वंश अग्नि १८(स्वायम्भुव मनु वंश), १९(कश्यप वंश), १०७(नाभि वंश), १५०(स्वायम्भुव मनु वंश), २७३(मरीचि वंश), २७३(सूर्य वंश), २७४(सोम वंश), २७५(यदु वंश), २७८(पुरु वंश), कूर्म १.१४(स्वायम्भुव मनु वंश), १.१८(कश्यप वंश), १.२०(सोम वंश), १.२१(त्रिधन्वा वंश), १.२४(क्रोष्टा वंश), १.४०.३७(नाभि वंश), गरुड १.६(ध्रुव वंश), १.१३८(सूर्य वंश), १.१३९(सोम वंश), १.१४०(जनमेजय वंश), नारद १.५६.२५०(वंश वृक्ष की पुनर्वसु नक्षत्र से उत्पत्ति), पद्म १.८(इक्ष्वाकु वंश), १.८(सगर वंश), १.१२(नहुष वंश), ब्रह्म १.८, १.११.९८(दिवोदास वंश), १.१२(नहुष वंश), १.१३(वृष्णि वंश), १.११८(मनु वंश), ३२६, ब्रह्मवैवर्त्त २.६१.१०२(सुरथ वंश), ४.४१.११२(इन्द्रसावर्णि मनु वंश), ब्रह्माण्ड १.२.११.११(मरीचि वंश), १.२.११.१७(अङ्गिरा वंश), १.२.११.२२ (अत्रि वंश), १.२.११.२६(पुलस्त्य वंश), १.२.११.३२(कर्दम वंश), १.२.११.३९ (वसिष्ठ वंश), १.२.१४.६(प्रियव्रत वंश), १.२.१४.५९(नाभि वंश), १.२.३६ (तामस मनु वंश), १.२.३६(चाक्षुष मनु वंश), १.२.३६(रैवत मनु वंश), १.२.३६(स्वारोचिष वंश), १.२.३६.८४(अत्रि वंश), १.२.३६.९६(ध्रुव वंश), १.२.३६(उत्तम मनु वंश), १.२.३६.१०५(विरज प्रजापति वंश), १.२.३७ (वैवस्वत मनु वंश), १.२.३७.२२(पृथु वंश), २.३.२(दक्ष प्रजापति वंश), २.३.३.२४(वसुगण वंश), २.३.५.३३(हिरण्यकशिपु वंश), २.३.६.१(दनु वंश), २.३.६.१८(सिंहिका वंश), २.३.७(इरा वंश), २.३.७( मौनेय गन्धर्व वंश), २.३.७.११९(रजतनाभ वंश), २.३.७.१३२(खशा वंश), २.३.७.१७१ (क्रोधा वंश), २.३.७.२०५(ऊर्ध्व दृष्टि वानर वंश), २.३.७.३१२(सरमा वंश), २.३.७.३२३(इरावती वंश), २.३.७.३५९(भूता वंश), २.३.७.३७४(कपिशा वंश), २.३.७.४१२(दंष्ट्रा वंश), २.३.७.४१३(ऋषा वंश), २.३.७.४२१(तिर्या वंश), २.३.७.४४१(सरमा वंश), २.३.७.४४३(सुरसा वंश), २.३.७.४४५(ताम्रा वंश), २.३.८.२९(असित वंश), २.३.८.२९(वत्सार वंश), २.३.८.७३(अत्रि वंश), २.३.११.१(भृगु वंश), २.३.४७(कार्त्तवीर्य वंश), २.३.५९(वरुण वंश), २.३.६०(वैवस्वत मनु वंश), २.३.६३(शर्याति वंश), २.३.६३.२४(विकुक्षि वंश), २.३.६३.२४(शशाद वंश), २.३.६३.५१(कुवलाश्व वंश), २.३.६३.५२(धुन्धुमार वंश), २.३.६३.१४१(सगर वंश), २.३.६४(मैथिल वंश), २.३.६४.१(निमि वंश), २.३.६६(विश्वामित्र वंश), २.३.६७(आयु वंश), २.३.६८(नहुष वंश), २.३.६९(यदु वंश), २.३.७०(क्रोष्टु वंश), २.३.७१(अन्धक वंश), २.३.७१(श्रीकृष्ण वंश), २.३.७१(वसुदेव वंश), २.३.७४(बलि वंश), २.३.७४(ययाति वंश), २.३.७४(तुर्वसु वंश), २.३.७४(द्रुह्यु वंश), २.३.७४.१०८(जरासन्ध वंश), भविष्य ३.१.१(वैवस्वत मनु वंश), ३.१.२(ययाति वंश), ३.१.२(सुदर्शन वंश), ३.१.३(संवरण वंश), ३.१.५(सिम वंश), ३.१.५(न्यूह वंश), ३.१.७(प्रमर वंश), ३.४.१(प्रमर वंश), ३.४.१(विक्रम वंश), ३.४.२(अजमेर वंश), ३.४.२(तोमर वंश), ३.४.३(शुक्ल वंश), ३.४.४(परिहर वंश), ४.९३, भागवत ४.१ (स्वायम्भुव मनु की कन्याओं के वंश), ४.८(अधर्म वंश), ४.१३(ध्रुव वंश), ५.१५(भरत वंश), ९.२.१७(नृग वंश), ९.२.२३(दिष्ट वंश), ९.३.२७(शर्याति वंश), ९.६(अम्बरीष वंश), ९.६(इक्ष्वाकु वंश), ९.७(मान्धाता वंश), ९.१२(इक्ष्वाकु वंश), ९.१५(पुरूरवा वंश), ९.१७(अनेना वंश), ९.१७(रजि वंश), ९.१७.१०(रम्भ वंश), ९.१७(क्षत्रवृद्ध वंश), ९.२०(पूरु वंश), ९.२१(भरद्वाज वंश), ९.२३(द्रुह्यु वंश), ९.२३(यदु वंश), ९.२३(तुर्वसु वंश), ९.२३(अनु वंश), ९.२४(विदर्भ वंश), १२.१(वसुदेव व कण्व वंश), १२.१(शिशुनाग वंश), १२.१(कृष्ण वंश), १२.१(चन्द्रगुप्त वंश), १२.१(प्रद्योत वंश), १२.१(पुष्पमित्र वंश), मत्स्य ४.३३(स्वायम्भुव मनु वंश), ६(कश्यप वंश), ११(चन्द्र वंश), ११(सूर्य वंश), १२(इक्ष्वाकु वंश), १३(पितृ वंश), १५(पितृ वंश), २४(पुरूरवा वंश), ४३(यदु वंश), ४३(ययाति वंश), ४४(क्रोष्टु वंश), ४६(वृष्णि वंश), ४८(तुर्वसु वंश), ४८(द्रुह्यु वंश), ४८(अनु वंश), ४९(पूरु वंश), ५१(अग्नि वंश), १९६(अङ्गिरा वंश), १९७(अत्रि वंश), १९८(विश्वामित्र वंश), १९९(कश्यप वंश), २००(वसिष्ठ वंश), २०१(पराशर वंश), २०२(क्रतु वंश), २०२(अगस्त्य वंश), २०२(पुलस्त्य वंश), २०२(पुलह वंश), २०३(धर्म वंश), २७१(कलियुगी राजाओं के वंश), २७२(प्रद्योत वंश), २७३(यवन वंश), २७३(आन्ध्र वंश), २७३(शक वंश), मार्कण्डेय ५२(अग्नि, अङ्गिरस व अत्रि वंश), ५२(वसिष्ठ वंश), ५२(पितर, पुलस्त्य, पुलह, भृगु, मरीचि वंश), १०१(दक्ष वंश), लिङ्ग १.६६(त्रिधन्वा वंश), वराह ७४(नाभि वंश), वायु २९(अग्नि वंश), ३३(स्वायम्भुव मनु वंश), ३३.५०(नाभि वंश), ६३.२२(पृथु वंश), ६५.७३(भृगु वंश), ६५.९७(अङ्गिरा वंश), ६५.१०९(मरीचि वंश), ६७.७०(हिरण्यकशिपु वंश), ८४.६(वरुण वंश), ८६.३(नाभाग वंश), ८८.८(इक्ष्वाकु वंश), ९१.५१(पुरूरवा वंश), ९१.५१(सोम वंश), ९२.१(आयु वंश), ९४(यदु वंश), ९५.१४(क्रोष्टा वंश), ९६.१(सात्वत वंश), ९९.१(तुर्वसु वंश), ९९.७(द्रुह्यु वंश), ९९.१२(अनु वंश), ९९.१००(अङ्ग वंश), ९९.११९(पूरु/पुरु? वंश), ९९.२२९(परिक्षित् वंश), विष्णु १.१३.१(ध्रुव वंश), विष्णुधर्मोत्तर १.१५(इक्ष्वाकु वंश), १.१६(बृहदश्व वंश), १.२३(भगीरथ वंश), १.२३.८(ययाति वंश), १.३२(भृगु वंश), १.१०८(ध्रुव का वंश), १.११०(पृथु वंश), १.११९(धर्म का वंश), १.१२१(दिति का वंश), १.१९७(यक्षों का वंश), १.१९८(पिशाच वंश), १.१९८(हेति वंश), १.१९९ + (प्रहेति वंश), १.२०१(शैलूष वंश), १.२४८(पुलह वंश), २.८.३२(देह में जानु आदि के ८ वंशों के नाम), ३.२५९(पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, दौहित्र से प्राप्त लोकों का कथन), शिव २.१.१६(दक्ष - कन्याओं के वंश), ५.२६.४०(वंशज : ९ प्रकार के शब्दों में से एक), ५.२६.५०(वंश नाद का फल : सर्वतत्त्व प्रजनन), ५.३६(नौ मनु - पुत्रों के वंश), ५.३७(इक्ष्वाकु आदि मनु वंश), ५.३९(सगर का वंश), स्कन्द ६.९०.२७(गज द्वारा वंशस्तम्ब में अग्नि के छिपने का रहस्य बताने का कथन), हरिवंश १.२(स्वायम्भुव मनु वंश), १.१०(वैवस्वत मनु वंश), १.१२(धुन्धुमार वंश), १.१५(सगर वंश), १.२०.१६(बृहत्क्षत्र वंश),१.२०.३७(अजमीढ वंश), १.२०.४५(उग्रायुध वंश), १.२७(पुरूरवा वंश), १.२९(अनेना वंश), १.२९.५(क्षत्रवृद्ध वंश), १.२९.७(शौनक वंश), १.२९.७२(प्रतर्दन वंश), १.३०(नहुष वंश), १.३१(पूरु वंश), १.३२(पाञ्चाल वंश), १.३२(अजमीढ वंश), १.३२(ऋचेयु वंश), १.३२.३६(दिवोदास वंश), १.३२.४८(कुरु वंश), १.३२(सोमक वंश), १.३३(यदु वंश), १.३४(क्रोष्टा वंश), १.३४(वृष्णि वंश), १.३६(क्रोष्टा वंश), १.३६(ज्यामघ वंश), १.३७(अन्धक वंश), १.३७ (बभ्रु वंश), १.३७(भजमान वंश), १.३८(भजमान वंश), २.३८(यदु वंश), २.१०३.२८(अनिरुद्ध वंश), ३.१(जनमेजय वंश), वा.रामायण १.४७(इक्ष्वाकु वंश ), द्र. मनुवंश vamsha/vansha
वंशी पद्म ५.७२.३९(कृष्ण की वंशी का सम्मोहन नाम)
वक्त्र भविष्य ३.४.२५.३८(ब्रह्माण्ड वक्त्र से बृहस्पति/जीव की उत्पत्ति का उल्लेख), विष्णु ५.२०.४(नैकवक्त्रा : कृष्ण द्वारा कृष्ण - दासी नैकवक्त्रा/कुब्जा को सुन्दरी बनाना ), द्र. मणिवक्त्र vaktra
वक्त्रयोधी द्र. वंश दनु
वक्र गरुड ३.१६.३४(योग में ऋजुता व वक्रता का कथन, वायु की ऋजुता का वर्णन), ब्रह्मवैवर्त्त २.३०.१०४(वक्रता करने पर नरक में वक्रकुण्ड प्राप्ति का कथन), स्कन्द ६.१२२.१२(वक्रकन्धर : केदार में महिषरूपधारी शिव द्वारा घातित ५ दैत्यों में से एक), लक्ष्मीनारायण २.२१३.४४(श्रीहरि के किमुवक्रा पुरी में आगमन तथा राजा व ऋषि द्वारा श्रीहरि के सम्मान का वर्णन), ३.२१२.२, ४.८७.१२(वक्र व सरल मार्ग की गृहस्थ – त्यागाश्रम रूप में व्याख्या), कथासरित् १०.६.८९(वक्रनास नामक मन्त्री द्वारा स्वामी उलूक को चिरजीवी काक की रक्षा का दृष्टान्त सहित परामर्श), १४.३.१३६(नरवाहनदत्त का अमितगति के वक्रपुर में आगमन व अमितगति की पुत्री सुलोचना की प्राप्ति आदि ), द्र. गजवक्र, त्रिवक्र, दन्तवक्र vakra
वक्रतुण्ड गणेश २.३६.२८(राम द्वारा गणेश की वक्रतुण्ड नाम से स्थापना का कथन), २.४०.४३(दुरासद असुर के वध के लिए पार्वती के क्रोध तेज से उत्पन्न हुई गणेश की मूर्ति का नाम व रूप), २.४१(वक्रतुण्ड का दुरासद दैत्य के साथ युद्ध), २.४२.२७(वक्रतुण्ड द्वारा विराट् रूप धारण करके दुरासद दैत्य को पराजित करना), २.८५.२४(वक्रतुण्ड गणेश से लिङ्ग गुह्य की रक्षा की प्रार्थना), नारद १.६६.१३३(वक्रतुण्ड गणेश की शक्ति धनुर्धरी का उल्लेख), १.६७.१००(गणेश के उच्छिष्ट भोजी के रूप में वक्रतुण्ड का नामोल्लेख), ब्रह्माण्ड ३.४२, स्कन्द ४.२.५७.८०(वक्रतुण्ड विनायक का संक्षिप्त माहात्म्य ) vakratunda
वक्रनास
वक्रपुर कथासरित्
वक्रोलक कथासरित् १२.९.१६(वक्रोलकपुर में विप्र द्वारा मन्त्र विद्या से मृत बालक को पुन: जीवित करने का वृत्तान्त), १२.२६.३(वक्रोलक पुर के राजा सूर्यप्रभ के पुत्र चन्द्रप्रभ द्वारा पिण्डदान में तीन हाथों के प्रकट होने की कथा), १४.४.२३(गोमुख द्वारा वक्रोलक पुर में योगिनी के वश में होने व मुक्त होने का वृत्तान्त ) vakrolaka
वक्ष पद्म १.२९.५ (विष्णु के वक्षस्थल से सौभाग्याष्टक की उत्पत्ति का कथन), ब्रह्मवैवर्त्त २.७.१०३(कृष्ण के वक्षस्थल पर राधा की स्थिति का कथन - मम वक्षःस्थले तिष्ठ मयि ते भक्तिरस्त्विति । सौभाग्येन च मानेन प्रेम्णा वै गौरवेण च ।), ३.४.४८(वक्ष सौन्दर्य हेतु हार दान का निर्देश - सद्रत्नसारहाराणां लक्षं चातिमनोहरम् । देयं मदनमोहाय वक्षःसौन्दर्य्यहेतवे ।।), भविष्य ४.२५(विष्णु के वक्ष पर स्थित सौभाग्य का दक्ष व प्राणियों, द्रव्यों में वितरण, सौभाग्य शयन व्रत), भागवत ११.१७.१४ ( गृहाश्रमो जघनतो ब्रह्मचर्यं हृदो मम । वक्षःस्थलाद् वने वासो न्यासः शीर्षणि संस्थितः ॥ ), विष्णुधर्मोत्तर १.४२.२१(वक्ष में शोभा व प्रभा की स्थिति का उल्लेख - शोभां प्रभां वक्षसि च श्रियं देवीं मनोरमाम् ।। ), शिव ५.२९.२२(प्रधान पुरुष के वक्ष से पितरों की उत्पत्ति का उल्लेख - मुखाद्देवानजनयत्पितॄंश्चैवाथ वक्षसः ।), स्कन्द ५.३.१९८.५१(दक्ष द्वारा विष्णु के वक्ष:स्थल से स्रवित सौभाग्य का पान - त्रैलोक्यं दहतस्तुभ्यं सौभाग्यमेकतां गतम्॥ विष्णोर्वक्षःस्थलं प्राप्य तत्स्थितं चेति नः श्रुतम् । पीतं तद्वक्षसस्त्रस्तदक्षेण परमेष्ठिना ॥) vaksha
वगला देवीभागवत ७.३८(वगला देवी की वैद्यनाथ धाम में स्थिति का उल्लेख), नारद १.८६.८३(वगलामुखी : लक्ष्मी अवतार, मन्त्र विधान का कथन ) vagalaa
वङ्ग गरुड १.५५.१२(पूर्व दक्षिण में देश), गर्ग ७.१५.७(वङ्ग देश के अधिपति वीरधन्वा पर प्रद्युम्न - सेना की विजय), नारद १.५६.७४४(वङ्ग देश के कूर्म का पाणिमण्डल होने का उल्लेख), विष्णु २.४.६९, स्कन्द २.७.१०.३६(वङ्ग देश के राजा कुशकेतु के पुत्र हेमकान्त का वृत्तान्त ) vanga
वज्र अग्नि २४६.९(रत्नों में शुभ वज्र रत्न के लक्षण), २५२.१६(वज्र के ४ कर्म), गणेश २.६८.४०(गणेश के वज्रास्त्र से देवान्तक के खड्गास्त्र का निवारण, रौद्रास्त्र से वज्रास्त्र का निवारण), २.६९.१८(धूम्राक्ष राक्षस के वज्र का चूर्ण करके बनाए गए वज्र का देवान्तक दैत्य पर निष्फल होना), गरुड १.६८(वज्र रत्न परीक्षा ), नारद १.६६.१६६ (द्विरण्डेश की शक्ति वज्रा का उल्लेख), पद्म ५.१६.१४(च्यवन द्वारा यज्ञ में अश्विनौ को सोम भाग देने पर इन्द्र द्वारा वज्र से प्रहार की चेष्टा, च्यवन द्वारा इन्द्र की बाहु का स्तम्भन आदि), ब्रह्मवैवर्त्त २.३०.८५(नरक में वज्र कुण्ड प्रापक दुष्कर्म), २.३०.१०४(नरक में वज्र कुण्ड प्रापक दुष्कर्म), शिव २.१.१२.३३(विभावसु द्वारा वज्र लिङ्ग की पूजा), ब्रह्माण्ड ३.४.७.१० (काञ्चीपुरी में वज्र नामक चोर द्वारा चोरी के फलस्वरूप पाप व पुण्य की प्राप्ति की कथा), लिङ्ग २.५१(वज्रेश्वरी विद्या का वर्णन), वराह ८१.२(वज्रक पर्वत पर राक्षसों के अनेक पुर होने का उल्लेख), वामन ७१.३३(इन्द्र द्वारा दितिगर्भस्थ बालक में स्थित मांसपेशी के मर्दन से वज्र की उत्पत्ति का कथन), विष्णु ५.३८.३४, विष्णुधर्मोत्तर १.१+ (वज्र का मार्कण्डेय से संवाद), स्कन्द २.६.१+ (अनिरुद्ध - पुत्र, मथुरा नरेश, परीक्षित से मिलन, शाण्डिल्य से संवाद), ५.२.४(रुरु दैत्य - पुत्र वज्र द्वारा देवों व कृत्या को पराजित करना, डमरु से वज्र का नाश), ७.१.३३.५४ (वज्र ऋषि द्वारा वज्रिणी नामक सरस्वती का आह्वान, वज्रिणी द्वारा गुरुतल्पग पाप का नाश), ७.१.२३७(वज्रेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : वज्र यादव द्वारा यादव संहार के पश्चात् स्थापना), ७.४.१७.८वज्रधारी, वज्रदंष्ट}, हरिवंश ३.६१.४(वज्र व्यूह का कथन), महाभारत आश्वमेधिक ५८.३५(वज्रपाणि द्वारा उदङ्क के दण्ड को वज्र से युक्त करना, उदङ्क द्वारा पृथिवी का भेदन कर नागलोक पहुंचना), लक्ष्मीनारायण १.२३२.४(वज्रलेप, १.३७०.१०१(नरक में वज्र कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख), २.१४०.३६(वज्रक प्रासाद के लक्षण), २.१७६.१९(ज्योतिष में वज्र योग), ३.१६२.८(रत्नों में वज्रमणि की प्रशंसा, गुण, परीक्षा विधि), ४.७३.४(राजा वज्रविक्रम द्वारा बन्दी से स्वप्रशंसा सुनकर अध्यात्म में प्रवृत्त होना), ४.८३(नन्दिभिल्ल के तीन सेनापतियों इन्द्रवज्र, घातवज्र व हरिद्वज्र की युद्ध में मृत्यु का वृत्तान्त), ४.८४(राजा नन्दिभिल्ल के ६ सेनापतियों शैलवज्र, कालवज्र, वह्निवज्र, प्रालेयवज्र, रणवज्र व युद्धवज्र की मृत्यु का वृत्तान्त), ४.८५.८(राजा नन्दिभिल्ल के सेनापति धर्मवज्र का युद्ध के पश्चात् शत्रु राजा नागविक्रम की शरण में जाना ), द्र. महावज्रेश्वरी vajra
वज्रकूट कथासरित् ८.१.५(वज्रकूटपुर के वज्रप्रभ विद्याधर द्वारा नरवाहनदत्त को सूर्यप्रभ व श्रुतशर्मा चक्रवर्तियों का वृत्तान्त सुनाना), १०.९.२४२(वज्रकूटपुर के विद्याधर राजा हिरण्याक्ष द्वारा शाप से मुक्ति पाकर स्वभार्या को मृगाङ्कलेखा रूप में प्राप्त करना ) vajrakoota/ vajrakuta
वज्रकेतु मार्कण्डेय २१(पातालकेतु दानव का पिता),
वज्रज्वाला वा.रामायण ७.१२.२३(बलि की दौहित्री, कुम्भकर्ण - पत्नी )
वज्रदंष्ट} गणेश १.४०.१३(त्रिपुर - सेनापति वज्रदंष्ट} द्वारा ७ पातालों पर विजय), १.४३.३(त्रिपुर व शिव के युद्ध में वीरभद्र का वज्रदंष्ट} से युद्ध), वायु ६९.२५६/२.८.२५४(पिशाचों के १६ युग्मों में से एक), स्कन्द ३.१.४४.३४(नल द्वारा वज्रदंष्ट्र के वध का उल्लेख), ७.४.१७.८(जयन्त के वज्रनाभ, वज्रबाहु, वज्रदंष्ट} आदि अनुचरों का उल्लेख), वा.रामायण ६.८(रावण - सेनानी, दक्षिण द्वार पर अङ्गद से युद्ध व मृत्यु), कथासरित् १०.९.७२(विद्याधर राजा वज्रदंष्ट} के पुत्र रजतदंष्ट} को स्वभगिनी से शाप प्राप्त होने का वृत्तान्त ) vajradanshtra
वज्रनाभ गर्ग १०.१, देवीभागवत २.७, भागवत १३.१, स्कन्द २.६.१.५(मथुरा के राजा वज्रनाभ का परीक्षित से मिलन, शाण्डिल्य के परामर्श अनुसार मथुरा के परित: ग्रामों की स्थापना कर प्रजा को बसाना), २.६.३.६६(वज्रनाभ द्वारा स्व राज्य प्रतिबाहु को सौंपकर भागवत श्रवण में प्रवृत्त होना), ७.४.१७.८(द्वारका के पूर्व द्वार पर स्थित जयन्त के अनुचरों में से एक), हरिवंश २.९१(वज्रपुर का राजा, तप से वर प्राप्ति, त्रिभुवन विजय का उद्योग), २.९७(प्रद्युम्न द्वारा वज्रनाभ का वध ) vajranaabha/ vajranabha
वज्रपञ्जर कथासरित् ८.५.२३(यमदंष्ट व वज्रपञ्जर के युद्ध का उल्लेख )
वज्रप्रभ कथासरित् ७.१.११३(राजा हेमप्रभ व अलङ्कारवती - पुत्र, भगिनी रत्नप्रभा का वृत्तान्त), ८.१.६(वज्रप्रभ विद्याधर द्वारा नरवाहनदत्त को सूर्यप्रभ व श्रुतशर्मा विद्याधरों का वृत्तान्त सुनाना), १४.३.५८ vvajraprabha
वज्रबाहु स्कन्द ३.३.१०+ (दशार्ण - अधिपति, भद्रायु - पिता, माता सहित भद्रायु का निष्कासन, शत्रुओं द्वारा वज्रबाहु का बन्धन, भद्रायु द्वारा मुक्ति), ७.४.१७.८(जयन्त के अनुचरों में से एक ) vajrabaahu/ vajrabahu
वज्रमुकुट भविष्य ३.१.८.४, ३.२.१(वज्रमुकुट की पद्मावती पर आसक्ति व विवाह की कथा), कथासरित् १२.८.६२(राजकुमार वज्रमुकुट द्वारा मन्त्रि - पुत्र बुद्धिशरीर की सहायता से पद्मावती को प्राप्त करने का वृत्तान्त ) vajramukuta
वज्रमुष्टि वा.रामायण ६.४३.१२(रावण - सेनानी, मैन्द से युद्ध - वज्रमुष्टिस्तु मैन्देन द्विविदानशनिप्रभः । राक्षसाभ्यां सुघोराभ्यां कपिमुख्यौ समागतौ ।।), ७.५.३६(स तस्यां जनयामास यदपत्यं निबोध तत् । वज्रमुष्टिर्विरूपाक्षोदुर्मुखश्चैव राक्षसः ।।), कथासरित् २.२.१९(श्रीदत्त विप्र - पुत्र के राजपुत्र सखाओं में से एक ) vajramushti
वज्ररोमा पद्म ६.६.९२(जालन्धर - सेनानी, वायुओं से युद्ध )
वज्रवेग कथासरित् १०.९.५८(विद्याधर - पुत्र वज्रवेग का पिता के शाप से मृत्यु लोक में सिह आदि बनने तथा मुक्त होने का वृत्तान्त )
वज्रव्यूह कथासरित् ८.५.३(सूर्यप्रभ - सेनानी प्रभास द्वारा वज्रव्यूह निर्माण का उल्लेख )
वज्रलोचन स्कन्द ७.४.१७.८(जयन्त के अनुचरों में से एक )
वज्रसार कथासरित् १०.२.७९(वज्रसार की कुलटा भार्या द्वारा पति के नाक - कान छेदन का वृत्तान्त )
वज्रहनु वा.रामायण ६.८
वज्रहस्ता स्कन्द ४.२.७०.२८(वज्रहस्ता देवी का संक्षिप्त माहात्म्य )
वज्रहा स्कन्द ७.४.१७.८(जयन्त के अनुचरों में से एक )
वज्राङ्ग पद्म १.४१(दिति व कश्यप - पुत्र तथा वराङ्गी - पति वज्राङ्ग द्वारा इन्द्र का बन्धन व मुक्ति, तप से तारक पुत्र की प्राप्ति), मत्स्य १४६(वज्राङ्ग की दिति से उत्पत्ति, वज्राङ्ग द्वारा इन्द्र का बन्धन, इन्द्र द्वारा वज्राङ्ग - पत्नी को त्रास), शिव २.३.१४(तारकासुर का पिता, पुत्र प्राप्ति हेतु तप), स्कन्द १.२.१४(पाण्ड~य देश का नृप, मृगयार्थ शोणाचल गमन, अश्व का खेचरत्व प्राप्त करना ) vajraanga/ vajranga
वज्रायुध कथासरित् १८.१.१४(महेन्द्रादित्य राजा का प्रतीहार), १८.१.५३(भद्रायुध - पिता )
वज्रिणी स्कन्द ७.१.३५.६५(इन्द्र द्वारा वज्रिणी नदी की सरस्वती - सखी के रूप में उत्पत्ति )
वञ्चन स्कन्द ५.३.१५५.२६(राजा चाणक्य के काकों द्वारा वञ्चन की कथा), लक्ष्मीनारायण ४.३०(प्रसाद भक्षण से विषलाणी नामक वञ्चयित्री के मोक्ष का वृत्तान्त, वञ्चन कर्मों का विवरण ) vanchana
वञ्जरा ब्रह्म २.८९(जरा व शोक विनाशकारी वञ्जरा नदी की सूर्य तेज से दग्ध नागों का गङ्गा जल से सिञ्चन करने से उत्पत्ति ) vanjaraa
वञ्जुल नारद १.५६.२०८(वञ्जुल/अशोक? वृक्ष की पूर्वाषाढा नक्षत्र से उत्पत्ति), १.१२१.१००(वञ्जुलिका द्वादशी तिथि का अर्थ व महत्त्व), पद्म १.२८.२९ (वञ्जुल/बेंत के दस्युओं को प्रिय होने का उल्लेख), २.९१.३५(वञ्जुल वैश्य द्वारा सुरापान पाप का तीर्थों में स्नान से क्षालन, उद्धार), वा.रामायण ३.६९.२३(वञ्जुल पक्षी द्वारा राम की विजय का शकुन प्रकट करना ) vanjula
वट
गणेश २.२०.२८(दैत्यों
के उत्पात से रक्षा के लिए
गणेश द्वारा माया के वट वृक्ष
का वृत्तान्त),
देवीभागवत
८.६.१८(शतबल
नामक वट की कुमुद पर्वत पर
स्थिति व महिमा),
नारद
१.५६.२०६(वट
की मघा नक्षत्र से उत्पत्ति),
१.१२४.९(वट
सावित्री पूर्णिमा व्रत विधि
-
सोपवासा
वटं सिंचेत्सलिलैरमृतोपमैः
॥
सूत्रेण
वेष्टयेच्चैव सशताष्टप्रदक्षिणम्
॥),
२.५५.२४(पुरुषोत्तम
क्षेत्र में मार्कण्डेय वट
की महिमा),
पद्म
३.२७.५२(पञ्चवट
तीर्थ का माहात्म्य-
ततः
पंचवटं
गत्वा
ब्रह्मचारी
जितेंद्रियः
।
पुण्येन
महता
युक्तः
स्वर्गलोके
महीयते
।),
६.१७९.१९(ब्रह्मज्ञानी
व गीता के पञ्चम अध्याय के
पाठी वट/बटु
के कपाल जल से शुकी व गृध्र का
उद्धार
-
आसीद्गंगातटे
नाम्ना बटुर्ब्रह्मविदुत्तमः॥),
ब्रह्म
१.४९.१७(प्रलयकाल
में मार्कण्डेय द्वारा वट की
शरण लेना -
प्राप्तवांस्तत्पदं
दिव्यं
महाप्रलयकारणम्।
पुरुषेशमिति
ख्यातं
वटराजं
सनातनम्॥ ),
१.५४.१२(वट
पूजा मन्त्र,
वट
का गरुड से तादात्म्य?
- ओं
नमो व्यक्तरूपाय महाप्रलयकारिणे।
महद्रसोपविष्टाय
न्यग्रोधाय नमोऽस्तु ते।।),
१.५७.११(मार्कण्डेय
वट -
मार्कण्डेयं
वटं
कृष्णं
रौहिणेयं
महोदधिम्।
इन्द्रद्युम्नसरश्चैव
पञ्चतीर्थोविधिः
स्मृतः।),
२.१९.३३(पांच
वटुओं का सूर्य शाप से वट होना
-
ततः
कोपाद्बटून्पञ्च शशापोषापतिः
प्रभुः।
निवारयथ
मां यस्माद्वटा यूयं भविष्यथ।।),
२.३३.५(प्रियव्रत
के यज्ञ में दानव के आगमन पर
शिव द्वारा वट में शरण लेने
का उल्लेख),
२.९१.६७(यूप
से अक्षय वट की उत्पत्ति का
कथन -
तत्रैव
कल्पितो यूपो मया विन्ध्यस्य
चोत्तरे।..
अक्षयश्चाभवच्छ्रीमानक्षयोऽसौ
वटोऽभवत्।),
भविष्य
२.३.९(वट
की प्रतिष्ठा का
विधान),
भागवत
४.१८.२५(वनस्पतियों
द्वारा पृथिवी दोहन में वट
के वत्स बनने का उल्लेख -
वटवत्सा
वनस्पतयः पृथग्रसमयं पयः ।),
मत्स्य
१११.१०(प्रयाग
में माहेश्वर वट की
स्थिति का उल्लेख),
वामन
१७.३(वट
की उत्पत्ति
-
यक्षाणामधिपस्यापि
मणिभद्रस्य नारद।
वटवृक्षः
समभवत् तस्मिंस्तस्य रतिः
सदा।।),
शिव
२.२.४०.३४(शिव
के वास स्थान योगमय वट वृक्ष
के स्वरूप का कथन -
मुमुक्षुशरणे
तस्मिन् महायोगमये वटे ।।
आसीनं ददृशुस्सर्वे शिवं
विष्ण्वादयस्सुराः ।।),
५.३३.२६(वनस्पतियों
व वृक्षों के राज्य पर वट के
अभिषेक का उल्लेख -
वनस्पतीनां
वृक्षाणां वटं राज्येऽभ्यषेचयत्
।।),
स्कन्द
२.४.३.३८टीका
(शिव
रूप,
पार्वती
के शाप की कथा),
२.४.८.४०(आस्तीक
का रूप,
शाप
से वट होना,
तुलसी
माहात्म्य श्रवण से मुक्ति
-
तुलसीपत्रमाहात्म्यं
विष्णोर्नाम तथा द्विजात्
।।यदा शृणोषि सद्यस्त्वं
विमुक्तिं यास्यसे पराम्।।),
५.१.२०.१(वटयक्षिणी
माहात्म्य -
मासमेकं
नरो भक्त्या पश्येद्वा
वटयक्षिणीम् ।
पूजयेत्स्वर्णपुष्पैश्च
तस्य सिद्धिर्न हीयते ।।),
५.३.१३.४५(२०वें
कल्प का नाम),
६.५६(वटेश्वर
:
गालव
-
पुत्र,
पुत्र
प्राप्ति हेतु वटादित्य की
उपासना),
लक्ष्मीनारायण
१.३१८.५६(मन्दर
पर रुद्रावतार रूप,
सती
द्वारा कन्या प्राप्ति,
वट
की स्वर्ण से तुलना?),
१.४४१.८१(वृक्ष
रूप धारी श्रीहरि के दर्शन
हेतु ब्रह्मा द्वारा वट वृक्ष
रूप धारण),
१.५८२.७२(पुरुषोत्तम
क्षेत्र में शंख की नाभि में
वट आदि की स्थिति,
वट
और अब्धि के बीच के क्षेत्र
की अन्तर्वेदी संज्ञा आदि
-
नाभिदेशे
तु शंखस्य स्थिताः कुण्डो
वटो हरिः ।...वटाब्धिमध्यमं
क्षेत्रं कीटादेरपि मुक्तिदम्
।
अन्तर्वेदी
भागवतः क्षेत्रं मध्यगतं हि
सा ।।),
१.५८२.९६(वटेश
:
पुरुषोत्तम
क्षेत्र में ८ क्षेत्रपालों
में से एक),
१.५८६.९६(हयमेध
के अन्त में अवभृथ स्नान के
स्थान पर जलमध्य से चतुर्भुजाकार
वट वृक्ष का आविर्भाव,
तक्षक
द्वारा वट वृक्ष से चतुर्व्यूह
की मूर्तियों का निर्माण
-
सामुद्रे
च जले मूलं शाखाः स्नानगृहाऽभिगाः
।
शंखचक्रांकितः
सोऽस्ति सर्वत्र सूर्यसन्निभः।।),
३.२३.६५(राजा
सूर्यवर्चा द्वारा शिंशपा
वृक्ष में श्रीहरि तथा वट
वृक्ष में लक्ष्मी की प्रतिष्ठा
करने का वृत्तान्त),
कथासरित्
५.२.२४०(अशोकदत्त
द्वारा वट तरु मूल में राक्षसी
के दर्शन),
५.३.२०५(वट
तरु के अन्दर से दिव्य स्त्री
के प्रकट होने का वृत्तान्त
),
द्र.
पञ्चवटी,
प्रयाग,
मालवा
vata
वटमातृका स्कन्द ५.१.३७.२४(वट मातृकाओं की उत्पत्ति व संक्षिप्त माहात्म्य )
वटयक्षिणी स्कन्द १.२.६२.४५(वट यक्षिणी की पूजा का महत्त्व), ५.१.२०.१ (वट यक्षिणी की संक्षिप्त पूजा विधि व माहात्म्य )
वटसावित्री स्कन्द ७.१.१६६(ज्येष्ठ पूर्णिमा को सावित्री व्रत की विधि व सत्यवान् - सावित्री कथा), लक्ष्मीनारायण १.३१८.३५(सती व रुद्र की मानसी कन्या वम्री का वटसावित्री बनना, वटसावित्री का तात्पर्य ) vatasaavitree/ vatasavitri
वटिका स्कन्द ६.१४७(जाबालि - कन्या, व्यास - पत्नी, शुक की माता, पिङ्गला उपनाम, शिव की आराधना से कपिञ्जल नामक द्वितीय पुत्र की प्राप्ति ) vatikaa
वटुक अग्नि ३१३.८(४ बटुकों के नाम )
वडल स्कन्द ५.२.७५(वडलेश्वर लिङ्ग का माहात्म्य : मणिभद्र - पुत्र वडल द्वारा राक्षसों की पराजय पर मणिभद्र का शाप, वडलेश्वर की पूजा से मोक्ष प्राप्ति),
वडवा
ब्रह्म
२.४०.६(दधीचि
-
भार्या
गभस्तिनी
का
उपनाम
?
- लोपामुद्रेति
या
ख्याता
स्वसा
तस्या
गभस्तिनी।
इति
नाम्ना
च
विख्याता
वडवेति
प्रकीर्तिता॥ ),
२.४०(पिप्पलाद
द्वारा
देवों
के
विरुद्ध
उत्पन्न
कृत्या
का
नाम,
सरस्वती
आदि
५
नदियों
द्वारा
वडवा
का
समुद्र
में
वहन),
२.४६(ऋषियों
द्वारा
वडवा
कृत्या
का
मृत्यु
से
विवाह,
अभिषेक
जल
का
वडवा
नदी
बनना
-
मृत्योर्भार्या
भव
त्वं
तामित्युक्त्वा
तेऽभ्यषेचयत्।
अभिषेकोदकं
यत्तु
सा
नदी
वडवाऽभवत्।। ),
विष्णुधर्मोत्तर
१.२३७.१३(वडवामुख
से
कल्मष
नाश
की
प्रार्थना
-
वडवामुखो
नाशयतु
कल्मषं
यन्मया
कृतम्
।।),
शिव
२.५.२४.३८(जलन्धर
द्वारा
वडवा
का
मुख
बांधकर
सब
कुछ
जलमग्न
करने
का
उल्लेख
-
वडवाया
मुखं
बद्धं
गृहीत्वा
तां
करेण
तु
।।
तत्क्षणादेव
सकलमेकार्णवमभूत्तदा
।। ),
स्कन्द
७.१.६५(वाडवेश्वर
लिङ्ग
का
माहात्म्य
-
कृतस्मरो
यदा
दग्धः
पर्वतो
वाडवाग्निना
॥
समीकृत्याखिलं
स्थानं
तेन
लिंगं
प्रतिष्ठितम्
॥),
लक्ष्मीनारायण
३.३२.१९(सहरक्षा
-
पिता
),
महाभारत
वन
१३३.२६(संयुक्त
वडवाओं
के
गर्भ
का
प्रश्न
-
वडवे
इव
संयुक्ते
श्येनपाते
दिवौकसाम्
।
कस्तयोर्गर्भमाधत्ते
गर्भं
सुषुवतुश्च
कम्
।।),
कथासरित्
७.३.१६२
द्र.
बडवा
vadavaa
वडवानल स्कन्द ७.१.२९(वडवानल तीर्थ का माहात्म्य), ७.१.३२(पिप्पलाद द्वारा उत्पन्न वडवा कृत्या से वडवानल की उत्पत्ति, वडवानल द्वारा भोजन रूप में समुद्र भक्षण का उद्योग), ७.१.३३(वडवानल के प्रभाव से कृतस्मर पर्वत का भस्म होना), ७.१.३५(वडवानल की और्व की ऊरु से उत्पत्ति, सरस्वती द्वारा वडवानल का समुद्र के प्रति वहन), ७.१.६६(वडवानल द्वारा अर्घ्येश्वर लिङ्ग की स्थापना ), महाभारत द्रोण २०२.११६, सौप्तिक १८.२१, vadavaanala/ vadavanala
वणिक् भविष्य १.२.१२३(वणिक् की कुसीद वृत्ति होने का उल्लेख), विष्णुधर्मोत्तर ३.४२.४२(वणिक् के रूप का कथन : संवेष्टित शिर), स्कन्द १.२.४५.४ (आस्तिक नन्दभद्र वणिक् का नास्तिक शूद्र सत्यव्रत से वार्तालाप आदि, धर्म के विषय में वणिक् के विचार), १.२.६२.३२(क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक), ३.२.१०(कामधेनु की हुंकार से वणिक् की उत्पत्ति, वणिक् का ब्राह्मण - अनुचर बनना), लक्ष्मीनारायण २.५९.३(गोधन नामक वणिक् के धन का चोरों द्वारा हरण, वणिक् व प्रेतराज का संवाद, वणिक् द्वारा लोमशाश्रम में प्रेतों हेतु पिण्ड निर्वपण से प्रेतों की मुक्ति ), कथासरित् १०.८.९१, १०.९.२, १८.४.९८, vanik
वत्स गर्ग २.४(कृष्ण द्वारा वत्सासुर का उद्धार, वत्सासुर के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), पद्म २.२९(सोमो वत्सस्वरूपोभूद्दोग्धा देवगुरुः स्वयम्।..परिकल्प्य यमं वत्सं दोग्धा चान्तक एव सः।), ६.१८७, ६.१८८.३७(वत्स मुनि के पाद प्रक्षालन के जल से शुनी व शश को दिव्य रूप प्राप्ति, गीता के १४वें अध्याय का माहात्म्य), ब्रह्म १.९.५०(प्रतर्दन के २पुत्रों में से एक, अलर्क – पिता), ब्रह्माण्ड १.२.३२.१२१(३ वैश्य मन्त्रकर्त्ताओं में से एक), भविष्य ३.३.१.२३(शिव के शाप से युधिष्ठिर का कलियुग में वत्सराज के पुत्र बलखानि रूप में अवतरण), ३.४.१८.१८(संज्ञा विवाह प्रकरण में वत्सासुर के भग से युद्ध का उल्लेख), ३.४.२१.१३(कलियुग में वत्स ऋषि का कण्व - पौत्रों के रूप में जन्म), भागवत १०.११.४१(कृष्ण द्वारा वत्सासुर के उद्धार की कथा), १०.१३(ब्रह्मा द्वारा गोवत्सों का गोपन कर देने पर कृष्ण द्वारा वत्सों का रूप धारण करने की कथा), मत्स्य ४.१९(कामदेव के वत्स नृप के पुत्र रूप में जन्म लेने का उल्लेख), वराह ४२.८(वत्स द्वारा नृसिंह द्वादशी व्रत से पुन: राज्य की प्राप्ति), वामन ५७.६४(अश्विनौ द्वारा स्कन्द को वत्स नामक गण प्रदान का उल्लेख), वायु ९२.६५/२.३०.६५(प्रतर्दन-पुत्र, गर्ग – भ्राता, अलर्क-पिता), विष्णु ४.८.१३(प्रतर्दन का नाम), शिव ३.५.४२(२७वें द्वापर में सोमशर्मा नामक शिव अवतार के ४ शिष्यों में से एक), स्कन्द २.४.९.१(कार्तिक वत्स द्वादशी को गौ व वत्स की पूजा), ३.२.६.१२(वेदमयी धेनु के लिए स्वर वत्स होने का उल्लेख - यस्त्वेनां मानवो धेनुं स्वर्वत्सैरमरादिभिः ।। पूजयत्युचिते काले स स्वर्गायोपपद्यते ।। ), ३.२.९.४२(वत्स गोत्र के ऋषियों के ५ प्रवर व गुण), ३.२.९.६१(वात्स्य गोत्र के ऋषियों के ५ प्रवर व गुण), ३.२.२७.४(धर्मारण्य में गोवत्सेश्वर लिङ्ग की स्थिति व माहात्म्य), ६.२९.१३(देवरात वीर्य व मृगी से वत्स ऋषि की उत्पत्ति, भार्या की मृत्यु पर वत्स द्वारा सर्पों का नाश, सर्प द्वारा वत्स को बोध, वत्स द्वारा तप से सिद्धि), हरिवंश १.२९.७३(प्रतर्दन के २ पुत्रों में से एक, अलर्क-पिता), वा.रामायण २.५२.१०१(वत्स देश में राम का आगमन, ४ मृगों का आलभन), लक्ष्मीनारायण २.२४७.७९(अग्नीषोम कर्म में पक्व फल के वत्स होने तथा वत्स अपाकरण में हृदय की रसपरिपक्वता का नाम वत्स होने का कथन - अग्निषोमे वत्सनाम प्रियं वृक्षफलं तु यत् ।। वत्सापाकरणं तद्वै हृदयं रसपक्वता । ), कथासरित् १.६.९(वत्स व गुल्मक भ्राता - द्वय की स्वसा श्रुतार्था का वृत्तान्त), ३.१.७(वत्सराज के वासवदत्ता में आसक्त होने पर मन्त्रियों द्वारा मन्त्रणा व उपाय), ४.१.११६(वत्सेश द्वारा ब्राह्मणी को शरण देना, पुत्र प्राप्ति हेतु शिव की आराधना), ६.२.७४(काश्यप वत्स मुनि द्वारा कन्या सुलोचना को भार्या रूप में प्राप्त करना, कन्या-पिता को द्युलोक में भेजना), ६.४.३८(वत्सराज के नाम में वत्स शब्द का कारण तथा उदयन नाम का कारण ; वत्सराज के जन्म का संक्षिप्त वृत्तान्त), ६.५.३(कलिङ्गसेना द्वारा वृद्ध प्रसेनजित् की अपेक्षा वत्सेश का वरण करने की आकांक्षा), ६.७.१७०(मदनवेग विद्याधर द्वारा वत्सेश का रूप धारण कर कलिङ्गसेना का उपभोग), २.३.३( घोषवती वीणा बजाने तथा वासवदत्ता को प्राप्त करने का उद्योग), द्र. गोवत्स vatsa
वत्स (वत्सभूमि)-(१) एक भारतीय जनपद, जिसे भीमसेन ने पूर्व-दिग्विजय के समय जीता था (सभा० ३० । १०)। कर्ण ने भी इस पर विजय पायी थी ( वन. २५४ । ९-१० )। वत्सदेशीय पराक्रमी भूमिपाल पाण्डवों के सहायक थे और उनकी विजय चाहते थे ( उद्योग० ५३ । १-२ ) । वत्सभूमि सिद्धों और चारणों द्वारा सेवित है। वहाँ पुण्यात्माओं के आश्रम हैं, उनमें काशिराज की कन्या अम्बा ने विचरण किया था (उद्योग० १८६ । २४ )। अम्बा वत्सदेश की भूमि में 'अम्बा' नाम की नदी बनकर प्रवाहित हुई, जो केवल बरसात में ही जल से भरी रहती है ( उद्योग० १८६ । ४०) । वत्सदेशीय योद्धा धृष्टद्युम्न द्वारा निर्मित क्रौञ्चारुणव्यूह के वामपक्ष में खड़े हुए थे ( भीष्म० ५० । ५३)। कर्ण द्वारा इस देश के जीते जाने की चर्चा ( कर्ण० ८।२०)। (२) काशिराज प्रतर्दन का पुत्र, जिसे गोशाला में वत्सों ( बछड़ों) ने पाला था । इसीलिये इसका नाम वत्स हुआ (शान्ति० ४९ । ७९) । (३) शर्यातिवंशी नरेश । हैहय और तालजंघ के पिता ( अनु० ३० । ७)।
Vedic references on Vatsa
वत्सक कथासरित् २.३.१,
वत्सनाभ स्कन्द ३.१.२५(धर्मरूपी महिष द्वारा समाधिस्थ वत्सनाभ ऋषि की वृष्टि से रक्षा, वत्सनाभ द्वारा शंख तीर्थ में स्नान से कृतघ्नता दोष से मुक्ति),
वत्सनाभ-एक बुद्धिमान् महर्षि, इनकी कठोर तपस्या और भैंसे का रूप धारण करके धर्म द्वारा वर्षा से इनकी रक्षा ( अनु० १२ अध्याय दा० पाठ )। अपने में कृतघ्नता का दोष देखकर इनका शरीर को त्याग देने का विचार करना और धर्म का इन्हें समझा-बुझाकर रोकना तथा इनकी आयु को कई सौ वर्षों की बताना (अनु० १२ अध्याय दा० पाठ, पृष्ठ ५४६२-५४६३ )। vatsanaabha
वत्सप्री मार्कण्डेय ११६ ११३.४०(भलन्दन - पुत्र, सुनन्दा - पति, कुजृम्भ का वधकर्त्ता )vatsapree
वत्सभूमि हरिवंश १.२९, कथासरित् ४.१.११६
वत्सर पद्म १.४०.८८(साध्यगण का नाम), ब्रह्माण्ड १.२.१३.११६(वत्सर के प्रकार व स्वरूप), १.२.२१.१३०(काल के संवत्सर, परिवत्सर आदि ५ विभागों का कथन), १.२.२८.२१, ३.४.३२.१५(संवत्सरा, परिवत्सरा आदि : १६ पत्राब्जवासिनी शक्तियों में से कुछ), भविष्य १.१२५.३२(ऋतु के संवत्सर, परिवत्सर आदि ५ पुत्रों का स्वरूप), भागवत ४.१३(ध्रुव व भ्रमि - पुत्र, स्वर्वीथि - पति, ६ पुत्रों के नाम), मत्स्य १४५.९५(वत्सर द्वारा सत्य प्रभाव से ऋषिता प्राप्ति का उल्लेख), १७१.४४(धर्म व साध्या के साध्य संज्ञक पुत्रों में से एक), लिङ्ग १.६३.५०(कश्यप के गोत्र प्रवर्तक पुत्र का नाम), वायु ३१.२९(काल विभाग का वर्णन), ५६.२०(अग्नि, सूर्य, सोम, वायु के रूप ), द्र. वाणीवत्सर vatsara
वत्सराज भविष्य ३.३.४ कथासरित् ९.४.४३,
वत्सार ब्रह्माण्ड ३.८.८९, वायु ७०.२४(कश्यप - पुत्र, ब्रह्मा का अंश, निध्रुव व रैभ्य - पिता),
वदन लक्ष्मीनारायण २.१६७.३९(स्तोकहोम नृप के स्वाद्वदन ऋषि के साथ यज्ञ में आगमन का उल्लेख )
वध अग्नि १८५(पशु वध), ब्रह्माण्ड १.१.५.३९(तारकादि ८ शक्तिवधों का कथन), १.२.२३.६(वध राक्षस की सूर्य रथ में स्थिति), २.३.४६(परशुराम द्वारा क्षत्रिय वध), २.३.७२.१३८(विष्णु द्वारा भृगु - पत्नी का वध), वायु ६९.१३०(यातुधान, सूर्य - अनुचर, विघ्न व शमन - पिता), विष्णु १.५.११टीका(२८ इन्द्रियादि वधों के नाम), ३.१७.२८, विष्णुधर्मोत्तर १.५६.१९(वध की कारणों/करणो? में श्रेष्ठता का उल्लेख), महाभारत शान्ति ३१९.१६(सम्यग्वध/सांख्य शास्त्र का निरूपण ) vadha
वधू लक्ष्मीनारायण ३.४०(वधू गीता के अन्तर्गत गृह स्त्री के कर्तव्यों का निरूपण), ३.४१(वधू गीता के अन्तर्गत वधूटी धर्म, सदाचार आदि का वर्णन), ३.४४(वधू गीता के अन्तर्गत सती वधू की सामर्थ्य का निरूपण), ३.४५(वधू हेतु त्रिगुणा भक्ति से ऊपर निर्गुण भक्ति के लक्षणों व महत्त्व का वर्णन), ३.४६(वधू हेतु पुरुषोत्तम भक्ति की विधि), ३.४७(वधू हेतु अष्टाङ्ग योग तथा परम योग का वर्णन), ३.४८(वधू हेतु अक्षरातीत तादात्म्य योग का निरूपण), ३.४९.५३(व्रत - उपवास करने में असमर्थ वधू हेतु सद् गुर्वी के लक्षणों का वर्णन), ३.५३(वधू हेतु सदाचार वर्णन), ३.६६(वधू गीता के अन्तर्गत वधू भक्ति रहस्य वर्णन में वधू द्वारा वासनायुक्त देह को श्रीहरि को अर्पित करने का वर्णन ), कथासरित् ६.१.१७१(वधू द्वारा कायर पति को त्याग रक्षक को पति मानना ) vadhuu/vadhoo
वध्र्यश्व हरिवंश १.३२.३१
वन नारद २.७९(मथुरा के अन्तर्गत १२ वनों का माहात्म्य), पद्म २.२२.२२(संसार रूपी वन का कथन), ५.६९.१६(मथुरा के अन्तर्गत द्वादश वन), ब्रह्माण्ड १.२.२७(दारु वन में महादेव द्वारा विकृत रूप धारण की कथा), २.३.१३.३३(माठर वन का महत्त्व), भविष्य ३.४.२५.१६१ (वृन्दावन, गोकुल आदि वनों की दस मात्राओं व दस इन्द्रिय प्रकृतियों से उत्पत्ति), भागवत ५.१३(संसार रूपी वन में जीव का भटकना), वराह ८०.८(कुमुद व अञ्जन पर्वतों के बीच बृहस्पति के वन का स्वरूप), १५३.३३(मथुरा में वनों के नाम), १६१.६(मथुरा में द्वादश वन), २००.३४(नरक में सहकार वन में स्थित रौद्र पक्षियों के कर्म), २००.५२(नरक में शृङ्गारक वन की यातनाओं का कथन), लिङ्ग १.४९.६०(वनों के नाम व निवासी), वायु ३६.११(मेरु के परितः ४ वनों के नाम), स्कन्द १.२.४२.१५२(विद्या वन : ऐतरेय द्वारा वर्णित उपमा), ५.१.३९(महाकालवन माहात्म्य वर्णन का आरम्भ), महाभारत आदि ११३.६(तन्द्रा विजय के पश्चात् पाण्डु के वनगोचर होने का उल्लेख), उद्योग २९.५४(धृतराष्ट्र रूपी वन में पाण्डवरूपी सिंहों का कथन), शल्य २४.५२, स्त्री ५ (द्विज द्वारा वन में कूप में स्थित मधुवृक्ष का आश्रय लेना), आश्वमेधिक २७(विद्यावन का वर्णन), योगवासिष्ठ १.२३.१४(ब्रह्म रूपी वन का कथन), ३.४०.५१(संसार रूपी वन में तारागण पुष्प, मेघ पत्र आदि का वर्णन ), लक्ष्मीनारायण १.५१४.६(तीन महत्त्वपूर्ण वनों के नाम), द्र. खर्जूरीवन, पञ्चवन, प्रमदावन, बृहद्वन, मुञ्जवन, वृन्दावन, वैष्णववन, शरवण vana
वनक द्र. मन्वन्तर
वनज्वाला लक्ष्मीनारायण २.११६
वनमाला द्र. माला
वनमाली अग्नि ३३(वनमाला का लक्षण), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१२.२५(वनमाली कृष्ण से याम्य दिशा की रक्षा की प्रार्थना), वामन ९०.१७(किष्किन्धा में विष्णु का वनमाली नाम से वास), विष्णुधर्मोत्तर १.२३७.५(वनमाली से गले की रक्षा की प्रार्थना ), द्र. माली vanamaalee/ vanamali
वनशर्मा भविष्य ३.४.११.५३(नैर्ऋत रुद्र का अंश, शङ्कराचार्य - शिष्य )
वनस्पति भविष्य २.१.१७.२(तिल याग में अग्नि का वनस्पति नाम), भागवत ११.१६.२१(भगवान के वनस्पतियों में अश्वत्थ होने का उल्लेख), ११.२०.१५(आत्मा रूपी पक्षी द्वारा शरीर रूपी वनस्पति पर नीड का कथन), वामन ८७.२५(न्यग्रोध वनस्पति के ब्राह्मण मूल, क्षत्रिय स्कन्ध होने का कथन), ९०.२६(दण्डकारण्य में विष्णु का वनस्पति नाम), वायु ६९.३३२/२.८.३३२(लता से अपुष्प व पुष्प - फल युक्त वनस्पतियों की उत्पत्ति का कथन, वल्ली से गुल्मादि), ६९.३३९/२.८.३३०( वनस्पतियों की इरा से सृष्टि का कथन), विष्णुधर्मोत्तर १.४२.२४( लोमों में वनस्पति की स्थिति का उल्लेख), स्कन्द ५.३.१०३.९६(सोम के वनस्पतिगत होने /अमावास्या पर करणीय - अकरणीय कृत्य ), महाभारत शान्ति ३४२.५९(स्थूलशिरा महर्षि द्वारा वनस्पतियों को शाप), लक्ष्मीनारायण २.३८.६३(वालखिल्यों में वनस्पति मुनि की श्रेष्ठता का उल्लेख), vanaspati
Comments on Vanaspati
वन्ध्या भागवत ११.११.२०(वन्ध्या गिरा के लक्षण : भगवद् अवतारों का गुणगान न करना )
वपन महाभारत वन ३१३.५५(किंस्विदावपतां श्रेष्ठं किंस्विन्निवपतां वरम्।..वर्षमावपतां श्रेष्ठं बीजं निवपतां वरम्।)
वपु ब्रह्माण्ड १.२.३६.३५(बृहद्वपु : सत्य संज्ञक गण के १२ देवों में से एक), वामन ७२.७१(वपु अप्सरा द्वारा मङ्कि ऋषि की तपस्या में विघ्न, शाप प्राप्ति), स्कन्द ७.३.१२(कुरूप आभीरी वपु द्वारा रूप तीर्थ में स्नान से रूप प्राप्ति, इन्द्र से रति, अप्सरा बनना), लक्ष्मीनारायण १.५५३.५९(वपु तीर्थ का माहात्म्य : आभीरी का वपु अप्सरा बनना ), द्र. दक्ष कन्याएं , रूप vapu
Vedic view of Vapu by Dr. Tomar
वपुष्टमा देवीभागवत २.११.१२(सुवर्णवर्माक्ष - पुत्री, जनमेजय – पत्नी - ततः सुवर्णवर्माख्यो राजा काशिपतिः किल । वपुष्टमां शुभा कन्यां ददौ पारीक्षिताय च ॥ ), हरिवंश ३.५(जनमेजय - भार्या, मृत अश्व रूपी इन्द्र से समागम का प्रसंग - त्रियज्ञशतयज्वानं वासवस्त्वां न मृष्यते । अप्सरास्तेन पत्नी ते विहितेयं वपुष्टमा ।। ) vapushtamaa
वपुष्मती मार्कण्डेय १३३
वपुष्मान् अग्नि ११९.७(वपुष्मान् के ७ पुत्रों के शाल्मलि द्वीप के अधिपति बनने का कथन), गरुड .५६(शाल्मलि द्वीप का स्वामी, ७ पुत्रों के नाम), मार्कण्डेय १३४(वपुष्मान् का दम से युद्ध, वपुष्मान द्वारा नरिष्यन्त की हत्या), १३६(दम द्वारा नरिष्यन्त का वध ), वामन ७२, हरिवंश ३.३५.१८, vapushmaan
वमन लक्ष्मीनारायण १.५०१.५७(याज्ञवल्क्य द्वारा गुरु से प्राप्त विद्या के वमन का वृत्तान्त)
वम्री देवीभागवत १.५(वम्रि कीट द्वारा विष्णु के धनुष की ज्या का छेदन), स्कन्द ३.२.१४.४८(वम्रि द्वारा विष्णु के धनुष की ज्या के कर्तन से विष्णु के शिर का छेदन, वम्रि को यज्ञ में भाग प्राप्ति), लक्ष्मीनारायण १.३१८(सती व रुद्र की मानस पुत्री वम्री द्वारा अधिक मास की एकादशी व्रत के चीर्णन से १० प्रकार के वृक्षों की १० कन्याओं के रूप में जन्म लेकर १० प्रचेताओं की पत्नी बनने का वृत्तान्त ), १.३८५.५४(वम्री का कार्य – नखरंग देना), vamree/ vamri
वयुना भागवत ४.१.६४(पितरों व स्वधा की कन्या), ५.११.१५(वयुन उदय से माया के तिरस्कार का उल्लेख ), ६.६ vayunaa
वर पद्म १.२०.११९(वर व्रत का माहात्म्य), ३.२४.१३(वरदान तीर्थ के माहात्म्य का कथन), मत्स्य १७१.४६(धर्म व सुदेवी के वसु संज्ञक? ८ पुत्रों में से एक), महाभारत वन ५७.३५(देवों द्वारा नल को २ - २ वर प्रदान करना), लक्ष्मीनारायण ३.१२.८५(समाधि वत्सर में श्रीहरि द्वारा धर्मव्रत व भक्तिव्रता द्विज दम्पत्ति के पुत्र वरनारायण रूप में अवतरित होने का वृत्तान्त ), द्र. प्रवर, मणिवर vara
वरणा नारद २.४८.२२(काशी में वरणा नदी के इडा नाडी का रूप होने का उल्लेख), स्कन्द ४.१.१८.२१(वरणा तट पर स्थित वसिष्ठ व क्रतु द्वारा स्थापित लिङ्गों का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.१.३०.१९(काशी में क्षेत्र विघ्न निवारिणी वरणा नदी का माहात्म्य), ४.२.७४.५७(वरणा तट पर स्थित गणों के नाम), ४.२.९७.६१(वरणा तट पर अक्षपाद मुनि द्वारा सिद्धि प्राप्ति), लक्ष्मीनारायण २.१८५.९७+(श्रीहरि का स्वेष्टजरा ऋषि तथा जयकृष्णव राजा के साथ वरणा नगरी में आगमन व प्रजा को उपदेश आदि ), कल्याण साधना अंक पृ. ४१९ varanaa
वरतनु पद्म ४.५.२७(श्रीधर राजा के पूर्व जन्म का वृत्तान्त : शङ्करी - पति, पुत्र की मृत्यु में कारण बनने से जन्मान्तर में अपुत्रवान् होना )
वरतन्तु गर्ग ४.२४(बृहस्पति - शिष्य, गुरु शाप से अरिष्टासुर बनना )
वरद गणेश २.२८.१३(दशरथ द्वारा गणेश की वरदा मूर्ति स्थापित करने का उल्लेख), २.५४.५९(सनक व सनन्दन द्वारा वरद नाम से गणेश की स्थापना का वृत्तान्त), नारद १.६६.१३२(वरद गणेश की शक्ति लज्जा का उल्लेख), स्कन्द ४.२.५७.८६(वरद गणपति का संक्षिप्त माहात्म्य ) varada
वररुचि भविष्य ३.२.३०(अथर्वा - पुत्र, चन्द्रगुप्त से ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विवाद), मत्स्य १०.२५(गन्धर्वों द्वारा नाट्यवेद के विद्वान् वररुचि को दोग्धा बनाकर पृथिवी दोहन का कथन), स्कन्द ६.१३१.४९(कात्यायन - पुत्र वररुचि द्वारा महागणपति की स्थापना), कथासरित् १.१.६४, १.४.१००(वररुचि द्वारा राजा नन्द से धन की याचना), १.५.४१(राक्षस से मैत्री, राजा द्वारा वधाज्ञा, शकटाल द्वारा रक्षा की कथा ) vararuchi
वरसिंह लक्ष्मीनारायण २.१९३.९७+(कृष्ण का राजा वरसिंह द्वारा पालित नगरी वाशीला में आगमन, ४ युगों में राजधर्म का उपदेश आदि )
वरस्त्री द्र. वंश वसुगण
वराङ्गी पद्म १.४२.२०(वज्राङ्ग - पत्नी वराङ्गी की ब्रह्मा से उत्पत्ति, देवों द्वारा वराङ्गी को त्रास, तारक पुत्र की उत्पत्ति), १.४२ मत्स्य १४६.५७(ब्रह्मा द्वारा वराङ्गी कन्या को उत्पन्न करके वज्राङ्ग को पत्नी रूप में प्रदान करना, वराङ्गी द्वारा तप, इन्द्र द्वारा विघ्न आदि), स्कन्द १.२.१५(वज्राङ्ग - पत्नी वराङ्गी को इन्द्र द्वारा त्रास, प्रतिशोधार्थ तारकासुर की उत्पत्ति ) varaangee/ varangi
वराटक लक्ष्मीनारायण २.३६.३४(बृहस्पति द्वारा तपोरत वराटक दैत्य को तप से निवृत्त करने के लिए दैत्य धर्म का उपदेश), २.३७.४१(वराटक व अन्य असुरों द्वारा सौराष्ट} देश पर विजय हेतु युद्ध, पराजित होने पर कृष्ण की शरण में आने पर वराड पर्वत रूप होना )varaataka
वरारोहा स्कन्द ५.३.१९८.८१, ७.१.५७(वरारोहा लिङ्ग का माहात्म्य, सोम की २७ पत्नियों द्वारा सौभाग्य प्राप्ति हेतु गौरी पूजा ) varaarohaa/ vararohaa
वराह अग्नि ४.२(वराह अवतार द्वारा हिरण्याक्ष के वध का उल्लेख), कूर्म १.६.७(वराह द्वारा पृथ्वी के उद्धार पर ऋषियों द्वारा वराह की स्तुति), गणेश २.१२४.३१(कूर्म, वराह आदि द्वारा मृतक के प्रेत के भार को न सहने का उल्लेख), २.१२६.२०(पश्चिम दिशा में आश्रया देवी सहित वराह देव की पूजा का निर्देश), गरुड १.१२७.१५ ( वराह न्यास के संदर्भ में पादों में वराह तथा कटि में क्रोडाकृति के न्यास का निर्देश ), २.२.७७(अयाज्ययाजक वराह बनने का उल्लेख), देवीभागवत ७.१८(विश्वामित्र द्वारा हरिश्चन्द्र के विरुद्ध प्रेषित दानव द्वारा धारित रूप, हरिश्चन्द्र द्वारा वराह का पीछा), ७.३०.६२(वराह पीठ में जया देवी के वास का उल्लेख), ८.२(वराह का ब्रह्मा की नासिका से प्रकट होकर विशाल रूप धारण करना, वराह द्वारा पृथ्वी का उद्धार, ब्रह्मा द्वारा स्तुति), ८.१०.६(उत्तरकुरु वर्ष में पृथ्वी द्वारा वराह की आराधना), नारद १.६६.९७(वराह विष्णु की शक्ति निद्रा का उल्लेख), पद्म १.३(वराह द्वारा पृथ्वी का उद्धार, पृथ्वी व ऋषियों द्वारा वराह की स्तुति), १.३०.५(वराह का मह लोक में तथा नृसिंह का जन लोक में वास), २.२३.१०(वाराह विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष के वध व पृथिवी के उद्धार का उल्लेख), २.३७.२०(क्षपणस्य वरा पूजा अर्हतो ध्यानमुच्यते), २.४२(सूकर का इक्ष्वाकु राजा से युद्ध का निश्चय), २.४६.१६(रंगविद्याधर गंधर्व द्वारा पुलस्त्य के तप में विघ्न, शाप से वराह बनना), ६.१२०.६१(वराह से सम्बन्धित शालग्राम शिला के लक्षणों का कथन), ६.१६९(वराह तीर्थ का माहात्म्य), ६.२३७(वराह अवतार की कथा), ब्रह्म १.१०४(यज्ञवाराह का स्वरूप), २.९(यज्ञ के उद्धार हेतु वराह द्वारा सिन्धुसेन का वध, यज्ञ का स्रुवा रूप में मुख से उद्धार), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१२.२३(नृसिंह से हस्तयुग्म व वराह से पादयुग्म की रक्षा की प्रार्थना), ब्रह्माण्ड १.१.५.१६(वराह के यज्ञ रूप का वर्णन, वराह द्वारा भूमि का उद्धार), १.२.६.६(वर्तमान कल्प का नाम), भविष्य ३.४.२५.८१(वाराह की स्वायम्भुव मन्वन्तर में मकर राशि में उत्पत्ति, अन्य राशियों में अन्य अवतार), ४.१९४(वराह दान विधि), भागवत ३.१३.१८(यज्ञ वराह का ब्रह्मा के नासा छिद्र से प्राकट्य, पृथ्वी का उद्धार, ऋषियों द्वारा यज्ञस्वरूप की स्तुति), ३.२२.२९(यज्ञ के रोमों से यज्ञ में प्रयोजनीय कुश, काश आदि की उत्पत्ति का उल्लेख), ५.१८.३४(उत्तरकुरुवर्ष में पृथ्वी द्वारा वराह की उपासना), मत्स्य १३.३२(वराहशैल पर देवी के जया नाम से वास का उल्लेख), ५३.३८(वराह पुराण की श्लोक संख्या व वराह पुराण दान विधि व फल), २४८(अण्डसलिल की हिरण्मयता से पृथिवी का पीडित होना, पृथ्वी द्वारा यज्ञ वराह की स्तुति, वराह द्वारा पृथ्वी का उद्धार, वराह के यज्ञ स्वरूप का वर्णन), २६०.२८(वराह की प्रतिमा का रूप), मार्कण्डेय २१.३६(वाराह रूप धारी पातालकेतु के कुवलयाश्व द्वारा वध की कथा), लिङ्ग १.९४(वराह द्वारा धरा का उद्धार), वराह ४१.१(माघ शुक्ल द्वादशी को वराह पूजा विधि), ११४.१३(पृथ्वी द्वारा वराह से उपासना सम्बन्धी प्रश्न), १२५.४७(वराह माया का उल्लेख), १६३.२६(कपिल द्वारा मन से निर्मित वाराही प्रतिमा का इन्द्र, रावण आदि में हस्तान्तरण का वृत्तान्त), वामन ९०.४(वाराह तीर्थ में विष्णु का गरुडध्वज नाम से वास), वायु ६.१५(यज्ञ का रूप), २१.२३/१.२१.२१(वाराह कल्प के प्रश्न के उत्तर में २८ कल्पों का वर्णन), २१.२६/१.२१.२४(वराह का कल्प से एक्य, कल्पों का वर्णन), १.२३.९५(वराह का संवत्सर/यज्ञ रूप), ४८.३६(वराह द्वीप का वर्णन), वा. रामायण ४.४१.३३(वरार्हाणि शब्द का प्रयोग मूल-फलों हेतु), विष्णु १.४(वराह द्वारा पृथिवी का उद्धार, पृथिवी द्वारा स्तुति), १.४.३०(सनन्दनादि द्वारा वराह के अंगों की यज्ञपात्रों से तुलना), विष्णुधर्मोत्तर १.३(पृथिवी का उद्धार करने वाले यज्ञवराह का स्वरूप), १.५३(वराह रूप धारी विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष का वध), १.१२६(वराह का प्रादुर्भाव, प्रह्लाद को वरदान), १.१८२(नृवराह रूप धारी विष्णु द्वारा हिरण्याक्ष के वध का उल्लेख), १.२३७.८ (वराह से जल में रक्षा की प्रार्थना), ३.७९(वराह की मूर्ति का रूप, अनिरुद्ध ऐश्वर्य रूप), ३.११९.६ (कृषि कर्म के आरम्भ में वराह की पूजा), ३.१२१.३(सिन्धु कूल में वराह की पूजा का निर्देश), शिव १.७.१७(विष्णु द्वारा सूकर हनु धारण कर पाताल में स्तम्भ के अन्त की खोज में असफल होने का प्रसंग), २.१.७, २.१.१५.१५(वाराह कल्प के आरंभ का कथन - लिङ्ग अन्वेषणार्थ विष्णु द्वारा वराह रूप धारण, ), २.५.४२.४३(यज्ञ वाराह रूप धारी विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र से हिरण्यनेत्र के वध तथा पृथिवी के उद्धार का कथन), स्कन्द १.३.२.११.२(विष्णु द्वारा वराह रूप धारण कर लिङ्ग के मूल के अन्वेषण के प्रयत्न का वर्णन), २.१.१.२७(पृथिवी द्वारा वराह से स्वयं को धारण करने में सक्षम आधारों की पृच्छा), २.१.२(वराह मन्त्र आराधन विधि), २.१.३६(वराह द्वारा धरणी का उद्धार), २.२.३०.८०(वराह से अधो दिशा की रक्षा की प्रार्थना), ४.२.६१.२०२(ताम्र वराह, धरणि वराह, कोका वराह आदि का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.२.८३.९०(क्षोणी वराह तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.२.८४.६६(ताम्र वराह तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.५२.४३(यज्ञ रूप वराह का वर्णन, वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध), ५.३.१३.४५(२१वें कल्प का नाम), ५.३.१९.३५(मार्कण्डेय के समक्ष पृथ्वी का उद्धार करने वाले वराह का प्राकट्य), ५.३.१३२(आदि वराह तीर्थ का माहात्म्य), ५.३.१४९(लिङ्ग वराह तीर्थ का माहात्म्य, मास अनुसार केशव के नाम, आषाढ में वाराह की पूजा), ५.३.१५१(श्वेत वराह तीर्थ का माहात्म्य, अवतारों का वर्णन), ५.३.१५९.२४(राज्ञी गमन से दुष्ट तस्कर को विड~वराह योनि प्राप्ति का उल्लेख), ५.३.१८९(उदीर्ण वराह तीर्थ का माहात्म्य, पांच वराहों का वर्णन), ५.३.१९८.६९(वराहशैल पर देवी के जया नाम से वास का उल्लेख), ५.३.२३१.२८(२८ वैष्णव तीर्थों में ६ वराह तीर्थ होने का उल्लेख), ६.१०९.२०(विन्ध्य पर्वत पर में लिङ्ग की स्थिति का उल्लेख), ७.१.१८.११(वाराह कल्प के नाम का कारण, वाराह कल्प में समुद्र मन्थन से उत्पन्न चन्द्रमा को शिव द्वारा शिर पर धारण करना), ७.१.२६२(वराह स्वामि का माहात्म्य), ७.१.२७७(यज्ञ वराह का माहात्म्य, देविका तट पर यज्ञ वराह की भूधर नाम से स्थिति), ७.१.३५३(यज्ञ का रूप), ७.३.१९(वराह तीर्थ का माहात्म्य, वराह द्वारा पृथ्वी का उद्धार), ८.९८(वराह अवतार की देह में देवों के वास का वर्णन), हरिवंश १.४०(जनमेजय द्वारा वराह अवतार के रहस्य की पृच्छा), १.४१.२९(वराह के अंगों की यज्ञपात्रों से उपमा), ३.३४.३४(यज्ञ रूप), ३.३४(यज्ञ वराह द्वारा पृथ्वी का उद्धार), ३.३५(वराह द्वारा दिशाओं में पर्वतों व नदियों का निर्माण), ३.३९(वराह द्वारा हिरण्याक्ष का वध), महाभारत सभा ३८ दाक्षिणात्य पृष्ठ ७८५(यज्ञवराह का याज्ञिक स्वरूप, यज्ञवराह के भूत भव्य भवात्मना होने का उल्लेख), शान्ति २०९, ३४५.१८(वृषाकपि/वराह द्वारा पितरों को पिण्डदान की विधि का निरूपण), लक्ष्मीनारायण १.५०(पृथ्वी उद्धार पर देवगण द्वारा यज्ञवराह की स्तुति), १.१३४.२३(वराह रूप धारी श्रीहरि द्वारा हिरण्याक्ष के वध का वृत्तान्त), १.२६९.४४(श्रावण शुक्ल चतुर्थी को वराह जयन्ती व्रत की विधि), १.३४८.८७(कल्पग्राम वासी वराह विष्णु द्वारा मथुरा में दुष्ट राजा के सूदन का वृत्तान्त), १.३८८(वराह द्वारा भक्त राजा नन्द को पत्नी रूप में धरणी प्रदान करने व धरणी को दिव्य दन्त प्रदान करने का वृत्तान्त), १.५६४.८५(राजा धुन्धुमार द्वारा वराह का वेधन करने पर वराह द्वारा दिव्य रूप धारण, पूर्व जन्म में अङ्गद गायक का वर्णन), २.१०.५७(वराह द्वारा बालकृष्ण को स्वर्णसिंहासन व धरणी द्वारा स्वर्णशय्या देने का उल्लेख), २.३८.१२(कृष्ण द्वारा काली के वाहन सिंह की सहायता से वाराह रूप धारी राक्षस के वध का कथन), २.११७.३१(श्वेत वाराह रूपी नारायण के उपासक पिच्छल ऋषि द्वारा शाप से वह्नि की उष्णता शान्त करना, वराह तथा कृष्ण द्वारा वह्नि/पवमान पर कृपा, पवमान युक्त वराह तीर्थ की स्थापना), ३.१०२.६८(कुक्कुटों, वराहों के राक्षस होने तथा राक्षस योनि से मुक्ति हेतु उनके दान का उल्लेख), ३.१६४.४८(सप्तम अवतार के रूप में हिरण्यनेत्र का वध करने वाले वाराह का उल्लेख ), कथासरित् २.३.५३( अङ्गारवती द्वारा वराह रूप धारी स्वपिता दैत्य अङ्गारक का परिचय देना), ७.५.३७(काश्मीर में वाराह क्षेत्र की स्थिति का उल्लेख), ८.५.५५(वराहस्वामी : प्रभास से लडने वाले श्रुतशर्मा के ८ महारथियों में से एक, गर्दभरथ), १२.५.१२१ (बोधिसत्त्व वाराह जातक : वाराह द्वारा क्षुधाग्रस्त सिंह को स्वमांस अर्पित करना आदि), १५.१.५३(देवमाय द्वारा शासित राजाओं में से एक), १८.४.१०(राजा द्वारा °कारण सूकर° का पीछा करना), १८.४.९६(सूकर का कण्ठ व वारण का पृष्ठ स्पर्श करने से कृपाण - चर्म में रूपान्तरित होना), द्र. वाराह, शूकर varaaha/ varaha
Esoteric aspect of Varaaha
वरिष्ठता द्र. अधिपति
वरीदास हरिवंश १.३३.१९(नारद के वरीदास - पुत्र होने का उल्लेख),
वरीयान् भागवत ४.१.३८, लक्ष्मीनारायण १.३८२.१८३(पुलह व क्षमा-पुत्र)
वरुण अग्नि ६४(वरुण अभिषेक की विधि,वरुण प्रतिमा का स्वरूप), गणेश २.१०.२६(वरुण द्वारा महोत्कट गणेश का सर्वप्रिय नामकरण), २.७६.१२(विष्णु व सिन्धु के युद्ध में वरुण का प्रचण्ड से युद्ध), २.७७.३(सिन्धु द्वारा वरुण की हनु पर आघात), गरुड ३.७.२९(वरुण द्वारा हरि-स्तुति, वरुण की मनु से हीनता), ३.२२.२६(पाशी के १८ लक्षणों से युक्त होने का उल्लेख), गर्ग १.५.२४(अपांपति के कृतवर्मा रूप में अवतरण का उल्लेख), कूर्म १.४३.१९(माघ मास में सूर्य का नाम व रश्मि संख्या), देवीभागवत ४.३.४(कश्यप द्वारा वरुण की धेनु को वापस न करने पर वरुण द्वारा कश्यप को पृथिवी पर वसुदेव रूप में जन्म लेने आदि का शाप), ४.२२.३९(वरुण के द्रुपद रूप में अवतरण का उल्लेख), ५.८.७२(वरुण के तेज से देवी की जङ्घा व ऊरु की उत्पत्ति का उल्लेख), ९.२२.६(वरुण का शङ्खचूड - सेनानी विकङ्क से युद्ध), नारद १.११५.४८(माघ शुक्ल षष्ठी को वरुण की अर्चना का निर्देश तथा फल), पद्म १.२०.१२१(वारुण व्रत की संक्षिप्त विधि), १.३४.८२(वरुण के रसों का अधिपति होने का उल्लेख), ब्रह्म २.३.१२(शिव विवाह में वरुण द्वारा पान कर्म सम्पन्न कराना), २.१७.८(श्वसुर वरुण द्वारा जनक को भुक्ति व मुक्ति के सरल उपाय का कथन- चार आश्रमों के अनुसार पुरुषार्थ चतुष्टय), २.३४(हरिश्चन्द्र-रोहित-शुनःशेप आख्यान), २.५९.१७(वरुण द्वारा महाशनि असुर को अपनी सुता दान देना तथा इन्द्र को उसके बन्धन से मुक्त कराना), २.९०.८(वरुण के बलि से युद्ध का उल्लेख), ब्रह्मवैवर्त्त १.४(ब्रह्मा के रेतस् से वरुण की उत्पत्ति), १.४.२०(वरुण से वरुणानी की उत्पत्ति), ब्रह्माण्ड ३५७, २.३.५९(वरुण वंश का वर्णन), भविष्य १.५७.६(वरुण हेतु इक्षु रसौदन बलि का उल्लेख), १.५७.१७(वरुण हेतु अग्निमन्थ बलि का उल्लेख), २.१.१७.४(शान्ति कर्म में अग्नि का नाम), २.१.१७.१५(तोयाग्नि का नाम), ३.३.२०.१९(पय: के वेग के रोधन करने से वरुण नाम की सार्थकता), ३.४.१६(द्वितीय वसु का रूप, नामदेव रूप में अवतरण का वर्णन), ३.४.१८.१७(संज्ञा विवाह प्रकरण में वरुण के बकासुर से युद्ध का उल्लेख), ३.४.१८.५(१० यादसां पत्य: का उल्लेख), ३.४.२०.१८(अपरा प्रकृति के देवों में से एक), भागवत २.३, ८.१०.२८(वरुण का हेति से युद्ध), ९.७.७(वरुण द्वारा हरिश्चन्द्र को पुत्र देना, यज्ञ पशु के अभाव में वरुण द्वारा महोदर रोग उत्पन्न करना), मत्स्य १०१.७४(वरुण व्रत), १४८.९२(वरुण की ध्वजा पर रजत हंस का चिह्न), १५०.१३१(वरुण का तारक - सेनानी महिष से युद्ध), २६१.१७(वरुण की प्रतिमा का रूप), मार्कण्डेय ९५.३/९८(वरुण-पुत्र पुष्कर तथा प्रम्लोचा से उत्पन्न पुत्री मालिनी का संदर्भ), वामन ९.१७ (वरुण के वाहन शिशुमार की विशेषता), ५७.६८(वरुण द्वारा स्कन्द को २ गण सुवर्चस व अतिवर्चस प्रदान करने का उल्लेख), ६९.५४(वरुण का त्रिशिरा से युद्ध), ७४.१३(बलि के राज्य में मय का वरुण बनना), वायु ८४.६/२.२२.६(शुनादेवी/शुनोदेवी - पति, वंश का वर्णन), विष्णुधर्मोत्तर १.४१.५(वरुण पुरुष, गौरी प्रकृति), १.६८.७(जमदग्नि द्वारा परशुराम को वरुणालय के दर्शन का आदेश), १.७०.२६+( परशुराम का वरुण की अश्मनगरी में प्रवेश, वरुण सभा के दर्शन), १.७२(परशुराम द्वारा वरुण से काल का ज्ञान प्राप्त करना), ३.५२(वरुण की मूर्ति के स्वरूप का विस्तृत कथन), ३.१९५(वरुण व्रत), शिव २.५.३६.१०(वरुण द्वारा शङ्खचूड - सेनानी कालम्बिक से युद्ध), २.१२, स्कन्द १.१.८.२३(पाशी द्वारा आरक्त लिङ्ग की अर्चना का उल्लेख), १.१.१३.२७(वरुण के कुम्भ से युद्ध का उल्लेख), १.१.१७.१३९(वृत्र - इन्द्र संग्राम में वरुण के महादंष्ट्र से युद्ध का उल्लेख), १.१.१८.५(पाशी द्वारा कपिञ्जल रूप का ग्रहण), १.२.१३.१५७(शतरुद्रिय प्रसंग में वरुण द्वारा स्फटिक लिङ्ग की परमेश्वर नाम से पूजा का उल्लेख), १.२.१८.६०(वरुण द्वारा पाश से कुजम्भ की भुजा का बन्धन), ३.१.११.२७(वरुण द्वारा कौशिक का वध), ३.१.२३.२७(माहेश्वर यज्ञ में वरुण के नेष्टा ऋत्विज बनने का उल्लेख), ३.१.४९.५२(वरुण द्वारा रामेश्वर की स्तुति), ४.१.१२.४६(वरुण लोक की प्राप्ति हेतु अपेक्षित कर्म), ४.१.१२.९२(कर्दम - पुत्र शुचिष्मान् का तप से वरुणत्व प्राप्त करना), ५.२.४४.३३(वरुण के मङ्गल ग्रह से पीडित होने का उल्लेख), ५२४४११३, ५.३.२८.१७(त्रिपुर का नाश करने वाले शिव के रथ में वरुण व नैर्ऋत के शम्या बनने का उल्लेख), ५.३.३९.३१(कपिला गौ के कम्बल में वरुण की स्थिति का उल्लेख), ५.३.८१(वरुणेश्वर तीर्थ का माहात्म्य), ५.३.१३३.१३(चार लोकपालों में से एक वरुण द्वारा शिव से वर प्राप्ति, वरुणेश लिङ्ग की स्थापना), ५.३.१३३.४३(वरुणेश में स्नान का माहात्म्य), ५.३.१९१.१४(प्रलय काल में वरुण आदित्य के पश्चिम दिशा में तपने का उल्लेख), ५.३.२३१.१४(रेवा तीर पर ५ वरुणेशों की स्थिति का उल्लेख), ६.२५२.२४(चातुर्मास में वरुण की खर्जूरी वृक्ष में स्थिति का उल्लेख), ७.१.७०(वरुणेश्वर का माहात्म्य : अगस्त्य द्वारा शोषित समुद्र की पूर्ति), हरिवंश १.४६.२(इन्द्र के आदेश से चन्द्रमा द्वारा युद्ध में वरुण की सहायता), २.१२७(वरुण द्वारा बाणासुर की गायों का हरण, कृष्ण द्वारा वरुण की पराजय, वरुण द्वारा कृष्ण की स्तुति), ३.५३.२४(वरुण का विप्रचित्ति से युद्ध), ३.६१(वही), वा.रामायण १.१७.१५(वरुण का सुषेण वानर रूप में जन्म), ७.२३.२०(रावण द्वारा वरुणालय के दर्शन, वरुण-पुत्रों को परास्त करना), महाभारत अनुशासन १५०.३६(वरुण के सात ऋत्विजों के नाम), लक्ष्मीनारायण १.२२६.३६(वरुण द्वारा द्वारका में स्वनामख्यात सरोवर स्थापित करने का कथन), १.२७१.४९(माघ शुक्ल षष्ठी को वरुण की उत्पत्ति का कथन), १.३३७.४१(वरुण का शङ्खचूड - सेनानी कलविङ्क से युद्ध), १.४४१.८६(वृक्ष रूप धारी कृष्ण के दर्शन हेतु वरुण के खर्जूरी वृक्ष बनने का उल्लेख), १.५४३.७२(दक्ष द्वारा वरुण को अर्पित ५ कन्याओं के नाम), २.१६०.७१(प्राण प्रतिष्ठा के संदर्भ में वरुण हेतु नवनीतौदन दान का निर्देश), ३.४५.१४(सत्यव्रत द्वारा वरुण लोक प्राप्ति का उल्लेख), ३.४९.८४(गुर्वी की देह में न्यास के संदर्भ में जङ्घाओं में वरुण की स्थिति का उल्लेख), ३.१०१.६७(पाण्डुर वर्णा गौ दान से वरुण लोक प्राप्ति का उल्लेख), ३.१०२.६६, ३.१६२.१६(श्वेत वर्ण मणियों में वरुण की स्थिति का उल्लेख ), कथासरित् ८.१.४४ (काञ्चीनगरी के राजा की पुत्री वरुणसेना, ८.५.२४ (सिंहनाद दैत्य के वरुणशर्मा से युद्ध का उल्लेख), द्र. मित्रावरुण, मैत्रावरुण, वारुण
Varuna
वरुणा - असी वामन ३, १५
वरूत्री वायु ६५.७७(शुक्र व गो - पुत्र, पुत्रों के नाम, इन्द्र द्वारा पुत्रों का वध),
वरूथ गर्ग २.८.१६(वरूथप गोप द्वारा धेनुकासुर का कन्दुक से ताडन का उल्लेख), ब्रह्माण्ड १.२.२२.७०(सूर्य रथ में रात्रि वरूथ होने का उल्लेख), २.३.७.११(वरूथ गन्धर्व : रिष्टा व कश्यप - पुत्र), वायु ५१.६३(सूर्य रथ में रात्रि रूपी वरूथ), शिव २.५.८.१३(शिव रथ में द्यौ का वरूथ बनना), स्कन्द १.२.२.८३(दान के यज्ञों का वरूथ होने का उल्लेख), ४.२.८८.६३(सती के रथ में छन्दों के वरूथ बनने का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.२४८(वैशाख कृष्ण वरूथिनी एकादशी व्रत विधि व माहात्म्य : मरीचि - पत्नी कला व शिष्य वरूथ की कथा), २.२४५.४९(जीवरथ में ह्री वरूथ बनाने का निर्देश), ३.५८.७२(गन्धर्वों में से एक), ३.१२८.९७(रथ के वरूथ में समस्त शक्तियों की स्थिति का उल्लेख ) varootha/varuutha/ varutha
वरूथिनी नारद १.१२०.९(वरूथिनी एकादशी व्रत), पद्म ६.४८(वरूथिनी एकादशी का माहात्म्य व विधि), भविष्य ३.२.१६(कामावरूथिनी), मार्कण्डेय ६१(वरूथिनी का ब्राह्मण से संवाद), ६२(वरूथिनी का कलि से संवाद, स्वरोचिष को जन्म देना), लक्ष्मीनारायण २.१२९.५६(राजा वीरजार की पत्नी देववरूथिनी द्वारा पौष शुक्ल पूर्णिमा को पति के लोक की प्राप्ति का कथन), ३.१५५.२०(वरूथिनी अप्सरा द्वारा द्विज के आशीर्वाद से स्वरोचि पुत्र को जन्म देने का वृत्तान्त ) varuuthinee/ varoothinee/ varuthini
वरेण्य गणेश २.१३१.५(पुष्पिका - पति ; गजानन का पुष्पिका - पुत्र बनने का वृत्तान्त, राजा द्वारा बालक का त्याग), २.१३७.४८(वरेण्य द्वारा पूर्व जन्म में तप करके गणेश की पुत्र रूप में प्राप्ति करने का कथन, गणेश द्वारा वरेण्य को गणेशगीता का उपदेश), नारद १.६६.१३५(वरेण्य गणेश की शक्ति शिवा का उल्लेख), भविष्य ३.४.२२(जन्मान्तर में अग्रभुक् नामक संत ) varenya
वर्ग अग्नि ३६०
वर्गा स्कन्द १.२.१.३१(अर्जुन द्वारा वर्गा आदि ५ अप्सराओं के ग्राह योनि से उद्धार की कथा )vargaa
वर्चकायनि लक्ष्मीनारायण २.७३.१२(सुधन वणिक् द्वारा आमोदेश्वर लिङ्ग की अर्चना करने वाले वर्चकायनि ऋषि से कृष्ण मन्त्र की दीक्षा लेने का कथन )
वर्चस शिव २.५.३६.११(वर्चसगण : शङ्खचूड - सेनानी, वसुगण से युद्ध), लक्ष्मीनारायण १.३३७.४२(वर्चस गण : शङ्खचूड - सेनानी, वसुओं से युद्ध ) varchasa
वर्चा विष्णुधर्मोत्तर ३.७३.१४(सोम - पुत्र वर्चा की मूर्ति का स्वरूप), हरिवंश ३.३६.५८(सोम व रोहिणी - पुत्र, बुध से साम्य ), द्र. बृहद्वर्चा, वंश वसुगण, सुवर्चा, सुवर्चला, सूर्यवर्चा varchaa
वर्ज्य भविष्य ४.२६
वर्ण अग्नि ४६.२(वासुदेव असित, संकर्षण रक्त, प्रद्युम्न नील, अनिरुद्ध पीत आदि), १५१(वर्ण अनुसार आजीविका कर्म का वर्णन), २१८.१८(४ वर्णों द्वारा ४ प्रकार से राजा का अभिषेक), २४७.१(चतुर्वर्ण हेतु गृह निर्माण के लिए उपयुक्त भूमि के श्वेत, रक्त आदि वर्णों का उल्लेख), ३३६+(वर्णमाला के वर्णों का वर्गीकरण), ३४८, देवीभागवत १२.१.६+(गायत्री मन्त्र के २४ वर्णों के ऋषि, देवता, छन्द, तत्त्व, शक्ति आदि), नारद १.२४(चतुर्वर्ण के धर्म व आजीविका साधन का कथन), १.४३.५६(चतुर्वर्ण का कर्मों से विभाजन, जन्म से नहीं ; चतुर्वर्ण के जीविका कर्म), १.४३.६५(ब्राह्मण आदि वर्ण के लक्षण), १.५०, १.६५, ब्रह्मवैवर्त्त ३.४.२९(वर्ण सौन्दर्य हेतु चम्पक पुष्प दान का निर्देश), ३.४.३५(वर्ण सौन्दर्य हेतु बन्धूक पुष्प दान का निर्देश), ३.३५.७४, ब्रह्माण्ड १.२.७.१६२(चतुर्वर्ण के कर्म), भविष्य १.२(चतुर्वर्ण का कर्म विधान), १.४०+ (आचार से चतुर्वर्ण का विभाजन), १.४३, २.२.२.६(क्रौञ्च मान के संदर्भ में रक्त पीत आदि वर्णों को उत्पन्न करने की विधि का कथन), ३.४.२३.९७(वैश्यों से यक्षों – राक्षसों, शूद्रों से दैत्यों आदि की तृप्ति का कथन), ४.९४.१८(देहली आदि पर चातुर्वर्ण के प्रतीक चार रंगों से स्वस्तिक आदि चिह्नों को बनाने का उल्लेख), ४.१२२.१(चार वर्णों का चार युगों से तादात्म्य), भागवत ३.१२.४७, ११.१७, मार्कण्डेय ११०.३१/११३.३१(उच्च वर्ण के पुरुष द्वारा हीन वर्ण स्त्री से विवाह के संदर्भ में पुरुष के वर्ण की व्यवस्था का कथन), वराह ९, १२७+(ब्राह्मण आदि ४ वर्णों हेतु दीक्षा विधि का वर्णन), वायु ८.१६६(चातुर्वर्ण की आजीविका), २६.२९, ४३.२७(पञ्चवर्णा : भद्राश्व देश की अनेक श्रेष्ठ नदियों में से एक), १०४.७१/२.४२.७१(व्यास द्वारा वर्णों का देह का अङ्गों में दर्शन), विष्णु १.६.३४(चातुर्वर्ण के ऊर्ध्वलोकों में स्थान का कथन), २.४(प्लक्ष, शाल्मलि आदि द्वीपों में चतुर्वर्ण से सम्बद्ध जातियां), ३.८.२१(चातुर्वर्ण के धर्म/कर्तव्य का कथन), विष्णुधर्मोत्तर १.८८ (ग्रह - नक्षत्रों के मण्डलों में रक्त, श्वेत आदि वर्ण), १.११७.३२(कृष्ण, नील, रक्त, श्वेत आदि पराशर गोत्रों का कथन), २.८०(वर्ण अनुसार कर्म), २.८१(वर्ण संकरता), ३.४०(रङ्ग द्रव्य, व्यतिकरण), शिव १.१३.२(ब्राह्मण आदि चारों वर्णों की वृत्ति का कथन), ५.२१.१(स्ववर्ण से उच्चतर वर्ण में जन्म लेने हेतु अपेक्षित कर्मों का कथन), ७.२.२१.३६(विप्र, क्षत्रिय व वैश्य के लिए क्रमश: पीत, रक्त व असित/सित? वर्णों की श्रेष्ठता का उल्लेख), स्कन्द ३.२.६.७(वेदमयी गौ के वर्ण पाद होने का उल्लेख), ७.१.१०.११(वर्ण तीर्थ का वर्गीकरण – आकाश), ७.१.२०६.३१(चार वर्णों का कृत आदि चार युगों से तादात्म्य), हरिवंश २.७१.३१(४ युगों में भगवान् के श्वेत आदि वर्णों का उल्लेख), महाभारत शान्ति १८८(कर्म या गुण अनुसार चार वर्णों का संज्ञान), २८०.१७(स्वकर्मानुसार रक्त – विरक्त को प्राप्त होने का उल्लेख), २८०.३३(जीव के कृष्ण आदि ६ वर्णों का वर्णन), २८०.६७(हारिद्र व रक्त वर्ण में स्थित जीव के तिर्यक् योनि में जन्म लेने का कथन), २९६(चारों वर्णों के कर्म), अनुशासन १०६.११(चार वर्णों के लिए व्रत - उपवास के नियम), लक्ष्मीनारायण ३.१६२.१६(वर्ण अनुसार मणियों में देवों के वास का कथन ; ब्राह्मण आदि ४ वर्णों के लिए धारण योग्य मणियों के गुण ), द्र. द्युवर्णा, धर्मवर्णा, सवर्णा, सुवर्णा varna
वर्णमातृका अग्नि ५९.१६(ब, भ आदि की बुद्धि, जीव आदि संज्ञाएं - प्राणतत्त्वं भकारन्तु जीवोपाधिगतं न्यसेत्। हृदयस्थं बकारन्तु बुद्धितत्त्वं न्यसेद् बुधः ।। ), ८५.३(प्रतिष्ठा कला में ख से य वर्णों का उल्लेख), ८६.३(र, ल आदि ६ वर्णों का विद्याकला में उल्लेख), ८७.२ (शान्ति कला में हकार व क्षकार का उल्लेख), ८८.३(निर्वाणकला में अ से विसर्ग तक के वर्णों का उल्लेख), ९२.२३(वर्णमातृका से विभिन्न दिशाओं में शल्य का ज्ञान), १२५.१६(४५ वर्णों का बाल, कुमार, युवा, वृद्ध व मृत्यु वर्गों में विभाजन, नन्दिकेश्वर सूत्रों से साम्य), १२३.१(वर्णमाला के अक्षरों के ग्रह स्वामियों का विचार), १४५(वर्णमातृका न्यास का वर्णन), २९३.३७ (वर्ण मातृका न्यास की विधि), २९३.४१(वर्णमातृका में स्वरों व व्यञ्जनों के देवता), ३१७.३(वर्णमातृका के अक्षरों के देवताओं का कथन), ३३६(शिक्षाध्याय के अन्तर्गत वर्णमातृका का निरूपण), ३४८(एकाक्षर कोश), कालिका ५६.४५ (क, च, ट, त, प की मातृकाएं तथा उनके द्वारा रक्षाओं का कथन), गरुड १.११.३८ (शंख, चक्र आदि के लिए बीज मन्त्रों का न्यास), नारद १.६६.८६(वैष्णव, शैव व गाणपत्य वर्णमातृका नाम व न्यास), २.१२१.९६, ब्रह्माण्ड ३.४.३७(वर्ण मातृका), ४.४४.२२(वर्ण मातृकाओं की शक्तियां), ३.४.४४.७१(५१ वर्णों के गणेश), लिङ्ग १.१७.७३(वर्णमाला का शिव की देह में न्यास), वायु १०४.७१/२.४२.७१(व्यास द्वारा वर्णों का देह का अङ्गों में दर्शन), शिव २.१.८.३२(शिव की देह के वर्णमातृका स्वरूप का कथन - अकारस्तस्य मूर्द्धा हि ललाटो दीर्घ उच्यते ।। इकारो दक्षिणं नेत्रमीकारो वामलोचनम् ।।..), ७.२.३८.६६(देह के विभिन्न चक्रों में वर्णों का न्यास), स्कन्द १.२.५.७७(वर्णमाला में देवताओं का न्यास, वर्णमाला के विभिन्न अक्षरों का विभिन्न वर्गों में वर्गीकरण - ककाराद्याष्ठकारांता आदित्या द्वादश स्मृताः॥), लक्ष्मीनारायण २.१२१.९६ (ब्रह्मा द्वारा मेष, वृष आदि राशियों को विभिन्न वर्ण प्रदान का कथन - मेषायनाय प्रददौ अलइवर्णकान् अजः । वृषभाय ददौ ब्रह्मा ववउवर्णकान् तदा ।।….), २.१५६.९५ (अक्षर मातृका न्यास - न्यासान् कुर्याद् यथा यं पादयोः ऊं हृदये तथा ।….), २.१६०.८९(प्राण प्रतिष्ठा में न्यास के अन्तर्गत पञ्चभूत, तन्मात्रा, ज्ञानकृत, कर्मकृत आदि के लिए वर्णों का न्यास - आं बीजाय नमो गुह्ये क्रौं शक्त्यै पादयोर्नमः ।….. ), ३.१५०.६५ (हनुमान के संदर्भ में वर्णमातृका का न्यास - ओं कं खं गं घं ङ आं पृथिव्यप्तेजो वाय्वाकाशात्मने ओं हृदयाय नमः ।….), भरतनाट्य १४.९(वर्णों का घोष-अघोष, दन्त्य, तालव्य आदि में वर्गीकरण), varnamaatrikaa/ varnamatrikaa
Comments on Varnamaatrikaa
वर्णसंकर गरुड १.९६, महाभारत अनुशासन ४८.४(४ वर्णों से उत्पन्न वर्णसंकर प्रजाओं की संज्ञाएं), लक्ष्मीनारायण १.४१२.७, २.१५७.९(देवायतन मूर्ति में न्यास के संदर्भ में वर्णसंकर के पादाग्र में न्यास का उल्लेख ) varnasankara/ varnasamkara
वर्णाश्रम अग्नि १५१ आचार, १६६, नारद १.२४, १.४३, पद्म १.२३, ३.५४, ३.५८+, ५.९, ब्रह्म १.११४, ब्रह्मवैवर्त्त ४.८३(कृष्ण - प्रोक्त चातुर्वर्ण के धर्म), ब्रह्माण्ड २.३१?, भागवत ११.१७(वर्णाश्रम धर्म का निरूपण), मार्कण्डेय २८/२५(मदालसा द्वारा वर्णाश्रम के सम्बन्ध में अलर्क को अनुशासन), वराह ११५.२३(ब्राह्मण आदि ४ वर्णों द्वारा विष्णु की प्राप्ति हेतु अपेक्षित कर्मों का कथन), विष्णुधर्मोत्तर २.८२(चतुर्वर्ण के आपद् धर्म), ३.२२७(हंस - प्रोक्त वर्णाश्रम धर्म), स्कन्द ३.२.५.५०(चार वर्णों द्वारा आचमन जल के उपयोग की विधि ) varnaashrama/varnashrama
वर्णिशाल लक्ष्मीनारायण ३.३०.६९(हरिप्रथ भक्त के वाक्य से सप्तम मनु वर्णिशाल की मृत्यु व पुनर्जीवन का वृत्तान्त )
वर्णी द्र. व्यास
वर्तन कथासरित् ८.३.१२३(सूर्यप्रभ द्वारा परिवर्तिनी विद्या से दिव्य विमान प्राप्ति का कथन), भविष्य ३.४.२२(वर्तक : जन्मान्तर में रत्नभानु आचार्य),
वर्ति पद्म २.८६.६९(काया वर्ति, कर्म तैल), स्कन्द ५.१.३०.८९(कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को यम हेतु देय दीप की वर्ति के प्रकार का कथन ), लक्ष्मीनारायण ४.३२, varti
वर्तुल नारद १.६६.१०७(महेश्वर की शक्ति वर्तुला का उल्लेख),
वर्धकि स्कन्द २.२.१८(इन्द्रद्युम्न की कथा के संदर्भ में विष्णु द्वारा वर्धकि रूप में जगन्नाथ आदि की मूर्ति का निर्माण),
वर्धन भविष्य ३.२.१०, ३.३.१७, ३.३.३१.१५७(पृथ्वीराज - पुत्र, विष्णु की आराधना से श्री की प्राप्ति, किन्नरी नामक कन्या से विवाह ), द्र. नन्दिवर्धन, बलवर्धन, राज्यवर्धन, राष्ट}वर्धन, श्रुतवर्धन vardhana
वर्धनी/वर्धिनी अग्नि ७८.२९(कुम्भ का अङ्ग, शस्त्र रूप, सिंह के ऊपर स्थिति), स्कन्द ३.२.१, ३.२.३.६८+(वर्धिनि द्वारा धर्म के तप में विघ्न, वर प्राप्ति, उर्वशी की वर्द्धनी संज्ञा), लक्ष्मीनारायण १.४३९.५(इन्द्र द्वारा वर्धिनि अप्सरा का तपोरत धर्म हेतु प्रेषण, धर्म द्वारा वर्धिनि को उपदेश ) vardhanee/vardhinee / vardhini
वर्धमान मत्स्य ४६.१७, लक्ष्मीनारायण २.१७६.५६(ज्योतिष में योग), ४.९२.६२(वर्धमान नगर के राजा पुरञ्जन द्वारा नरकों की यातनाएं भोगने के स्वप्न का दर्शन, कृष्ण मन्त्र प्राप्ति से मुक्ति ), कथासरित् ५.१.१९, ५.३.८७, ७.५.३, १८.४.१४० vardhamaana/ vardhamana
वर्म अग्नि २६९.३४(वर्म प्रार्थना मन्त्र), भविष्य ३.३.३१.४४(मायावर्मा नृप द्वारा तामसी शक्ति से वर्म प्राप्ति का कथन), ४.१३८.६८(वर्म मन्त्र), भागवत ७.१०.६६(विद्या से वर्म के निर्माण का उल्लेख), मार्कण्डेय ४९.४६, महाभारत द्रोण १०३.२०, लक्ष्मीनारायण २.२४३.४१, ३.३१.२०(वर्मधर नृप का अजहारित ऋषि के शाप से अश्व बनना, पुत्र द्वारा अश्वमेध के अनुष्ठान से अश्व की मुक्ति का वृत्तान्त ), द्र. आर्यवर्मा, आदित्यवर्मा, कृतवर्मा, गुणवर्मा, चारुवर्मा, चित्रवर्मा, दृढवर्मा, द्विजवर्मा, धर्मवर्मा, भीमवर्मा, भोगवर्मा, मायावर्मा, मित्रवर्मा, मूलवर्मा, रूपवर्मा, वीरवर्मा, शिववर्मा, श्रुतवर्मा, सुवर्णवर्माक्ष, सूर्यवर्मा, हरिवर्मा varma
वर्वरि शिव २.५.२०.४(राहु की विमुक्ति के स्थान की वर्वर संज्ञा का कथन ) varvari
वर्ष कूर्म १.४७(विभिन्न वर्षों के निवासियों का वर्ण व भोजन), गरुड १.५५(भद्राश्व आदि वर्षों का दिशाओं के सापेक्ष विन्यास), देवीभागवत ८.५.९(रम्यक आदि वर्षों के मर्यादा पर्वतों का कथन), ८.८.८(इलावृत वर्ष में भव द्वारा संकर्षण की उपासना का कथन), ८.८.२२(भद्राश्व वर्ष में भद्रश्रवा द्वारा हयग्रीव की उपासना का कथन), ८.९.१+(हरिवर्ष, केतुमाल आदि वर्षों में नृसिंह आदि की उपासनाओं का कथन), ब्रह्मवैवर्त्त १.१६, ब्रह्माण्ड १.२.१७(किम्पुरुष, हरि व इला वर्ष), १.२.१९.१२९(वर्ष की निरुक्ति : ऋष - रमणे, वृष - रति/शक्ति प्रबन्धने), भागवत ५.२(आग्नीध्र व पूर्वचित्ति - पुत्र), ५.१८(वर्षों का वर्णन), मत्स्य ११४(किम्पुरुष आदि वर्ष), मार्कण्डेय ५३(किम्पुरुष आदि वर्ष), ५९(भद्राश्व, केतुमाल, उत्तरकुरु आदि वर्ष), ६०(किम्पुरुष, हरि आदि वर्ष), लिङ्ग १.४०.४७(त्रेता में वार्षिक धर्म व द्वापर में मासिक धर्म आदि का उल्लेख), १.४९, १.५२(भद्राश्व आदि वर्षों के निवासियों का भोजन), वायु ३३.१६(हव्य के ७ पुत्रों के नाम पर शाकद्वीप के ७ वर्षों के नाम), ३३.२४(ज्योतिष्मान् के ७ पुत्रों के नाम पर कुशद्वीप के ७ वर्षों के नाम), ३३.३१(मेधातिथि के ७ पुत्रों के नाम पर प्लक्ष द्वीप के ७ वर्षों के नाम), ३३.३७(आग्नीध्र के ७ पुत्रों के नाम पर जम्बू द्वीप के ९ वर्षों के नाम), विष्णु २.१, विष्णुधर्मोत्तर १.८२(ग्रह व नक्षत्रों के योगानुसार वर्ष), महाभारत भीष्म ६, लक्ष्मीनारायण १.५२६.५३(सौर, सावन, चन्द्र व ऋक्ष चार प्रकार के वर्षों तथा उनके कार्यों का कथन ), कथासरित् १.२.४६(मूर्ख वर्ष उपाध्याय के विद्वान् बनने का वृत्तान्त), द्र. उपवर्ष, रत्नवर्ष, हरिवर्ष varsha
वर्षा देवीभागवत १२.१०.५२(वर्षा ऋतु का स्वरूप, वर्षा की १२ शक्तियां), नारद १.५६.७२१(वर्षा हेतु गोचर व ग्रह विचार), ब्रह्माण्ड ३.४.३२.३०, भागवत १०.२०(व्रज में वर्षा ऋतु), वामन १(सती द्वारा वर्षा का वर्णन), वायु ३४.६३(वार्षायणि ऋषि द्वारा मेरु पद्म की कर्णिका को समुद्र रूपी मानना), विष्णु २.९(सूर्य द्वारा कर्षित आकाशगङ्गा के जल से वर्षा), ५.३.३६(वृन्दावन में वर्षा ऋतु का वर्णन), विष्णुधर्मोत्तर १.२४३(राम द्वारा वर्षा ऋतु का वर्णन), स्कन्द ५.२.४४.१८(मेघों द्वारा अतिवृष्टि करने पर आर्द्रा से स्वाती तक १० नक्षत्रों में वृष्टि होने का बन्धन, क्रूर ग्रहों से मेघों के पीडित होने पर अनावृष्टि आदि का वर्णन), ५.३.१०३.६०(त्रिदेवों में ब्रह्मा के वर्षा ऋतु होने का कथन), हरिवंश २.१०(वृन्दावन में वर्षा ऋतु), २.९५(प्रद्युम्न द्वारा प्रभावती से वर्षा ऋतु का वर्णन), महाभारत वन ३१३.५६, योगवासिष्ठ ६.१.७८.५(वर्षा में लता तुम्बी की भांति तृष्णा के दीर्घता को प्राप्त होने का उल्लेख), वा.रामायण ४.२८(राम द्वारा वर्षा ऋतु का वर्णन), ४.२९, लक्ष्मीनारायण ४.४४.६९(वर्षा के पुण्य बन्धक होने का उल्लेख ), शौ.अ. ५.२४.५(मित्रावरुणौ वृष्ट्याधिपती), varshaa
वल द्र. बल
वलभी वामन ९०.३४(वलभी में विष्णु का गोमित्र नाम ), कथासरित् ४.२.१२८, ६.३.७५, ६.६.४३ valabhee/ valabhi
वलय द्र. कुवलय
वला द्र. नड्वला
वलीमुख विष्णुधर्मोत्तर १.२४९.५, कथासरित् १०.७.९७(उदुम्बर वन में निवास करने वाले वलीमुख वानर के हृत्पद्म को शिशुमार द्वारा प्राप्त करने की इच्छा),
वल्गु वायु ५९.१०४(वल्गूतक : मन्त्रकार आत्रेय ऋषियों में से एक), लक्ष्मीनारायण २.१९.११२, २.१६६.२५(कृष्ण व गङ्गा की २८ कन्याओं में ज्येष्ठ ) valgu
वल्मीक पद्म २.३८.३३(ऋषियों के शापभय से वेन के वल्मीक में प्रवेश का उल्लेख), स्कन्द २.१.१५(वल्मीक पर विद्युत्पात से विष्णु का प्राकट्य), ३.२.५.२२(शृङ्गवान् द्वारा वल्मीक का संचिनुयन करने का कथन), लक्ष्मीनारायण १.१५५.५२(अलक्ष्मी के वल्मीक सदृश स्तनों का उल्लेख ), कथासरित् ६.७.४६, ८.३.५१, द्र. वाल्मीकि valmeeka/ valmika
वल्ल लक्ष्मीनारायण १.५५०.५३(वल्ल निषाद द्वारा मृग की भ्रान्ति में भल्ल द्वारा विष्णु का हनन, विष्णु सहित स्वर्ग गमन),
वल्लभ गणेश १.१९.४०(वल्लभ नृप के मूक, बधिर पुत्र के रोग मुक्त होने पर राजा द्वारा रानी कमला व पुत्र दक्ष का निष्कासन), १.२२.३५(भावी जन्म में कल्याण वैश्य के वल्लभ क्षत्रिय बनने का कथन), पद्म ४.१५(वल्लभ वैश्य की अशीला पत्नी हेमप्रभा के एकादशी व्रत से मुक्त होने की कथा), ५.६९.११७(कृष्ण-वल्लभा आद्या प्रकृति राधा का उल्लेख), ५.७०.७(कृष्ण-वल्लभा ८ प्रधान प्रकृतियों के नाम), ५.७०.९(कृष्ण-वल्लभा १६ प्रकृतियों के नाम), लक्ष्मीनारायण ४.१०१.१११(वल्लभा : कृष्ण की ११२ मुख्य पत्नियों में से एक, पुत्र व पुत्री के नाम ), कथासरित् २.२.१७(राजा वल्लभशक्ति का उल्लेख), १८.२.२७७(वल्लभशक्ति के अश्व समुद्रकल्लोल का उल्लेख ) vallabha
वल्लवा लक्ष्मीनारायण ४.१०१.१२७(कृष्ण की ११२ मुख्य पत्नियों में एक, पुत्र व पुत्री के नाम ), vallavaa
वल्ली लक्ष्मीनारायण २.३३.५६(वल्लीदीन असुर द्वारा व्याघ्र| रूप धारण कर श्रीहरि के वध का यत्न, श्रीहरि द्वारा शरभ रूप धारण कर व्याघ्र| का वध )), २.२५३.१९(वल्ली द्वारा पुष्प प्रदान का उल्लेख ), द्र. नागवल्ली, रङ्गवल्ली
वशद शिव ३.५
वशवर्ती द्र. मन्वन्तर
वशीकरण अग्नि १४०(वशीकरण योग हेतु ओषधियों का चक्र में न्यास), ३२३.२१(वशीकरण हेतु मन्त्र), नारद १.६८.३७(वशीकरण हेतु गणेश पूजा में विभिन्न द्रव्य), २.१४.२३, स्कन्द ६.३६.३४(वशीकरण हेतु कूष्माण्डी जपने का निर्देश), लक्ष्मीनारायण १.४३३.१७(पति के वशीकरण उपाय का कथन ) vasheekarana/ vashikarana
वषट् ब्रह्माण्ड १.२.२८.४२(पूर्णिमा को वषट् क्रिया काल का निरूपण), शिव ५.१०.४२(धेनु के चार स्तनों में से एक वषट्कार द्वारा अन्य देवों व भूतेश्वरों की तृप्ति का उल्लेख), स्कन्द ३.२.६.९(वषट्कार स्तन से मुनियों व देवभूतों के तृप्त होने का उल्लेख), ५.२.५२.८(पुरुष के ह्रदय से वषट्कार की उत्पत्ति का उल्लेख- हृदयात्तस्य देवस्य वषट्कारः समुत्थितः ।। छंदसां प्रवरा देवी चतुर्विंशाक्षरा परा ।। ), हरिवंश २.१२२.३३(वषट्कार के आश्रित २ अग्नियों ज्योतिष्टोम व विभाग के नाम), महाभारत सौप्तिक १८.७ (शिव द्वारा यज्ञों से धनुष और वषट्कार से धनुष की ज्या बनाने का वर्णन - वषट्कारोऽभवज्ज्या तु धनुषस्तस्य भारत ।), लक्ष्मीनारायण २.१२४.७६(विश्व में विभिन्न द्रव्यों के साथ स्वाहा, स्वधा, वषट् आदि उच्चारण के संदर्भ में वषट्कार के साथ सम्बद्ध वस्तुओं का कथन - सूतमागधबन्दीभ्यो वषट् तीर्थेभ्य इत्यपि ।। मानवेभ्यस्तथा वषड् वृक्षद्रुभ्यो वषट् तथा ।।..), ३.१५.४(१८वें वत्सर में श्रीहरि व लक्ष्मी का वषट्कार विप्र व उसकी पत्नी स्वधावती के अपत्य - द्वय शीलनारायण व स्वामिनारायणी रूप में अवतार लेने का वर्णन ) vashat
Vedic references on Vashat
वसतीवरी ऋग्वेद ९.१११.२ सायण भाष्य(“रोचमानः सोमः “त्रिधातुभिः त्रयाणां लोकानां धारयित्रीभिर्मातृभिर्वसतीवरीभिः “अरुषीभिः आरोचमानाभिर्दीप्तिभिः “वयः अन्नं “दधे स्तोतृभ्यः प्रयच्छति )
वसन्त भागवत १०.१८.३(वृन्दावन में ग्रीष्म ऋतु में वसन्त का कथन), स्कन्द २.२.४५.३(वसन्त ऋतु में दमन भञ्जक यात्रा का वर्णन), ३.१.५.७५ (वसन्तक : वल्लभ - पुत्र, बलोत्कट विशेषण), ५.३.१९२.२३(नर - नारायण को आकर्षित करने हेतु वसन्त द्वारा प्रदर्शित रूप का कथन, वसन्त आदि की असफलता), लक्ष्मीनारायण १.१८४.१२३(वसन्तक : काम से उत्पन्न २ पुत्रों में से एक), १.१८४.१९१(हनुमान के रोम व भैक्ष्य वसन्त सदृश होने का उल्लेख ), कथासरित् २.१.४४(सहस्रानीक के नर्म सुहृत् से वसन्तक पुत्र की उत्पत्ति का उल्लेख), ३.२.११(वसन्तक द्वारा काण बटुक रूप धारण), ३.२.१४, ४८(वसन्तक के जलकर मरने का मिथ्या समाचार), ६.७.५३(वसन्तसेन नृप की कन्या विद्युद्द्योता का वृत्तान्त), १६.१.२३(?), १६.३.९ वसन्ततिलक, द्र. ऋतु vasanta
Vedic references on Vasanta
वसन्ततिलक गर्ग ७.२६.५१(प्रद्युम्न द्वारा वसन्ततिलका नगरी के राजा शृङ्गारतिलक को हराने का वृत्तान्त )
वसन्तमालती गर्ग ७.४६.२५(बलराम द्वारा गन्धर्वों की वसन्तमालती पुरी का हल से कर्षण करके नदी में डालने का उद्योग),
वसन्तिका विष्णुधर्मोत्तर १.१६४(वसन्तिका का नयनसुन्दरी से श्रवणद्वादशी विषयक प्रश्न),
वसा गरुड २.४.१४१(वसा में मृत्तिका देने का उल्लेख), २.३०.५०/२.४०.५०(मृतक की वसा में मृत्तिका देने का उल्लेख), विष्णुधर्मोत्तर २.१२०.२१(वसा हरण से मद्गु योनि प्राप्ति का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.३७०.५९(नरक में वसा कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख ) vasaa
वसिष्ठ कूर्म १.१३.१२(ऊर्जा - पति, ७ पुत्रों व एक कन्या के नाम), १.२०.३५(वसिष्ठ द्वारा राजा वसुमना को मुक्ति के उपाय का कथन), गणेश २.१०.२३(वसिष्ठ द्वारा महोत्कट को पद्म भेंट व ब्रह्मणस्पति नामकरण), गरुड ३.७.४६(वसिष्ठ द्वारा हरि-स्तुति), देवीभागवत १.३.२८(अष्टम द्वापर में व्यास), ३.१७.७(विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठ की होम धेनु को बलात् ग्रहण करने के प्रयास का वृत्तान्त), ६.१०, ६.१३.३५(हरिश्चन्द्र को यातना देने पर वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र को बक होने का शाप, विश्वामित्र द्वारा आडि बनने का प्रतिशाप), ७.१०.४६(सत्यव्रत का वसिष्ठ के शाप से त्रिशंकु पिशाच बनने का वृत्तान्त), नारद २.१+ (वसिष्ठ द्वारा मान्धाता को एकादशी के माहात्म्य का वर्णन), पद्म १.१९.२४१(हेमपूर्ण उदुम्बर प्राप्ति व मृणाल चोरी पर वसिष्ठ की प्रतिक्रिया), १.२२.२०(मित्रावरुण व उर्वशी से उत्पत्ति के संदर्भ में इन्द्र द्वारा शापित वायु? का रूप), १.२२.३४(निमि व वसिष्ठ का परस्पर शाप से विदेह होना), १.३४.१५(वसिष्ठ के ब्रह्मा के यज्ञ में मैत्रावरुण ऋत्विज बनने का उल्लेख), २.१७+(सोमशर्मा विप्र द्वारा वसिष्ठ से अपुत्रवान् होने के कारण की पृच्छा, वसिष्ठ द्वारा पूर्व जन्म के वृत्तान्त का कथन), २.१०५.४५(हुण्ड दैत्य की दासी द्वारा आयु - पुत्र का वसिष्ठ के आश्रम में त्याग, वसिष्ठ द्वारा बालक का नहुष नामकरण), २.१०८(नहुष द्वारा वसिष्ठ से स्वयं के विषय में आकाशवाणी के कथन की पृच्छा), ३.१०.१९+ (वसिष्ठ द्वारा दिलीप को तीर्थ सम्बन्धी उपदेश), ३.२५?, ४.१३, ५.८९, ६.१२५.५१(वसिष्ठ द्वारा दिलीप को माघ स्नान माहात्म्य का कथन), ६.२०२, ब्रह्म १.११.१९४(सहस्रबाहु द्वारा वन को जलाने पर वसिष्ठ द्वारा राजा सहस्रबाहु को शाप), १.१३३+ (वसिष्ठ द्वारा कराल जनक को क्षर - अक्षर ज्ञान का कथन), २.३३(प्रियव्रत के हयमेध में पुरोहित वसिष्ठ द्वारा यष्टि द्वारा हिरण्यक आदि दैत्यों का न्यवारण करना), २.८१.११(उर्वशी के वियोग में शोकग्रस्त पुरूरवा को वसिष्ठ द्वारा उर्वशी की मृत्यु का समाचार देना), ब्रह्मवैवर्त्त २.५१.२५(वसिष्ठ द्वारा सुयज्ञ नृप को गो हत्या के पाप के प्रायश्चित्त का कथन), ४.४१.५३(वसिष्ठ का हिमालय से शिव - पार्वती विवाह के संदर्भ में संवाद, अनरण्य - कन्या का उपाख्यान), ब्रह्माण्ड १.१.५.७६(ब्रह्मा के समान वायु से वसिष्ठ के प्राकट्य का उल्लेख), १.२.११.३९(ऊर्जा -पति, ७ पुत्रों के नाम), २.३.१.४६(वसिष्ठ शब्द की निरुक्ति, ब्रह्मा के शुक्र होम से उत्पत्ति), ३८, २.३.६३.९३(वसिष्ठ द्वारा सत्यव्रत को त्रिशङ्कु होने का शाप), भविष्य ३.४.२१.१३(कलियुग में वसिष्ठ का कण्व - पौत्रों के रूप में जन्म), ४.५३, ४.२०४(वसिष्ठ द्वारा धर्ममूर्ति राजा को पूर्व जन्म के वृत्तान्त का कथन), भागवत ९.१३(वसिष्ठ द्वारा यजमान निमि को शाप, स्वयं भी शाप प्राप्ति, शरीर त्याग), मत्स्य ६१(इन्द्र के शाप से अग्नि का वसिष्ठ रूप में जन्म, वसिष्ठ व निमि द्वारा परस्पर शाप - प्रतिशाप, विदेह होना, कुम्भ से जन्म), २००(वसिष्ठ का वंश व गोत्र), मार्कण्डेय ९(वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र को बक होने का शाप, विश्वामित्र द्वारा वसिष्ठ को आडि होने का शाप, आडि - बक युद्ध), लिङ्ग १.२४.३९(अष्टम द्वापर में व्यास ), १.६३.७९(अनावृष्टि में वसिष्ठ द्वारा प्रजा का धारण, राक्षस द्वारा पुत्र शक्ति का भक्षण आदि), वराह २१.१६(दक्ष यज्ञ में वसिष्ठ के सुब्रह्मण्य बनने का उल्लेख), ४२.८(वसिष्ठ द्वारा हृतराज्य राजा वत्स को नृसिंह द्वादशी व्रत का कथन), ६२.१७(वसिष्ठ द्वारा राजा अनरण्य को दिव्य पद्म का रहस्य बताना), ९९.५८(वसिष्ठ द्वारा स्वर्गवासी राजा श्वेत को क्षुधा निवृत्ति का उपाय बताना), वामन ४०(सरस्वती द्वारा वसिष्ठ के अपवहन का प्रसंग), ८९.४६(वारुणि द्वारा वामन को अक्षसूत्र देने का उल्लेख), वायु ७०.८८/२.९.८८(वसिष्ठ व कपिञ्जली घृताची से कुशीतियों/इन्द्रप्रतिम की उत्पत्ति का कथन), ७०.९०/२.९.९०(वसिष्ठ पक्ष के ११ एकार्षेय ऋषियों का कथन), ७२.८९/२.११.८९(वसिष्ठ प्रजापति के सुकाला नामक पितरों की हिरण्यगर्भ के पुत्र शूद्रों द्वारा उपासना का कथन), ९४.४३/२.३२.४३(कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा वरुण - पुत्र वसिष्ठ/आप: के आश्रम को जलाने पर शाप प्राप्ति का कथन), विष्णु १.१०.१२(वसिष्ठ द्वारा उर्जा पत्नी से उत्पन्न ७ पुत्रों के नाम), १.११.४९(वसिष्ठ द्वारा ध्रुव को परम पद प्राप्ति के उपाय का कथन), ४.४.६९ (राक्षस द्वारा वसिष्ठ वेष धारण कर राजा सौदास से मांसयुक्त भोजन की मांग की कथा), विष्णुधर्मोत्तर १.३१.१७(वसिष्ठ द्वारा कार्तवीर्य को बाहुछेदन के शाप का कथन), १.११६(गोत्रकार वसिष्ठ), १.११७(निमि के शाप से वसिष्ठ का विदेह होना, पुन: देह धारण), शिव २.२.३.५७(वसिष्ठ से सुकाली पितरों की उत्पत्ति का कथन), २.३.३२, २.३.३४(शिव - पार्वती विवाह के प्रसंग में वसिष्ठ द्वारा हिमालय को अनरण्य के इतिहास का कथन- अनरण्य-कन्या पद्मा का पिप्पलाद ऋषि से विवाह), ७.२.४.५३(मन्मथाराति शिव का रूप), स्कन्द १.१.१८.७८(वसिष्ठ द्वारा बलि से दान में चिन्तामणि की प्राप्ति), २.१.२४(वसिष्ठ द्वारा सुन्दर गन्धर्व को शाप), ३.१.४.१०(वसिष्ठ द्वारा दुर्द्दम गन्धर्व को राक्षस होने का शाप), ३.१.४९.६६(वसिष्ठ द्वारा रामेश्वर की स्तुति – सूर्योदय द्वारा तम का क्षय), ३.२.९.८२(वसिष्ठ गोत्रीय विप्रों के गुण), ३.२.२३.११ (ब्रह्मा के सत्र में भरद्वाज व वसिष्ठ के प्रत्यध्वर्यु ऋत्विज बनने का उल्लेख), ३.२.३१.१(राम द्वारा वसिष्ठ से ब्रह्मराक्षसों की हत्या के पाप से शुद्धि हेतु सर्वोत्तम तीर्थ के विषय में पृच्छा), ३.३.२.३०(राजा मित्रसह द्वारा आमिष भोजन प्रस्तुत करने पर वसिष्ठ द्वारा राक्षस होने का शाप), ४.१.१८.२१(वसिष्ठ द्वारा काशी में वरणा तट पर स्थापित वसिष्ठेष्वर लिङ्ग का माहात्म्य), ४.१.१९.११५(वसिष्ठ द्वारा ध्रुव को हृषीकेश की आराधना का निर्देश), ४.२.७७(हिरण्यगर्भ के शिष्य वसिष्ठ ब्राह्मण की केदारेश्वर पूजा से मुक्ति), ४.२.६१.१६५(वसिष्ठ तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.२.९७.३३(वृद्ध वसिष्ठेश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.६३.२४१(बलि के अश्वमेध में वसिष्ठ के सभासद बनने का उल्लेख), ५.२.२२.६(वसिष्ठ द्वारा राजा धर्ममूर्ति को उसके वैभव के कारण का वर्णन), ५.२.६६.२७(पांच पुत्रों व अमात्यों आदि की मृत्यु पर राजा जल्प द्वारा वसिष्ठ से श्रेष्ठ तीर्थ या लिङ्ग की पृच्छा, वसिष्ठ द्वारा महाकालवन में जाने का परामर्श), ५.३.१९४.५५(नारायण व श्री के विवाह यज्ञ में धर्म व वसिष्ठ के होता - द्वय बनने का उल्लेख), ६.५३.२६(राजा सौदास द्वारा वसिष्ठ को भोजन हेतु महा मांस प्रस्तुत करने पर वसिष्ठ द्वारा राजा को शाप द्वारा राक्षस बनाने की कथा), ६.९५.१२(अजापाल नृप द्वारा वसिष्ठ से शीघ्र फल देने वाले तीर्थ के विषय में पृच्छा, वसिष्ठ द्वारा हाटकेश्वर में चण्डिका देवी की आराधना का परामर्श), ६.१५१.४६(सुरथ राजा द्वारा शत्रुओं से स्वराज्य की प्राप्ति हेतु वसिष्ठ से उपाय की पृच्छा, वसिष्ठ द्वारा हाटकेश्वर में भैरव की उपासना का परामर्श), ७.१.२३.९३(चन्द्रमा के यज्ञ में वसिष्ठ के अध्वर्यु बनने का उल्लेख), ७.१.१२९(वसिष्ठ द्वारा अन्त्यज - कन्या अक्षमाला से विवाह, अक्षमाला को अरुन्धती बनाना), ७.१.२५५.२१(हेमपूर्ण उदुम्बर प्राप्ति व बिस चोरी पर वसिष्ठ की प्रतिक्रिया), ७.२.१४.१(पुत्र शोक से पीडित वसिष्ठ द्वारा स्वर्णरेखा नदी तट पर तप, शिव से वर प्राप्ति), ७.३.१+ (वसिष्ठ द्वारा अर्बुदाचल पर गर्त्त पूर्ति का उद्योग, तप, अचलेश्वर लिङ्ग की स्थापना), ७.३.६(वसिष्ठ आश्रम का माहात्म्य), ७.३.९.१०(राजा अजपाल द्वारा वसिष्ठ से अपने वैभव के कारण की पृच्छा), ७.४.१७.१३(द्वारका में वसिष्ठ की सनत्कुमार सहित पूर्व द्वार पर स्थिति का उल्लेख), महाभारत आदि १७३.६(वशिष्ठ की निरुक्ति : इन्द्रियों को वश में करने वाला, अन्य गुण), योगवासिष्ठ ३.१९.१(अरुन्धती - पति वसिष्ठ ब्राह्मण का राजा बनना, मृत्यु पश्चात् सूक्ष्म शरीर का वर्णन), ३.२०.१(वसिष्ठ ब्राह्मण का जन्मान्तर में पद्म राजा बनना), ६.२.४९(वसिष्ठ गीता), वा.रामायण १५२, ७.५५(वसिष्ठ व निमि द्वारा शाप - प्रतिशाप की कथा), लक्ष्मीनारायण १.३१४(ब्रह्मा की मानस पुत्री सन्ध्या के विभिन्न जन्मों में वसिष्ठ की पत्नी बनने का वृत्तान्त), १.३८७.८२(वेदश्रवा ऋषि व उसकी पत्नी सुश्रुति के संदर्भ में कल्माषपाद/सौदास व वसिष्ठ का आख्यान), १.४१०(रुधिर राक्षस द्वारा वसिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र शक्ति समेत १०० पुत्रों का भक्षण, शक्ति - पत्नी अदृश्यन्ती द्वारा वसिष्ठ - पौत्र पराशर को उत्पन्न करने का वृत्तान्त), १.५०६(वसिष्ठ व विश्वामित्र के मध्य वैर के कारण का वर्णन : वसिष्ठ द्वारा कामधेनु की सहायता से राजर्षि विश्वामित्र का सेना सहित सत्कार, कामधेनु न दिए जाने पर विश्वामित्र द्वारा युद्ध व ब्राह्मणत्व प्राप्ति हेतु तप, वसिष्ठ द्वारा विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि संज्ञा से सम्बोधित न करना आदि), २.३१.७६(वसिष्ठ द्वारा सौदास - पत्नी मदयन्ती से अश्मक पुत्र उत्पन्न करने का उल्लेख ) vasishtha
Vedic references on Vasishtha
वसिष्ठ ( वशिष्ठ ) -एक प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि, जो ब्रह्माजीके मानस पुत्र माने गये हैं। एक समय जब राजा संवरण शत्रुओं से पराजित हो सिन्धुनामक महानद के तटवर्ती निकुञ्ज में एक सहस्र वर्षों तक छिपे रहे, उन्हीं दिनों भगवान् वसिष्ठ मुनि उनके पास आये । राजा ने उन्हें उत्तम आसन पर बिठाकर कहा -- भगवन् ! हम पुनः राज्य के लिये प्रयत्न कर रहे हैं, आप हमारे पुरोहित हो जाइये ।' तब वसिष्ठजी ने बहुत अच्छा' कहकर भरतवंशियो को अपनाया और पुरुवंशी संवरण को समस्त क्षत्रियों के सम्राट-पद पर अभिषिक्त कर दिया ( आदि० ९४ । ४०-४५ ) । वसिष्ठजी का एक नाम आपव भी है ( आदि० ९८ । २३ )। पूर्वकाल में वरुण ने इनको पुत्ररूप में प्राप्त किया था ( आदि० ९९ । ५)। गिरिराज मेरु के पार्श्वभाग में इनका पवित्र आश्रम था, जो मृग और पक्षियों से भरा रहता था । सभी ऋतुओं में विकसित होने वाले फूल उस आश्रम की शोभा बढ़ाते थे । उस आश्रम के निकटवर्ती वन में स्वादिष्ट फल-मूल और जल की सुविधा थी । पुण्यवानों में श्रेष्ठ वरुणनन्दन महर्षि वसिष्ठ वहीं तपस्या करते थे ( आदि० ९९ । ६-७ )। दक्षकन्या सुरभि की पुत्री नन्दिनी नामक गौ इन्हें होमधेनु के रूप में प्राप्त हुई थी ( आदि० ९९ । ८-९ )। एक दिन द्यो नामक वसु ने अपनी पत्नी के बहकाने से इनकी होमधेनु का अपहरण कर लिया ( आदि० ९९ । २८ )। वसिष्ठजी फल-मूल लेकर जब आश्रम पर लौटे, तब बछड़े सहित उस गौ को न देखकर वन में उसकी खोज करने लगे । दिव्य दृष्टि से यथार्थ बात को जानकर इन्होंने रुष्ट हो वसुओं को मनुष्य-योनि में जन्म लेने का शाप दे दिया ( आदि० ९९ । २९-३३ ) । वसुओं के प्रार्थना करने पर इनका सात वसुओं को एक-एक वर्ष में ही शापमुक्त होने का आशीर्वाद और द्यो नामक वसु के दीर्घकाल तक मनुष्य-योनि में रहने, संतान न उत्पन्न करने तथा धर्मात्मा, सर्वशास्त्रविशारद, पितृहितैषी एवं स्त्री-भोगपरित्यागी होने का कथन ( आदि० ९९ । ३५-४१ ) । भीष्म ने महर्षि वसिष्ठ से छहों अङ्गसहित समस्त वेदों का अध्ययन किया था ( अदि० १०० । ३५ )। अर्जुन के जन्म-समय में सप्तर्षिमण्डल के साथ ये भी पधारे थे (आदि० १२२।५१)। राजा संवरण के द्वारा इनका चिन्तन और इनका बारहवें दिन(द्वादशरात्र) राजा को दर्शन देना ( आदि० १७२। १३-१४)। सूर्यकन्या तपती ने राजा का चित्त चुरा लिया है--यह जानकर इनका ऊर्ध्वलोक में गमन और इनके द्वारा सूर्य भगवान् का स्तवन ! सूर्य द्वारा इनका स्वागत और इन्हें अभीष्ट वस्तु देने का आश्वासन ( आदि० १७२ । १५-२० )। इनका संवरण के लिये तपती का वरण, सूर्यदेव का इन्हें संवरण के लिये अपनी कन्या का दान और तपती को साथ लेकर इनका राजा के समीप आगमन ( आदि ० १७२ । २०-२८)। इनकी आज्ञा से राजा का तपती के साथ विधिवत् विवाह करके उसके साथ पर्वत पर विहार करना ( आदि० १७२ । ३२-३४ )। अर्जुन के पूछने पर गन्धर्व का उन्हें वसिष्ठजी का परिचय देना—ये ब्रह्माजी के मानसपुत्र हैं, अरुन्धती देवी के पति हैं । देवदुर्जय काम और क्रोध नामक दोनों शत्रु इनकी तपस्या से सदा के लिये पराभूत हो इनके चरण दबाते रहे हैं । इन्द्रियों को वश में कर लेने के कारण ये वशिष्ठ' कहलाते हैं ( आदि० १७३ । १–६ )। विश्वामित्र के अपराध से मन में क्रोध धारण करते हुए भी इन उदारबुद्धि महर्षि ने कुशिक-वंश का मूलच्छेद नहीं किया । सौ पुत्रों के मारे जाने से संतप्त हो बदला लेने की शक्ति रखते हुए भी इन्होंने असमर्थ की भॉति सब कुछ सह लिया, किंतु विश्वामित्र का विनाश करने के लिये कोई क्रूरतापूर्ण कर्म नहीं किया । ये अपने मरे हुए पुत्रों को यमलोक से भी वापस ला सकते थे, फिर भी यमराज की मर्यादा का उल्लङ्घन करने को उद्यत नहीं हुए ( आदि० १७३ । ७-९ ) । इन्हीं को पुरोहितरूप में पाकर इक्ष्वाकुवंशी नरेशों ने इस पृथ्वी पर अधिकार प्राप्त किया था ( आदि० १७३ । १० )। इनके आश्रम पर राजा विश्वामित्र का आगमन और नन्दिनी के प्रभाव से इनके द्वारा सेना तथा मन्त्रियों सहित उनका आतिथ्यसत्कार ( आदि० १७४ । ६–११ ) । विश्वामित्र का इनसे नन्दिनी को माँगना और इनका उन्हें उनका सारा राज्य लेकर भी नन्दिनी को देने से इन्कार करना ( आदि० १७४ । १६–१८ )। विश्वामित्र द्वारा बलपूर्वक नन्दिनी का अपहरण होता देखकर भी इनका मौन रहना । नन्दिनी की इनसे कातर प्रार्थना, इनका नन्दिनी को अपनी ही शक्ति से आश्रम पर रहने की आज्ञा देना और इनकी आज्ञा पाते ही नन्दिनी का म्लेच्छों की सृष्टि करके उनके द्वारा विश्वामित्र की सेना को मार भगाना ( आदि० १७४ । २१---४३ ) । विश्वामित्र का इनके ऊपर नाना प्रकार अस्त्र-शस्त्र और दिव्यास्त्रों का प्रयोग करना तथा इनका अपनी बाँस की छड़ी से ही उनके सारे अस्त्र-शस्त्रों को भस्मीभूत कर देना ( आदि० १७४ । ४३ के बाद दा० पाठ, पृष्ठ ५१५ )। शक्ति के शाप से राक्षसभाव को प्राप्त हुए कल्माषपाद द्वारा विश्वामित्र की प्रेरणा पाकर इनके पुत्रों का भक्षण और इनका शोक ( आदि० १७५ । १-४३ )। महर्षि ने विश्वामित्र का विनाश न करके स्वयं ही शरीर त्याग देने का विचार कर लिया । ये मेरुपर्वत के शिखर से कूद पड़े। किंतु पत्थर की शिला भी इनके लिये रूई के ढेर के समान हो गयी । ये धधकते हुए दावानल में घुस गये; परंतु वह आग इनके लिये शीतल हो गयी । ये गले में भारी पत्थर बाँधकर समुद्र के जलमें कूद पड़े; परंतु समुद्र ने अपनी लहरों से ढकेलकर इन्हें किनारे डाल दिया ( आदि० १७५ । ४४-४९)। इन्होंने देखा, वर्षा का समय है । एक नदी नूतन जल से लबालब भरी है और तटवर्ती वृक्षों को बहाये लिये जाती है । सोचा इसी के जल में डूब जाऊँ। अपने शरीर को पाशों द्वारा अच्छी तरह बाँधकर ये उस महानदी के जल में कूद पड़े, परंतु उस नदी ने इनके बन्धन काटकर इन्हें स्थल में पहुँचा दिया । उसके द्वारा विपाश ( बन्धनरहित ) होने के कारण इन्होंने उसका नाम विपाशा रख दिया। इसके बाद हिमालय से निकली हुई एक दूसरी भयंकर नदी की प्रखर धारा में इन्होंने अपने-आपको डाल दिया; परंतु इनके गिरते ही वह शत-शत धाराओं में फूटकर द्रुत गति से इधर-उधर भाग चली । इसलिये शतद्रु नाम से विख्यात हुई ( आदि० १७६ । १-९ )। इनका अपनी पुत्रवधू अदृश्यन्तीके गर्भस्थ बालक के मुख से वेदाध्ययन की ध्वनि सुनकर और शक्ति के गर्भस्थ बालक की सूचना पाकर अपनी वंशपरम्परा सुरक्षित जान मृत्यु के संकल्प से विरत होना ( आदि० १७६।१२-१६ )। राक्षस के भय से डरी हुई अदृश्यन्ती को आश्वासन दे इनका कल्माषपाद का शाप से उद्धार करना तथा राजा की प्रार्थना से इनका रानी मदयन्ती के गर्भ से अश्मक नामक पुत्र को उत्पन्न करना ( आदि० १७६ । १७-४७ ) । भृगुवंशी और्व की कथा सुनाकर इनके द्वारा पराशर के जगद्विनाशक संकल्प का निवारण तथा पराशर के राक्षससत्र की समाप्ति ( आदि० १७७ । ११ से आदि० १८० । २३ तक )। ये ब्रह्माजी की सभा में विराजमान होते हैं ( सभा० ११ । १९ )। इनके द्वारा श्रीराम का राज्याभिषेक ( वन०. २९१ । ६६ )। शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्ण की मार्ग में इनके द्वारा परिक्रमा करना ( उद्योग ८३ । २७ )। इनका द्रोणाचार्य के पास आकर उनसे युद्ध बंद करने को कहना ( द्रोण० १९० । ३३---४० ) । कुरुक्षेत्र में वसिष्ठजी के आवाहन करने पर सरस्वती नदी ओघवती' के नाम से प्रकट हुई थी ( शल्य० ३८ । २७-२९ )। वसिष्ठापवाह तीर्थ के प्रसंग में विश्वामित्र का क्रोध और वसिष्ठजी की सहनशीलता ( शल्य० ४३ अध्याय )। ये शरशय्या पर पड़े हुए भीष्म को देखने के लिये गये थे ( शान्ति० ४७ । ७ )। वसिष्ठजी मुचुकुन्द के पुरोहित थे और कुबेर एवं यक्षों के साथ युद्ध छिड़ जाने पर इन्होंने तपस्या से मुचुकुन्द के लिये विजय का मार्ग प्रशस्त किया था ( शान्ति० ७४ । ५-६ ) । इनके द्वारा अनावृष्टि में प्रजा को जीवनदान ( शान्ति० २३४ । २७; अनु० १३७ । १३ ) । वृत्रासुर से भयभीत इन्द्र को रथन्तर साम द्वारा सचेत करना, ज्वर के कारण वृत्र की मृत्यु ( शान्ति २८१ । २१-२६ ) । ये मूल गोत्रप्रवर्तक चार ऋषियों में से एक हैं ( शान्ति० २९६ । १७ ) । विदेहराज कराल जनक को क्षर-अक्षर विषयक विविध ज्ञानोपदेश ( शान्ति० अध्याय ३०२ से ३०८ तक ) । इक्कीस प्रजापतियो में इनकी भी गणना है ( शान्ति० ३३४ । ३६ )। ये चित्रशिखण्डी, सात प्रकृति नामवाले ऋषियों में से एक हैं ( शान्ति ३३५ । २८-२९) । होता वसिष्ठ द्वारा यजमान हिरण्यकशिपु को शाप ( शान्ति० ३४२ । ३१ )। दैव - पुरुषार्थ की श्रेष्ठता के विषय में इनका ब्रह्माजी के साथ संवाद ( अनु० ६ अध्याय )। इनका राजा सौदास को गोदान की विधि और गौओं का महत्त्व बताना ( अनु० ७८ । ५ से ८० अध्याय तक)। परशुरामजी को शुद्धि के उपाय के लिये सुवर्ण के दान और उसकी उत्पत्ति का प्रसंग बताना ( अनु० ८४ । ४४ से ८५ अध्याय तक )। वृषादर्भि से प्रतिग्रह का दोष बताना (अनु० ९३ । ३९)। अरुन्धती से अपनी दुर्बलता का कारण बताना (अनु० ९३ । ६१) । यातुधानी से अपने नाम की निरुक्ति बताना ( अनु० ९३ । ८४(१४२.२७ )। मृणाल चोरी होने पर शपथ खाना ( अनु० ९३ । ११४-११५) । अगस्त्यजी के कमलों की चोरी होने पर शपथ खाना ( अनु० ९४ । १७ )। ब्रह्माजी से यज्ञ के विषय में प्रश्न करना ( अनु० १२६ । ४४-४५)। वायुदेव द्वारा इनके प्रभाव का वर्णन, खलीसंज्ञक दैत्यों का वध ( अनु० १५५ । १५-२५ ) । कुम्भ में देवताओं का वीर्य स्थापित हुआ था, जिससे इनकी उत्पत्ति हुई ( अनु० १५८ । १९ )। वृत्रासुर से गृहीत एवं मोहित हुए इन्द्र को सचेत करना ( आश्व० ११ । १८-१९ )।
महाभारत में आये हुए वसिष्ठ के नाम -आपव, अरुन्धतीपति, ब्रह्मर्षि, देवर्षि, हैरण्यगर्भ, मैत्रावरुण, वारुणि इत्यादि ।
वसिष्ठ पर्वत-यहाँ तीर्थयात्राके अवसर पर अर्जुन का आगमन हुआ था ( आदि० २१४ । २ )।
वसिष्ठापवाह-सरस्वतीतटवर्ती एक प्राचीन तीर्थ । इसकी उत्पत्तिका वर्णन ( शल्य० ४२ अध्याय )।
वसिष्ठाश्रम-निश्चीरा सङ्गम के समीप का एक तीर्थभूत आश्रम, जो तीनों लोकों में विख्यात है। यहाँ स्नान करनेवाला मनुष्य वाजपेय यज्ञ का फल पाता है ( वन० ८४ । १४०-१४१ )।
वसु
अग्नि १८.३४(वसुगण
व उनके पुत्रों के नाम;
चन्द्रमा
की नक्षत्र रूपी पत्नियों के
पुत्र-
आपो
ध्रुवञ्च सोमञ्च धरश्चैवानिलोनलः
।
प्रत्यूषश्च
प्रभावश्च वसवोष्टौ च नामतः
॥),
२७४.५
(वसु
का पति मारीचकश्यप
को त्याग कर सोम की सेवा में
जाना
-
कीर्त्तिर्जयन्तम्भर्त्तारं
वसुर्म्मारीचकश्यपम् ।),
गरुड
१.६.२९(आपः
आदि ८
वसुओं के नाम व पुत्र
-
आपो
ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोऽनलः
।।
प्रत्यूषश्च
प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः
।।),
३.५.२९(द्रोण
आदि ८ सत्य वसुओं
के नाम
-
विष्ववसेनो
वायुपुत्रौ ह्यश्विनौ गणपस्तथा
।
वित्तपः
सप्त वसव उक्तो ह्याग्निस्तथाष्टमः
॥),
गर्ग
१.३.४०(नन्द
के द्रोण वसु का अंश होने का
उल्लेख -
नंदो
द्रोणो वसुः साक्षाद्यशोदा
सा धरा स्मृता ।),
१.५.२४
(
उद्धव
के वसु
का
अंश
होने का उल्लेख -
वसुश्चैवोद्धवः
साक्षाद्दक्षोऽक्रूरो दयापरः
।
)
,
देवीभागवत
२.३.३५(वसिष्ठ
के शाप से वसुओं का शन्तनु व
गङ्गा -
पुत्रों
के रूप में जन्म,
अष्टम
वसु द्यौ का भीष्म रूप में
जन्म
-
वसुभिर्मे
हृता धेनुर्यस्मान्मामवमन्य
वै ।।तस्मात्सर्वे जनिष्यंति
मानुषेषु न संशयः ।।),
४.२२.३६(भीष्म
के वसु का अंश होने का उल्लेख,
कश्यप
के अंश वसुदेव व अदिति-अंश
देवकी के ८ पुत्रों का वृत्तान्त
-
वसुर्भीष्मो
विराटस्तु मरुद्गण इति स्मृतः
।),
५.८.७०(वसुओं
के तेज से देवी की अङ्गुलियों
की उत्पत्ति का उल्लेख
-
वसूनां
तेजसाङ्गुल्यो रक्तवर्णास्तथाभवन्
॥),
९.२२.७(वसु
गण का शङ्खचूड -
सेनानी
वर्चस्वी गण से युद्ध
-
जयन्तो
रत्नसारेण वसवो वर्चसां
गणैः ।),
नारद
२.३५++
(रुक्माङ्गद
-
पुरोहित,
मोहिनी
को भस्म करना,
मोहिनी
के पुनर्जीवित होने पर कल्याण
हेतु गङ्गा माहात्म्य आदि
वर्णन करना),
२.३७.३३(त्वयेयं
मोहिनी कोपात्कृता भस्मावशेषिता
।।
पुनः
शरीरं याचेत तदाज्ञां देहि
मानद ।),
२.८१.९(वसु
ब्राह्मण द्वारा ब्रह्मा से
वृन्दावन वास वर की प्राप्ति),
पद्म
१.६.२१(आपः
आदि ८ वसुओं की वसु से उत्पत्ति,
वसुओं
के ज्योतिष्मन्त व सर्वदिशाओं
में व्याप्त होने का उल्लेख-
आपो
ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलोनलः।
प्रत्यूषश्च
प्रभासश्च वसवोष्टौ प्रकीर्तिताः।),
१.१५.३१७(भ्राता
के वसुलोक का स्वामी होने का
उल्लेख
-
अश्विलोकपतिर्वैद्यो
भ्राता तु वसुलोकपः।),
१.४०.८९(धर
आदि आठ वसुओं के नाम),
१.४०.९४(विश्वेदेवों
के नामों में से एक),
१.४०.१४६(अव्यक्तानन्द
सलिल वाले समुद्र में ८ वसुओं
की ८ पर्वतों से उपमा,
आदित्यों
व रुद्रों की भी उपमाएं -
द्वादशार्कमहाद्वीपं
रुद्रैकादशपत्तनम्॥
वस्वष्टपर्वतोपेतं
त्रैलोक्यांभो महोदधिम्।),
६.५.९१(वसुओं
का जालन्धर -
सेनानी
शुम्भ से युद्ध
-
निशुंभश्चावृतो
रुद्रैः शुंभो वसुभिराहवे।),
६.१२९.७२(केरल
वासी ब्राह्मण वसु द्वारा
प्रेतत्व प्राप्ति,
कार्पटिक
द्वारा गङ्गा जल दान से मुक्ति),
ब्रह्माण्ड
१.२.३०.२३
(इन्द्र
व ऋषियों का वसु से यज्ञ में
हिंसा सम्बन्धी संवाद),
१.२.३६.८९(उत्तानपाद
व सूनृता की ४ सन्तानों में
से एक),
२.३.३.२१(वसुओं
व उनके पुत्रों
के नाम),
भविष्य
१.५७.४(वसुओं
हेतु मांसौदन बलि का उल्लेख),
३.४.१५.६४+
(अष्ट
वसुओं का कुबेर,
वरुण
आदि रूपों में रूपान्तरण व
कलियुग में वसुओं का अवतरण
-
इति
श्रुत्वा कुबेरस्तु प्रथमो
वसुदेवता ।
स्वमुखात्स्वांशमुत्पाद्य
वैश्ययोनौ बभूव ह ।।),
३.४.१६.४९(द्वितीय
वसु वरुण का वृत्तान्त -
इति
श्रुत्वा गुरोर्वाक्यं
भगवान्द्वितियो२ वसुः ।
वरुणः
स्वमुखात्तेजो जनयामास भूतले
। ।),
३.४.१७.८१(सोम,
रुद्र
व विष्णु का षष्ठम,सप्तम
व अष्टम वसु रूप में कथन -
रुद्रांशश्चैव
दुर्वासाः प्रत्यूषः सप्तमो
वसुः ।।
दत्तात्रेयमयो
योगी प्रभासश्चाष्टमो वसुः
।।),
भागवत
२.३.३(वसुकामी
द्वारा वसुओं-रुद्रों
की अर्चना का निर्देश),
६.६.११(द्रोण
आदि आठ वसुओं का कथन),
८.१०.३४(वसुओं
का कालेयों से युद्ध),
९.२.१८(भूतज्योति-पुत्र,
प्रतीक-पिता,
नृग
वंश),
११.१६.१३(कृष्ण
के वसुओं में हव्यवाट् होने
का उल्लेख),
मत्स्य
५.२१(
आपः,
ध्रुव
आदि वसु
गण की पत्नियों व पुत्रों का
वर्णन),
१४,
१९.३(वसु
गण :
पितरों
का रूप,
रुद्र
पितामह,
आदित्य
प्रपितामह),
५०.२५(उपरिचर
वसु :
कृमि
-
पुत्र,
गिरिका
-
पति,
बृहद्रथ
आदि के पिता),
१४१,
१७१.४६(धर्म
व सुदेवी -
पुत्र
अष्ट वसुओं के नाम
-
वर
आदि,
निर्ऋति
अष्टम),
१७२.३४(नारायण
सागर में पर्वत रूप),
लिङ्ग
१.५०.७(वसु
गण का सुमेध पर्वत पर वास),
वराह
५,
६(काश्मीर
का राजा,
नारायणी
-
पति,
विवस्वान्
-
पिता,
हरि
स्तोत्र पाठ से हरि में लय),
९४.६(वसुओं
का अञ्जन,
नीलकुक्षि,
मेघवर्ण,
बलाहक,
उदाराक्ष,
ललाटाक्ष,
सुभीम
व स्वर्भानु नामक ८
महिषासुर -
सेनानियों
से युद्ध),
१७५.११(वसु
ब्राह्मण,
पाञ्चाल
पुत्र व तिलोत्तमा कन्या का
वृत्तान्त),
वामन
९.२१(वसुओं
के कुञ्जर वाहन होने का उल्लेख
-
कुञ्जरस्थाश्च
वसवो यक्षाश्च नरवाहनाः।),
६९.५५(वसुओं
का
सरभ आदि ८
अन्धक -
सेनानियों
से युद्ध
-
सरभः
शलभः पाकः पुरोऽथ विपृथुःपृथुः।
वातापि
चेल्वलश्चैव नानाशस्त्रास्त्रयोधिनः।।),
वायु
३९,
५७,
६६.२०/२.५.२०(८
वसुओं व उनके पुत्रों के नाम),
७०.५/
२.९.५(वसुओं
पर पावक का आधिपत्य
-
आदित्यानां
पुनर्विष्णुं वसूनामथ पावकम्
।),
२.२२.१५(बृहस्पति-भगिनी
के अष्टम वसु की भार्या होने
का कथन -
बृहस्पतेर्या
भगिनी वरस्त्री ब्रह्मचारिणी।
योगसिद्धा
जगत्कृत्स्नमसक्ता चरते सदा
।।),
विष्णु
१.१५.१०९(
धर
आदि वसुगण
की सन्तति का कथन),
४.१५,
५.१,
विष्णुधर्मोत्तर
१.९५.९०(धनिष्ठा
नक्षत्र के संदर्भ में वसुओं
का आवाहन),
१.१९८?,
३.७२(वसुओं
की मूर्ति का रूप
:
धर
प्राजापत्य रूप,
ध्रुव
वैष्णव,
सोम
चान्द्र,
अनिल
वायव्य,
अनल
आग्नेय,
प्रभास
वारुण),
३.३०१.३३(वसु
प्रतिग्रह की संक्षिप्त विधि),
३.३४५(राजा
उपरिचर वसु द्वारा यज्ञ में
हिंसा के पक्ष में निर्णय देने
के कारण भूमि विवर में स्थित
होना,
बृहस्पति
द्वारा राजा को दानवों से
रक्षा हेतु वैष्णवी रक्षा की
शिक्षा देना),
३.३४६(गरुड
द्वारा वसु को विष्णु के पास
ले जाना,
वसु
द्वारा विष्णु की स्तुति,
विष्णु
द्वारा निर्देश),
शिव
२.१.१२.३२(वसुओं
द्वारा रौप्य अथवा आरकूटमय
लिङ्ग की अर्चना का उल्लेख),
५.३३.२१(पावक
को वसुओं का अधिपति नियुक्त
करने का उल्लेख),
स्कन्द
१.२.५.८१(भकार
से षकार तक वर्णों की ८ वसु
संज्ञा),
१.२.१३.१५२(शतरुद्रिय
प्रसंग में वसुओं द्वारा काशज
लिङ्ग की पूजा का उल्लेख
-
काशजं
वसवो लिंगं स्वयंभुमिति नाम
च॥),
२.१.९(निषाद,
चित्रवती
-
पति,
वीर
पुत्र,
पुत्र
हनन को उद्धत),
२.१.१०(वसु
द्वारा वराह का पीछा,
तोण्डमान
नृप से वराह के आदेश का कथन),
२.३.६(बदरी
क्षेत्र में तीर्थ),
३.१.५(विधूम
वसु
का शापवश सहस्रानीक रूप में
जन्म)
,
३.१.२३.२५(अहिर्बुध्न्य
के यज्ञ
में अष्टम
वसु
के अच्छावाक् ऋत्विज बनने का
उल्लेख
-
अच्छावाको
बभूवात्र वसूनामष्टमो वसुः
।।),
३.१.४९.८१(वसुओं
द्वारा रामेश्वर की स्तुति
-
रामनाथगणेशाय
गणवृंदार्चितांघ्रये ।।
गंगाधराय
गुह्याय नमस्ते पाहि नः सदा
।।),
५.२.४२.२३(महाभिष
वसु राजर्षि की आसक्ति के कारण
गङ्गा को पति समुद्र से शाप
प्राप्ति),
५.२.८२.३९(दक्ष
यज्ञ में वसुओं के जर्जरमस्तक
होने का उल्लेख),
५.३.९७.२९(राजा
वसु के वीर्य के पतन,
मत्स्य
द्वारा निगरण और उससे कैवर्त्तकन्या
के जन्म का वृत्तान्त),
५.३.१५६.१३,
५.३.२२३.१(वासवेश्वर
तीर्थ का माहात्म्य,
वसुओं
द्वारा पितृ शाप से मुक्ति
हेतु लिङ्ग की अर्चना
-
धरो
ध्रुवश्च सोमश्च आपश्चैवानिलोऽनलः
।
प्रत्यूषश्च
प्रभासश्च वसवोऽष्टाविमे
पुरा ॥),
६.१४६.४(धुर
आदि ८ वसुओं के नाम),
६.१५५.६(वा.सं.
११.५८
के मन्त्र वसवस्त्वा कृण्वन्तु
इति का विनियोग),
६.२५२.३४(चातुर्मास
में वसुओं की प्रियाल वृक्ष
में स्थिति का उल्लेख),
७.१.२१.११(८
वसुओं व
उनके
पुत्रों के नाम
-
आपो
ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानलोऽनिलः
॥
प्रत्यूषश्च
प्रभासश्च वसवोष्टौ प्रकीर्तिताः
॥),
७.१.१०८+
(विश्वा
व धर्म -
पुत्र,
स्वनामों
से लिङ्गों की स्थापना),
७.३.३६.१८०(महिष
वध के पश्चात् वसुओं द्वारा
चण्डिका को वर
-
त्रिरात्रं
यो नरः सम्यगुपवासं करिष्यति
॥
आजन्ममरणात्पापान्मुक्तः
स च भविष्यति ॥),
हरिवंश
१.३.३७(आपः
आदि आठ वसुओं व उनके पुत्रों
का कथन -
आपो
ध्रुवश्च सोमश्च धरश्चैवानिलानलौ
।
प्रत्यूषश्च
प्रभासश्च वसवो नामभिः स्मृताः
।।),
१.१८.२९(अच्छोदा
की अमावसु पितर पर आसक्ति,
मृत्युलोक
में अच्छोदा का वसु-कन्या
बनना -
सा
दृष्ट्वा पितरं वव्रे वसुं
नामान्तरिक्षगम् ।।
अमावसुरिति
ख्यातमायोः पुत्रं यशस्विनम्
।),
१.३०.१४(चेदिपति
उपरिचर वसु द्वारा इन्द्र से
दिव्य रथ की प्राप्ति का कथन
-
स
रथः पौरवाणां तु सर्वेषामभवत्
तदा ।
यावत्तु
वसुनाम्नो वै कौरवाज्जनमेजय
।।),
१.३५.१(याः
पत्न्यो वसुदेवस्य चतुर्दश
वराङ्गनाः ।),
३.१४.४७(धर
आदि व निर्ऋति अन्तिम अष्ट
वसुओं की धर्म व सुरभि से
उत्पत्ति),
३.७१.५१(वामन/विराट
विष्णु के पृष्ठ पर वसुओं की
स्थिति का उल्लेख -
पृष्ठेऽस्य
वसवो देवा मरुतः पादसंधिषु
।।),
वा.रामायण
१.३२.७(कुश
-
पुत्र,
गिरिव्रज
नगरी की स्थापना-
चक्रे
पुरवरं राजा वसुनाम गिरिव्रजम्
॥
एषा
वसुमती राम वसोस्तस्य महात्मनः
।),
७.२७,
७.५४.८(नृग
– पुत्र
-
कुमारो
ऽयं वसुर्नाम स देवो ऽद्याभिषिच्यताम्
।),
महाभारत
उद्योग १८३(परशुराम
पर विजय हेतु वसुओं द्वारा
भीष्म को प्रस्वापनास्त्र
प्रदान करना -
प्राजापत्यं
विश्वकृतं प्रस्वापं नाम
भारत ।
न
हीदं वेद रामोऽपि पृथिव्यां
वा पुमान्क्वचित् ।।),
शान्ति
३१७.२(जङ्घाओं
से प्राणों के उत्क्रमण पर
वसुओं के लोक की प्राप्ति का
उल्लेख -
जङ्घाभ्यां
तु वसून्देवानाप्नुयादिति
नः श्रुतम्।
जानुभ्यां
च महाभागान्साध्यान्देवानवाप्नुयात्।।),
आश्वमेधिक
८१.१२(अर्जुन
द्वारा युद्ध में भीष्म को
निष्कारण मारे जाने के कारण
वसुओं द्वारा अर्जुन को पराजय
का शाप व शाप से निष्कृति),
लक्ष्मीनारायण
१.५२.७०(उपरिचर
वसु के पतन की कथा),
१.८१.१८(वसुओं
के असाध्य होने का उल्लेख
-
विश्वदेवसमो
रूपे ह्यसाध्यो वसुनाऽधिकः
।।),
१.३३७.४२(वसुओं
का शङ्खचूड सेनानियों वर्चसगणों
से युद्ध),
१.४३४.१८(विधूम
वसु की अलम्बुषा पर आसक्ति,
सहस्रानीक
राजा रूप में जन्म लेकर उदयन
पुत्र को जन्म देना),
१.४४१.८८(वृक्ष
रूप धारी कृष्ण के दर्शन हेतु
वसुओं के प्रियाल बनने का
उल्लेख),
१.५२६(काश्मीर
देश के नृप वसु द्वारा मृग रूप
धारी मुनि की हत्या से पाप की
प्राप्ति,
श्रीहरि
की भक्ति से पाप के व्याध रूप
में बाहर निकलने का वृत्तान्त),
१.५३८.९१(दक्ष
-
कन्या
विश्वा व धर्म से उत्पन्न ८
वसुओं तथा उनके पुत्रों के
नाम),
३.४५.२६(द्रव्य
दान से वसु लोक प्राप्ति का
उल्लेख),
३.१०१.७०(गौरी
गौ दान से वसुलोक प्राप्ति
का उल्लेख
-
गौरीं
च
तादृशीं
दत्वा
वसुलोकमवाप्नुयात्
।पाण्डुकम्बलवर्णां
गां
दत्वा
साध्यसुरो
भवेत्
।।),
३.१०९.५६(तिल
धेनु दान से वसु लोक प्राप्ति
का उल्लेख ),
कथासरित्
२.१.२३(विधूम
वसु की अलम्बुषा पर आसक्ति,
शाप
प्राप्ति की कथा),
८.२.१७८(प्रभास
वसु – कन्या कीर्तिमती का
सुनीथ – पत्नी बनना),
८.२.३५३(मन्दरमाला
नामक वसुओं की कन्या का उल्लेख),
८.५.७९(क्षेत्रजान्मकरन्दस्याप्यष्टौ
वसुसुतान्समान्
।
तेष्वागतेषु
चाद्यास्तेऽप्यारोहन्नपरान्रथान्
।।),
८.७.३२(
स्थिरबुद्धि
के आठ वसुओं से युद्ध का उल्लेख),
द्र.
अमावसु,
अर्वावसु,
उपरिचरवसु,
परावसु,
पुनर्वसु,
बृहद्वसु,
मित्रावसु,
विभावसु,
विश्वावसु,
शरद्वसु
vasu
वसुकर्ण वराह १७०(सुशीला - पति, गोकर्ण शिव की उपासना से गोकर्ण पुत्र की प्राप्ति )
वसुगण विष्णु १.२२.३
वसुदत्त पद्म २.४७, कथासरित् १.२.३०(सोमदत्त - भार्या वसुदत्ता के एकश्रुत पुत्र वररुचि का वृत्तान्त), ४.१.५८(वसुदत्त वणिक् की जारकामा कन्या का वृत्तान्त), ६.३.१३४(कीर्तिसेना द्वारा राजा वसुदत्त के कर्ण रोग की चिकित्सा करने का वृत्तान्त), ६.६.४२(अन्तर्वेदी में उत्पन्न वसुदत्त द्विज के विद्याकामी पुत्र विष्णुदत्त का वृत्तान्त), १२.७.१५५(अक्षक्षपणक द्वारा स्वयं का परिचय वसुदत्त रूप में देना, माता के रौद्र रूप के कारण वसुदत्त द्वारा गृहत्याग, द्यूत में गुणों के कारण चण्डभुजङ्ग, श्मशान वेताल आदि को जीतना), १२.१०.४९(स्त्रियों की विषमता के उदाहरण के रूप में वसुदत्ता नामक स्त्री के जार द्वारा वसुदत्ता की नासिका का छेदन, वसुदत्ता द्वारा अपने पति पर दोषारोपण, चोर द्वारा रहस्यटेद्घाटन), १२.२६.३१(वक्रोलक पुर वासी वसुदत्त वणिक् का उल्लेख ) vasudatta
वसुदा मत्स्य १२, वा.रामायण ७.५.४५(नर्मदा - कन्या, माली - पत्नी, अनल व अनिल आदि की माता),
वसुदान वराह ३६ स्कन्द २.१.३, लक्ष्मीनारायण १.३१२, १.३९८.८२(वियद्राज व धरणी के पुत्र वसुदान के जन्म पर शुभ संकेतों का कथन ), द्र. वसुधान vasudaana/ vasudana
वसुदामा ब्रह्मवैवर्त्त २.४९.५५(वृषभानु रूप में अवतरण?), वामन ५७.९१(सोम तीर्थ द्वारा कार्तिकेय को प्रदत्त गण )
वसुदेव गर्ग ७.२.१९(वसुदेव द्वारा प्रद्युम्न को शतचन्द्र नामक ढाल भेंट करना), देवीभागवत ०.२(स्यमन्तक मणि प्रसंग में कृष्ण के सकुशल आगमन की कामना हेतु वसुदेव द्वारा नारद से देवीभागवत पुराण कथा का श्रवण), पद्म ६.१७४.११(प्रह्लाद का पूर्व जन्म में नाम, वेश्या में रत, व्रतप्रभाव से प्रह्लाद रूप में जन्म), ब्रह्म १.१२((वसुदेव की १४ पत्नियों व पुत्रों के नाम), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१६.३७(गन्धवाह के चार पुत्रों में से ज्येष्ठ, दुर्वासा से प्राप्त योग से सद्यः मुक्ति की प्राप्ति, अन्य तीन भ्राताओं सुहोत्र, सुदर्शन व सुपार्श्व का बकासुर, प्रलम्ब व केशी बनकर मुक्ति प्राप्त करना), ४.६४.३७(कंस की आज्ञा का उल्लंघन करने के कारण कंस द्वारा वसुदेव का हनन करने को उद्धत होना), ४.१०४.९१(वसुदेव द्वारा उग्रसेन को राज्याभिषेक के समय श्वेत चामर भेंट करने का उल्लेख), ४.१२३(वसुदेव द्वारा शिव से ज्ञान प्राप्ति), भागवत १०.३.३२(कृष्ण - पिता, जन्मान्तर में सुतपा प्रजापति तथा कश्यप), १०.८४(कुरुक्षेत्र में मुनियों द्वारा वसुदेव को कर्म नाश के लिए यज्ञ का परामर्थ, वसुदेव द्वारा यज्ञ का अनुष्ठान), १०.८५(वसुदेव द्वारा कृष्ण व बलराम की स्तुति, कृष्ण द्वारा वसुदेव को ब्रह्मज्ञान का उपदेश), मत्स्य ४६(वसुदेव की पत्नियों व पुत्रों के नाम), वायु ९६.१५९(वसुदेव की १३ भार्याओं व पुत्रों के नाम), विष्णु ४.१५.१८(शूरसेन व मारिषा - पुत्र, सन्तति का वर्णन), ५.१.५(वसुदेव व देवकी के विवाह के अवसर पर आकाशवाणी सुनकर कंस द्वारा देवकी के वध की चेष्टा), ५.२०.९४(कंस वध पर वसुदेव द्वारा कृष्ण की स्तुति), हरिवंश १.३५(वसुदेव की १४ पत्नियों व उनके पुत्रों के नाम), २.३६.२(वसुदेव का क्रथ से युद्ध ) vasudeva
वसुधर कथासरित् १०.१.७(वसुधर नामक भारिक द्वारा प्राप्त आभूषण के विक्रय से सुखी जीवन व्यतीत करने का वृत्तान्त )
वसुधा नारद १.६६.९६(वैकुण्ठ नामक विष्णु की शक्ति के रूप में वसुधा का उल्लेख), ब्रह्मवैवर्त्त ४.६,
वसुधान लक्ष्मीनारायण १.३१२(शिव भक्त वसुधान नृप को शिव द्वारा वैष्णव दीक्षा प्रदान, अधिमास पञ्चमी व्रत से महाकौबेरक पद की प्राप्ति का वृत्तान्त )
वसुधार लिङ्ग १.५०.५(वसुधार पर्वत पर वसुओं का वास), वराह ७७, ८१.३(वसुधार पर्वत पर पुष्पवान वसुओं आदि के निवास आदि का कथन), स्कन्द २.३.६.६०(बदरिकाश्रम क्षेत्र में वसुधार तीर्थ का माहात्म्य ) vasudhaara/ vasudhara
वसुधारा पद्म ३.२४.२६(वसुधारा तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), भविष्य ४.१४१?(वसुधारा होम विधि), स्कन्द २.३.६, ४.१.२९.१२६(गङ्गा सहस्रनामों में से एक), ६.९०.७२(शिबि द्वारा वसुधारा से अग्नि को तृप्त करना), हरिवंश ३.३५.१३(वराह द्वारा प्राची में सृष्ट वसुधारा नदी का माहात्म्य), लक्ष्मीनारायण १.२०७.७३(बदरिकाश्रम में वसुधारा तीर्थ का माहात्म्य : ८ वसुओं के तप का स्थान, आम, भव आदि ८ वसुओं के नाम ) vasudhaaraa/ vasudhara
वसुधीति लक्ष्मीनारायण १.३११.३८
वसुनन्दा स्कन्द ७.१.१८२(मातृका )
वसुनेमि कथासरित् २.१.८०(उदयन द्वारा रक्षा पर वासुकि के ज्येष्ठ भ्राता वसुनेमि द्वारा उदयन को दिव्य वीणा व अम्लान ताम्बूली देने का कथन ) vasunemi
वसुन्धरा देवीभागवत ९.१.९३(वसुन्धरा की महिमा), ब्रह्मवैवर्त्त २.१, ४.६.१४४(वसुन्धरा का सत्यभामा रूप में अवतरण), ४.४५(वसुन्धरा द्वारा शिव के विवाह में हास्य ) vasundharaa
वसुपत्र वराह १५७
वसुभूति स्कन्द ४.२.६७, लक्ष्मीनारायण १.४६८.१०(कलावती नर्तकी द्वारा वसुभूति गन्धर्व की कन्या बनकर कृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने का वृत्तान्त), कथासरित् १२.६.२०६(पद्मिष्ठा द्वारा स्वभ्राता मुखरक को चोर वसुभूति के भय से मुक्ति के उपाय का कथन ) vasubhooti/vasubhuuti/ vasubhuti
वसुमणि वामन ५७
वसुमना कूर्म १.२०.३४(वसुमना द्वारा सूर्य की उपासना से त्रिधन्वा पुत्र की प्राप्ति, ऋषियों से मुक्ति के उपाय की पृच्छा, ब्रह्मा व रुद्र का साक्षात्कार, मोक्ष प्राप्ति), मत्स्य ४२, vvasumanaa
वसुमती स्कन्द ३.३.४.४१(वैदर्भी, पद्मवर्ण - पत्नी, पूर्व जन्म में कुमुद्वती, अन्य जन्मों का वृत्तान्त), लक्ष्मीनारायण १.३०२.९१(अधिमास दशमी व्रत से पृथ्वी का वसुमती रूप धारण कर वैकुण्ठ में जल के ऊपर वास करने का कथन), कथासरित् १२.१.३४(शूरदत्त - भार्या वसुमती के पुत्र वामदत्त का वृत्तान्त), १४.४.४०(भूतिशिव ज्ञानी द्वारा गोमुख को योगिनियों से रक्षा के लिए सन्ध्यावास ग्राम में वसुमति विप्र के पास जाने का परामर्श ) vasumatee/ vasumati
वसुमान भविष्य ३.३.४.२५, मत्स्य ४२(वसुमान द्वारा ययाति को स्व पुण्य दान का प्रस्ताव, स्वर्ग गमन की प्रतिस्पर्द्धा ), स्कन्द ५.२.११.२१ vasumaan/vasumana
वसुमेध लक्ष्मीनारायण २.६३(श्रीहरि द्वारा झंझावात में वसुमेध वणिक् की नौका की रक्षा का वृत्तान्त )
वसुरुचि ब्रह्माण्ड २.३.७.१०६(यक्ष द्वारा क्रतुस्थला अप्सरा से रमण हेतु वसुरुचि गन्धर्व का रूप धारण करने का उल्लेख), वायु ६९.१४०(यक्ष द्वारा क्रतुस्थली अप्सरा से समागम के लिए वसुरुचि गन्धर्व का रूप धारण ) vasuruchi
वसुशर्मा भविष्य ३.४.११
वसुसेन स्कन्द ६.१४१(अन्नदान न करने से वसुसेन का स्वर्ग में बुभुक्षा से पीडित होना),
वस्त्र गणेश १.६९.२४(गणेश हेतु वस्त्र मन्त्र : तं यज्ञमिति), गरुड २.४.९/२.८.२२(वस्त्राणि लोहखण्डानि जितं त इति संजपन् । दक्षिणाभिमुखो वह्निं ज्वालयेत्तत्र च स्वयम् ॥, २.१८.१६(सप्तविध पदों में से एक - छत्त्रोपानहवस्त्राणि मुद्रिका च कमण्डलुः । आसनं भाजनं चैव पदं सप्तविधं स्मृतम् ॥), २.१८.२२(यमदूता महारौद्राः करालाः कृष्णपिङ्गलाः । न पीडयन्ति दाक्षिण्याद्वस्त्राभारणदानतः ॥), ३.२९.५२(वस्त्र धारण काल में उपेन्द्र के स्मरण का निर्देश - वस्त्रधारणकाले तु उपेन्द्रं संस्मरेद्धरिम् ॥), गर्ग ४.३(कृष्ण द्वारा मैथिली रूपा गोपियों के चीर हरण की कथा - तासां वासांसि संनीय भगवान् प्रातरागतः । त्वरं कदंबमारुह्य चौरवन्मौनमास्थितः ॥), पद्म १.५०.२४(नरोत्तम ब्राह्मण के वस्त्रों के आकाश में जाने व पतन की कथा - आकाशे स्नानचेलानि प्रशुष्यंति दिने दिने।), ६.३२.५(सुवर्णं रजतं वस्त्रं मणिरत्नं च वासव। सर्वमेव भवेद्दत्तं वसुधां यः प्रयच्छति।। ...अन्नदाः सुखिनो नित्यं वस्त्रदो रूपवान्भवेत्।) ब्रह्मवैवर्त्त १.१०.३९(वह्नि से वह्निशुद्ध वस्त्रयुग प्राप्ति का उल्लेख - वह्निशुद्धं वस्त्रयुगं वह्नेः प्राप्तं महौजसः।), ४.२७.११६(कृष्ण द्वारा गोपियों के वस्त्र हरण की कथा - स्तुत्वैवं चक्षुरुन्मील्य दृष्ट्वा कृष्णमयं जगत् । ददर्श यमुनातीरं वस्त्रद्रव्यमयं मुने ।।), भविष्य १.६५.८(नील वस्त्र - शृणु दिण्डे महाबाहो नीलवस्त्रस्य धारणे । दूषणं गणशार्दूल गदतो मम कृत्स्नशः ।), भागवत २.१.३४(सन्ध्या के विराट् पुरुष का वस्त्र होने का उल्लेख - ईशस्य केशान्न् विदुरम्बुवाहान् वासस्तु सन्ध्यां कुरुवर्य भूम्नः ।), १०.२२.१९(कृष्ण द्वारा गोपियों के चीर हरण का प्रसंग - बद्ध्वाञ्जलिं मूर्ध्न्यपनुत्तयेंऽहसः कृत्वा नमोऽधो वसनं प्रगृह्यताम् ॥), मत्स्य २७.५(शर्मिष्ठा द्वारा देवयानी के वस्त्र ग्रहण करने पर कलह का कथन - तत्र वासो देवयान्याः शर्मिष्ठा जगृहे तदा। व्यतिक्रममजानन्ती दुहिता वृषपर्वणः।। ), वराह १३५.२३(अधौत वस्त्र से देव सेवा का निषेध व प्रायश्चित्त - वाससा चाप्यधौतेन यो मे कर्माणि कारयेत् । शुचिर्भागवतो भूत्वा मम मार्गानुसारकः ।।...), विष्णुधर्मोत्तर ३.३१३(वस्त्र दान के संदर्भ में लोमों व वर्ण का कथन - दत्त्वा सरोमं तदपि फलं दशगुणं भवेत् ।आविकं वसनं दत्त्वा भृगूणां लोकमाप्नुयात् ।।...), ३.३४१.१८४(देव को अर्पणीय वस्त्र के लोमों का कथन - राङ्क वा मृगलोमाश्च कदल्यश्च तथा शुभाः । यो दद्याद्देवदेवाय सोश्वमेधफलं लभेत् ।।...), शिव १.१५.४८(वस्त्र दान से आयु प्राप्ति का कथन - आज्यं पुष्टिकरं विद्याद्वस्त्रमायुष्करं विदुः), १.१६.५०(वस्त्र दान से क्षय रोग के क्षय का उल्लेख - हरीतकीमरीचीनां वस्त्रक्षीरादिदानतः। ब्रह्मप्रतिष्ठया चैव क्षयरोगक्षयो भवेत् ), ५.२०.२३(नारी शय्या तथा पानं वस्त्रधूपविलेपनम्।। ताम्बूलभक्षणं पंच राजैश्वर्य्यविभूतयः ।।), स्कन्द २.२.४०.७(आच्छादको यो जगतां तेजसा विष्णुरव्ययः ।वसनात्तस्य वस्त्र त्वं वस वासे जगत्पतेः ।।), ३.२.६.९७(वस्त्र दान से चन्द्र लोक प्राप्ति का उल्लेख - वेश्मदोऽत्युच्चसौधेशो वस्त्रदश्चन्द्रलोकभाक् ।।), ४.१.३५.१८४(वस्त्र निष्पडीन मन्त्र - ये चास्माकं कुले जाता अपुत्रा गोत्रिणो मृताः । सर्वे ते तृप्तिमायांतु वस्त्रनिष्पीडनोदकैः ।।), ५.३.५६.११९ (वासोदश्चन्द्रसालोक्यमर्कसायुज्यमश्वदः ॥), ५.३.१५९.१९(हरन्वस्त्रं भवेद्गोधा गरदः पवनाशनः ।), ५.३.१९५.११(सोमो वै वस्त्रदानेन मौक्तिकानां च भार्गवः ।), ५.३.१९८.८५ (भीमादेवी हिमाद्रौ तु पुष्टिर्वस्त्रेश्वरे तथा ।), ६.२३९.२७(चातुर्मास में विष्णु हेतु वस्त्र दान का निर्देश - वस्त्रदानं च सप्तम्या कार्यं विष्णोर्मुनीश्वर ॥), ७.१.११८(नील रञ्जित वस्त्र की निन्दा), योगवासिष्ठ ६.१.५६.३४(धर्मार्थ काम विनियन्त्रित शास्त्र वस्त्रों का उल्लेख - धर्मार्थकामविनियन्त्रितशास्त्रवस्त्रा), महाभारत शान्ति ९१.२(क्षत्रिय के लिए वस्त्रों के शोधन की भांति शील दोषों के शोधन का निर्देश - यो न जानाति निर्हर्तुं वस्त्राणां रजको मलम्। रत्नानि वा शोधयितुं यथा नास्ति तथैव सः।।), ९१.५ (तेषां यः क्षत्रियो वेद पात्राणामिव शोधनम्। शीलदोषान्विनिर्हर्तुं स पिता स प्रजापतिः।।), लक्ष्मीनारायण १.५४३.७२(वस्त्रा - वरुणायाऽर्पिताः पञ्च गौडी वस्त्रा च वार्तिका । साध्वी सुमालिका चेति वरुणान्यस्तु ताः स्मृताः ।), १.५६६.३५(श्रीहरि को अर्पणीय वस्त्रों का स्वरूप - वसन्ते श्वेतवस्त्राणि फाल्गुने केसराणि च । कौसुंभानि तथाऽऽषाढे स्वर्णवर्णानि चाश्विने ।।…), १.५६६.३६(श्रीहरि को अर्पणीय वस्त्रों में स्वर्णतारों की अपेक्षा का कथन - स्वर्णतारादिशोभाढ्यं धार्यते च मया प्रिये! । लोहतारं विना वस्त्रं सर्वं श्रेयस्करं मतम् ।), २.२२६.७२(शील के चिदम्बर होने का उल्लेख - ब्रह्मचर्यं ब्रह्मरूपं शीलं चिदम्बरं मतम्। चिदाकाशं समालम्ब्य ममाकाशमुपाव्रजेत् ।।), २.२२७.७३(तृष्णा सूची व संसार सूत्र द्वारा वस्त्र का निर्माण - सूच्या सूत्रं यथावस्त्रे संसारयति वायकः । तद्वत् संसारसूत्रं हि तृष्णासूच्या प्रसार्यते ।।), ३.१८.९(अन्नदानात्परं दानं वस्त्रदानं प्रकीर्त्यते । वस्त्रदानात् परं दानं धनदानं प्रकीर्त्यते ।।), ३.७५.८७(वस्त्र दान से ग्रहलोक प्राप्ति का उल्लेख - वस्त्रदानानि दत्त्वा तु ग्रहलोकान् प्रयाति सः । ) vastra
वस्त्रापथ देवीभागवत ७.३८.२६(वस्त्रापथ स्थान में शाङ्करी देवी के वास का उल्लेख- भीमे भीमेश्वरी प्रोक्ता स्थाने वस्त्रापथे पुनः । भवानी शाङ्करी प्रोक्ता रुद्राणी त्वर्धकोटिके ॥), नारद २.७०.८४(वस्त्रापथ क्षेत्र के माहात्म्य का कथन - वस्त्रापथं प्रभासस्य नाभिस्थाने स्थितं शुभे । तत्राभ्यर्च्यं भवं साक्षाद्भवेद्भवसमः स्वयम् ।।), स्कन्द ७.१.१०.११(वस्त्रापथ तीर्थ का वर्गीकरण – आकाश - वस्त्रापथं रुद्रकोटिर्ज्येष्ठेश्वरं महालयम् ॥गोकर्णं रुद्रकर्णं च वर्णाख्यं स्थापसंज्ञकम् ॥पवित्राष्टकमेतद्धि आकाशस्थं वरानने ॥), ७.२.१+ (वस्त्रापथ का माहात्म्य, वस्त्रापथ की प्रभास में स्थिति), ७.२.३(वस्त्रापथ के अन्तर्गत तीर्थ), ७.२.१०+, ७.२.११.१३(हरस्य त्यजतो भूमौ पतितं वस्त्रभूषणम् ॥ तावन्मात्रं स्मृतं क्षेत्रं देवैर्वस्त्रापथं कृतम् ॥), ७.२.१९, लक्ष्मीनारायण १.१४३(वस्त्रापथ क्षेत्र के अन्तर्वर्ती तीर्थों का माहात्म्य - हरस्य भ्रमतो भूमौ पतितं वस्त्रभूषणम् । तावन्मात्रं हि तत्क्षेत्रं देवैर्वस्त्रापथं कृतम् ।।), १.१६१(वस्त्रापथ क्षेत्र तीर्थ का माहात्म्य ) vastraapatha/ vastrapatha
वस्वौकसारा विष्णु २.८.९
वह्नि अग्नि ३४८.११, गणेश २.७६.१४(वह्नि के चण्ड से युद्ध का उल्लेख), नारद १.८८.९८(राधा की षष्ठम् कला वह्निवासिनी का स्वरूप), पद्म ३.१५, ब्रह्म २.२८, ब्रह्मवैवर्त्त १.१०.३९(वह्नि से शुद्ध वस्त्रयुग प्राप्ति का उल्लेख), ४.१२९(वह्नि की ब्रह्मा के वीर्य से उत्पत्ति), ब्रह्माण्ड ३.४.३५.८३(वह्नि की कलाएं), भविष्य २.१.१७.३(लक्ष होम में अग्नि का वह्नि नाम), ३.४.२५.११३(वह्नि कल्प का वर्णन), लिङ्ग २.२५.५३(वह्नि संस्कार की विधि), वायु २१.३१(अष्टम कल्प का नाम), ७२.२६(वह्नि द्वारा शिव - पार्वती की रति में विघ्न, शिव के वीर्य से गर्भ धारण की कथा), विष्णुधर्मोत्तर १.८२(खण्डयुगेश्वर), १.२१५(वह्नि के शुक वाहन का उल्लेख), २.२०(वह्नि के लक्षण), ३.१९०(वह्नि व्रत), शिव ७.२.३२.७८(वह्नि के पद्म बनने की संभावना का उल्लेख), स्कन्द १.२.१३.१४९(शतरुद्रिय प्रसंग में वह्नि द्वारा इन्द्रनीलमय लिङ्ग पूजा का उल्लेख), १.३.१, ५.३.८२(वह्नि तीर्थ का माहात्म्य, अग्नि द्वारा तप से सर्वभक्षी होने के शाप से मुक्त होना), ५.३.२३१.१३, ६.२४६, योगवासिष्ठ ३.७९.५(दाहक - अदाहक वह्नि के सम्बन्ध में कर्कटी का राजा से प्रश्न), लक्ष्मीनारायण १.३०१(अग्नि/वह्नि की लोक में उपेक्षा, अग्नि द्वारा सुवर्ण पुत्र की उत्पत्ति, अधिमास नवमी व्रत से अग्नि की प्रतिष्ठा आदि का वृत्तान्त), १.३११.३९(वह्निशिखा , १.३७०.४६(नरक में वह्नि कुण्ड प्रापक कर्मों का उल्लेख), २.१८.४१(पितृ पक्ष में हरि पूजन हेतु पितर कन्याओं द्वारा विभिन्न पात्र देने का कथन), २.११७.११(वैराज - पुत्र, पवमान आदि के पिता वह्नि के वह्नि नाम का कारण, वैराज के हं - हनु से निर्गम, वह्नि की निरुक्ति : वं - वैराजं, हं - हनु), २.१४०.१०(वाह्नेय प्रासाद के लक्षण : पाटकाधार प्रासाद की वह्निप संज्ञा), २.२१२.२९(वह्नि देवता के ध्यान के स्वरूप का कथन), २.२५३.२३(पत्नी, आत्मा, माता आदि की वह्नि संज्ञा), ३.४५.२९(दीप दानादि से वह्नि मण्डल प्राप्ति का उल्लेख), ३.४९.८५(वह्नि देवता की जघन में स्थिति का उल्लेख), ३.७५.२(श्रीहरि के मुख से उत्पन्न अग्नि द्वारा व्याघ्र| वन को जलाकर शान्त होने का कथन), ३.७५.८३(अग्नि में देह होम से वह्नि लोक प्राप्ति का उल्लेख), ३.१०१.६६(कृष्णा गौ दान से वह्नि लोक प्राप्ति का उल्लेख), ४.८४.३२ (नन्दिभिल्ल राजा का सेनापति, कुबेर द्वारा युद्ध में वह्निवज्र के वध का वर्णन), कथासरित् ३.६.७४(वह्नि द्वारा हर का तेज धारण करने से पूर्व देवों से पलायन कर जल आदि में छिपना, भेक आदि द्वारा देवों को वह्नि की उपस्थिति सूचित करना ) vahni
Veda study on Vahni
वह्निक स्कन्द ५.२.२०, ५.३.३३, ६.९०
वाकक्ष लक्ष्मीनारायण २.२०९.२६(रायवाकक्ष नृप को श्रीहरि द्वारा धर्म, शील आदि का उपदेश )
वाक्
गरुड
३.५.२२(वाक्-इन्द्रिय
अभिमानी
देवों
का
उल्लेख),
भविष्य
३.३.४.२२(वाक्सर
ग्राम
की
व्रतपा
नामक
आभीरी
के
पुत्रों
देशराज
व
वत्सराज
का
वृत्तान्त),
भागवत
११.१२.१७(वाक्
के
वैखरी
आदि
भेदों
का
परोक्ष
कथन
-
स
एष
जीवो
विवरप्रसूतिः
प्राणेन
घोषेण
गुहां
प्रविष्टः।
मनोमयं
सूक्ष्ममुपेत्य
रूपं
मात्रा
स्वरो
वर्ण
इति
स्थविष्ठः॥),
११.१५.१९(आकाशत्मा
प्राण
में
मन
के
द्वारा
घोष
उत्पन्न
करते
हुए
भूतों
की
वाक्
सुनने
का
उल्लेख),
११.२१.३९(आकाश
से
घोषवान्
प्राण
द्वारा
स्पर्शरूपी
मन
द्वारा
छन्दोमय,
ओंकारव्यञ्जित,
स्पर्श,
स्वर,
ऊष्म,
अन्तःस्थ
वर्णों
से
विभूषित
वाणी
को
प्रकट
करने
का
कथन
-
मय्याकाशात्मनि
प्राणे
मनसा
घोषमुद्वहन्।
तत्रोपलब्धा
भूतानां
हंसो
वाचः
शृणोत्यसौ॥ ),
मत्स्य
१७९.६३(वागीश्वरी
मातृका
की
नरसिंह
रूप
धारी
विष्णु
की
जिह्वा
से
सृष्टि),
मार्कण्डेय
४१.२२/३८.२२
(वाग्दण्ड,
कर्मदण्ड,
मनोदण्ड
नामक
त्रिदण्डों
को
वशीभूत
करने
वाले
की
त्रिदण्डी
संज्ञा),
वायु
१७.६
(त्रिदण्डी
की
परिभाषा,
वाक्
दण्ड,
कर्मदण्ड
व
मनोदण्ड
का
उल्लेख),
स्कन्द
३.१.४०.६(प्रजापति
का
स्वपुत्री
वाक्
के
प्रति
कामुक
होना,
वाक्
द्वारा
रोहित
रूप
धारण
करना
आदि),
५.१.४.३७(वाक्
में
उकार
अग्नि
की
स्थिति
का
उल्लेख
-
उकाराग्निः
स
चाप्येष
समुद्रे
वडवामुखः
।।),
५.१.३६.३७(वागंधक
तीर्थ
की
उत्पत्ति
का
संक्षिप्त
कथन),
हरिवंश
२.८०.४१(मधुर
वाक्
की
इच्छुक
सती
नारी
द्वारा
लवण
के
वर्जन
व
लवण
दान
का
निर्देश
-
मधुरां
वाचमिच्छन्ती
वर्जयेल्लवणं
सती
।
संवत्सरं
वा
मासं
वा
प्रयच्छेल्लवणं
ततः
।। ),
महाभारत
आश्वमेधिक
२१.१४(वाक्
व
मन
में
श्रेष्ठता
का
विवाद
-
उभे
वाङ्मनसी
गत्वा
भूतात्मानमपृच्छताम्।
आवयोः
श्रेष्ठमाचक्ष्व
च्छिन्धि
नौ
संशयं
विभो।। ),
२१.२२(गौ
रूपी
दिव्य
व
अदिव्य
वाक्
का
प्रतिपादन
-
गौरिव
प्रस्रवत्यर्थान्रसमुत्तमशालिनी।
सततं
स्यन्दते
ह्येषा
शाश्वतं
ब्रह्मवादिनी।। ),
२१.२६(स्थावरत्व
के
कारण
मन
व
जंगमत्व
के
कारण
वाक्
की
श्रेष्ठता
का
कथन
-
तस्मान्मनः
स्थावरत्वाद्विशिष्टं
तथा
देवी
जङ्गमत्वाद्विशिष्टाः।। ),
योगवासिष्ठ
६.१.१२८.९(वाक्
का
अग्नि
में
न्यास
का
निर्देश
-
प्राणं
वायौ
वाचमग्नौ
पाणिमिन्द्रे
विनिक्षिपेत्
।।),
लक्ष्मीनारायण
१.५७३.८२(नर्मदा
तट
पर
वागीश
पुर
में
ब्रह्मदत्त
के
यज्ञ
में
प्रेतों
की
मुक्ति
-
वागीशं
च
पुरं
तत्र
नर्मदातटमाश्रितम्
।
अध्वरे
ब्रह्मदत्तस्य
मोक्षणं
वो
भविष्यति
।।),
३.२२५.६७(परा,
पश्यन्ती
आदि
वाकों
के
गुणों
का
वर्णन),
४.५०(द्विर्वदन्ती
नामक
निन्दक
नास्तिक
स्त्री
का
यमदूत
-
प्रदत्त
यातनाओं
से
आस्तिक
बनने
का
वृत्तान्त
),
द्र.
ऋतवाक्,
ऐक्ष्वाकी,
कृतवाक्,
चक्रवाक्,
सत्यवाक्
vaak
वाका वायु ७०.५०(माल्यवान् - पुत्री?, त्रिशिरा, दूषण, विद्युज्जिह्व आदि की माता), लक्ष्मीनारायण २.८६.३९(विश्रवा की ४ पत्नियों में से एक, त्रिशिरा आदि पुत्रों के नाम ) vaakaa
वाक्य ब्रह्मवैवर्त्त ३.४.४१(वाक्य सौन्दर्य हेतु सुधापूर्ण कुम्भ दान का निर्देश), विष्णुधर्मोत्तर ३.४(देव, गन्धर्व आदि वक्ता परीक्षा ), शिव ६.१९.१(प्रज्ञान ब्रह्म इत्यादि महावाक्यों की निरुक्ति ) vaakya/ vakya
वागुरि विष्णुधर्मोत्तर २.१२०.१५
वाग्मती वराह २१५.५९
वाङ्मय वामन ९०.४०(तपोलोक में विष्णु की वाङ्मय नाम से प्रतिष्ठा का उल्लेख )
वाचक्नवि गणेश १.२८.१(रुक्माङ्गद द्वारा वाचक्नवि ऋषि व उनकी पत्नी मुकुन्दा के दर्शन), vachaknavi/ vaachaknavi
वाचस्पति वायु २३.१९४(२१वें द्वापर में वाचस्पति के व्यास होने का उल्लेख )
वाचावृद्ध ब्रह्माण्ड ३.४.१.१०९, द्र. मन्वन्तर
वाच:श्रवा लिङ्ग १.२४.१००(२१वें द्वापर में वाच:श्रवा के व्यास होने का उल्लेख), वायु २३.१८९(२०वें द्वापर के व्यास के रूप में वाच:श्रवा का उल्लेख ), शिव ३.५ vaachahshravaa/ vachahshravaa
वाज द्र. भरद्वाज, भारद्वाज, सनद्वाज
वाजपेय
पद्म
६.४४.३९(विजया
एकादशी
व्रत
से
वाजपेय
फल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
६.५३.३(आषाढ
शुक्ल
शयनी
एकादशी
के
श्रवण
से
वाजपेय
फल
प्राप्ति
का
उल्लेख),
६.५४.६(श्रावण
कृष्ण
एकादशी
श्रवण
से
वाजपेय
फल
प्राप्ति
का
उल्लेख),
६.५५.२(श्रावण
शुक्ल
एकादशी
श्रवण
से
वाजपेय
फल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
वायु
१०४.८३(वाजपेय
यज्ञ
की
शरीर
के
कटि
देश
में
स्थिति
का
उल्लेख),
वा.रामायण
२.४५.२०(वाजपेय
से
उत्पन्न
छत्रों
की
हंसों
से
उपमा
-
अनवाप्तातपत्रस्य
रश्मिसंतापितस्य
ते।
एभिश्छायां
करिष्यामः
स्वैश्छत्रैर्वाजपेयिकैः॥ ),
स्कन्द
५.१.२२.६(रुद्रसर
में
स्नानादि
से
शतवाजपेयों
के
फल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.१.२८.३२
(मार्कंडेश्वर
के
दर्शन
से
वाजपेयफल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.२.१४.४०(कुटुम्बेश्वर
के
दर्शन
से
राजसूय-वाजपेय
फल
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.२.६९.६०(संगमेश्वर
के
दर्शन
से
वाजपेयफल
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.२.५१(रुद्रभाषित
पुराणश्रवण
से
शतवाजपेयफल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.११३.३(
कोटितीर्थ
में
स्नानादि
से
वाजपेयफलप्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.११६.३(पाण्डुतीर्थ
में
पिण्डोदक
प्रदान
से
वाजपेयफल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.१३३.४३(वरुणेश
में
स्नान
से
वाजपेयफलप्राप्ति
का
कथन),
५.३.१३५.२(सिद्धेश्वर
तीर्थ
में
उमारुद्र
की
अर्चना
से
वाजपेयफल
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.१४६.५९(अमावास्या
को
श्राद्ध
से
वाजपेय
आदि
के
फल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.१५४.६(कलकलेश्वर
के
दर्शन
से
वाजपेयफलप्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.१६१.५(सर्पतीर्थ
में
स्नान,
तर्पणादि
से
वाजपेयफलप्राप्ति
का
उल्लेख),
५.३.१७६.३३(
देवखात
तीर्थ
में
पिङ्गलेश्वर
की
पूजा
से
वाजपेयफलप्राप्ति
का
उल्लेख),
६.२५९.५१(नील
वृष
के
दर्शन
से
वाजपेय
फल
की
प्राप्ति
का
उल्लेख),
महाभारत
अनुशासन
१०६.४२(उपवास/चतुर्थकाल
भोजन
द्वारा
वाजपेय
फल
की
प्राप्ति
का
कथन),
आश्वमेधिक
९२दाक्षिणात्य
६३४६पृ.,
लक्ष्मीनारायण
२.१५७.३३(वाजपेय
यज्ञ
का
दक्षिण
बाहु
में
न्यास
)
vaajapeya/ vajapeya
वाजश्रवा ब्रह्माण्ड १.२.३५.१२२(२४वें द्वापर में व्यास),, मत्स्य १४५.९४(वाजिश्रवा द्वारा सत्य प्रभाव से ऋषिता प्राप्ति का उल्लेख), द्र. व्यास
वाजसनेय मत्स्य ५०.५८(जनमेजय के यज्ञ में ब्रह्मा वाजसनेय को वैशम्पायन का शाप), स्कन्द ४.२.६५.११(वाजसनेय द्वारा स्थापित लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य ) vaajasaneya/ vajasaneya
वाजसृक् लक्ष्मीनारायण ३.३२.२२(अर्क अग्नि - पुत्र )
वाजी पद्म ५.१७(वाजीपुर के राजा विमल के राज्य में शत्रुघ्न का आगमन), भविष्य ३.३.२१.९२( शिलावाजी पर आरूढ होकर मकरन्द द्वारा शत्रुओं को पराजित करना) , स्कन्द २.२.१५, योगवासिष्ठ ६.२.१३७.१२(प्राण की वाजी संज्ञा), लक्ष्मीनारायण १.५६४.९३(राजा से हय का प्रतिदान स्वीकार करने के कारण गालव को हय योनि की प्राप्ति, नर्मदा में स्नान से मुक्ति), कथासरित् ५.३.८५(आरूढ होने का प्रयत्न करते हुए शक्तिदेव को वाजी द्वारा पदों से आहत करके वापी में फेंकना ) vaajee/ vaji
वाट लक्ष्मीनारायण २.९७.७७(प्रलय काल में वाटायन ऋषि द्वारा स्वयं के नाश व उज्जीवन का कथन), ३.१९३.१(वाटासीनर ग्राम के दुष्ट राजा राजीव का रानी कुन्दनदेवी के संकल्प से उद्धार का वृत्तान्त), ३.२२०(पिशुन दोष से युक्त वाटधर को राजा द्वारा दण्ड व कृष्ण द्वारा वाटधर को बन्धनमुक्त कराने का वृत्तान्त ) vaata
वाटिका लक्ष्मीनारायण २.७७.४३(क्षेत्र वाटी प्रदान से कृषि - जन्य पापों से निवृत्ति का उल्लेख), ३.४५.३०(वाटिका क्षेत्र दान से सम्राट् पद प्राप्ति का उल्लेख ) vaatikaa/ vatikaa
वाण गरुड ३.१२.९१(वाण की कीचक से तुलना)
वाणिज्य विष्णुधर्मोत्तर २.८३(कर्म शुद्धि), ३.११९.९(वाणिज्य कर्म के आरम्भ में विष्णु की पूजा ) vaanijya/ vanijya
वाणी नारद १.६६.९१(हली विष्णु की शक्ति वाणी का उल्लेख), ब्रह्म २.६५, भविष्य ३.४.८.६४(वाणीभूषण : सत्यदेव - पुत्र, सूर्य अंश), विष्णु १.८.१८(अर्थ - पत्नी), स्कन्द ६.२१०(वाणीवत्सरक नृप द्वारा ताम्बूल भक्षण व पृथ्वी पर ताम्बूल वल्ली का रोपण ), द्र. भाणवाणी, वाक् vaanee/ vani
वात गरुड १.१६६(वात रोग का निदान), १.१६७(वातरक्त रोग का निदान), ब्रह्माण्ड १.२.२३.१५(वात यातुधान की सूर्य रथ में स्थिति), भविष्य १.३३.३२(सर्प के ४ विषदंष्ट्रों की देवताओं का वातज, पित्तज आदि गुणों के अनुसार वर्गीकरण), १.१३८.४०(वात की हरिण ध्वज का उल्लेख ), ३.४.२४.९(भ्रमियन्त्र से वायु तथा वायु से वात्य का जन्म, वात्य द्वारा दैत्यों आदि को जीतना), वायु ६९.१३०(यातुधान, सूर्य - अनुचर, विराग - पिता), स्कन्द ५.३.१३३.४५(वातेश्वर में स्नान व लोकपालों के दर्शन आदि से कृतकृत्य होने का उल्लेख), vaata/ vata
वातक स्कन्द ५.३.१५९.२०(जलहर्त्ता के वातक बनने का उल्लेख), ६.२६९.१२७(वातकेश्वर/कपालेश्वर लिङ्ग की उत्पत्ति व माहात्म्य, वातक ब्राह्मण द्वारा इन्द्र से पाप पिण्ड प्रतिग्रह की प्राप्ति ) vaataka/ vataka
वातरशना भागवत ११.६.४७ (ऊर्ध्वमन्थी वातरशना ऋषियों की प्रशंसा का श्लोक)।
Comments on Vatarashanaa
वातस्कन्ध वा.रामायण १.४७
वातापि पद्म १.६.५९(विप्रचित्ति व सिंहिका के ९ पुत्रों में से एक), ब्रह्माण्ड ३.४.३७.१९(वातापि तापन समयेशी देवियों के धिष्ण्य का कथन), भविष्य ४.११८.८ (अगस्त्य द्वारा मेष रूप वातापि को पचाने की कथा), भागवत ६.१८.१५(ह्राद व धमनि के २ पुत्रों में से एक, इल्वल – भ्राता), ८.१०.३२(असुरों द्वारा अमृतपान में असफल होने पर हुए देवासुर संग्राम में वातापि व इल्वल का ब्रह्मपुत्र – द्वय से युद्ध का उल्लेख), मत्स्य ६.२६(विप्रचित्ति व सिंहिका - पुत्र), वामन ६९.५६(शिव – अन्धक युद्ध में धर आदि ८ वसुओं से युद्ध करने वाले ८ दानवों में से सप्तम), विष्णुधर्मोत्तर १.२१३.२१( अगस्त्य द्वारा वातापि के हनन का संदर्भ), स्कन्द ७.१.२८५(वातापि के संदर्भ में अगस्त्य व इल्वल की कथा), वा.रामायण ३.४३.४१ (वातापि की अश्वतरीगर्भ से तुलना ), लक्ष्मीनारायण १.५४५.७(अगस्त्य - इल्वल कथा में वातापि के फल व आतापि के पर्णशाला बनने का कथन, अगस्त्य द्वारा वातापि का पाचन), कथासरित् ८.२.३७७(वातापी असुर के प्रज्ञाढ्य नामक मन्त्री रूप में अवतरण का उल्लेख ), द्र. वंश दनु vaataapi/vaataapee/ vatapi
वात्सल्य लक्ष्मीनारायण ३.२०५(वात्सल्यधीर भक्त द्वारा अपनी पतिव्रता पत्नी को यति की सेवा हेतु प्रदान करने से मुक्ति प्राप्ति का वृत्तान्त ) vaatsalya/ vatsalya
वात्स्यायन अग्नि ४, ९६, कूर्म १.१७, देवीभागवत ८.१४, नारद १.१०, पद्म १.२५, १.३०, १.३८, २.७६?, ५.१++ (वात्स्यायन द्वारा शेष से रामकथा का श्रवण), ६.१६०, ६.२३९, भविष्य ३.४.२४, भागवत ८.१८+, वराह ४३, १७४, वामन २३, ७८, विष्णुधर्मोत्तर १.२१, १.५५, स्कन्द ३.२.९.६१(वात्स्य गोत्रीय विप्रों के गुण), ३.२.९.६४(वात्स्यायन गोत्र में ऋषियों के ५ प्रवर व गुण), ६.२४, ७.१.११४, ७.२.१४, हरिवंश १.४१, ३.३१, ३.७१, लक्ष्मीनारायण ३.८२.४२(वात्स्यायन ऋषि को स्पर्श करने से गणिकाओं के पाप नाश का वृत्तान्त, वात्स्यायन द्वारा कामशास्त्र के प्रणयन का कथन ) vaatsyaayana/ vatsyayana
वादी द्र. वंश पृथु
वानप्रस्थ अग्नि १६०(वानप्रस्थ का धर्म), कूर्म २.२७(वानप्रस्थ का धर्म), गरुड १.१०२(वानप्रस्थी का कर्तव्य), नारद १.२७.८५(वानप्रस्थ के नियम), १.४३.१२०(वानप्रस्थ धर्म का निरूपण), पद्म ३.५८(वानप्रस्थी का आचार व धर्म), भविष्य ३.४.२०.७(वानप्रस्थ आश्रमी के वैष्णव मार्गी होने का कथन), भागवत ७.१२(वानप्रस्थ के नियम), ११.१७.१४, ११.१८.४२(वानप्रस्थी का धर्म), विष्णु ३.९.२४(वानप्रस्थ धर्म का निरूपण), विष्णुधर्मोत्तर ३.३३९(वानप्रस्थी का धर्म), स्कन्द ४.१.४१(वानप्रस्थ के नियम), महाभारत अनुशासन १४२, आश्वमेधिक ४६(वानप्रस्थी के नियमों का वर्णन ) vaanaprastha/ vanaprastha
वानर देवीभागवत ६.२४+ (पर्वत मुनि के शाप से नारद का वानरमुख होना, पुन: सुन्दर मुख की प्राप्ति), पद्म ६.१२९.१५०, ब्रह्मवैवर्त्त ४.१२.८, ब्रह्माण्ड २.३.७.२०५(वानर वंश का वर्णन), मार्कण्डेय १५.५, लिङ्ग २.५(नारद द्वारा अम्बरीष - कन्या श्रीमती को प्राप्त करने की चेष्टा, वानरमुखता प्राप्ति), वामन ६३+ (विश्वकर्मा का शाप से वानर होना व वानरता से मुक्ति), विष्णुधर्मोत्तर १.२५२(वानरों की हरि व पुलह से उत्पत्ति का उल्लेख), १.२५३(वानरों का गजों से युद्ध), २.१२०.१४, शिव २.१.४(नारद को वानर रूप प्राप्ति की कथा), स्कन्द १.१.८(रावण के शाप से नन्दी को वानरत्व प्राप्ति), ३.१.३४(वानर द्वारा शृगाल से पूर्व जन्म के वृत्तान्त का कथन, सिन्धुद्वीप ऋषि से मुक्ति का उपाय पूछना, पूर्व जन्म में वेदनाथ), ३.१.४९.४६(वानरों द्वारा कृत रामेश्वर की स्तुति), ५.३.१५९.१५(अपरीक्षित भोजी द्वारा वानर योनि प्राप्ति का उल्लेख), ५.३.१५९.१८(फल हरण से वानरता प्राप्ति का उल्लेख), ५.३.२३१.१५(रेवा तट पर ४ वानरेश्वर तीर्थों की स्थिति होने का उल्लेख), महाभारत शान्ति ३०.२५, अनुशासन ९, वा.रामायण १.१७, ४.३७(सुग्रीव द्वारा विभिन्न पर्वतवासी वानरों का वर्णन), ४.३९(सुग्रीव सहायतार्थ आए हुए वानरों के नाम), ६.१२०(रावण वध के पश्चात् वानरों का पुन: संजीवन, वानरों की महिमा), लक्ष्मीनारायण १.३२२.९२(फल चोरी से वानर योनि प्राप्ति का वृत्तान्त), १.४११.५८(श्रीमती कन्या के संदर्भ में पर्वत व नारद द्वारा एक दूसरे के लिए वानरमुखता की विष्णु से याचना), १.५७२, ३.२२७.७७(कीशपाल के लिए रज्जुबद्ध वानर के विष्णु का प्रतीक होने का उल्लेख), ३.२२७.७८(ब्रह्म रथ में विष्णु की माया के वानरी होने का उल्लेख), कथासरित् ३.१.४५(राजपुत्र द्वारा गङ्गा में बह रही मञ्जूषा से कन्या को निकाल कर वानर का निक्षेप करना, वानर द्वारा परिव्राजक के नाक - कान काटना), ४.१.१३१, ७.३.८८(निश्चयदत्त द्वारा भूमि खोदकर मर्कट को मुक्त करना, सोमस्वामी के मर्कट बनने का वृत्तान्त), १०.१.१४८(ईश्वरवर्मा द्वारा दीनार उगलने वाले आल नामक मर्कट की सहायता से वेश्या के धन का आहरण करने का वृत्तान्त), १०.४.२९(कील यन्त्र से उत्पाटित काष्ठ के मध्य वानर द्वारा बैठक कील उत्पाटित करने पर वानर के नष्ट होने का दृष्टान्त), १०.४.२०५(वानरों द्वारा खद्योत को अग्नि मानकर उससे तृण जलाने का प्रयत्न, सूचीमुख पक्षी द्वारा प्रबोधन पर वानरों द्वारा सूचीमुख का नाश), १०.७.९७(उदुम्बर वन में वलीमुख नामक वानर की शिशुमार से मित्रता, शिशुमार - पत्नी द्वारा वानर के हृत्पद्म की मांग का वृत्तान्त), १२.५.१२१(मर्कट के मित्र वराह द्वारा सिंह की क्षुधा तृप्ति के लिए स्व मांस दान, वानर सहित मुनीन्द्रता की प्राप्ति), १८.४.६०(वानर - प्रदत्त दिव्य फल से चन्द्रस्वामी की जरा के नाश का वृत्तान्त ), द्र. मर्कट vaanara/ vanara
वापी ब्रह्मवैवर्त्त ४.९३.७६, ब्रह्माण्ड २.३.१३.३६(मतङ्ग वापी), ३.४.३५(अमृत वापी, आनन्द वापी), ३.४.३५.३५(वापी विमर्श), भविष्य २.१.११, २.३.५(वापी प्रतिष्ठा), ३.४.३.३५, मत्स्य १३६(त्रिपुर ध्वंस प्रसंग में दानवों का मय द्वारा निर्मित अमृत से पूर्ण वापी जल से जीवित होना, वृषभ द्वारा वापी का शोषण), स्कन्द ३.१.१३, ३.२.४, ३.२.७, कथासरित् २.१.४७(सहस्रानीक - पत्नी मृगावती द्वारा रुधिर पूर्ण वापी में स्नान की इच्छा पर राजा द्वारा लाक्षारस पूर्ण वापी का निर्माण आदि), ३.४.३५२(विदूषक द्वारा उदय पर्वत पर दीर्घिका के दर्शन), ५.३.८६(शक्तिदेव द्वारा वापी जल में गिरने पर जन्म भूमि के दर्शन आदि), १०.७.१४(यशोधर व लक्ष्मीधर भ्राता - द्वय द्वारा वापी से उत्थित दिव्य पुरुष तथा उसकी दो भार्याओं की कलह का दर्शन आदि ), लक्ष्मीनारायण १.५१४.११(तीन महत्त्वपूर्ण वापियों के नाम), द्र. कुङ्कुमवापी vaapee/ vapi/vaapi
वापीत वामन ४६
वाम स्कन्द ४.१.१३.१९(विधि के दक्षिण व अच्युत के वामाङ्ग होने का उल्लेख - दक्षिणांगं तव विधिर्वामांगं तव चाच्युतः ।)
वामदत्त कथासरित् १२.१.३४(कुलटा भार्या द्वारा वामदत्त को महिष बनाना, महिषत्व से मुक्ति पर वामदत्त द्वारा कुलटा भार्या को वडवा बनाकर उसका ताडन करना, काल संकर्षिणी विद्या का साधन आदि), १२.१.४९, १६.२.१६९(वामदत्ता नामक वणिक् - कन्या की शूली पर आरोपित चोर पर आसक्ति, चोर के मृत शरीर के साथ भस्म होना ) vaamadatta/ vamadatta
वामदेव
अग्नि
३०४.२६(वामदेव
शिव
का
स्वरूप
:
स्त्री
विलासी,
चतुर्वक्त्र,
? भुज,
अरुण
-
वामदेवः
स्त्रीविलासी
चतुर्वक्त्रभुजोऽरुणः
।),
गणेश
२.१३४.७(वामदेव
द्वारा
क्रौञ्च
गन्धर्व
को
मूषक
होने
का
शाप),
गरुड
१.२१.३(वामदेव
शिव
की
१३
कलाओं
के
नाम),
३.१३.२९(ब्रह्मा
द्वारा
कनिष्ठ
अंगुलि
पर्व
से
वामदेव
की
सृष्टि),
गर्ग
७.२८.४२(गुणाकर
राजा
के
अश्वमेध
के
होता
वामदेव
द्वारा
राजा
को
श्रीहरि
के
महत्त्व
का
कथन
-
यस्मिन्सर्वाणि
तेजांसि
विलीयंते
स्वतेजसि
।
तं
वदंति
परं
साक्षात्परिपूर्णतमं
हरिम्
।।),
नारद
१.६६.१३२(वामदेवेश
गणेश
की
शक्ति
दीर्घक्षोणा
का
उल्लेख),
१.९१(वामदेव
ऋषि
द्वारा
ईश
आराधन),
१.९१.७५(वामदेव
शिव
की
१३
कलाओं
का
कथन),
२.१०.२९(राजा
रुक्माङ्गद
द्वारा
ऋषि
वामदेव
से
स्ववैभव
के
कारण
की
पृच्छा),
पद्म
२.९७.२९(वामदेव
द्वारा
सुबाहु
को
विष्णु
दर्शन
न
होने
के
कारण
का
कथन),
भागवत
५.२०.१४(कुशद्वीप
के
अधिपति
हिरण्यरेता
के
७
पुत्रों
में
से
एक),
मत्स्य
४.२८(वामदेव
शिव
की
ब्रह्मा
से
उत्पत्ति,
वामदेव
द्वारा
जरा
-
मरण
रहित
सृष्टि
पर
ब्रह्मा
द्वारा
वर्जन
-
वामोऽसृजन्नमर्त्यांस्तान्
ब्रह्मणा
विनिवारितः।
नैवंविधा
भवेत्
सृष्टिर्जरामरणवर्जिता।।),
१४५.९२(
तप
से
ऋषिता
प्राप्त
करने
वाले
ऋषियों
में
से
एक),
लिङ्ग
१.१२(वामदेव
शिव
का
माहात्म्य),
२.१४.९(वामदेव
शिव
:
अहंकार
का
रूप),
२.१४.१४(जिह्वेन्द्रियात्मक-
जिह्वेंद्रियात्मकत्वेन
वामदेवोपि
विश्रुतः।),
२.१४.१९(पायु
इन्द्रियात्मक
-
त्मकत्वेन
वामदेवो
व्यवस्थितः।),
२.१४.२४(रस
तन्मात्रात्मक,
अपां
जनक
-
रसतन्मात्ररूपत्वात्
प्रथितं
तत्त्ववेदिनः।
वामदेवमपां
प्राहुर्जनकत्वेन
संस्थितम्।।),
वराह
४७.१७
(वामदेव
द्वारा
नृग
को
द्वादशी
माहात्म्य
का
कथन),
वायु
२२.२३(रक्त
कल्प
में
ब्रह्मा
द्वारा
वामदेव
के
दर्शन),
२२.३५,
२३.७०/१.२३.६५(वामदेव
नाम
का
कारण
-
ततोऽस्य
लोहितत्वेन
वर्णस्य
च
विपर्य्यये।
वामत्वाच्चैव
योगस्य
वामदेवत्वमागतः
।।),
शिव
३.१.१२(बीसवें
कल्प
में
वामदेव
अवतार
का
कथन
-
रक्तमाल्याम्बरधरो
रक्ताक्षो
रक्तभूषणः।।स
तं
दृष्ट्वा
महात्मानं
कुमारं
ध्यानमाश्रितः।
वामदेवं
शिवं
ज्ञात्वा
प्रणनाम
कृतांजलिः
।।),
३.५.१९(१७वें
द्वापर
में
व्यास
के
पुत्रों
में
से
एक),
६.१,
६.३.२७(वामदेव
शिव
की
१३
कलाओं
की
उकार
में
स्थिति-
उकारे
वामरूपिण्यस्त्रयोदश
समीरिताः
।।),
६.६.७२(वामदेव
शिव
की
१३
कलाओं
का
पायु,
मेढ्र
आदि
में
न्यास
-
पश्चात्त्रयोदशकलाः
पायुमेढ्रोरुजानुषु।।
जंघास्फिक्कटिपार्श्वेषु
वामदेवस्य
भावयेत्।।),
६.११(वामदेव
द्वारा
स्कन्द
से
प्रणव
अर्थ
की
प्राप्ति),
६.११.१७(वामदेव
:
शिव
का
गुह्य
प्रदेश),
६.११.२२(वामदेव
द्वारा
स्कन्द
की
स्तुति
-
ॐ
नमः
प्रणवार्थाय
प्रणवार्थविधायिने
।।
प्रणवाक्षरबीजाय
प्रणवाय
नमोनमः
।।...),
६.१४.४३(वामदेव
शिव
में
बुद्धि,
रसना,
पायु,
रस,
आप:
की
स्थिति
-
बुद्धिश्च
रसना
पायू
रस
आपश्च
पंचकम्
।
ब्रह्मणा
वामदेवेन
व्याप्तं
भवति
नित्यशः
।।),
६.१६(वामदेव
द्वारा
सृष्टि
का
कारण
शिव
हैं
या
शक्ति,
विषयक
प्रश्न),
६.१६.६०(वामदेव
शिव
से
प्रतिष्ठा
कला
की
उत्पत्ति
-
प्रतिष्ठा
च
निवृत्तिश्च
वाम
सद्योद्भवे
मते
।),
६.१७(शिव
व
शक्ति
के
स्वरूप
का
प्रश्न,
शिव
द्वारा
वामदेव
को
अद्वैत
का
ज्ञान
-
नियत्यधस्तात्प्रकृतेरुपरिस्थः
पुमानिति
।
पूर्वत्र
भवता
प्रोक्तमिदानीं
कथमन्यथा।।),
७.२.३.१४(शिव
की
वामदेव
नामक
मूर्ति
में
तन्मात्राओं
का
स्थान
-
रसनायाश्च
पायोश्च
रसस्यापां
तथैव
च
॥
ईश्वरीं
वामदेवाख्यां
मूर्तिं
तन्निरतां
विदुः
॥),
७.२.२२.३५,
स्कन्द
३.३.१२.१२(वामदेव
शिव
से
उदीची
दिशा
में
रक्षा
की
प्रार्थना),
३.३.१२.१९(वामदेव
से
दिन
के
मध्यम
याम
में
रक्षा
की
प्रार्थना
-
महेश्वरः
पातु
दिनादियामे
मां
मध्ययामेऽवतु
वामदेवः
।।),
३.३.१५+
(वामदेव
द्वारा
भस्म
प्रभाव
से
ब्रह्मराक्षस
की
पीडा
से
मुक्ति,
ब्रह्मराक्षस
को
जाति
ज्ञान,
भस्म
माहात्म्य
का
वर्णन),
५.२.२१.३१(वामदेव
द्वारा
विदूरथ
-
पुत्र
को
क्षय
प्राप्ति
के
कारण
का
कथन),
५.२.२८(वामदेव
द्वारा
वीरधन्वा
राजा
को
पूर्व
जन्म
के
वृत्तान्त
का
कथन),
६.३६.९(वामदेव्य
जप
से
भूत
प्रेत
पिशाच
आदि
से
निरुपद्रवता
प्राप्ति),
७.१.१०५.४५
(वामदेव
:
तृतीय
कल्प
का
नाम),
लक्ष्मीनारायण
१.१७४.१८१
(दक्ष
यज्ञ
से
बहिर्गमन
करने
वाले
शैव
ऋषियों
में
से
एक
-
माण्डव्यो
वामदेवश्च
गालवश्चेतरे
तथा
।।
अन्येऽपि
च
त्रिकालज्ञाः
शैवा
यज्ञाद्विनिर्ययुः
।),
१.२५९.७१(यम
पाशों
से
मुक्ति
हेतु
वामदेव
द्वारा
शिष्य
वेदशिरा
को
इष
शुक्ल
एकादशी
व्रत
का
निर्देश),
१.५४५.३३(वामदेव
द्वारा
राजा
नृग
को
एकादशी
व
द्वादशी
तिथियों
द्वारा
चोरों
से
रक्षा
का
रहस्य
बताना),
२.२४२.१९(वामदेव
ऋषि
की
कृपा
से
उत्पन्न
पङ्किल
ऋषि
की
कथा
-
दाक्षीदेवीं
मातरं
च
पितरं
वामदेवकम्
।।),
३.५१.१०६
(वामदेव
ऋषि
द्वारा
सुबाहु
नृप
को
क्षुधा
निवृत्ति
हेतु
स्व
शव
भक्षण
का
परामर्श,
पुण्यदान
से
राजा
द्वारा
तृप्ति
की
प्राप्ति),
कथासरित्
१५.१.५(ऋषि
वामदेव
द्वारा
नरवाहनदत्त
को
मन्दरदेव
पर
विजय
प्राप्त
करने
का
निर्देश
)
vaamadeva/ vamadeva
महाभारत सभा ७.१७(एक महर्षि जो इन्द्र की सभा में विराजते हैं), वन १९२.४३ (वामदेव द्वारा राजा शल को अपने वाम्य अश्व देना), वन १९२.४८(अश्वों के न लौटाने पर इनका राजा से वार्तालाप व अन्त में कृत्याजन्य राक्षसों द्वारा राजा को नष्ट करना), १९२.६०(शल के अनुज राजा दल से वार्तालाप और अश्वों को पुनः प्राप्त करना), उद्योग ८३.२७(शान्तिदूत बनकर हस्तिनापुर जाते हुए श्रीकृष्ण की परिक्रमा), शान्ति ९२-९४ (महाराज वसुमना को राजधर्म का उपदेश), सभा २७.११(एक नरेश, उत्तरदिग्विजय के अवसर पर अर्जुन द्वारा स्व आधीन करना)
Comments on Vaama
Vedic view of Vaama(by Dr. Tomar)
वामन अग्नि ४, ५६.१३(ध्वज - देवता), ९६, १८९.४(श्रावण शुक्ल द्वादशी को वामन पूजा विधि का कथन), गणेश २.२६.१३(व्याध व राक्षस द्वारा वामन गणेश की अनायास पूजा, मुक्त होना), २.३०(वामनावतार की भूमिका : बलि द्वारा यज्ञ से इन्द्र पद प्राप्ति का यत्न), २.३१(वामन द्वारा बलि पर विजय पाने के लिए गणेश की आराधना), गरुड ३.२२.७९(अश्व में श्रीहरि की वामन नाम से स्थिति), ३.२६.६२(दधिवामन का माहात्म्य), ३.२९.५३(यज्ञोपवीत धारण में वामन रूप नारायण के स्मरण का निर्देश), गर्ग ५.१५.२८?, देवीभागवत ८.१४.१०(लोकालोक पर्वत पर दिग्गज), नारद १.११.७२(वामन का अदिति से प्राकट्य, वामन का स्वरूप, कश्यप द्वारा वामन की स्तुति), १.६६.८८(वामन की शक्ति दयिता का उल्लेख), पद्म १.२५, १.३०, १.३८, २.११, ६.१२०.६७(वामन से सम्बन्धित शालग्राम शिला के लक्षणों का कथन), ६.१६०(वामन तीर्थ का माहात्म्य), ६.२३९(वामन अवतार की कथा, वामन द्वारा बलि का निग्रह), ब्रह्म २.४(वामन - बलि प्रसंग, वामन का विराट् बनकर पद क्रमण करना), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१२.२०(वामन से तालुक की रक्षा की प्रार्थना), भविष्य ३.२.२(वामन द्विज पर मधुमती की आसक्ति, वामन का मरण, अन्य द्वारा संजीवन, मधुमती से विवाह), ३.२.५(द्रौणि - शिष्य, महादेवी द्वारा वरण), ३.३.२७.२५(वामन द्वारा जननायक के दिव्य अश्व का हरण करना), ३.३.२७.४७(कुठार नगर के राजा वामन द्वारा राजा जयचन्द्र के आक्रमण पर अश्व का प्रतोद वापस करना), ३.३.३२.१८३(वामन का पृथ्वीराज - सेनानी मुकुन्द से युद्ध), ३.४.५.२१(वामन के अर्ध भाग से नारायण का तीन युगों में अवतार), ३.४.१७(वामन दिग्गज : ध्रुव व दिशा? - पुत्र), ३.४.२४(कलि हितार्थ वामन का कामशर्मा व देवहूति के पुत्रों भोग व केलि के रूप में अवतरण), ३.४.२५.८९(वामन की वैवस्वत मन्वन्तर में - - - - राशि में उत्पत्ति का उल्लेख), ४.८३.१२०, भागवत ६.८.१३(वामन से स्थल पर रक्षा की प्रार्थना), ८.१७+ (ब्रह्मा द्वारा वामन की स्तुति, वामन का प्राकट्य, बलि की यज्ञशाला में वामन के पदार्पण की कथा), ८.२०.२१(वामन द्वारा विराट् रूप धारण), मत्स्य २४५+ (वामन का प्राकट्य, बलि का निग्रह), २४६(वामन द्वारा विराट् रूप धारण), वराह १.२६(वामन से ह्रदय की रक्षा की प्रार्थना), ४३(वामन का न्यास), १७४.६३(श्रावण शुक्ल द्वादशी को वामन पूजा की विधि व फल का वर्णन), वामन २३+ (वामन व बलि की कथा), ७८.५७(प्रभास - पुत्र, गतिभास नाम, बलि के प्रसंग के सदृश वामन द्वारा धुन्धु दैत्य के पराभव का प्रसंग), ८९(वामन के विभिन्न स्थानों में नाम व निवास), ९०.४३(पुष्कर द्वीप में विष्णु का वामन नाम), ९१(वामन द्वारा बलि से याचना, वामन के विराट् रूप का प्राकट्य), वायु ६९.२०७, विष्णुधर्मोत्तर १.२१(वामन द्वारा बलि के राज्य में त्रिपाद भूमि ग्रहण का प्रसंग), १.५५, १.२३७.८(वामन से विषमों में रक्षा की प्रार्थना), १.२४८.२९(गरुड - पुत्रों में से एक), स्कन्द १.१.१८(वामन द्वारा बलि से याचना का प्रसंग), ४.२.६१.१९८(अनन्त वामन, दधि वामन, बलि वामन का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.२.६१.२२०(वामन मूर्ति के लक्षण व महिमा), ४.२.८४.२०(वामन तीर्थ का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.६३(वामन कुण्ड की महिमा, वामन कुण्ड की कुमुद्वती/अवन्ती में स्थिति, वामन - बलि की कथा), ५.१.६३.८, ५.३.१४९.१०, ६.२४, ७.१.१६(वामन द्वारा रैवतक पर्वत की यात्रा, शिव से संवाद), ७.१.८१.१८(द्वितीय कल्प में विष्णु के अवतार का नाम), ७.१.११४(वामन स्वामी का माहात्म्य, वामन द्वारा बलि का निग्रह, गङ्गा की उत्पत्ति), ७.२.१४.६६(बालखिल्यों के शाप से विष्णु का वामन बनना), ७.२.१८(नारद द्वारा वामन को बलि निग्रह की प्रेरणा, वामन का बलि के यज्ञ में गमन), ७.४.१८+ (वामन की बलि के द्वार पर स्थिति, दुर्वासा के अनुरोध पर चक्र तीर्थ में कुश दैत्य पर अनुशासन), हरिवंश १.४१(वामन अवतार का वर्णन), ३.३१, ३.६९+ (बलि यज्ञ के प्रसंग में वामन का प्राकट्य, उत्सव), ३.७१, लक्ष्मीनारायण १.१४४.५७(विष्णु का वालखिल्यों के शाप से वामन होना व बलि का निग्रह), १.१४५+ (वामन का दश वर्षीय ब्रह्मचारी रूप, तीर्थ यात्रा, बलि का निग्रह), १.१४६(वामन का बृहद् रूप धारण कर त्रिलोकी का मापन), १.१४७(वामन द्वारा तृतीय पद के रूप में बलि की देह का मापन, बलि को रसातल में भेजना), १.१५३.७९(वामन द्वादशी व्रत विधि), १.२२७.३७(चक्र तीर्थ में दैत्यों से त्रस्त दुर्वासा का वामन की शरण में गमन, कृष्ण द्वारा चक्र आदि से दैत्यों का हनन), १.२५३, १.२६५.१०(वामन की पत्नी कमला का उल्लेख), १.३५०.३६(गोकर्ण द्वारा वामनस्थल पत्तन से पण्य वस्तुएं क्रय करने का उल्लेख), १.५४८.९०(वामन के रैवत में बाल रूप होने का उल्लेख), २.२४२.८८(वामन के अङ्गुष्ठ स्पर्श से पङ्किल ऋषि का समाधि से जाग्रत होना, वामन के मन्दिर की प्रतिष्ठा), ३.१६४.५३(अष्टम मनु सावर्णि मनु के काल में वामन अवतार द्वारा बलि के निग्रह का कथन), ३.१७०.१६(धामों में २३वें धाम की वामन संज्ञा का उल्लेख ), द्र. भूगोल vaamana/ vamana
वायक लक्ष्मीनारायण ३.२०३.१(तूलवायि नामक वायक की हरि भक्ति का वृत्तान्त, श्रीहरि से मुक्ति उपाय विषयक संवाद), द्र. तुन्नवाय, तूलवायि
वायस ब्रह्मवैवर्त्त २.३१.१०(धृष्टा/वेश्यागामी द्वारा वायस योनि प्राप्ति का उल्लेख), ४.८५.११६(कलहयुक्त मानव के वायस बनने का उल्लेख), ब्रह्माण्ड २.३.१२.३३(दीर्घायु प्राप्ति हेतु वायस को पिण्ड दान का निर्देश), मत्स्य ५८.१८(तडाग आदि निर्माण में ताम्र निर्मित वायस दान का निर्देश ), मार्कण्डेय १५.१५, वायु ३१.७, स्कन्द ५.३.१५५.२६, द्र. काक vaayasa/ vayasa
वायु
अग्नि ८४.२८+
(प्राण,
अपान,
नाग,
कृकल
आदि का दीक्षा में कलाओं के
अन्तर्गत विभाजन),
१२५.३(शरीर
में वायु के स्थान अनुसार
विशिष्ट कार्य,
मातृकाओं
की स्थिति),
गणेश
२.७६.१३(विष्णु
व सिन्धु के युद्ध में पवन का
निशुम्भ से युद्ध),
२.७७.४(सिन्धु
द्वारा अनिल के पादों पर?
आघात),
गरुड
१.२००(वायुजय
:
देह
वायु अनुसार करणीय कर्म),
३.१.४१(वायु
के गुरुओं में सर्वश्रेष्ठ
होने का उल्लेख),
३.२.४४(वायु
के जीवाभिमानी होने का उल्लेख),
३.५.२७(४
वायु अभिमानी देवों के नाम),
३.६.११(वायु
द्वारा हरि-स्तुति),
३.१२.७९(वायु
के अस्त्र गदा का उल्लेख -
शतवर्षानन्तरं
च सर्वेषां कलिना सह ।
वायोर्गदाप्रहारेण
लिङ्गभङ्गो भविष्यति ॥),
३.१६.२०(वायु
के विभिन्न जन्मों व नामों
का कथन),
३.१६.२१(संकर्षण
व जया से उत्पन्न वायु के रूप),
३.१६.४६(वायु
के प्रज्ञा व ज्ञान रूप,
कलि
से विपरीतता
-
परोक्षेणापि
सर्वेषां हरिं दर्शयते सदा
।
अतो
वायुः सदा वीन्द्र ज्ञानमित्येव
कीर्तितः ॥),
३.१६.६३(वायु
के सर्वदा सुखी तथा कलि के
दुःखी होने का कथन),
३.१६.६६(वायु
के अवतारों का कथन),
३.१६.७८(ऋजु
स्वरूप वायु के २३ रूप होने
का उल्लेख),
३.२६.४४(श्रीनिवास
के संदर्भ में वायु तीर्थ का
माहात्म्य,
वायु
तीर्थ में अपान शुद्धि का
निषेध),
देवीभागवत
५.८.६६(वायु
के तेज से देवी के श्रवणेन्द्रिय
की उत्पत्ति),
५.९.१४(वायु
द्वारा देवी को धनुष व तरकस
भेंट का उल्लेख
-
इषुधिं
बाणपूर्णञ्च चापं चाद्भुतदर्शनम्
।
मारुतो
दत्तवांस्तस्यै दुराकर्षं
खरस्वरम् ॥),
९.१.१००(स्वस्ति
-
पति),
१२.८(तृण
को उखाडने में वायु की असमर्थता,
वायु
के गर्व का खण्डन),
नारद
१.४२.९३(स्पर्श/वायु
के ११ भेद
-
शब्दस्पर्शौ
तु विज्ञेयौ द्विगुणौ वायुरित्युत
।।
एवमेकादशविधो
वायव्यो गुण उच्यते ।।),
१.६०.२०(व्यास
द्वारा शुकदेव को आवह,
प्रवह
आदि ७ वायुओं के विशिष्ट कार्यों
का कथन),
१.६६.११८(बकेश
की शक्ति वायवी का उल्लेख),
१.११४.१०(आषाढ
पञ्चमी को वायु के बहने की
दिशा का अन्वीक्षण
-
प्रथमादिषु
यामेषु यो यो वायुः प्रवर्तते
।। तस्मै तस्मै दिगीशाय पूजां
सम्यक् प्रकल्पयेत् ।।),
पद्म
१.२२.३(समुद्र
शोषण की इन्द्र की आज्ञा का
उल्लङ्घन करने से वायु को शाप
प्राप्ति,
वसिष्ठ
रूप में जन्म ?),
१.४६.७८(वायव्या
– रक्त पान करने वाली मातृकाओं
में से एक),
१.४९.१२०(प्राण,
अपान
आदि के लिए अङ्गुलि मुद्रा),
२.८६.७१(क्रोध
आदि क्लेशकारक वायुओं का
उल्लेख),
ब्रह्मवैवर्त्त
१.१०.३९(वायु
से स्त्रीरत्न भूषण प्राप्ति
का उल्लेख),
२.१०.१५२(वायु
द्वारा सरस्वती को मणिनूपुर
देने का उल्लेख),
ब्रह्माण्ड
१.२.१३.१३४(अहोरात्र
कर अनुवत्सर वायु का उल्लेख),
१.२.२२.३४(आवह
आदि वायुएं :
मेघों
की नियामक),
१.२.२२.५०(परिवह
वायु),
२.३.७.२३(वायु
से मुदा नामक अप्सरा गण की
उत्पत्ति),
भविष्य
३.४.२०.१८(अपरा
प्रकृति के देवों में से एक),
३.४.२४.८,
३.४.२५.३१(ब्रह्माण्ड
रज से वायु तथा वायु से स्वारोचिष
मनु की उत्पत्ति का उल्लेख),
३.४.२५.१०५(वायु
कल्प का वर्णन),
भागवत
८.१०.३०(अनिल
का पुलोमा से युद्ध
का उल्लेख),
११.७.३९(दत्तात्रेय
-
गुरु
के रूप में वायु का उल्लेख
– गन्ध व वायु के सम्बन्ध की
भांति विषयों से युक्त न होने
का निर्देश),
११.११.४४(वायु
में मुख्य धी द्वारा ईश्वर
की उपासना का निर्देश),
११.२१.३८(मन
के स्पर्श गुण का उल्लेख,
मन
का वायु से साम्य?
- आकाशाद्घोषवान्प्राणो
मनसा स्पर्शरूपिणा ।),
मत्स्य
१९.८(सर्पों
का भोजन वायु होने का उल्लेख),
१५४.४४०(वायु
द्वारा वृष को तीक्ष्ण शृङ्ग
देने का उल्लेख -
वायुश्च
विपुलं तीक्ष्ण श्रृङ्गं
हिमगिरिप्रभम्।
वृषं
विभूषयामास हरयानं महौजसम्
।।),
२६१.१८(वायु
की प्रतिमा का रूप),
२८६.९(वायवी
देवी का स्वरूप),
लिङ्ग
१.५३.३८(आवह,
परिवह
आदि वायु
की सात नेमियां),
१.७४.३(वायु
द्वारा आरकूटमय लिङ्ग की पूजा
का
उल्लेख),
१.८६.८३(१४
वायुओं के नाम),
वराह
१२६.८२(वायु
तीर्थ का वर्णन
-
तस्य
चिह्नं प्रवक्ष्यामि वायु
तीर्थस्य सुन्दरि ।।
...अश्वत्थवृक्षपत्राणि
चलन्ति नित्यशो वने ।।),
१५२,
वामन
५७.६९(वायु
द्वारा स्कन्द को २ गण प्रदान
करना),
वायु
५१.३२(आवह,
प्रवह
आदि वायुओं द्वारा
विभिन्न
मेघों के
नियन्त्रण
का
कथन),
५१.५२(ध्रुवेणा
वेष्टितः सूर्यस्ताभ्यां
वृष्टिः प्रवर्त्तते।
ध्रुवेणावेष्टितो
वायुर्वृष्टिं संहरते पुनः
।।),
५६.२०(वायु
अनुवत्सर,
अग्नि
संवत्सर,
सूर्य
परिवत्सर आदि -
एषां
संवत्सरो ह्यग्निः सूर्यस्तु
परिवत्सरः। सोम ईद्वत्सरः
प्रोक्तो वायुश्चैवानुवत्सरः
।।),
६०.६७(वायु
के पुर में ब्राह्मणों की
ब्रह्महत्या से मुक्ति),
६७.११०(आवह
आदि वात स्कन्धों में मरुत
गण),
विष्णु
१.८.२५(धृति
– पति -
धृतिर्लक्ष्मीर्जगच्चेष्टा
वायुः सर्वत्रगो हरिः ॥),
विष्णुधर्मोत्तर
१.५.२
(सात
वायुस्कन्धों का कथन),
१.४१.६(वायु
की प्रकृति शिवा का उल्लेख -
वायुश्च
पुरुषो ज्ञेयः प्रकृतिश्च
तथा शिवा ।),
१.१२३(देव
-
कृत
वायु स्तोत्र),
२.१३२.८(वायवी
शान्ति का हरित वर्ण),
३.५८(वायु
की मूर्ति का रूप),
३.१८५(वायु
व्रत),
३.३२१.१०(रोगी
की परिचर्या से वायु लोक की
प्राप्ति),
शिव
२.५.३६.१०(वायु
का शङ्खचूड -
सेनानी
चञ्चल से युद्ध
-
कालम्बिकेन
वरुणश्चंचलेन समीरणः ।।),
७.१.१+
(शिव
पुराण की वायवीय संहिता का
आरम्भ),
७.१.४.३(वायु
द्वारा शिव के ऐश्वर्य का
कथन),
स्कन्द
१.१.७.३०(वायव्य
दिशा
में पावनेश्वर लिङ्ग की स्थिति
का उल्लेख),
१.१.१७.१३९(इन्द्र-वृत्र
युद्ध में वायु का महाबल से
युद्ध),
१.१.१८.५(वायु
द्वारा पारावत रूप ग्रहण),
१.२.१३.१५१(शतरुद्रिय
प्रसंग में वायुओं
द्वारा रीतिज लिङ्ग की शम्भु
नाम से पूजा
-
वायवो
रीतिजं लिंगं शंभुमित्येव
नाम च॥),
२.१.३३.६(वायु-कथित
सुवर्णमुखरी नाम निष्पत्ति),
३.१.२३.२९(वायु
का यज्ञ में उद्गाता ऋत्विज
होने का उल्लेख
-
आग्नीध्रोऽभूच्छुनःशेपः
पोता जातश्च पावकः ।।
उद्गाता
वायुरभवत्प्रस्तोता च परेतराट्
।।),
३.१.४९.५७(वायु
द्वारा रामेश्वर की स्तुति
-
हराय
हरिरूपाय व्याघ्रचर्मांबराय
च ।।
रामनाथ
नमस्तुभ्यं ममाभीष्टप्रदो
भव ।।),
४.१.१३.१(वायु
की गन्धवती पुरी का वर्णन),
४.२.८९.४७(दक्ष
यज्ञ में वायु के वृषण छेदन
का उल्लेख),
५.३.९०.५९(वारुणास्त्र
का वायव्यास्त्र से तथा
वायव्यास्त्र का सार्प अस्त्र
से शमन),
७.३.५२.१०(वायु
द्वारा शिव -
पार्वती
रति में विघ्न करना,
अन्य
कथाओं में अग्नि द्वारा विघ्न),
हरिवंश
१.४४.२८(स
वायुः सर्वभूतायुरुद्भूतः
स्वेन तेजसा ।
ववौ
प्रव्यथयन् दैत्यान् प्रतिलोमः
सतोयदः ।।),
३.५३.९(वायु
का पुलोमा से युद्ध),
महाभारत
वन ३१३.५९(मन
के वायु से शीघ्रतर होने का
उल्लेख – यक्ष-युधिष्ठिर
संवाद),
३१३.६६(वायु
के सर्वमिदं जगत् होने का
उल्लेख),
शान्ति
१५४+(शाल्मलि
द्वारा वायु के प्रतिरोध हेतु
स्वशाखाओं आदि के पात का
वृत्तान्त),१८४.२४(प्राण,
अपान
आदि ५ वायुओं के विशिष्ट कार्यों
का कथन),
३२८,
आश्वमेधिक
५०.४९(वायु
के स्पर्श गुण में रूक्ष,
शीत
आदि १२ विस्तारों के नाम),
१४५दाक्षिणात्य
पृ.६०१४,
योगवासिष्ठ
१.३१.३(वासना
का रूप
-
वासनावातवलिते
कदाशातडिति स्फुटे ।),
३.७३.४९(वायु
द्वारा इन्द्र के निर्देश पर
ब्रह्माण्ड में सूची का अन्वेषण
-
तत्प्राप
हिमवच्छृङ्गं यत्र सूची
तपस्विनी ।।
शृङ्गमूर्ध्नि
महत्युग्रे सारण्यानीमवाप
ताम् ।),
६.१.१२८.९(प्राण
का वायु में न्यास),
६.२.९२(वायव्यी
धारणा का वर्णन),
वा.रामायण
१.३२.१५(वायु
की कुशनाभ व घृताची की १००
कन्याओं पर आसक्ति,
वायु
द्वारा कन्याओं को कुब्जा
करना),
लक्ष्मीनारायण
१.१७७.५२(दक्ष
यज्ञ में भृङ्गी के वायु से
युद्ध का उल्लेख -
नैर्ऋतेन
तु चण्डश्च भृंगिणा वायुरित्यपि
।),
१.१८४.१७३(वायु
द्वारा शिव वीर्य को तपोरत
अञ्जना के कर्ण में प्रवेश
कराने का वृत्तान्त
-
गृहाण
शांकरं बीजं गच्छांऽजनीं तु
कैसरीम् ।
स्वस्थो
भूत्वा तदा वायुर्वीर्यं
जग्राह शांकरम् ।।),
१.३८२.२५(विष्णु
के वायु और लक्ष्मी के धृति
होने का उल्लेख -
वायुश्चाऽहं
धृतिस्त्वं वै वेला त्वं
सागरोऽस्म्यहम् ।),
१.४४१.८६(वृक्ष
रूप धारी कृष्ण के दर्शन हेतु
मारुत द्वारा पूग वृक्ष में
प्रवेश का उल्लेख),
२.१६०.७१(कलश
आरोहण के संदर्भ में वायु हेतु
यवौदन का विधान),
२.२१४.९(रायनवार्क
राजा के साथ वायुशृङ्गतनु
ऋषि का उल्लेख),
२.२१६.५४(शाल्मलि
वृक्ष द्वारा वायु की पराभव
का वृत्तान्त),
२.२२१.७७(कृष्ण
का रायसोमन नृप की दिव्य नगरी
वायुमाना में आगमन,
उपदेश
आदि),
३.१०१.६८(वादल
वर्णा गौ दान से वायु लोक
प्राप्ति का उल्लेख),
कथासरित्
८.५.१७(वायुबल
:
दामोदर
के महारथियों में से एक),
८.५.२०(वायुबल
के साथ मरुद्वेग असुर के युद्ध
का उल्लेख),
८.७.३७(कालचक्र
द्वारा चक्र से वायुबल को
द्वेधा भिन्न करने का उल्लेख),
१४.२.१६४(राजा
वायुपथ द्वारा मानसवेग विद्याधर
व राजा नरवाहनदत्त के विवाद
का निर्णय),
१४.४.१५३(भ्राता
वायुपथ द्वारा स्वभगिनी
वायुवेगयशा को नरवाहनदत्त
को प्रदान करना,
वायुवेगयशा
की नरवाहनदत्त का वरण करने
की अनिच्छा,
चार
सखियों सहित वायुवेगयशा द्वारा
नरवाहनदत्त का वरण करने का
वृत्तान्त ),
द्र.
शरीर
vaayu/
vayu
Comments on Vaayu
वार अग्नि १२५.२०(वार का तिथि, नक्षत्र के साथ योगफल का वर्णन), १९५(वार व्रत का वर्णन : नक्षत्र व वार के योग में व्रत), देवीभागवत ८.२४(वार अनुसार देवी को नैवेद्य अर्पण), नारद १.५५.१५६(वार ज्योतिष विचार), लक्ष्मीनारायण १.२८४(वार व्रतों का निरूपण, वार अनुसार ग्रहों की पूजा, आचरण आदि ) vaara/ vara
वारण स्कन्द १.२.६२.२८(क्षेत्रपालों के ६४ प्रकारों में से एक ), कथासरित् १७.५.२४(मुक्ताफलध्वज द्वारा काञ्चनगिरि व काञ्चनशेखर वारण प्राप्त करने का कथन ) vaarana/ varana
वाराङ्गना पद्म ४.६
वाराणसी कूर्म १.३१(व्यास व जैमिनि - संवाद में वाराणसी के माहात्म्य का वर्णन), पद्म ६.२५१, ब्रह्म १.९, मत्स्य १३, १८०(वाराणसी का माहात्म्य, शोभा, हरिकेश यक्ष का तप), १८१+ (वाराणसी के अविमुक्त नाम का कारण व माहात्म्य), लिङ्ग १.९२(वाराणसी का माहात्म्य), वामन ३(वाराणसी का वर्णन, शिव का कपाल मोचन), १५(वाराणसी में सूर्य के पतन का प्रसंग), ९०.१५(वाराणसी में विष्णु का केशव नाम से वास ), स्कन्द ५.३.१७३.६, ५.३.१९८.६४, ७.१.९९, कथासरित् ३.५.५४(वत्सराज द्वारा प्राची दिशा में ब्रह्मदत्त द्वारा शासित वाराणसी पुरी को जीतने का उद्योग), ४.३.३१(सिंहपराक्रम राजभृत्य द्वारा वाराणसी पुरी में न्यग्रोध मूल में दिव्य पात्र प्राप्त करने का आख्यान), ७.६.२६(वाराणसी के विरूपशर्मा द्विज द्वारा रूप प्राप्ति हेतु तप, इन्द्र द्वारा विरूप जम्बुक रूप में प्रकट होकर तप से निवारण), १२.२.४८(राजा भद्रबाहु द्वारा वाराणसी के राजा की कन्या अनङ्गलीला को प्राप्त करने का आख्यान), १२.८.५९(वाराणसी के राजपुत्र वज्रमुकुट के सखा बुद्धिशरीर द्वारा दिव्य कन्या के संज्ञानों को समझने का आख्यान), द्र. काशी vaaraanasee/ varanasi
वाराह देवीभागवत ४.२२,ब्रह्म २.९३.३०(वाराह से बाहु की रक्षा की प्रार्थना), भविष्य ३.४.२५.८१(वाराह की स्वायम्भुव मन्वन्तर में मकर राशि में उत्पत्ति), मत्स्य १७३.१६(तारक - सेनानी वाराह के रथ का कथन ), वामन ९०.४(वाराह तीर्थ में गरुडध्वज की प्रतिष्ठा का उल्लेख), वायु ४८, हरिवंश १.५४, ३.३३, ३.३५.३३, लक्ष्मीनारायण १.३४७, १.३९२, १.४०१, १.४०६, १.५६४, १.५७७, ३.१७०.१४, द्र. वराह vaaraaha/ varaha
वाराही अग्नि १४६.२३(वाराही देवी की आठ शक्तियों के नाम), गर्ग ७.२८, देवीभागवत ३.१९.३६(वाराही से विषम मार्ग में रक्षा की प्रार्थना), पद्म १.४६.७९, मत्स्य २६१.३०(वाराही मातृका की प्रतिमा का रूप), वराह २७(वाराही मातृका का असूया नाम), वामन ५६, स्कन्द २.३.४, ४.१.४५.३४(६४ मातृकाओं में से एक), ४.२.७०.२६(वाराही देवी का संक्षिप्त माहात्म्य), ४.२.८८.६१(सती के रथ में मकरतुण्ड का रूप?), लक्ष्मीनारायण १.३४७.६६(पद्म रूप माथुर मण्डल में दक्षिण दिशा में वराह की स्थिति, कपिल द्वारा मन से निर्मित वाराही मूर्ति का इन्द्र, रावण आदि में हस्तान्तरण), १.३४८.८७(वराह द्वारा असि से विमति राजा का नाश, असि कुण्ड का महत्त्व), १.३९२.४२(वराह रूप धारी पातालकेतु दैत्य द्वारा मदालसा कन्या से पाणिग्रहण का निश्चय, ऋतध्वज द्वारा पातालकेतु का शर से वेधन), १.४०१.८९(वसु द्वारा वाराह वल्मीक की प्रतिष्ठा का वृत्तान्त), १.४०६.६७(वराह द्वारा उडने को उत्सुक वेंकटाद्रि का उडने से वर्जन), १.५६४.८५(राजा धुन्धुमार के दर्शन से वाराह का दिव्य रूप होना, वाराह के पूर्व जन्म का वृत्तान्त), १.५७७.५५(सौकर तीर्थ के प्रभाव से शृगाली व गृध्र के राजकुल में जन्म लेने का वृत्तान्त ) vaaraahee/ varahi
वारुणी गरुड ३.६.५०(वारुणी द्वारा हरि-स्तुति), ३.२८.२(शेष-पत्नी वारुणी का उल्लेख, बलभद्र-पत्नी रेवती बनना), ३.२१.२६(शेष-पत्नी), ३.२२.२४(वारुणी आदि के २६ लक्षणों से युक्त होने का उल्लेख), ३.२८.८(वारुणी का रेवती व सौपर्णी से तादात्म्य), नारद १.६६.११४(अर्धनारीश की शक्ति वारुणी का उल्लेख), १.६६.११८(खड्गीश की शक्ति वारुणी का उल्लेख), पद्म १.४६.७९, ब्रह्माण्ड २.३६.१०४, ४.२८.७३, मत्स्य २८६.९(वारुणी देवी का स्वरूप), विष्णु ५.२५.३(वारुणी का वरुण के आदेश से कदम्ब वृक्ष में वास, बलराम द्वारा वारुणी का सेवन), विष्णुधर्मोत्तर २.१३२.९(वारुणी शान्ति के शुक्त वर्ण का उल्लेख), ३.७३(वारुणी देवी की मूर्ति का रूप), स्कन्द ३.२.१६(मातृका रूप वारुणी का माहात्म्य), हरिवंश २.४१.१३(वारुणी देवी का बलराम के प्रति समर्पण, कादम्बरी उपनाम ), लक्ष्मीनारायण ३.७५.८०, द्र. वरुण vaaruna/ varuna
वार्ता भागवत ३.१२.४४(ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न विद्याओं में से एक, द्र. टीका), १०.२४.२०(वैश्य की वार्ता वृत्ति होने का उल्लेख, वार्ता के ४ प्रकार)।
वार्ताक पद्म ४.२१.२७(वार्ताक से सुत नाश होने का उल्लेख ), हरिवंश २.७९.५७, vaartaaka/ vartaka
वार्तिका लक्ष्मीनारायण १.५४३.७२, ३.१२.३
वार्त्रघ्नी पद्म ६.१६८(वार्त्रघ्नी नदी तीर्थ का माहात्म्य, वार्त्रघ्नी में भस्मगात्र लिङ्ग की स्थिति, इन्द्र द्वारा वृत्र वध हेतु शक्ति की प्राप्ति),
वाल नारद १.१२४.७८(बालिशों द्वारा होलि करने का मन्त्र), ब्रह्माण्ड १.२.८.३६(वाल शब्द की निरुक्ति), ), कथासरित् ८.६.२१(अप्रशस्त वीणा के अन्दर से शुन: बाल निकलने का कथन), १४.२.१(नरवाहनदत्त का वीणादत्त गन्धर्व से मिलन, नरवाहनदत्त द्वारा वीणा में वालदोष निकालना ), द्र. कूप्यवाल, बाल , वल vaala/ vala
वालखिल्य अग्नि २०.१४(क्रतु व सन्नति के ६० हजार अंगुष्ठ पर्व मात्र पुत्रों की वालखिल्य संज्ञा), ब्रह्म २.३.१९(शिव विवाह में ब्रह्मा के वीर्य से वालखिल्यों की उत्पत्ति), भागवत ३.१२.४३(ब्रह्मा से उत्पन्न संन्यासियों के प्रकारों में से एक, द्र. टीका), ६.८.४०(वालखिल्यों द्वारा चित्ररथ गन्धर्व को ब्राह्मण की अस्थियां प्राची सरस्वती में प्रवाहित करने का निर्देश), मत्स्य १४५.९२(वालखिल्यों द्वारा तप से ऋषिता प्राप्ति का उल्लेख), शिव ७.१.१७.२९(क्रतु व सन्नति के ऊर्ध्वरेतस ६० हजार वालखिल्य पुत्रों का कथन, अनूरु का सूर्य के रथ के अग्रतः गमन), स्कन्द १.१.२६.१९(शिव-पार्वती विवाह में ब्रह्मा के स्खलित वीर्य से वालखिल्यों की उत्पत्ति, गन्धमादन पर्वत पर वास का कथन), ३.१.३८.७३(काश्यप द्वारा यज्ञसंभार आहरण हेतु वालखिल्यों का प्रेषण, गोष्पद जल में मज्जन पर इन्द्र द्वारा उपहास, वालखिल्यों द्वारा इन्द्र को काश्यप-पुत्र से भय का शाप), ४.२.७५.८१(वालखिल्येश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य : सर्व क्रतु फल की प्राप्ति, वाम में वाल्मीकेश्वर), ६.७९(दक्ष-यज्ञ में समिधा आहरण व गोष्पद-जल तरण में क्लेश पर इन्द्र द्वारा वालखिल्यों का उपहास, वालखिल्यों द्वारा शक्र को पराजित करने वाले पुत्र की कामना से आथर्वण मन्त्रों से अनुष्ठान, अनुष्ठान से गरुड की उत्पत्ति की कथा), महाभारत अनुशासन ८५.१०६(वरुण के यज्ञ में कुशोच्चय/कुशों के ढेर से वालखिल्यों की उत्पत्ति का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण १.१४४.५७(विष्णु द्वारा उपहास पर वालखिल्यों द्वारा विष्णु को वामन होने का शाप ), २.३८.६६(वनस्पति, नभस्पति व सरस्पति रूप में वालखिल्यों की कल्पना, पार्वती के शाप से वालखिल्यों का राक्षस बनना और जगत में काष्ठ, शिला व दन्त रूप में स्थित होना, उद्धार), द्र. बालखिल्य vaalakhilya/ valakhilya
वालि गरुड ३.२८.२२(पुरन्दर का अवतार), पद्म ५.१०७.३५, लिङ्ग १.२४.६०(१३वें द्वापर में मुनि), वायु २३.१५९(१३वें द्वापर में शिव अवतार), विष्णुधर्मोत्तर १.१८५.५(विष्णु की गदा द्वारा शक्र - पीडक वालि का वध), १.२५२.९(ऋक्ष - दुहिता व इन्द्र से वालि के जन्म का उल्लेख), स्कन्द १.३.१.६.७०(शक्र - पुत्र वाली द्वारा उदय पर्वत शिखर से अस्ताचल जाने का प्रयत्न, शोणाद्रि के कारण पतित होने आदि का कथन), ४.२.९७.४२(वालीश लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य – तिर्यक् योनि से मुक्ति), वा.रामायण १.१७.१०(इन्द्र का अंश ), ४.१२.१७(वालि व सुग्रीव के युद्ध की बुध व मङ्गल ग्रहों के युद्ध से तुलना), लक्ष्मीनारायण २.१९३.८, vaali/vali
वालुवाहिनी स्कन्द ५.३.४.४८(ऋक्षपादप्रसूता नदियों में से एक), ५.३.५.९(वालुवाहिनी संज्ञा के अर्थ का प्रश्न)
वाल्मीकि पद्म ५.१०.३६(राम के अश्वमेध में वाल्मीकि के अध्वर्यु बनने का उल्लेख), ५.५४(वाल्मीकि मुनि के आश्रम के समीप अश्वमेधीय हय का आगमन, लव द्वारा बंधन), ५.६६.१५०(निषाद द्वारा क्रौञ्च पक्षी के वध पर वाल्मीकि द्वारा श्लोक का कथन, रामायण का सृजन), ब्रह्म २.८४.१३(वाल्मीकि आश्रम के समीप लक्ष्मण द्वारा सीता का त्याग, लव व कुश द्वारा हयमेध में आकर रामचरित्र का गायन करने का कथन) , ब्रह्मवैवर्त्त २.४.५३(वाल्मीकि द्वारा नारायण से सरस्वती कवच की प्राप्ति), २.५.२३(वाल्मीकि द्वारा व्यास को पुराण सूत्र का कथन), २.५२.१६(वाल्मीकि द्वारा सुयज्ञ नृप से कृतघ्नता दोष का निरूपण), भविष्य ३.४.१०.५६(दुष्ट मृगव्याध ब्राह्मण का रूपान्तरित होकर वाल्मीकि बनना), भागवत ६.१८, मत्स्य १००, विष्णुधर्मोत्तर १.२४७, १.२४८.३०, ३.११९.५(वाल्मीकि की काव्यारम्भ में पूजा), ३.१२१.७(तमसा तीर पर वाल्मीकि की पूजा का निर्देश), स्कन्द २.७.२१(वाल्मीकि का व्याध रूप में शङ्ख से संवाद, ऋषित्व प्राप्ति), ३.२.२३(ब्रह्मा के सत्र में नोदक), ४.२.५४.५ (वाल्मीकि द्वारा काशी में कपर्दीश्वर की पूजा, भस्म द्वारा पिशाच का उद्धार), ४.२.७५.८२(वाल्मीकेश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य), ५.१.२४(दुष्ट - चरित्र अग्निशर्मा का अत्रि द्वारा बोध से वाल्मीकि बनना), ६.१२४(लोहजङ्घ विप्र का दस्यु बनना, सप्तर्षियों के कारण वाल्मीकि बनना), ७.१.२७८(शमी – पुत्र वैशाख द्वारा सप्तर्षियों के लुंठन की चेष्टा, जाटघोटा(जातिगोत्र?) मन्त्र के जप से वाल्मीकि ऋषि बनना), योगवासिष्ठ १.१.५३(वाल्मीकि द्वारा राजा अरिष्टनेमि को मोक्षोपाय रूप में वसिष्ठ - राम संवाद का कथन), वा.रामायण १.२(क्रौञ्च पक्षी के वध पर वाल्मीकि को शोक की उत्पत्ति, ब्रह्मा द्वारा राम काव्य रचना का आदेश), लक्ष्मीनारायण १.३२१.१९(राजा दृढधन्वा द्वारा वाल्मीकि से शुक पक्षी के कथन के गूढार्थ की पृच्छा, वाल्मीकि द्वारा राजा को उसके पूर्व जन्म के वृत्तान्त का वर्णन), १.४७९.३३(अग्निशर्मा नामक दस्यु द्विज के सप्तर्षियों की कृपा से वाल्मीकि ऋषि बनने का वृत्तान्त, वाल्मीकि द्वारा गोप बालक के रूप में कृष्ण के दर्शन ), कथासरित् ९.१.७३(वाल्मीकि द्वारा कुशों से कृत्रिम लव का निर्माण करने के कारण कुश की उत्पत्ति का वृत्तान्त), vaalmeeki/ valmiki
वाशर भविष्य ३.२.१३(वाशर राक्षस द्वारा चोर की सहायता, महाकाली मन्त्र से वाशर का हनन ), मत्स्य ५१.१९(कृशानु उपनाम वाली वाशर अग्नि के लिए कृशानु नाम, ८ पुत्रों का वर्णन ) vaashara
वाशीला लक्ष्मीनारायण २.१९३
वास अग्नि ९६.१२८(प्रतिमा - प्रतिष्ठा में गुरु आदि के साथ रात्रि में अधिवास कर्म, शब्दार्थ), ११५.६(कुरुक्षेत्र में वास की श्रेष्ठता का उल्लेख ), गरुड ३.२.३३(विष्णु शयन काल में श्री के पर्यङ्क व रमा के वास बनने का उल्लेख), नारद १.६३.८०, वामन ८९.४५(पुलस्त्य द्वारा वामन को सित वास देने का उल्लेख), ९०.३०(सुराष्ट} में विष्णु का महावास नाम), स्कन्द १.२.४.७९(, ५.३.२२३, द्र. कृत्तिवासेश्वर, जलवास, सिद्धवास vaasa
वासना भागवत ६.६.१३(अर्क वसु – भार्या, तृषा आदि की माता), स्कन्द ५.३.५१.३४, योगवासिष्ठ २.१६.३३(वासना रूपी नदी के शुभ - अशुभ रूपी तटों का निरूपण), ३.२२(श्रीदेवी - लीला के संवाद में वासना के सूक्ष्म होने का उपाय), ६.१.८०.७०(प्रसुप्त, प्रबुद्ध, सवासना, प्रक्षिप्त वासना वाले प्राणियों का कथन), ६.१.९४.५(वासना के चित्त का पर्याय होने का कथन), ६.२.७९(वासना भाव), लक्ष्मीनारायण १.३१९.६, १.३१९.१०६, १.५३३.७५(वासना की भुजङ्गिका संज्ञा), १.५३३.१२४(शरीर की वासना के दिव्य रूप में रति बनने का उल्लेख), ३.४५.२८, ४.२६.६१,(पद्मावती - पति आदि की शरण से वासना से मुक्ति का कथन ), ४.४४.६४, vaasanaa/ vasana
वासव देवीभागवत १.१०.१९(व्यास की वासवी - पुत्र संज्ञा), , वायु १.१.४२ वासवी vaasava/ vasava
वासवदत्ता कथासरित् २.३.६(वत्सराज उदयन द्वारा उज्जयिनी के राजा की कन्या वासवदत्ता को प्राप्त करने का वृत्तान्त), २.३.७९(वासवदत्ता के नाम का कारण), २.६.७(भ्राता गोपालक द्वारा वत्सराज का वासवदत्ता से विधिवत् विवाह सम्पन्न करना), ३.१.२१(मगधराज - कन्या पद्मावती से वत्सराज का विवाह कराने हेतु वासवदत्ता के अग्नि में दग्ध होने की मिथ्या सूचना प्रसारित करने की योजना), ४.१.३४(गौरी के वासवदत्ता रूप में अवतरित होकर कामांश को जन्म देने का कथन), ६.५.८१(वत्सराज के कलिङ्गसेना से प्रणय के समाचार पर वासवदत्ता की चिन्ता, मन्त्री यौगन्धरायण द्वारा युक्ति का कथन), ६.७.७५(मन्त्री यौगन्धरायण द्वारा वत्सराज को कलिङ्गसेना से विवाह न करने के लिए राजी करना ) vaasavadattaa/ vasavadatta
वासुकि अग्नि १११.१०(प्रयाग में वासुकि की भोगवती पुरी होने का उल्लेख - वासुकेर्भोगवत्यत्र हंसप्रपतनं परं ।), गणेश २.१००.११(मयूरेश्वर गणेश द्वारा वासुकि के दर्पनाश की कथा), गरुड १.१९७.१२(वासुकि की पार्थिव मण्डल में स्थिति, जलादि मण्डलों में अन्य नागों के नाम -वासुकिः शङ्खपालश्च स्थितौ पार्थिवमण्डले । कर्कोटः पद्मनाभश्च वारुणे तौ व्यवस्थितौ ॥.. ), देवीभागवत २.१२.३३(सर्पों की रक्षा के लिए वासुकि द्वारा स्वभगिनी जरत्कारु ऋषि को प्रदान का वर्णन ), पद्म ३.१५.३(शिव द्वारा त्रिपुरवध के संदर्भ में - गांडीवं मंदरं कृत्वा गुणं कृत्वा तु वासुकिम् । स्थानं कृत्वा तु वैशाखं विष्णुं कृत्वा शरोत्तमम्॥), ३.४१.४ (आप्रयागात्प्रतिष्ठानाद्धर्मकी वासुकी ह्रदात् । कंबलाश्वतरौ नागौ नागाश्च बहुमूलिकाः ॥), ५.११४.२६९ (शेषश्च वासुकिश्चैव सविषौ तव कंकणे), भविष्य १.३४.२२(वासुकि नाग का सोम ग्रह से साम्य, अन्य नाग अन्य ग्रह), २.१.७.५४(पुस्तक के त्रिदेव रूप व वासुकि के सूत्र रूप होने आदि का उल्लेख - त्रिदेवं पुस्तकं विद्यात्सूत्रं वासुकिरुच्यते ।।), ४.१३३(दोला में दण्डक रूप वासुकि का उल्लेख - वासुकिं दंडकस्थाने बद्ध्वा तांतवसप्रभम् ।। तत्फणामंतरापीठं कृतवान्मणिमंडितम् ।। ), भागवत ८.७.१( समुद्र मन्थन में वासुकि के नेत्र बनने का कथन), ८.७.१४(समुद्र मन्थन के संदर्भ में वासुकि की श्वासाग्नि से असुरों के त्रस्त होने का उल्लेख), मत्स्य १३३.४१( शिव द्वारा त्रिपुर दहन हेतु संवत्सर रूपी धनुष, उमा रूपी ज्या तथा विष्णु, सोम व अग्नि देवों से इषु की रचना; वासुकि नाग द्वारा इषु में विष का संचार - तस्मिंश्च वीर्य्यवृद्ध्यर्थं वासुकिर्नागपार्थिवः। तेजः सम्वसनार्थं वै मुमोचातिविषो विषम्।। ), १५४.४४४(शिव द्वारा वासुकि व तक्षक को कर्णोत्तंस बनाने का उल्लेख ) वराह २४.६(कश्यप के प्रधान नागपुत्रों में से एक), १८०.७३(अविधि श्राद्ध के फल की वासुकि को प्राप्ति), २१५.७५(मूलक्षेत्र में शिव के दर्शन में वासुकि द्वारा विघ्न का कथन), वायु ६९.३२२/२.८.३१५( सर्पों का राजा तक्षक तथा नागों का वासुकि होने का उल्लेख - सर्पाणां तक्षको राजा नागानाञ्चापि वासुकिः । ), विष्णुधर्मोत्तर ३.४८.१७(शिव स्वरूप में वासुकि के त्रैलोक्य शमन क्रोध होने का उल्लेख- त्रैलोक्यशमनः क्रोधो वासुकिर्नामतः स्मृतः ।।), स्कन्द १.१.२२.३(शिव द्वारा वासुकि को यज्ञोपवीत रूप में धारण करने का उल्लेख - यज्ञोपवितविधिना उरसा बिभ्रंत वृतम्॥ वासुकिं सर्पराजं च कंबलाश्वतरौ तथा॥ ), १.२.१३.१९१(शतरुद्रिय प्रसंग में वासुकि द्वारा विष लिङ्ग की शंकर नाम से पूजा का उल्लेख), ४.२.६६.८(वासुकीश्वर लिङ्ग का संक्षिप्त माहात्म्य - तत्र वासुकिकुंडे च स्नानदानादिकाः क्रियाः ।। सर्पभीतिहराः पुंसां वासुकीशप्रभावतः।।), ५.१.५१.८(शिव द्वारा भोगवतीपुरी में समस्त सुधापान पर वासुकि आदि नागों की चिन्ता), ५.३.९९.१(वासुकि द्वारा शंकर के नृत्य से उत्पन्न स्वेद का भक्षण, गङ्गा द्वारा शाप, नर्मदा स्नान से मुक्ति), ५.३.१३१.३०(शिव द्वारा वासुकि को अपने पार्श्व में स्थान देना, अन्य सर्पों को अभयदान), ७.१.१०७.१००(पाताल में ब्रह्मा की वासुकि नाम से स्थिति), ७.४.१७.३४ (वासुकि की द्वारका के उत्तर द्वार पर स्थिति का उल्लेख), वा.रामायण ४.४१.३८(कुञ्जर पर्वत पर भोगवती पुरी में वासुकि के निवास का उल्लेख ), ६.५९.२०(रावण - सेनानी कुम्भ के ध्वज पर पन्नगराज केतु का उल्लेख), लक्ष्मीनारायण २.२७.१०५(वासुकि पृष्ठ से दूर्वा की उत्पत्ति का उल्लेख), २.२८.१६(वासुकि जाति के नागों का मन्त्री बनना), कथासरित् १.६.१३(वासुकि के भ्राता- पुत्र से श्रुतार्था कन्या द्वारा गर्भ धारण करने का वृत्तान्त), २.१.८०(उदयन द्वारा वासुकि - भ्राता वसुनेमि की शबर से रक्षा पर वसुनेमि द्वारा दिव्य वीणा व ताम्बूली प्रदान करने का कथन), २.३.३(वत्सराज द्वारा दिन रात वासुकि - प्रदत्त घोषवती वीणा बजाने का उल्लेख), ९.५.२८(वासुकि - तनय प्रियदर्शन का संदर्भ), १२.५.३४(वासुकि द्वारा गन्धमाली को शाप देने का उल्लेख), १२.२३.१०० (वासुकि द्वारा तार्क्ष्य/गरुड को एक सर्प प्रतिदिन भक्षण हेतु देने की सन्धि ) vaasuki/ vasuki
वासुकि-एक
नागराज,
जो
आस्तीक के मामा तथा कश्यप और
कद्रू के पुत्र थे (
आदि०
३५ । ५)।
नागों की रक्षा के लिये इनके
द्वारा अपनी बहिन जरत्कारु
को जरत्कारु ऋषि की सेवा में
उनकी पत्नीरूप से समर्पण (आदि०
१४ । ६-७;
आदि०
४६
। २०-२३)।
समुद्र-मन्थन
के समय इनका मन्थनदण्ड की डोरी
होना (आदि०
१८
। १३)।
नागों द्वारा इनका नागराज-पद
पर अभिषेक (
आदि०
३६ । २५ के बाद दा० पाठ)।
माता के शाप से इनका चिन्तित
होना (
आदि०
३७ । ३-९;
आदि०
४८ । ३-८)।
माता के शाप से अपनी रक्षा
करने के उपाय पर इनका नागों
के साथ परामर्श (
आदि.
३७
। १०-३४)
।
एलापत्र नाग का इनको अपनी बहिन
का जरत्कारु ऋषि के साथ विवाह
करने की सलाह देना (
आदि०
३८
॥ १८-१९
)
।
ब्रह्माजी की आज्ञा से वासुकि
का जरत्कारु मुनि के साथ अपनी
बहिन को ब्याहने के लिये
प्रयत्नशील होना (आदि०
३९
अध्याय)।
सर्पयज्ञ में जलते हुए नागों
को देखकर उनकी रक्षा के लिये
भयभीत हुए इनका अपनी बहिन
जरत्कारु को आस्तीक से कहने
के लिये प्रेरित करना (
आदि०
५३
। २०-२६)।
इनके वंश के जले हुए नागों की
गणना (आदि०
५७ । ५-६)।
ये अर्जुन के जन्मसमय में वहाँ
पधारे थे (आदि.
१२२
। ७१)।
आर्यक के प्रार्थना करने पर
भीमसेन को दिव्यरस का पान
कराने के लिये इनका नागों को
आदेश देना (आदि०
१२७
। ६९)।
ये वरुण-सभा
में उपस्थित होकर उनकी उपासना
करते हैं (सभा०
९।८)।
अर्जुन ने कभी इनकी बहिन का
चित्त चुराया था (विराट
२।१४)।
आशीविषसमस्पर्शो
नागानामिव
वासुकिः
।
दृष्टीविष
इवाहीनामग्निस्तेजस्विनामिव
।।
-
(विराट
३.२४)।
ये त्रिपुरदाह के समय भगवान्
शङ्कर के धनुष की प्रत्यञ्चा
बने थे (द्रोण०
२०२
। ७६)।
साथ ही उनके रथ का कूबर भी बने
हुए थे (कर्ण०
३४ । २२)।
कर्ण और अर्जुन के द्वैरथ
युद्ध के समय ये अर्जुन की ही
विजय के समर्थक थे (कर्ण०
८७ । ४३)।
इनका नागधन्वातीर्थ निवासस्थान
है,
वहीं
देवताओं ने इनका नागराज के
पदपर अभिषेक किया था (
शल्य०
३७
। ३०-३२)
।
इनके द्वारा स्कन्द को जय और
महाजय नामक दो पार्षद प्रदान
(शल्य०
४५ । ५२५३)।
ये सात धरणीधरों में से एक हैं
-
धर्मः
कामश्च कालश्च वसुर्वासुकिरेव
च। अनन्तः कपिलश्चैव सप्तैते
धरणीधराः।।
(
अनु०
१५०
। ४१)।
बलरामजी के परमधामगमन के समय
ये उनके स्वागत में आये थे (
मौसल०
४ । १५)।
Comments on Vaasuki
वासुदेव
गरुड
३.१२.३३(वास्तुदेव
व
वासुदेव
में
साम्य?
- यावज्ज्ञानं
चास्ति
मे
वास्तुदेव
तावज्ज्ञानं
वासुदेवस्य
चास्ति
॥
यावज्ज्ञानं
वासुदेवस्य
चास्ति
तावज्ज्ञानं
ज्ञानवतामृजूनाम्
।..),
३.१६.६(माया-पति),
३.२९.५१(अन्नादि
अर्पण
काल
में
वासुदेव
के
स्मरण
का
निर्देश),
३.२९.६८(कर्म
पूर्ति
काल
में
वासुदेव
के
ध्यान
का
निर्देश),
नारद
१.४६.२३(वासुदेव
शब्द
की
निरुक्ति
-
सर्वाणि
तत्र
भूतानि
वसंति
परमात्मनि
॥
भूतेषु
वसनादेव
वासुदेवस्ततः
स्मृतः
॥..),
१.६६.८९(वासुदेव
की
शक्ति
लक्ष्मी
का
उल्लेख
-
वासुदेवश्च
लक्ष्मीयुक्
सङ्कर्षण
सरस्वती ),
पद्म
१.१९,
२.८६.८३(वासुदेव
की
निरुक्ति
:
ब्रह्माण्ड
जिसकी
वासना
से
वासित
है
?
- ब्रह्माण्डं
सर्वमतुलं
वासितं
यस्य
वासना।
स
तस्माद्वासुदेवेति
उच्यते
मम
नंदन॥),
२.९८(विज्वल
द्वारा
सुबाहु
राजा
की
मुक्ति
हेतु
वासुदेव
स्तोत्र
का
पठन),
६.२५१(काशिराज
पौण्ड्रक
द्वारा
शिव
अर्चना
से
वासुदेव
समान
रूप
प्राप्त
करना,
कृष्ण
वध
हेतु
कृत्या
प्रेषण,
कृष्ण
द्वारा
वध),
ब्रह्म
१.६७(अनन्त
वासुदेव
का
माहात्म्य,
विश्वकर्मा
द्वारा
मूर्ति
निर्माण,
रावण
द्वारा
इन्द्र
से
मूर्ति
का
हरण,
राम
को
मूर्ति
की
प्राप्ति,
कृष्ण
द्वारा
मूर्ति
की
पुन:
स्थापना),
१.७३(कृष्णजन्म
पर
वसुदेव
द्वारा
स्तुति),
१.११८(वासुदेव
की
मनु
वंश
में
उत्पत्ति,
माहात्म्य,
पूजा
फल),
२.४८,
ब्रह्मवैवर्त्त
४.१२.२५(वासुदेव
कृष्ण
से
वारुण
दिशा
की
रक्षा
की
प्रार्थना
-
वनमाली
पातु
याम्यां
वैकुंठः
पातु
नैर्ऋतौ
।।
वारुण्यां
वासुदेवश्च
सतो
रक्षाकरः
स्वयम्
।।),
४.११५.८२(वासुदेव
शब्द
की
निरुक्ति
-
वासुः
सर्वनिवासश्च
विश्वानि
यस्य
लोमसु
।
तस्य
देवः
परं
ब्रह्म
वासुदेव
इति
स्मृतः
।।),
४.१२१(शृगाल
राजा
वासुदेव
का
कृष्ण
द्वारा
मोक्ष),
मार्कण्डेय
३,
वामन
६१.५३(ब्रह्मा
द्वारा
साध्य
को
१२
पत्रक
योग
के
रूप
में
ओं
नमो
भगवते
वासुदेवाय
मन्त्र
के
न्यास
का
वर्णन
-
पितामहोऽपि
तं
पुत्रं
साध्यं
सद्विनयान्वितम्।
सनत्कुमारं
प्रोवाच
योगं
द्वादशपत्रकम्।।),
९०.२८(प्रजामुख
तीर्थ
में
विष्णु
का
वासुदेव
नाम
-
गोकर्णे
दक्षिणे
शर्वं
वासुदेवं
प्रजामुखे।),
विष्णु
६.५.८०(केशिध्वज
-
खाण्डिक्य
संवाद
में
वासुदेव
शब्द
की
निरुक्ति
-
सर्वाणि
तत्र
भूतानि
वसंति
परमात्मनि।
भूतेषु
च
स
सर्वात्मा
वासुदेवस्ततः
स्मृतः॥),
विष्णुधर्मोत्तर
१.२३७.४(वासुदेव
से
नेत्र
की
रक्षा
की
प्रार्थना),
३.८५(वासुदेव
की
मूर्ति
का
रूप),
३.१०६.३(वासुदेव
आवाहन
मन्त्र),
३.३४७,
शिव
४.१७,
स्कन्द
१.२.४२(नारद
द्वारा
स्थापित
वृद्ध
वासुदेव
तीर्थ
का
माहात्म्य,
ऐतरेय
की
कथा),४.१.२०.७(वासुदेव
शब्द
की
निरुक्ति),
४.२.६१.२३०(वासुदेव
की
मूर्ति
के
लक्षण),
६.१९२(ब्रह्मा
के
यज्ञ
के
प्रसंग
में
सावित्री
द्वारा
श्रीहरि
को
शाप),
महाभारत
शान्ति
३४१.४२,
लक्ष्मीनारायण
१.२६५.१२(वासुदेव
की
शक्ति
हरिणी
का
उल्लेख
),
१.४५५,
२.१५७.४४,
२.२६१.२६,
३.१७०.१२,
कथासरित्
१.१.५९,
१.३.३८,
१.७.२५,
५.२.६,
vaasudeva/ vasudeva
वास्तु अग्नि ४०(वास्तुमण्डलवर्ती देव पूजा विधि), ९३(वास्तु मण्डल में देव पूजा विधि), १०५(वास्तुमण्डल प्रतिष्ठा विधि), २४७(६४ पद के वास्तुमण्डल में देवताओं का विन्यास), ३६३.१(वास्तु शास्त्र में पर्यायवाची शब्दवर्ग), गरुड १.४६.१(एकाशीतिपदीय वास्तु मण्डल पूजा विधि), १.४६.२२ (६४ पदीय वास्तुमण्डल का कथन ), ३.१२.३३(वास्तुदेव व वासुदेव में साम्य? - यावज्ज्ञानं चास्ति मे वास्तुदेव तावज्ज्ञानं वासुदेवस्य चास्ति ॥यावज्ज्ञानं वासुदेवस्य चास्ति तावज्ज्ञानं ज्ञानवतामृजूनाम् ।), नारद १.५६.५६३(वास्तु भूमि हेतु मण्डल निर्माण व फल का कथन), १.५६.५६८(वास्तु पुरुष की मास अनुसार स्थिति), १.५६.६००(गृह प्रवेश हेतु वास्तु मण्डल पूजा विधि), ब्रह्मवैवर्त्त ४.१०३(द्वारका निर्माण के संदर्भ में विभिन्न दिशाओं में विभिन्न वृक्षारोपण का फल), ब्रह्माण्ड १.२.७.१०५(मार्ग, पुर आदि के मान का वर्णन), भविष्य २.१.१७.६(वास्तु याग में अग्नि का नाम प्रजापति - प्रजापतिर्वास्तुयागे मंडपे चापि पद्मके ।), २.२.१०(वास्तु याग वर्णन, वास्तु देवताओं के मन्त्र), २.२.११(वास्तु की देह में देवों की स्थिति), भागवत १०.४६.४४(गोप्यः समुत्थाय निरूप्य दीपान्वास्तून्समभ्यर्च्य दौधीन्यमन्थुन्) , मत्स्य २५२(वास्तु की शिव के ललाटस्वेद से उत्पत्ति, वास्तु द्वारा अन्धकों का रक्त पान, देवों द्वारा वास्तु का स्तम्भन), २५२.२(वास्तु शास्त्र के उपदेष्टा १८ ऋषियों के नाम), २५३(विभिन्न मासों व नक्षत्रों में गृहारम्भ का फल, वास्तु परीक्षा विधि, वास्तु चक्र का वर्णन), २५३.२१(वास्तुमण्डल के पदों में देवों का न्यास), २५५.२०(गृह की विभिन्न दिशाओं में शस्त वृक्षों के नाम व फल), २५६(सूत्रपात, स्तम्भोदय, शल्य आदि के अनुसार शुभाशुभ फल), २५६.११(वास्तु यज्ञ के प्रकार), २६८.९(वास्तुमण्डल के देवों हेतु बलिद्रव्य), विष्णुधर्मोत्तर २.२९.३५(६४ पद वास्तु मण्डल का देवों के अनुसार गृहकार्य हेतु विभाजन आदि), ३.९५(वास्तु की देह में देवों का प्रवेश, ६४ पद वास्तु मण्डल द्वारा शल्य ज्ञान, गृह के कक्षों का विशिष्ट कार्यों के लिए निर्धारण, धन का ज्ञान), स्कन्द ६.१३२(कात्यायन द्वारा निर्मित वास्तुपद तीर्थ का माहात्म्य, वास्तु महाभूत की उत्पत्ति, देवों द्वारा वास्तु पर विजय में असफलता, देवों का वास्तु शरीर में स्थित होना), लक्ष्मीनारायण १.५०१.१०२(वास्तु असुर की उत्पत्ति तथा पूजा द्वारा शान्ति का कथन ), २.१३६+, २.१४७.४८ (वास्तुपूजा विधि), २.२७९, ३.१५०.४१(वास्तु का ब्रह्मचर्य से साम्य? - ब्रह्मचर्यं स्थापयेच्च वास्तुदेवं सदैवतम् ।), vaastu/ vastu
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वाह वायु ६९.३३८/२.८.३३८(विनता की वाहशीला प्रकृति का उल्लेख), विष्णु ४.१४.९(श्वफल्क के ओजवाह, प्रतिवाह पुत्रों का उल्लेख), द्र. प्रवाहक
वाहन नारद १.९०.७२(वाहन सिद्धि हेतु केतकी पुष्पों से देवी पूजा का निर्देश), ब्रह्माण्ड ३.७.३३०, ३.४.२४.३९(दैत्यों के वाहन), मत्स्य १४८, वामन ९(देवों व असुरों के वाहन), विष्णुधर्मोत्तर १.२१५(नदियों के वाहन), २.१८३(धनुjर्वेदार्थ वाहन), ३.१०५(देवों के वाहन व आवाहन), ३.३१२(वाहन दान विधि), स्कन्द १.२.१६(ग्रसन, जम्भ, कुजम्भ, महिष, मेष, कालनेमि, मथन, जम्भक, शुम्भ के वाहन), महाभारत भीष्म १७, वा.रामायण ३.४२.७, लक्ष्मीनारायण २.२४५.५०, ३.१६.४९(विभिन्न देवों के वाहनों का कथन ), ३.१६.५५, द्र. घनवाहन, जीमूतवाहन, दधिवाहन, नरवाहन, पुष्पवाहन, मेघवाहन, सप्तवाहन, हव्यवाहन vaahana/ vahana
वाहीक भविष्य ३.३.३.१०(म्लेच्छों द्वारा दूषित भूमि का नाम आदि, त्रिपुर असुर का उत्पत्तिस्थान), स्कन्द ४.१.२८.४०(व्याघ्र द्वारा भ्रष्ट द्विज वाहीक के वध पर गृध्र द्वारा वाहीक की अस्थियों के गङ्गा में पात से वाहीक की मुक्ति), महाभारत कर्ण ४५.२३(वाहीकों/बाह्लीकों के पृथिवी का मल होने का उल्लेख), ४५.३७(वाहीक निवासियों के प्रतिरब्ध दोष का उल्लेख ), द्र. बाहीक vaaheeka/ vahika
वाह्लीक गरुड २.३०.५०/२.४०.५०(मृतक के घ्राण में वाह्लीक देने का उल्लेख ), द्र. बाह्लीक vaahleeka/ vahlika