मैथिलीमहोपनिषत्
अथ मैथिलीमहोपनिषत् ।
नित्यां निरञ्जनां शुद्धां रामाभिन्नां महेश्वरीम् ।
मातरं मैथिलीं वन्दे गुणग्रामां रमारमाम् ॥ १॥
नित्य निरञ्जन यानि आवरणरहित श्रीरामचन्द्रजी से अभिन्न यानि श्रीरामस्वरूपा महेश्वरी गुणसमूह युक्त, रमा की भी रमा, जगत् की माता श्रीमैथिली को मैं वन्दन करता हूम् ॥ १॥
ॐ तत्सत् । रामरूपिणे परब्रह्मणे नमः । अथ हवैकदा रत्नसिंहासने
समारूढां भगवतीं मैथिलीं लाट्यायनः कौञ्जायनः खाडायनो
भलन्दनो विल्व ऐलाक्यस्तालुक्ष्य एते सप्त ऋषयः प्रेत्यतामूचुः ।
भूर्भुवः स्वः । सप्तद्वीपा वसुमती । त्रयो लोकाः । अन्तरिक्षम् । सर्वे
त्वयि निवसन्ति । आमोदः । प्रमोदः । विमोदः । सम्मोदः । सर्वांस्त्वं
सन्धत्से । आञ्जनेयाय ब्रह्मविद्या प्रदात्रि धात्रित्वां सर्वे वयं
प्रणमामहे प्रणमामहे ॥
ॐ तत्सत् श्रीराम रूपी परब्रह्म को नमस्कार है । एक समय में लाट्यायन कौञ्जायन खाडायन भलन्दन विल्व ऐलाक्य तालुक्य ये सात ऋषियों ने रत्नसिंहासन पर बैठी हुई भगवती मैथिली के पास जाकर आदर पूर्वक उनको पूछा । भूलोक अन्तरिक्षलोक स्वर्गलोग । सात द्वीपवाली पृथिवी । तीन स्वर्ग मर्त्य पाताल ये लोक हैं । अन्तरिक्ष-आकाश ये सब आप में रहते हैं । आमोद प्रमोद संमोद विमोद इन सबों को आप अच्छी प्रकार धारण करती हैं । श्रीहनुमानजी को ब्रह्म विद्या देने वाली ! हे धात्रि ! सर्व लोकाधारिणि श्रीसीते आपको हम सब बार बार प्रणाम करते हैं ॥
अथ हैनान्मैथिल्युवाच । वत्साः कुशलिनोऽदब्धासोऽरेपसः किं कामा यूयं प्रत्यपद्यध्वम् ॥ ते होचुर्मातर्मोक्षकामैः किं जाप्यं किं प्राप्यं किं ध्येयं किं विज्ञेयमित्येतत् सर्वं नो ब्रूहि ॥
उक्त प्रकार से नमस्कार करने के बाद इन सात ऋषियों को श्री मैथिली ने कहा कि हे वत्स! तुम सब कुशल एवं कपट रहित हो सब को मित्र करने वाले हो, तुम किस कामना से आये हो ! ऋषियों ने कहा कि - हे माता मोक्षकामना वाले को क्या जपने योग्य है, क्या प्राप्त करने योग्य है, क्या ध्यान करने योग्य है, और क्या जानने योग्य है, यह सब हमें बताएँ ।
सोवाच । राम इत्यक्षर द्वयं जाप्यम् । रिं राम इत्यक्षर त्रयं
जाप्यम् । रुं राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रें राम इत्यक्षर त्रयं
जाप्यम् । रैं राम इत्यक्षर त्रयं जाप्यम् । रों राम इत्यक्षर
त्रयं जाप्यम् । एतदेव हि तारकम् । एतदेव हि बन्धनबन्धनम् ॥
सार्द्धतिस्रो मात्रा ओमित्यत्र । इमानि त्र्यक्षराणि जपंस्तज्जपति ॥ त्रीणि
वै दुःखानि । आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभौतिकम् । इमानि त्र्यक्षराणि
जपंस्तानि प्रणाशयति ॥ विष्णुलोकात्परे लोके साकेते शुभशंसिनि ।
राजन्तं रामचन्द्रेति जपन् बन्धाद् विमुच्यते जपन् बन्धाद् विमुच्यते
॥ इति प्रथमोपनिषत् ॥ १॥
श्रीमैथिली ने कहा कि - ``राम'' यह दो अक्षर जपने योग्य है । ``रिं राम'' अक्षरत्रय जपने योग्य है । ``रु राम'' यह अक्षरत्रय जपनीय है । ``रें राम'' यह अक्षरत्रय जाप्य है । और ``रैं राम'' । यह अक्षरत्रय जाप्य है । और ``रों राम'' यह अक्षरत्रय जाप्य है । यही तारक है । यही बन्धनों का बन्धन है । ``रां'' इसमें साढे तीन मात्राएं हैं । इन साढे तीन अक्षरों को जपने वाला उसे जपता है । तीन दुःख है । आध्यात्मिक यानि शारीरिक । आधिदैविक- यक्ष राक्षसादि देवयोनिके प्रकोप से उत्पन्न । आधिभौतिक यानि वृश्चिक सिंह व्याघ्र आदि सर्व प्राणियों से आया हुआ । इन साढे तीन अक्षरों के जप करने वाला मानव उन तीनों दुःखों को नष्ट करता है । विष्णु लोक से भी परे साकेत लोक है, उसमें विराजमान श्रीरामचन्द्रजी को जपनेवाला संसार बन्धन से निश्चय ही विमुक्त होता है ॥ १॥
परात्परतरो निखिलहेयप्रत्यनीकगुणाकरो
जगदादिकारणममिततेजोराशिर्ब्रह्मादि देवैरप्युपास्यः स श्री भगवान्
दाशरथिरेव प्राप्यो दाशरथिरेव प्राप्यः ॥ इति द्वितीयोपनिषत् ॥ २॥
पर से अतिशय पर सब ग्राह्य गुणों के आकर जगत् के आदि कारण अतुलित तेजों के समूह ब्रह्मा आदि देवों सभी से सर्वदा उपासनीय भगवान् श्रीदाशरथि प्राप्य हैं, समस्त जीवात्मा मात्र से प्राप्य वे ही सर्वेश्वर श्रीदाशरथि ही प्राप्य हैं ॥ २॥
सकलजगत्कारणबीजं भक्तवत्सलः स एव भगवांज्ञेयः स एव
भगवांज्ञेयः ॥ इति तृतीयोपनिषत् ॥ ३॥
सब जगत् के कारणों के कारण भक्तवत्सल वे ही सर्वेशवर श्रीरामचन्द्रजी जानने के योग्य हैं, वे ही भगवान् श्रीरामचन्द्र ज्ञेय हैं ॥ ३॥
ते ह पुनरेनामूचुः । षट्स्वपि मन्त्रेषु कतमो मन्त्रो गरीयान् ।
कमभिमन्त्र्य स्वकं कल्याणमभिपश्यामः । तन्नो ब्रूहि महेश्वरि ॥
सोवाचैनान् । सर्व एव मन्त्राः सुखप्रदाः शुभप्रदाः क्षेमप्रदा
धनप्रदाः । एकमक्षरमुच्चारितं सदाजन्मभिरर्जितानि
महापातकान्यपि विनाशयति । तत्रापि । षडक्षरो मन्त्रः
सर्वोत्कृष्टः । आशुफलप्रदः । सर्वमेव वाञ्छितमभिपूरयति ।
मोक्षार्थी मोक्षं लभते । स्वर्गार्थी च स्वर्गम् । पुत्रार्थी पुत्रम् ।
धनार्थी धनम् । विद्यार्थी विद्याम् । यद्यत्कामयते सर्वमग्रतः
स्थितमिवाभिपश्यति । ततः स एव सर्वोत्कृष्टः । स एव शिवकारणम् ।
स एव जाप्यः ॥ इति चतुर्थौपनिषत् ॥ ४॥
उन ऋषियों ने फिर मैथिलीजी से प्रार्थना की छ मन्त्रों में भी कौन मन्त्र अतिशय श्रेष्ठ है ? । किस मन्त्र को अभिमन्त्रित कर यानि जपकर हम अपना कल्याण प्राप्त कर सकेगें । हे महेश्वरी! उस मन्त्र को हमें कहिये । सर्वेश्वरी श्रीमैथिलीजी ने उन ऋषियों को कहा कि पहले कहे हुए राम आदि छ मन्त्र सभी कल्याण दायक है । शुभदायक क्षेमप्रद और धनप्रद हैं । एक भी अक्षर उच्चारित होने पर सौ जन्मों से किये हुए पातक भी नष्ट करता श्रीरामचन्द्रजी के उन मन्त्रों के मध्यम में षडक्षर ( रां रामाय नमः) मन्त्र सबसे श्रेष्ठ है । शीघ्र फलदायक है । सभी अभिलषित पदार्थों को परिपूर्ण करता है । इस षडक्षर जप से मोक्षाभिलाषी मोक्ष प्राप्त करता है, स्वर्गाभिलाषी स्वर्ग प्राप्त करता है, पुत्रेच्छु पुत्र प्राप्त करता है, धनकामी धन प्राप्त करता है । विद्यार्थी विद्या प्राप्त करता है । जो जो चाहता है सो सब सामने उपस्थित देखता है । अतः वही रामषडक्षर मन्त्र राज सब मन्त्रों में श्रेष्ठ है । वही कल्याणों कारण है । वही जपने का योग्य है ॥ ४॥
इममेव मनुं पूर्वं साकेतपतिर्मामिवोचत् । अहं हनुमते मम प्रियाय
प्रियतराय । सर्वेद वेदिने ब्रह्मणे । स वसिष्ठाय । स पराशराय ।
स व्यासाय । स शुकाय । इत्येषोपनिषत् इत्येषा ब्रह्मविद्या ।
यही षडक्षर राममन्त्र साकेत के स्वामी सर्वेश्वर श्रीरामचन्द्रजी ने मुझे कहा । अर्थात् सविधि उपदेश दिया । मैंने मेरे प्रियातिप्रिय सेवक श्रीहनुमानजी को कहा उपदेश दिया । श्रीहनुमानजी ने वेद के ज्ञाता श्रीब्रह्माजी को कहा उपदेश दिया । ब्रह्माजी ने वसिष्ठजी को कहा उपदेश दिया । वसिष्ठजी ने पराशर जी को उपदेश दिया । पराशर जी ने व्यासजी को उपदेश दिया । व्यासजी ने शुकदेवजी कहा उपदेश दिया । यही उपनिषत् है, यही ब्रह्मविद्या है ॥
तेह प्रणम्योचुः । कृतकृत्या वयम् । विदित्तवेदितव्याः । पूर्णकामाः ।
संशयाद्वियुक्तः । त्वं हि मातर्नूनमस्माकं गुरुरस्माकं गुरुः ॥
इति पञ्चम्युपनिषत् ॥ ५॥
ऋषियोंने मैथिलीजी को प्रणामकर कहा कि- हम कृतकर्तव्य और ज्ञातज्ञातव्य पूर्णकाम और सन्देह से रहित हुए । हे जगन्मातः आप हमारे अवश्य सन्देह दूर करनेवाली आप ही हमारे गुरु हैं ॥ ५॥
॥ इति वाल्मीकि संहिता पञ्चम अध्याय अन्तर्गत मैथिलीमहोपनिषद् समाप्ता ॥
Encoded and proofread by Mrityunjay Pandey
Upanishad independently entered by S Srihari