्यानानां परमो लयः । योगानां परमो योगो रामनामानुकीर्तनम् ॥ ७५३॥ समस्त ज्ञानों में परम ज्ञान, ध्यानों में परमलयस्वरूप एवं योगों में परम योग श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन है । अयमेव परो लाभः सर्वेषां जगतीतले । नामव्याहरणं नित्यं श्रीरामस्य सनातनम् ॥ ७५४॥ इस संसार में सभी के लिए यही सर्वश्रेष्ठ लाभ है कि भगवान् श्रीराम के सनातन श्रीरामनाम का नित्यकीर्तन स्मरण । परं ब्रह्ममयं नाम वेदानां गुह्यमुत्तमम् । यत्प्रसादात् परां शान्तिं लभते पातकी नरः ॥ ७५५॥ परम ब्रह्मस्वरूप वेदों का उत्तम गुह्य पदार्थ श्रीरामनाम है जिनकी कृपा से पापी भी परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है । ब्राह्मणः श्वपचीं भुञ्जन् विशेषेण रजस्वलाम् । यदन्नं सुरया पक्वं मरणे नाम संस्मरेत् ॥ ७५६॥ स याति परमं स्थानं सर्वपापविवर्जितः । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं रामनामप्रभावतः ॥ ७५७॥ तद्देहलक्षणं वृक्षं पापरूपास्तु पक्षिणः । त्यक्त्वा चोड्डीय गच्छन्ति विलम्बं संविहाय च ॥ ७५८॥ जो ब्राह्मण किसी रजस्वला चाण्डाली स्त्री को भोग करते हुए उसके द्वारा शराब में पकाये हुए अन्न को खाता है वह भी यदि मरते समय श्रीरामनाम का स्मरण कर लेता है तो श्रीरामनाम के प्रभाव से वह सभी पापों से मुक्त हो कर उत्कृष्ट स्थान को प्राप्त करता है यह सत्य-सत्य एवं सत्य है । उसके शरीररूपी वृक्ष को पापरूपी पक्षीगण अविलम्ब त्याग करके उड़ जाते हैं । क्रतुस्मृतौ - क्रतुस्मृति में - तन्नास्ति कायजं लोके वाक्यजं मानसं तथा । यत्तु न क्षीयते पापं रामनामजपान्मुने ॥ ७५९॥ हे मुने ! शारीरिक, मानसिक तथा वाचिक ऐसा कोई पाप नहीं है जो श्रीरामनाम के जप से नष्ट न हो जाय । न तावत् पापमस्तीह यावन्नाम्ना हतस्मृतम् । अतिरेकभयादाहुः प्रायश्चित्तान्तरं बुधाः ॥ ७६०॥ इस जगत् में उतने पाप नहीं है जितने पापों के नाश की बात श्रीरामनाम से कही गयी है विद्वानों ने अधिकता के भय से दूसरे प्रायश्चितों की बात कही है । महाभारते शान्तिपर्वणि भगवद्वाक्यं - महाभारत में शान्ति पर्व में भगवान् का वाक्य - ऋग्वेदेऽथ यजुर्वेदे तथैवाथर्वसामसु । पुराणे सोपनिषदि तथैवं ज्योतिषेऽर्जुन ॥ ७६१॥ साङ्ख्ये च योगशास्त्रे च आयुर्वेदे तथैव च । बहूनि मम नामानि कीर्तितानि महर्षिभिः ॥ ७६२॥ गौणानि तत्र नामानि कर्मजानि च कानि च । सर्वेषु मन्त्रतत्त्वेषु रामनामपरात्परम् ॥ ७६३॥ भगवान श्री कृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन ! ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद एवं सामवेद, पुराणों, उपनिषदों ज्योतिषशास्त्र, साङ्ख्य, योग और आयुर्वेदादि ग्रन्थों में महात्माओं ने हमारे अनेक नामों को कहा है उनमें कुछ नाम गौण एवं कुछ कर्म के अनुसार है सभी मन्त्र तत्वों में परात्परस्वरूप श्रीरामनाम श्रेष्ठ है । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते समस्तरहस्यसारे स्मृतिवाक्यप्रमाणनिरूपणं नाम पञ्चमः प्रमोदः ॥ ५॥ पञ्चमः प्रमोदः समाप्तः ।

अथ षष्ठः प्रमोदः

रहस्योक्त वचनानि - छठे प्रमोद में रहस्योक्त वचन - शिवरहस्ये - शिवरहस्य में - शोचन्ते ते तपोहीनाः स्वभाग्यानि दिने दिने । प्रमादेनापि यैर्नोक्तं श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ७६४॥ वे तपस्या से रहित लोग प्रतिदिन अपने भाग्यों के लिए शोक करते हैं जिन्होन्ने प्रमादवश भी श्रीरामनाम के दो अक्षरों का उच्चारण नहीं किया । (रामनाम अनुराग धन चिन्तामणि चयसार । युगलानन्य स्नेह से जपिये बारहिंवार ॥ सीताराम प्रपन्न विनु भये न मोद अनन्त । युगलानन्य सनेह सजि पाइय प्रभा समन्त ॥ ) रामनाम सुविज्ञेयः षण्मात्रास्तत्त्वबोधकाः । जानन्ति तत्त्वनिष्णाता रामनामप्रसादतः ॥ ७६५॥ श्रीरामनाम में तत्व का बोध कराने वाली छः मात्राएँ हैं तत्व में निष्णात पण्डित लोग श्रीरामनाम की कृपा से उन मात्राओं को जानते हैं । रामनाम्नि स्थितो रेफो जानकी तेन कथ्यते । रकारेण तु विज्ञेयः श्रीरामः पुरुषोत्तमः ॥ ७६६॥ अकारेण तु विज्ञेयो भरतो विश्वपालकः । व्यञ्जनेन मकारेण लक्ष्मणोऽत्र निगद्यते ॥ ७६७॥ हस्वाकारेण निगमैःशत्रुघ्नः समुदाहृतः । मकारार्थो द्विधा ज्ञेयः सानुनासिकभेदतः ॥ ७६८॥ प्रोच्यन्ते तेन हंसा वै जीवाश्चैतन्यविग्रहाः । संसारसागरोत्तीर्णाः पुनरावृत्तिवर्जितः ॥ ७६९॥ वेदों ने श्रीरामनाम के ``र'' का अर्थ श्रीजानकीजी, ``अ'' का अर्थ श्रीरामजी, ``आ'' का अर्थ विश्वपालक श्रीभरतजी, ``म'' का अर्थ श्रीलक्ष्मणजी और ह्रस्व ``अ'' का अर्थ श्रीशत्रुघ्नजी किया है, मकार का अर्थ अनुनासिक एवं निरनुनासिक के भेद से दो प्रकार से किया गया है । उसके द्वारा हंस स्वरूप चैतन्य से अभिन्न संसार सागर से उत्तीर्ण एवं आवागमन से रहित जीव कहे जाते हैं । सैवाधिकारिणः सर्वे श्रीरामस्य परात्मनः । एतत्तात्पर्यमुख्यार्थादन्यार्थो योऽनुभूयते ॥ ७७०॥ सोऽनर्थ इति विज्ञेय संसारप्राप्तिहेतुकः । तस्मात्तात्पर्यमर्थं च मन्तव्यं नामतन्मयैः ॥ ७७१॥ सभी जीव परमात्मा श्रीराम की प्राप्ति के अधिकारी हैं श्रीरामनाम का यही मुख्य अर्थ है इसके अतिरिक्त यदि कोई दूसरे अर्थ का अनुभव करता है तो अर्थ नहीं है अपितु वह संसार की प्राप्ति कराने वाला अनर्थ है अतः श्रीरामनामानुरागियों को वास्तविक तात्पर्यार्थ का मनन करना चाहिए । नारायणरहस्ये श्रीनारायणवाक्यं नारदं प्रति - नारायणरहस्य में श्रीनारायणजी का वाक्य नारदजी के प्रति - यथौषधं श्रेष्ठतमं महामुने अजानतोऽप्यात्मगुणं प्रकुर्वते । तथैव श्रीराघवनामतो जनाः परं पदं यान्त्यनायासतः खलु ॥ ७७२॥ हे महामुने ! जैसे अत्यन्त श्रेष्ठ औषधि अनजान में भक्षण करने पर भी अपने गुण को प्रकट करता ही है उसी प्रकार लोग भगवान् श्रीसीतारामजी के मङ्गलमय श्रीरामनाम से बिना प्रयास के ही निश्चित ही परम पद को प्राप्त कर लेते हैं । यथा दीपेन धाम्नस्तु तमस्तोमविनाशनम् । तथा श्रीरामनाम्ना तु अविद्यासन्निवर्तते ॥ ७७३॥ जैसे घर के अन्धकार समूह दीपक के द्वारा नष्ट हो जाता है उसी प्रकार श्रीरामनाम से अविद्या की निवृत्ति हो जाती है । यन्नामकीर्तनाद्दोषास्सर्वे नश्यन्ति तत्क्षणात् । विनिर्दोषायते तस्मै श्रीरामाय नमो नमः ॥ ७७४॥ जिसके मङ्गलमय श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करने से सभी दोष उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं ऐसे दोषों से सर्वथा परे भगवान् राम को नमस्कार हो नमस्कार हो । त्यजेत् कलेवरं रोगी मुच्यते सर्वकर्मभिः । भक्त्याऽऽवेश्य मनो यस्मिन् वाचा श्रीनाम कीर्तने ॥ ७७५॥ यस्तारयति भूतानि त्रिलोकीसम्भवानि च । स्वनामकीर्तनेनैव तस्मै नामात्मने नमः ॥ ७७६॥ जो रोगी भक्तिपूर्वक श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन में अपने मन को लगा दिया वह सभी कर्मों से रहित होकर अपने शरीर को छोड़ता है । जो अपने नाम श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही त्रिलोकी में उत्पन्न समस्त प्राणियों को तार देता है ऐसे श्रीरामनाम महाराज को नमस्कार हो । श्रीरामेत्युक्तमात्रेण दैहिकः क्लेशबन्धनः । पापौघो विलयं याति दानमश्रोत्रिये यथा ॥ ७७७॥ श्रीरामनाम के उच्चारण मात्र से देह के बन्धन भूत क्लेश कारक पाप प्रवाहों का उसी प्रकार विलय हो जाता है जैसे अवैदिक ब्राह्मण को दिया गया दान नष्ट हो जाता है । ब्रह्मरहम्ये - ब्रह्मरहस्य में - नियतं रामनाम्नस्तु कीर्तनाच्छ्रवणाच्छिवे । महतोऽप्येनसः सत्यमुद्धरेद्राघवो बली ॥ ७७८॥ हे पार्वति ! श्रीरामनाम का नियत रूप से कीर्तन एवं श्रवण करने से महाबली भगवान् श्रीरामजी बड़े से बड़े पाप से उद्धार कर देते हैं । यह सत्य हैं । सत्यम्ब्रवीमि देवेशि श्रुत्वेदमवधारय । नामसङ्कीर्तनादन्यो मोचकोऽत्र न विद्यते ॥ ७७९॥ हे देवेश्वरि पार्वति ! मैं सत्य कहता हूँ इसे सुनकर तुम धारण करो जीव के लिए श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन के अलावा दूसरा कोई भवबन्धन से मुक्त करने वाला साधन नहीं है । सकृदुच्चारयेद्यस्तु रामनामेतिमङ्गलम् । हेलया श्रद्धया वापि स पूतः सर्वपातकैः ॥ ७८०॥ उपेक्षापूर्वक या श्रद्धा से जो परम मङ्गलमय श्रीरामनाम का एक बार उच्चारण करता है वह सभी पापों से मुक्त होकर परम पवित्र हो जाता है । सर्वाचारविहीनोऽपि तापक्लेशादिसंयुतः । श्रीरामनाम सङ्कीर्त्य याति ब्रह्म सनातनम् ॥ ७८१॥ विविध तापक्लेशादि से युक्त होकर सदाचार से रहित होकर भी एक बार श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करके सनातन ब्रह्म स्वरूप परमपद को प्राप्त कर लेता है । विष्णुरहस्ये - विष्णुरहस्य में - यस्य नाम सततं जपन्ति येऽज्ञानकर्मकृतबन्धनं क्षणात् । सद्य एव परिमुच्य तत्पदं याति कोटिरविभास्वरं शिवम् ॥ ७८२॥ जिस भगवान् के मङ्गलमय नाम श्रीरामनाम का जो जप करते हैं उनके अज्ञान जन्य कर्मकृत बन्धन तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं और वे करोड़ों सूर्य के समान तेजस्वी मङ्गल स्वरूप परमपद को प्राप्त कर लेते हैं । सर्वकाले शुचिर्नाम महामौक्षैककारणम् । इति मत्वा जपेद्यस्तु स तु सिद्धान्तपारगः ॥ ७८३॥ श्रीरामनाम मोक्ष का एक मात्र कारण और हर समय परम पवित्र है ऐसा मानकर जो श्रीरामनाम का जप करता है वही वास्तव में सिद्धान्त का पारगामी है । श्रीरामदिव्यनामानि सर्वदा परिकीर्तयेत् । यतः सर्वात्मकं नाम पावनानां च पावनम् ॥ ७८४॥ भगवान् राम के दिव्यनामों का सदासर्वदा कीर्तन करना चाहिए क्योङ्कि श्रीरामनाम सर्वात्मक एवं पवित्रता को भी पवित्र करने वाला है । गणेशरहस्ये - श्रीगणेश रहस्य में - सर्वजातिबहिर्भूतो भुञ्जानो वा यतस्ततः । कदाचिन्नारकं दुःखं नाम वक्ता न पश्यति ॥ ७८५॥ जो सभी जातियों से बहिर्भूत है और जहाँ तहाँ खाते-पीते रहते हैं वे भी श्रीरामनाम का उच्चारण करने पर नरक जन्य दुख को नहीं भोगते हैं । स्मरणे रामनाम्नस्तु मानसं यस्य वर्तते । तस्य वैवस्वतो राजा करोति लिपिमार्जनम् ॥ ७८६॥ जिसका मन श्रीरामनाम के स्मरण में लगा रहता है धर्मराज उसके पाप पुण्य की लिपि को धो डालते हैं । एकस्मिन्नप्यतिक्रान्ते मुहूर्ते नामवर्जिते । दस्युभिर्मोषितस्तेन युक्तमाक्रन्दितुं भृशम् ॥ ७८७॥ हमारी आयु का एक मुहूर्त भी श्रीरामनाम के जप के बिना यदि बीत जाय तो हमारे पापरूप चोरों ने मेरे समय को चुरा लिया ऐसा समझकर आर्त स्वर में क्रन्दन करना चाहिए यही उचित होगा । शक्तिरहस्ये - शक्तिरहस्य में - रामेतिब्रुवतोऽनिशं भुवि जनस्येतावता सङ्क्षय- म्पापानामतिशोधकं खलु पुनर्नान्यत् कृतं चिन्तनम् । मार्तण्डोदयकाल एव तमसो नास्ति क्षतिस्स्यात् क्षयं किं कार्यं पुरुषैः प्रदीपकरणेचार्थानभिज्ञैर्वृथा ॥ ७८८॥ निरन्तर श्रीरामनाम का उच्चारण करने वाले मनुष्य के समस्त पापो का सम्यक् नाश हो जाता है फिर किसी अन्य साधनों की आवश्यकता नहीं है क्योङ्कि श्रीरामनाम ही निश्चित रूप से समस्त पापों का विशोधक है जैसे सूर्य के उदय होते ही समस्त अन्धकारों का नाश हो जाता है । अन्धकार के नाश हेतु दीपकादि की फिर आवश्यकता नहीं रहती है । अहो मूर्खमहो मूर्खमहो मूर्खमिदं जगत् । विद्यमानेऽपि मत्स्वामी मूढा नैव रमन्ति च ॥ ७८९॥ यह जगत् बड़ा ही मूर्ख है यही महान् आश्चर्य है कि सर्व समर्थ हमारे स्वामी श्रीरामनाम के विद्यमान एवं सर्वसुलभ होने पर भी मूर्ख लोग उसमें रमण नहीं करते हैं । सिद्धान्तरहस्ये - सिद्धान्तरहस्य में - श्रीराम राम रघुवंशकुलावतंस त्वन्नामकीर्तनपरा भवतीह वाणी । नान्यं वरं रघुपते भ्रमतोऽपि याचे सत्यंवदामि रघुवीर दयानिधेऽहम् ॥ ७९०॥ हे श्रीरघुवंश शिरोमणे हे दयानिधे ! हे रघुवीर रामजी ! हमारी जिह्वा सदासर्वदा आपके नाम के सङ्कीर्तन स्मरण में ही लगी रहे यही वरदान आपसे माँगता हूँ, भ्रमवश भी कोई दूसरा वरदान मैं नहीं माँगता हूँ, मैं यह सत्य कहता हूँ आप तो अन्तर्यामी हैं ही अतः स्वतः समझ लीजिए । तस्मात् मूर्खतरः कोऽपि कोऽन्यस्तस्मादचेतनः । यस्य नाम्नि परा प्रीतिर्नास्ति सर्वेश्वरेश्वरे ॥ ७९१॥ सर्वेश्वरों के स्वामी श्रीरामनाम में जिसकी पराप्रीति नहीं हुई तो उससे बढ़कर अत्यन्त मूढ़ और जड़ कोई दूसरा नहीं है । परमानन्दजलधौ नाम्नि सिद्धान्तमौलिनि । नास्ति यस्य रतिर्नित्या स विप्रः श्वपचाधमः ॥ ७९२॥ जिसकी परमानन्द समुद्र सिद्धान्त सार सर्वस्व श्रीरामनाम में नित्य रति नहीं हुई तो वह विप्र भी अधम चाण्डाल है । अहो चित्रमहो चित्रमहोचित्रमिदं द्विजाः । रामनाम परित्यज्य संसारे रुचिमुल्वणाम् ॥ ७९३॥ हे द्विजश्रेष्ठो ! सबसे बड़ा आश्चर्य एवं वैचित्र्य यही है कि मनुष्यों की श्रीरामनाम को छोड़कर संसार में उत्कृष्ट प्रीति हो रही है । यावन्नेन्द्रियवैक्लव्यं यावद्व्याधिर्न बाधते । तावत् सङ्कीर्तयेद्रामं सहजानन्ददायकम् ॥ ७९४॥ जब तक इन्द्रिया स्वस्थ हैं विकलाङ्ग नहीं हुई है, और जब तक अनेक प्रकार के रोग पीड़ा नहीं दे रहे हैं तब तक स्वाभाविक आनन्द प्रदायक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन अवश्य कर लेना चाहिए । मातृगर्भाद्यदा जीवो निष्क्रान्तश्च तदैव हि । मृत्युवक्त्रागतो वाढं तस्माद्रामं प्रकीर्तयेत् ॥ ७९५॥ जीव जब मां के गर्भ से भूतल पर आया तभी से मृत्यु के मुख में आ गया उत्तरोत्तर आयु क्षीण होगी अतः उत्तम यही है कि श्रीरामनाम का कीर्तन करें । नारदपाञ्चरात्रे - नारदपाञ्चरात्र में - कदाऽहं विजनेऽरण्ये निरन्तरमितस्ततः । प्रलपन् राम रामेति गमिष्यामि च वासरान् ॥ ७९६॥ हे प्रभो ! कब ऐसा सुअवसर प्राप्त होगा जब निर्जन वन में इधर उधर विचरण करते हुए श्रीरामनाम राम का उच्चारण करते हुए अपने दिनों को व्यतित करूँगा । यन्नाम स्मरतां पुंसां सद्यो हरति पातकम् । जायते चाक्षयं पुण्यं तं वन्दे जानकीपतिम् ॥ ७९७॥ जिनके श्रीरामनाम का स्मरण करने वाले पुरुषों का पाप तत्काल नष्ट हो जाता है और अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है उन श्रीजानकीनाथ भगवान् श्रीराम की मैं वन्दना करता हूँ । स्रग्रामनाममणिकस्य च यस्य कण्ठे संराजते प्रतिदिनं स तु मुक्तिरूपः । जन्मादिदुःखपरिपूर्णमहावर्णस्य साक्षात्परं परतरं प्लवनं पवित्रम् ॥ ७९८॥ श्रीरामनामरूपी मणियों की माला जिसके कण्ठ में सम्यक् रूप से प्रतिदिन विराजमान होती है वह जीवन्मुक्त है अर्थात् जीते जी मुक्ति को पा लिया है क्योङ्कि श्रीरामनाम जन्ममरणरूपी महादुख समुद्र को पार करने के लिए सर्वश्रेष्ठ एवं परमपवित्र नौका है, श्रीरामनाम के माध्यम से सहज में भव पार हो सकते हैं । अयं सर्वेषु मन्त्रेषु चूडामणिरुदाहृतः । मन्त्राणां सिद्धिदो मन्त्रः श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ७९९॥ यह श्रीरामनाम सभी मन्त्रों में चूड़ामणि कहा गया है श्रीरामनाम के ``रा'' ``म'' ये दो अक्षर सभी मन्त्रों को सिद्धि प्रदान करने वाला महामन्त्र है । सर्वार्थसिद्धियुक्तेषु नाम्नामेकार्थतापतः । अतः श्रीरामनामेदं भजेद्भावैकवल्लभम् ॥ ८००॥ सभी प्रकार के अर्थ एवं सिद्धि से युक्त भगवान् के समस्त नामों का सम्मिलित एक रूप श्रीरामनाम है अतः एकमात्र भाव प्रिय इस श्रीरामनाम का सदासर्वदा भजन करना चाहिए । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते रहस्यवाक्यप्रमाणनिरूपणं नाम षष्ठः प्रमोदः ॥ ६॥ षष्ठ प्रमोदः समाप्तः

अथ सप्तमः प्रमोदः

यामलोक्तवचनानि - सातवें प्रमोद में यामलोक्त वचन - ब्रह्मयामले - ब्रह्मयामल में - रकारः सर्वदेवानां साक्षात् कालानलः प्रभुः । रकारः सर्वजीवानां सर्वपापस्य दाहकः ॥ ८०१॥ श्रीरामनाम का ``र'' सभी देवताओं में सर्वसमर्थ साक्षात् कालाग्नि है एवं ``र'' सभी जीवों के सभी पापों का नाशक अग्निरूप है । रकारः सर्वभूतानां जीवरूपी परात्परः । रकारः सर्वदेवानां तेजःपुञ्जः सनातनः ॥ ८०२॥ समस्त प्राणियों में परात्पर जीव है एवं सभी देवों का सनातन तेजःपुञ्ज ``र'' है । रकारः सर्वसौख्यानां सिद्धिदस्तु पुरातनः । रकारः सर्वविद्यानां वेद्यस्तत्त्वं सनातनः ॥ ८०३॥ सभी प्रकार के सुखों को देने वाली सिद्धियों को प्रदान करने वाला पुराना दाता है एवं सभी विद्याओं से वेद्य सनातन तत्व ``र'' है । रकारः सर्वभूतानामीश्वरोऽनन्तरूपधृक् । रकारः सर्वभूतानां व्याप्यव्यापकमीश्वरः ॥ ८०४॥ सभी प्राणियों का स्वामी अनन्तस्वरूप धारण वाला ``र'' है एवं समस्त प्राणियों का व्याप्य तथा व्यापक ईश्वर ``र'' है । रकारोत्पद्यते नित्यं रकारे लीयते जगत् । रकारो निर्विकल्पश्च शुद्धबुद्धस्सदाऽद्वयः ॥ ८०५॥ यह जगत् से ही उत्पन्न होता है और ``र'' में ही विलीन हो जाता है ``र'' शुद्ध बुद्ध सदा अद्वैत एवं निर्विकल्प है । रकारः सर्वकामश्च परिपूर्णमनोरथः । रकारः सर्वदुष्टानां नाशको रघुनायकः ॥ ८०६॥ सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाला है एवं सभी दुष्टों का नाश करने वाले भगवान् श्रीराम ही ``र'' है । रकारः सर्वसत्त्वानां महामोदमयः स्वराट् । रकारः सर्ववेदानां कारणः प्रकृतेः परः ॥ ८०७॥ समस्त प्राणियों को महामोद प्रदान करने वाला सर्वतन्त्र स्वतन्त्र ``र'' है एवं समस्त वेदों का मूल एवं प्रकृति से सर्वथा परे । तत्रैव पार्वतीवाक्यं श्रीशिवं प्रति - वहीं श्रीपार्वतीजी का वाक्य शिवजी के प्रति - गुटिका पादुका सिद्धि परकायप्रवेशनम् । वाचा सिद्धिश्चार्थसिद्धिस्तथा सिद्धिर्मनोमयी ॥ ८०८॥ ज्ञानविज्ञानकर्माणि नानासिद्धिकराणि च । लक्ष्मी कुतूहला सिद्धिर्वाञ्छासिद्धिस्तु खेचरी ॥ ८०९॥ केनेदं सर्वमाप्नोति देव मे वद तत्त्वतः । सर्वतो निर्णयं कृत्वा ज्ञात्वा मामनुगामिनी ॥ ८१०॥ हे भोलेनाथ ! गुटिका-उड़ने की शक्ति, पादुका सिद्धि-जल पर चलने की सिद्धि, दूसरे के शरीर में प्रवेश करने की शक्ति, वाणी की सिद्धि अर्थात् जो कहे वह सत्य हो जाय, सृष्टि के समस्त धन सम्पत्ति को देखने की शक्ति, मनोऽनुकूल सिद्धि, अनेक प्रकार के चमत्कार एवं सिद्धिमय ज्ञान विज्ञान की सिद्धि आश्चर्यमय लक्ष्मी की सिद्धि और अपनी चाहना के अनुरूप आकाश में उड़ने की शक्ति हे देवाधिदेव महादेव ! ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ कैसे प्राप्त होङ्गी मुझे अपनी सेविका समझकर सभी तरह से निर्णय करके यथार्थ से मेरे लिए कहिए । श्रीशिव उवाच - श्रीशिवजी ने कहा - सर्वैश्वर्यप्रदं सर्वसिद्धिदं परमार्थदम् । महामाङ्गलिकं नित्यं रामनाम परात्परम् ॥ ८११॥ हे पार्वति ! सभी प्रकार के ऐश्वर्यों का प्रदाता, सभी सिद्धियों का दाता, परमार्थ को देने वाला, और महामङ्गलमय परात्परस्वरूप श्रीरामनाम है अर्थात् श्रीरामनाम के जप एवं कीर्तन से ही सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है । नातः परतरोपायः सुखार्थं वर्तते प्रिये । सत्यं सत्यं पुनः सत्यं नान्यथा वचनं मम ॥ ८१२॥ हे प्राणप्रिये पार्वति ! मनुष्यों के लिए सभी प्रकार सुख प्राप्ति के लिए श्रीरामनाम से बढ़कर दूसरा कोई उपाय नहीं है यही सत्य-सत्य एवं सत्य है मेरी वाणी अन्यथा नहीं है । तत्रैव स्थानान्तरे - वहीं दूसरी जगह में - रामनामपरा वेदा रामनामपरागतिः । रामनाम परायज्ञा रामनामपरा क्रियाः ॥ ८१३॥ सभी वेदों का परम तात्पर्य, सभी सद्गतियों का मूल, सभी यज्ञों का पर्यवसान एवं समस्त अनुष्ठानादि क्रियाओं का परम फल श्रीरामनाम हैं । रामनाम सदानन्दो रामनाम सदागतिः । रामनाम सदातुष्टो रामनाम सदाऽमलः ॥ ८१४॥ श्रीरामनाम सम्यक् आनन्दस्वरूप सम्यक् गतिरूप, सम्यक् सन्तोषस्वरूप और सदासर्वत्र पवित्र है । रामनाम परं ज्ञानं रामनाम परो रसः । रामनाम परो मन्त्रो रामनाम परो जपः ॥ ८१५॥ श्रीरामनाम सर्वोत्कृष्ट ज्ञान, सर्वश्रेष्ठ रस, परम मन्त्र एवं सर्वश्रेष्ठ जपस्वरूप है । रामनाम परं ध्यानं सदा सर्वत्र पूर्णकम् । रामनाम सदा सेव्यमीश्वराणां मम प्रिये ॥ ८१६॥ हे प्रिये पार्वति ! सदासर्वदा सर्वत्र परमपूर्ण श्रीरामनाम ही सर्वश्रेष्ठ ध्यान है सभी ईश्वरों एवं मेरे द्वारा सदासर्वदा सेव्य श्रीरामनाम है । रकारादीनि नामानि श‍ृण्वतो मम पार्वति । मनः प्रसन्नतामेति रामनामाभिशङ्कया ॥ ८१७॥ हे पार्वति ! ``र'' जिस शब्द के पहले आता है जैसे रात्रि, रथ, रावणादि शब्दों को सुनकर मेरा मन इस आशङ्का से प्रसन्न हो जाता है कि यह रामनाम का उच्चारण करेगा । रुद्रयामले श्रीशिववाक्यं शिवां प्रति - रुद्रयामल में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वती के प्रति - मकारः सर्व साध्यानां सर्वसौख्यप्रदस्तथा । मकारः सर्वदेवानां सिद्धिदस्तु सदा प्रिये ॥ ८१८॥ हे प्रिये ! सभी साध्य पदार्थों को सर्वविध सुख प्रदान करने वाला तथा सभी देवों को सदासर्वदा सिद्धि देने वाला श्रीरामनाम का ``म'' है । मकारः सर्वमूलानां मूलं मोदमयः स्वराट् । मकारश्च पराशक्तिरुज्जवला सर्वकामदा ॥ ८१९॥ समस्त मूलों का महामूल आनन्दमय एवं सर्वतन्त्र स्वतन्त्र ``म'' है और सभी कामनाओं को प्रदान करने वाली परम उज्ज्वल पराशक्ति ``म'' है । मकारः सर्वजीवानां पालको जगदीश्वरः । मकारः सर्वसिद्धीनां कारणं नात्र संशयः ॥ ८२०॥ सभी जीवों का पालन करने वाला जगत् का स्वामी एवं सभी सिद्धियों का एकमात्र कारण ``म'' है, इसमें संशय नहीं है । मकारो लोकलोकानां मकारः सर्वव्यापकः । मकारः सर्वशास्त्राणां सिद्धान्तः सर्वमुक्तिदः ॥ ८२१॥ समस्त लोकालोकों में सबका व्यापक, सबको मुक्ति प्रदान करने वाला एवं सभी शास्त्रों का सिद्धान्त ``म'' है । रकारादेर्न सिद्धिःस्यान्मकारादिं विना शिवे । मकारादेर्नसिद्धिः स्याद्रकारादिं विना प्रिये ॥ ८२२॥ तस्माद्विवेकिभिर्नित्यं जप्तव्यमुभयाक्षरम् । सिद्धान्तं सर्ववेदानां रामनाम परात्परम् ॥ ८२३॥ हे प्राणवल्लभे पार्वति ! मकारादि के बिना रकारादि की सिद्धि नहीं हो सकती एवं रकारादि के बिना मकारादि की सिद्धि नहीं हो सकती है इसलिए विवेकी पुरुषों को नित्य सभी वेदों के सिद्धान्तस्वरूप परात्पर श्रीरामनाम के दोनों अक्षरों ``राम'' का जप करना चाहिए । सम्मोहनतन्त्रे श्रीशिववाक्यं शिवां प्रति - सम्मोहन तन्त्र में श्रीशिवजी का वाक्य पार्वती जी के प्रति - यन्मयोदितमुल्लासं मन्त्राणां भूधरात्मजे । तत् सर्वं रामनाम्ना वै सिद्धिमाप्नोति निश्चितम् ॥ ८२४॥ हे पर्वतनन्दिनी पार्वति ! मैन्ने जितने मन्त्र तन्त्रों के उल्लास का वर्णन किया है वे सब श्रीरामनाम से ही शक्ति एवं सिद्धि को निश्चित ही प्राप्त करते हैं । रामनामप्रभावेण पञ्च तत्त्वात्मकस्तनुः । स भवेत् सच्चिदानन्दः सत्यं सत्यं वचो मम ॥ ८२५॥ ह पार्वति ! निरन्तर श्रीरामनाम के जप करने से श्रीरामनाम के प्रभाव से यह पाञ्चभौतिक शरीर भी सच्चिदानन्दस्वरूप हो जाता है मेरी यह वाणी सत्य है सत्य है । चित्तैकाग्रतया नित्यं ये जपन्ति सदाप्रिये । रामनाम परं ब्रह्म किञ्चित्तेषां न दुर्लभम् ॥ ८२६॥ हे प्रिये ! परब्रह्मस्वरूप श्रीरामनाम को जो एकाग्रचित्त से नित्य जपते हैं उनके लिए कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं है । सर्वेषां सुप्रयोगाणां सिद्धिरन्यत्र दुर्लभा । श्रीरामनामस्मरणादनायासेन सिद्धयति ॥ ८२७॥ श्रीरामनाम के बिना सभी मन्त्र तन्त्रों के प्रयोगों की सिद्धि दुर्लभ है और श्रीरामनाम के स्मरण से बिना श्रम के ही सभी प्रयोग सिद्ध हो जाते हैं । तस्माच्छ्रीरामनाम्नस्तु कीर्तनं सर्वसिद्धिदम् । कर्तव्यं नियतं देवि त्यक्त्वाऽन्यान्मन्त्र सञ्चयान् ॥ ८२८॥ हे देवि ! इसीलिए दूसरे मन्त्र सञ्चयों का त्याग करके सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाले श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन को व्यापक रूप से करना चाहिए । प्राणात् प्रियतरं मह्यं रामनाम सदा प्रिये । क्षणं विहातुं शक्तोऽस्मि नैव देवि कदाचन ॥ ८२९॥ हे प्रिये ! मुझे प्राणों से भी ज्यादा प्रिय श्रीरामनाम है हे देवि ! श्रीरामनाम को छोड़कर मैं एक क्षण भी जीने में समर्थ नहीं हूँ । तन्त्रसारे - तन्त्रसार में - इदमेव परं सारं सर्वेषां मन्त्रसंहतेः । वेदानां हृदयं सौम्य रामनामसुधास्पदम् ॥ ८३०॥ हे सौम्य ! सबका एवं मन्त्र समुदाय का परमसार एवं वेदों का हृदय अमृतस्वरूप श्रीरामनाम है । यावच्छ्रीरामनाम्नस्तु पानं नास्ति नृणां शिवे । तावन्मन्त्राणि यन्त्राणि रुचिः स्यादुहृदयस्थले ॥ ८३१॥ हे पार्वति ! मनुष्यों की अन्य मन्त्र तन्त्रों में रूचि तभी तक होती है जब तक उन्होंने श्रीरामनामरूपी अमृत का पान न किया हो अर्थात् श्रीरामनाम के आस्वादन के पश्चात् सभी मन्त्र तन्त्र फीके लगने लगते हैं । दुर्लभं सर्वजीवानामिमं मन्त्रेश्वरेश्वरम् । कथं भजन्ति पापिष्ठाः सुकृतौघं बिना प्रिये ॥ ८३२॥ हे प्रिये ! बिना पुण्य के अत्यन्त पापी लोग इस श्रेष्ठ मन्त्रों के भी स्वामी, सामान्य जीवों के लिए दुर्लभ श्रीरामनाम का भजन कैसे करते हैं? मन्त्रमहोदधौ - मन्त्रमहोदधि में - असारतरसंसारसागरोत्तारकारकम् । हारकं दुःखजालानां श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ८३३॥ अत्यन्त असार संसार सागर का तारक एवं दुःख समूह का नाशक ``रा'' ``म'' ये दो अक्षर है । श्रीरामनामसर्वस्वं मन्त्राणां परमं गुरुम् । यस्य सङ्कीर्तनाज्जन्तुर्याति निर्वाणमुत्तमम् ॥ ८३४॥ सभी मन्त्रों का सर्वस्व एवं परम गुरु श्रीरामनाम है जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने से जीव उत्तम मुक्ति को प्राप्त करता है । मन्त्रप्रकाशे - मन्त्र प्रकाश में - कृतं सद्ग्रन्थशास्त्राणां निर्णयं परमं मया । श्रीरामनामस्मरणं सारमन्यं निरर्थकम् ॥ ८३५॥ मैंने सभी सद्ग्रन्थों एवं शास्त्रों का परम निर्णय यह निश्चित किया है कि श्रीरामनाम का स्मरण ही सार है शेष सब व्यर्थ है । ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदस्सामवेदस्त्वथर्वणः । अधीतास्तेन येनोक्तं श्रीरामेत्यक्षरद्वयम् ॥ ८३६॥ जिसने ``रा'''' ``म'' इन दो अक्षरों का उच्चारण कर लिया उसने सम्पूर्ण ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेदों का अध्ययन कर लिया । श्रीरामनाम सन्त्यक्त्वा ह्यन्यस्मिन् यस्य संरुचिः । स तु बध्यतमो लोके पुनरायाति याति च ॥ ८३७॥ जिस अधम की श्रीरामनाम को छोड़कर अन्य मन्त्रों के जप में रूचि है वह तो अवश्य वध के योग्य है और इस जगत् में बार-बार आता और जाता रहता है । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते तन्त्रवाक्यप्रमाणनिरूपणं नाम सप्तमः प्रमोदः ॥ ७॥ ``सप्तम प्रमोद समाप्त''

अथाष्टमः प्रमोदः

नानाग्रन्थोक्त वचनानि - अष्टम प्रमोद में नाना ग्रन्थोक्तवचन - श्रीजानकीविनोदविलासे - श्रीजानकीविनोदविलास में - सीतां विना भजेद्रामं सीतां रामं विना भजेत् । कल्पकोटिसहस्रैस्तु लभते न प्रसन्नताम् ॥ ८३८॥ जो सीताजी के बिना रामजी का और रामजी के बिना सीताजी का भजन करते हैं वे लोग करोड़ों कल्पों तक प्रसन्नता को नहीं प्राप्त करते हैं । अर्थात् वे लोग सदा अशान्त ही रहते हैं । सीतारामात्मकं ध्यानं सीतारामात्मकार्चनम् । सीतारामात्मकं नामजपं परतरात्परम् ॥ ८३९॥ श्रीसीतारामजी का ध्यान, पूजन एवं युगलनाम का जप ही सर्वश्रेष्ठ है । श्रीजानकीविलासोत्तमे - श्रीजानकीविलासोत्तम में - स रामो न भवेज्जातु सीता यत्र न विद्यते । सीता नैव भवेत् सा हि यत्र रामो न विद्यते ॥ ८४०॥ वह राम कभी भी राम नहीं है जहाँ सीताजी नहीं है एवं वह सीताजी वास्तव में सीताजी नहीं है जहाँ रामजी नहीं है तात्पर्य यह है कि ये दोनों के एक दूसरे के पूरक हैं एक के बिना एक अधुरा है अतः युगल की उपासना ही श्रेयस्करी है । सीता रामं विना नैव राम सीतां विना नहि । श्रीसीतारामयोरेष सम्बन्धः शाश्वतो मतः ॥ ८४१॥ श्रीसीताजी की शोभा श्रीराम के बिना एवं श्रीरामजी की शोभा श्रीसीताजी के बिना नहीं है परस्पर में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है इन दोनों का सम्बन्ध शाश्वत है । रामः सीता जानकीरामचन्द्रो नाहुर्भेदो ह्येतयोरस्ति किञ्चित् । सन्तो मत्वा तत्त्वमेतद्विचित्रं पारं याताः संसृतेर्मृत्युकालात् ॥ ८४२॥ श्रीरामजी एवं श्रीसीताजी तथा श्रीजानकीजी एवं श्रीरामजी इन दोनों में लेशमात्र भी भेद नहीं है दोनों एक परम विचित्र तत्व मानकर अनेकों सन्त मृत्युरूपी संसार सागर -सागर से पार हो गये । राममन्त्रार्थे - श्रीराममन्त्रार्थ में'' (श्रीवैष्णवमताब्ज भास्कर में) रकारार्थो रामः सगुणपरमैश्वर्यजलधि- र्मकारार्थो जीवस्सकलविधिकैङ्कर्यनिपुणः । तयोर्मध्येऽकारो युगलमथ सम्बन्धमनयो- रनन्योऽर्थः सिद्धस्स्मृतिनिगमरूपोऽयमतुलः ॥ ८४३॥ श्रीरामनाम के ``र'' का अर्थ परम ऐश्वर्यों के समुद्र सगुण साकार विग्रह भगवान् श्रीराम है । ``म'' का अर्थ भगवान् के सभी प्रकार के कैङ्कर्यों के सम्पादन में परमदक्ष जीव है ``अ'' का अर्थ श्रीरामजी और जीव के मध्य शेषशेषिभावादि सम्बन्ध है यही मुख्य एवं समस्त स्मृति एवं वेद का प्रतिपाद्य अतुलनीय अर्थ है । जानकीरत्नमाणिक्ये - श्रीजानकीरत्नमाणिक्य में - सीतां विना ये सखि कोटिकल्पसमास्तु रामं जनकात्मजाशु । ध्यायन्ति निन्द्याश्रयभागिनस्ते रामप्रसादाद्विमुखाः भवन्ति ॥ ८४४॥ हे सखि ! श्रीजनक पुत्री सीताजी के बिना जो कोई केवल रामजी के नाम का करोड़ों कल्पों तक जप ध्यानादि करते हैं वे लोग निन्दा के पात्र हैं स्वप्न में भी श्रीरामजी की प्रसन्नता नहीं प्राप्त कर सकते हैं । रामस्तु वश्यो भवतीह सीतिप्रोच्चारणाद् ये तु जपन्ति सीताम् । भूत्त्वानुगामी भजते जनांस्तान् ब्रह्मेशशक्रार्चितराजपुत्रः ॥ ८४५॥ श्रीब्रह्मा शङ्कर इन्द्रादि से पूजित राजेन्द्र भगवान् श्रीरामजी श्रीसीताजी के ``सी'' के उच्चारण करने मात्र से भक्त के वश में हो जाते हैं और जो लोग सीताराम सीताराम कहते हैं भगवान् राम उन भक्तों के अनुगामी होकर सदासर्वदा उनकी सेवा करते हैं । भरद्वाजस्तोत्रे - भरद्वाजस्तोत्र में - राम रामेति रामेति वदन्तं विकलं भवान् । यमदूतैरनुक्रान्तं वत्सं गौरिवधावतु ॥ ८४६॥ हे रामजी ! यमदूतों से आक्रान्त होने पर विफल होकर राम राम राम ऐसा उच्चारण करने वाले भक्त के पीछे आप उसी प्रकार दौडिये जैसे वत्सला गौ अपने बछड़े के पीछे दौड़ती है । अर्थात् मृत्यु के समय श्रीरामनाम का उच्चारण होने पर आप शीघ्र जाकर उस भक्त को निर्भय करें । स्वच्छन्दचारिणं दीनं राम रामेतिवादिनम् । तावन्मामनु निम्नेन यथा वारीव धावतु ॥ ८४७॥ स्वच्छन्द विचरण करते हुए राम नाम का उच्चारण करने वाले मुझ दीन हीन के पीछे आप उसी प्रकार अनुगमन करें जैसे पानी नीचे की ओर जाता है । राम त्वं हृदये येषां सुखलभ्यं वनेऽपि तैः । मण्डं च नवनीतं च क्षीरसर्पिमधूदकम् ॥ ८४८॥ हे रामजी ! जिन भक्तों के हृदय में आप सदासर्वदा विराजमान रहते हैं उन भक्तों को वन में भी तक्र, मक्खन, दूध, घी, मधु एवं जलादि सुखपूर्वक प्राप्त हो जाते हैं । सीतापते राम रघूत्तमेति यो नाम्निजल्पेद्बुधि तस्य तत्क्षणात् । दिशं द्रवन्त्येव युयुत्सवोऽपि भियं दधाना हृदयेषु शत्रवः ॥ ८४९॥ जो लोग युद्ध भूमि में हे सीतापते ! हे राम ! हे रघूत्तम ! इस प्रकार भगवान् के नामों का उच्चारण करते है, जप करते हैं उन लोगों के शत्रु उसी क्षण हृदय से भयभीत होकर युद्ध इच्छुक होकर भी दशों दिशाओं में भागते हैं । प्रपन्नगीतायां लोमश उवाच - प्रपन्नगीता में श्रीलोमशजी ने कहा - रामान्नास्ति परो देवो रामान्नास्ति परं व्रतम् । न हि रामात्परो योगो नहि रामात्परो मखः ॥ ८५०॥ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी से बढ़कर कोई दूसरा देवता नहीं है एवं श्रीरामजी से बढ़कर कोई व्रत, योग एवं यज्ञ नहीं है । तत्रैव पुष्करवाक्यं - वहीं पुष्करजी का वाक्य - ये केचिद्दुस्तरं प्राप्य रघुनाथं स्मरन्ति हि । तेषां दुःखोदधिः शुष्को भवत्यपि न संशयः ॥ ८५१॥ , जो लोग दुस्तर दुःख की प्राप्ति होने पर श्रीरामजी का स्मरण करते हैं उन लोगों का दुख समुद्र सूख जाता है इसमें संशय नहीं है । ऋतुपर्ण उवाच - भज श्रीरघुनाथस्त्वं कर्मणा मनसा गिरा । नैष्कापट्येन लोकेशं तोषयस्व महामते ॥ ८५२॥ ऋतुपर्ण ने कहाः हे महाबुद्धिमान् ! आप निष्कपट भाव से कर्म, मन और वाणी से समस्त लोकों के स्वामी भगवान् श्रीराम का भजन करें । और उन्हें सन्तुष्ट करें । विश्वामित्र प्रातः पञ्चके - श्रीविश्वामित्रकृत प्रातः पञ्चक में - प्रातर्वदामि वचसा रघुनाथनाम वाग्दोषहारि सकलं समलं निहन्तृ । यत्पार्वती स्वपतिना सह भोक्तुकामा प्रीत्या सहस्रहरि नाम समं जजाप ॥ ८५३॥ मैं वाणी के दोष को हरने वाले, सम्पूर्ण पापों का स्वभाव से ही नाश करने वाले श्रीरामजी के श्रीरामनाम का अपनी वाणी से प्रातःकाल उच्चारण करता हूँ । जिस एक श्रीरामनाम को विष्णु सहस्रनाम के तुल्य समझकर अपने पति के साथ भोजन करने की इच्छा से श्रीपार्वतीजी ने प्रीतिपूर्वक जपा था । सुयज्ञसंहितायां - सुयज्ञसंहिता में - रामनाम कथयामोऽपरमपहाय । सीता नाम युतं यत् स्वादुसुखाय ॥ ८५४॥ हम लोग दूसरे नामों को छोड़कर श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं श्रीसीतानाम से युक्त रामनाम अर्थात् श्रीसीताराम नाम परम सुस्वादु है । सुखकारी है । विरचिसर्वस्वे - विरञ्चिसर्वस्व में - श्रीरामनामस्मरतः प्रयाति संसारपारं दुरितौघयुक्त । नरस्स सत्यं कलिदोषजन्यं पापं निहन्त्याशु किमत्र चित्रम् ॥ ८५५॥ श्रीरामनाम के स्मरण करने से समस्त पापों से युक्त पुरुष भी भवसागर से पार हो जाता है यह सत्य है फिर यदि कहें कि कलि से जन्य सारे पाप श्रीरामनाम के उच्चारण से शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है? शिवसर्वस्वे - शिवसर्वस्व में - यावन्न कीर्त्तयेद्रामं कलिकल्मषनाशनम् । तावत्तिष्ठति देहेऽस्मिन् भयं संसारदायकम् ॥ ८५६॥ मनुष्य जब तक कलि के कल्मष के नाशक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन नहीं करता है तभी तक इस शरीर में संसारदायक भय बना रहता है । श्रुतिस्मृतिपुराणेषु रामनाम समीरितम् । यन्नामकीर्तनेनैव तापत्रयविनाशनम् ॥ ८५७॥ वेदों पुराणों एवं स्मृतियों में श्रीरामनाम कहा गया है जिस श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से तीनों तापों का नाश हो जाता है । सर्वेषामेव पापानां प्रायश्चित्तमिदं स्मृतम् । नातः परतरं पुण्यं त्रिषु लोकेषु विद्यते ॥ ८५८॥ समस्त पापों का एकमात्र प्रायश्चित श्रीरामनाम सङ्कीर्तन है तीनों लोकों में इससे बढ़कर कोई पुण्य नहीं है । नामसङ्कीर्त्तनादेव तारकं ब्रह्म दृश्यते । सत्यं वदामि ते देवि नान्यथा वचनं मम ॥ ८५९॥ हे देवि ! श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से ही तारक ब्रह्म श्रीरामजी का दर्शन होता है मैं तुमसे सत्य-सत्य कहता हूँ मेरा वचन अन्यथा नहीं होगा । वैष्णवचिन्तामणौ - वैष्णवचिन्तामणि में - कालोऽस्ति दाने यज्ञे वा स्नानेकालोऽस्ति सञ्जपे । श्रीनामकीर्त्तने कालो नास्त्यत्र पृथिवीपते ॥ ८६०॥ हे राजन् ! दान, यज्ञ, स्नान एवं मन्त्रादि के सम्यक् जप में समय की व्यवस्था है पञ्चक, होलाष्टक, गुर्वस्त, शुक्रास्त आदि देखना पड़ता है । परन्तु श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करने में कोई विधि निषेध नहीं देखना है चाहे जहाँ हो जैसे हो सर्वदा कीर्तन कर सकते है । राम रामेति यो नित्यं मधुरं गायति क्षणम् । स ब्रह्महा सुरापो वा मुच्यते सर्वपातकैः ॥ ८६१॥ जो मधुर स्वर में राम राम ऐसा नित्य क्षणभर गान करता है वह ब्राह्मण हत्यारा अथवा शराबी हो तो भी सभी पापों से मुक्त हो जाता है । शिवसिद्धान्ते शङ्करवाक्यं - शिवसिद्धान्त में शङ्करजी का वाक्य - ब्रह्मघ्नो गुरुतल्पगोऽपि पुरुषः स्तेयीसुरापोऽपिवा- मातृभ्रातृविहिंसकोऽपिसततं भोगैकबद्धस्पृहः । नित्यं राममिमं जपन् रघुपतिं भक्त्या हृदिस्थं तथा ध्यायन् मुक्तिमुपैति किं पुनरसौ स्वाचारयुक्तो नरः ॥ ८६२॥ ब्राह्मणघातक, गुरुपत्नीगामी, चोर, शराबी, माता एवं भाई का हत्यारा अथवा निरन्तर एकमात्र भोग की इच्छा करने वाला हो वह मनुष्य भी नित्य इस श्रीरामनाम का जप करते अपने हृदय में विराजमान श्रीरामजी का भक्तिपूर्वक ध्यान करते हुए मुक्ति को पा जाता है फिर वर्ण एवं आश्रम के अनुरूप सदाचार का पालन करने वाले मनुष्यों के लिए क्या कहना । हिमवद् विन्ध्ययोर्मध्ये जना भागवता मताः । उच्चारयन्ति श्रीरामनाम प्राणात् प्रियं मम ॥ ८६३॥ हिमालय और विन्ध्याचल पर्वतों के मध्य में भगवान् के भक्तजन निवास करते हैं वे लोग मेरे प्राणों से प्रिय श्रीरामनाम का उच्चारण करते रहते हैं । रामनामरतानां वै सेवकानां च सेवया । मुच्यते सर्वपापेभ्यो महापातकवानपि ॥ ८६४॥ श्रीरामनाम के अनुरागी भक्तों के सेवकों की सेवा करने से महापापी भी सभी पापों से मुक्त हो जाता है । श्रीरामस्य कृपासिन्धोर्नाम्नः प्रोच्चारणं परम् । ओष्ठस्पन्दनमात्रेण कीर्त्तनं तु तपोऽधिकम् ॥ ८६५॥ कृपासिन्धु श्रीरामनाम का उच्चारण ही सर्वश्रेष्ठ है और दोनों होठों का हिलाना ही कीर्तन है वह तपस्या से भी श्रेष्ठ है । बृहद्गौतमीये - वृहद् गौतमी तन्त्र में - कुष्ठरोगी भवेल्लोके बहुधा ब्रह्महा नरः । सकृदुच्चरितं नाम शीघ्रं तत् क्षपयत्यघम् ॥ ८६६॥ ज्यादातर ब्राह्मण की हत्या करने वाला मनुष्य कोढ़ी होता है लेकिन एक बार श्रीरामनाम का उच्चारण करने से शीघ्र ही वह पाप धुल जाता है । यत्फलं दुर्लभं सर्वसाधनैः कल्पकोटिभिः । तत् फलं शीघ्रमाप्नोति रामनामानुकीर्त्तनात् ॥ ८६७॥ दूसरे समस्त साधनों से करोड़ों कल्पों में जो फल दुर्लभ है वह फल शीघ्र ही श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से सहज में प्राप्त हो जाता है । आश्वलायनतन्त्रे - आश्वलायन तन्त्र में - ये कीर्त्तयन्ति नामानि रामस्य परमात्मनः । सर्वधर्मबहिर्भूतास्तेऽपि यान्ति परं पदम् ॥ ८६८॥ जो सभी धर्मों से बहिर्भूत होकर भी परमात्मा श्रीराम के नाम का कीर्तन करते हैं वे भी परमपद को प्राप्त कर लेते हैं । स्वप्नेऽपि रामनाम्नस्तु स्मरणान् मुक्तिमाप्नुयात् । प्रीत्या सङ्कीर्त्तयेद्यस्तु न जाने किं फलं लभेत् ॥ ८६९॥ स्वप्न में भी श्रीरामनाम का स्मरण करने से मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है जो लोग प्रीतिपूर्वक श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते हैं उन्हें क्या फल मिलता है यह मैं नहीं जानता हूँ । वैरञ्च्यतन्त्रे - वैरञ्च्यतन्त्र में - पूजयस्व रघूत्तमं सर्वतन्त्रेषु गोपितम् । गुह्याद् गुह्यतमं नाम कीर्त्तयस्व निरन्तरम् ॥ ८७०॥ सभी तन्त्रों में अत्यन्त गोपित श्रीरघुश्रेष्ठ रामजी का पूजन करो और अत्यन्त गुह्य श्रीरामनाम का निरन्तर कीर्तन करो । त्यक्त्वाऽन्यसाधनान् सर्वान् रामनामपरो भव । नातः परतरं यत्नं सुलभं सकलेष्टदम् ॥ ८७१॥ दूसरे सभी साधनों को छोड़कर श्रीरामनाम के जप परायण हो जाओ, श्रीरामनाम से बढ़कर दूसरा कोई प्रयत्न सभी अभीष्टों को देने के लिए सुलभ नहीं है । मेरुतन्त्रे - मेरुतन्त्र में - नाम्नां मुख्यतमं नित्यं रामनामप्रकीर्तितम् । नातः परतरं नाम ब्रह्माण्डेऽपि प्रदृश्यते ॥ ८७२॥ भगवान् के सभी नामों में श्रीरामनाम मुख्य है सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में भी इससे बढ़कर कोई दूसरा नाम नहीं है । रामनाम्नि सुधाधाम्नि यस्य प्रीतिर्न विद्यते । पापिनामग्रगण्यस्स भूमेर्भारो महत्तरः ॥ ८७३॥ अमृत का निवासभूत श्रीरामनाम में जिसकी प्रीति नहीं है वह सभी पापियों में अग्रगण्य एवं पृथिवी महान् भार है । नारायणतन्त्रे - नारायणतन्त्र में - ये गृह्णन्ति निरन्तरं परपदं रामेति वर्णद्वयं ते वै भागवतोत्तमाः सुखमया पूज्यास्तु ते सर्वथा । ते निस्तीर्य भवार्णवं सुतकलत्राद्यैस्तु नक्रैर्युतं तृष्णावारि सुदुस्तरं परतरे सायुज्यमायान्ति वै ॥ ८७४॥ जो लोग सर्वोत्कृष्ट शब्द ``श्रीराम'' इन दो वर्णों को नित्य निरन्तर ग्रहण करते हैं अर्थात् उच्चारण करते हैं वास्तव में वे ही श्रेष्ठ भागवत हैं सुखी हैं और सभी लोगों से सदासर्वदा पूज्य हैं वे लोग ही पुत्रपत्नी आदि ग्रहों से परिव्याप्त एवं तृष्णारूपी अथाह जल से दुस्तर भवसागर को निश्चित ही पार करके वैकुण्ठ में सायुज्य मुक्ति को प्राप्त करते हैं । यानि धर्माणि कर्माणि महोग्रफलदानि वै । निष्फलानि च सर्वाणि रामनामरतात्मनाम् ॥ ८७५॥ महान् एवं उग्रफल देने वाले जितने धर्म एवं कर्म है वे सारे धर्म कर्म श्रीरामनामानुरागियों के लिए निष्फल है । वामनतन्त्रे - वामनतन्त्र में - पृथिव्यां कतिधा लोका जाताश्च कतिनो मृताः । मुक्तास्तेऽत्र न सन्देहो रामनामानुकीर्तनात् ॥ ८७६॥ इस पृथिवी पर कितने लोग पैदा हुए और कितने लोग मर गये परन्तु जो श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करते हैं वे लोग ही मुक्त होते हैं इसमें सन्देह नहीं है । ब्रह्माण्डे सन्ति यावन्ति महोग्राः पुण्यसञ्चयाः । रामनाम्नो जपस्यापि कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ८७७॥ इस ब्रह्माण्ड मे जितने महान् एवं उग्र पुण्यों का सञ्चय है वे सारे पुण्य समुदाय श्रीरामनाम के जप के सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं है । वशिष्ठतन्त्रे - वशिष्ठतन्त्र में - रामनामपरा ये च रामनामार्थचिन्तकाः । तेषां पादरजःस्पर्शात् पावनं भुवनत्रयम् ॥ ८७८॥ जो लोग श्रीरामनाम परायण हैं और जो श्रीरामनाम के अर्थ का चिन्तन करते हैं उन भक्तों की चरणधूलि के संस्पर्श से सम्पूर्ण त्रिलोकी पवित्र हो जाती है । कृष्णनारायणादीनि नामानि जपतोऽनिशम् । सहस्रैर्जन्मभी रामनाम्नि स्नेहो भवत्युत ॥ ८७९॥ भगवान् के कृष्णनारायणादि नामों का दिन रात जप करने पर हजारों जन्मों के बाद श्रीरामनाम में प्रेम होता है । राम एवाभिजानाति रामनाम्नः फलं हृदि । प्रवक्तुं नैव शक्नोति ब्रह्मादीनां तु का कथा ॥ ८८०॥ श्रीरामनाम के जप का फल श्रीरामजी ही अपने हृदय में जानते हैं पर वे भी कह नहीं सकते हैं फिर ब्रह्मा शिवादि का क्या कहना । श्रीरामरक्षायां - श्रीरामरक्षास्तोत्र में - पातालभूतलव्योमचारिणश्छद्मचारिणः । न द्रष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभिः ॥ ८८१॥ श्रीरामनाम से सर्वथा सुरक्षित भक्तों को, पाताल, भूतल, आकाश में विचरण करने वाले एवं कपट में विचरण करने वाले प्राणी भी देखने में समर्थ नहीं हो सकते हैं वे सब श्रीरामनाम से डरते हैं । रामेति रामभद्रेति रामचन्द्रेति वा स्मरन् । नरो न लिप्यते पापैर्भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥ ८८२॥ राम, रामभद्र एवं रामचन्द्र इस प्रकार उच्चारण करके भगवान् का स्मरण करने वाला मनुष्य पापों में लिप्त नहीं होता है और लौकिक भोग एवं मोक्ष को प्राप्त करता है । जगज्जैत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नैव रक्षितम् । यः कण्ठे धारयेत्तस्य करस्थाः सर्वसिद्धयः ॥ ८८३॥ सम्पूर्ण जगत् को जिताने वाला एकमात्र महामन्त्र श्रीरामनाम है उससे संयुक्त किसी भी यन्त्र को जो अपने कण्ठ में धारण करता है उसके हाथ में सभी सिद्धिया स्वतः आ विराजती हैं । शाश्वततन्त्रे - शाश्वततन्त्र में - वाङ्मनोगोचरातीतः सत्यलोकेश ईश्वरः । तस्य नामादिकं सर्वं रामनाम्ना प्रकाशते ॥ ८८४॥ सत्यलोक के स्वामी भगवान् वाणी और मन से परे हैं उनके सभी नाम श्रीरामनाम से प्रकाशित होते हैं । यस्य प्रसादाद्देवेशि मम सामर्थ्यमीदृशम् । सङ्हरामि क्षणादेव त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ८८५॥ हे देवेश्वरि पार्वति ! जिस श्रीरामनाम की कृपा से मुझे ऐसा सामर्थ्य प्राप्त हुआ है कि मैं चर अचर से युक्त सम्पूर्ण त्रिलोकी का क्षण भर में संहार कर सकता हूँ । धाता सृजति भूतानि विष्णुर्धारयते जगत् । तथा चेन्द्रादयः सर्वे रामनाम्नासमृद्धिमान् ॥ ८८६॥ श्रीरामनाम की कृपा से प्राप्त समृद्धि से युक्त होकर ब्रह्माजी भूतों की सृष्टि करते हैं भगवान् विष्णु जगत् का पालन करते हैं एवं इन्द्रादि सब देवता अपना-अपना कार्य करते हैं । रहस्यसारे श्रीनारायणवाक्यं मुनीन् प्रति - रहस्यसार में श्रीनारायणजी का वाक्य मुनियों के प्रति - रसनायां विशेषेण जप्तव्यं नाम सज्जनैः । कलौ सङ्कीर्तनं विप्राः सर्वसिद्धान्तसम्मतम् ॥ ८८७॥ हे विप्रो ! कलियुग में ``सभी सिद्धान्त वालों'' को श्रीहरिनाम सङ्कीर्तन अभिमत है, अतः सज्जनों को विशेष रूप से अपनी जिह्वा से श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करना चाहिए । प्रेमसङ्क्लिन्नया वाचा ये रमन्ति रटन्ति वै । नाम सर्वेश्वराधारं ते कृतार्था महामुने ॥ ८८८॥ सर्वेश्वरों के मूलाधार श्रीरामनाम का जो लोग प्रेम से भीगी हुई वाणी से जप एवं स्मरण करते हैं, हे महामुने ! वास्तव में वे लोग ही कृतार्थ हैं । नामप्रोच्चारणं नित्यं रसनायां प्रशस्यते । भक्तानां योगिनां चैव ज्ञानिनां कर्मिणां तथा ॥ ८८९॥ भक्तों, योगियों, ज्ञानियों एवं कर्मकाण्डियों के लिए नित्य अपनी जिह्वा से श्रीरामनाम का उच्चारण ही प्रशस्त है । यत्र सङ्गृह्यते नाम प्रेमसम्पन्नमानसैः । तत्र तत्र परा वाणी नाभिस्था सर्वतः शुभा ॥ ८९०॥ जहाँ-जहाँ प्रेमयुक्त मन से श्रीरामनाम का ग्रहण किया जाता है वहाँ-वहाँ सब तरफ से कल्याणकारी नाभि से परावाणी निकलती है । रामनाम परम्ब्रह्म सर्वमोदैकमन्दिरम् । जीवनं दिव्यनित्यानां परिकराणां महात्मनाम् ॥ ८९१॥ भगवान् के दिव्य एवं नित्य परिकरों एवं महात्माओं का सभी प्रकार से आनन्द का एकमात्र आश्रय परब्रह्म श्रीरामनाम ही जीवन है । यस्य रामरसे प्रीतिर्वर्तते भक्तिसंयुता । स एव कृतकृत्यश्च सर्वशास्त्रार्थकोविदः ॥ ८९२॥ जिसकी श्रीरामनामामृत में भक्ति युक्त प्रीति है वास्तव में वही कृतकृत्य है एवं सभी शास्त्रों का पण्डित है । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते नानारहस्यतन्त्रस्तोत्रवाक्यप्रमाणनिरूपणं नामाष्टमः प्रमोदः ॥ ८॥ ``अष्टम प्रमोद समाप्त''

अथ नवमः प्रमोदः

श्रीरामायणोक्तवचनानि - नवम प्रमोद में श्रीरामायणोक्तवचन - श्रीमद् वाल्मीकीय रामायण - रामो रामो राम इति प्रजानां समभूद्ध्वनिः । रामभूतमिदं विश्वं रामे राज्यं प्रशासति ॥ ८९३॥ भगवान् राम के गद्दी पर बैठकर राज्य का शासन करने पर समस्त प्रजा में राम राम-राम यह दिव्य ध्वनि गूँज उठी एवं सम्पूर्ण विश्व राममय हो गया । यश्च रामं न पश्येत्तु यं च रामो न पश्यति । निन्दितः सर्वलोकेषु स्वात्माऽप्येनं विगर्हति ॥ ८९४॥ जिसने श्रीराम को नहीं देखा एवं श्रीराम ने जिसको नहीं देखा वह सभी लोकों में निन्दित है उसकी आत्मा भी उसकी भर्त्सना करती है । क्षणार्द्धेनापि यच्चित्तं त्वयि तिष्ठत्यचञ्चलः । तस्याज्ञानमनर्थानां मूलं नश्यति तत् क्षणात् ॥ ८९५॥ हे रामजी ! जिसका स्थिर चित्त आधे क्षण के लिए भी आप में लग गया उसके समस्त अनर्थों का मूल अज्ञान उसी क्षण नष्ट हो जाता है । कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् । आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥ ८९६॥ कवितारूपी शाखा पर आरूढ़ होकर मधुराक्षरों में राम-राम इस प्रकार कूजन करने वाले वाल्मीकिरूपी कोयल की मैं वन्दना करता हूँ । सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते । अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद् व्रतं मम ॥ ८९७॥ एक बार शरण में आकर प्रभो ! मैं आपका हूँ ऐसी प्रार्थना करने वाले को मैं समस्त प्राणियों से निर्भय कर देता हूँ यह मेरा व्रत हैं । कथञ्चिदुपकारेण कृतेनैकेन तुष्यति । न स्मरत्यपकाराणां शतमप्यात्मवत्तया ॥ ८९८॥ किसी भी प्रकार से एक उपकार करने पर भी भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं फिर तो हजारों अपकारों को याद नहीं करते हैं क्योङ्कि वे परम आत्मवान् धैर्यवान् अर्थात् धीर गम्भीर हैं । नाम और नामी दोनों को एक मानकर नामी परक श्लोकों को यहाँ दिया गया है । ब्रह्मरामायणे श्रीरामवाक्यं श्रीजानकीं प्रति - ब्रह्मरामायण में श्रीरामजी का वाक्य श्रीजानकी के प्रति - ये त्वां स्मरन्ति सद्भक्त्या ते मे प्रियतमाः प्रिये । तेषां भाग्योदयं वक्तुं न शक्तोऽहं कदाचन ॥ ८९९॥ हे प्राणवल्लभे जानकि ! जो सद्भक्तिपूर्वक तुम्हारा स्मरण करते हैं वे मुझे अत्यन्त प्रिय हैं मैं उनके भाग्योदय को कहने में समर्थ नहीं हूँ । क्वचित् त्वां ये स्मरन्त्यन्तर्मम पार्षदतां पराम् । कोटिजन्मार्जितैः पुण्यैः दुर्लभामपि यान्ति ते ॥ ९००॥ जो भीतर से आपका स्मरण करते हैं वे लोग करोड़ों जन्मों से अर्जित पुण्यों से भी दुर्लभ मेरे उत्कृष्ट पार्षद पद को प्राप्त करते हैं । श्रीसीतारामनाम्नस्तु सदैक्यं नास्ति संशयम् । इति ज्ञात्वा जपेद्यस्तु स धन्यो भाविनां वरः ॥ ९०१॥ श्रीसीतानाम एवं श्रीरामनाम दोनों में सदासर्वदा ऐक्य है ऐसा समझ कर जो सीताराम-सीताराम जप करता है वही धन्य एवं भावुकों में श्रेष्ठ है । ज्ञानं सीतानाम तुल्यं न किञ्चिद् ध्यानं सीतानाम तुल्यं न किञ्चित् । भक्तिः सीतानाम तुल्या न काचित् तत्त्वं सीतानाम तुल्यं न किञ्चित् ॥ ९०२॥ श्रीसीताजी के नाम के समान न कोई ज्ञान, ध्यान, भक्ति और न कोई तत्व है । एकं शास्त्रं गीयते यत्र सीता कर्माप्येकं पूज्यते यत्र सीता । एका लोके देवता चापि सीता मन्त्रश्चैकोऽप्यस्ति सीतेति नाम ॥ ९०३॥ वास्तव में एकमात्र वही शास्त्र है जहाँ श्रीसीताजी का नाम, महिमा वर्णित है, कर्म भी वही सुकर्म है जिसमें श्रीसीताजी की पूजा होती है एक मात्र श्रीसीताजी ही सर्वश्रेष्ठ देवता है और सबसे बड़ा महामन्त्र श्रीसीताराम नाम है । नान्यः पन्था विद्यते चात्मलब्धौ नान्यो भावो विद्यते चापि लोके । नान्यद् ज्ञानं विद्यते चापि वेदेष्वं सीतानाममात्रं विहाय ॥ ९०४॥ परमात्मा की प्राप्ति के लिए लोक में श्रीसीतानाम को छोड़कर न तो कोई दूसरा मार्ग है, न भाव है और वेदों में न तो कोई दूसरा ज्ञान है । अर्थात् श्रीजी की कृपा के बिना भगवान् की प्राप्ति असम्भव है और श्रीजी की कृपा श्रीसीतानामोच्चारण के बिना असम्भव है । सीतेति मङ्गलं नाम सकृच्छ्रुत्वा कृपाकरः । श्रीरामो जानकीजानिर्विशेषेण प्रसीदति ॥ ९०५॥ परममङ्गलमय श्रीसीतानाम का एक बार सङ्कीर्तन सुनकर कृपा सागर श्रीजानकीनाथरामजी विशेष प्रसन्न होते है । श्रीसीतानाममाहात्म्यं सुगोप्यं सर्वतः शुभम् । रसिका प्रेमसम्मग्ना जानन्ति तदनुग्रहात् ॥ ९०६॥ श्रीसीताजी के नाम की महिमा अत्यन्त गोपनीय एवं सभी तरह से शुभ करने वाला है किन्तु इस बात को श्रीकिशोरीजी की कृपा से प्रेम में सम्यक् मग्न रसिक लोग ही जानते हैं । अध्यात्मरामायणे - अध्यात्मरामायण में - येषु येष्वपि देशेषु रामनाम उपासते । दुर्भिक्षदैन्यदोषाश्च न भवन्ति कदाचन ॥ ९०७॥ जिन-जिन देशों में श्रीरामनाम की उपासना होती है वहाँ-वहाँ अकाल, गरीबी एवं आधि व्याधि दोष नहीं होते हैं । राम रामेति ये नित्यं पठन्ति मनुजा भुवि । तेषां मृत्युभयादीनि न भवन्ति कदाचन ॥ ९०८॥ इस पृथिवी में जो लोग नित्य श्रीरामनाम का उच्चारण करते हैं उनको कभी भी मृत्यु आदि का भय नहीं होता है । राम रामेति सततं पठनाल्लभते फलम् । वाचा सिद्धयादिकं सर्वं स्वयमेव भवेद्ध्रुवम् ॥ ९०९॥ अपनी वाणी से निरन्तर राम राम ऐसा पाठ करने से तुरन्त फल मिलता है और वाक् सिद्धि आदि सब सिद्धियां स्वयं ही निश्चित प्राप्त हो जाती है । यन्नाम विवशो गृणन् म्रियमाण परं पदम् । याति साक्षात् त्वमेवासि मुमूर्षो मे पुरःस्थितम् ॥ ९१०॥ जिनके नाम का म्रियमाण पुरुष विवश होकर उच्चारण करने पर परमपद को प्राप्त करता है फिर मुझ मरणेच्छु के समक्ष साक्षात् आप प्रकट हैं ऐसा सौभाग्य फिर मिलेगा कि नहीं । यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्यया ज्ञानविप्लवे । तं गुरू प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यपि ॥ ९११॥ विद्या के द्वारा अज्ञान के समाप्त हो जाने पर बड़े-बड़े मुनि लोग जिसमें रमण करते हैं उनका नाम गुरु वशिष्ठ ने ``राम'' रखा, अपने गुण एवं शील के द्वारा सबको आनन्द प्राप्त करते हैं इसलिए इन्हें राम कहते हैं । इत्युक्त्वा राम ! ते नाम ब्यत्ययाक्षरपूर्वकम् । एकाग्रमनसा चैव मरेति जप सर्वदा ॥ ९१२॥ हे रामजी ! ऐसा कहकर आपके नाम राम को उलटकर ``मरा'' ऐसा एकाग्रचित्त से सदासर्वदा तुम जपो । ऐसा महात्माओं ने उपदेश दिया । त्वन्नामामृतहीनानां मोक्षः स्वप्नेऽपि नो भवेत् । तस्माछ्रीरामनाम्नस्तु सङ्कीर्त्तनपरो भव ॥ ९१३॥ हे रामजी ! आपके श्रीरामनामरूपी अमृत से रहित मनुष्यों को स्वप्न में भी मोक्ष नहीं मिल सकता है इसलिए श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करो । ऐसा महात्माओं ने उपदेश दिया । नाधीतवेदशास्त्रोऽपि न कृताध्वरकर्मकः । यो नाम वदते नित्यं तेन सर्वं कृतं भवेत् ॥ ९१४॥ जो वेदशास्त्रों को नहीं पढ़ा है एवं यज्ञानुष्ठानादि कर्म नहीं किया है और जो श्रीरामनाम का सङ्कीर्तन करता है उसने सभी यज्ञादि कर्मों एवं वेद्याध्ययनादि को कर लिया । मानसरामायणे - श्रीमद्रामचरितमानस में - ब्रह्माम्भोधिसमुद्भवं कलिमलप्रध्वंसनं चाव्ययं श्रीमच्छम्भुमुखेन्दुसुन्दरवरे संशोभितं सर्वदा । संसारामयभेषजं सुखकरं श्रीजानकीजीवनं धन्यास्ते कृतिनः पिबन्ति सततं श्रीरामनामामृतम् ॥ ९१५॥ जो वेदरूपी समुद्र से प्रकट हुआ है, कलि के मल का नाशक है, अविनाशी है, भगवान् शङ्कर के श्रेष्ठ मुखचन्द्र पर सदासर्वदा सुशोभित है, संसाररूपी रोग नाश की महौषधि है, सुख प्रदान करने वाला है, और श्रीजनक पुत्री सीताजी का जीवन सर्वस्व है । उस श्रीरामनामरूपी अमृत को जो पुण्यात्मा लोग नित्य निरन्तर पीते हैं वे ही वास्तव में धन्य हैं । प्रमोदरामायणे - प्रमोदरामायण में - रामनामांशतो जातास्सुमन्त्राश्चाप्यनन्तकाः । अबुधा नैव जानन्ति नाममाहात्म्यमुज्ज्वलम् ॥ ९१६॥ श्रीरामनाम के अंश से ही अनन्त सुन्दर सुन्दर मन्त्र उत्पन्न हुए हैं, मूर्ख लोग श्रीरामनाम के उज्ज्वल महत्व को नहीं जान पाते हैं । भुशुण्डिरामायणे - भुशुण्डि रामायण में - श्रीरामनामदीप्ताग्निर्दग्धदुर्जातिकिल्विष्टः । श्वपचोऽपि बुधैः पूज्यो वेदाढ्योऽपि न नास्तिकः ॥ ९१७॥ श्रीरामनामरूपी प्रदीप्त अग्नि में जल गया है कुत्सित जाति जन्य दोष जिसका वह श्वपच भी विद्वान् से पूज्य है और श्रीरामनाम से रहित वैदिक ब्राह्मण भी नास्तिक है पूज्य नहीं है । वेदशास्त्रशतं वापि तारयन्ति न तं नरम् । यस्तु स्वमनसा वाचा न करोति जपं परम् ॥ ९१८॥ सैकड़ों वेदशास्त्र भी उस मनुष्य का उद्धार नहीं कर सकते हैं जो मन और वाणी से श्रीरामनाम का जप नहीं करता है । रामनामविहीनस्य जातिश्शास्त्रं जपस्तपः । अप्राणस्यैव देहस्य मण्डनन्तु वृथा यथा ॥ ९१९॥ श्रीरामनाम से विहीन मनुष्यों के लिए उत्तम जाति, शास्त्र, जप एवं तप उसी प्रकार व्यर्थ है जिस प्रकार मूर्दा के लिए आभूषण व्यर्थ है । ये श‍ृण्वन्ति हि सद्भक्त्या रामनामपरात्परम् । तेऽपि यान्ति परं धाम किं पुनर्जापको जनः ॥ ९२०॥ जो लोग श्रद्धाभक्तिपूर्वक परात्पर श्रीरामनाम का श्रवण करते हैं वे भी परम धाम को प्राप्त करते हैं फिर श्रीरामनाम के जप करने वाले के लिए क्या कहना है । द्विजो वा राक्षसो वापि पापी वा धार्मिकोऽपि वा । राम रामेति यो वक्ति स मुक्तो भवबन्धनात् ॥ ९२१॥ ब्राह्मण हो या राक्षस हो, पापी हो या धर्मात्मा हो जो राम-राम ऐसा कहता है वह संसार चक्र से मुक्त हो जाता है । यत्र यत्र समुद्धारो दृश्यते श्रूयतेऽथवा । रामनाम्नैव नित्यं च तत्र तत्र न संशयः ॥ ९२२॥ जहाँ कहीं भी किसी का उद्धार देखा या सुना जाता है वहाँ श्रीरामनाम की कृपा से उद्धार समझना चाहिए इसमें संशय नहीं है । दिवा रात्रौ च ये नित्यं रामनाम जपन्ति हि । साक्षात्परिकरा दिव्या नित्या रसमयाः सदा ॥ ९२३॥ दिन में और रात्रि में जो लोग नित्य श्रीरामनाम का जप करते हैं वे लोग सदासर्वदा ठाकुरजी के साक्षात् दिव्य, नित्य एवं सदासर्वदा रसमय पार्षद हैं । क्षणार्द्धमपि चैकान्ते स्थित्वा येषां रतिः परे । रामनामात्मके मन्त्रे तेषां जन्मादिकं नहि ॥ ९२४॥ एकान्त में स्थित होकर परात्पर श्रीरामनामरूपी महामन्त्र में आधे क्षण के लिए भी जिनकी रति हो जाती है उनका पुनर्जन्म नहीं होता है । अहो श्रीभारतं वर्ष धन्यं पुण्यालयं परम् । प्राप्य यत्रापि श्रीरामनाम नैव जपन्ति ये ॥ ९२५॥ नान्यस्तत् सदृशो मूढश्चाण्डालो लोकगर्हितः । भ्रमन्ते भवचक्रेऽस्मिन सर्वदा तस्य वै मतिः ॥ ९२६॥ धन्य, पुण्यालय एवं सर्वश्रेष्ठ श्रीभारतवर्ष को प्राप्त करके भी जो श्रीरामनाम का जप नहीं करते हैं उनके लिए आश्चर्य है । उनसे बढ़कर दूसरा कोई न मूर्ख है और न लोक निन्दित चाण्डाल, उनकी वह बुद्धि सदासर्वदा भवसागर में घूमती रहेगी । असङ्ख्यकोटिलोकानामुपादानं परात्परम् । तथैव सर्ववेदानां कारणं नाम उच्यते ॥ ९२७॥ अनन्त लोकों का उपादानकारण एवं सभी वेदों का मूल कारण श्रीरामनाम कहा जाता है । स्वप्ने तथा सम्भ्रमतः प्रमादाच्चेज्जृम्भणात् संस्खलनाद्यभावात् । रामेति नाम स्मरतः सकृद्वै नश्यत्यसङ्ख्यद्विजधेनुहत्या ॥ ९२८॥ स्वप्न में, भ्रमवश, प्रमादवश, जम्भाई लेते समय, गिरते समय अथवा अभावग्रस्त होकर जो एक बार श्रीरामनाम का स्मरण करता है उसके असङ्ख्य ब्राह्मण और गोहत्या जन्य पाप नष्ट हो जाते हैं । प्रायो नामावलम्बेन सानुभूता प्रतीयताम् । अद्यत्वे तद्विशेषेण नामि प्राप्तिर्हि नामतः ॥ ९२९॥ अधिकांश श्रीरामनाम के सहारे से ही भगवान् का अनुभव भक्तों ने किया है-इस पर विश्वास करो, वर्तमान कलियुग में विशेष रूप से भगवान् की प्राप्ति श्रीरामनाम से ही सम्भव है । शारदारामायणे - शारदारामायण में - श्रीमतो जानकीजानेर्नाम नित्यं जपन्ति ये । ते सर्वैस्त्रिदशैः पूज्याः वन्दनीयाश्च सर्वदा ॥ ९३०॥ श्रीमान् जानकीनाथ के नाम श्रीरामनाम का जो नित्य जप करते हैं वे लोग सभी देवताओं से सदासर्वदा पूज्य एवं वन्दनीय हैं । चतुर्युगेषु श्रीरामनाममाहात्म्यमुज्ज्वलम् । सर्वोत्कृष्टं न सन्देहो कलौ तत्रापि सर्वथा ॥ ९३१॥ चारों युगों में श्रीरामनाम का उज्ज्वल माहात्म्य सर्वोत्कृष्ट है उसमें भी वर्तमान कलियुग में विशेष है इसमें सन्देह नहीं है । प्रेमरामायणे - प्रेमरामायण में - श्रीरामनामसंल्लापतत्परं पुरुषं भजेत् । मुक्तिस्स्यात् सेवनाद्देवि ह्यनायासेन सत्वरम् ॥ ९३२॥ श्रीरामनाम के कीर्तन परायण सन्तों भक्तों की सेवा करनी चाहिए हे देवि! श्रीरामानुरागियों की सेवा से शीघ्र ही बिना श्रम के मुक्ति प्राप्त हो जाती है । यन्मुखे रामनामास्ति सर्वदा प्रेमतःशिवे । दृष्ट्वा तद् वदनं पुण्यं सुगमं शाश्वतं सुखम् ॥ ९३३॥ हे पाविर्त ! जिनके मुख में सदासर्वदा प्रेमपूर्वक श्रीरामनाम विद्यमान है उनके मुखमण्डल को देखकर पुण्य, सुगति एवं शाश्वत सुख मिलता है । अहो ह्यभाग्यं खलु पामराणां रामेति नामामृतशून्यमास्यम् । जीवन्ति ते देवि ! कथं मनुष्याः पापात्मकाः मूढतमा धियास्ते ॥ ९३४॥ आश्चर्य है निश्चित ही उनका दुर्भाग्य है जिन पामर जीवों के मुख श्रीरामनामरूपी अमृत से शून्य है, देवि पार्वति ! पाप विग्रह अत्यन्त मूढ़ बुद्धि वाले वे मनुष्य क्यों जीते हैं? श्रीरामनाम से रहित जीवन से तो मर जाना ही अच्छा है । असङ्ख्यकोटिनामानि नैव साम्यं प्रयान्ति च । खद्योतराशयो यान्ति रवेः सादृश्यतां कथम् ॥ ९३५॥ भगवान् के असङ्ख्य नाम भी एक श्रीरामनाम की तुलना नहीं कर सकते हैं जैसे असङ्ख्य जुगनू सूर्य की समता नहीं कर सकते हैं । यत्रास्ति तिमिरं घोरं महादुःखौघसञ्चयम् । तन्मार्गे रामनाम्नस्तु प्रभा सन्दृश्यते परम् ॥ ९३६॥ जहाँ महादुःख समूह रूपी घोर अन्धकार होता है वहीं श्रीरामनामरूपी सूर्य की दिव्य प्रभा स्पष्ट दिखायी देती है । यस्मिन्देशे न कोऽप्यस्ति जनाः सम्बन्धिनस्तथा । तादृशे क्लेशसम्पन्ने नामैको दुःखहारकः ॥ ९३७॥ जिस जगह पर अपना कोई सगा सम्बन्धी नहीं होता है वैसे क्लेश से युक्त स्थल पर एकमात्र श्रीरामनाम ही दुःख हरण करने वाला होता है । निरालम्बं परं नाम निर्विकल्पं निरीहकम् । ये रटन्ति सदा भक्त्या ते कृतार्थाः सुमुक्तिदाः ॥ ९३८॥ दूसरे के अवलम्ब से रहित विकल्प शून्य एवं चेष्टा रहित सर्वोत्कृष्ट श्रीरामनाम को सदासर्वदा जो रटते हैं वास्तव में वे ही कृतार्थ हैं और दूसरों को सुन्दर मुक्ति देने वाले हैं । वशिष्ठरामायणे - वशिष्ठरामायण में - नानातर्कविवादगर्तकुहरे पाताश्च ये जन्तव- स्तेषामेकमसंशयं सुशरणं श्रीरामनामात्मकम् । मन्त्रं नास्ति यतः परं सुललितं प्रेमास्पदं पावनं स्वल्पायासफलप्रदानपरमं प्रोत्कर्षसौख्यप्रदम् ॥ ९३९॥ अनेक तर्क वाद विवादरूपी भयङ्कर गढ्ढे में जो लोग गिर चुके हैं उन लोगों के लिए एकमात्र संशय रहित सुन्दर रक्षक श्रीरामनाम है । जिससे बढ़कर सुललित, प्रेमास्पद एवं कम परिश्रम में सुन्दर फल प्रदान करने वाला तथा सर्वोत्कृष्ट सुख देने वाला दूसरा कोई मन्त्र नहीं है । नवद्वाराणि संयम्य ये रमन्ति समादरात् । रामनाम्नि परे मन्त्रे धन्या भागवतोत्तमाः ॥ ९४०॥ इस मानव शरीर के नवद्वारों को संयमित करके जो परममन्त्र श्रीरामनाम में आदरपूर्वक रमण करते हैं वे धन्य एवं उत्तम भक्त है । भगवद्वाक्यं - भगवद् वाक्य - यदि वातादिदोषेण मद्भक्तो मां च न स्मरेत् । अहं स्मरामि तं भक्तं नयामि परमां गतिम् ॥ ९४१॥ यदि कफवात्त एवं पित्त के प्रकोप के कारण कण्ठ के अवरूद्ध होने पर मेरा भक्त मेरा स्मरण नहीं । करता है तो मैं उस भक्त की याद स्वयं करता हूँ परमगति को प्राप्त कराता हूँ । मन्नामोच्चारकं साधुं सादरं पूजयन्ति ये । तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ॥ ९४२॥ मेरे नाम का उच्चारण करने वाले साधु का आदरपूर्वक जो पूजन करते हैं उन लोगों का मृत्यु संसार सागर से मैं उद्धार कर देता हूँ । ये स्मरन्ति सदा स्नेहान् ममनाम सुधासरः । तेऽतिधन्याः प्रियास्माकं सत्यं सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ ९४३॥ जो लोग सदासर्वदा स्नेह से अमृत सरोवर स्वरूप मेरे नाम का स्मरण करते हैं वे लोग अत्यन्त धन्य और हमारे प्रिय हैं यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ । एतदेव परं तत्त्वं मत् प्रसादाय निश्चितम् । मनसा वचसा नित्यं भजेन् मन्नाम मङ्गलम् ॥ ९४४॥ मेरी प्रसन्नता के लिए यही परम तत्व निश्चित किया गया है कि मन और वाणी से नित्य मेरे मङ्गलमय नाम का भजन करें । मद्वाक्यमादरेद्यस्तु स मे प्रियतमो नरः । तस्यार्थं सर्ववस्तूनि सृजामि वसुधातले ॥ ९४५॥ मेरी वाणी का जो आदर करता है वह मनुष्य मुझे अत्यन्त प्रिय है, वास्तव में वैसे भक्तों के लिए ही मैं पृथिवी पर सभी वस्तुओं की रचना करता हूँ । मन्नाम संस्मरेद्यस्तु सततं नियतेन्द्रियः । तस्मात् प्रियतमः कश्चिन्नास्ति ब्रह्माण्डमण्डले ॥ ९४६॥ जो जितेन्द्रिय होकर मेरे नाम का निरन्तर सम्यक् स्मरण करता है उससे बढ़कर मेरा अत्यन्त प्रिय कोई दूसरा इस ब्रह्माण्ड में नहीं है । आदिरामायणे श्रीमुखवाक्यं नारदं प्रति - आदि रामायण में श्रीमुख का वाक्य नारदजी के प्रति - यावन्तो ब्रह्मणो वक्त्रान्निर्गता वेदराशयः । ते च सर्वेऽप्यधीताः स्युर्नाम्नि नारायणात्मके ॥ ९४७॥ ब्रह्माजी के मुख से जितनी वेद राशि निकली है उन समस्त वेद राशियों को उसने पढ़ लिया जिसने नारायण नाम का एक बार उच्चारण कर लिया । नारायणस्य यावन्ति पुराणेष्वागमेषु च । दिव्यनाम्नां सहस्राणि कीर्तयन् यत्फलं लभेत् ॥ ९४८॥ ततः कोटिगुणं पुण्यं फलं दिव्यं मदात्मकम् । लभते सहसा ब्रह्मन् सकृद् रामेति कीर्तनात् ॥ ९४९॥ समस्त पुराणों एवं आगमशास्त्रों में भगवान् नारायण के जितने नाम हैं उन दिव्य नामों को हजार बार कहने पर जो पुण्य फल प्राप्त होता है, हे नारद ! उससे कोटि गुना ज्यादा दिव्य एवं मत्स्वरूपात्मक पुण्य फल अचानक एक बार श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से प्राप्त होता है । मन्नामकीर्त्तने हृष्टो नरः पुण्यवतां वरः । तस्यापि पादरजसा शुद्धयति क्षितिमण्डलम् ॥ ९५०॥ हमारे श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन करते सुनते समय जो मनुष्य प्रसन्न होता है जिसका हृदय गदगद हो जाता है, वह मनुष्य समस्त पुण्यात्माओं में श्रेष्ठ है उनके भी चरण रज से सम्पूर्ण पृथिवी पवित्र हो जाती है । तत्रैव स्थानान्तरे - आदि रामायण में दूसरी जगह - असङ्ख्यैः पुण्यनिचयैः कोटिजन्मार्जितैरपि । पञ्चाङ्गोपासनाभिश्च रामनाम्नि रतिर्भवेत् ॥ ९५१॥ अनेक जन्मों से सञ्चित असङ्ख्य पुण्यों एवं भगवान् विष्णु आदि पञ्चदेवों की उपासना के फलस्वरूप ही श्रीरामनाम में रति होती है अन्यथा नहीं । यावन्न रामभक्तानां सततं पादसेवनम् । रामनाम्नि परे तावत् प्रीतिस्सञ्जायते कथम् ॥ ९५२॥ जब तक श्रीरामजी के भक्तों के चरणों की सेवा सतत कुछ दिन तक नहीं करेङ्गे तब तक परात्पर श्रीरामनाम में सम्यक् प्रीति कैसे होगी । पापिष्ठा भाग्यहीनाश्च पापकर्मणि तत्पराः । रामनाम्नः कथं तेषां मुखादुच्चारणं भवेत् ॥ ९५३॥ जो लोग अत्यन्त पापी, भाग्यहीन एवं पापकर्म में लगे हुए हैं उन पापियों के मुख से श्रीरामनाम का उच्चारण कैसे होगा । रकारेणाघसन्नाशो मकारान्मुक्तिरुत्तमा । पूर्णेन वश्यतां याति रामो रामेति शब्दितः ॥ ९५४॥ राम राम ऐसा उच्चारण करने पर श्रीरामनाम के ``र'' का उच्चारण करने पर पापों का नाश होता है, ``म'' के उच्चारण करने से उत्तम मुक्ति प्राप्त होती है पूरे ``राम'' नाम के उच्चारण करने पर श्रीरामजी उस साधक के वश में हो जाते हैं । श्रीब्रह्मोवाच - श्रीब्रह्माजी ने कहा - एतद्धनुमता प्रोक्तं रामनामरहस्यकम् । श्रुत्वा नलःप्लवङ्गेशस्तथैव हि चकार सः ॥ ९५५॥ इस श्रीरामनाम के रहस्य को श्रीहनुमान् जी ने कहा उसे सुनकर कपीश नल ने वैसा किया । लिखित्वा दृषदां मध्ये नाम सीतापतेर्मुहुः । निचिक्षेप पयोराशौ बहुनुच्चावचान् गिरीन् ॥ ९५६॥ नल ने पत्थरों पर श्रीजानकीनाथ के श्रीरामनाम को लिखकर बड़े-बड़े पत्थरों को समुद्र में फेङ्का । सन्तरन्तिस्म दृषदो रामनामाङ्किता जले । तद् दृष्ट्वा वानराः सर्वे बभूवुर्विस्मितास्तदा ॥ ९५७॥ श्रीरामनाम से अङ्कित पत्थर समुद्र के जल में तैरते थे उस दृश्य को देखकर उस समय सभी वानर आश्चर्यचकित हो गये । इदं सुगोप्यं भवते वदामि प्रसङ्गतः सेतुनिबन्धनेऽस्मिन् । न वाच्यमेतद् भवता परस्मै भक्त्योपसन्नाय तु वाच्यमेव ॥ ९५८॥ श्रीहनुमान् जी कहते हैं कि श्रीरामनाम का यह रहस्य अत्यन्त गोपनीय है सेतु बन्धन के पुनीत अवसर पर प्रसङ्गवश मैं आपके लिए कहता हूँ । आप इस रहस्य को हर किसी के समक्ष न प्रकट करें परन्तु भक्तिपूर्वक शरण में आने वाले के लिए अवश्य कहें । रामेतिमन्त्रं कवयो वदन्ति यद् द्वयक्षरं नाम रघूद्वहस्या । अस्मत् प्रभोरस्य महामहिम्नो मनुष्यलिहस्य परस्य पुंसः ॥ ९५९॥ महामहिमामय मनुष्यरूप परात्परपुरुष हमारे स्वामी रघुवन्श भूषण श्रीरामचन्द्र जी के ``श्रीराम'' इन दोनों अक्षरों को विद्वान् लोग मन्त्र कहते हैं । तदेव सम्यग् विलिखोरुबुद्धे प्रत्यद्रिपाषाणशिलासु तावत् । भवाम्बुधिं येन जनास्तरन्ति किं तारणं दुष्करमस्य तेषाम् ॥ ९६०॥ हे महान् बुद्धि नल ! उसी श्रीरामनाम को प्रत्येक पाषाण शिलाओं पर सम्यक् लिखो । जिस श्रीरामनाम के माध्यम से मनुष्य भवसागर को पार कर जाते हैं फिर उसी नाम के सहारे पत्थरों के लिए इस समुद्र पर तैरना कौन दुष्कर कार्य है । ग्रावाङ्गणेभ्योऽपि जनस्य पापान्यतीव सारेण समाकुलानि । लघुक्रियन्ते मनुजा यदेतैर्भृशं विलुप्तैरिह तन्न चित्रम् ॥ ९६१॥ हे मनुष्यों ! मनुष्यों के पाषाण से भी भारी एवं अति विशाल पाप जो जीव को व्याकुल कर देते हैं वे भी श्रीरामनाम के उच्चारण से तुच्छ हो जाते हैं, अतः श्रीरामनाम में कुछ भी आश्चर्य नहीं है । नल उवाच - नल ने कहा - साधु भो साधु हनुमन् भवान् यदुपदिष्टवान् । जपन् सन्तारणं नाम रामस्य करुणानिधेः ॥ ९६२॥ हे हनुमान् जी ! आपने जो उपदेश दिया वह साधु है साधु है, करुणानिधि भगवान् श्रीराम का नाम जप करने वाले को सम्यक् तारने वाला है । सत्यमेतत्प्रभुरयं नराकारो नरोत्तमः । कोऽस्य स्वरूपं जानीयात्त्वामृते विदुषां वर ॥ ९६३॥ हे विद्वद्वरिष्ठ ! आपके अलावा श्रीरामजी के स्वरूप को और कौन जान सकता है ? वास्तव में यही सत्य है कि ये नर रूप में पुरुषोत्तम ही हैं । भूयस्त्वां परिपृच्छामि कृपाते मयि मारुते । क्षमस्व तन् ममात्यन्तं बहुधा मूढ़चेतसः ॥ ९६४॥ हे पवन पुत्र ! मैं पुनः पुनः आपसे पूछता हूँ क्योङ्कि आपकी कृपा मुझ पर है, विमूढ़चित्त मेरे अपराध को क्षमा करें । भवस्याम्भोनिधेश्चापि त्वया पारः प्रदर्शितः । विस्तरेण पुनर्ब्रूहि रामनाम्नोऽस्य वैभवम् ॥ ९६५॥ आपने भवसागर एवं इस समुद्र के भी पार जाने का मार्ग दिखा दिया है अतः अब आप पुनः विस्तार के साथ श्रीरामनाम के वैभव का वर्णन करें । श‍ृण्वन् स्मरन् प्रभोर्नाम माहात्म्यमिदमद्भुतम् । न तृप्यमि मरुत्सूनो कथयस्व ततो मम ॥ ९६६॥ हे पवनतनय ! परम प्रभु श्रीरामजी के श्रीरामनाम के इस अद्भुत माहात्म्य को सुनकर एवं स्मरण करके मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ अतः आप पुनः मेरे लिए कहें । श्रीहनुमानुवाच - श्रीहनुमान् जी बोले - श्रूयतां सावधानेन रामनामबलं त्वया । यच्छ्रुत्वा सर्वपापेभ्यो मुच्यते नात्र संशयः ॥ ९६७॥ हे नल ! तुम सावधान होकर श्रीरामनाम के बल को सुनो । जिसके श्रवण करने पर मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है इसमें संशय नहीं है । एकतः सकला मन्त्रा एकतो ज्ञानकोटयः । एकतो रामनाम स्यात्तदपि स्यान्न वै समम् ॥ ९६८॥ सम्पूर्ण मन्त्र, तन्त्र, ज्ञान, ध्यानादि एक ओर और श्रीरामनाम एक ओर फिर भी श्रीरामनाम से वे सब सम नहीं है श्रीरामनाम ही सर्वश्रेष्ठ हैं । देशकालक्रियाज्ञानादनपेक्ष्यं स्वरूपतः । अनन्तकोटिफलदं नाममन्त्रं जगत्पते ॥ ९६९॥ जगत्पति भगवान् श्रीरामजी के नाम में स्वरूपतः देश, काल, कर्मकाण्ड एवं ज्ञानादि की अपेक्षा नहीं है उच्चारण मात्र से अनन्त कोटि फल देने वाला है । गङ्गास्नानसहस्रेण यज्ञान्तस्नानकोटिभिः । या न सिद्धिर्भवेज्जातु सा रामेतिप्रकीर्त्तनात् ॥ ९७०॥ श्रीगङ्गाजी में हजारों बार स्नान करने से एवं यज्ञान्त में अवभृथ करने से जो सिद्धि नहीं प्राप्त होती है वह सिद्धि श्रीरामनाम के सङ्कीर्तन से प्राप्त हो जाती है । अन्यदेव फलं ज्ञाने श्रवणे वान्यदेव तत् । कीर्तने चान्यदेवस्य ह्यन्यदा वर्तते फलम् ॥ ९७१॥ श्रीरामनाम के ज्ञान होने पर दूसरा फल, श्रवण करने पर दूसरा फल एवं श्रीरामनाम के कीर्तन करने पर दूसरा ही फल प्राप्त होता है । ये जानन्ति जनास्तत्त्वं रामनाम्नो महद् यशः । न ते दुष्कृतसन्दोहैर्लिप्यन्ते जन्मकोटिभिः ॥ ९७२॥ जो लोग श्रीरामनाम के महायशस्वी तत्व को जानते हैं वे लोग अनन्त जन्मों तक पाप समूह से लिप्त नहीं होते हैं । शिव एवास्य जानाति सरहस्यं स्वरूपकम । उपदिश्य सकृज्जीवान् यस्तारयति मोहतः ॥ ९७३॥ वास्तव में श्रीरामनाम के रहस्य एवं स्वरूप को भगवान् शङ्कर ही जानते हैं जो जीवों को एक बार श्रीरामनाम का उपदेश करके मोहरूपी भवसागर से पार करते हैं । अन्यदाराधनशतैर्मन्त्रं फलति नाथवा । गृहीतमात्रफलदं रामनाम स्वरूपतः ॥ ९७४॥ दूसरे हजारों आराधनाओं से मन्त्र फलित होता है कि नहीं, पर श्रीरामनाम के ग्रहण मात्र से फल प्राप्त होता है । न शौचनियमाद्यत्र न सिद्धारिविचारणम् । कल्पवृक्षस्वरूपत्वाज्जनानां रामनामकम् ॥ ९७५॥ श्रीरामनाम के जप करने में शौच नियमादि एवं सिद्धि शत्रु आदि का विचार नहीं होता है क्योङ्कि साधकों के लिए श्रीरामनाम कल्पवृक्ष है । सकृज्जप्तं धुनोत्याशु पापमाजन्मसम्भवम् । द्विरावृत्या पुनर्जप्तं कोटियज्ञफलप्रदम् ॥ ९७६॥ एक बार जप करने पर श्रीरामनाम जन्म से लेकर वर्तमान के सारे पापों को शीघ्र ही नष्ट कर देता है दो बार जप करने पर अनन्त यज्ञों का फल प्राप्त होता है । त्रिरावृत्या पुनर्जप्तं स्वरूपस्थं करोत्यमुम् । चतुरावृत्तिजप्तत्वादृणीभवति राघवः ॥ ९७७॥ तीन बार जप करने पर साधक को स्व स्वरूप में स्थित कर देता है एवं चार बार जप करने पर रामजी ऋणी हो जाते है । चिन्तामणिः कल्पतरुः कामधेनुश्च वै नृणाम् । अनल्पफलसन्दोहभवनं रामनाम वै ॥ ९७८॥ चिन्तामणि, कल्पवृक्ष एवं कामधेनु मनुष्यों को जितना फल प्रदान करते हैं उनसे भी अत्यधिक फल समूह का भवन श्रीरामनाम है । नास्य रूपं विजानन्ति ब्रह्माद्या देवता अपि । वाग्वल्ली बीजमेतद्वै रामनाम जगत्पतेः ॥ ९७९॥ श्रीरामनाम के यथार्थ स्वरूप को ब्रह्मादि देवता भी नहीं जानते हैं सम्पूर्ण शब्द ब्रह्मरूपलता का मूल बीज जगत्पति श्रीरामजी का नाम है । अमृतस्याकरं विद्यादेतदेव महोर्जितम् । सर्वलोकमहामोहतिमिरौघनिवारणम् ॥ ९८०॥ श्रीरामनाम को ही महातेजस्वी, अमृत की खान एवं सम्पूर्ण लोक के महामोहरूपी अन्धकार प्रवाह का निवारक समझना चाहिए । अनन्तकोटिसूर्येन्दुवह्निदीधितिदीप्तिमत् । बाह्यान्तरसुसञ्छन्नं तमोवृन्दनिरासकम् ॥ ९८१॥ ज्ञानधारामृतरसैरात्मनः स्नपनंस्फुटम् । हृत्पद्मभवने नित्यं दीप्तिकृद्दीपकोपमम् ॥ ९८२॥ सर्व वेदान्तविद्यानां सारमेतदुदीरितम् । रामनामाखिलाज्ञानरजनीहरभास्करम् ॥ ९८३॥ पुरा कृतयुगे केचित् जनाः सुकृतिनो नल । सरहस्यं रामनाम सकृदास्वाद्य सद्गुरुम् ॥ ९८४॥ भित्वाऽज्ञानतमोराशिं कृत्वा स्वात्मप्रकाशनम् । परे ब्रह्मणि संलीनाः सिद्धिं प्राप्ता विना श्रमम् ॥ ९८५॥ अनन्त सूर्य चन्द्र एवं अग्नि की किरणों के समान दीप्तिमान् बाहर एवं भीतर के आवरणरूप अन्धकार का नाशक, विज्ञानधारारूप अमृत रसों के द्वारा आत्मा का स्नान कराने वाला, हृदय कमल रूपी भवन में दीपक जैसे प्रकाश करने वाले, समस्त वेदान्त विद्या का सारसर्वस्व और सम्पूर्ण अज्ञानरूपी रात्रि का हरण करने वाला सूर्य, श्रीरामनाम को कहा गया है । हे नल! बहुत पहले सत्युग में कुछ सुकृती लोग सद्गुरु स्वरूप श्रीरामनाम का एक बार आस्वादन करके अज्ञानरूप अन्धकार समूह का नाश करके, अपने आत्मस्वरूप का प्रकाश करके बिना परिश्रम के ही परात्पर ब्रह्म श्रीरामजी में संलीन होकर सिद्धि को प्राप्त कर लिये । अपरं साधनानीह बभूवुः कोटिशो नृणाम् । मुनीनां मतभेदेन येष्वायासो महान् भवेत् ॥ ९८६॥ मुनियों के मतभेद से यहाँ मनुष्यों के कल्याणार्थ अनन्त साधन हैं जिनमें परिश्रम बहुत है । ध्यानतो रामचन्द्रस्य रामचन्द्रस्य भक्तितः । रामचन्द्रस्य यजनान्नाम्ना रामस्य मुच्यते ॥ ९८७॥ भगवान श्रीराम के ध्यान, भक्ति एवं यजन तथा नाम से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है । रामैव यस्य बहिरन्तर्पापकोटिनिर्वासनैककरणं शरणं जनानाम् । कस्तस्य कोशलपुराधिपराजसूनोरन्यावतारनिवहस्तुलने प्रयातु ॥ ९८८॥ जिन भगवान् श्रीराम का नाम जीवमात्र के बाहर भीतर के अनन्त पापों का एकमात्र नाशक एवं साधक लोगों का रक्षक है । उन कोशलेन्द्रनन्दन भगवान् श्रीराम की तुलना अन्य अवतार समूह कैसे कर सकते है । यावन्ति नामानि रघूत्तमस्य तेषामिदं मुख्यतमं प्रदिष्टम् । यज्ज्ञानमात्रेण विमुक्तबन्धः स्वरूपनिष्ठां लभतेऽधमोऽपि ॥ ९८९॥ श्रीरघुवंशभूषण भगवान् श्रीराम के जितने नाम हैं उन सबमें यह श्रीरामनाम अत्यन्त मुख्य कहा गया है जिसके ज्ञानमात्र से अधम भी बन्धन मुक्त होकर स्वरूप रूप में निष्ठा को प्राप्त कर लेता है । अज्ञानेन्धननिर्दाहो ज्ञानदीपप्रदीपनम् । एतदेवमतं नाम्नि रामेति द्वयक्षरात्मके ॥ ९९०॥ अक्षर द्वय स्वरूप श्रीरामनाम में यही महान् गुण माना गया है कि अज्ञानरूपी काष्ठ का नाश एवं ज्ञानरूपी दीप का प्रकाश । जिह्वाग्रे यस्य लिखितं रामेति द्वयक्षर परम् । कथं स्पृशन्ति तं दूताः यमस्य क्रोधभीषणा ॥ ९९१॥ जिसकी जीभ पर ``श्रीराम'' ऐसा परात्पर अक्षरद्वय लिखा हो उस भक्त का क्रोध से भयङ्कर दीखने वाले यमदूत कैसे स्पर्श कर सकते हैं । रामनामाङ्किता मुद्रा प्रत्यङ्गं येन वै धृतः । आबद्धं तेन कवचं मोहशत्रुचमूजये ॥ ९९२॥ श्रीरामनाम से अङ्कित मुद्रा जो अपने प्रत्येक अङ्ग में धारण करते हैं मानो उन साधकों ने अपने मोहरूपी शत्रु सेना पर विजय पाने के लिए कवच धारण कर लिया हो । जाग्रंस्तिष्ठन् स्वपन् क्रीडन् विहरन्नाहरन्नपि । उन्मिषन् निमिषंश्चैव रामनाम सदा जपेत् ॥ ९९३॥ जागते, बैठते, सोते, खेलते, विहार करते, आहार लेते, आँख खोलते एवं नेत्र बन्द करते समय सदा श्रीरामनाम का जप करना चाहिए । पापं कृत्स्नं विधूयाशु मुक्तभारः स मानुषः । अनायासेन मोहाख्यं सिन्धुं तरति दुस्तरम् ॥ ९९४॥ श्रीरामनाम का जापक वह मनुष्य अपने सम्पूर्ण पापों का शीघ्र ही विनाश करके बिना परिश्रम ही मोहरूपी दुस्तर भवसागर को पार कर जाता है । प्रारब्धकर्मापहृतिप्रवीणं रामेति नामैव बुधैर्निरुक्तम् । यज्ज्ञानमात्रादधमा किराती मुनीन्द्रवृन्दैरभवन्नमस्या ॥ ९९५॥ विद्वानों ने प्रारब्ध कर्म के नाश करने में परम चतुर श्रीरामनाम को ही कहा है । जिसके ज्ञान मात्र से ही अधम किराती भी मुनिश्रेष्ठों से पूज्या एवं प्रणम्या हो गयी । कस्तेन तुल्यः सुकृती भवेऽस्मिन् कस्तेन तुल्यश्च सदाप्रकाशः । कस्तेन तुल्यश्च विशोकमोहो यो नाम रामेति जपेदजस्रम् ॥ ९९६॥ जो निरन्तर श्रीरामनाम का जप करता है उसके समान पुण्यात्मा, सदा सर्वदा प्रकाश स्वरूप एवं शोक मोह से रहित दूसरा कौन है । अर्थात् कोई नहीं । एतन् मया सम्परिपृच्छ्यते ते भूयः प्रदिष्टं परमं रहस्यम् । हृदावधार्य स्वयमेव विद्धि वाच्यं भजित्वा सति नो परस्मिन् ॥ ९९७॥ तुम्हारे सम्यक् पूछने पर मैंने यह परम रहस्य पुनः कहा है इस दिव्य रहस्य को हृदय में धारण करके स्वयं भजन करके अनुभव करो । किसी दूसरे के लिए इसे न कहना, तात्पर्य है कि यदि कोई अपना हो नामानुरागी एवं अधिकारी हो तो कहना अन्यथा नहीं । श्रीमन् महारामायणे श्रीपार्वतीवाक्यं श्रीशङ्करं प्रति - श्रीमहारामायण में श्रीपार्वतीजी का वाक्य श्रीशङ्कर जी के प्रति - मुहुर्मुहुस्त्वया प्रोक्तं रामनाम परात्परम् । तदर्थं ब्रूहि भो स्वामिन् कृत्वा मह्यं दयां हृदि ॥ ९९८॥ हे स्वामिन् ! आपने परात्पर श्रीरामनाम को बारम्बार कहा है अब हृदय में दयाभाव को भरकर मेरे लिए श्रीरामनाम के अर्थ को कहिए । श्रीशिव उवाच - श्रीशिवजी ने कहा - त्वमेव जगतां मध्ये धन्या धन्यतरा प्रिये । पृष्टं त्वया महत्तत्वं रामनामार्थमुत्तमम् ॥ ९९९॥ हे प्रिये पार्वति ! इस संसार में वास्तव में तुम्हीं धन्य एवं धन्यतर हो, क्योङ्कि तुमने महत्त्व स्वरूप उत्तम श्रीरामानाम के विषय में पूछा है । वेदास्सर्वे च शास्त्राणि मुनयो निर्जरर्षभाः । नाम्नः प्रभावमत्युग्रं ते न जानन्ति सुव्रते ॥ १०००॥ हे सुन्दर व्रत करने वाली पार्वति ! सम्पूर्ण वेद, शास्त्र मुनि और श्रेष्ठ देवता, वे सब भी श्रीरामनाम के अत्युग्र प्रभाव को नहीं जानते हैं । राम एवाभिजानाति कृत्स्नं नामार्थमद्भुतम् । ईषद् वदामि नामार्थं देवि तस्यानुकम्पया ॥ १००१॥ हे देवि ! श्रीरामनाम के अद्भुत अर्थ को साकल्येन (सम्पूर्णतया) श्रीरामजी ही जानते हैं उन्हीं की कृपा से मैं यत्किञ्चित् नामार्थ कह रहा हूँ । कोटिकन्दर्पशोभाढ्ये सर्वाभरणभूषिते । रम्यरूपार्णवे रामे रमन्ते सनकादयः ॥ १००२॥ अत एव रमुक्रीडा रामनाम्नः प्रवर्तते । रमन्ते मुनयः सर्वे नित्यं यस्याङ्घ्रिपङ्कजे ॥ १००३॥ अनेकसखिभिः साकं रमते रासमण्डले । अतएव रमुक्रीडा रामनाम्ना प्रवर्तते ॥ १००४॥ करोड़ों कामदेवों की शोभा से युक्त सभी आभूषणों से सुसज्जित एवं रमणीय रूपसमुद्र भगवान श्रीसीतारामजी में सनकादि महर्षि रमण करते हैं, इसीलिए रामनाम में रमुक्रीडायां धातु है । सभी ऋषि मुनि जिसके चरण कमलों में नित्य रमण करते हैं अथवा अपनी अनेक सहचारियों के साथ जो नित्य रासमण्डल में रमण करते हैं उन्हें राम कहते हैं । इसीलिए राम नाम में रमुक्रीडा धातु की प्रवृत्ति होती है । ब्रह्मज्ञाननिमम्नो यो जनको योगिनां वरः । हित्वा तद्रमते रामे रमुक्रीडा ततोऽनघे ॥ १००५॥ हे निष्पाप पार्वति ! योगियों में श्रेष्ठ, ब्रह्मज्ञान में नित्य निमग्न जो जनकजी हैं वे भी उस ब्रह्मानन्द को छोड़कर श्रीरामजी में ही रमण करते हैं इसीलिए राम शब्द में रमुक्रीडा धातु है । आबालतो विरक्तो यो जामदग्न्यो हरिःस्मृतः । स एव रमते रामे रमुक्रीडा ततोऽनघे ॥ १००६॥ हे निष्पापे ! जो बाल्यावस्था से ही विरक्त थे और जो ``हरि'' के अवतार कहे जाते हैं वे जमदग्नि पुत्र परशुरामजी भी श्रीरामजी में रमण करते हैं अतः रमुक्रीडा है । सप्तद्वीपाधिपास्सर्वे साधवोऽसाधवोऽपि वा । विदेहकुलसम्भूता ये च सर्वे नृपोत्तमाः ॥ १००७॥ रामरूपहृता भूत्वा रमितास्तैर्निजा निजाः । दत्तात्मजा रमुक्रीडा रामस्यैव इति श्रुतिः ॥ १००८॥ सप्तद्वीपाधीश सभी सज्जन अथवा असज्जन और श्रीजनकजी के वंश में समुत्पन्न श्रेष्ठ राजा जो थे वे सभी राजा लोग श्रीरामजी का दर्शन करके श्रीरामजी के रूप से आकृष्ट होकर अपनी-अपनी कन्याओं को रामजी के चरणों में समर्पित कर दिया अर्थात् विवाह कर दिया इसीलिए वेद रामनाम में रमुक्रीडा धातु बताते हैं । चित्रकूटमनुप्राप्य पितुर्वचनगौरवात् । रम्यमावसथं कृत्वा रममाणा वने त्रयः ॥ १००९॥ श्रीपिताजी के वचन के गौरवार्थ वन यात्रा के समय श्रीचित्रकूट को सम्यक् रूप से प्राप्त कर सुन्दर पर्णकुटी बनाकर श्रीसीताजी, श्रीलक्ष्मणजी और श्रीरामजी तीनों ने वन में खूब रमण किया । देवगन्धर्वसङ्काशास्तत्र ते न्यवसन् सुखम् । अतोऽस्य रामनाम्नो वै रमुक्रीडा प्रवर्तते ॥ १०१०॥ देवताओं और गन्धर्वों के समान वे सब वहाँ सुखपूर्वक निवास किये, इसीलिए इस नाम में रमुक्रीडा धातु है । राक्षसी घोररूपा या दुष्टत्वं कर्तुमागता । साप्यासीद्रमिता रामे पतिवत् काममोहिता ॥ १०११॥ जो राक्षसी एवं घोररूपा थी और जो दुष्टता करने आयी थी वह शूपर्णखा भी श्रीरामजी को देखकर काम मोहित हो गयी और पति की तरह रामजी में रमण करने लगी । चतुर्दशसहस्राश्च राक्षसाः खरदूषणा । मोहिता रामसद्रूपे रमुक्रीडात उच्यते ॥ १०१२॥ चौदह हजार राक्षसों के साथ खरदूषण आदि भी श्रीरामजी को देखकर श्रीरामजी के रूप पर मोहित हो गये इसलिए रामनाम में रमुक्रीडा धातु कहा जाता है । नाना मुनिगणा सर्वे दण्डकारण्यवासिनः । ज्ञानयोगतपोनिष्ठा जापका ध्यानतत्पराः ॥ १०१३॥ मुनिवेशधरं रामं नीलजीमूतसन्निभम् । रमन्ते योषितीभूता रूपं दृष्ट्वा महर्षयः ॥ १०१४॥ अनेक प्रकार के दण्डकारण्य के ऋषि महर्षि लोग जो ज्ञानयोग एवं तपोनिष्ठ जापक तथा ध्यान परायण थे । वे महर्षि लोग भी नील मेघ के समान कान्ति वाले मुनि वेषधारी श्रीरामजी को देखकर काम मोहित से होकर अपने में स्त्रीभाव को स्वीकार करके रामजी में रमण करने लगे । ईषद्धास्ये कृते रामे दृष्ट्वा तेषामिमां गतिम् । यूयं धन्यतरा ज्ञानं मत्प्रसन्ने हि साम्प्रतम् ॥ १०१५॥ उन महात्माओं की उस स्थिति को देखकर श्रीरामजी थोड़ा मुस्कराये और कहा हे महर्षियों ! आप लोग अत्यन्त धन्य हैं मेरी प्रसन्नता होने पर ही ऐसा दिव्यज्ञान प्राप्त होता है । मन्निदेशात् तपो यूयं चरध्वम्भो महर्षयः । ईप्सितास्ते भविष्यन्ति द्वापरे वर्तते युगे ॥ १०१६॥ हे महर्षियों ! मेरी आज्ञा से आप लोग यहीं इस श‍ृङ्गार भाव से तपस्या करें, द्वापर युग के आने पर आप लोगों के अभीष्ट की सिद्धि होगी । अजरामरतनुं त्यक्त्वा रामाल्लब्धं विलोक्य सः । राम एवारमद्वाली रमुक्रीडात उच्यते ॥ १०१७॥ श्रीरामजी से प्राप्त अजर एवं अमर शरीर को त्यागकर बाली श्रीरामजी का दर्शन करके श्रीरामजी में ही रमण करने लगा इसीलिए रमुक्रीडा धातु है । यतोऽयं रमते रामे सदैव पवनात्मजः । दग्ध्वा लङ्कां ततः सीतां वीक्ष्यायातः सुखेन सः ॥ १०१८॥ श्रीपवनपुत्र श्रीहनुमानजी सदासर्वदा श्रीरामजी में ही रमण करते हैं इसीलिए श्रीसीताजी का दर्शन करके और लङ्का को जलाकर भी सुखपूर्वक लौट आये । रमिता रामसद्रूपे राक्षसा रावणादयः । राम रामाहवेत्युक्त्वा राममेवाभिसङ्गताः ॥ १०१९॥ रावणादि राक्षस श्रीरामजी के सुन्दर रूप में रमण करते हुए ``राम'' ``राम'' ऐसा युद्ध में कहते हुए श्रीरामजी को ही प्राप्त हो गये । परधाम्नि गते रामेऽयोध्यायां ये चराचराः । रामेऽभिरमिता भूत्वा तत्साकं जम्मुरेव हि ॥ १०२०॥ रामनाम्नो विशेषेण रमुक्रीडात उच्यते । हेतुरन्यद् रमुक्रीडां श‍ृणु त्वं सावधानतः ॥ १०२१॥ श्रीरामजी के परात्पर धाम साकेत जाते समय अयोध्या में जितने चर अचर प्राणी थे वे सब श्रीरामजी में सम्यक् रमण करते हुए उन्हीं के साथ साकेत चले गये । श्रीरामनाम में विशेष रूप से रमुक्रीडा कहा जाता है हे पार्वति ! अब तुम सावधान होकर दूसरा कारण सुनो । वाच्यवाचकरामस्य कथितौ रूपनामनी । रामनाम परं ब्रह्म रमिता यच्चराचरे ॥ १०२२॥ हे पार्वति ! श्रीरामनाम वाचक एवं श्रीरामजी वाच्य कहे गये हैं श्रीरामनाम परब्रह्मस्वरूप है चर एवं अचर सभी में रमण करता है । रमन्ते मुनयो यस्मिन् योगिनश्चोद्ध्र्वरेतसः । अतो देवि रमुक्रीडा रामनाम्नैव वर्तते ॥ १०२३॥ पोषणं भरणाधारं रामनाम्नो जगत्सु च । अत एव रमुक्रीडा परब्रह्माभिधीयते ॥ १०२४॥ बड़े-बड़े ऊर्ध्वरेता मुनि भी जिसमें रमण करते हैं हे देवि! इसीलिए श्रीरामनाम में रमुक्रीडा धातु है । सम्पूर्ण लोकों में जीवमात्र का भरण, पोषण एवं आश्रय श्रीसीतारामजी हैं इसीलिए श्रीरामनाम से रमुक्रीडा एवं परब्रह्म कहा जाता है । अंशांशै रामनाम्नश्च त्रयः सिद्धा भवन्ति हि । बीजमोङ्कारसोऽहं च सूत्रमुक्तमिति श्रुतिः ॥ १०२५॥ श्रीरामनाम के अंश के अंशों से ही तीन की सिद्धि होती है सभी मन्त्रों का बीज मन्त्र ``रां'' , ``ओं'' एवं सोऽहं इसको शिवसूत्र पाणिनि व्याकरण से समझना चाहिए । श्रीपार्वत्युवाच - श्रीपार्वतीजी ने कहा - कथमेतद्विजानामि संसिद्धा रामनामतः । बीजमोङ्कारसोऽहं च सूत्रमुक्तमिति श्रुतिः ॥ १०२६॥ हे भगवन् ! रां बीज, ओम्, सोऽहं ये तीनों श्रीरामनाम से उत्पन्न होते हैं यह मैं कैसे समझूं श्रीशिव उवाच । श्रीशिवजी ने कहा - निश्चलं मानसं कृत्वा सावधानाच्छृणु प्रिये । गुह्याद् गुह्यतमं तत्त्वं वक्ष्येऽमृतमयं मुदा ॥ १०२७॥ हे प्रिये ! अपने मन को स्थिर करके सावधान होकर सुनो, मैं प्रसन्नतापूर्वक गोपनीय से भी अत्यन्त गोप्य अमृतमय तत्व को कहूँगा । रामनाम महाविद्ये! षड्भिर्वस्तुभिरावृतम् । ब्रह्मजीवमहानादैस्त्रिभिरन्यद्वदामि ते ॥ १०२८॥ हे महाविद्यास्वरूपे पार्वति ! श्रीरामनाम छः वस्तुओं से आवृत्त है । ब्रह्म, जीव एवं महानाद एवं और दूसरे तत्त्वों को तुम्हारे लिए कहता हूँ । स्वरेण विन्दुना चैव दिव्यया माययापि च । पृथक्त्त्वेन विभागेन साम्प्रतं श‍ृणु पार्वति ॥ १०२९॥ स्वर, बिन्दु एवं दिव्य माया, हे पार्वति ! अब सभी तत्त्वों को अलग-अलग समझो । परब्रह्ममयो रेफो जीवोऽकारश्च मश्च यः । रस्याकारो महानादो राया दीर्घस्वरात्मिका ॥ १०३०॥ रेफ ``र्'' पब्रह्मस्वरूप श्रीसीतारामजी हैं, म का जो ``अ'' है समस्त जीव है । ``र'' का जो अ है वह महानाद है । दस प्रकार के नादों का कारण है । ``रा'' में जो ``आ'' है वह स्वर मात्र का कारण है । मकारो व्यञ्जनं बिन्दुर्हेतुः प्रणवमाययोः । अर्धभागादुकार स्यादकारान्नादरूपिणः ॥ १०३१॥ ``म्'' बिन्दुस्वरूप है और ॐ तथा माया का कारण है । श्रीरामनाम से ॐ की निष्पत्ति प्रकार बता रहे हैं । रकार में महानादस्वरूप जो ``अ'' है उसको ``उ'' आदेश कर दिया । रकारगुरुराकार तथा वर्णीवपर्ययः । मकारव्यञ्जनं चैव प्रणवं चाभिधीयते ॥ १०३२॥ ``र'' ``आ'' में वर्ण विपर्यय कर दिया तो ``आ'' ``उ'' ``म्'' हुआ सन्धिकार्य ॐ सिद्ध हो गया । मस्यासवर्णितं मत्वा प्रणवे नादरूपधृक् । अन्तर्भूतो भवेद्रेफः प्रणवे सिद्धिरूपिणी ॥ १०३३॥ ``म'' के अकार को वर्ण विपर्यय करके र् आ अ ं होने पर ``आ अ'' में सवर्ण दीर्घ हो गया ``ओं'' में ``म'' का ``अ'' नादरूप है । एवं र् को ``उ'' हो गया वह ॐ में अन्तर्भूत है । रामनाम्नः समुत्पन्नः प्रणवो मोक्षदायकः । रूपं तत्त्वमसेश्चासौ वेदत्तत्त्वाधिकारिणः ॥ १०३४॥ श्रीरामनाम से समुत्पन्न ``ओं'' मोक्ष प्रदाता है एवं ``तत्त्वमसि'' इत्यादि महावाक्य भी श्रीरामनाम से ही उत्पन्न होते हैं । तात्पर्य यह है कि जब सम्पूर्ण वाङ्मय श्रीरामनाम से उत्पन्न हुए हैं तब ``ओं'' एवं तत्त्वमसि आदि महावाक्य भी श्रीरामनाम से ही उत्पन्न होना चाहिए । अतः श्रीरामनाम से ``ओं'' की निष्पत्ति प्रक्रिया दिखाया - ``र अ अ ं अ'' यह वर्ण विच्छेद है इसका विपर्यय-अ अ र् अं यह वर्ण विपर्यय है । यहां ``अतोरोरप्लुतादप्लुते'' (६।१।११३) सूत्र से ``र्'' को ``उ'' हो गया अ अ उ अं फिर अ अ में सवर्ण दीर्घ आ उ अ ं हुआ फिर ``आद् गुण'' सूत्र गुण हो गया ओ अं हुआ, फिर ``एङः पदान्तादति'' सूत्र से पूर्वरूप हुआ ॐ सिद्ध हो गया । अकारः प्रणवे सत्त्वमुकारश्च रजोगुणः । तमोहलमकारस्स्यात् त्रयोऽहङ्कारमुद्भवः ॥ १०३५॥ प्रणव ॐ में ``अ'' सन्तोगुण, ``उ'' रजोगुण और ``म्'' तमोगुण है इन तीनों वर्गों में क्रमशः सात्विक, राजस एवं तामस अहङ्कार की उत्पत्ति होती है । चराचरसमुत्पन्नो गुणत्रयविभागतः । अतः प्रिये रमुक्रीडा रामनाम्नैव वर्तते ॥ १०३६॥ एवं तीनों गुणों से युक्त चराचर भी उत्पन्न हुआ है हे प्रिये! इसीलिए रामनाम में रमुक्रीडायां धातु है । यथा च प्रणवो ज्ञेयो श्रीजं तद्वर्ण सम्भवम् । स शब्देन हकारेण सोऽहमुक्तं तथैव च ॥ १०३७॥ जैसे श्रीरामनाम से ॐ की निष्पत्ति हुई उसी प्रकार बीजमन्त्र ``रां'' की भी निष्पत्ति समझनी चाहिए । अर्थात् र् अ अ ं अ यहां ं के उत्तरवर्ती ``अ'' का लोप कर दिया तो ``रां'' यह बीज बन गया । एवं सोऽहं की निष्पत्ति भी समझनी चाहिए यथा र अ अ ं अ यहां वर्णविपर्यय किया अ अ र् अ ं हुआ, ``अतोरोप्लुतादप्लुप्ते'' सूत्र से र् को उ हुआ, ``अकः सवर्णे दीर्घः'' सूत्र से दीर्घ हुआ, आद् गुण से ``एङःपदान्तादति'' से पूर्व रूप हुआ ॐ हुआ यहाँ ओ को सुट् आगम एवं ं को अहत् आगम हुआ टित् होने से आद्यवयव हुआ स् ओ अहं वर्ण सम्मेलन सो अहं फिर ``एङः पदान्तादति'' से पूर्वरूप सोऽहं सिद्ध हो गया । इत्यादयो महामन्त्रा वर्तन्ते सप्त कोटयः । आत्मा तेषां च सर्वेषां रामनाम्ना प्रकाशते ॥ १०३८॥ ॐ बीजमन्त्र सोऽहं इत्यादि सात करोड़ महामन्त्र हैं उन सभी मन्त्रों की आत्मा श्रीरामनाम से प्रकाशित होती है । अतः प्रिये रमुक्रीडा तेषामर्थे प्रवर्तते । सनकाद्या फणीशाद्या रामनाम भजन्त्यतः ॥ १०३९॥ हे प्रिये ! उन्हीं के अर्थों में रमुक्रीडा की प्रवृत्ति है इसलिए सनकादि एवं शेषादि श्रीरामनाम का भजन करते हैं । रामनामगुणैश्वर्यं सङ्क्षेपेण प्रभाषितम् । रूपमेव प्रतापं च रामनाम्नो वदामि ते ॥ १०४०॥ हे पार्वति ! श्रीरामनाम के गुण और ऐश्वर्य का सङ्क्षेप से वर्णन किया अब तुम्हारे लिए श्रीरामनाम का स्वरूप एवं प्रताप कह रहा हूँ । श‍ृणुष्व परमं गुह्यं यन्न जानन्ति केऽपि च । केऽपि केऽपि विजानन्ति रामानुक्रोशयैव च ॥ १०४१॥ पार्वति ! जिसको कोई भी नहीं जानता है और श्रीरामजी की कृपा से कोई-कोई जानते हैं उस परम गुह्य रहस्य को तुम सुनो । तेजोरूपमयो रेफः श्रीरामाम्बककञ्जयो । कोटिसूर्यप्रतीकाशः परं ब्रह्म स उच्यते ॥ १०४२॥ श्रीरामनाम के परमतेजःस्वरूप रेफ भगवान् श्रीराम के युगलनयन कमल का वाचक है करोड़ों सूर्यों की कान्ति से युक्त है वही परब्रह्म कहा जाता है । सोऽपि सर्वेषु भूतेषु सहस्रारे प्रतिष्ठितः । सर्वसाक्षी जगद्व्यापी नित्यं ध्यायन्ति योगिनः ॥ १०४३॥ वह भी समस्त प्राणियों के सहस्रार में स्थित है जो सबका साक्षी एवं जगद् में व्याप्त है योगी लोग जिसका नित्य ध्यान करते हैं । रामस्य मण्डलस्यैव तेजोरूपं वरानने । कोटिकन्दर्पशोभाढ्यो रेफाकारो हि विद्धि च ॥ १०४४॥ हे सुमुखि ! श्रीरामनाम का रेफ के ठीक उत्तर ``अ'' है वह भगवान् श्रीराम के परम तेजोमय करोड़ों कामदेवों की शोभा से युक्त मुखमण्डल का बोधक है, ऐसा समझो । अकारस्सोऽपि रूपश्च वासुदेवस्स कथ्यते । मध्याकारो महारूपः श्रीरामस्येव वक्षसः ॥ १०४५॥ सोऽप्याकारो महाविष्णोर्बलवीर्यस्वरूपकः । सर्वेषामेव भूतानामाधारस्त्वं च विद्धि सः ॥ १०४६॥ और वही ``अ'' भगवान् वासुदेव का भी वाचक है । श्रीरामनाम का जो मध्यम अकार है वह महापराक्रम पुञ्ज श्रीरामजी के वक्षस्थल का बोधक है, बल एवं वीर्यस्वरूप महाविष्णु का भी वह बोधक है एवं समस्त भूतों का आधार उसे जानो । अस्याकारो भवेद् रूप श्रीरामकटिजानुनी । सोऽप्याकारो महाशम्भुरुच्यते यो जगद्गुरुः ॥ १०४७॥ श्रीरामनाम के ं के उत्तरवर्ती जो ``अ'' है वह श्रीरामजी के कटि और जङ्घा का वाचक है और जगद्गुरु महाशम्भु का भी बोधक है । इच्छाभूतं च रामस्य मकारं व्यञ्जनं च यत् । सा मूलप्रकृतिर्ज्ञेया महामायास्वरूपिणी ॥ १०४८॥ भाषितेयं रमुक्रीडा गुह्याद् गुह्यतरा परा । अन्यम्प्रकरणं वक्ष्ये त्वत्तोऽहं चारुलोचने ॥ १०४९॥ श्रीरामनाम का जो ``म्'' है वह महा आश्चर्यभूता भगवान् की इच्छा है वही मूल प्रकृति एवं महामाया है । हे सुलोचने ! यह रमुक्रीडा जो अत्यन्त गुह्य थी मैंने तुम्हें कहकर सुनाया अब दूसरे प्रकरण को तुमसे कहूँगा । नारायणो रकारः स्यादकारो निर्गुणात्मकः । मकारो भक्तिरेव स्याद् महाह्लादाभिधायिनी ॥ १०५०॥ श्रीरामनाम का ``र'' भगवान् नारायण, ``अ'' निर्गुण स्वरूप एवं ``म'' महा आह्लाद करने वाली साक्षात् भक्ति है । विज्ञानस्थो रकारः स्यादाकारो ज्ञानरूपकः । मकारः परमा भक्ती रमुक्रीडोच्यते ततः ॥ १०५१॥ श्रीरामनाम का ``र'' विज्ञान, ``आ'' ज्ञान एवं ``म'' भक्ति है । इसलिये राम शब्द में रमुक्रीड़ा धातु उपयुक्त है । चिद्वाचको रकारः स्यात् सद्वाच्याकार उच्यते । मकारानन्दकं वाच्यं सच्चिदानन्दमव्ययम् ॥ १०५२॥ ``र'' चिद् ``आ'' सद् एवं ``म'' आनन्द का वाचक है अतः श्रीरामनाम अविनाशी सच्चिदानन्दस्वरूप है । रकारस्तत्पदो ज्ञेयस्त्वं पदोऽकार उच्यते । मकारोऽसि पदं सोमं तत्त्वमसि सुलोचने ॥ १०५३॥ हे सुन्दर नेत्रों वाली पार्वति ! श्रीरामनाम का ``र'' तत् का, ``आ'' त्वं का एवं ``म'' असि का वाचक है अर्थात् तत्त्वमसि एवं श्रीरामनाम दोनों एकार्थवाचक हैं । ब्रह्मेति तत्पदं विद्धि त्वं पदो जीवनिर्मलः । ईश्वरोऽसि पदं प्रोक्तं ततो माया प्रवर्तते ॥ १०५४॥ ``तत्त्वमसि'' पद में तत् पद ब्रह्म, त्वं पद निर्मल जीव एवं असि पद ईश्वर का वाचक है, जिसकी इच्छा ही माया है । वेदसारमहावाक्यं यत्तत्त्वमसि कथ्यते । रामनाम्नश्च तत् सर्वा रमुक्रीडा प्रवर्तते ॥ १०५५॥ समस्त वेदों का सार जो ``तत्त्वमसि'' आदि महावाक्य कहे जाते हैं वे सब श्रीरामनाम से सिद्ध होते हैं इसलिए रमुक्रीडा कहा जाता है । अन्यं प्रकरणं त्वत्तो भक्त्या श‍ृणु वदाम्यहम् । सङ्क्षेपेणैव यद् भेदं क्षराक्षरनिरक्षरै ॥ १०५६॥ हे पार्वति ! दूसरे प्रकरणों को क्षर अक्षर और निरक्षर के द्वारा तुम्हारे लिए सङ्क्षेप से मैं कहता हूँ सुनो । व्यञ्जनाच्च क्षरोत्पत्तिरकाराद् ब्रह्म चाक्षर । रेफान्निरक्षरो ब्रह्म सर्वव्यापी निरञ्जनः ॥ १०५७॥ श्रीरामनाम के ``म'' से चराचर संसार रूप क्षर उत्पन्न हुआ है ``अ'' से अक्षर ब्रह्म एवं रेफ से निरञ्जन एवं सर्वव्यापी ब्रह्म प्रकट हुआ है । क्षरोऽभिधीयते माया ब्रह्मात्मानस्तु चाक्षरः । परमात्मा परब्रह्म निरक्षर इति स्मृतः ॥ १०५८॥ माया को ही क्षर, ब्रह्म और आत्मा को अक्षर तथा परब्रह्म परमात्मा को निरक्षर कहते हैं । सकल व्यापिनस्त्रेधा क्षराक्षरनिरक्षराः । रामनामरमुक्रीडा प्रवीणेऽतः समुच्यते ॥ १०५९॥ क्षर, अक्षर एवं निरक्षर ये तीनों सब में व्याप्त है । हे परम चतुर पार्वति ! एवं सब में रमण करते हैं इसीलिए रमुक्रीड़ा कहा जाता है । रामनामगुणं त्वत्तो सङ्क्षेपेण प्रभाषितम् । रामनामप्रतापं च साम्प्रतं सूक्ष्मतः श‍ृणु ॥ १०६०॥ मैन्ने श्रीरामनाम के गुणों को तुमसे कहा और अब श्रीरामनाम के प्रताप को सङ्क्षेप में सुनो । रकारोऽनलबीजं स्याद् ये सर्वे वाडवादयः । कृत्वा मनोमलं सर्वं भस्म कर्म शुभाशुभम् ॥ १०६१॥ श्रीरामनाम का ``र'' अग्निबीज है बड़वानल आदि समस्त अग्नि का कारण है ऐसा समझकर जो रामनाम का जप करता है उसके समस्त शुभाशुभ एवं मन के मैल भस्म हो जाते हैं । अकारो भानुबीजं स्याद् वेदशास्त्रप्रकाशकः । नाशयत्येव सद्दीप्त्या या विद्यते हृदये तमः ॥ १०६२॥ श्रीरामनाम का ``अ'' सूर्य का बीज एवं वेदशास्त्रों का प्रकाशक है तथा अपनी सुन्दर कान्ति से हृदय में विद्यमान अनादि अज्ञानान्धकार को नाश करता है । मकारश्चन्द्र बीजं च पीयूषपरिपूर्णकम् । जितापं हरते नित्यं शीतलत्वं करोति च ॥ १०६३॥ श्रीराम नाम का ``म'' चन्द्रबीज तथा अमृत से परिपूर्ण है । दैहिक, दैविक तथा भौतिक तीनों तापों का नाश करता है और शीतलता प्रदान करता है रकारोहेतुर्वैराग्यं परमं यच्च कथ्यते । अकारो ज्ञानहेतुश्च मकारो भक्तिहेतुकः ॥ १०६४॥ रकार परम वैराग्य का हेतु, अकार ज्ञान का हेतु और मकार भक्ति का हेतु है । अतो देवि ! रमुक्रीडा रामनाम्नः समुच्यते । सम्यक् श‍ृणु प्रवीणे! त्वं हेतुरन्यद् वदामिते ॥ १०६५॥ हे परम चतुर देवि ! रामनाम में रमुक्रीडा कहा जाता है दूसरे कारणों को अच्छी तरह सुनो, तेरे लिए मैं कहता हूँ । वेदे व्याकरणे चैव ये च वर्णाः स्वरा स्मृताः । रामनाम्नैव ते सर्वे जाता नैवात्र संशयः ॥ १०६६॥ वेदों में एवं व्याकरण में जितने वर्ण और स्वर कहे गये हैं वे सब श्रीरामनाम से ही उत्पन्न हुए हैं इसमें सन्देह नहीं है । रकारो मूर्ध्नि सञ्चारस्त्रिकुट्याकार उच्यते । मकारोऽधरयोर्मध्ये लोमे लोमे प्रतिष्ठितः ॥ १०६७॥ ``र'' का उच्चारण स्थान मूर्धा, ``अ'' का त्रिकुटी (कण्ठ) एवं ``म'' का दोनों ओष्ठ तथा रोम रोम में श्रीरामनाम का स्थान है । रकारो योगिनां ध्येयो गच्छन्ति परमं पदम् । अकारो ज्ञानिनां ध्येयस्ते सर्वे मोक्षरूपिणः ॥ १०६८॥ रकार योगियों का ध्येय है रकार के द्वारा योगी लोग परमपद को प्राप्त करते हैं । अकार ज्ञानियों का ध्येय है इसका ध्यान करने पर ज्ञानी मोक्षस्वरूप हो जाते हैं । पूर्णं नाम मुदा दासा ध्यायन्त्यचलमानसाः । प्राप्नुवन्ति परां भक्तिं श्रीरामस्य समीपकम् ॥ १०६९॥ स्थिर मन से दासजन प्रसन्नतापूर्वक पूर्ण श्रीरामनाम का जप एवं ध्यान करते हैं जिसके फलस्वरूप दासों को भगवान् की पराभक्ति एवं श्रीराम का सामीप्य प्राप्त होता है । अन्तर्जपन्ति ये नाम जीवन्मुक्ता भवन्ति ते । तेषां न जायते भक्तिर्न च रामसमीपकाः ॥ १०७०॥ जो साधक भीतर ही भीतर श्रीरामनाम का जप करते हैं वे जीते जी मुक्त हो जाते हैं उन्हें भक्ति एवं श्रीराम सामीप्य की प्राप्ति नहीं होती है । जिह्वयाऽप्यन्तरेणैव रामनाम जपन्ति ये । ते च प्रेमपरा भक्ता नित्यं रामसमीपकाः ॥ १०७१॥ जो साधक आग्रह शून्य होकर भीतर से एवं बाह्य जिह्वा से दोनों से श्रीरामनाम का जप करते हैं उन्हें प्रेमलक्षणा पराभक्ति एवं नित्य श्रीराम सामीप्य प्राप्त होता है योगिनो ज्ञानिनो भक्ताः सुकर्मनिरताश्च ये । रामनाम्नि रतास्सर्वे रमुक्रीडात एव वै ॥ १०७२॥ योगी, ज्ञानी, भक्त एवं सुकर्मपरायण जो लोग हैं वे सभी लोग श्रीराम नाम में लगे हुए हैं इसलिए रामनाम में रमुक्रीडा कहा जाता है । श‍ृणुष्व मुख्यनामानि वक्ष्ये भगवतः प्रिये । विष्णुर्नारायणः कृष्णो वासुदेवो हरिः स्मृतः ॥ १०७३॥ ब्रह्म विश्वम्भरोऽनन्तो विश्वरूपः कला निधिः । कल्मषघ्नो दयामूर्तिः सर्वगः सर्वसेवितः ॥ १०७४॥ हे प्रिय पार्वति ! भगवान् के मुख्य नामों को मैं कहता हूँ उसे सुनो - श्रीविष्णु, श्रीनारायण, श्रीवासुदेव, श्रीहरि, ब्रह्म, विश्वम्भर, अनन्त, विश्वरूप, कलानिधि, कल्मषघ्न, दयामूर्ति, सर्वग और सर्वसेवित । परमेश्वरनामानि सन्त्यनेकानि पार्वति । परन्तु रामनामेदं सर्वेषामुत्तमोत्तमम् ॥ १०७५॥ हे पार्वति ! भगवान् के अनेकों नाम हैं परन्तु सभी नामों से अत्यन्त उत्तम श्रीरामनाम है । ग्रहाणां च यथा भानुर्नक्षत्राणां यथा शशी । निर्जराणां यथा शक्रो नराणां भूपतिर्यथा ॥ १०७६॥ यथा लोकेषु गोलोकः सरयू निम्नगासु च । कवीनां च यथाऽनन्तो भक्तानामञ्जनीसुतः ॥ १०७७॥ शक्तीनां च यथा सीता रामो भगवतामपि । भूधराणां यथा मेरुः सरसां सागरो यथा ॥ १०७८॥ कामधेनुर्गवां मध्ये धन्वीनां मन्मथो यथा । पक्षिणां वैनतेयश्च तीर्थानां पुष्करो यथा ॥ १०७९॥ अहिंसा सर्वधर्माणां साधुत्वेऽपि दया यथा । मेदिनी क्षमिणां मध्ये मणीनां कौस्तुभो यथा ॥ १०८०॥ धनुषां च यथा शार्गः खड्गानां नन्दको यथा । ज्ञानानां ब्रह्म ज्ञानं च भक्तीनां प्रेमलक्षणा ॥ १०८१॥ प्रणवः सर्वमन्त्राणां रुद्राणामहमेव च । कल्पद्रुमश्च वृक्षाणां यथाऽयोध्या पुरीषु च ॥ १०८२॥ कर्मणां भगवत्कर्म अकारश्च स्वरेष्वपि । किमत्र बहुनोक्तेन सम्यग् भगवतः प्रिये ॥ १०८३॥ नाम्नां तथा च सर्वेषां रामनाम परं महत् ॥ पार्वत्युवाच - नाम्नामेव च सर्वेषां रामनाम परं महत् ॥ १०८४॥ इदं त्वया कथं प्रोक्तं एतदर्थं वद प्रभो । त्वमेव सर्वं जानासि रामनाम सुवैभवम् ॥ १०८५॥ ग्रहों में जैसे सूर्य, नक्षत्रों में जैसे चन्द्रमा, देवताओं में जैसे इन्द्र, मनुष्यों में राजा, लोकों में जैसे गोलोक, नदियों में जैसे सरयू, कवियों में जैसे शेषजी, भक्तों में जैसे हनुमान जी, शक्तियों में जैसे सीता, समस्त भगवद् अवतारों में जैसे रामजी, पर्वतों में जैसे सुमेरु, सरों में जैसे समुद्र, गायों में जैसे कामधेनु, धर्नुधारियों में जैसे कामदेव, पक्षियों में जैसे गरुड़जी, तीर्थों में पुष्करजी, सभी धर्मों में अहिंसा, साधुता में जैसे दया, क्षमावानों में जैसे पृथिवी, मणियों में जैसे कौस्तुभ मणि, धनुषों में जैसे शाङ्र्ग धनुष, खड्गों में जैसे नन्दक, ज्ञानों में जैसे ब्रह्मज्ञान, भक्तियों में प्रेमलक्षणाभक्ति, सभी मन्त्रों में ओम्, एकादश रुद्रों में जैसे मैं, वृक्षों में जैसे कल्पवृक्ष, पुरियों में जैसे अयोध्याजी, कर्मों में भगवत्कर्म, और जैसे स्वरों में ``अ'' श्रेष्ठ है । हे प्रिये ! यहाँ अधिक कहने से क्या लाभ? जिस प्रकार उपर्युक्त श्रेष्ठ हैं उसी प्रकार समस्त भगवन्नामों में श्रीरामनाम श्रेष्ठ है । परात्पर है महान् है । श्रीपार्वती जी ने कहा - हे प्रभो ! समस्त नामों में श्रीरामनाम परात्पर एवं महान् है यह आपने कैसे कहा? इसके अर्थ को कहिए क्योङ्कि श्रीरामनाम के वैभव को वास्तव में आप ही जानते हैं । श्रीशिव उवाच - श्रीशिवजी कहा - नाम्नामर्थमहं देवि सङ्क्षेपेण वदामि ते । नाम्नां भगवतोऽनेका गुणार्थाः कोटिकोटयः ॥ १०८६॥ हे देवि ! भगवान् के नामों के अर्थों को सङ्क्षेप से कह रहा हूं । भगवान् के नामों में कोटि कोटि गुण और अर्थ हैं । अप्सु नारे गृहं यस्य तेन नारायणः स्मृतः । जीवा नाराश्रया यस्य तेन नारायणोऽपि वा ॥ १०८७॥ नारायणः- जल में निवास स्थान है जिसका उसे नारायण कहते हैं अथवा जीव मात्र है आश्रय (आधार) जिसका उसे नारायण कहते हैं । सर्वं वसति वै यस्मिन् सर्वस्मिन् बसतेऽपि वा । तमाहुर्वासुदेवं च योगिनस्तत्वदर्शिनः ॥ १०८८॥ वासुदेवः- जिसमें सब लोग निवास करते हैं अथवा सब में जो निवास करता है तत्वदर्शी योगी लोग उसे वासुदेव कहते हैं । व्यापकोऽपिहि यो नित्यं सर्वं चैव चराचरे । विशप्रवेशने धातोर्विष्णुरित्यभिधीयते ॥ १०८९॥ विष्णुः- जो चराचर में व्याप्त है सब में प्रवेश किये हैं, उसे विष्णु कहते हैं विश प्रवेशने धातु से बनता है । कथ्यते स हरिर्नित्यं भक्तानां क्लेशनाशनः । भरणं पोषणं विश्वं विश्वम्भर इति स्मृतः ॥ १०९०॥ हरिः- जो भक्तों के क्लेशों का हरण करते हैं नाश करते हैं उसे हरि कहते हैं । विश्वम्भरः- जो सम्पूर्ण विश्व का भरण पोषण करता है उसे विश्वम्भर कहते हैं । वायुवद् गगने पूर्णं जगतामेव वर्तते । सर्वभिन्नं निराकारं निर्गुणं ब्रह्म उच्यते ॥ १०९१॥ ब्रह्मः- वायु की तरह एवं गगन की तरह सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त निर्लिप्त एवं पूर्ण जो है जो सबसे अलग, निराकार और निर्गुण है उसे ब्रह्म कहते हैं । यस्यानन्तानि रूपाणि यस्य चान्तन्न विद्यते । श्रुतयो यन्न जानन्ति सोऽप्यनन्तोऽभिधीयते ॥ १०९२॥ अनन्तः- जिसके अनन्त रूप हैं, जिसका अन्त नहीं है, और जिसको वेद भी नहीं जानते हैं उसे अनन्त कहते हैं । यो विराजस्तनुर्नित्यं विश्वरूपमथोच्यते । कला वैधिष्ठितान् सर्वान् यस्मिन्निति कलानिधिः ॥ १०९३॥ विराट्ः- सम्पूर्ण विश्व ही जिनका स्वरूप है उसे विराट् कहते हैं । कलानिधिः- सम्पूर्ण कलाए जिसमें अधिष्ठित हों उसे कलानिधि कहते हैं । सर्वाण्येतानि नामानि मया प्रोक्तानि यानि च । सच्चिदानन्दरूपाणि नामान्येतानि सर्वशः ॥ १०९४॥ हे पार्वति ! मेरे द्वारा भगवान् के जितने नाम कहे गये हैं वे सभी नाम सच्चिदानन्दस्वरूप हैं । परन्तु नामभेदश्च सङ्क्षेपेण वदामि ते । सच्चिदानन्दरूपैश्च त्रिभिरेभिः पृथक् पृथक् ॥ १०९५॥ परन्तु नाम भेद सत्, चित् और आनन्द इन तीनों के द्वारा पृथक्-पृथक् सङ्क्षेप में तुमसे कहता हूँ । वर्तते रामनामेदं सत्यं दृष्ट्वा महेश्वरि । नामान्यन्यान्यनेकानि मया प्रोक्तानि पार्वति ॥ १०९६॥ हे महेश्वरि ! पार्वति ! भगवान् के दूसरे मेरे द्वारा कहे गये नामों में श्रीरामनाम सच्चिदानन्दस्वरूप है इसमें सत्, चित् और आनन्द तीनों पूर्णरूप से विद्यमान है । कस्मिन् मुख्यौ सदानन्दौ चिद्गगमनं तथोच्यते । कस्मिञ्चित्सतौ मुख्यौ चानन्दं गमनं स्मृतम् ॥ १०९७॥ कुछ नामों में सत् और आनन्द मुख्य है चिद् गुप्त है । कुछ नामों में चित् और सत् मुख्य आनन्द गुप्त है । त्वमेवमेव नामानि विद्धि सर्वाणि पार्वति । नामभेदं वदाम्यन्यं प्रवीणे श‍ृणु भक्तितः ॥ १०९८॥ हे परमचतुर पार्वति ! इसी प्रकार भगवान् के नामों को समझो दूसरे नाम के रहस्यों को मैं कहता हूँ भक्तिपूर्वक सुनो । अन्यानि यानि सर्वाणि नामानि साक्षराणि च । निर्वर्णं रामनामेदं केवलं च स्वराधिपम् ॥ १०९९॥ दूसरे भगवान् के जितने नाम हैं सब साक्षर हैं केवल श्रीरामनाम सभी स्वरों का राजा एवं निर्वर्ण है । मुकुटं छत्र च सर्वेषां मकारो रेफव्यञ्जनम् । रामनाममयास्सर्वे नामवर्णाः प्रकीर्तिताः ॥ ११००॥ श्रीरामनाम के ``र'' और ``म'' कहीं मुकुट कहीं छत्र के रूप में सभी वर्णों में सुशोभित होते हैं सभी नाम एवं वर्ण श्रीरामनाममय हैं । अतएव रमुक्रीडा नाम्नामीशाः प्रवर्तते । निजमत्यनुसारेण रामनामप्रभाषितम् ॥ ११०१॥ समस्त नामों के स्वामी श्रीरामनाम में रमुक्रीडा धातु है अपनी मति के अनुसार मैंने श्रीरामनाम के विषय में कहा है । रामनामप्रभावोऽयं केन वक्तुं न शक्यते । ब्रह्मादीनां बुद्धिरपि कुण्ठिता भवति ध्रुवम् ॥ ११०२॥ श्रीरामनाम के प्रभाव को सम्पूर्णतया कोई भी वर्णन नहीं कर सकता है इसके प्रभाव का वर्णन करने में ब्रह्मादि की भी वृद्धि कुण्ठित हो जाती है । कोटितीर्थानिदानानि कोटियोगव्रतानि च । कोटियज्ञजपाश्चैव तपसः कोटि कोटयः ॥ ११०३॥ कोटिज्ञानैश्च विज्ञानैः कोटिध्यानसमाधिभिः । सत्यं वदामि तैस्तुल्यं रामनाम न वर्तते ॥ ११०४॥ अनन्त तीर्थों में दान, अनन्त योग व्रत, यज्ञ, जप, तप, ज्ञान, विज्ञान, ध्यान, समाधि ये सब श्रीरामनाम की तुलना नहीं कर सकते हैं । यह मैं सत्य कहता हूँ । परावाण्या भजेन्नित्यं रामनामपरात्परम् । त्यक्त्वा मोहं च मात्सर्यं वाक्यं चैवानृतं तथा ॥ ११०५॥ हृन्मलं क्रोधकामाद्या लोभमज्ञानमेव च । रागद्वेषं च दुःसङ्गं त्यक्त्वा दुर्वासनामपि ॥ ११०६॥ सर्वेन्द्रियजितो भूत्वा पूतो बाह्यान्तरस्तथा । इत्थं नाम जपेन्नित्यं रामरूपो भवेन्नरः ॥ ११०७॥ मोह, मात्सर्य, अनृत वाक्य, हृदय के मैल, कामक्रोधादि, लोभ, अज्ञान, रागद्वेष, दुःसङ्ग और दुर्वासना का त्याग करके समस्त इन्द्रियों को वश में करके, बाहर भीतर से पवित्र होकर परात्पर श्रीरामनाम की परा वाणी से नित्य भजन करें तो साधक धीरे-धीरे श्रीरामजी जैसे स्वभाव वाला हो जाता है । रहः पठति यो नित्यमेतत् कमललोचने । सर्वध्यानफलं तस्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ११०८॥ हे कमलनयने ! जो साधक एकान्त में नित्य श्रीरामनाम का पाठ करता है समस्त ध्यान का फल उसकी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं होते हैं । शठाय परशिष्याय विषयाढ्याय मानिने । न दातव्यं न दातव्यं श्रीरामोपासकं विना ॥ ११०९॥ हे पार्वति ! इस रहस्य को श्रीरामोपासक के बिना किसी भी मूर्ख, पर शिष्य, विषयी और अहङ्कारी को न देना, न देना । यदि दातव्यमन्येषां सद्यो मृत्युः प्रजायते । महतामेव सर्वेषां जीवनं प्रोच्यते यतः ॥ १११०॥ यदि अज्ञानतावश किसी दूसरे को दिया तो तत्काल मृत्यु हो जाती है क्योङ्कि यह महापुरुषों का जीवन है । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते श्रीरामायणवाक्यप्रबलप्रमाणनिरूपणं नाम नवमः प्रमोदः ॥ ९॥

अथ दशमः प्रमोदः

श्रुत्युक्तवचनानि यजुर्वेदे - मर्ताऽमर्त्तस्य ते भूरि नाममनामहे विप्रासो जातवेदसः ॥ ११११॥ हे प्रभो ! मृत्युधर्म से रहित आपके अनेक नामों को जो मरणधर्मा मनुष्य स्मरण मनन करते हैं वे विप्र एवं अग्नि के समान तेजस्वी हो जाते हैं । अथर्वणोपनिषदि - जपात्तेनैव देवतादर्शनं करोति कलौ नान्येषां भवति ॥ १११२॥ श्रीराम नाम के जप से ही भगवान् तथा देवताओं का दर्शन होता है कलियुग में श्रीरामनाम के अलावा दूसरा कोई साधन नहीं है । यजुर्वेदे - यस्य नाम महद्यशः ॥ १११३॥ रामनाम जपादेव मुक्तिर्भवति ॥ १११४॥ जिनका नाम महायशस्वी है । श्रीरामनाम के जप से ही मुक्ति होती है भाल्लेयश्रुति - सर्वाणि नामानि यमाविशन्ति ॥ १११५॥ समस्त नाम जिस श्रीरामनाम में प्रवेश कर जाते हैं । अथर्वणे - यश्चाण्डालोऽपि रामेति वाचं वदेत् तेन सह । संवदेत् तेन सह संवसेत् तेन सह सम्भुञ्जीयात् ॥ १११६॥ जो चाण्डाल भी ``राम'' ऐसा कहता है उसी के साथ सम्भाषण, सहवास और उसी के साथ सम्यक् भोजन करना चाहिए । ऋग्वेदे - ॐ परं ब्रह्म ज्योतिर्मयं नाम उपास्यं मुमुक्षुभिः ॥ १११७॥ ज्योतिः स्वरूप परमब्रह्म श्रीरामनाम की उपासना मुमुक्षुओं को करना चाहिए । सामवेदे - ॐ मित्येकाक्षरं यस्मिन् प्रतिष्ठितं तन्नाम ध्येयं संसृतिपारमिच्छोः ॥ १११८॥ ``ओं'' यह एकाक्षर मन्त्र जिसमें प्रतिष्ठित है उस श्रीरामनाम का ध्यान भवसागर से पार करने की इच्छा वालों को करना चाहिए । श्रीरामोत्तरतापनीये - अकाराक्षरसम्भूतः सौमित्रिर्विश्वभावनः । उकाराक्षरसम्भूतः शत्रुघ्नस्तैजसात्मकः ॥ १११९॥ प्रज्ञात्मकस्तु भरतो मकाराक्षरसम्भवः । अर्द्धमात्रात्मको रामो ब्रह्मानन्दैकविग्रहः ॥ ११२०॥ ॐ और श्रीरामनाम में अभेद मानकर ॐ के ``अ'' से विश्व संज्ञक सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजी, ``उ'' से तैजस संज्ञक श्रीशत्रुघ्नजी, ``म'' से प्राज्ञसंज्ञक श्रीभरतजी तथा अर्धमात्रा से ब्रह्मानन्दस्वरूप श्रीरामजी प्रकट हुए हैं । श्रीरामपूर्वतापनीये - यथैव वटबीजस्थः प्राकृतश्च महान्द्रुमः । तथैव रामबीजस्थं जगदेतच्चराचरम् ॥ ११२१॥ यथा बीजात्मको मन्त्रो मन्त्रिणोऽभिमुखो भवेत् ॥ ११२२॥ जैसे वट के बीज में विशाल वटवृक्ष स्थित रहता है उसी प्रकार यह चराचर जगत् श्रीरामबीज मन्त्र में स्थित है । वैसे बीजमन्त्र मन्त्री (नामी) को सम्मुख प्रकट कर देता है । धर्ममार्गं चरित्रेण ज्ञानमार्गं च नामतः । तथा ध्यानेन वैराग्यमैश्वर्यं तस्य पूजनात् ॥ ११२३॥ श्रीरामजी ने अपने चरित्र के माध्यम से धर्म मार्ग को, अपने नाम के माध्यम से समस्त वेद ज्ञान को, अपने ध्यान के माध्यम से वैराग्य को तथा अपने पूजन के माध्यम से समस्त ऐश्वर्य को व्यवस्थित किया है । तात्पर्य यह है कि श्रीरामजी अपने चरित्रों का चिन्तन करने से धर्ममार्ग, श्रीरामनाम के जप से ज्ञानमार्ग (समस्त शास्त्रों का ज्ञान) , ध्यान करने से विषयों से वैराग्य तथा पूजन करने से समस्त ऐश्वर्य को प्रदान करते हैं । रामनाम भुवि ख्यातमभिरामेण वा पुनः । अग्निसोमात्मकं विश्वं रामबीजप्रतिष्ठितम् ॥ ११२४॥ लोकलोचनाभिराम होने से श्रीरामनाम पृथिवी पर प्रसिद्ध है । अग्नि चन्द्रात्मक जगत् श्रीरामबीज मन्त्र में ही व्यवस्थित एवं प्रतिष्ठित है । रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि । इति रामपदेनासौ परम्ब्रह्माभिधीयते ॥ ११२५॥ अनन्त, सत्यानन्द एवं चित्स्वरूप में बड़े-बड़े योगी लोग रमण करते हैं इसलिए श्रीरामपद से परब्रह्म का अभिधान होता है । रुद्रस्तारकं ब्रह्म व्यापकं चष्टे येनासावमृतो भूत्वा स्वर्गी भवतीति ॥ ११२६॥ भगवान् रुद्र काशी में मरणासन्न जीवों को श्रीराम तारक मन्त्र का उपेदश करते हैं जिसके प्रभाव से जीव अमर होकर स्वर्गवासी हो जाता है । श्रीरामोपनिषदि - राम एव परं ब्रह्म राम एव परं तपः । राम एव परं तत्त्वं श्रीरामो ब्रह्मतारकम् ॥ ११२७॥ श्रीरामजी ही परम्ब्रह्म, परं तप, एवं परन्तत्व हैं, श्रीरामजी ही तारकब्रह्म हैं । स्व भूर्ज्योतिर्मयोऽनन्तरूपी स्वेनैव भासते । जीवत्वेनेदमों सृष्टिस्थितिहेतुर्लयस्य च ॥ ११२८॥ श्रीरामनाम स्वयम्भू, प्रकाशमय, अनन्त स्वरूपवाला और स्वयं प्रकाशित है यह सबका जीवन, ॐ का प्राण, सृष्टि स्थिति और लय का हेतु है । रेफारूढा मूर्तयः स्युः शक्तयस्तिस्र एव चेत् ॥ ११२९॥ श्रीरामनाम के रेफ में समस्त मूर्तियाँ एवं आह्लादिनी आदि शक्तियाँ स्थित हैं । -इति श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाशे प्रमोदनिवासे परात्परैश्वर्यदायके श्रीयुगलानन्यशरणसङ्गृहीते श्रुतिवाक्यप्रमाण निरूपणं नाम दशमः प्रमोदः ॥ १०॥ अथसङ्ग्रह श्लोकानि - नानापुराणस्मृतिसंहितादि ग्रन्थोक्तवाक्यानि विचारितानि । नाम्नः परत्वानि समुद् गतानि श्रीमद्युग्लानन्य प्रपन्नकेन ॥ ११३०॥ स्वामी श्रीयुगलानन्यशरणजी ने अनेक पुराणों स्मृतियों एवं संहितादि में आये हुए श्रीरामनाम के परत्व परक वाक्यों का विचार किया तत्पश्चात् यह श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाश ग्रन्थ का प्रणयन किया है । ये सर्वसौख्यदमिदं रघुनन्दनस्य नाम्नः परत्वमखिलार्य्यवरैरुपास्यम् । श‍ृण्वन्ति शुद्धमनसा च पठन्ति नित्यं श्रीरामनाम्नि परमां रतिमाप्नुवन्ति ॥ ११३१॥ जो लोग, सम्पूर्ण आर्य श्रेष्ठों के द्वारा सदासर्वदा उपास्य एवं सभी प्रकार के सुख को प्रदान करने वाले इस श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाश ग्रन्थको शुद्ध मन से नित्य सुनेङ्गे और पढ़ेङ्गे उन्हें निश्चित ही श्रीसीतारामनाम में परा रति की प्राप्ति होगी । श्रीरामनामरसिकाः प्रपठन्ति भक्त्या श‍ृण्वन्ति चैव सततं सुधियः प्रयत्नात् । नाम्नः परत्वमखिलागमसारभूतं निन्दन्ति नष्टमतयो ह्यधमा मदान्धाः ॥ ११३२॥ सम्पूर्ण आगम शास्त्रों का सार श्रीराम परक इस ग्रन्थ को श्रीरामनाम के रसिक भक्तजन सुधीजन भक्तिपूर्वक पढ़ते हैं और निरन्तर प्रयत्नपूर्वक सुनते हैं । किन्तु जिनकी बुद्धि नष्ट हो गयी है जो मदान्ध हैं ऐसे अधम लोग इसकी निन्दा करते हैं । श्रीरामनाममाहात्म्यं श्रुत्वा यो नैव हृष्यति । राक्षसं तं विजानीयात् महाघौघनिकेतनम् ॥ ११३३॥ श्रीरामनाम के माहात्म्य को सुनकर जो प्रसन्न नहीं होता है उसे महापापी राक्षस समझना चाहिए । श्रीरामनाममाहात्म्यं श्रुत्वा निन्दति योऽधमः । तन्मुखं नैव द्रष्ठ्यं महारौरवदायकम् ॥ ११३४॥ श्रीरामनाम की महिमा सुनकर जो अधम इसकी निन्दा करता है महारौरवनरक प्रदायक उस पापी के मुख को नहीं देखना चाहिए । श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं प्रीतिश्चैवान्यसाधने । स महान्धो रविं त्यक्त्वा खद्योतं समुपासते ॥ ११३५॥ श्रीरामनाम की महिमा को सुनकर भी जिसकी दूसरे साधनों में प्रीति होती है वह महाअन्धा है और सूर्य को छोड़कर जुगनू की उपासना करता है । श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं नाम्नि स्नेहो न जायते । ततः परो न ब्रह्माण्डे भाग्यहीनो महाघवान् ॥ ११३६॥ श्रीरामनाम के माहात्म्य को सुनकर भी जिसके हृदय में श्रीरामनाम के प्रति स्नेह प्रकट नहीं हुआ । इस ब्रह्माण्ड में उससे बढ़कर महाअघी एवं भाग्यहीन कोई दूसरा नहीं है । श्रीरामनाममाहात्म्यं सामान्यं यस्तु मन्यते । तस्याधमस्य दुष्ठस्य संसर्गं सम्परित्यजेत् ॥ ११३७॥ श्रीरामनाम के माहात्म्य को जो सामान्य मानता है उस अधम एवं दुष्ट का संसर्ग छोड़ देना चाहिए । श्रुत्वा श्रीनाममाहात्म्यं तत्त्वमन्यं परं वदेत् । तन्मुखालोकनाच्छ्रेयः पापं विप्रवधादिकम् ॥ ११३८॥ श्रीरामनाम के माहात्म्य को सुनकर भी जो किसी दूसरे को परतत्व कहता है उस पापी के मुख देखने से ब्राह्मणहत्यादि पापश्रेष्ठ है अर्थात् उसका मुख देखना ब्रह्म हत्या के समान पाप है । रामनामात्मकं ग्रन्थं चिन्तनीयमिमं सदा । श्रावयेन्न कदाचिद्वै श्रीरामोपासकं विना ॥ ११३९॥ श्रीरामनामात्मक इस ग्रन्थ का सदासर्वदा चिन्तन करना चाहिए और श्रीरामोपासक के बिना किसी अन्य को नहीं सुनना चाहिए । नामामृतरसोल्लासवैभवसम्प्रकाशकम् । ग्रन्थरत्नमिदं भूयात् भक्तानां भूतिकारकम् ॥ ११४०॥ श्रीरामनामरूपी रसामृत के वैभव का दशप्रमोदों (उल्लासों) के माध्यम से भली भान्ति वर्णन करने ग्रन्थों में रत्न स्वरूप यह ग्रन्थ रत्न नाम जापक भक्तों के लिये कल्याणकारी हो । आनन्दाख्यसंहितायां- जपन्ति यद् विष्णुशिवस्वयम्भुवो लक्ष्म्यादिवैकुण्ठचराश्च नित्याः । तदेव तत्त्वं च मुनीन्द्रयोगिनां श्रीरामनामामृतमाश्रयं मे ॥ ११४१॥ जिस श्रीरामनाम को भगवान् विष्णु, शङ्कर, ब्रह्माजी तथा बैकुण्ठवासी भगवान् के लक्ष्मी आदि नित्य पार्षद जपते हैं और बड़े-बड़े मुनियों एवं योगियों की दृष्टि में जो परतत्व है वही श्रीसीतारामनामामृत मेरे जीवन का परम आश्रय हो । रामनाम्नो हि ग्रन्थस्य साधुभिर्लब्ध्याधिया । साधूनां पादपद्मेष्वेवानुवादः समर्पितः ॥ नाम भरोस नामबल नामसनेहु । जनम जनम रघुनन्दन तुलसिहि देहु ॥ जनम जनम जहँ तहँ तनु तुलसिहि देहु । तहँ तहँ राम निबाहिब नाम सनेहु ॥ श्रीरामनाम्नि रतिस्तु मतिरस्तु श्रीसीतारामनामप्रतापप्रकाश ग्रन्थ सम्पूर्ण हुआ ॥ समाप्तोऽयं ग्रन्थः ॥ Proofread by Mrityunjay Pandey
% Text title            : Shri Sita Rama Nama Pratapa Prakashah
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% Category              : raama, rAmAnanda
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% Author                : Swami Yuglanand Sharan (sankalit kartA)
% Language              : Sanskrit
% Subject               : philosophy/hinduism/religion
% Proofread by          : Mrityunjay Pandey
% Translated by         : Tulasidasaji
% Indexextra            : (Scan)
% Latest update         : February 2, 2024
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